सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) के सौलहवें अध्याय से अट्ठारहवें अध्याय तक (From the 16 chapter to the 18 chapter of the entire Mahabharata (Souptik Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत

सौप्तिक पर्व

सौलहवाँ अध्याय (ऐषिक पर्व)



(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) षोडशोऽध्यायः अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“श्रीकृष्णसे शाप पाकर अश्वत्थामाका वनको प्रस्थान तथा पाण्डवोंका मणि देकर द्रौपदीको शान्त करना”

     वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन् ! पापी अश्वत्थामाने अपना अस्त्र पाण्डवोंके गर्भपर छोड़ दिया, यह जानकर भगवान् श्रीकृष्णको बड़ी प्रसन्नता हुई। उस समय उन्होंने द्रोणपुत्रसे इस प्रकार कहा,-

    श्री कृष्ण ने कहा ;- 'पहलेकी बात है, राजा विराटकी कन्या और गाण्डीव धारी अर्जुनकी पुत्रवधू जब उपप्लव्यनगरमें रहती थी, उस समय किसी व्रतवान् ब्राह्मणने उसे देखकर कहा-

    ब्राह्मण ने कहा ;- 'बेटी ! जब कौरववंश परिक्षीण हो जायगा, तब तुम्हें एक पुत्र प्राप्त होगा और इसीलिये उस गर्भस्थ शिशुका नाम परिक्षित् होगा' 'उस साधु ब्राह्मणका वह वचन सत्य होगा। उत्तराका पुत्र परिक्षित् ही पुनः पाण्डववंशका प्रवर्तक होगा ?' सात्वतवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण जब इस प्रकार कह रहे थे, उस समय द्रोणकुमार अश्वत्थामा अत्यन्त कुपित हो उठा और उन्हें उत्तर देता हुआ बोला-

   अश्वत्थामा बोला ;- 'कमलनयन केशव ! तुम पाण्डवोंका पक्षपात करते हुए इस समय जैसी बात कह गये हो, बह कभी हो नहीं सकती । मेरा वचन झूठा नहीं होगा। श्रीकृष्ण ! मेरे द्वारा चलाया गया वह अस्त्र विराटपुत्री उत्तराके गर्भपर ही, जिसकी तुम रक्षा करना चाहते हो, गिरेगा‛

   श्रीभगवान् बोले ;- द्रोणकुमार ! उस दिव्य अस्त्रका प्रहार तो अमोध ही होगा। उत्तराका बह गर्भ मरा हुआ ही पैदा होगा; फिर उसे लंबी आयु प्राप्त हो जायगी, परंतु तुझे सभी मनीषी पुरुष कायर, पापी, बारंबार पापकर्म करनेवाला और बाल-हत्यारा समझते हैं। इसलिये तू इस पाप-कर्मका फल प्राप्त कर ले। आजसे तीन हजार वर्षोंतक तू इस पृथ्वीपर भटकता फिरेगा। तुझे कभी कहीं और किसीके साथ भी बातचीत करनेका सुख नहीं मिल सकेगा । तू अकेला ही निर्जन स्थानोंमें घूमता रहेगा।

    ओ नीच ! तू जनसमुदायमें नहीं ठहर सकेगा। तेरे शरीरसे पीव और लोहूकी दुर्गन्ध निकलती रहेगी; अतः तुझे दुर्गम स्थानोंका ही आश्रय लेना पड़ेगा। पापात्मन् ! तू सभी रोगोंसे पीड़ित होकर इधर-उधर भटकेगा । परिक्षित् तो दीर्घ आयु प्राप्त करके ब्रह्मचर्यपालन एवं वेदाध्ययनका व्रत धारण करेगा और वह शूरवीर बालक शरद्वान्‌के पुत्र कृपाचार्यसे ही सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करेगा। इस प्रकार उत्तम अर्कोका ज्ञान प्राप्त करके क्षत्रिय- धर्ममें स्थित हो साठ वर्षोंतक इस पृथ्वीका पालन करेगा।

    दुर्मते ! इसके बाद तेरे देखते-देखते महाबाहु कुरुराज परिक्षित् ही इस भूमण्डलका सम्म्राट् होगा। नराधम ! तेरी शस्त्राग्निके तेजसे दग्ध हुए उस बालक- को मैं जीवित कर दूँगा। उस समय तू मेरे तप और सत्यका प्रभाव देख लेना। 

    व्यासजीने कहा ;- द्रोणकुमार ! तूने इमलोगोंका अनादर करके यह भयंकर कर्म किया है, ब्राह्मण होनेपर भी तेरा आचार ऐसा गिर गया है और तूने क्षत्रियधर्मको अपना लिया है; इसलिये' देवकीनन्दन श्रीकृष्णने जो उत्तम बात कही है, वह सब तेरे लिये होकर ही रहेगी, इसमें संशय नहीं है ॥

    अश्वत्थामा बोला ;- ब्रह्मन् ! अब में मनुष्योंमें केवल आपके ही साथ रहूँगा। इन भगवान् पुरुषोत्तमकी बात सत्य हो। 

(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) षोडशोऽध्यायः अध्याय के श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद)

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;-  राजन् ! इसके बाद महात्मा पाण्डवोंको मणि देकर द्रोणकुमार अश्वत्थामा उदास मनसे उन सबके देखते-देखते वनमें चला गया। इधर जिनके शत्रु मारे गये थे, वे पाण्डव भी भगवान् श्रीकृष्ण, श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास तथा महामुनि नारदजीको आगे करके द्रोणपुत्रके साथ ही उत्पन्न हुई मणि लिये आमरण अनशनका निश्चय किये बैठी हुई मनस्विनी द्रौपदीके पास पहुँचनेके लिये शीघ्रतापूर्वक चले।

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन् ! भगवान् श्रीकृष्ण- सहित वे पुरुषसिंह पाण्डव वहाँसे वायुके समान वेगशाली उत्तम घोड़ोंद्वारा पुनः अपने शिविरमें आ पहुँचे। वहाँ रथोंसे उतरकर वे महारथी वीर बड़ी उतावलीके साथ आकर शोकपीड़ित द्रुपद‌कुमारी कृष्णासे मिले। वे स्वयं भी शोकसे अत्यन्त व्याकुल हो रहे थे। दुःख-शोफमें इयी हुई आनन्दशून्य द्रौपदीके पास पहुँचकर श्रीकृष्णसहित पाण्डव उसे चारों ओरते घेरकर बैठ गये।

   तब राजाकी आशा पाकर महाबली भीमसेन ने वह दिव्य मणि द्रौपदी के हाथमें दे दी और इस प्रकार कहा,-

    भीमसेन ने कहा ;- 'भद्रे ! यह तुम्हारे पुर्योका वध करने वाले अश्वत्थामा की मणि है। तुम्हारे उस शत्रुको हमने जीत लिया। अब शोक छोड़कर उठो और क्षत्रिय धर्मका स्मरण करो। 'कजरारे नेत्रोंवाली भोली-भाली कृष्णे! जब मधुसूदन श्रीकृष्ण कौरवोंके पास संधि करानेके लिये जा रहे थे, उस समय तुमने इनसे जो बातें कही थीं, उन्हें याद तो करो ।।

   'जब राजा युधिष्ठिर शान्तिके लिये संधि कर लेना चाहते थे, उस समय तुमने पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने बड़े कठोर वचन कहे थे,- 'गोबिन्द ! (मेरे अपमानको भुलाकर शत्रुओंके साथ संधि की जा रही हैं, इसलिये मैं समझती हूँ कि) न मेरे पति हैं, न पुत्र है। न भाई हैं और न तुम्हीं हो'। क्षत्रिय- धर्मके अनुसार कहे गये उन वचनोंको तुम्हें आज स्मरण करना चाहिये। हमारे राज्यका लुटेरा पापी दुर्योधन मारा गया और छटपटाते हुए दुःशासनका रक्त भी मैंने पी लिया। वैरका भरपूर बदला चुका लिया गया। अप कुछ कहनेकी इच्छा बाले लोग हमलोगोंकी निन्दा नहीं कर सकते। इसने द्रोण पुत्र अश्वत्थामाको जीतकर केवल ब्राह्वाण और गुरुपुत्र होने- के कारण ही उसे जीवित छोड़ दिया है ॥

      'देवि ! उसका सारा यश धूलमें मिल गया। केवल शरीर शेष रह गया है। उसकी मणि मी छीन ली गयी और उससे पृथ्वीपर हथियार डलवा दिया गया है'।

    द्रौपदी बोली ;- भरतनन्दन ! गुरुपुत्र तो मेरे लिये भी गुरुके ही समान हैं। मैं तो केवलं पुत्रोंके वधका प्रतिशोध लेना चाहती थी, वह पा गयी। अब महाराज इस मणि- को अपने मस्तकपर धारण करें, तब राजा युधिष्ठिरने वह मणि लेकर द्रौपदीके कथना- नुसार उसे अपने मस्तकार ही धारण कर लिया। उन्होंने उस मणिको गुरुका प्रसाद ही समझा। 

    उस दिव्य एवं उत्तम मणिको मस्तकपर धारण करके शक्तिशाली राजा युधिष्ठिर चन्द्रोदयकी शोभासे युक्त उदया- चलके समान सुशोभित हुए। तब पुत्रशोकसे पीड़ित हुई मनस्विनी कृष्णा अनशन छोड़कर उठ गयी और महाबाहु धर्मराजने भगवान् श्रीकृष्णसे एक बात पूछी। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिकपर्व के अन्तर्गत ऐषीकपर्वमें द्रौपदीकी सान्त्वनाविषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

सौप्तिक पर्व

सत्रहवाँ अध्याय (ऐषिक पर्व)

(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) सत्रहवें अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)

“अपने समस्त पुत्रों और सैनिकोंके मारे जानेके विषयमें युधिष्ठिरका श्रीकृष्णसे पूछन, और उत्तरमें श्रीकृष्णके द्वारा महादेवजीकी महिमाका प्रतिपादन”

    वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन् ! रातको सोते समय उन तीन महारथियोंने पाण्डवोंकी सारी सेनाओंका जो संहार कर डाला था, उसके लिये शोक करते हुए राजा युधिष्टिर ने दशाईनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा,

    युधिष्ठिर ने कहा ;- 'श्रीकृष्ण ! नीच एवं पात्रात्मा द्रोणकुमारने कोई विशेष तप या पुण्यकर्म भी तो नहीं किया था, जिससे उसमें अलौकिक शक्ति आ जाती। फिर उसने मेरे सभी महारथी पुर्योका वव कैसे कर डाला। 'द्रुपदके पुत्र तो अस्त्र-विश्याके पूरे पण्डितः पराक्रमी तथा लाखों योद्धाओंके साथ युद्ध करनेमें समर्थ थे तो भी द्रोणपुत्रने उन्हें मार गिराया, यह कितने आश्वर्यकी बात है। महाधनुर्धर द्रोणाचार्य युद्ध‌में जिसके सामने मुँह नहीं दिखाते थे, उसी रथियोंमें श्रेष्ठ धृष्टद्युम्नको अश्वत्थामाने कैसे मार डाला। नरश्रेष्ठ, आचार्यपुत्रने ऐसा कौन-सा उपयुक्त कर्म किया था, जिससे उसने अकेले ही समराङ्गणमें हमारे सभी सैनिकोंका वध कर डाला'।

     श्रीभगवान् बोले ;- राजन् ! निश्चय ही अश्वत्थामाने ईश्वरोंके भी ईश्वर देवाधिदेव अविनाशी भगवान् शिवकी शरण ली थी, इसीलिये उसने अकेले ही बहुत-से वीरोंका विनाश कर डाला। पर्वतपर शयन करनेवाले महादेवजी तो प्रसन्न होनेपर अमरत्व भी दे सकते हैं। वे उपासकको इतनी शक्ति दे देते हैं, जिससे वह इन्द्रको भी नष्ट कर सकता है। भरतश्रेष्ठ ! मैं महादेवजीको यथार्थरूपसे जानता हूँ। उनके जो नाना प्रकारके प्राचीन कर्म हैं, उनसे भी मैं पूर्ण परिचित हूँ।

    भरतनन्दन ! ये भगवान् शिव सम्पूर्ण भूर्तीके आदि मध्य और अन्त हैं। उन्हीं के प्रभावसे यह सारा जगत् भाँति- भाँतिकी चेष्टाएँ करता है। प्रभावशाली ब्रह्माजीने प्राणिर्योकी सृष्टि करनेकी इच्छासे सबसे पहले महादेवजीको ही देखा था। 

  तब पितामह ब्रह्माने उनसे कहा ;- 'प्रभो ! आप अविलम्ब सम्पूर्ण भूततॊकी सृष्टि कीजिये'। यह सुन महादेवजी 'तथास्तु' कहकर भूतगणोंके नाना प्रकारके दोष देख जलमें मग्न हो गये और महान् तपका आश्रय ले दीर्घकालतक तपस्या करते रहे। इधर पितामह ब्रझाने सुदीर्घकालतक उनकी प्रतीक्षा करके अपने मानसिक संकल्पसे दूसरे सर्वभूतस्रष्टा को उत्पन्न किया।

उस विराट् पुरुष या स्रष्टाने महादेवजीको जलमें सोया देख अपने पिता ब्रह्माजीसे कहा,

    स्रष्टाने कहा ;-- 'यदि दूसरा कोई मुझसे ज्येष्ठ न हो तो मैं प्रजाकी सृष्टि करूँगा' यह सुनकर पिता ब्रह्माने लष्ठाते कहा,

    ब्रह्मा जी बोले ;- 'तुम्हारे सिवा दूसरा कोई अमज पुरुष नहीं है। ये स्थाणु (शिव) हैं भी तो पानीमें डूबे हुए हैं; अतः तुम निश्चिन्त होकर सृष्टिका कार्य आरम्म करो'। तब स्रष्टाने सात प्रकारके प्राणियों और दक्ष आदि प्रजापतियों को उत्पन्न किया, जिनके द्वारा उन्होंने इस चार प्रकारके समस्त प्राणिसमुदाय का विस्तार किया। राजन् ! सृष्टि होते ही समस्त प्रजा भूखसे पीड़ित हो प्रजापतिको ही खा जानेकी इच्छासे सहसा उनके पास दौड़ी गयी। जब प्रजा प्रजापतिको अपना आहार बनानेके लिये उद्यत हुई, तब वे आत्मरक्षाके लिये बड़े वेगसे भागकर पितामह ब्रह्माजी की सेवामें उपस्थित हुए और बोले,

     प्रजापति बोले ;- 'भगवन् ! आप मुझे इन प्रजाओंसे बचाईये और इनके लिये कोई जीविका- वृत्ति नियत कर दीजिये।

तब ब्रह्माजीने उन प्रजाओंको अन्न और ओषधि आदि स्थावर वस्तुएँ जीवन-निर्वाहके लिये दी और अत्यन्त बलवान् हिंसक जन्तुओंके लिये दुर्बल जङ्गम प्राणियोंको ही आहार निश्चित कर दिया। जिनकी सृष्टि हुई थी, उनके लिये जब भोजनकी व्यवस्था कर दी गयी, तब वे प्रजावर्गके लोग जैसे आये थे, वैसे लौट गये। राजन् ! तदनन्तर सारी प्रजा अपनी ही योनियोंमें प्रसन्नतापूर्वक रहती हुई उत्तरोत्तर बढ़ने लगी । जब प्राणिसमुदायकी भलीभाँति वृद्धि हो गयी और लोक- गुरु ब्रह्मा भी संतुष्ट हो गये, तब वे ज्येष्ठ पुरुष शिव जलसे बाहर निकले । निकलनेपर उन्होंने इन समस्त प्रजाओंको देखा।

     अनेक रूपवाली प्रजाकी सृष्टि हो गयी और वह अपने ही तेजसे भलीभाँति बढ़ भी गयी। यह देखकर भगवान् रुद्र कुपित हो उठे और उन्होंने अपना लिङ्ग काटकर फेंक दिया इस प्रकार भूमिपर डाला गया वह लिङ्ग उसी रूपमें प्रतिष्ठित हो गया। तब अबिनाशी ब्रह्माने अपने वचनोंद्वारा उन्हें शान्त करते हुए-से कहा-

    ब्रह्मा जी ने कहा ;- 'रुद्रदेव ! आपने दीर्घकालतक जलमें स्थित रहकर कौन- सा कार्य किया है? और इस लिङ्गको उत्त्पन्न करके किसलिये पृथ्वीपर डाल दिया है। यह प्रश्न सुनकर कुपित हुए जगद्‌गुरु शिवने ब्रह्माजी से कहा,

   शिव जी बोले ;-- 'प्रजाकी सृष्टि तो दूसरेने कर डाली; फिर इस लिङ्गको रखकर मैं क्या करूँगा। पितामह ! मैंने जलमें तपस्या करके प्रजाके लिये अन्न प्राप्त किया है। वे अन्नरूप ओषधियाँ प्रजाओंके ही समान निरन्तर विभिन्न अवस्थाओंमें परिणत होती रहेंगी'। ऐसा कह‌कर क्रोधमें भरे हुए महातपस्वी महादेवजी उदास मनसे मुञ्जवान् पर्वतकी घाटीपर तपस्या करनेके लिये चले गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिकपर्वके अन्तर्गत ऐषीकपर्वमें युधिष्ठिर और श्रीकृष्णका संवादविषयक सतरहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

सौप्तिक पर्व

अट्ठारहवाँ अध्याय (ऐषिक पर्व)

(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) अट्ठारहवें अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)

“महादेवजीके कोपसे देवता, यज्ञ और जगत्‌की दुरवस्था तथा उनके प्रसादसे सबका स्वस्थ होना”

    श्रीभगवान् बोले ;- तदनन्तर सत्ययुग बीत जानेपर देवताओंने विधिपूर्वक भगवान्का यजन करनेकी इच्छासे वैदिक प्रमाणके अनुसार यज्ञकी कल्पना की । तत्पश्चात् उन्होंने यशके साधनों, हविर्यो, यशभागके अधिकारी देवताओं और यशोपयोगी द्रव्योंकी कल्पना की, नरेश्वर ! उस समय देवता भगवान् रुद्रको ययार्थ- रूपसे नहीं जानते थे; इसलिये उन्होंने 'स्थाणु' नामधारी भगवान् शिवके भागकी कल्पना नहीं की, जब देवताओंने यज्ञमें उनका कोई भाग नियत नहीं किया, तब व्याघ्रचर्मधारी भगवान् शिवने उनके दमनके लिये साधन जुटानेकी इच्छा रखकर सबसे पहले धनुषकी सृष्टि की।

      लोकयश, क्रियायज्ञ, सनातन गृहयज्ञ, पञ्चभूतयश और मनुष्ययश- ये पाँच प्रकारके यश हैं। इन्हींसे यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न होता है। मस्तक पर जटाजूट धारण करनेवाले भगवान् शिवने लोकयश और मनुष्ययशोंसे एक धनुषका निर्माण किया । उनका वह धनुष पाँच हाथ लंधा बनाया गया था। भरतनन्दन ! बषट्‌कार उस धनुषकी प्रत्यञ्चा था। यशके चारों अङ्ग स्नान, दान, होम और जप उन भगवान् शिबके लिये कवच हो गये। तदनन्तर कुपित हुए, महादेवजी उस धनुषको लेकर उसी स्थानपर आये, जहाँ देवतालोग यज्ञ कर रहे थे, उन ब्रह्मचारी एवं अविनाशी रुद्रको हाथमें धनुष उठाये देख पृथ्वीदेवीको बड़ी व्यथा हुई और पर्वत भी काँपने लगे।

    इवाकी गति रुक गयी, आग समिधा और घी आदिसे जलानेकी चेष्टा की जानेपर भी प्रज्वलित नहीं होती थी और आकाशमें नक्षत्रोंका समूह उद्विग्न होकर घूमने लगा। सूर्य भी पूर्णतः मकाशित नहीं हो रहे थे, चन्द्रमण्डल भी श्रीहीन हो गया था तथा सारा आकाश अन्धकारते व्याप्त हो रहा था। उससे अभिभूत होकर देवता किसी विषयको पहचान नहीं पाते थे, वह यज्ञ भी अच्छी तरह प्रतीत नहीं होता था। इससे सारे देवता भयसे थर्रा उठे। 

    तदनन्तर रुद्रदेवने भयंकर बाणके द्वारा उस यशके हृदयमें आघात किया। तब अग्निसहित यश मृगका रूप धारण करके वहाँसे भाग निकला। वह उसी रूपसे आकाशमें पहुँचकर (मृगशिरा नक्षत्रके रूपमें) प्रकाशित होने लगा। युधिष्ठिर! आकाशमण्डलमें रुद्रदेव उस दशामें भी (आर्द्रा नक्षत्रके रूपमें) उसके पीछे लगे रहते हैं।

    यशके वहाँसे हट जानेपर देवताओंकी चेतना इप्त-सी हो गयी। चेतना लुप्त होनेसे देवताओंको कुछ भी प्रतीत नहीं होता था। उस समय कुपित हुए त्रिनेत्रधारी भगवान् शिवने अपने धनुषकी कोटिसे सविताकी दोनों बाँहें काट डालीं, भग- की आँखें फोड़ दी और पूषाके सारे दाँत तोड़ डाले। तदनन्तर सम्पूर्ण देवता और यशके सारे अङ्ग वहाँसे पलायन कर गये। कुछ वहीं चक्कर काटते हुए प्राणहीन-से हो गये। वह सब कुछ दूर इटाकर भगवान् नीलकण्ठने देवताओं- का उपहास करते हुए धनुषकी कोटिका सहारा ले उन सब को रोक दिया।

    तत्पश्चात् देवताओंद्वारा प्रेरित हुई वाणीने महादेवजी के भनुपकी प्रत्यञ्चा काट डाली। राजन् ! सहसा प्रत्यञ्चा कट. जानेपर वह धनुष उछलकर गिर पड़ा। तब देवता यज्ञको साथ लेकर धनुपरहित देवश्रेष्ठ महादेवजी की शरणर्मे गये। उस समय भगवान् शिवने उन सब पर कृपा की।

     इसके बाद प्रसन्न हुए भगवान्‌ने अपने क्रोधको समुद्रमें स्थापित कर दिया। प्रभो! वह क्रोध वडवानल बनकर निरन्तर उसके जलको सोखता रहता है। पाण्डुनन्दन ! फिर भगवान् शिवने भगको आँखें, सविता- को दोनों बाँहें, पूषाको दाँत और देवताओंको यश प्रदान किये।

     तदनन्तर यह सारा जगत् पुनः सुस्थिर हो गया। देव- ताओंने सारे हविष्योंर्मेसे महादेवजीके लिये भाग नियत किया। राजन् ! भगवान् शङ्करके कुपित होनेपर सारा जगत् डाँवाडोल हो गया था और उनके प्रसन्न होनेपर वह पुनः सुस्थिर हो गया। वे ही शक्तिशाली भगवान् शिव अश्वत्थामा- पर प्रसन्न हो गये थे। इसीलिये उसने आपके सभी महारथी पुत्रों तथा पाञ्चालराजका अनुसरण करनेवाले अन्य बहुत-से शूरवीरोंका बघ किया है।

     अतः इस बातको आप मनमें न लावें। अश्वत्थामाने यह कार्य अपने बलसे नहीं, महादेवजीकी कृपासे सम्पन्न किया है। अब आप आगे जो कुछ करना हो, वही कीजिये 

(इस प्रकार श्रीमहामारत सौप्तिकपर्वके अन्तर्गत ऐषीकपर्वमें अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

[सौप्तिक पर्व समाप्त]

 सौप्तिक पर्व की सम्पूर्ण श्लोक संख्या  810

 अब “स्त्री पर्व ”आरंभ होता है 


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