शिव पुराण उमा संहिता के पहले अध्याय से पाचवें अध्याय तक (From the first to the fifth chapter of the Shiva Purana Uma Samhita)

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【उमा संहिता】

प्रथम अध्याय

"श्रीकृष्ण- उपमन्यु संवाद"

जो रजोगुण से संसार की सृष्टि करते हैं, सत्वगुण से सात भुवनों को धारण करके उनका भरण-पोषण करते हैं और तमोगुण से युक्त हो इस जगत का संहार करते हैं, जो इन तीनों गुणों की माया को त्यागकर पुनः शुद्ध रूप में स्थित हैं, उन सत्यानंद स्वरूप अनंत बोधमय, निर्मल, परमब्रह्म शिव का हम ध्यान करते हैं। वे सर्वेश्वर शिव ही सृष्टिकाल में ब्रह्मा, पालन के समय विष्णु और संहार के समय रुद्र नाम धारण करते हैं। सत्व गुण एवं सत्व भाव से ही उनकी प्राप्ति संभव है।

   ऋषि बोले ;- हे महाज्ञानी व्यास शिष्य सूत जी ! हम सब आपको नमस्कार करते हैं। आपने हम पर कृपा कर हमें कोटिरुद्र संहिता को सुनाया है। अब हमें उमा संहिता में वर्णित श्रीपार्वती जी और शिवजी की अद्भुत लीलाओं के बारे में बताइए । 

ऋषियों की इस प्रार्थना को सुनकर,,

 सूत जी बोले ;- हे मुनिगणो! आपकी प्रसन्नता के लिए मैं परम दिव्य भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले इस मंगलमय चरित्र को सुनाता हूं। पूर्वकाल में मुनि व्यास ने सनत्कुमार जी से इस कथा को सुना था।

सनत्कुमार जी बोले ;- हे व्यास जी ! श्रीकृष्ण पुत्र पाने की इच्छा लेकर कैलाश पर्वत पर तपस्या करने पहुंचे। वहां उन्होंने उपमन्यु को तपस्या करते देखा और उनसे सब बातें कहीं तथा शिव महिमा बताने के लिए भी कहा। 

तब उपमन्यु बोले ;- हे श्री कृष्ण ! एक बार जप करते हुए मैंने शिवजी का दर्शन किया। उनके पास अव्यय, गुह्य एवं अनेक दिव्य अस्त्र-शस्त्र भी थे। शिवजी का त्रिशूल अत्यंत शक्तिशाली है एवं सागर के जल को एक पल में सुखा सकता है। इसी त्रिशूल से शिवजी ने लवणासुर का वध किया था। वहां मैंने एक फरसा देखा,जो अत्यंत तीक्ष्ण धार वाला था । यही फरसा शिवजी ने परशुराम को दिया था। साथ ही वहां सुदर्शन चक्र भी था, जो करोड़ों सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था। शिवजी का पिनाक नामक धनुष, तलवार, गदा आदि शस्त्र भी मैंने वहां देखे ।

तत्पश्चात मैंने त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी भगवान शिव को वहां पर देखा । उनके दाहिनी ओर ब्रह्माजी हंस से जुते विमान में बैठे थे और बाईं ओर श्रीहरि विष्णु गरुड़ पर बैठे हुए थे। मनु, भृगु आदि ऋषिगण देवराज इंद्र सहित सभी देवता वहां उनके सम्मुख खड़े थे। रुद्र जी के पास ही नंदी एवं अन्य भूतगण बैठे थे। सभी हाथ जोड़कर अपने आराध्य देव की स्तुति कर रहे थे। उन्हें देखकर मैंने भी सर्वेश्वर शिव की स्तुति करनी आरंभ कर दी। 

तभी शिवजी ने मुझे साक्षात दर्शन दिए और बोले ;- हे ब्राह्मण ! मैं आपकी भक्ति से प्रसन्न हूं। अपना मनचाहा वर मांगो।

शिवजी के उत्तम वचनों को सुनकर, मैंने हाथ जोड़कर कहा ;- हे देवाधिदेव महादेव ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो मुझे अपनी अविरल भक्ति प्रदान कीजिए । प्रभो ! मुझे मेरे परिवार सहित दूधभात का भोजन सदा मिलता रहे। उपमन्यु के वचन सुनकर शिवजी बोले तथास्तु! तुम सब मुनियों में परम ऐश्वर्यशाली होगे तथा तुम्हें सदैव अमृतमय क्षीर की प्राप्ति होगी। जब भी तुम भक्ति भाव से मेरा ध्यान करोगे, मैं तुम्हें दर्शन दूंगा। यह कहकर शिवजी वहां से अंतर्धान हो गए। 

हे कृष्ण ! भगवान शिव ही सब तत्वों के ज्ञाता हैं, वे ही सर्वेश्वर हैं और इस संसार का हित और कल्याण करने वाले हैं। अतः पुत्र प्राप्ति हेतु तुम शिवजी की आराधना करो।

【उमा संहिता】

दूसरा अध्याय

"शिव-भक्तों का आख्यान"

श्रीकृष्ण जी ने उपमन्यु से पूछा ;- हे ब्राह्मण राज ! भगवान शिव के पूजन से जिन शिवभक्तों का उद्धार हुआ है अर्थात शिवजी की विशेष कृपा जिन्हें प्राप्त हुई है, उनके विषय में बताइए। 

 श्रीकृष्ण के प्रश्न को सुनकर उपमन्यु बोले ;- हे कृष्ण ! राक्षसराज हिरण्यकशिपु ने शिवजी को अपनी घोर तपस्या से प्रसन्न किया, तब उन्होंने उसे ऐश्वर्य संपन्न राज्य प्रदान किया। उसी का पुत्र नंदन भी शिवजी से वरदान पाकर युद्ध में विजयी हुआ और उसने देवराज इंद्र को दस हजार वर्षों तक अपना दास बनाए रखा। इसी प्रकार सतमुख राक्षस ने शिव पूजन कर हजार पुत्र प्राप्त किए। जब ऋषि याज्ञवल्क्य ने शिवजी की आराधना से उन्हें प्रसन्न किया, तो वे वेदों के महान ज्ञाता हुए। व्यास मुनि को भी शिव कृपा से वेद, पुराण, इतिहास एवं शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त हुआ।

    एक बार की बात है, शिवजी के क्रोध से पृथ्वी का सब जल सूख गया था, तब सब देवताओं ने शिवजी को उनकी आराधना करके प्रसन्न किया। उस समय शिवजी ने अपने कपाल से जल प्रकट किया था। राजा चित्रसेन की भक्ति से प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें निर्भय कर दिया। शिव भक्ति से एक साधारण से गोप श्रीकर को परम सिद्धि प्राप्त हुई। सीमंतिनी के सोमवार के व्रत के पुण्य एवं भक्ति फल से शिवजी ने उसके पति चित्रांगद की रक्षा की। चंचुला नामक व्यभिचारिणी स्त्री के गोकर्ण में कथा सुनने से भक्तवत्सल भगवान शिव ने उसके सभी पापों का नाश कर दिया और उसके पति विंदुग को भी सद्गति प्रदान की। महाकाय नामक व्याध ने शिव भक्ति से सद्गति पाई। महामुनि दुर्वासा को शिव भक्ति से मोक्ष की प्राप्ति हुई। यही नहीं, ब्रह्माजी ने शिव आराधना द्वारा इस पूरी सृष्टि की रचना की मार्कण्डेय जी भगवान शिव की कृपा से ही दीर्घायु हुए। भगवान शिव के वर से ही शांडिल्य जगत प्रसिद्ध एवं पूजनीय हुए। इस प्रकार मैंने आपको शिवजी के अनेकों भक्तों के बारे में बताया, जिन्हें शिव कृपा से रिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति हुई।

【उमा संहिता】

तीसरा अध्याय

"शिव माहात्म्य वर्णन"

श्रीकृष्ण जी ने उपमन्यु से पूछा ;- हे महामुने ! क्या भगवान शिव मुझे भी दर्शन देंगे? उनकी बात सुनकर,,

 उपमन्यु बोले ;- अवश्य ही भगवान शिव आपको दर्शन देंगे। मैं आपको एक अद्भुत मंत्र बताता हूं, जिसके जाप से निश्चय ही शिवजी प्रसन्न होकर न केवल आपको दर्शन देंगे अपितु आपकी पुत्र प्राप्ति की इच्छा भी अवश्य पूरी करेंगे। तब उन्होंने श्रीकृष्ण को शिव महिमा का वर्णन करते हुए पंचाक्षरी मंत्र 'ॐ नमः शिवाय' की दीक्षा दी। उपमन्यु सारी विधि-विधान जानकर श्रीकृष्ण ने शिवजी को प्रसन्न करने हेतु जटाजूट धारण किया और फिर अपने पैर के अंगूठे पर खड़े रहकर कठिन तपस्या आरंभ कर दी।

   श्रीकृष्ण को भक्तिपूर्वक शिव उपासना करते-करते पंद्रह माह बीत गए। सोलहवां महीना लगते ही सर्वेश्वर शिव ने प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण को श्री पार्वती जी सहित दर्शन दिए और,,

 बोले ;- हे कृष्ण ! आप मेरे परम भक्त हैं। आपकी इस भक्तिपूर्ण आराधना से मैं बहुत प्रसन्न हूं। मांगो, क्या मांगना चाहते हो? शिवजी के ऐसे वचन सुनकर,,

 श्रीकृष्ण बोले ;- हे देवाधिदेव महादेव जी! आपने मुझे दर्शन देकर आज मेरा जीवन सफल कर दिया। भगवन्! मैं आपसे चाहता हूं कि मैं सदा धर्म के मार्ग पर चलूं और संसार में यश प्राप्त करूं। मेरा निवास आपके पास हो और आपमें मेरी सदा दृढ़ भक्ति बनी रहे। मैं सदा युद्ध में विजयी रहूं। मैं शत्रुओं का नाश कर योगीजनों का प्यारा बनूं और मुझे दस पराक्रमी पुत्रों की प्राप्ति हो ।

     श्रीकृष्ण के वचनों को सुनकर शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें सभी वर प्रदान कर दिए। श्री पार्वती जी ने लोक कल्याण हेतु ब्राह्मणों की सेवा करने का वर प्रदान किया। तत्पश्चात शिव पार्वती अंतर्धान हो गए। तब श्रीकृष्ण भी प्रसन्नतापूर्वक उपमन्यु के पास पहुंचे और उन्हें अपने वरदान के बारे में बताकर वे अपनी नगरी द्वारिका को चले गए।

    श्रीरामचंद्र जी ने भी भगवान शिव की आराधना कर उन्हें प्रसन्न किया और उनसे दिव्य अस्त्र प्राप्त किए। शिवजी के आशीर्वाद के फलस्वरूप उन्होंने लंका के विशाल समुद्र पर पुल बनाकर लंकेश्वर रावण को मारकर अपनी पत्नी सीता को मुक्त कराया। परशुराम ने शिवजी को प्रसन्न कर शिवजी से परशु नामक फरसा प्राप्त किया और उससे ही अपने पिता ऋषि जमदग्नि का वध करने वाले सहस्रार्जुन का वध किया । चाक्षुष नामक मनु पुत्र ने शाप भोगते हुए भी दण्डक वन में शिवजी की तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें सांसारिक बंधनों से मुक्त कर गणेश जी का गण बना दिया। गर्ग मुनि की आराधना से प्रसन्न होकर एक हजार पराक्रमी पुत्रों का आशीर्वाद प्रदान किया। शिवजी की कृपा से ही गालव नामक एक निर्धन ने अपनी तपस्या से शिवजी को प्रसन्न कर अपने पिता को पुनर्जीवित कर दिया। मुनियो ! इस प्रकार मैंने आपसे शिव माहात्म्य का वर्णन किया।

【उमा संहिता】

चौथा अध्याय

"शिव माया वर्णन"

   व्यास जी बोले ;- हे सनत्कुमार जी ! अब आप हमें त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के लीलामय चरित्र के विषय में बताइए । 

   यह सुनकर सनत्कुमार जी बोले ;- हे व्यास जी ! भगवान शिव परम ब्रह्म परमात्मा हैं। वे ही सबके ईश्वर हैं। शिवजी से ही आठ देव योनि, एक मानव योनि एवं पांच पक्षी योनि अर्थात चौदह योनियां उत्पन्न हुई हैं। ब्रह्मा, विष्णु, देवेंद्र, चंद्र, सूर्य आदि सभी देवताओं सहित दानव, नाग, किन्नर, गंधर्व आदि सभी की उत्पत्ति शिवजी की कृपा से हुई है। इस सारे जगत में शिवजी की माया फैली है। इस संसार में घटित होने वाली हर घटना शिव माया का ही रूप है। उनकी आज्ञा के बिना इस धरती पर एक पत्ता भी नहीं हिलता है।

   सर्वेश्वर शिव की माया के कारण ही पूरा जगत कामदेव के अधीन हो जाता है। उनकी माया से मोहित होकर ही देवराज इंद्र महामुनि गौतम की पत्नी अहिल्या पर आसक्त हुए थे, जिसके फलस्वरूप उन्हें शाप मिला था। श्रीहरि विष्णु भी शिव माया के कारण ही स्त्रियों में विहार करने लगे थे। चंद्रमा भी मोहित होकर अपने गुरुदेव की पत्नी को भगाकर ले गए थे। और पाप के भागी बने थे तथा शिव भक्ति से उन्हें शाप से मुक्ति मिली थी। एक बार मित्र व वरुण देव भी शिव माया से मोहित होकर स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी पर आसक्त हो गए थे, जिससे दोनों का शक्तिपात हो गया । मित्र ने अपनी शक्ति घड़े में डाल दी थी, जिससे मुनिवर वशिष्ठ उत्पन्न हुए। जबकि वरुण देव ने उसे जल में त्यागा, जिसके फलस्वरूप बड़वानल जैसे तपस्वी अगस्त्य पुत्र हुए। गौतम ऋषि का शारदूती पर मोहित होने के पीछे एक महान कार्य अस्त्र-शस्त्रों के महान ज्ञाता द्रोणाचार्य का जन्म था। यही नहीं, महामुनि विश्वामित्र का स्वर्ग की अप्सरा मेनका पर मोहित होना भी शिव माया का ही एक रूप था। लंकेश्वर रावण का सीताजी को उठाकर ले जाना भी रावण को श्रीराम द्वारा मारे जाने के निमित्त था। इस प्रकार इस ब्रह्माण्ड में घटने वाली प्रत्येक घटना, शिवजी की इच्छा के अनुसार ही होती है। शिवजी की माया पूरे जगत में व्याप्त है, जिसका पूर्ण वर्णन करना मेरे लिए क्या किसी के लिए भी संभव नहीं है।

【उमा संहिता】

पाँचवाँ अध्याय

"नरक में गिराने वाले पापों का वर्णन"

व्यास जी बोले ;– हे मुनीश्वर ! इस संसार में पाप कर्म करने वाले पापी मनुष्य सदा नरक के भागी होते हैं। ऐसे नरक जाने वाले प्राणियों के विषय में मुझे बताइए । व्यास जी के वचन सुनकर सनत्कुमार जी बोले- हे व्यास जी ! इस संसार में अनेक प्रकार के पाप कर्म होते हैं, जिनके कारण मनुष्य को नरक जाना पड़ता है। परस्त्री की इच्छा, पराया धन पाने की इच्छा, दूसरों का बुरा सोचना, अधर्म करना, ये सब मन के पाप होते हैं। इसी प्रकार झूठ बोलना, कठोर बोलना, दूसरों की चुगली करना, ये वाणी द्वारा किए गए पाप कर्म होते हैं। अभक्ष भक्षण करना, हिंसा करना, असत्य कार्य करना एवं किसी का धन वस्तु हड़प लेना, ये सभी शारीरिक पाप कहे जाते हैं और इनका फल बहुत भयानक होता है। अपने गुरु अथवा माता पिता की निंदा करने वाले महापापी नरक में जाते हैं। यही नहीं, ब्राह्मणों को कष्ट देना, शिव ग्रंथों को नष्ट करना भी महापाप माना जाता है।

   जो मनुष्य भगवान शिव की स्तुति एवं पूजन नहीं करते और न ही शिवलिंग को नमस्कार करते हैं, वे भी नरक के भागी होते हैं। बिना गुरु की पूजा के शास्त्रों को सुनने की कोशिश करने वाले, गुरु सेवा से जी चुराने वाले, गुरु त्यागी एवं गुरु का अपमान करने वाले, नरकगामी होते हैं। ब्रह्म हत्या करने, मद्यपान करने, गुरु के स्थान पर बैठने तथा गुरुमाता को कुदृष्टि से देखने वाले नरक में जाने योग्य ही होते हैं। वेदों की जानकारी रखने वाले एवं पूजन-आराधन को त्याग देने वाले, दूसरों की अमानत को हड़पने वाले तथा चोरी करने वाले, सभी मनुष्यों को अवश्य ही नरक में रहना पड़ता है। परस्त्री का भोग करने वाले अथवा व्यभिचार करने वाले मनुष्य अवश्य ही नरक में जाते हैं। यही नहीं, पुरुष, स्त्री, हाथी, घोड़ा, गाय, पृथ्वी, चांदी, वस्त्र, औषध, रस, चंदन, अगर, कपूर, पट्ठे, कस्तूरी आदि को अकारण ही बेच देने वाले मूर्ख मनुष्यों को नरक अवश्य भोगना पड़ता है। हे मुनियो, इस प्रकार मैंने आपसे ऐसे कृत्यों का वर्णन किया, जो कि महापाप माने जाते हैं और जिनके कारण मनुष्य को नरक की घोर कष्टदायक यातनाएं झेलनी पड़ती हैं।

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