सम्पूर्ण महाभारत
सौप्तिक पर्व
ग्यारहवाँ अध्याय (ऐषिक पर्व)
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“युधिष्ठिर का शोक में व्याकुल होना, द्रौपदी का विलाप तथा द्रोणकुमार के वध के लिये आग्रह, भीमसेन का अश्वत्थामा को मारने के लिये प्रस्थान”
वैशम्पायनजी कहते है ;- जनमेजय ! अपने पुत्रों, पौत्रों ओर मित्रों को युद्ध में मारा गया देख राजा युधिष्ठिर का हृदय महान् दुःख संतप्त हो उठा । उस समय पुत्रों, पौत्रों, भाइयों और खजनों का स्मरण करके उन महात्मा के मन में महान् शोक प्रकट हुआ । उनकी आँखे आँसुओं से भर आयी, शरीर कांपने लगा और चेतना लुप्त होने लगी । उनकी ऐसी अवस्था देख उनके सुदृढ अत्यन्त व्याकुल हो उस समय उन्हें सान्त्वना देने लगे । इसी समय सामर्थ्यशाली नकुल सूर्य के समान तेजस्वी रथ के द्वारा शोक से अत्यन्त पीडित हुई कृष्णा को साथ लेकर वहां आ पहुंचे । उस समय द्रौपदी उपप्लव्य नगर में गयी हुई थी, वहां अपने सारे पुत्रों के मारे जाने का अत्यन्त अप्रिय समाचार सुन कर वह व्यथित हो उठी थी । राजा युधिष्ठिर के पास पहुंचकर शोक से व्याकुल हुई कृष्णा हवा से हिलायी गयी कदली के समान कम्पित हो पृथ्वी पर गिर पडी । प्रफुल्ल कमल के समान विशाल एवं मनोहर नेत्रों वाली द्रौपदी का सुख सहसा शोक से पीडित हो राहु के द्वारा ग्रस्त हुए सूर्य के समान तेजोहीन हो गया ।
उसे गिरी हुई देख क्रोध में भरे हुए सत्यपराक्रमी भीमसेन ने उछलकर दोनों बांहों से उसको उठा लिया और उस मालिनी पत्नी को धीरज बंधाया। उस समय रोती हुई कृष्णा ने भरतनन्दन पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर से कहा,
द्रोपदी बोली ;- राजन् ! सौभाग्य की बात है कि आप क्षत्रिय धर्म के अनुसार अपने पुत्रों को यमराज की भेंट चढाकर यह सारी पृथ्वी पा गये और अब इसका उपभोग करेगे । कुन्तीनन्दन ! सौभाग्य से ही आपने कुशलपूर्वक रहकर इस मत मातंगामिनी सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य प्राप्त कर लिया, अब तो आपको सुभद्राकुमार अभिमन्यु की भी याद नहीं आयेगी । अपने वीर पुत्रों को क्षत्रिय धर्म के अनुसार मारा गया सुनकर भी आप उप्लव्य नगर में मेरे साथ रहते हुए उन्हें सर्वथा भूल जायेंगे, यह भी भाग्य की ही बात है । पार्थ ! पापाचारी द्रोणपुत्र के द्वारा मेरे सोये हुऐ पुत्रों का वध किया गया, यह सुनकर शोक मुझे उसी प्रकार संतप्त कर रहा है, जैसे आग अपने आधारभूत काष्ठ को ही जला डालती है । यदि आज आप रणभूमि में पराक्रम प्रकट करके सगे सम्बन्धियों सहित पापाचारी द्रोणकुमार के प्राण नहीं हर लेते है तो मैं यही अनशन करके अपने जीवन का अन्त कर दूंगी । पाण्डवों ! आप सब लोग इस बात को कान खोलकर सुन ले । यदि अश्वत्थामा अपने पापकर्म का फल नहीं पा लेता है तो मैं अवश्य प्राण त्याग दूंगी । ऐसा कहकर यशस्विनी द्रुपदकुमारी कृष्णा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर के सामने ही अनशन के लिये बैठ गयी । अपनी प्रिय महारानी परम सुन्दरी द्रौपदी को उपवास के लिये बैठी देख धर्मात्मा राजर्षि युधिष्ठिर ने उससे कहा,
युधिष्ठिर ने कहा ;- शुभे ! तुम धर्म को जानने वाली हो । तुम्हारे पुत्रों और भाईयों ने धर्मपूर्वक युद्ध करके धर्मानुकूल मृत्यु प्राप्त की है, अतः तुम्हें उनके लिये शोक नहीं करना चाहिये । कल्याणि ! द्रोणकुमार तो यहां से भागकर दुर्गम वन में चला गया है। शोभने ! यदि उसे युद्ध में मार गिराया जाय तो भी तुम्हें इसका विश्वास कैसे होगा? ।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) एकादश अध्याय केश्लोक 20-31 का हिन्दी अनुवाद)
द्रौपदी बोली ;- महाराज ! मैंनें सुना है कि द्रोण पुत्र के मरतक में एक मणि है जो उसके जन्म के साथ ही पैदा हुई है। उस पापी को युद्ध में मारकर यदि वह मणि ला दी जायगी तो मैं उसे देख लूगीं राजन्! इस मणि को आपके सिर पर धारण करा कर ही मैं जीवन धारण का सकूंगी ऐसा मेरा दृढ निश्चय है । पाण्डुपुत्र राजा युधिष्ठिर से ऐसा कहकर सुन्दरी कृष्णा भीमसेन के पास आयी और यह उत्तम वचन बोली प्रिय भीम! आप क्षत्रिय-धर्म का स्मरण करके मेरे जीवन की रक्षा कर सकते हैं।
वीर ! जैसे इन्द्र ने शम्बरासुर को मारा था उसी प्रकार आप भी उस पापकर्मी अश्वत्थामा का वध करें । इस संसार में कोई भी पुरुष पराक्रम में आपकी समानता करने वाला नहीं है। । यह बात सम्पूर्ण जगत् में प्रसिद्ध है कि वारणावतनगर में जब कुन्ती के पुत्रों पर भारी संकट पड़ा था तब आप ही द्वीप के समान उनके रक्षक हुए थे । इसी प्रकार हिडिम्बासुर से भेंट होने पर भी आप ही उनके आश्रयदाता हुए विराट नगरमें जब कीचक ने मुझे बहुत तंग कर दिया तब उस महान् संकट में आपने मेरा भी उसी तरह उद्धार किया जैसे इन्द्र ने शचीका किया था । शत्रुसूदन पार्थ ! जैसे पूर्वकाल में ये महान् कर्म आपने किये थे,उसी प्रकार इस द्रोणपुत्र को भी मारकर सुखी हो जाइये । दुःख के कारण द्रौपदी का यह भांति भांति का विलाप सुनकर महाबली कुन्ती कुमार भीमसेन इसे सहन न कर सके । वे द्रोणपुत्र के वध का निश्चय करके सुवर्णभूषित विचित्र अंगों वाले रथ पर आरूढ़ हुए । उन्होंने बाण और प्रत्यंचा सहित एक सुन्दर एवं विचित्र धनुष हाथ में लेकर नकुल को सारथि बनाया तथा बाणसहित धनुष को फैलाकर तुरंत ही घोडों को हंकवाया ।
पुरुषसिंह नरेश ! नकुल के द्वारा हांके गये वे वायु के समान वेगवाले शीघ्रगामी घोडे़ बडी उतावली के साथ तीन गति से चल दिये । भरतनन्दन ! छावनी से बाहर निकलकर अपनी टेक से न टलने वाले भीमसेन अश्वत्थामा के रथ का चिन्ह देखते हुए उसी मार्ग से शीघ्रतापूर्वक आगे बढे, जिससे द्रोणपुत्र अश्वत्थामा गया था ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिक पर्व के अन्तर्गत ऐषिक पर्व में अश्वत्थामा के वध के लिये भीमसेन का प्रस्थानविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सौप्तिक पर्व
बारहवाँ अध्याय (ऐषिक पर्व)
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) द्वाद्वश अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीकृष्ण का अश्वत्थामा की चपलता एवं क्रुरता के प्रसंग में सुदर्शन चक्र माँगने की बात सुनाते हुए उससे भीमसेन की रक्षा के लिये प्रयत्न करने का आदेश देना”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन् ! दुर्धर्ष वीर भीमसैन के चले जाने पर यदुकुलतिलक कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर से कहा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- पाण्डुनन्दन ! ये आपके भाई भीमसेन पुत्रशोक में मग्न होकर युद्ध में द्रोणकुमार के वध की इच्छा से अकेले ही उस पर धावा कर रहे है । भरतश्रेष्ठ ! भीमसेन आपको समस्त भाइयों से अधिक प्रिय है, किंतु आज से संकट में पड़ गये है । फिर आप उनकी सहायता के लिये जाते ही क्यों नहीं है। शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाले द्रोणाचार्य ने अपने पुत्र को जिस ब्रह्मशिर नामक अस्त्र का उपदेश दिया है, वह समस्त भूमण्डल को भी दुग्ध कर सकता है । सम्पूर्ण धनुर्धरों के सिरमौर महाभाग महात्मा द्रोणाचार्य ने प्रसन्न होकर वह अस्त्र पहले अर्जुन को दिया था । अश्वत्थामा इसे सहन न कर सका । वह उनका एकलौता पुत्र था, अतः उसने भी अपने पिता से उसी अस्त्र के लिये प्रार्थना की । तब आचार्य ने अपने पुत्र को उस अस्त्र का उपदेश कर दिया, किंतु इससे उनका मन अधिक प्रसन्न नहीं था ।
उन्हें अपने दुरात्मा पुत्र की चपलता ज्ञात थी, अतः सब धर्मों के ज्ञाता आचार्य ने अपने पुत्र को इस प्रकार शिक्षा दी । बेटा ! बड़ी से बडी आपत्ति में पड़ने पर भी तुम्हें रणभूमि में विशेषतः मनुष्यों पर इस अस्त्र का प्रयोग नहीं करना चाहिये । नरश्रेष्ठ ! अपने पुत्र से ऐसा कहकर गुरू द्रोण पुनः उससे बोले,
द्रोण बोले ;- बेटा ! मुझे संदेह है कि तुम कभी सत्पुरुषों के मार्ग पर स्थिर नहीं रहेागे । पिता के इस अप्रिय वचन को सुन और समझकर दुष्टात्मा द्रोणपुत्र सब प्रकार के कल्याण की आशा छोड़ बैठा और बडे़ शोक से पृथ्वी पर विचरने लगा । भरतनन्दन ! कुरूश्रेष्ठ ! तदनन्तर जब तुम वन में रहते थे, उन्हीं दिनों अश्वत्थामा द्वारका में आकर रहने लगा । वहां वृष्णिवंशियों ने उसका बड़ा सत्कार किया । एक दिन द्वारका में समुद्र के तट पर रहते समय उसने अकेले ही मुझ अकेले के पास आकर हंसते हुए से कहा,
अश्वत्थामा ने कहा ;- दर्शार्हनन्दन ! श्रीकृष्ण ! भरतवंश के आचार्य मेरे सत्यपराक्रमी पिता ने उस तपस्या करके महर्षि अगस्तय से जो ब्रह्मस्त्र प्राप्त किया था, वह देवताओं और गन्धर्वों द्वारा सम्मानित अस्त्र इस समय जैसा मेरे पिता के पास है, वैसा ही मेरे पास भी है, अतः यदुश्रेष्ठ ! मुझसे वह दिव्य अस्त्र लेकर रणभूमि में शत्रुओं का नाश करने वाला अपना चक्रनामक अस्त्र मुझे दे दीजिये । भरतश्रेष्ठ ! वह हाथ जोड़कर बडे़ प्रयत्न के द्वारा मुझसे अस़्त्र की याचना कर रहा था, तब मैंने भी प्रसन्नतापूर्वक ही उससे कहा,
श्री कृष्ण बोले ;- ब्रह्मन् ! देवता, दानव, गन्धर्व, मनुष्य, पक्षी और नाग ये सब मिलकर मेरे पराक्रम के सौवे अंश की भी समानता नहीं कर सकते। यह मेरा धनुष है, यह शक्ति है, यह चक्र है और यह गदा है । तुम जो जो अस्त्र मुझसे लेना चाहते हो, वही वह तुम्हें दिये देता हूं। । तुम मुझे जो अस्त्र देना चाहते हो, उसे दिये बिना ही रणभूमि में मेरे जिस आयुध को उठा अथवा चला सको, उसे ही ले लो । तब उस महाभाग ने मेरे साथ स्पर्धा रखते हुए मुझसे मेरा वह लोहमय चक्र मांगा, जिसकी सुन्दर नाभि में वज्र लगा हुआ है तथा जो एक सहस्र अरोसे सुशोमित होता है !
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) द्वाद्वश अध्याय के श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद)
मैंने भी कह दिया,- ले लो चक्र, मेरे इतना कहते ही उसने सहसा उछलकर बायें हाथ से चक्र को पकड़ लिया । परंतु वह उसे अपनी जगह से हिला भी न सका । तब उसने उसे दाहिने हाथ से उठाने का प्रयत्न प्रारम्भ किया । सारा प्रयत्न और सारी शक्ति लगाकर भी जब उसे पकडकर उठा अथवा हिला न सका, तब द्रोणकुमार मन ही मन बहुत दुखी हो गया । भारत ! यत्न करके थक जाने पर वह उसे लेने की चेष्टा से निवृत्त हो गया । जब उस संकल्प से उसका मन हट गया और वह दुःख से अचेत एवं उद्विग्न हो गया, तब मैंने अश्वत्थामा को बुलाकर पूछा,
श्री कृष्ण ने कहा ;- ब्रह्मन् ! जो मनुष्य समाज में सदा ही परम प्रामाणिक समझे जाते हैं, जिनके पास गाण्डीव धनुष और श्वेत घोडे है, जिनकी ध्वजा पर श्रेष्ठ वानर विराजमान होता है, जिन्होंने द्वन्दयुद्ध में साक्षात् देवदेवेश्वर नीलकण्ठ उमावल्लम भगवान् शंकर को पराजित करने का साहस करके उन्हें संतुष्ट किया था, इस भूमण्डल में मुझे जिनसे बढकर परम प्रिय दूसरा कोई मनुष्य कर्म करने वाले मेरे पास स्त्री, पुत्र आदि कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जो देने योग्य न हो, अनायास ही महान् कर्म करने वाले मेरे उस प्रिय सृदृढ़ कुन्तीकुमार अर्जुन ने भी पहले कभी ऐसी बात नहीं की थी, जो आज तुम मुझसे कह रहे हो । मूढ़ ब्राह्मण ! मैंने बारह वर्षो तक अत्यन्त घोर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करके हिमालय की घाटी में रहकर बड़ी भारी तपस्या के द्वारा जिसे प्राप्त किया था, मेरे समान व्रत का पालन करने वाली रूक्मिणीदेवी के गर्भ से जिसका जन्म हुआ है, जिसके रूप में साक्षात् तेजस्वी सनत्कुमार ने ही मेरे यहां अवतार लिया है, वह प्रद्युम्न मेरा प्रिय पुत्र है । परंतु रणभूमि में जिसकी कही तुलना नहीं है, मेरे इस परम दिव्य चक्र को कभी उस प्रद्युम्न ने भी नहीं माँगा था, जिसकी आज तुमने माँग की है ।
अत्यन्त बलशाली बलरामजी ने भी पहले कभी ऐसी बात नहीं कही है । जिसे तुमने माँगा है, उसे गद और साम्बने भी कभी लेने की इच्छा नहीं की । द्वारका में निवास करने वाले जो अन्य वृष्णि तथा अन्धकवंश के महारथी है, उन्होंने भी कभी मेरे सामने ऐसा प्रस्ताव नहीं किया था, जैसा कि तुमने इस चक्र को माँगते हुए किया है । तात ! रथियों में श्रेष्ठ ! तुम तो भरतकुल के आचार्य के पुत्र हो । सम्पूर्ण यादवों ने तुम्हारा बड़ा सम्मान किया है । फिर बताओ तो सही, इस चक्र के द्वारा तुम किसके साथ युद्ध करना चाहते हो ? । जब मैंने इस तरह पूछा, तब द्रोणकुमार ने मुझे इस प्रकार उत्तर दिया,
अश्वत्थामा ने कहा ;- श्रीकृष्ण ! मैं आपकी पूजा करके फिर आपके ही साथ युद्ध करूँगा । प्रभो ! मैं यह सच कहता हूँ कि मैंने इस देव दानवपूजित चक्र को आप से इसीलिये माँगा था कि इसे पाकर अजेय हो जाऊँ । किंतु केशव ! अब मैं अपनी इस दुर्लभ कामना को आपसे प्राप्त किये बिना ही लौट जाऊँगा । गोविन्द ! आप मुझसे केवल इतना कह दे कि तेरा कल्याण हो । यह चक्र अत्यन्त भयंकर है और आप भी भचानक वीरों के शिरोमणि है । आपके किसी विरोधी के पास ऐसा चक्र नहीं है । आपने ही इसे धारण कर रखा है । इस भूतल पर दूसरा कोई पुरुष इसे नहीं उठा सकता । मुझसे इतना ही कहकर द्रोणकुमार अश्वत्थामा रथ में जोतने योग्य घोडे़, धन तथा नाना प्रकार के रत्न लेकर वहाँ से यथासमय लौट गया । वह क्रोधी, दुष्टात्मा, चपल और क्रुर है । साथ ही उसे ब्रह्मस्त्र का भी ज्ञान है, अतः उससे भीमसेन की रक्षा करनी चाहिये ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिक पर्व के अन्तर्गत ऐषिक पर्व में युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवादविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सौप्तिक पर्व
तैरहवाँ अध्याय (ऐषिक पर्व)
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) तेरहवे अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीकृष्ण, अर्जुन और युधिष्ठिरका मीमसेनके पीछे जाना, भीमका गङ्गातटपर पहुँचकर अश्वत्थामाको ललकारना और अश्वत्थामाके द्वारा ब्रह्मास्त्रका प्रयोग”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन् ! सम्पूर्ण यादवकुल को आनन्दित करनेवाले योद्धाओंमें श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्ण ऐसा कहकर समस्त श्रेष्ठ आयुर्थोसे सम्पन्न उत्तम रथपर आरूढ़ हुए, उसमें सोनेकी माला पहने हुए अच्छी जातिके काबुली घोड़े जुते हुए थे। उस श्रेष्ठ रथकी कान्ति उदयकालीन सूर्य- के समान अरुण थी। उसकी दाहिनी धुराका बोझ शैव्य ढो रहा था और बायींका सुग्रीव। उन दोनोंके पार्श्वभागमें क्रमशः मेघपुष्प और बळाहक जुते हुए थे। उस रथपर बिश्वकर्माद्वारा निर्मित तथा रत्नमय धातुओंसे विभूषित दिव्य ध्वजा दिखामी दे रही थी, जो ऊँचे उठी हुई मायाके समान प्रतीत होती थी।
उस ध्वजापर प्रभापुञ्ज एवं किरणोंसे सुशोभित विनता- नन्दन गरुड़ विराज रहे थे। सपोंके शत्रु गरुड़ सत्यवान् श्रीकृष्णके रथकी पताकाके रूपमें दृष्टिगोचर हो रहे थे, सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण पहले उस रथपर सवार हुए । तत्पश्चात् सत्य रराक्रमी अर्जुन तथा कुरुराज युधिष्ठिर उस रथपर बैठे।
वे दोनों महात्मा पाण्डव रथपर स्थित हुए शार्ङ्ग धनुष- धारी दशाईकुलनन्दन श्रीकृष्णके समीप विराजमान हो इन्द्र- के पास बैठे हुए दोनों अश्विनीकुमारोंके समान सुशोभित हो रहे थे। उन दोनों माइयोंको उस लोकपूजित रथपर चढ़ाकर दशाईनंशी औ कृष्णने वेगशाली उत्तम अश्वोंको चाबुकसे हाँका। वे घोड़े दोनों पाण्डों तथा यदुकुलतिलक श्रीकृष्णकी सवारीमें आये हुए उस उत्तम रथको लेकर सहसा उड़ चले। शार्ङ्गधन्वा श्रीकृष्णकी सवारी ढोते हुए उन शीघ्रगामी अश्वोंका महान् शब्द उड़ते हुए पक्षियोंके समान प्रकट हो रहा था।
भरतश्रेष्ठ ! वे तीनों नरश्रेष्ठ बड़े वेगते पीछे-पीछे दौड़ कर क्षणभरमें महाधनुर्धर भीमसेनके पास जा पहुँचे। इस समय कुन्तीकुमार भीमसेन क्रोधसे प्रज्वलित हो शत्रुका संहार करनेके लिये तुले हुए थे। इसलिये वे तीनों महारथी उनसे मिलकर भी उन्हें रोक न सके, उन सुदृढ़ धनुर्धर तेजस्वी वीरोंके देखते-देखते वे अत्यन्त बेगशाली घोड़ोंके द्वारा भागीरथीके तटपर जा पहुँचे, जहाँ उन महात्मा पाण्डवों के पुत्रोंका वध करनेवाला अश्वत्थामा बैठा सुना गया था।
वहाँ जाकर उन्होंने गङ्गाजी के जलके किनारे परम यशस्वी महात्गा श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यासको अनेकौ महर्षियोंके साथ बैठे देखा। उनके पास ही बद क्रूरकर्मा द्रोणपुत्र भी बैठा दिखायी दिया। उसने अपने शरीरमें घी लगाकर कुश का चीर पहन रक्खा था। उसके सारे अनोपर धूल छा रही थी ॥ कुन्तीकुमार महाबाहु भीमसेन बाणसहित धनुष लिये उसकी ओर दौड़े और बोले,
भीमसेन बोले ;- अरे खड़ा रह, खड़ा रह', अश्वत्थामाने देखा कि भयंकर धनुर्धर भीमसेन हाथमें धनुष लिये आ रहे हैं। उनके पीछे श्रीकृष्णके रथपर बैठे हुए दो भाई और हैं। यह सब देखकर द्रोणकुमारके हृदयमें बड़ी व्यथा हुई। उस घबराहट में उसने यही करना उचित समझा, उदारहृदय अश्वत्थामाने उस दिव्य एवं उत्तम अस्त्रका चिन्तन किया। साथ ही बायें हाथसे एक सींक उठा ली,
दिव्य आयुध धारण करके खड़े हुए उन शुरवीरोंका आना वह सहन न कर सका। उस आपत्तिमें पढ़कर उसने रोपपूर्वक दिव्यास्त्रका प्रयोग किया और मुखसे कठोर बचन निकाला कि 'यह अख्न समस्त पाण्डवोंका विनाश कर डाले'। नृपश्रेष्ठ ! ऐसा कहकर प्रतापी द्रोणपुत्रने सम्पूर्ण लोको को मोहमें डालनेके लिये वह अस्त्र छोड़ दिया।
तदनन्तर उस सींकमें काल, अन्तक और यमराजके समान मयंकर आग प्रकट हो गयी। उस समय ऐसा जान पड़ा कि वह अग्नि तीनों लोकोंको जलाकर भस्म कर डालेगी।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिकपर्वके अन्तर्गत ऐषिक पर्व में अश्वत्थामाके द्वारा ब्रह्मास्त्रका प्रयोगविषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सौप्तिक पर्व
चौदहवाँ अध्याय (ऐषिक पर्व)
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) चतुर्दशोऽध्यायः अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“अश्वत्थामाके अस्त्रका निवारण करनेके लिये अर्जुनके द्वारा ब्रह्मास्त्रका प्रयोग एवं वेदव्यासजी और देवर्षि नारदका प्रकट होना”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन् । दशार्हनन्दन महाबाहु भगवान् श्रीकृष्ण अश्वत्थामाकी चेष्टासे ही उसके मनका भाव पहले ही ताड़ गये थे। उन्होंने अर्जुनसे कहा,-
श्री कृष्ण ने कहा ;- अर्जुन ! अर्जुन ! पाण्डुनन्दन ! आचार्य द्रोणका उपदेश किया हुआ जो दिव्य अस्त्र तुम्हारे हृदयमें विद्यमान है, उसके प्रयोग का अब यह समय आ गया है। भरतनन्दन ! भाइयोंकी और अपनी रक्षाके लिये तुम भी युद्धमें इस ब्रह्मास्त्रका प्रयोग करो। अश्वत्थामा के अस्त्र का निवारण इसीके द्वारा हो सकता है'। भगवान् श्रीकृष्ण के ऐसा कहनेपर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले पाण्डुपुत्र अर्जुन धनुष-वाण हाथमें लेकर तुरंत ही रथसे नीचे उतर गये।
शत्रुओंको संताप देनेवाले अर्जुनने सबसे पहले यह कहा कि 'आचार्यपुत्रका कल्याण हो' । तत्पश्चात् अपने और सम्पूर्ण भाइयोंके लिये मङ्गल-कामना करके उन्होंने देवताओं और सभी गुरुजनोंको नमस्कार किया। इसके बाद 'इस ब्रह्मास्त्रसे शत्रुका ब्रह्मास्त्र शान्त हो जाय' ऐसा संकल करके सबके कल्याणकी भावना करते हुए अपना दिव्य अस्त्र छोड़ दिया। गाण्डीवधारी अर्जुनके द्वारा छोड़ा गया वह ब्रह्मास्त्र सहसा प्रज्वलित हो उठा। उससे प्रलयाग्निके समान बड़ी बड़ी लपटें उठने लगीं।
इसी प्रकार प्रचण्ड तेजस्वी द्रोणपुत्रका वह अन भी तेजोमण्डलसे घिरकर बड़ी-बड़ी ज्वालाओंके साथ जलने लगा, उस समय बारंबार वज्रशतके समान शब्द होने लगे, आकाशते सहस्रों उल्काएँ टूट-टूटकर गिरने लगीं और समस्त प्राणियोपर महान् भय छा गया।
सारा आकाश आगकी प्रचण्ड ज्वालाओं से व्याप्त हो उठा और वहाँ जोर-जोर से शब्द होने लगा। पर्वतः वन और वृक्षौसहित सारी पृथ्वी हिलने लगी। उन दोनों अत्रोंके तेज समस्त लोकोंको संतप्त करते हुए वहाँ स्थित हो गये। उस समय वहाँ सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा नारद तथा भरतवंशके पितामद्द व्यास इन दो महर्षियोंने एक साथ दर्शन दिया, सम्पूर्ण धमोंके ज्ञाता तथा समस्त प्राणियोंके हितैषी वे दोनों परम तेजस्वी मुनि अश्वत्थामा और अर्जुन-इन दोनों वीरोंको शान्त करनेके लिये इनके प्रज्वलित अस्त्रोंके बीचमें खड़े हो गये।
उन अस्त्रोंके बीचमें आकर वे दुर्धर्ष एवं यशस्वी महर्षि- प्रवर दो प्रज्वलित अग्नियों के समान वहाँ स्थित हो गये, कोई भी प्राणी उन दोनोंका तिरस्कार नहीं कर सकता था। देवता और दानव दोनों ही उनका सम्मान करते थे । वे समस्त लोकोंके हितकी कामनासे उन अस्त्रों के तेजको शान्त कराने के लिये वहाँ आये थे।
उन दोनों ऋषियोंने उन दोनों वीरोंसे कहा ;- धीरो ! पूर्वकालमें भी जो बहुत-से महारथी हो चुके हैं, वे नाना प्रकारके शस्त्रोंके जानकार थे, परंतु उन्होंने किसी प्रकार भी मनुष्योंपर इस अस्त्रका प्रयोग नहीं किया था। तुम दोनोंने यह महान् विनाशकारी दुःसाइस क्यों किया है ?
(इस प्रकार श्रीमहामारत सैष्ठिकपर्वके अन्तर्गत ऐषिक पर्व में अर्जुनके द्वारा ब्रह्माखका प्रयोगविषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
सौप्तिक पर्व
पन्द्रहवाँ अध्याय (ऐषिक पर्व)
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) पञ्चदशोऽध्यायः अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“वेदव्यासजीकी आज्ञासे अर्जुनके द्वारा अपने अस्त्रका उपसंहार तथा अश्वत्थामाका अपनी मणि देकर पाण्डवोंके गर्भोपर दिव्यास्त्र छोड़ना”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- नरश्रेष्ठ ! उन अग्निके समान तेजस्वी दोनों महर्षियोंको देखते ही गाण्डीवधारी महारथी अर्जुन ने समयोचित कर्त्तव्यका विचार करके बड़ी फुर्तीसे अपने दिव्यास्त्रका उपसंहार आरम्भ किया। भरतश्रेष्ठ ! उस समय उन्होंने हाथ जोड़कर उन दोनों महर्षियोंसे कहा,
अर्जुन ने कहा ;- मुनिवरो ! मैंने तो इसी उद्देश्यसे यह अस्त्र छोड़ा था कि इसके द्वारा शत्रुका छोड़ा हुआ ब्रह्मास्त्र शान्त हो जाय। अब इस उत्तम अस्त्रको लौटा लेनेपर पापा- चारी अश्वत्थामा अपने अनके तेजसे अवश्य ही हम सब लोगोंको भस्म कर डालेगा, 'आप दोनों देवताके तुल्य हैं। अतः इस समय जैसा करनेसे हमारा और सब लोगोंका सर्वथा हित हो, उसीके लिये आप हमें सलाह दें'।
ऐसा कहकर अर्जुनने पुनः उस अस्त्रको पीछे लौटा लिया। युद्धमें उसे लौटा लेना देवताओंके लिये भी दुष्कर था। संग्राममें एक बार उस दिव्य अस्त्रको छोड़ देनेपर पुनः उसे लौटा लेनेमें पाण्डुपुत्र अर्जुनके सिवा साक्षात् इन्द्र भी समर्थ नहीं थे। वह अस्त्र ब्रह्मतेजसे प्रकट हुआ था। यदि अजितेन्द्रिय पुरुषके द्वारा इसका प्रयोग किया गया हो तो उसके लिये इसे पुनः लौटाना असम्भव है; क्योंकि ब्रह्मचर्य व्रतका पालन किये बिना कोई इसे लौटा नहीं सकता। जिसने ब्रह्मचर्यका पालन नहीं किया हो, यह पुरुष यदि उसका एक बार प्रयोग करके उसे फिर लौटानेका प्रयत्न करे तो वह अख्न सगे-सम्बन्धितयों सहित उसका सिर काट लेता था। अर्जुनने ब्रह्मचारी तथा व्रतधारी रहकर ही उस दुर्लभ अस्त्रको प्राप्त किया था। वे बड़े-से-बड़े सङ्कटमें पड़नेपर भी कभी उस अस्त्रका प्रयोग नहीं करते थे।
सत्यव्रतधारी, ब्रह्मचारी, शूरवीर पाण्डव अर्जुन गुरुकी आज्ञाका पालन करनेवाले थे; इसलिये उन्होंने फिर उस अस्त्रको लौटा लिया। अश्वत्थामाने भी जब उन ऋषिर्योको अपने सामने खड़ा देखा तो उस घोर अस्त्रको बलपूर्वक लौटा लेनेका प्रयत्न किया, किंतु वह उसमें सफल न हो सका। राजन् ! युद्धमें उस दिव्य अस्त्रका उपसंहार करनेमें समर्थ न होनेके कारण द्रोणकुमार मन-ही-मन बहुत दुखी हुआ और व्यासजीसे इस प्रकार बोला,
अश्वत्थामा बोला ;- 'मुने ! मैंने भीमसेनके भयसे भारी संकट में पड़कर अपने प्राणोंको बचाने के लिये ही यह अख्न छोड़ा था। 'भगवन् ! दुर्योधनके वधकी इच्छासे इस भीमसेनने संग्रामभूमिमें मिथ्याचारका आश्रय लेकर महान् अधर्म किया था। 'ब्रह्मन् ! यद्यपि मैं जितेन्द्रिय नहीं हूँ, तथापि मैंने इस अस्त्रका प्रयोग कर दिया है। अब पुनः इसे लौटा लेनेकी शक्ति मुझमें नहीं है। 'मुने ! मैंने इस दुर्जय दिव्यास्त्रको अग्निके तेजते युक्त एवं अभिमन्त्रित करके इस उद्देश्यसे छोड़ा था कि पाण्डवों का नामो-निशान मिट जाय।
(सम्पूर्ण महाभारत (सौप्तिक पर्व) पञ्चदशोऽध्यायः अध्याय के श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद)
'पाण्डयोंके विनाशका संकल्प लेकर छोड़ा गया यह दिव्यास्त्र आज समस्त पाण्डुपुत्रोंको जीवनशून्य कर देगा, 'ब्रह्मन् ! मैंने मनमें रोष भरकर रणभूमिमें कुन्तीपुत्रोंके वधकी इच्छासे इस अस्त्रका प्रयोग करके अवश्य ही बड़ा भारी पाप किया है'।
व्यासजीने कहा ;- तात! कुन्तीपुत्र धनंजय भी तो इस ब्रह्मास्त्रके ज्ञाता हैं; किंतु उन्होंने रोषमें भरकर युद्धमें तुम्हें मारनेके लिये उसे नहीं छोड़ा है। देखो, रणभूमिमें अपने अस्त्रद्वारा तुम्हारे अस्त्रको शान्त करनेके उद्देश्यसे ही अर्जुनने उसका प्रयोग किया था और अब पुनः उसे लौटा लिया है।
इस ब्रह्मास्त्रको पाकर भी महाबाहु अर्जुन तुम्हारे पिताजी का उपदेश मानकर कभी क्षात्रधर्मसे विचलित नहीं हुए हैं। वे ऐसे धैर्यवान्, साधु, सम्पूर्ण अस्त्रोंके ज्ञाता तथा सत्पुरुष हैं, तथापि तुम भाई-बन्धुओंसहित इनका वध करनेकी इच्छा क्यों रखते हो ? जिस देशमें एक ब्रह्मास्त्रको दूसरे उत्कृष्ट अन्नसे दद्या दिया जाता है, उस राष्ट्रमें चारह वर्षोंतक वर्षा नहीं होती है। इसीलिये प्रजावर्गके हितकी इच्छासे महाबाहु अर्जुन शक्तिशाली होते हुए भी तुम्हारे इस अस्त्रको नष्ट नहीं कर रहे हैं ।।
महाबाहो ! तुम्हें पाण्डवोंकी, अपनी और इस राष्ट्रकी भी सदा रक्षा ही करनी चाहिये। इसलिये तुम अपने इस दिव्यास्त्र को लौटा लो, तुम्हारा रोष शान्त हो और पाण्डव भी स्वस्थ रहें। पाण्डुपुत्र राजर्षि युधिष्ठिर किसीको भी अधर्मसे नहीं जीतना चाइते हैं। तुम्हारे सिरमें जो मणि है, इसे आज इन्हें दे दो। इस मणिको ही लेकर पाण्डव बदले में तुम्हें प्राणदान देंगे।
अश्वत्थामा बोला ;- पाण्डवोंने अबतक जो-जो रत्न प्राप्त किये हैं तथा कौरवोंने भी यहाँ जो धन पाया है, मेरी यह मणि उन सबसे अधिक मूल्ययान् है। इसे बाँध लेनेपर शस्त्र, व्याधि, क्षुधा, देवता, दानव अथवा नाग किसीसे भी किसी तरहका भय नहीं रहता।
न राक्षसोंका भय रहता है न चोरोंका। मेरी इस मणि- का ऐसा अद्भुत प्रभाव है। इसलिये मुझे इसका त्याग तो किसी प्रकार भी नहीं करना चाहिये, परंतु आप पूज्यपाद महर्षि मुझे जो आज्ञा देते हैं उसी- का अब मुझे पालन करना है, अतः यह रही मणि और यह रहा मैं। किंतु यह दिव्यास्त्रते अभिमन्त्रित की हुई सींक तो पाण्डवोंके गर्भस्थ शिशुओंपर गिरेगी ही; क्योंकि यह उत्तम अस्त्र अमोघ है। भगवन् ! इस उठे हुए अस्त्रको मैं पुनः लौटा लेने में असमर्थ हूँ।
महामुने ! अतः यह अस्त्र मैं पाण्डवोंके गर्भोपर ही छोड़ रहा हूँ। आपकी आशाका में कदापि उल्लङ्घन नहीं करूँगा।
व्यासजीने कहा ;-- अनघ अच्छा ऐसा ही करो। अब अपने मनमें दूसरा कोई विचार न लाना। इस अस्त्रको पाण्डवोंके गर्भोपर ही छोड़कर शान्त हो जाओ।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन् ! व्यासजीका यह वचन सुनकर द्रोणकुमारने युद्धमें उठे हुए उस दिव्यास्त्रको पाण्डवोंके गोंपर ही छोड़ दिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिकपर्व के अन्तर्गत ऐषिक पर्व में ब्रह्मास्त्रका पाण्डत्रोंके गर्भमें प्रवेशविषयक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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