सम्पूर्ण महाभारत (स्त्री पर्व) के छःवें अध्याय से दसवें अध्याय तक (From the 6th chapter to the tenth chapter of the entire Mahabharata (Stree Parva))

         

सम्पूर्ण महाभारत  

स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)

छठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्री पर्व) षष्‍ठ अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

“संसाररूपी वन के रुपक का स्‍पष्‍टीकरण”

    धृतराष्‍ट्र बोले ;– वक्ताओं में श्रेष्‍ठ विदुर ! यह तो बड़े आश्चर्य की बात है ! उस ब्राह्मण को तो महान् दु:ख प्राप्‍त हुआ था । वह बड़े कष्‍ट से वहाँरह रहा था तो भी वहाँ कैसे उसका मन लगता था और कैसे संतोष होता था ? कहाँ है वह देश, जहाँ बेचारा ब्राह्मण ऐसे धर्म संकट में रहता है ? उस महान् भय से उसका छुटकारा किस प्रकार हो सकता है ? यह सब बताओ; फिर हम सब लोग उसे वहाँ से निकालने की पूरी चेष्‍टा करेंगे । उसके उद्धार के लिये मुझे बड़ी दया आ रही है। 

      विदुरजी ने कहा ;– राजन् ! मोक्षतत्व के विद्वानों द्वारा बताया गया यह एक दृष्‍टान्‍त है, जिसे समक्षकर वैराग्‍य धारण करने से मनुष्‍य परलोक में पुण्‍य का फल पाता है । जिसे दुर्गम स्‍थानवन कहा गया है, यह संसार ही गहन स्‍वरुप है । जो सर्प कहे गये हैं, वे नाना प्रकार के रोग हैं । उस वनकी सीमा पर जो विशालकाय नारी खड़ी थी, उसे विद्वान् पुरुष रुप और कान्ति का विनाश करने वाली वृद्धावस्‍था बताते हैं । नरेश्वर ! उस वन में जो कुआँ कहा गया है, वह देहधारियोंका शरीर है । उसमें नीचे जो विशाल नाग रहता है, वह काल ही है । वही सम्‍पूर्ण प्राणियों का अन्‍त करने वाला और देहधारियों का सर्वस्‍व हर लेने वाला है।

      कुएँ के मध्‍य भाग में जो लता उत्‍पन्न हुई तबायी गयी है, जिसको पकड़कर वह मनुष्‍य लटक रहा है, वह देहधारियों के जीवन की आशा ही है । राजन् ! जो कुएँ के मुखबन्‍ध के समीप छ: मुखोंवाला हाथी उस वृक्षकी ओर बढ़ रहा है, उसे संवत्‍सर माना गया है । छ: ऋतुएँ ही उसके छ: मुख हैं और बारह महीने ही बारह पैर बताये गये हैं । जो चूहे सदा उद्यत रहकर उस वृक्ष को काटते हैं, उन चूहों को विचार शील विद्वान् प्राणियों के दिन और रात बताते हैं । और जो-जो वहाँ मधुमक्खियाँ कही गयी हैं,वे सब कामनाएँ हैं । जो बहुत-सी धाराएँ मधु के झरने झरती रहती हैं, उन्‍हें कामरस जानना चाहिये, जहाँ सभी मानव डूब जाते हैं । विद्वान् पुरुष इस प्रकार संसार चक्र की गति को जानते हैं; इसीलिये वे वैराग्‍य रूपी शस्त्र से इसके सारे बन्‍धनों को काट देते हैं ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्व के अन्‍तर्गत जलप्रदानिकपर्व में धृतराष्‍ट्र के शोक का निवारण विषयक छठा अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)

सातवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्री पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

“संसार चक्र का वर्णन और रथ के रुपक से संयम और ज्ञान आदि को मुक्ति का उपाय बताना”

      धृतराष्‍ट्र ने कहा ;– राजन् ! सुनिये । मैं पुन: विस्‍तारपूर्वक इस मार्ग का वर्णन करता हूँ,जिसे सुनकर बुद्धिमान् पुरुष संसार-बन्‍धन से मुक्त हो जाते हैं । नरेश्वर ! जिस प्रकार किसी लम्‍बे रास्‍ते पर चलने वाला पुरुष परिश्रम से थककर बीच में कहीं-कहीं विश्राम के लिये ठहर जाता है, उसी प्रकार इस संसार यात्रा में चलते हुए अज्ञानी पुरुष विश्राम के लिये गर्भवास किया करते हैं । भारत ! किंतु विद्वान् पुरुष इस संसार से मुक्त हो जाते हैं । इसीलिये शास्त्रज्ञ पुरुषों ने गर्भवास को मार्ग का ही रुपक दिया है और गहन संसार को मनीषी पुरुष वन कहा करते हैं । 

      भरतश्रेष्‍ठ ! यही मनुष्‍यों तथा स्‍थावर-जंगम प्राणियों का संसारचक्र है । विवेकी पुरुष को इस में आसक्त नहीं होना चाहिए । मनुष्‍यों की जो प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष शारीरिक और मानसिक व्‍याधियाँ हैं, उन्‍हीं को विद्वानों ने सर्प एवं हिंसक जीव बताया है । भरतनन्‍दन ! अपने कर्म रूपी इन महान् हिंसक जन्‍तुओं से सदा सताये तथा रोके जाने पर भी मन्‍दबुद्धि मानव संसार से उद्विग्‍न या विरक्‍त नहीं होते हैं । नरेश्वर ! यदि शब्‍द, स्‍पर्श, रुप, रस और नाना प्रकार की गन्‍धों से युक्त, मज्जा और मांसरूपी बड़ी भारी कीचड़ से भरे हुए एवं सब ओर से अवलम्‍ब शून्‍य इस शरीर रूपी कूप में रहने वाला मनुष्‍य इन व्‍याधियों से किसी तरह मुक्त हो जाय तो भी अन्‍त में रुप-सौन्‍दर्य का विनाश करने वाली वृद्धावस्‍था तो उसे घेर ही लेती है । वर्, मास, पक्ष, दिन-रात और संध्‍याएँ क्रमश: इसके रुप और आयु का शोषण करती ही रहती हैं । ये सब काल के प्रतिनिधि हैं । मूढ़ मनुष्‍य इन्‍हें इस रुप में नहीं जानते हैं । श्रेष्‍ठ पुरुषों का कथन है कि विधाताने सम्‍पूर्ण भूतों के ललाट में कर्म के अनुसार रेखा खींच दी है (प्रारब्‍ध के अनुसार उनकी आयु और सुख-दु:ख के भोग नियत कर दिये हैं )। 

       विद्वान् पुरुष कहते हैं कि प्राणियों का शरीर रथ के समान है, सत्व (सत्त्वगुण प्रधान बुद्धि ) सारथि है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं और मन लगाम है । जो पुरुष स्‍वेच्‍छापूर्वक छौड़ते हुए उन घोड़ों के वेग का अनुसरण करता है, वह तो इस संसार चक्र में पहिये के समान घूमता रहता है । किंतु जो संयमशील होकर बुद्धि के द्वारा उन इन्द्रिय रूपी अश्‍वों को काबू में रखते हैं, वे फिर इस संसार में नहीं लौटते । जो लोग चक्र की भाँतिघूमनेवाले इस संसारचक्रमें घूमतेहुए भी मोह के वशीभूत नहीं होते हैं, उन्‍हें फिर संसार में नहीं भटकना पड़ता । राजन् ! संसार में भटकने वालों को यह दु:ख प्राप्‍त होता ही है; अत: विज्ञ पुरुष को इस संसार बन्‍धन की निवृति के लिए अवश्‍य यत्‍न करना चाहिये । इस विषय में कदापि उपेक्षा नहीं करनी चाहिये ; नहीं तो वह संसार सैकड़ों शाखाओं में फैलकर बहुत बड़ा हो जाता है।

       राजन् ! जो मनुष्‍य जितेन्द्रिय , क्रोध और लोभ से शून्‍य, संतोषी तथा सत्‍यवादी होता है, उसे शान्ति प्राप्‍त होती है । नरेश्वर ! इस संसार को याम्‍य (यमलोक की प्राप्ति कराने वाला) रथ कहते हैं, जिससे मूर्ख मनुष्‍य मोहित हो जाते हैं । राजन् ! जो दु:ख आपको प्राप्‍त हुआ है, वह प्रत्‍येक अज्ञानी पुरुष को उपलब्‍ध होता है ।

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्री पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 12-21 का हिन्दी अनुवाद)

     माननीय भारत ! जिसकी तृष्‍णा बढ़ी हुई है, उसी को राज्‍य, सुहृद् और पुत्रों का नाशरूपी यह महान् दु:ख प्राप्‍त होता है । साधु पुरुष को चाहिये कि वह अपने मन को वश में करके ज्ञान रूपी महान् औषधि प्राप्‍त करे, जो परम दुर्लभ है । उससे अपने बड़े-से-वड़े दु:खों की चिकित्‍सा करे ।उस ज्ञान रूपी औषधि से दु:ख रूपी महान् व्‍याधि का नाश कर डाले । पराक्रम, धन, मित्र और सुहृद् भी उस तरह दु:ख से छुटकारा नहीं दिला सकते, जैसा ‍कि दृढ़तापूर्वक संयम में रहने वाला अपना मन ‍दिला सकता है । भरतनन्‍दन ! इसलिये सर्वत्र मैत्री भाव रखते हुए शील प्राप्‍त करना चाहिये । दम, त्‍याग और अप्रमाद–ये तीन परमात्‍मा के धाम में ले जाने वाले घोड़े हैं । जो मनुष्‍य शीलरूपी लगाम को पकड़ कर इन तीनों घोड़ो से जुते हुए मन रूपी रथ पर सवार होता है, वह मृत्‍यु का भय छोड़ कर ब्रह्मलोक में चला जाता है । भूपाल ! जो सम्‍पूर्ण प्राणियों को अभयदान देता है, वह भगवान् विष्‍णु के अविनाशी परमधाम में चला जाता है। 

      अभयदान से मनुष्‍य जिस फल को पाता है, वह उसे सहस्त्रों यज्ञ और नित्‍य प्रति उपवास करने से भी नहीं मिल सकता है । भारत ! यह बात निश्चित रुप से कही जा सकती है कि प्राणियों को अपने आत्‍मा से अधिक प्रिय कोई भी वस्‍तु नहीं है; इसीलिये मरना किसी भी प्राणी को अच्‍छा नहीं लगता; अत: विद्वान् पुरुष को सभी प्राणियों पर दया करनी चाहिये । जो मूढ़ नाना प्रकार के मोह में डूबे हुए हैं, जिन्‍हें बुद्धि के जाल ने बाँध रक्‍खा है और जिनकी दृष्टि स्‍थूल है, वे भिन्न-भिन्न योनियों में भटकते रहते हैं । राजन् ! महाप्राज्ञ ! सूक्ष्‍मदर्शी ज्ञानीपुरुष सनातन ब्रह्म को प्राप्‍त होते हैं, ऐसा जानकर आप अपनेमरेहुए सगे-सम्‍बन्धियों का और्ध्‍वदैहिक संस्‍कार कीजिये । इसी से आप को उत्तम फल की प्राप्ति होगी ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्व के अन्‍तर्गत जलप्रदानिकपर्व में धृतराष्‍ट्र के शोक का निवारणविषयक सातवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)

आठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्री पर्व) अष्‍टम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“व्‍यासजी का संहार को अवश्‍यम्‍भावी बताकर धृतराष्‍ट्र को समझाना”

      वैशम्‍पायनजी कहते हैं ;– राजन् ! विदुरजी के ये वचन सुनकर कुरुश्रेष्‍ठ राजा धृतराष्‍ट्र पुत्र शोक से संतप्‍त एवं मूर्छित होकर पृथ्‍वी पर गिर पड़े । उन्‍हें इस प्रकार अचेत होकर भूमि पर गिरा देख सभी भाई-बन्‍धु, व्‍यासजी, विदुर, संजय,सुहृद्रण तथा जेा विश्वसनीय द्वारपाल थे, वे सभी शीतल जल के छींटे देकर ताड़ के पंखों से हवा करने और उनके शरीर पर हाथ फेरने लगे । उस बेहोशी की अवस्‍था में वे बड़े यत्‍न के साथ धृतराष्‍ट्र को होश में लाने के लिये देर तक आवश्‍यक उपचार करते रहे । 

     तदनन्‍तर दीर्घकाल के पश्चात् राजा धृतराष्‍ट्र को चेत हुआ और वे पुत्रों की चिन्‍ता में डूबकर बड़ी देरतकविलाप करते रहे। बोले,

      धृतराष्ट्र बोले ;-– ‘इस मनुष्‍य जन्‍म को धिक्कार है ! इसमेंभीविवाह आदि करके परिवार बढ़ाना तो और भी बुरा है; क्‍योंकि उसी के कारण बारंबार नाना प्रकार के दु:ख प्रात्‍प होते हैं । ‘प्रभो ! पुत्र, धन, कुटुम्‍ब और सम्‍बन्धियों का नाश होने पर तो विष पीने और आग में जलने के समान बड़ा भारी दु:ख भोगना पड़ता है । ‘उस दु:ख से सारा शरीर जलने लगता है, बुद्धि नष्‍ट हो जाती है और उस असह्य शोक से पीड़ित हुआ पुरुष जीने की अपेक्षा मर जाना अधिक अच्‍छा समझता है । ‘आज भाग्‍य के फेर से वही यह स्‍वजनों के विनाश का महान् दु:ख मुझे प्राप्‍त हुआ है । अब प्राण त्‍याग देने के सिवा और किसी उपाय द्वारा मैं इस दु:ख से पार नहीं पा सकता । 

    ‘द्विजश्रेष्‍ठ ! इसलिये आज ही मैं अपने प्राणों का परित्‍याग कर दूँगा । अपने ब्रह्मवेत्ता पिता महात्‍मा व्‍यासजी से ऐसा कहकर राजा धृतराष्‍ट्र अत्‍यन्‍त शोक में डूब गये और सुध-बुध खो बैठै ! राजन् ! पुत्रों का ही चिन्‍तन करते हुए वे बूढे़ नरेश वहाँ मौन होकर बैठे रह गये । उनकी बात सुनकरशक्तिशाली महात्‍मा श्रीकृष्‍णद्वैपायन व्‍यास पुत्र शोक से संतप्‍त हुए अपने बेटे से इस प्रकार बोले–

     व्‍यासजी ने कहा ;– महाबाहु धृतराष्‍ट्र ! मैं तुमसे जो कुछ कहता हू़ँ,उसे ध्‍यान देकर सुनो । प्रभो ! तुम वेदशास्त्रों के ज्ञान से सम्‍पन्न, मेधावी तथा धर्म और अर्थ के साधन में कुशल हो । शत्रुसंतापी नरेश ! जानने योग्‍य जो कोई भी तत्त्व है, वह तुमसे अज्ञात नहीं है । तुम मानव-जीवन की अनित्‍यता को अच्‍छी तरह जानते हो, इसमें संशय नहीं है । भरतनन्‍दन ! जब जीव-जगत् अनित्‍य है, सनातन परम पद नित्‍य है और इस जीवन का अन्‍त मृत्‍यु में ही है, तब तुम इसके लिये शोक क्‍यों करते हो ? राजेन्‍द्र ! तुम्‍हारे पुत्र को निमित्त बनाकर काल की प्रेरणा से इस वैर की उत्‍पत्ति तो तुम्‍हारे सामने ही हुई थी । नरेश्वर ! जब कौरवों का यह विनाश अवश्‍यम्‍भावी था, तब परम गति को प्राप्‍त हुए उन शूरवीरों के लिये तुम क्‍यों शोक कर रहे हो ?    

       महाबाहु नरेश्वर ! महात्‍मा विदुर इस भावी परिणाम को जानते थे, इसलिये इन्‍होंने सारी शक्ति लगाकर संधि के लिये प्रयत्‍न किया था । मेरा तो ऐसा विश्वास है कि दीर्घ काल तक प्रयत्‍न करके भी कोई प्राणी दैव के विधान को रोक नहीं सकता ।

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्री पर्व) अष्‍टम अध्याय के श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद)

     देवताओं का कार्य मैंने प्रत्‍यक्ष अपने कानों से सुना है, वह तुम्‍हें बता रहा हूँ,जिससे तुम्‍हारा मन स्थिर हो सके । पूर्व काल की बात है, एक बार मैं यहाँ से शीघ्रतापूर्वक इन्‍द्र की सभा में गया । वहाँ जाने पर भी मुझे कोई थकावट नहीं हुई; क्‍योंकि मैं इन सब पर विजय पा चुका हूँ । वहाँ उस समय मैंने देखा कि इन्‍द्र की सभा में सम्‍पूर्ण देवता एकत्र हुए हैं । अनघ ! वहाँ नारद आदि समस्‍त देवर्षि भी उपस्थित थे । पृथ्‍वीनाथ ! मैंने वहीं इस पृथ्‍वी को भी देखा, जो किसी कार्य के लिये देवताओं के पास गयी थी । उस समय विश्वधारिणी पृथ्‍वी ने वहाँ एकत्र हुए देवताओं के पास जाकर कहा,

     पृथ्वी बोली ;–  ‘महाभाग देवताओं ! आप लोगों नेउस दिन ब्रह्माजी की सभा में मेरे ‍जिस कार्य को सिद्ध करने की प्रतिज्ञा की थी, उसे शीघ्र पूर्ण की‍जिये’। उसकी बात सुनकर विश्ववन्दित भगवान् विष्‍णु ने देवसभा में पृथ्‍वी की ओर देखकर हँसते हुए कहा,

     भगवान विष्णु ने कहा ;– ‘शुभे ! धृतराष्‍ट्र के सौ पुत्रों में जो सबसे बड़ा और दुर्योधन नाम से‍ विख्‍यात है, वही तेरा कार्यसिद्ध करेगा । उसे राजा के रुप में पाकर तू कृतार्थ हो जायेगी । ‘उसके लिये सारे भूपाल कुरुक्षेत्र में एकत्र होंगे और सुदृढ़ शस्त्रों द्वारा परस्‍पर प्रहार करके एक दूसरे का वध कर डालेंगे । ‘देवि ! इस प्रकार उस युद्ध में तेरे भार का नाश हो जायेगा । शोभ ने ! अब तू शीघ्र अपने स्‍थान पर जा और समस्‍त लोकों को पूर्ववत् धारण कर’ । राजन् ! नरेश्वर ! यह जो तुम्‍हारा पुत्र दुर्योधन था, वह सारे जगत् का संहार करने के लिये क‍लिका मूर्तिमान् अंश ही गान्‍धारी के पेट से पैदा हुआ था । वह अमर्षशील, क्रोधी, चञ्चल और कूटनीति से काम लेने वाला था । 

     दैव योग से उसके भाई भी वैसे ही उत्‍पन्न हुए ! मामा शकुनि और परम मित्र कर्ण भी उसी विचार के मिल गये । ये सब नरेश शत्रुओं का विनाश करने के लिये ही एक साथ इस भूमण्‍डल पर उत्‍पन्न हुए थे । जैसा राजा होता है, वैसे ही उसके स्‍वजन और सेवक भी होते हैं । यदि स्‍वामी धार्मिक हो तो अधर्मी सेवक भी धार्मिक बन जाते हैं । सेवक स्‍वामी के ही गुण-दोषों से युक्त होते हैं, इसमें संशय नहीं है । महाबाहु नरेश्वर ! 

      दुष्‍ट राजा को पाकर तुम्‍हारे सभी पुत्र उसी के साथ नष्‍ट हो गये । इस बात को तत्त्ववेत्ता नारदजी जानते हैं । पृथ्‍वीनाथ ! आपके पुत्र अपने ही अपराध से विनाश को प्राप्‍त हुए हैं । राजेन्‍द्र ! उनके लिये शोक न करो; क्‍योंकि शोक के लिये कोई उपयुक्‍त कारण नहीं है । भारत ! पाण्‍डवों ने तुम्‍हारा थोड़ा –सा भी अपराध नहीं किया है । तुम्‍हारे पुत्र ही दुष्‍ट थे, जिन्‍होंने इस भूमण्‍डल का नाश करा दिया । राजन् ! तुम्‍हारा कल्‍याण हो । राजसूय यज्ञ के समय देवर्षि नारद ने राजा युधिष्ठिर की सभा में नि:संदेह पहले ही यह बात बता दी थी कि कौरव और पाण्‍डव सभी आपस में लड़कर नष्‍ट हो जायेंगे; अत: कुन्‍तीनन्‍दन ! तुम्‍हारे लियेजो आवश्‍यक कर्तव्‍य हो, उसे करो ।

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्री पर्व) अष्‍टम अध्याय के श्लोक 39-53 का हिन्दी अनुवाद)

     प्रभो ! नारदजी की वह बात सुनकर उस समय पाण्‍डव बहुत चिन्तित हो गये थे । इस प्रकार मैंने तुमसे देवताओं का यह सारा सनातन रहस्‍य बताया है, जिससे किसी तरह तुम्‍हारे शोक का नाश हो । तुम अपने प्राणों पर दया कर सको और देवताओं का विधान समझकर पाण्‍डु के पुत्रों पर तुम्‍हारा स्‍नेह बना रहे । महाबाहो ! यह बात मैंने बहुत पहले ही सुन रक्‍खी थी और क्रतुश्रेष्‍ठ राजसूय में धर्मराज युधिष्ठिर को बता भी दी थी । 

     मेरे द्वारा उस गुप्‍त रहस्‍य के बता दिये जाने पर धर्म पुत्र युधिष्ठिर ने बहुत प्रयत्न किया कि कौरवों में परस्‍पर कलह न हो; परन्‍तु दैव का ‍विधान बड़ा प्रबल होता है । राजन् ! दैव अथवा काल के विधान का चराचर प्राणियों में से कोई भी किसी तरह लाँघ नहीं सकता । भरतनन्‍दन ! तुम धर्मपरायण और बुद्धि में श्रेष्‍ठ हो । तुम्‍हें प्राणियों के आवागमन का रहस्‍य भी ज्ञात है, तो भी क्‍यों मोह के वशीभूत हो रहे हो ? तुम्‍हें बारंबार शोक से संतप्‍त और मोहित हो जानकर राजा युधिष्ठिर अपने प्राणों का भी परित्‍याग कर देंगे । 

      राजेन्‍द्र ! वीर युधिष्ठिर पशु-पक्षी आदि योनि के प्राणियों पर भी सदा दयाभाव बनाये रखते हैं; फिर तुम पर वे कैसे दया नहीं करेंगे ? अत: भारत ! मेरी आज्ञा मानकर, विधाता का विधान टल नहीं सकता, ऐसा समझकर तथा पाण्‍डवों पर करुणा करके तुम अपने प्राण धारण करो । तात ! ऐसा बर्ताव करने से संसार में तुम्‍हारी कीर्ति बढ़ेगी, महान् धर्म और अर्थ की सिद्धि होगी तथा दीर्घकाल तक तपस्‍या करने का तुम्‍हें फल प्राप्‍त होगा । महाभाग ! प्रज्‍वलित आग के समान जो तुम्‍हें यह पुत्र शोक प्राप्‍त हुआ है, इसे विचार रूपी जल के द्वारा सदा के ‍लिये बुझा दो ।

        वैशम्‍पायनजी कहते हैं ;– राजन् ! अमित तेजस्‍वी व्‍यास जी का यह वचन सुनकर राजा धृतराष्‍ट्र दो घड़ी तक कुछ सोच-विचार करते रहे; फिर इस प्रकार बोले,

    धृतराष्ट्र बोले ;-– ‘विप्रवर ! मुझे महान् शोक जाल ने सब ओर से जकड़ रक्‍खा है । मैं अपने आप को ही नहीं समझ्‍ पा रहा हूँ । मुझे बारंबार मूर्च्छा आ जाती है । ‘अब आपका यह वचन सुनकर कि सब कुछ देवताओं की प्रेरणा से हुआ है, मैं अपने प्राण धारण करुँगा और यथाशक्ति इस बात के लिये भी प्रयत्न करुँगा कि मुझे शोक न हो’। राजेन्‍द्र ! धृतराष्‍ट्र का यह वचन सुनकर सत्‍यवतीनन्‍दन व्‍यास वहीं अन्‍तर्धान हो गये ।

(इस प्रकार श्री महाभारत स्त्रीपर्व के अन्‍तर्गत जलप्रदानिकपर्व में धृतराष्‍ट्र के शोक का निवारण विषयक आठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)

नवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्री पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“धृतराष्‍ट्र का शोकातुर हो जाना और विदुरजी का उन्‍हें पुन: शोकनिवारण के लिये उपदेश”

   जनमेजय ने पूछा ;– विप्रर्षे ! भगवान् व्‍यास के चले जाने पर राजा धृतराष्‍ट्र ने क्‍या किया ? यह मुझे विस्‍तारपूर्वक बताने की कृपा करें । इसी प्रकार कुरुवंशी राजा महामनस्‍वी धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने तथा कृप आदि तीनों महारथियों ने क्‍या किया ? अश्वथामा का कर्म तो मैंने सुन लिया, परस्‍पर जो शाप दिये गये, उनका हाल भी मालूम हो गया । अब आगे का वृत्तान्‍त बताइये, जिसे संजय ने धृतराष्‍ट्र को सुनाया हो ।

      वैशम्‍पायनजी ने कहा ;– राजन् ! दुर्योधन तथा उसकी सारी सेनाओं के मारे जाने पर संजय की दिव्‍य दृष्टि चली गयी और वह धृतराष्‍ट्र की सभा में उपस्थित हुआ । 

    संजय बोला ;– राजन् ! नाना जनपदों के स्‍वामी विभिन्न देशों से आकर सब-के-सब आप के पुत्रों के साथ पितृलोक के पथिक बन गये ।भारत ! आपके पुत्र से सब लोगों ने सदा शान्ति के ि‍लिये याचना की, तो भी उसने वैर का अन्‍त करने की इच्‍छा से सारे भूमण्‍डलका विनाश करा दिया । महाराज ! अब आप क्रमश: अपने ताऊ, चाचा, पुत्र और पौत्रों का तृतक सम्‍बन्‍धी कर्म करवाइये । 

      वैशम्‍पायनजी कहते हैं ;– राजन् ! संजय का यह घोर वचन सुनकर राजा धृतराष्‍ट्र प्राणशून्‍य की भाँति निश्‍चेष्‍ट हो पृथ्‍वीपर गिर पड़े । पृथ्‍वीपति धृतराष्‍ट्र को पृथ्‍वी पर सोया देख सब धर्मों के ज्ञाता विदुरजी उनके पास आये और इस प्रकार बोले । ‘राजन् ! उठिये, क्‍यों सो रहे हैं? भरतश्रेष्‍ठ ! शोक न कीजिये । लोकनाथ ! समस्‍त प्राणियों की यही अन्तिम गति है । ‘भरतनन्‍दन ! सभी प्राणी जन्‍म से पहले अव्‍यक्त थे, बीच में व्‍यक्त हुए और अन्‍त में मृत्‍यु के बाद फिर अव्‍यक्त ही हो जायेंगे, ऐसी दशा में उनके लिये शोक करने की क्‍या बात है । ‘शोक करने वाला मनुष्‍य न तो मरे हुए के साथ जाता है और न ही मरता है । जब लोक की यही स्‍वाभाविक स्थिति है, तब आप किस लिये बारंबार शोक कर रहे हैं ?

     ‘महाराज ! जो युद्ध नहीं करता, वह भी मरता है और युद्ध करने वाला भी जीवित बच जाता है । काल को पाकर कोई भी उसका उल्‍लंघन नहीं कर सकता । ‘काल सभी विविध प्राणियों को खींचता है । कुलश्रेष्‍ठ ! काल के लिये न तो कोई प्रिय है और न कोई द्वेष का पात्र ही । ‘भरतश्रेष्‍ठ ! जैसे वायु तिनकों को सब ओर उड़ाती और गिराती रहती है, उसी प्रकार सारे प्राणी काल के अधीन होकर आते-जाते रहते हैं । ‘एक साथ आये हुए सभी प्राणियों को एक दिन वहीं जाना है । 

     जिसका काल आ गया, वह पहले चला जाता है; फिर उसके लिये व्‍यर्थ शोक क्‍यों ? ‘राजन् ! जो लोग युद्ध में मारे गये हैं और जिनके लिये आप बारंबार शोक कर रहे हैं, वे महामनस्‍वी वीर शोक करने के योग्‍य नहीं हैं, वे सब-के-सब स्‍वर्गलोक में चले गये । ‘अपने शरीर का त्‍याग करने वाले शूरवीर जिस तरह स्‍वर्ग में जाते हैं, उस तरह दक्षिणावाले यज्ञों, तपस्‍याओं तथा विद्या से भी कोई नहीं जा सकता ।

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्री पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 19-23 का हिन्दी अनुवाद)

    ‘वे सभी वीर वेदवेत्ता और अच्‍छी तरह ब्रह्मचर्य व्रतकापालन करने वाले थे । ये सब-के-सब शत्रुओं का सामना करते हुए मारे गये थे; अत: उनके लिये शोक करने की क्‍या आवश्‍यकता है ? ।‘उन श्रेष्‍ठ पुरुषों ने शूरवीरों के शरीर रूपी अग्नियों में बाण रूपी हविष्‍य की आहुतियाँ दी थीं और अपने शरीर में जिनका हवन किया गया था, उन बाणों का आघात सहन किया था । ‘राजन् ! मैं तुम्‍हें स्‍वर्ग-प्राप्ति का सबसेउत्तम मार्ग बता रहा हूँ । इस जगत् में क्षत्रिय के लिये युद्ध से बढ़कर स्‍वर्ग साधक दूसरा कोई उपाय नहीं है । ‘वे सभी महामनस्‍वी क्षत्रिय वीर युद्ध में शोभा पाने वाले थे । वे उत्तम भोगों से सम्‍पन्न पुण्‍यलोकों में जा पहुँचे हैं, अत: उन सबके लिये शोक नहीं करना चाहिये । 

     ‘पुरुषप्रवर ! आप स्‍वयं ही अपने मन को आश्‍वासन देकर शोक को त्‍याग दीजिये । आज शोक से व्‍याकुल होकर आपको अपने कर्तव्‍य कर्म का त्‍याग नहीं करना चाहिये’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्व के अन्‍तर्गत जलप्रदानिकपर्व में विदुरजी का वाक्‍यविषक नवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत  

स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)

दसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (स्‍त्री पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“स्त्रियों और प्रजा के लोगों के सहित राजा धृतराष्‍ट्र का रणभूमि में जाने के लिये नगर से बाहर लिकलना”

    वैशम्‍पायनजी कहते हैं ;– राजन् ! विदुर की यह बात सुनकर पुरुषश्रेष्‍ठ राजा धृतराष्‍ट्र ने रथ जोतने की आज्ञा देकर पुन: इस प्रकार कहा । 

    धृतराजष्‍ट्र बोले ;– गान्‍धारी को तथा भरतवंशी अन्‍य सब स्त्रियों को शीघ्र ले आओ तथा वधू कुन्‍ती को साथ लेकर वहाँ जो दूसरी स्त्रियाँ हो, उन्‍हें भी बुला लो । परम धर्मज्ञ विदुर जी से ऐसा कहकर शोक से जिनकी ज्ञानशक्ति नष्‍ट–सी हो गयी थी, वे धर्मात्‍मा राजा धृतराष्‍ट्र रथ पर सवार हुए । गान्‍धारी पुत्र शोक से पीड़ित हो रही थीं, पति की आज्ञा-पाकर वे कुन्‍ती तथा अन्‍य स्त्रियों के साथ जहाँ राजा धृतराष्‍ट्र थे, वहाँ आयीं । वहाँ राजा के पास पहुँचकर अत्‍यन्‍त शोक में डूबी हुई वे सारी स्त्रियाँ एक दूसरी को पुकार-पुकारकर परस्‍पर गले से लग गयीं और जोर-जोर से फूट-फूटकर रोने लगीं । विदुरजी ने उन सब स्त्रियों को आश्‍वासन दिया । वे स्‍वयं भी उनसे अधिक आर्त हो गये थे । 

      आँसुओं से गग्दद कण्ठ हुई उन सबको रथ पर चढ़ाकर वे नगर से बाहर निकले । तदनन्‍तर कौरवों के सभी घरों में बड़ा भारी आर्तनाद होने लगा । बूढ़ों से लेकर बच्‍चों तक सारा नगर शोक से व्‍याकुल हो उठा । जिन स्त्रियों को पहले कभी देवताओं ने भी नहीं देखा था, उन्‍हीं को उस समय पतियों के मारे जाने पर साधारण लोग देख रहे थे । वे नारियाँ अपने सुन्‍दर केश बिखराये सारे अभूषण उतारकर एक ही वस्त्र धारण किये अनाथ की भाँति रणभूमि की ओर जा रही थीं । कौरवों के घर श्‍वेत पर्वत के समान जान पड़ते थे । 

    उनसे जब वे स्त्रियाँ बाहर निकलीं, उस समय जिनका यूथपति मारा गया हो, पर्वतों की गुफा से निकली हुई उन चितकबरी हरिणियों के समान दिखायी देने लगीं । राजन् ! राजभवन के विशाल आँगन में एकत्र हुई उन किशोरी स्त्रियों के अनेक समुदाय शोक से पीड़ित होकर रणभूमिकी ओर उसी प्रकार चले, जैसे बछेड़ियाँ शिक्षा भूमि पर लायी जाती हैं । एक दूसरी के हाथ पकड़कर पुत्रों, भाइयों और पिताओं के नाम ले-लेकर रोती हुई वे कुरुकुल की नारीयाँ प्रलयकाल में लोक-संहार का दृश्‍य दिखाती हुई-सी जान पड़ती थी । शोक से उनकी ज्ञानशक्ति लुप्‍त-सी हो गयी थी । वे रोती और विलाप करती हुई इधर-उधर दौड़ रही थीं । उन्‍हें कोई कर्तव्‍य नहीं सूझ्‍ रहा था ।  

     जो युवतियाँ पहले सखियों के सामने आने में भी लजाती थीं, वे ही उस दिन लाज छोड़कर एक वस्त्र धारण किये अपनी सासुओं के सामने उपस्थित हो गयी थीं । राजन् ! जो नारियाँ छोटे-से-छोटे शोक में भी एक-दूसरी के पास जाकर आश्‍वासन दिया करती थीं, वे ही शोक से व्‍याकुल हो परस्‍पर दृष्टिपात मात्र कर रही थीं । उन रोती हुई सहस्त्रों स्त्रियों से घिरे हुए दुखी राजा धृतराष्‍ट्र नगर से युद्धस्‍थल में जाने के लिये तुरन्‍त लिकल पड़े । 

      कारीगर, व्‍यापारी वैश्‍य तथा सब प्रकार के कर्मों से जीवन-निर्वाह करने वाले लोग राजा को आगे करके नगर से बाहर निकले । कौरवों का संहार हो जाने पर आर्तभाव से रोती और विलपती हुई उन नारियों का महान् आर्तनाद सम्‍पूर्ण लोकों को व्‍यथित करता हुआ प्रकट होने लगा । प्रलयकाल आने पर दग्‍ध होते हुए प्राणियोंकेचीखने-चिल्लाने के समान उन स्त्रियों के रोने का वह महान् शब्‍द गूँज रहा था । सब प्राणी ऐसा समझने लगे कि यह संहारकाल आ पहुँचा है । महाराज ! कुरुकुल का संहार हो जाने से अत्‍यन्‍त उद्विग्‍नचित्त हुए पुरवासी जो राजवंश के साथ पूर्ण अनुराग रखते थे, जोर-जोर से रोने लगे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्व के जलप्रदानिकपर्व में धृतराष्‍ट्र का नगर से निकलनाविषयक दसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

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