शिव पुराण कोटिरुद्र संहिता के छत्तीसवें अध्याय से चालीसवें अध्याय तक (From the thirty-sixth to the fortieth chapter of the Shiva Purana Kotirudra Samhita)

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【कोटिरुद्र संहिता】

छत्तीसवाँ अध्याय

"शिव सहस्रनाम का फल"

सूत जी बोले ;— हे मुनिगणो ! श्रीहरि विष्णु ने भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु उनके सहस्रनामों का पाठ आरंभ किया। वे एक नाम का जाप करते और एक कमल पुष्प शिवजी को अर्पित करते। इस प्रकार वे प्रतिदिन सहस्त्र कमल पुष्प अपने आराध्य शिव को अर्पित करते थे। एक दिन शिवजी की लीलावश एक कमल का पुष्प कम पड़ गया तब अपने व्रत को पूरा करने हेतु श्रीहरि ने अपना एक नेत्र कमल के स्थान पर शिवजी को अर्पित किया। जिससे प्रसन्न होकर कल्याणकारी शिव ने उन्हें सुदर्शन चक्र प्रदान किया। 

भगवान शिव बोले ;- हे श्रीहरे ! आपने मेरे स्वरूप का स्मरण करते हुए शिव सहस्रनाम का पाठ किया है इसलिए आपके सभी मनोरथों की सिद्धि होगी। मेरे द्वारा दिया गया यह सुदर्शन चक्र तुम्हें सदैव भयमुक्त करता रहेगा। जो भी मनुष्य प्रातःकाल शुद्ध हृदय एवं भक्तिभावना से प्रतिदिन मेरे सहस्त्र नामों का पाठ करेगा उसे सभी सिद्धियां प्राप्त हो जाएंगी। उसे किसी प्रकार का दुख या भय नहीं होगा। इस महास्तोत्र का सौ बार पाठ करने से अवश्य कल्याण होता है। सभी प्रकार के रोग नष्ट हो जाते हैं तथा अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। इस प्रकार, इस सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्यों को सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है तथा उसकी सभी मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होती हैं। साथ ही वह जीवन-मरण के झंझटों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त करता है। 

भगवान शिव के इन उत्तम वचनों को सुनकर श्रीहरि बहुत प्रसन्न हुए,,,

 और बोले ;- हे देवाधिदेव महादेव जी! मैं आपका दास हूं और आपकी शरण में हूं। मैं सदा आपकी भक्ति में लगा रहूंगा। आप मुझ पर सदैव इसी प्रकार अपनी कृपादृष्टि बनाए रखें। 

  तब शिवजी बोले ;- हे विष्णो! मैं तुम्हारी अनन्य भक्ति से संतुष्ट हूं। तुम सभी देवताओं में श्रेष्ठ एवं स्तुति के योग्य होगे। तुम इस जगत में विश्वंभर नाम से विख्यात होगे। यह कहकर शिवजी वहां से अंतर्धान हो गए। भगवान श्रीविष्णु भी वरदान से प्रसन्न होकर अपने आराध्य शिवजी का धन्यवाद करते हुए बैकुण्ठलोक को चले गए। फिर वे प्रतिदिन शिवजी के सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करने लगे और अपने भक्तों को भी इसका उपदेश दिया । हे मुनिगणो! इस प्रकार मैंने आपको शिव सहस्रनाम स्तोत्र का फल बताया। इसे पढ़ने अथवा सुनने से सभी पापों का नाश हो जाता है।

* भगवान शिव के प्रत्येक नाम से पहले ॐ लगाकर, नाम को चतुर्थी विभक्ति में करके यदि अंत में 'नमः' लगाकर संपूर्ण वाक्य का सस्वर उच्चारण करते हुए पूजन-अभिषेक आदि किया जाए, तो वह परम कल्याणकारी होता है।*


【कोटिरुद्र संहिता】

सैंतीसवाँ अध्याय

"शिव भक्तों की कथा"

सूत जी बोले ;- हे मुनियो ! अब मैं आपको भगवान शिव की उपासना की एक कथा बताता हूं। यह कथा एक बार ब्रह्माजी ने देवर्षि नारद को सुनाई थी । 

ब्रह्माजी ने कहा ;- हे देवर्षि नारद! एक बार मैंने, विष्णुजी एवं देवी लक्ष्मी ने मिलकर भगवान शिव का पूजन किया, जिसके फलस्वरूप हमारी सभी कामनाएं पूरी हुईं। भगवान शिव का पूजन तो दुर्वासा, विश्वामित्र, दधीचि, शक्ति, गौतम, कर्णाद, भार्गव, बृहस्पति, वैशंपायन, पाराशर, व्यास, उपमन्यु, याज्ञवल्क्य, जैमिनी, गर्ज आदि अनेक महामुनि सदा किया करते हैं। यही नहीं, शौनक, अतिथि एवं देवराज इंद्र, बसु, साध्य, गंधर्व, किन्नर आदि देवता ही नहीं हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, बाणासुर, वृषपर्वादनु आदि महादानव भी त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की भक्ति में मग्न रहते हैं। वासुकि, शेष, तक्षक, गरुड़ आदि पक्षीगण भी शिवजी के परम भक्त हैं और उनका पूजन करते हैं। सूर्य, चंद्र, स्वायंभुव राजा मनु, उत्तानपाद, ध्रुव, ऋषभ, भरत आदि अनेक गणमान्य, कीर्तिप्राप्त महाराज और सम्राट भी शिवजी के परम भक्त हुए हैं।

      राजा दिलीप रघु नीतिज्ञ गुरु वशिष्ठ की आज्ञा से अयोध्या के सूर्यवंशी राजा दशरथ ने अपनी रानियों के साथ भगवान शिवजी का पूजन किया था। तब सर्वेश्वर शिव ने अपनी कृपादृष्टि उन पर कर अपना आशीर्वाद प्रदान किया था। शिवजी के पूजन के फलस्वरूप ही राजा दशरथ की बड़ी रानी कौशल्या के गर्भ से श्रीविष्णु के अवतार श्रीराम, सुमित्रा से शेषावतार लक्ष्मण और शत्रुघ्न एवं कैकेयी के गर्भ से भरत ने जन्म लिया। श्रीराम भगवान शिव के परम भक्त थे और गले में रुद्राक्ष की माला धारण करते थे।

    महर्षि वशिष्ठ ने अपनी तपस्या के बल से सुद्युम्न को पुत्र प्राप्त होने का वरदान प्रदान किया था। एक दिन सुद्युम्न घूमते-घूमते उस वन में पहुंच गए, जहां पहुंचकर प्रत्येक पुरुष स्त्री हो जाता था । ऐसा भगवान शिव के पार्वती जी को दिए गए वरदान के कारण होता था। उस वन में पहुंचकर सुद्युम्न भी स्त्री बन गए। स्त्री भाव को प्राप्त हो जाने के कारण वे बहुत दुखी थे, तब उन्होंने भक्तिभाव से भगवान शिव की आराधना की। उन्होंने शिवजी का पार्थिव लिंग स्थापित किया और उसका पूजन करके आराधना आरंभ कर दी। शिवजी ने प्रसन्न होकर उनके दुख को दूर किया। शिवजी की कृपा से सुद्युम्न एक माह पुरुष और एक माह स्त्री बन जाते थे। कुछ समय पश्चात उन्होंने वन में जाकर शिवजी की घोर तपस्या की तब भगवान शिव की कृपा से उन्हें शिव भक्ति द्वारा मोक्ष की प्राप्ति हुई।

    इसी प्रकार, श्रीविष्णु जी के अवतार श्रीकृष्ण ने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की बदरीगिरि नामक पर्वत पर सात महीने तक अखण्ड तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया था। देवाधिदेव महादेवजी ने उन पर अपनी कृपा की, जिसके फलस्वरूप श्रीकृष्ण ने पूरे ब्रह्माण्ड को अपने वश में कर लिया था। यही नहीं, उन्होंने अनेक राक्षसों एवं दैत्यों का संहार भी किया था। इस संसार में वे गुरु के रूप में पूजित हुए । श्रीकृष्ण के वंश में उत्पन्न प्रद्युम्न, सांब भी भगवान शिव के परम भक्त हुए। मुनियो ! भक्तवत्सल कल्याणकारी भगवान शिव की आराधना में देवता, ऋषि, मुनि, मनुष्य और राक्षस भी सदा तत्पर रहते हैं। शिवजी के भक्तों की गणना असंभव है।

【कोटिरुद्र संहिता】

अड़तीसवाँ अध्याय

"शिवरात्रि का व्रत विधान"

ऋषि बोले ;- हे महामुने सूत जी ! जिस व्रत के करने त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी भगवान शिव प्रसन्न होते हैं, वह व्रत हमें सुनाइए ।

 तब ऋषियों के प्रश्न को सुनकर सूत जी बोले ;- हे ऋषिगणो! पूर्वकाल में एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव से यह प्रश्न पूछा कि स्वामी! किस विधि एवं व्रत से संतुष्ट होकर आप अपने भक्तों को भोग और मोक्ष प्रदान करते हैं? 

   तब सर्वेश्वर शिव बोले ;- हे देवी! मुझे प्रसन्न करने एवं भोग- मोक्ष प्राप्त करने के लिए तो अनेकों व्रत हैं। वेदों को जानने वाले उत्तम महर्षि दस उपवासों को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। इन व्रतों का विधि-विधान मैं आपको बताता हूं। प्रत्येक महीने की अष्टमी को व्रत करें तथा रात के समय ही व्रत को खोलकर भोजन ग्रहण करें परंतु कालाष्टमी पर रात में भी भोजन न करें। दिन के समय व्रत रखकर मेरा पूजन करें और रात्रि के समय भोजन लें। शुक्ल पक्ष की एकादशी को रात में भी भोजन न करें। इसी प्रकार शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी में रात को भोजन करें परंतु कृष्णपक्ष की त्रयोदशी पर रात में भी भोजन न करें।

    इन सभी व्रतों में शिवरात्रि का व्रत सर्वोत्तम माना गया है। शिवरात्रि का व्रत फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष में होता है। इस दिन प्रातःकाल जल्दी जागें । नित्य कर्म करने के पश्चात शिव मंदिर में जाकर विधिपूर्वक भगवान शिव का पूजन करने के पश्चात उनसे प्रार्थना करें कि हे नीलकण्ठ! मैं आज इस शिवरात्रि के उत्तम व्रत को धारण कर रहा हूं। आपसे मेरी कामना है कि आप मेरे व्रत को निर्विघ्न पूर्ण करें। काम, क्रोध, शत्रु आदि मेरा कुछ न बिगाड़ सकें । भगवन्! आप सदा मेरी रक्षा करें। इस प्रकार संकल्प लें। तत्पश्चात रात होने पर पूजन की सभी सामग्री को एकत्रित कर ऐसे शिव मंदिर में जाएं जहां शिवलिंग की प्रतिष्ठा शास्त्रों के अनुसार की गई हो ।

    शरीर को स्नान से शुद्ध करके स्वच्छ वस्त्र पहनकर आसन पर बैठकर भगवान शिव का पूजन करें। एक सौ आठ बार शिवमंत्र का उच्चारण करते हुए जलधारा शिवजी को अर्पित करें। इसी जलधारा से अर्पित की गई वस्तुओं को नीचे उतारें। तत्पश्चात गुरु मंत्र का जाप करते हुए शिवजी को काले तिल चढ़ाएं। भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र भीम, महान, भीम, ईशान नामक आठ शिव नामों का उच्चारण करते हुए कमल और कनेर के फूल शिवजी पर चढ़ाएं। फिर धूप, दीप और नैवेद्य अर्पित कर उन्हें नमस्कार करें। जप हो जाने पर धेनुमुद्रा दिखाकर जल से उसका तर्पण करें। तत्पश्चात विधिपूर्वक विसर्जन करें। इस प्रकार रात्रि के पहले पहर में पूजन करें।

   रात्रि का दूसरा पहर होने पर पुनः शिवलिंग पर गंध, पुष्प आदि द्रव्यों द्वारा सर्वेश्वर शिव का पूजन करें। दो सौ सोलह शिव मंत्र का जाप करते हुए पार्थिव लिंग पर जल धारा चढ़ाएं। तिल, जौ, चावल, बेलपत्र, अर्घ्य, बिजौर आदि वस्तुओं से पूजन करना चाहिए। तत्पश्चात खीर का नैवेद्य अर्पित करें तथा पुनः शिव मंत्र का जाप करें। ब्राह्मणों को भोजन कराएं और संकल्प करें। 

    फल और फूल अर्पित कर उसका विसर्जन करें। तीसरे पहर में ही विधि-विधान से पूजन करें परंतु इस पहर में जौ की जगह गेहूं और आक के फूलों से पूजन करें। पूजन के पश्चात कपूर से आरती करें। अर्घ्य के रूप में अनार अर्पित करें। फिर ब्राह्मण को भोजन कराएं और संकल्प लें। चौथा प्रहर आरंभ होने पर शिवजी का आवाह्न करके उड़द, कंगनी, मूंग व सात धातुओं, शंख फूल एवं बिल्व अदि को मंत्र जाप करते हुए अर्पित करें। तत्पश्चात केले एवं अन्य फल मिष्ठान अर्पित करें और जप करें। फिर सामर्थ्य के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराने का संकल्प करें। सूर्योदय तक उत्सव करें। फिर स्नान करके भगवान शिव का पूजन करें। तत्पश्चात संकल्प किए हुए ब्राह्मणों को बुलाकर भोजन कराएं, फिर शिवजी से प्रार्थना करें।

    हे दयानिधान! कृपानिधान! देवाधिदेव भगवान शिव ! मैंने जाने-अनजाने आपकी भक्ति में तत्पर हो आपका व्रत और पूजन किया है। आप मुझ पर कृपा कर इस पूजन को स्वीकार करें। हे प्रभु! मैं चाहे जहां भी रहूं मेरी भक्ति सदा आप में रहे, यह कहकर पुष्पांजलि अर्पित कर ब्राह्मण को तिलक लगाएं और उसके चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लें। इस प्रकार विधिपूर्वक किए गए शिवरात्रि के व्रत का बहुत अधिक माहात्म्य है। इस व्रत से शिवजी के सान्निध्य की प्राप्ति होती है और मोक्ष पाकर वह मनुष्य सांसारिक बंधनों से छूट जाता है। इस उत्तम व्रत का माहात्म्य श्रीपार्वती जी एवं श्रीहरि विष्णु ने भी सुना फिर शिव महिमा का गुणगान करते हुए वे बैकुंठलोक को चले गए और वहां जाकर विष्णुजी ने लोक कल्याण हेतु इस महाव्रत को किया ।

【कोटिरुद्र संहिता】

उन्तालीसवाँ अध्याय

"शिवरात्रि- व्रत उद्यापन की विधि"

सूत जी बोले ;— हे ऋषिगणो! अब मैं आपको शिवरात्रि के महाव्रत की उद्यापन विधि बताता हूं। चौदह वर्षों तक शिवरात्रि के व्रत का नियमपूर्वक पालन करना चाहिए। त्रयोदशी के दिन सिर्फ एक बार भोजन करें। शिव चतुर्दशी को निराहार व्रत को पूरा करें। रात को शिवालय में गौरीतिलक मण्डप की रचना करें। उसके बीच में लिंग व भद्र मण्डल की रचना करें। उसी स्थान पर प्रजापत्य नामक कलशों की स्थापना करें। उस कलश के वाम भाग में पार्वती जी एवं दक्षिण में शिवजी की प्रतिमा स्थापित करें एवं उनका पूजन करें। व्रत करने वाले मनुष्यों को ऋत्विजों के साथ आचार्य का वरण करके उनकी आज्ञा से शिवजी का आवाहन करके विसर्जन तक पूरी रात्रि शिवजी का विधिपूर्वक पूजन करना चाहिए। भगवत संबंधी कीर्तन, गीत व नृत्य करते हुए रात बितानी चाहिए। प्रातः स्नानादि से निवृत्त हो विधि के अनुसार होम करें फिर प्रजापत्य का पूजन कर ब्राह्मणों को भक्तिपूर्वक भोजन कराएं। भोजन कराने के पश्चात ऋत्विजों को वस्त्र, आभूषण दें तथा बछड़े सहित गौ का दान आचार्य को करें। तत्पश्चात शिवजी से प्रार्थना करें कि हे देवाधिदेव ! आप हम पर प्रसन्न हों और हमारी पूजा स्वीकार करें। यह कहकर मण्डप की सब सामग्री भी आचार्य को दान कर दें। तत्पश्चात नम्रतापूर्वक दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर प्रेम से महाप्रभु देवाधिदेव भक्तवत्सल भगवान शिव से प्रार्थना करें।

   हे देवाधिदेव महादेव! देवेश्वर ! शरणागतवत्सल ! शिवरात्रि के इस महाव्रत से संतुष्ट होकर आप मुझ पर कृपा करें। प्रभो ! मैंने भक्तिपूर्वक विधिनुसार इस शुभ व्रत को पूर्ण किया है, फिर भी यदि कहीं कोई त्रुटि रह गई हो या कुछ कमी रह गई हो तो उसे क्षमा करें और मुझ पर अपनी कृपादृष्टि करें। मैंने जाने-अनजाने में जो भी जप पूजन किया है, उसे सफल कर स्वीकार करें।

   इस तरह शिवजी से प्रार्थना कर उन्हें नमस्कार करें। जो मनुष्य इस विधि के अनुसार इस शुभ व्रत को पूर्ण करता है, उसका व्रत अवश्य ही सफल होता है। इस व्रत के प्रभाव से उस मनुष्य को मनोवांछित सिद्धि प्राप्त होती है।

【कोटिरुद्र संहिता】

चालीसवाँ अध्याय

"निषाद चरित्र"

  सूत जी बोले ;- हे ऋषियो ! प्राचीनकाल में गुरु द्रुह नामक भील अपने परिवार के साथ जंगल में रहता था। उसका कार्य पशुओं का वध करना था। इसी तरह से वह अपने परिवार का लालन-पालन करता था। एक दिन की बात है, उसके घर में खाने-पीने के लिए कुछ भी नहीं था, तब उसके माता-पिता एवं अन्य सदस्य भूख से व्याकुल होकर भील से बोले कि हम भूख से मर रहे हैं, कुछ खाने का प्रबंध करो। यह सुनकर उस भील ने अपना धनुष-बाण लिया और शिकार की तलाश में चल दिया। संयोगवश यह शिवरात्रि का ही पावन दिन था। शिकारी दर-दर भटकता रहा परंतु उसे कुछ न मिला। धीरे-धीरे रात घिर आई परंतु उसने खाली हाथ घर न लौटने का निश्चय कर लिया था। इसलिए वह तालाब के किनारे बैठ गया कि जो भी पशु जल पीने यहां आएगा, उसी का शिकार कर लूंगा। ऐसा विचार कर वह बेल के पेड़ पर बैठ गया।

   रात घिर आई थी। तभी वहां एक हिरनी जल पीने के लिए आई। उसे देखकर भील ने अपने धनुष पर बाण चढ़ाया। उसी समय ओस में भीगे कुछ बेल के पत्ते वहां स्थित शिवजी के ज्योतिर्लिंग पर गिरे, जिससे भील द्वारा प्रथम पहर की पूजा पूरी हो गई और भील के पापों का नाश हो गया। उधर, भील के धनुष की टंकार से हिरनी सबकुछ जान गई । 

वह उस भील से प्रार्थना करने लगी ;- हे भील! आप मेरा वध करना चाहते हैं। मुझे मारकर अपनी भूख मिटाना चाहते हैं। यदि ऐसा करने से आपका दुख दूर होता है तो मैं मरने के लिए तैयार हूं परंतु आप थोड़ी देर रुक जाएं। मेरे बच्चे अकेले हैं। मैं उन्हें अपनी बहन के पास छोड़ आती हूं। तब भील को विश्वास दिलाकर वह हिरनी वहां से चली गई और भील उसके इंतजार में जागता रहा। इसलिए उसे जागरण का फल भी मिल गया।

  कुछ देर पश्चात उस हिरनी की बहन उसे ढूंढते हुए वहां पहुंची। उसे मारने के लिए जब भील ने अपने हाथ में धनुष लिया तो पुनः बेल पत्र व ओस शिवलिंग पर चढ़ गए। इस प्रकार दूसरे पहर का भी पूजन हो गया परंतु उस हिरनी ने भी भील से प्रार्थना की कि मैं पहले अपने बच्चों को देख आऊं, तब तुम मुझे मारना । भील के आज्ञा दे देने पर वह हिरनी भी पानी पीकर वहां से चली गई और भील हिरनी का इंतजार करने लगा। इस प्रकार जागरण करते हुए रात का दूसरा पहर भी बीत गया।

    जैसे ही रात्रि का तीसरा पहर आरंभ हुआ एक मोटा हिरन पानी पीने हेतु उस तालाब पर आया। उसे देखकर भील ने जैसे ही अपने धनुष पर बाण चढ़ाया वह हिरन डर गया। उसी समय ओस रूपी जल एवं बेलपत्र पुनः शिवलिंग पर गिरे, जिससे तीसरे पहर का पूजन संपन्न हुआ। वह हिरन भी शीघ्र लौटने का वादा करके अपने बच्चों को समझाने के लिए चला गया और भील उसके इंतजार में जागता रहा। उधर दूसरी ओर वे तीनों (दो हिरनी व हिरन) घर पर एकत्रित हुए और उन्होंने सारी बातें एक-दूसरे को बताईं। जब तीनों को यह ज्ञात हुआ कि तीनों ने ही भीलराज से वादा कर लिया है, तब वे अपने बच्चों को ठीक से रहने की आज्ञा देकर वहां से तालाब की ओर चल दिए । बच्चों ने भी सोचा कि हम अपने माता-पिता के बिना कैसे रहेंगे? इसलिए वे भी उनके पीछे-पीछे चल पड़े।

    इस प्रकार हिरन, दो हिरनियां एवं उनके बच्चे एक साथ भीलराज के पास पहुंचे। इतने सारे शिकारों को एक साथ देखकर भीलराज बहुत प्रसन्न हुआ। जैसे ही उसने उन्हें मारने के लिए धनुष निकाला, एक बार फिर ओस रूपी जल एवं बेलपत्र वहां स्थित शिव ज्योतिर्लिंग पर चढ़ गए। इस प्रकार अनजाने में ही उसके चौथे पहर की पूजा भी पूरी हुई, जिसके फलस्वरूप उसके सभी पाप कर्म नष्ट हो गए और उसे ज्ञान की प्राप्ति हुई। उसने अपने मन में विचार किया कि मुझसे श्रेष्ठ तो ये पशु हैं जो परोपकार के लिए अपने प्राण न्योछावर करना चाहते हैं और मैं मनुष्य होकर भी हत्या आदि बुरे कार्यों में संलग्न हूं। ऐसा विचार कर,,

 भील बोला ;- हे मृग ! मृगियो ! तुम धन्य हो। तुम्हारा जीवन सफल है। तुम जाओ और प्रसन्नतापूर्वक निवास करो, मैं तुम्हें नहीं मारूंगा।

भील के इतना कहते ही भगवान शिव ज्योतिर्लिंग से प्रकट हो गए । एकाएक इस प्रकार अपने सामने साक्षात देवाधिदेव महादेव को पाकर उस भील की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी और उसने प्रभु के चरण पकड़ लिए। 

तब शिवजी ने प्रसन्न होकर कहा ;- हे व्याधर्षे! तुम्हारे पूजन से मैं बहुत प्रसन्न हूं। तुम शृंगवेरपुर जाकर आनंदपूर्वक निवास करो। प्रभु रामचंद्र तुम्हारे घर पधारेंगे और उनसे तुम्हारी मित्रता हो जाएगी। अंत में सुखों को भोगकर तुम्हें मोक्ष की प्राप्ति होगी। यह कहकर शिवजी वहां से अंतर्धान हो गए।

हे ऋषियो! इस प्रकार एक पापी व्याध से अनजाने में हुए शिव चतुर्दशी व्रत से उसे भोग और मोक्ष की प्राप्ति हुई।

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