शिव पुराण शतरुद्र संहिता के इकतालीसवाँ, बयालीसवाँ व तैंतालीसवाँ अध्याय (the forty-one, forty-two and forty three chapter of Shiv Purana Shatarudra Samhita)

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【कोटिरुद्र संहिता】

इकतालीसवाँ अध्याय

"मुक्ति वर्णन"

ऋषि बोले ;- हे सूत जी ! आपके मुख से हमने कई बार मुक्ति शब्द को सुना है। मुक्ति मिलने से क्या होता है? कृपा कर मुक्ति के स्वरूप का वर्णन करें। तब ऋषियों के प्रश्न को सुनकर,,

 सूत जी बोले ;- हे ऋषिगणो! भगवान शिव की भक्तिपूर्वक आराधना करने अथवा उनका उपवास व्रत करने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे मोक्ष अर्थात मुक्ति मिल जाती है। सारुमी, सालोक्य, सान्निध्या तथा सायुज्य नामक चार प्रकार की मुक्ति बताई गई हैं। इस संसार से मुक्ति शिवजी की कृपा से ही प्राप्त होती है। धर्म, अर्थ और काम ये सब तो ब्रह्मा, विष्णु एवं अन्य देवता भी प्रदान करते हैं परंतु मुक्ति तो त्रिलोकीनाथ शिव ही प्रदान करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु रुद्र नामक त्रिदेव क्रमशः सत्व, रज और तम गुणों के स्वामी माने जाते हैं। भगवान शिव तो परब्रह्म परमात्मा हैं। वे सर्वेश्वर हैं और प्रकृति से परे हैं। कल्याणकारी सर्वेश्वर भगवान शिव ही विज्ञानमय, अव्यय, सर्वद्रष्टा, ज्ञानलभ्य, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के फल को देने वाले हैं। कैवल्य नामक पांचवीं मुक्ति है, जिससे सारी सृष्टि उत्पन्न हुई है और वही उसका पालन भी करती है। भगवान शिव का स्वरूप निष्कल और सकल दो प्रकार का है। भगवान शिव का स्वरूप तो स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, कुमार कार्तिकेय, नारद, व्यास, शुकदेव आदि महामुनि एवं देवता भी सही से नहीं जान पाए हैं।

     त्रिलोकीनाथ भगवान शिव सच्चिदानंद, सत्य ज्ञान, अंत रहित अव्यय अविनाशी हैं। वे सगुण भी हैं और निर्गुण भी हैं। वे शुद्ध, निर्मल एवं उपाधिरहित हैं। वे परमब्रह्म परमात्मा भगवान शिव ही सर्वत्र व्याप्त हैं। सूक्ष्म बुद्धि द्वारा भगवान शिव का भजन करने से ही अज्ञानता दूर होती है और सत्पुरुषों को शिवपद की प्राप्ति होती है। यद्यपि ज्ञान प्राप्ति अत्यंत कठिन हैं परंतु भगवान शिव का शुद्ध मन से भजन करने से मुक्ति का मार्ग सरल हो जाता है। सदाशिव भजन के अधीन हो ज्ञान एवं मुक्ति से अपने भक्तों को अपनी शरण में ले लेते हैं। जिसकी परम कृपा से मुक्ति का मार्ग आसान हो जाता है वह प्रेम का अंकुर रूप प्रेम लक्षण भक्ति ही है, जिसका वर्णन करना असंभव है। भक्ति, गुण युक्त एवं गुण रहित, अनेकों प्रकार की है, जिसका वर्णन अत्यंत कठिन है। वैद्य एवं स्वाभाविकी नामक भक्ति में स्वाभाविकी भक्ति श्रेष्ठ मानी जाती है। नैष्ठिकी भक्ति छः और अनैष्ठिकी भक्ति एक प्रकार की है। उसके बाद फिर वह विहित एवं अविहित भेदों से कई प्रकार की है। इन दोनों के नौ अंग हैं। इनके द्वारा कठिन मुक्ति भी सुलभ हो जाती है। इस प्रकार भक्ति और ज्ञान दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। उनमें भेद नहीं किया जा सकता। इनके साधक को सदा सुख की प्राप्ति होती है। अतः भगवान शिव की सदा भक्ति करनी चाहिए। मुनियो ! मैंने मुक्ति का वर्णन आपसे किया जिसे सुनकर सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है।

【कोटिरुद्र संहिता】

बयालीसवाँ अध्याय

"ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र एवं शिव के स्वरूपों का वर्णन"

ऋषियों ने पूछा ;- हे सूत जी ! ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र एवं शिव कौन हैं? इनमें से कौन सगुण है और कौन निर्गुण? कृपा कर हमारी इस शंका को दूर करें और हमें उनके स्वरूप के बारे में बताएं। 

सूत जी ने ऋषियों के प्रश्न को सुनकर कहा ;- हे ऋषिगणो ! वेदों का श्रेष्ठ ज्ञान रखने वाले यह मानते हैं कि निर्गुण परमात्मा ने सर्वप्रथम जिस सगुण रूप को उत्पन्न किया, वह रूप ही शिव है। उन्हीं से प्रकृति उत्पन्न हुई। उन दोनों प्रकृति पुरुष जल के नीचे जिस स्थान पर कठिन तपस्या की थी, उसे पंचकोसी कहा जाता है, जो कि काशी में स्थित है। यह पूरा विश्व जल में व्याप्त है, यह सोचकर श्रीहरि विष्णु जल में ही सो गए थे और इसी कारण वे नारायण नाम से प्रसिद्ध हुए एवं प्रकृति रूपी माया नारायणी कहलाई । नारायण के नाभि कमल से ही पितामह ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई थी । ब्रह्मा के उत्पन्न होने पर उन्होंने अपने को पैदा करने वाले के विषय में जानने के लिए घोर तप किया। तत्पश्चात उन्हें विष्णुजी के दर्शन हुए। तब ब्रह्मा और विष्णु दोनों में किसी बात को लेकर विवाद हो गया। इस विवाद को शांत करने के लिए 'महादेव' प्रकट हुए। तब लोकहित के लिए भगवान शिव पुनः ब्रह्माजी के ललाट से प्रकट हुए और रुद्र के नाम से विख्यात हुए। इसलिए सगुण और निर्गुण शिव में कोई अंतर नहीं है। भगवान शिव अनेक प्रकार की लीलाएं करने वाले हैं और अपने भक्तों को श्रेष्ठ गति प्रदान करने वाले हैं। ये ही ब्रह्माजी और श्रीहरि विष्णु की सहायता के लिए यहां प्रकट हुए हैं।

    सभी देव भगवान शिव की भक्ति और पूजा करते हैं। जो मनुष्य अन्य देवताओं की भक्ति करते हैं वे अन्य देवताओं में विलीन होते हैं और जब उन देवताओं का रुद्र में विलय होता है तब उन्हें शिव भक्ति प्राप्त होती है जबकि भगवान शिव में आस्था रखने वाले सभी भक्त शीघ्र ही रुद्र स्वरूप हो जाते हैं। अज्ञान के कई प्रकार हैं, जबकि ज्ञान का कोई अन्य प्रकार नहीं है। ब्रह्माजी से लेकर तृण तक सभी शिवजी के रूप हैं। इस सृष्टि का आदि, मध्य एवं अंत सब शिव हैं। इस सृष्टि का अंत हो जाने पर भी शिव स्थित रहेंगे। त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ही वेदों के रचयिता हैं। वे सब विद्याओं के स्वामी हैं। वही सृष्टि की रचना करते हैं। संसार में निवास करने वाले प्राणियों का पालन एवं संहार करने वाले सर्वेश्वर शिव ही हैं। देवाधिदेव महादेव ही कालों के महाकाल हैं। वे सबकुछ अपनी इच्छा के अनुसार करते हैं। कल्याणकारी भगवान शिव अनेक रूप होते हुए भी एक रूप ही हैं। यह उत्तम शिवज्ञान तत्वतः बताया गया है और इसे ज्ञानी मनुष्य ही जान सकते है।

हे मुनियो ! इस प्रकार मैंने आपको देवाधिदेव ! त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का तत्वज्ञान सुना दिया है। इस तत्वज्ञान को सुनने अथवा पढ़ने से सभी पापों से छूटकर मोक्ष की प्राप्ति होती है।

【कोटिरुद्र संहिता】

तैंतालीसवाँ अध्याय

"ज्ञान निरूपण"

ऋषि बोले ;- हे महामुनि सूत जी जिस ज्ञान के द्वारा शिव स्वरूप की प्राप्ति होती है उस शिव ज्ञान के बारे में हमें बताकर कृतार्थ कीजिए ऋषियों द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए,,

 सूत जी बोले ;- हे ऋषिगणो एक बार की बात है कि नारद, शौनक, कुमार, व्यास, कपिल आदि मुनियों ने एक सभा का आयोजन किया जिसमें उन्होंने निश्चय किया कि सारा ब्रह्माण्ड शिव रूप है। उनकी इच्छा से ही इस जगत की रचना हुई है। वे ही हैं जिनके कारण यह संसार चलायमान है। वे चित्स्वरूप हैं और शुभ लक्षणों से युक्त वेदों को जानने वालों में श्रेष्ठ परम ब्रह्म परमात्मा हैं। शिवजी अज्ञान से परे ज्ञान के विशाल भंडार हैं। मनुष्यों के भ्रम के कारण ही शिव अनेक रूपों में दिखाई पड़ते हैं परंतु जब मनुष्य अज्ञान को मिटाकर ज्ञान की प्राप्ति कर लेता है, तब वह सदाशिव के उस एक स्वरूप को जान और समझ सकता है।

   जिस प्रकार इस ब्रह्माण्ड में सबको प्रकाशित करने वाला केवल एक सूर्य है, परंतु जल में उसके अनेक प्रतिबिंब दिखाई पड़ते हैं इसी प्रकार शिवजी भी एक होते हुए भ्रम के कारण अनेक रूप दिखाई देते हैं। इस संसार में हर प्राणी अपने अहंकार और घमंड का फल भोगता है। भगवान शिव तो भक्तवत्सल हैं, वे सदा ही अहंकार रहित हैं। उनका विधि-विधान एवं भक्ति भावना से किया गया पूजन पापों का नाश करने वाला तथा ज्ञान प्रदान करने वाला है।

जब अज्ञान का नाश होता है तभी ज्ञान का उदय होता है। ज्ञान के उदय से अहंकार का नाश हो जाता है। अहंकार के नष्ट होने से बुद्धि निर्मल होती है और मनुष्य भगवान शिव के स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, वह जीवन-मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है। वह मनुष्य अपने शरीर को त्यागकर शिव में विलीन हो जाता है। इसी को मुक्ति कहा जाता है। संसार में ज्ञानी मनुष्य वही है, जिसे न कोई खुशी होती है और न ही कोई गम सताता है, जिसे अच्छे-बुरे का कोई अंतर नहीं पड़ता।

   सुख और दुख दोनों ही समान रूप हैं जब मनुष्य मन में मुक्ति की कामना लेकर आत्मयोग के द्वारा शरीर को शिव साधना में समर्पित कर देता है, तब वह सांसारिक व्याधियों से छूट जाता है। अतः मोक्ष की प्राप्ति के लिए भगवान सदाशिव से बढ़कर कोई देवता नहीं है। उनकी शरण में जाकर ही जीव संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।

ब्राह्मणो! इस प्रकार वहां पधारे हुए ऋषियों ने आपस में यह निश्चय किया कि ज्ञान की बातों को अवश्य ही मन मस्तिष्क में मनुष्य को धारण करना चाहिए। इस प्रकार मैंने आपको आपके द्वारा पूछी गई सब बातें बता दी है। अब आप और क्या जानना चाहते हैं? 

ऋषि बोले ;- हे व्यासशिष्य सूत जी ! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप धन्य हैं और त्रिलोकीनाथ शिव के भक्तों में श्रेष्ठ है। आपकी अनुकंपा से हमारे मन की सभी शंकाए मिट गई हैं और पापों का नाश करने वाले और मोक्ष देने वाले शिवतत्व के ज्ञान की प्राप्ति हुई, जिससे आज हमारा जीवन सफल हो गया है।

सूत जी बोले ;- हे द्विजो! जो मनुष्य श्रद्धाहीन, नास्तिक और भक्ति में रुचि नहीं रखता उसे शिव तत्व ज्ञान का उपदेश नहीं देना चाहिए। इस शिव तत्व ज्ञान का उत्तम उपदेश मुझे व्यास जी ने दिया है। यह ज्ञान उन्हें वेदों, पुराणों, शास्त्रों और इतिहास के अध्ययन से प्राप्त हुआ है। इसे एक बार सुनने से पापों का नाश हो जाता है। दुबारा सुनने से उत्तम भक्ति प्राप्त होती है और तीसरी बार सुनने से मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिए भोग और मोक्ष की कामना करने वालों को शिवतत्व ज्ञान को बार-बार सुनना चाहिए।

यह शिव विज्ञान शिवजी को अत्यंत प्रिय है। यह ज्ञान, भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है। इससे शिवजी में भक्ति बढ़ती है। शिव पुराण की इस आनंददायिनी पुण्यमयी चौथी संहिता का नाम कोटिरुद्र संहिता है। इसका भक्तिपूर्वक अध्ययन अथवा श्रवण करने से परमगति की प्राप्ति होती है।

॥ श्रीकोटिरुद्र संहिता संपूर्ण ॥


॥ श्रीउमा संहिता प्रारंभ 


(नोट :- सभी अंश, सभी संहिता के सभी अध्याय व खण्ड की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

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