सम्पूर्ण महाभारत
स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)
प्रथम अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्री पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
“धृतराष्ट्र का विलाप और संजय का उनको सान्त्वना देना”
“अन्तर्यामी नारायणस्वरुप भगवान् श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरुप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करने वाली) भगवती सरस्वती और (उनकी लीलाओं का संकलन करने वाले ) महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके जय (महाभारत ) का पाठ करना चाहिये”
जनमेजय ने पूछा ;– मुने ! दुर्योधन और उनकी सारी सेना का संहार हो जानेपर महाराज धृतराष्ट्र ने जब इस समाचार को सुना तो क्या किया ? इसी प्रकार कुरुवंशी राजा महामनस्वी धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने तथा कृपाचार्य आदि तीनों महारथियों ने भी इसके बाद क्या किया ? अश्वत्थामा को श्रीकृष्ण से और पाण्डवों को अश्वत्थामा से जो परस्पर शाप प्राप्त हुए थें, वहाँ तक मैंने अश्वत्थामा की करतूत सुन ली ।अब उसके बाद का वृत्तान्त बताइये कि संजय ने धृतराष्ट्र से क्या कहा ?
वैशम्पायनजी बोले ;– राजन् ! अपने सौ पुत्रों के मारे जाने पर राजा धृतराष्ट्र की दशा वैसी ही दयनीय हो गयी, जैसे समस्त शाखाओं के कट जाने पर वृक्ष की हो जाती है । वे पुत्रों के शोक से संतप्त हो उठे । महाराज ! उन्ही पुत्रों का ध्यान करते–करते वे मौन हो गये, चिन्ता में डूब गये । उस अवस्था में उनके पास जाकर संजय ने इस प्रकार कहा,
संजय ने कहा ;– ‘महाराज ! आप क्यों शोक कर रहे हैं ? इस शोक में जो आपकी सहायता कर सके, आपका दु:ख बँटा ले, ऐसा भी तो कोई नहीं बच गया है । प्रजानाथ ! इस युद्ध में अठाइस अक्षौहिणी सेनाएँ मारी गयी हैं । ‘इस समय यह पृथ्वी निर्जन होकर केवल सूनी सी दिखायी तेती है । नाना देशों के नरेश विभिन्न दिशाओं से आकर आपके पुत्र के साथ ही सब–के–सब काल के गाल में चले गये हैं । ‘राजन् ! अब आप क्रमश: अपने चाचा, ताऊ, पुत्र, पौत्र, भाई–बन्धु, सह्रद् तथा गुरुजनों के प्रेत कार्य सम्पन्न कराइये’ ।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;– नरेश्वर ! संजय की यह करुणा जनक बात सुनकर बेटों और पोतों के वध से व्याकुल हुए दुर्जय राजा धृतराष्ट्र आँधी के उखाड़े हुए वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़े ।
धृतराष्ट्र बोले ;– संजय ! मेरे पुत्र, मन्त्री और समस्त सुह्रद मारे गये। अब तो अवश्यही मैं इस पृथ्वी पर भटकता हुआ केवल दु:ख–ही–दु:ख भोगूँगा । जिसकी पाँखें काट ली गयी हों, उस जराजीर्ण पक्षी के समान बन्धु–बान्धवों से हीन हुए मुझ वृद्ध को अब इस जीवन से क्या प्रयोजन है। महामते ! मेरा राज्य छिन गया, बन्धु–बान्धव मारे गये और आँखे तो पहले से ही नष्ट हो चुकी थीं । अब मैं क्षीण किरणों वाले सुर्य के समान इस जगत् में प्रकाशित नहीं होऊँगा । मैंने सुह्रदों की बात नहीं मानी, जमदग्रिनन्दन परशुराम, देवर्षि नारद तथा श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास सबने हित की बात बतायी थी, पर मैंने किसी की नहीं सुनी। श्रीकृष्ण ने सारी सभा के बीचमें मेरे भले के लिये कहा था,
श्री कृष्ण ने कहा ;– ‘राजन् ! वैर बढ़ाने से आपकोक्या लाभ है ? अपने पुत्रों को रोकिये’। उनकी उस बात को न मानकर आज मैं अत्यन्त संतप्त हो रहा हूँ । मेरी बुद्धि बिगड़ गयी थी ।
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्री पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 15-33 का हिन्दी अनुवाद)
हाय ! अब मैं भीष्मजी की धर्मयुक्तबात नहीं सुन सकूँगा । साँड़ के समान गर्जने वाले दुर्योधन के वीरोचित वचन भी अब मेरे कानों में नहीं पड़ सकेंगे । दु:शासन मारा गया, कर्ण का विनाश हो गया और द्रोणरूपी सूर्य पर भी ग्रहण लग गया, यह सब सुनकर मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है । संजय ! इस जन्म में पहले कभी अपना किया हुआ कोई ऐसा पाप मुझे नहीं याद आ रहा है, जिसका मुझ मूढ़ को आज यहाँ यह फल भोगना पड़ रहा है । अवश्य ही मैंने पूर्वजन्मों में कोई ऐसा महान् पाप किया है, जिससे विधाताने मुझे इन दु:खमय कर्मों में नियुक्त कर दिया है । अब मेरा बुढ़ापा आ गया, सारे बन्धु–बान्धवों का विनाश हो गया और दैववश मेरे सुहृदों तथा मित्रों का भी अन्त हो गया । भला, इस भूमण्डल में अब मुझसे बढ़कर महान् दुखी दूसरा कौन होगा ? इसलिये कठोर व्रत का पालन करने वाले पाण्डव लोग मुझे आज ही ब्रह्म लोक के खुले हुए विशाल मार्ग पर आगे बढ़ते देखें ।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;– राजन् ! इस प्रकार राजा धृतराष्ट्र जब बहुत शोक प्रकट करते हुए बारंबार लिाप करने लगे, तब संजय ने उनके शोक का निवारण करने के लिये यह बात कही,
संजय ने कहा ;– ‘नृपश्रेष्ठ राजन् ! आपने बडे़–बूढ़ों के मुख से वे वेदों के सिद्धान्त, नाना प्रकार के शास्त्र एवं आगम सुने हैं, जिन्हें पूर्वकाल में मुनियों ने राजा सृंजय को पुत्र–शोक से पीड़ित होने पर सुनाया था, अत: आप शोक त्याग दीजिये। ‘नरेश्वर ! जब आपका पुत्र दुर्योधन जवानी के घमंड में आकर मनमाना बर्ताव करने लगा, तब आपने हित की बात बताने वाले सुहृदों के कथन पर ध्यान नहीं दिया। उसके मन में लोभ था और वह राज्यका सारालाभ स्वयंही भेगना चाहताथा, इसलिये उसने दूसरे किसी को अपने स्वार्थ का सहायक नहीं बनाया। एक ओर धारवाली तलवार के समान अपनी ही बुद्धि से सदा काम लिया । प्राय: जो अनाचारी ममनुष्य थे, उन्हीं का निरन्तर साथ किया। ‘दु:शासन,दुरात्मा राधा पुत्र कर्ण, दुष्टात्मा शकुनि, दुर्बुद्धि चित्रसेन तथा जिन्होंने सारे जगत् को शल्यमय (कण्टकाकीर्ण) बना दिया था, वे शल्य–ये ही लोग दुर्योधन के मन्त्री थे ।
‘महाराज ! महाबहो ! भरतनन्दन ! कुश्रकुल के ज्ञान वृद्ध पुरुष भीष्म, गान्धारी, विदुर, द्रोणाचार्य, शरद्वान् के पुत्र कुपाचार्य, श्रीकृष्ण, बुद्धिमान देवर्षि नारद, अमिततेजस्वी वेदव्यास तथा अन्य महर्षियों की भी बातें आपके पुत्र ने नहीं मानीं । ‘वह सदा युद्ध की ही इच्छज्ञ रखता था; इसलिये उसने कभी किसी धर्म का आदरपूर्वक अनुष्ठान नहीं किया। वह मन्दबुद्धि और अहंकारी था; अत: नित्य युद्ध–युद्ध ही चिल्लाया करता था । उसके हृदय में क्रूरता भरी थी । वह सदा अमर्ष में भरा रहने वाला,पराक्रमी और असंतोषी था (इसीलिये उसकी दुर्गति हुई है) । ‘आप तो शास्त्रों के विद्वान, मेधावी और सदा सत्य में तत्पर रहने वाले हैं । आप जैसे बुद्धिमान् एवं साधु पुरुष मोह के वशीभूत नहीं होते हैं । ‘मान्यवर नरेश ! आपके उस पुत्र ने किसी भी धर्म का सत्कार नहीं किया । उसने सारे क्षत्रियों का संहार करा डाला और शुत्रओं का यश बढ़ाया ।
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्री पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 34-44 का हिन्दी अनुवाद)
आप भी मध्यस्थबनकर बैठे रहे, उसे कोई उचित सलाह नहीं दी । आप दुर्धर्ष वीर थे आपकी बात कोई टाल नहीं सकताथा,तो भी आपने दोनों ओर के बोशे को समाभाव से तराजू पर नहीं तौला । ‘मनुष्यको पहले ही यथायोग्य बर्ताव करना चाहिये, जिससे आगे चलकर उसे बीती हुई बात के लिये पश्चाताप न करना पड़े ।
‘राजन् ! आपने पुत्र के प्रति आसक्ति रखनेके कारण सदा उसी का प्रिय करना चाहा, इसीलिये इस समय आपको यह पश्चाताप का अवसर प्राप्त हुआ है; अत: अब आप शोक न करें । ‘जो केवल ऊँचे स्थान पर लगे हुए मधु को देखकरवहाँ से गिरने की सम्भावना की ओर से आँख बंद कर लेता है, वह उस मधु के लालच से नीचे गिरकर इसी तरह शोक करता है, जैसे आप कर रहे हैं । ‘शोक करने वाला मनुष्य अपने अभीष्ट पदार्थोंको नहीं पाता है, शोकपरायण पुरुष किसी फल को नहीं हस्तगत कर पाता है । शोक करने वाले को न तो लक्ष्मी की प्राप्ति होती है और न उसे परमात्मा ही मिलता है । ‘जो मनुष्य स्वयं आग जलाकर उसे कपड़े में लपेट लेता है और जलने पर मन–ही–मन संताप का अनुभव करता है, वह बुद्धिमान् नहीं कहा जा सकता है । ‘पुत्रसहित आपने ही अपने लोभरूपी घी से सींचकर और वचनरूपी वायु से प्रेरित करके पार्थरूपी अग्नि को प्रज्जलित किया था । ‘उसी प्रज्जलित अग्नि में आपके सारे पुत्र पतंगों के समान पड़ गये हैं । बाणों की आग में जलकर भस्म हुए उन पुत्रों के लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये । ‘नरेश्वर ! आप को आँसुओं की धारा से भीगा हुआ मुँह लिये फिरते हैं, यह अशास्त्रीय कार्य है । विद्वान् पुरुष इसकी प्रशंसा नहीं करते हैं । ‘ये शोक के आँसू आग की चिनगारियों के समान इन मनुष्यों को नि:संदेह जलाया करते हैं; अत: आप शोक छोड़िये और बुद्धि के द्वारा अपने मन को स्वयं ही सुस्थिर कीजिये’।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;– शत्रुओं को संताप देने वाले जनमेजय ! महात्मा संजयने जब इस प्रकार राजा धृतराष्ट्र को आश्वासन दिया, तब विदुरजी ने भी पुन: सन्त्वना देते हुए उनसे यह विचारपूर्ण वचन कहा ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्व के अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्व में धृतराष्ट्र के शोक का निवारण विषयक पहला अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)
दूसरा अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्री पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
“विदुरजी का राजा धृतराष्ट्र को समझाकर उनको शोक का त्याग करने के लिये कहना”
वैशम्पायनजी कहते हैं ;– जनमेजय ! तदनन्तर विदुरजी ने पुरुषप्रवर धृतराष्ट्र को अपने अमृतसमान मधुर वचनों द्वारा आहाद प्रदान करते हुए वहाँ जो कुछ कहा, उसे सुनो । विदुरजी बोले–राजन् ! आप धरती पर क्यों पड़े हैं? उठकर बैठ जाइये और बुद्धि के द्वारा अपने मन को स्थिर कीजिये । लोकेश्वर ! समस्त प्राणियों की यही अन्तिम गति है । सारे संग्रहों का अन्त उनके क्षयमें ही है । भौतिक उन्नतियों का अन्त पतन में ही है । सारे संयोगों का अन्त वियोग में ही है । इसी प्रकार सम्पूर्ण जीवन का अन्त मृत्यु में ही होने वाला है ।
भरतनन्दन ! क्षत्रियशिरोमणे ! जब शूरवीर और डरपोक दोनों को ही यमराज खींच ले जाते हैं, तब वे क्षत्रिय लोग युद्ध क्यों न करते ! । महाराज ! जो युद्ध नहीं करता, वह भी मर जाता है और जो संग्राम में जूझता है, वह भी जीवित बच जाता है । काल को पाकर कोई भी उसका उल्लंघन नहीं कर सकता । जितने प्राणी हैं,वे जन्म से पहले यहाँ व्यक्त नहीं थे । वे बीच में व्यक्त होकर दिखायी देते हैं और अन्त में पुन: उनका अभाव (अव्यक्तरुप से अवस्थान) हो जाएगा । ऐसी अवस्था में उनके लिये रोने–धोने की क्या आवश्यकता है?
शोक करने वाला मनुष्य न तो मरने वाले के साथ जा सकता है और न मर ही सकता है । जब लोक की ऐसी ही स्वाभाविक स्थिति है, तब आप किसलिये शोक कर रहे हैं? कुरुक्षेत्र ! काल नाना प्रकार के समस्त प्राणियों को खींच लेता है । काल को न तो कोई प्रिय है और न उसके द्वेष का ही पात्र है । भरतश्रेष्ठ ! जैसे हवा तिनकों को सब ओर उड़ाती और डालती रहती है, उसी प्रकार समस्त प्राणी काल के अधीन होकर आते–जाते हैं । जो एक साथ संसार की यात्रा में आये हैं, उन सबको एक दिन वहीं (परलोक में) जाना है । उनमें से जिसका काल पहले उपस्थित हो गया, वह आगे चला जाता है । ऐसी दशा में किसी के लिये शोक क्या करना है?
राजन् ! युद्ध में मारे गये इन वीरों के लिये तो आपको शोक करना ही नहीं चाहिये । यदि आप शास्त्रों का प्रमाण मानते हैं तो वे निश्चय ही परम गति को प्राप्त हुए हैं । वे सभी वीर वेदों का स्वाध्याय करने वाले थे । सबने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया था तथा वे सभी युद्ध में शत्रु का सामना करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए हैं; अत: उनके लिये शोक करने की क्या बात है? ये अदृश्य जगत् से आये थे और पुन: अदृश्य जगत् में ही चले गये हैं । ये न तो आपके थे और न आप ही इनके हैं । फिर यहाँ शोक करने का क्या कारण है? युद्ध में जो मारा जाता है, वह स्वर्ग लोक प्राप्त कर लेता है और जो शत्रु को मारता है, उसे यश की प्राप्ति होती है । ये दोनो ही अवस्थाएँ हम लोगों के लिये बहुत लाभदायक हैं । युद्ध में निष्फलता तो है ही नहीं।
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्री पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद)
भरतश्रेष्ठ ! इन्द्र उन वीरों के लिये इच्छानुसार भोग प्रदान करने वाले लोकों की व्यवस्था करेंगे । वे सब–के–सब इन्द्र के अतिथि होंगे । युद्ध में मारे गये शूरवीर जितनी सुगमतासे स्वर्ग लोक में जाते हैं, उतनी सुविधा से मनुष्य प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञ, तपस्या और विद्या द्वारा भी नहीं जा सकते । शूरवीरों के शरीर रूपी अग्नियों में उन्होंने बाणों की आहुतियाँ दी हैं और उन तेजस्वी वीरों ने एक–दूसरे की शरीराग्नियों में होम किये जाने वाले बाणों को सहन किया है । राजन् ! इसलिये मैं आपसे कहता हूँ कि क्षत्रिय के लिये इस जगत् में धर्मयुद्ध से बढ़कर दूसरा कोई स्वर्ग प्राप्ति का उत्तम मार्ग नहीं है । वे महामनस्वी वीर क्षत्रिय युद्ध में शोभा पाने वाले थे, अत: उन्होंने अपनी कामनाओं के अनुरुप उत्तम लोक प्राप्त किये हैं ।
उन सबके लिये शोक करना तो किसी प्रकार उचित ही नहीं है । पुरुषप्रवर ! आप स्वयं ही अपने मन को सान्त्वना देकर शोक का प्ररित्याग कीजिये । आज शोक से व्याकुल होकर अपने शरीर का त्याग नहीं करना चाहिये । हम लोगों ने बारंबार संसार में जन्मलेकर सहस्त्रों माता–पिता सैकड़ों स्त्री–पुत्रों के सुख का अनुभव किया है; परन्तु आज वे किसके हैं अथवा हम उनमें से किसके हैं ? शोक के हजारों स्थान हैं और भय के भी सैकड़ों स्थान हैं । वे प्रतिदिन मूढ़ मनुष्य पर ही अपना प्रभाव डालते हैं, विद्वान् पुरुष पर नहीं । कुरुश्रेष्ठ ! काल का किसी से प्रेम है और नकिसीसेद्वेष, उसका कहीं उदासीन भाव भी नहीं है । काल सभी को अपने पास खींच लेता है । काल ही प्राणियों को पकाता है, काल ही प्रजाओं का संहार करता है और काल ही सबके सो जाने पर भी जागता रहता है । काल का उल्लंघन करना बहुत ही कठिन हैं । रुप,जवानी, जीवन,धन का संग्रह, अरोग्य तथा प्रिय जनों का एक साथ निवास–ये सभी अनित्य हैं, अत: विद्वान् पुरुष इन में कभी आसक्त न हो ।
जो दु:ख सारे देश पर पड़ा है, उसके लिये अकेले आपको ही शोक करना उचित नहीं हैं । शोक करते–करते कोई मर जाय तो भी उसका वह शोक दूर नहीं होता है । यदि अपने में पराक्रम देखे तो शोक न करते हुए शोक के कारण का निवारण करने की चेष्ठा करे । दु:खको दूर करनेके लिये सबसे अच्छी दवा यही है कि उसका चिन्तन छोड़ दिया जाय, चिन्तन करने से दु:ख कम नहीं होता बल्कि और भी बढ जाता है । मन्दबुद्धि मनुष्य ही अप्रिय वस्तु का संयोग औरप्रिय वस्तु का वियोग होने पर मानसिक दु:ख से दग्ध होने लगते हैं । जो आप यह शोक कर रहे हैं, यह न अर्थ का साधक है, न धर्म का और न सुख का ही । इसके द्वारा मनुष्य अपने कर्तव्य पथ से तो भ्रष्ट होता ही है, धर्म, अर्थ और कामरुपत्रिवर्ग से भी वञ्चित हो जाता है । धन की भिन्न–भिन्न अवस्थाविशेषको पाकर असंतोषी मनुष्य तो मोहित हो जाते हैं; परन्तु विद्वान् पुरुष सदा संतुष्ट ही रहते हैं ।
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्री पर्व) द्वितीय अध्याय के श्लोक 31-37 का हिन्दी अनुवाद)
मनुष्य चाहिये कि वह मानसिक दु:ख को बुद्धि एवं विचार द्वारा और शारीरिक कष्ट को औषधियों द्वारा दूर करे, यही विज्ञान की शक्ति है । उसे बालकों के समान अविवेक पूर्ण बर्ताव नहीं करना चाहिये । मनुष्य का पूर्वकृत कर्म उसके सोने पर साथ ही सोता है, उठने पर साथ ही उठता है और दौड़ने पर भी साथ–ही–साथ दौड़ता है । मनुष्य जिस–जिस अवस्था में जो–जो शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसी–उसी अवस्था में उसका फल भी पा लेता है ।
जो जिस–जिस शरीर से जो–जो कर्म करता है, दूसरे जन्म में वह उसी–उसी शरीर से उसका फल भोगता है । मनुष्य आप ही अपना बन्धु है, आप ही अपना शत्रु है और आप ही अपने शुभ या अशुभ कर्म का साक्षी है । शुभ कर्म से सुख मिलता है और पाप कर्म से दु:ख, सर्वत्र किये हुए कर्म का ही फल प्राप्त होता है, कहीं भी बिना किये का नहीं । आप जैसे बुद्धिमान् पुरुष अनेक विनाशकारी दोषों से युक्त तथा मूलभूत शरीर का भी नाश करने वाले बुद्धि विरुद्ध कर्मों में नहीं आसक्त होते हैं ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्व के अन्तर्गत जल प्रदानिकपर्व में धृतराष्ट्र के शोक का निवारण विषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)
तीसरा अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्री पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“विदुरजी का शरीर की अनित्यता बताते हुए धृतराष्ट्र को शोक त्यागने के लिये कहना”
धृतराष्ट्र बोले ;– परम बुद्धिमान् विदुर ! तुम्हारा उत्तम भाषण सुनकर मेरा यह शोक दूर हो गया, तथापि तुम्हारे इन तात्विक वचनों को मैं अभी और सुनना चाहिता हूँ । विद्वान् पुरुष अनिष्ट के संयोग और इष्ट क वियोग से होने वाले मानसिक दु:ख से किस प्रकार छुटकारा पाते हैं ?
विदुर जी ने कहा ;– महाराज ! विद्वान् परुष को चाहिये कि जिन–जिन साधनों में लगने से मन दु:ख अथवा सुख से मुक्त होता हो, उन्ही में इसे नियमपूर्वक लगाकर शान्ति प्राप्त करे । नरश्रेष्ठ ! विचार करने पर यह सारा जगत् अनित्य ही जान पड़ता है । सम्पर्ण विश्व केले के समान सारहीन है; इसमें सार कुछ भी नहीं है । जब विद्वान–मूर्ख,धनवान् और निर्धन सभी श्मशान भूमि में जाकर निश्चिन्त सो जाते हैं,
उस समय उनकेमांस–रहित, नाड़ियों से बँधे हुए तथा अस्थि बहुल अंगों को देखकर क्या दूसरे लोग वहाँ उनमें कोई ऐसा अन्तर देख पाते हैं, जिससे वे उनके कुल और रुप की विशेषता को समझ सकें; फिर भी वे मनुष्य एक दूसरे को क्यों चाहते हैं? इसलिये कि उनकी बुद्धि ठगी गयी है । पण्डित लोग मरण धर्मा प्राणियों के शरीरों को घर के तुल्य बतलाते हैं; क्योंकि सारे शरीर समय पर नष्ट हो जाते हैं, किंतु उसके भीतर जो एक मात्र सत्वस्वरुप आत्मा है, वह नित्य है । जैसे मनुष्य नये अथवा पुराने वस्त्र को उतारकर दूसरे नूतन वस्त्र को पहनने की रुचि रखता है, उसी प्रकार देहधारियों के शरीर उनके द्वारा समय–समय पर त्यागे और ग्रहण किये जाते हैं । विचित्रवीर्यनन्दन ! यदि दु:ख या सुख प्राप्त होने वाला है तो प्राणी उसे अपने किये हुए कर्म के अनुसार ही पाते हैं ।
भरतनन्दन ! कर्म के अनुसार ही परलोक में स्वर्ग या नरक तथा इहलोक में सुख और दु:ख प्राप्त होते हैं; फिर मनुष्य सुख या दु:ख के उस भार को स्वाधीन या पराधीन होकर ढोता रहता है । जैसे मिट्टी का बर्तन बनाये जाने के समय कभी चाकपर चढ़ाते ही नष्ट हो जाता है, कभी कुछ–कुछ बनने पर, कभी पूरा बन जाने पर, कभी सूत से काट देने पर, कभी चाक से उतारते समय, कभी उतर जाने पर, कभी गीली या सूखी अवस्था में, कभी पकाये जाते समय, कभी आवाँ से उतारते समय, कभी पाकस्थान से उठाकर ले जाते समय अथवा कभी उसे उपयोग में लाते समय फूट जाता है; ऐसी ही दशा देह–धारियों के शरीरों की भी होती है । कोई गर्भ में रहते समय, कोई पैदा हो जाने पर, कोई कई दिनोंकाहोनेपर, कोई पंद्रह दिन का, कोई एक मास का तथा कोई एक या दो साल का होने पर, कोई युवावस्था में, कोई मध्यावस्था में अथवा कोई वृद्धावस्था में पहुँचने पर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
प्राणी पूर्वजन्म के कर्मोंकेअनुसारही इस जगत् में रहते और नहीं रहते हैं । जब लोक की ऐसी ही स्वाभाविक स्थिति है, तब आप किसलिये शोक कर रहे हैं ? राजन् ! नरेश्वर ! जैसे क्रीडा के लिये पानी में तैरता हुआ कोई प्राणी कभी डूबता है और कभी ऊपर आ जाता है, इसी प्रकारइस अगाध संसार समुद्र में जीवोंका डूबना और उतरना (मरना और जन्म लेना) लगा रहता है, मन्दबुद्धि मनष्य ही यहाँ कर्मभोग से बँधते और कष्ट पाते हैं । जो बुद्धिमान् मानव इस संसार में सत्वगुणस से युक्त, सबका हित चाहने वाले और प्राणियों के समागम को कर्मानुसार समझने वाले हैं, वे परम गति को प्राप्त होते हैं ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्री पर्व के अन्तर्गत जलप्रदानिक पर्व में धृतराष्ट्र के शोक का निवारण विषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)
चौथा अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्री पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
“दु:खमय संसार के गहन स्वरुप का वर्णन और उससे छूटने का उपाय”
धृतराष्ट्र ने पूछा ;– वक्ताओं में श्रेष्ठ विदुर ! इस गहन संसार के स्वरुप का ज्ञान कैसे हो? यह मैं सुनना चाहता हूँ । मेरे प्रश्न के अनुसार तुम इस विषय का यथार्थ रुप से वर्णन करो । विदुरजी ने कहा–महाराज ! जब गर्भाशय में वीर्य और रजका संयोग होता है तभी से जीवों की गर्भवृद्धि रुप सारी क्रिया शास्त्र के अनुसार देखी जाती है ।
आरम्भ में जीव कलिल (वीर्य और रज के संयोग) के रुप में रहता है, फिर कुछ दिन बाद पाँचवाँ महीना बीतने पर वह चैतन्य रुप से प्रकट होकर पिण्ड में निवास करने लगता है । इसके बाद वह गर्भस्थ पिण्ड सर्वाग्डपूर्ण हो जाता है । इस समय उसे मांस और रुधिर से िलिपे हुए अत्यन्त अपवित्र गर्भाशय में रहना पड़ता है । फिर वायु के वेग से उसके पैर ऊपर की ओर हो जाते हैं और सिर नीचे की ओर । इस स्थिति में योनिद्वार के समीप आ जाने से उसे बडुे दुस्खसहनेपडते हैं । फिर पूर्वकर्मों से संयुक्त हुआ वह जीव योनिमार्ग से पीडिुत हो उससे छुटकारा पाकर बाहर आ जाता है और संसासर में आकर अन्यान्य प्रकार के उपद्रवों का सामना करता है।
जैसे कुत्ते मांस की ओर झपटते हैं, उसी प्रकार बालग्रह उस शिशु के पीछे लगे रहते हैं । तदनन्तर ज्यों–ज्यों समय बीतता जाता है, त्यों–ही–त्यों अपने कर्मों से बँधे हुए उस जीवको जीवित अवस्था में नयी–नयी व्याधियाँ प्राप्त होने लगती हैं । नरेश्वर ! फिर आसक्ति के कारण जिनमेंरसकी प्रतीति होती है, उन विषयों से घिरे और इन्द्रिय रूपी पाशों से बँधें हुए उस संसारी जीव को नाना प्रकार के संकट घेर लेते हैं । उनसे बँध जाने पर पुन: इसे कभी तृप्ति ही नहीं होती है । उस अवस्था में वह भले–बुरे कर्म करता हुआ भी उनके विषय में कुछ समझ नहीं पाता ।
जो लोग भगवान् के ध्यान में लगे रहने वाले हैं, वे ही शास्त्र के अनुसार चलकर अपनी रक्षा कर पाते हैं । साधारण जीव तो अपने सामने आये हुए यमलोक को भी नहीं समझ पाता है । तदनन्तर काल से प्रेरित हो यमदूत उसे शरीर से बाहर खींच लेतेहैं और वह मुत्यु को प्राप्त हो जाता है । उस समय उसमें बोलने की भी शक्ति नहीं रहती । उसकेतिनेभी शुभ या अशुभ कर्मह हैंववेसामनेपप्रकटहहोतेहैं । उनके अनुसार पुन: अपने आपको देह बन्धन में बँधता हुआ देखकर भी वह उपेक्षा कर देता है–अपने उद्धार का प्रयत्न नहीं करता । अहो ! लोभ के वशीभूत होकर यह सारा संसार ठगा जा रहा है । लोभ, क्रोध और भय से यह इतना पागल हो गया है कि अपने आपको भी नहीं जानता ।
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्री पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 13-20 का हिन्दी अनुवाद)
जो लोग हीन कुल में उत्पन्न हुए हैं, उनकी निन्दा करता हुआ कुलीन मनुष्य अपनी कुलीनता में ही मस्त रहता है और धनी धन के घमंड से चूर होकर दरिद्रों के प्रति अपनी घृणा प्रकट करता है । वह दूसरों को मूर्ख बताता है, पर अपनी ओर कभी नहीं देखता । दूसरों के दोषों के लिये उन पर आक्षेप करता है, परन्तु उन्हीं दोषों से स्वयं को बचाने के लिये अपने मन को काबू में नहीं रखना चाहता । जब ज्ञानी और मूर्ख, धनवान् और निर्धन, कुलीन और अकुलीन तथा मानी और मानरहित सभी मरघट में जाकर सो जाते हैं,उनकी चमड़ीभीनष्ट हो जातीहैऔरनाड़ियों से बँधें हुए मांस रहित हडि्डयों के ढेर रुप उनके नग्न शरीर सामने आते हैं, तब वहाँ खड़े हुए दूसरे लोग उनमें कोई ऐसा अन्तर नहीं देख पाते हैं, जिससे एक की अपेक्षा दूसरे के कुल और रुप की विशेषता को जान सकें।
जब मरने के बाद श्मशान में डाल दियेजानेपरसभीलोग समानरुपसेपृथ्वीकी गोद में सोतेहैं,तब वे मूर्ख मानव इस संसार में क्यों एक दूसरे को ठगने की इच्छा करते हैं ? इस क्षणीभंगुर जगत् में जो पुरुष इस वेदोक्त उपदेश को साक्षात् जानकर या किसी के द्वारा सुनकर जन्म से ही निरन्तर धर्म का पालन करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है । नरेश्चर ! जो इस प्रकार सब कुछ जानकर तत्त्व का अनुसरण करता है, वह मोक्ष तक पहुँचने के लिये मार्ग प्राप्त कर लेता है ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्व के अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्व में धृतराष्ट्र के शोक का निवारणविषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)
पाचवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्री पर्व) पञ्चम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“गहन वन के दृष्टान्त से संसार के भयंकर स्वरुप का वर्णन”
धृतराष्ट्र ने कहा ;– विदुर ! यह जो धर्म का गूढ़ स्वरुप है, वह बुद्धि से ही जाना जाता है; अत: तुम मुझसे सम्पूर्ण बुद्धिमार्ग का विस्तारपूर्वक वर्णन करो ।
विदुरजी ने कहा ;– राजन् ! मैं भगवान् स्वयम्भू को नमस्कार करके संसार रुप गहन वन के उस स्वरुप का वर्णन करता हूँ, जिसका निरूपण बड़े–बड़े महर्षि करते हैं । कहते हैं कि किसी विशाल दुर्गम वन में कोई ब्राह्मण यात्रा कर रहा था । वह वन के अत्यन्त दुर्गम प्रदेश में जा पहुँचा, जो हिंसक जन्तुओं से भरा हुआ था । जोर–जोर से गर्जना करने वाले सिंह, व्याघ्र, हाथी और रीछों के समुदायों ने उस स्थान को अत्यन्त भयानक बना दिया था । भीषण आकारवाले अत्यन्त भंयकर मांसभक्षी प्राणियों ने उस वन प्रान्तको चारों ओर से घेरकर ऐसा बना दिया था, जिसे देखकर यमराज भी भय से थर्रा उठे । शत्रुदमन नरेश! वह देखकर ब्राह्मण का हृदय अत्यन्तउद्विग्नहो उठा । उसे रोमाञ्च हो आया और मन में अन्य प्रकार के भी विकार उत्पन्न होने लगे । वह उस वन का अनुसरण करता इधर–उधर दौड़ता तथा सम्पूर्ण दिशाओं में ढूँढता फिरता था कि कहीं मुझे शरण मिले ।
वह उन हिंसक जन्तुओं का छिद्र देखता हुआ भय सेपीड़ित हो भागने लगा; परंतु न तो वहाँ से दूर निकल पाता था और न वे ही उसका पीछा छोड़ते थे। इतने ही में उसने देखा कि वह भयानक वन चारों ओर से जाल से घिराहुआ है और एक बड़ी भयानक स्त्री ने अपनी दोनों भुजाओं से उसको आवेष्ठित कर रखा है । पर्वतों के समान ऊँचे और पाँच सिरवाले नागों तथा बड़े–बड़े गगनचुम्बी वृक्षों से वह विशाल वन व्याप्त हो रहा है । उस वन के भीतर एक कुआँ था, जो घासों से ढकी हुई सुदृड़ लताओं के द्वारा सब ओर से आच्छादित हो गया था । वह ब्राह्मणउस दिपेहुएकुएँ में गिर पड़ा; परंतु लताबेलों से व्याप्त होने के कारण वह उस में फँस कर नीचे नहीं गिरा,ऊँपर ही लटका रह गया । जैसे कटहल का विशाल फल वृन्त में बँधा हुआ लटकता रहता है, उसी प्रकार वह ब्राह्मण ऊपर को पैर और नीचे को सिर किये उस कुएँ में लटक गया ।
वहाँ भी उसके सामने पुन: दूसरा उपद्रव क्षड़ा हो गया । उसने कूप के भीतर एक महाबली महा नाग बैठा हुआ देखा तथा कुएँ के ऊपरी तटपरउउसके मुख बन्ध के पास एक विशाल हाथी को खड़ादेखा, जिनके छ: मुँह थे। वह सफेद और काले रंग का था तथा बारह पैरों से चला करता था । वह लताओं तथा वृक्षों से घिरे हुए उस कूप में क्रमश: बढ़ा आ रहा था । वह ब्राह्मण, जिस वृक्ष की शाखा पर लटका था, उसकी छोटी–छोटी अहनियों पर पहले से ही मधु के छत्तों से पैरा हुई अनेक रुपवाली, घोर एवं भयंकर मुधमक्खियाँ मधु को घेरकर बैठी हुई थी ।
(सम्पूर्ण महाभारत (स्त्री पर्व) पञ्चम अध्याय के श्लोक 17-24 का हिन्दी अनुवाद)
भरतश्रेष्ठ ! समस्त प्राणियों को स्वादिष्ठ प्रतीत होने वाले उस मधु को, जिसपर बालक आकृष्ट हो जाते हैं, वे मक्खियाँ बारंबार पीना चाहती थीं ।उस समय उस मधु की अनेक धाराएँ वहाँ झ्र रही थीं और वह लटका हुआ पुरुष निरन्तर उस मधु धारा को पी रहा था । यद्यपि वह संकट में था तो भी उस मधु को पीते–पीते उसकी तृष्णा शान्त नहीं होती थी । वह सदा अतृप्त रहकर ही बारंबार उसे पीने की इच्छा रखता था । राजन ! उसे अपने उस संकटपूर्ण जीवन से वैराग्य नहीं हुआ है । उस मनुष्य के मन में वहीं उसी दशा से जीवित रहकर मधु पीते रहनेकी आशा जड़ जमाये हुए है । जिस वृक्ष के सहारे वह लटका हुआ है, उसे काले और सफेद चूहे निरन्तर काट रहे हैं ।
पहले तो उसे वन के दुर्गम प्रदेश के भीतर ही अनेक सर्पों से भय है, दूसरा भय सीमा पर खड़ी हुई उस भयंकर स्त्री से है, तीसरा कुँए के नीचे बैठे हुए नाग से है, चौथा कुएँ के मुखबन्ध के पास खड़े हुए हाथी से है और पाँचवाँ भय चूहों के काट देने पर उस वृक्ष से गिर जाने का है । इनकेसिवा, मधु के लोभ से मधुमक्खियों की ओर से जो उसको महान् भय प्राप्त होने वाला है, वह छठा भय बताया गया है । इस प्रकार संसार–सागर में गिरा हुआ वह मनुष्य इतने भयों से घिरकर वहाँ निवास करता है तो भी उसे जीवन की आशा बनी हुई है और उसके मन में वैराग्य नहीं उत्पन्न होता है ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्व के अन्तर्गत जलप्रदानिक पर्व में धृतराष्ट्र के शोक का निवारण विषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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