सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)
“दान लेने और अनुचित भोजन करनेका प्रायश्षित्त”
युधिष्ठिने कहा--पितामह! आपने भोज्यान्न और अभोज्यान्न सभी तरहके मनुष्योंका वर्णन किया; किंतु इस विषयमें मुझे पूछनेयोग्य एक संदेह उत्पन्न हो गया। उसका मेरे लिये समाधान कीजिये ।। १ ।।
प्राय: ब्राह्मणोंको ही हव्य और कव्यका प्रतिग्रह लेना पड़ता है और उन्हें ही नाना प्रकारके अन्न ग्रहण करनेका अवसर आता है। ऐसी दशामें उन्हें पाप लगते हैं, उनका क्या प्रायश्चित्त है? यह मुझे बतावें ।। २ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन! महात्मा ब्राह्मणोंको प्रतिग्रह लेने और भोजन करनेके पापसे जिस प्रकार छुटकारा मिलता है, वह प्रायश्ित्त मैं बता रहा हूँ, सुनो ।। ३ ।।
युधिष्ठिर! ब्राह्मण यदि घीका दान ले तो गायत्री-मन्त्र पढ़कर अग्निमें समिधाकी आहुति दे। तिलका दान लेनेपर भी यही प्रायश्चित्त करना चाहिये। ये दोनों कार्य समान हैं ।। ४ ।।
फलका गुद्दा, मधु और नमकका दान लेनेपर उस समयसे लेकर सूर्योदयतक खड़े रहनेसे ब्राह्मण शुद्ध हो जाता है ।। ५ ।।
सुवर्णका दान लेकर गायत्री-मन्त्रका जप करने और खुले तौरपर काले लोहेका दंड धारण करनेसे ब्राह्मण उसके दोषसे छुटकारा पाता है ।। ६ ।।
नरश्रेष्ठ इसी प्रकार धन, वस्त्र, कन्या, अन्न, खीर और ईखके रसका दान ग्रहण करनेपर भी सुवर्ण-दानके समान ही प्रायश्चित्त करे | ७६ ।।
गन्ना, तेल और कुशोंका प्रतिग्रह स्वीकार करनेपर त्रिकाल स्नान करना चाहिये। धान, फूल, फल, जल, पूआ, जौकी लपसी और दही-दूधका दान लेनेपर सौ बार गायत्री-मन्त्रका जप करना चाहिये ।। ८-९ ।।
श्राद्धमें जूता और छाता ग्रहण करनेपर एकाग्रचित्त हो यदि सौ बार गायत्री-मन्त्रका जप करे तो उस प्रतिग्रहके दोषसे छुटकारा मिल जाता है || १० ।।
>ग्रहणके समय अथवा अशौचमें किसीके दिये हुए खेतका दान स्वीकार करनेपर तीन रात उपवास करनेसे उसके दोषसे छुटकारा मिलता है ।। ११ ।।
जो द्विज कृष्णपक्षमें किये हुए पितृश्राद्धका अन्न भोजन करता है, वह एक दिन और एक रात बीत जानेपर शुद्ध होता है ।। १२ ।।
ब्राह्मण जिस दिन श्राद्धका अन्न भोजन करे, उस दिन संध्या, गायत्री-जप और दुबारा भोजन त्याग दे। इससे उसकी शुद्धि होती है ।। १३ ।।
इसीलिये अपराह्लकालमें पितरोंके श्राद्धका विधान किया गया है। (जिससे सबेरेकी संध्योपासना हो जाय और शामको पुनर्भोजनकी आवश्यकता ही न पड़े) ब्राह्मणोंको एक दिन पहले श्राद्धका निमन्त्रण देना चाहिये। जिससे वे पूर्वोक्त प्रकारसे विशुद्ध पुरुषोंके यहाँ यथावत् रूपसे भोजन कर सकें ।। १४ ।।
जिसके घर किसीकी मृत्यु हुई हो, उसके यहाँ मरणाशौचके तीसरे दिन अन्न ग्रहण करनेवाला ब्राह्मण बारह दिनोंतक त्रिकाल स्नान करनेसे शुद्ध होता है ।।
बारह दिनोंतक स्नानका नियम पूर्ण हो जानेपर तेरहवें दिन वह विशेषरूपसे स्नान आदिके द्वारा पवित्र हो ब्राह्मणोंको हविष्य भोजन करावे। तब उस पापसे मुक्त हो सकता है ।। १६ ||
जो मनुष्य किसीके यहाँ मरणाशौचमें दस दिनतक अन्न खाता है, उसे गायत्री-मन्त्र, रैवत शाम, पवित्रेष्टि कृष्माण्ड अनुवाक् और अघमर्षणका जप करके उस दोषका प्रायश्चित करना चाहिये ।। १७ ।।
इसी प्रकार जो मरणाशौचवाले घरमें लगातार तीन रात भोजन करता है, वह ब्राह्मण सात दिनोंतक त्रिकाल स्नान करनेसे शुद्ध होता है ।। १८ ।।
यह प्रायश्रित्त करनेके बाद उसे सिद्धि प्राप्त होती है और वह भारी आपत्तिमें कभी नहीं पड़ता है ।।
जो ब्राह्मण शूद्रोंके साथ एक पंक्तिमें भोजन कर लेता है, वह अशुद्ध हो जाता है। अतः उनकी शुद्धिके लिये शास्त्रीय विधिके अनुसार यहाँ शौचका विधान है ।।
जो ब्राह्मण वैश्योंके साथ एक पंक्तिमें भोजन करता है, वह तीन राततक व्रत करनेपर उस कर्मदोषसे मुक्त होता है || २१ ।।
जो ब्राह्मण क्षत्रियोंके साथ एक पंक्तिमें भोजन करता है, वह वस्त्रोंसहित स्नान करनेसे पापमुक्त होता है | २२ ।।
ब्राह्णणफा तेज उसके साथ भोजन करनेवाले शूद्रके कुलका, वैश्यके पशु और बान्धवोंका तथा क्षत्रियकी सम्पत्तिका नाश कर डालता है ।। २३ ।।
इसके लिये प्रायश्रित्त और शान्तिहोम करना चाहिये। गायत्री-मन्त्र, रैवत साम, पवित्रेष्टि, कृष्माण्ड अनुवाक् और अघमर्षण मन्त्रका जप भी आवश्यक है ।।
किसीका जूठा अथवा उसके साथ एक पंक्तिमें भोजन नहीं करना चाहिये। उपर्युक्त प्रायश्चित्तके विषयमें संशय नहीं करना चाहिये। प्रायश्चित्त करनेके अनन्तर गोरोचन, दूर्वा और हल्दी आदि मांगलिक वस्तुओंका स्पर्श करना चाहिये || २५ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें प्रायश्षित्तविधि नामक एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
टिका टिप्पणी;-
कुछ लोग 'ग्रहसूतकयो:” का अर्थ करते हैं “कारागारस्थाशौचवतो” इसके अनुसार जो जेलमें रह आया हो तथा जो जनन-मरण-सम्बन्धी अशौचसे युक्त हो ऐसे लोगोंका दिया हुआ क्षेत्रदान स्वीकार करनेपर तीन रात उपवास करनेसे प्रतिग्रह-दोषसे छुटकारा मिलता है।
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ सैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ सैतीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-32 का हिन्दी अनुवाद)
“दानसे स्वर्गलोकमें जानेवाले राजाओंका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा--भरतनन्दन! पितामह! आप कहते हैं कि दान और तप दोनोंसे ही मनुष्य स्वर्गमें जाता है, परंतु मेरे मनमें संशयजनित दुःख हो रहा है। आप इसका निवारण कीजिये। इस पृथ्वीपर दान और तपमेंसे कौन-सा साधन श्रेष्ठ है, यह बतानेकी कृपा करें ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! तपस्यासे शुद्ध अन्तः:करणवाले जिन धर्मात्मा राजाओंने दान-पुण्यमें तत्पर रहकर नि:सन्देह बहुत-से उत्तम लोक प्राप्त किये हैं, उनके नाम बता रहा हूँ, सुनो । २ ।।
राजन्! लोकसम्मानित महर्षि आत्रेय अपने शिष्योंको निर्गुण ब्रह्मका उपदेश देकर उत्तम लोकोंमें गये हैं |। ३ ।।
उशीनरकुमार शिवि अपने प्यारे पुत्रके प्राणोंको ब्राह्मणके लिये निछावर करके यहाँसे स्वर्गलोकमें चले गये ।।
काशीके राजा प्रतर्दनने अपने प्यारे पुत्रको ब्राह्मणकी सेवामें अर्पित कर दिया, जिसके कारण उन्हें इस लोकमें अनुपम कीर्ति मिली और परलोकमें भी वे अक्षय आनन्दका उपभोग कर रहे हैं ।। ५ ।।
संकृतिके पुत्र राजा रन्तिदेवने महात्मा वसिष्ठ मुनिको विधिवत् अर्घ्यदान किया, जिससे उन्हें श्रेष्ठ लोकोंकी प्राप्ति हुई |। ६ ।।
देवावृध नामक राजा यज्ञमें सोनेकी सौ तीलियोंवाले सुन्दर दिव्य छत्रका ब्राह्मणको दान करके स्वर्ग-लोकको प्राप्त हुए हैं ।। ७ ।।
ऐश्वर्यशशाली राजा अम्बरीष अमित तेजस्वी ब्राह्मणको अपना सारा राज्य सौंपकर देवलोकको प्राप्त हुए ।। ८ ।।
सूर्यपुत्र कर्ण अपना दिव्य कुण्डल देकर तथा महाराजा जनमेजय ब्राह्मणको सवारी और गौ दान करके उत्तम लोकोंमें गये हैं ।। ९ ।।
राजर्षि वृषादर्भिने ब्राह्मणोंको नाना प्रकारके रत्न तथा रमणीय गृह प्रदान करके स्वर्गलोकमें स्थान प्राप्त किया है || १० ।।
विदर्भके पुत्र राजा निमि अगस्त्य मुनिको अपनी कन्या और राज्यका दान करके पुत्र, पशु और बान्धवोंसहित स्वर्गलोकमें चले गये ।। ११ ।।
महायशस्वी जमदग्निनन्दन परशुरामजीने ब्राह्मणको भूमिदान करके उन अक्षय लोकोंको प्राप्त किया है, जिन्हें पानेकी मनमें कल्पना भी नहीं हो सकती ।। १२ ।।
एक बार संसारमें वर्षा न होनेपर मुनिवर वसिष्ठजीने समस्त प्राणियोंको जीवन दान दिया था, जिससे उन्हें अक्षय लोकोंकी प्राप्ति हुई |। १३ ।।
दशरथनन्दन भगवान् श्रीरामचन्द्रजी यज्ञोंमें प्रचुर धनकी आहुति देकर संसारमें अपने महान् यशकी स्थापना करके अक्षय लोकोंमें चले गये ।। १४ ।।
महायशस्वी राजर्षि कक्षसेन महात्मा वसिष्ठको अपना सर्वस्व समर्पण करके स्वर्गलोकमें गये हैं || १५ ।।
करन्धमके पौत्र, अविक्षित॒के पुत्र महाराज मरुत्तने अंगिराके पुत्र संवर्तको कन्यादान करके शीघ्र ही स्वर्गलोकमें स्थान प्राप्त कर लिया ।। १६ ।।
पाज्चालदेशके राजा धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ ब्रह्मदत्तने ब्राह्यणगको शंखनामक निधि प्रदान करके परम गति प्राप्त कर ली थी ।। १७ ।।
राजा मित्रसह महात्मा वसिष्ठ मुनिको अपनी प्यारी पत्नी मदयन्ती सेवाके लिये देकर स्वर्गलोकमें चले गये ।। १८ ।।
मनुपुत्र राजा सुद्युम्न महात्मा लिखितको धर्मतः दण्ड देकर परम उत्तम लोकोंमें गये ।। १९ ।।
महान् यशस्वी राजर्षि सहस्नचित्य ब्राह्मणके लिये अपने प्यारे प्राणोंकी बलि देकर श्रेष्ठ लोकोंमें गये हैं ।।
महाराजा शत्द्युम्नने मौदगल्य नामक ब्राह्मणको समस्त कामनाओंसे परिपूर्ण सुवर्णमय गृह दान देकर स्वर्ग प्राप्त किया है ।। २१ ।।
राजा सुमन्युने भक्ष्य, भोज्य पदार्थोके पर्वत-जैसे कितने ही ढेर लगाकर उन्हें शाण्डिल्यको दान दिया था। जिससे उन्होंने स्वर्गलोकमें स्थान प्राप्त कर लिया ।।
महातेजस्वी शाल्वराज द्युतिमान् महर्षि ऋचीकको राज्य देकर सर्वोत्तम लोकोंमें चले गये ।। २३ ।।
राजर्षि मदिराश्व अपनी सुन्दरी कन्या विप्रवर हिरण्यहस्तको देकर देवताओंके लोकमें चले गये ।।
प्रभावशाली राजर्षि लोमपादने मुनिवर ऋष्यशृंगको अपनी शान्ता नामवाली कन्या दान की थी, इससे उनकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्णरूपसे सफल हुईं || २५ ।।
राजर्षि भगीरथ अपनी यशस्विनी कन्या हंसीका कौत्स ऋषिको दान करके अक्षय लोकोंमें गये हैं || २६ ।।
राजा भगीरथने कोहल नामक ब्राह्णको एक लाख सवत्सा गौएँ दान कीं, जिससे उन्हें उत्तम लोकोंकी प्राप्ति हुई || २७ ।।
युधिष्ठिर! ये तथा और भी बहुत-से राजा दान और तपस्याके प्रभावसे बारंबार स्वर्गलोकको जाते और पुनः वहाँसे इस लोकमें लौट आते हैं ।। २८ ।।
जिन गृहस्थोंने दान और तपस्याके बलसे उत्तम लोकोंपर विजय पायी है, उनकी कीर्ति इस लोकमें तबतक प्रतिष्ठित रहेगी, जबतक कि यह पृथ्वी स्थिर रहेगी || २९ ।।
युधिष्ठिर! यह शिष्ट पुरुषोंका चरित्र बताया गया है। ये सब नरेश दान, यज्ञ और संतानोत्पादन करके स्वर्गमें प्रतिष्ठित हुए हैं | ३० ।।
कौरवधुरंधर! तुम भी सदा दान करते रहो। तुम्हारी बुद्धि दान और यज्ञकी क्रियामें संलग्न हो धर्मकी उन्नति करती रहे ।। ३१ ।।
नृपश्रेष्ठ! अब तुम्हें जिस विषयमें संदेह होगा, उसे मैं कल सबेरे बताऊँगा; क्योंकि इस समय संध्याकाल उपस्थित है ।। ३२ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“पाँच प्रकारके दानोंका वर्णन”
(दूसरे दिन प्रातःकाल) युधिष्ठिरने पूछा--सत्यव्रती और पराक्रमसम्पन्न तात! दानजनित महान् धर्मके प्रभावसे जो-जो नरेश स्वर्गलोकमें गये हैं, उन सबका परिचय मैंने आपके मुखसे सुना है ।। १ ।।
धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ पितामह! अब मैं दानके सम्बन्धमें इन धर्मोंको सुनना चाहता हूँ कि दानके कितने भेद हैं? और जो दान दिया जाता है, उसका क्या फल मिलता है? ।। २ ।।
कैसे और किन लोगोंको धर्मके अनुसार दान देना अभीष्ट है? किन कारणोंसे देना चाहिये? और दानके कितने भेद हो जाते हैं? यह सब मैं यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ ।। ३ ।।
भीष्मजीने कहा--निष्पाप कुन्तीकुमार! भरतनन्दन! दानके सम्बन्धमें मैं यथार्थरूपसे जो कुछ कहता हूँ, सुनो। सभी वर्णोके लोगोंको दान किस प्रकार करना चाहिये--यह बता रहा हूँ || ४ ।।
भारत! धर्म, अर्थ, भय, कामना और दया--इन पाँच हेतुओंसे दानको पाँच प्रकारका जानना चाहिये। अब जिन कारणोंसे दान देना उचित है, उनको सुनो ।।
दान करनेवाला मनुष्य इहलोकमें कीर्ति और परलोकमें सर्वोत्तम सुख पाता है। इसलिये ईर्ष्यारहित होकर मनुष्य ब्राह्मणोंको अवश्य दान दे (यह धर्ममूलक दान है) |। ६ ।।
'ये दान देते हैं, ये दान देंगे अथवा इन्होंने मुझे दान दिया है' याचकोंके मुखसे ये बातें सुनकर अपनी कीर्तिकी इच्छासे प्रत्येक याचकको उसकी इच्छाके अनुसार सब कुछ देना चाहिये (यह अर्थमूलक दान है) || ७ ।।
“न मैं इसका हूँ न यह मेरा है तो भी यदि इसको कुछ न दूँ तो अपमानित होकर मेरा अनिष्ट कर डालेगा।” इस भयसे ही विद्वान् पुरुष जब किसी मूर्खको दान दे तो यह भयमूलक दान है ।। ८ ।।
“यह मेरा प्रिय है और मैं इसका प्रिय हूँ” यह विचारकर बुद्धिमान् मनुष्य आलस्य छोड़कर अपने मित्रको प्रसन्नतापूर्वक दान दे (यह कामनामूलक दान है) ।। ९ ।।
“यह बेचारा बड़ा गरीब है और मुझसे याचना कर रहा है। थोड़ा देनेसे भी संतुष्ट हो जायगा।' यह सोचकर दरिद्र मनुष्यके लिये सर्वथा दयावश दान देना चाहिये || १० ।।
यह पाँच प्रकारका दान पुण्य और कीर्तिको बढ़ानेवाला है। यथाशक्ति सबको दान देना चाहिये। ऐसा प्रजापतिका कथन है ।। ११ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ उनतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ उनतालीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-51 का हिन्दी अनुवाद)
“तपस्वी श्रीकृष्णके पास ऋषियोंका आना, उनका प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना”
युधिष्ठटिरने पूछा--महाप्राज्ञ पितामह! आप हमारे श्रेष्ठ कुलमें सम्पूर्ण शास्त्रोंके विशिष्ट विद्वान और अनेक आगमोंके ज्ञानसे सम्पन्न हैं ।। १ ।।
शत्रुदमन! मैं आपके मुखसे अब ऐसे विषयका वर्णन सुनना चाहता हूँ, जो धर्म और अर्थसे युक्त, भविष्यमें सुख देनेवाला और संसारके लिये अद्भुत हो ।। २ ।।
पुरुषप्रवर! हमारे बन्धु-बान्धवोंको यह दुर्लभ अवसर प्राप्त हुआ है। हमारे लिये आपके सिवा दूसरा कोई समस्त धर्मोका उपदेश करनेवाला नहीं है ।। ३ ।।
अनघ! यदि भाइयोंसहित मुझपर आपका अनुग्रह हो तो पृथ्वीनाथ! मैं आपसे जो प्रश्न पूछता हूँ, उसका हम सब लोगोंके लिये उत्तर दीजिये ।। ४ ।।
सम्पूर्ण नरेशोंद्वारा सम्मानित ये श्रीमान् भगवान् नारायण श्रीकृष्ण बड़े आदर और विनयके साथ आपकी सेवा करते हैं ।। ५ ।।
इनके तथा इन भूपतियोंके सामने मेरा और मेरे भाइयोंका सब प्रकारसे प्रिय करनेके लिये इस पूछे हुए विषयका सस्नेह वर्णन कीजिये ।। ६ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! युधिष्ठिरका यह वचन सुनकर स्नेहके आवेशसे युक्त हो गंगापुत्र भीष्मने यह बात कही ।। ७ ।।
भीष्मजी बोले--बेटा! अब मैं तुम्हें एक अत्यन्त मनोहर कथा सुना रहा हूँ। राजन! पूर्वकालमें इन भगवान् नारायण और महादेवजीका जो प्रभाव मैंने सुन रखा है, उसको तथा पार्वतीजीके संदेह करनेपर शिव और पार्वतीमें जो संवाद हुआ था, उसको भी बता रहा हूँ, सुनो || ८-९ ।।
पहलेकी बात है, धर्मात्मा भगवान् श्रीकृष्ण बारह वर्षोंमें समाप्त होनेवाले व्रतकी दीक्षा लेकर (एक पर्वतके ऊपर) कठोर तपस्या कर रहे थे। उस समय उनका दर्शन करनेके लिये नारद और पर्वत-ये दोनों ऋषि वहाँ पधारे ।। १० ।।
इनके सिवा श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास, जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ धौम्य, देवल, काश्यप, हस्तिकाश्यप तथा अन्य साधु-महर्षि जो दीक्षा और इन्द्रियसंयमसे सम्पन्न थे, अपने देवोपम, तपस्वी एवं सिद्ध शिष्योंके साथ वहाँ आये ।। ११-१२ ।।
देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने बड़ी प्रसन्नताके साथ देवोचित उपचारोंसे उन महर्षियोंका अपने कुलके अनुरूप आतिथ्य-सत्कार किया ।। १३ ।।
भगवानके दिये हुए हरे और सुनहरे रंगवाले कुशोंके नवीन आसनोंपर वे महर्षि प्रसन्नतापूर्वक विराजमान हुए ।।
तदनन्तर वे राजर्षियों, देवताओं और जो तपस्वी मुनि वहाँ रहते थे, उनके सम्बन्धमें धर्मयुक्त मधुर कथाएँ कहने लगे ।। १५ ।।
तत्पश्चात् व्रतचर्यारूपी ईंधनसे प्रज्वलित हुआ भगवान् नारायणका तेज अद्भुतकर्मा श्रीकृष्णके मुखारविन्दसे निकलकर अग्निरूपमें प्रकट हो वृक्ष, लता, झाड़ी, पक्षी, मृगसमुदाय, हिंसक जन्तु तथा सर्पोंसहित उस पर्वतको जलाने लगा ।। १६-१७ ।।
उस समय नाना प्रकारके जीव-जन्तुओंका आर्तनाद चारों ओर फैल रहा था, मानो पर्ववका वह अचेतन शिखर स्वयं ही हाहाकार कर रहा हो। उस तेजसे दग्ध हो जानेके कारण वह पर्वतशिखर बड़ा दयनीय दिखायी देता था ।। १८ ।।
बड़ी-बड़ी लपटोंवाली उस आगने समस्त पर्वत-शिखरको दग्ध करके भगवान् विष्णु (श्रीकृष्ण) के समीप आकर जैसे शिष्य गुरुके चरण छूता है, उसी प्रकार उनके दोनों चरणोंका स्पर्श किया और उन्हींमें वह विलीन हो गयी ।। १९ |।
तदनन्तर शत्रुसूदन श्रीकृष्णने उस पर्वतको दग्ध हुआ देखकर अपनी सौम्य दृष्टि डाली और उसे पुन: प्रकृतावस्थामें पहुँचा दिया--पहलेकी भाँति हरा-भरा कर दिया || २० ।।
वह पर्वत फिर पहलेकी ही भाँति खिली हुई लताओं और वृक्षोंसे सुशोभित होने लगा। वहाँ पक्षी चहचहाने लगे। वहाँ हिंसक पशु और सर्प आदि जीव-जन्तु जी उठे || २१ ।।
सिद्धों और चारणोंके समुदाय प्रसन्न होकर उस पर्वतकी शोभा बढ़ाने लगे। वह स्थान पुनः मतवाले हाथियों और नाना प्रकारके पक्षियोंसे सम्पन्न हो गया ।।
इस अद्भुत और अचिन्त्य घटनाको देखकर ऋषियोंका समुदाय विस्मित और रोमांचित हो उठा। उन सबके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू भर आये ।। २२ ।।
वक्ताओंमें श्रेष्ठ नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णने उन ऋषियोंको विस्मयविमुग्ध हुआ देख विनय और स्नेहसे युक्त मधुर वाणीमें पूछा-- ।। २३ ।।
“महर्षियो! ऋषिसमुदाय तो आसक्ति और ममतासे रहित है! सबको शास्त्रोंका ज्ञान है, फिर भी आपलोगोंको आश्चर्य क्यों हो रहा है? ।। २४ ।।
“तपोधन ऋषियो! आप सब लोग सबके द्वारा प्रशंसित हैं, अतः मेरे इस संशयको निश्चित एवं यथार्थ-रूपसे बतानेकी कृपा करें” || २५ ।।
ऋषियोंने कहा--भगवन्! आप ही संसारको बनाते और आप ही पुनः उसका संहार करते हैं। आप ही सर्दी, आप ही गर्मी और आप ही वर्षा करते हैं | २६ ।।
इस पृथ्वीपर जो भी चराचर प्राणी हैं, उनके पिता-माता, प्रभु और उत्पत्तिस्थान भी आप ही हैं ।।
मधुसूदन! आपके मुखसे अग्निका प्रादुर्भाव हमारे लिये इस प्रकार विस्मपजनक हुआ है। हम संशयमें पड़ गये हैं। कल्याणमय श्रीकृष्ण! आप ही इसका कारण बताकर हमारे संदेह और विस्मयका निवारण कर सकते हैं ।। २८ ।।
शत्रुसूदन हरे! उसे सुनकर हम भी निर्भय हो जायँगे और हमने जो आश्वर्यकी बात देखी या सुनी है, उसका हम आपके सामने वर्णन करेंगे | २९ ।।
श्रीकृष्ण बोले--मुनिवरो! मेरे मुखसे यह मेरा वैष्णव तेज प्रकट हुआ था; जिसने प्रलयकालकी अग्निके समान रूप धारण करके इस पर्वतको दग्ध कर डाला था ।। ३० ।
उसी तेजसे आप-जैसे तपस्याके धनी, देवोपम शक्तिशाली, क्रोधविजयी और जितेन्द्रिय ऋषि भी पीड़ित और व्यथित हो गये थे ।। ३१ ।।
मैं व्रतचर्यामें लगा हुआ था, तपस्वी जनोंके उस व्रतका सेवन करनेसे मेरा तेज ही अग्निरूपमें प्रकट हुआ था। अत: आपलोग उससे व्यथित न हों ।। ३२ ।।
मैं तपस्याद्वारा अपने ही समान वीर्यवान् पुत्र पानेकी इच्छासे व्रत करनेके लिये इस मंगलकारी पर्वतपर आया हूँ ।। ३३ ।।
मेरे शरीरमें स्थित प्राण ही अग्निके रूपमें बाहर निकलकर सबको वर देनेवाले सर्वलोक-पितामह ब्रह्माजीका दर्शन करनेके लिये उनके लोकमें गया था || ३४ ।।
मुनिवरो! उन ब्रह्माजीने मेरे प्राणको यह संदेश देकर भेजा है कि साक्षात् भगवान् शंकर अपने तेजके आधे भागसे आपके पुत्र होंगे || ३५ ।।
वही यह अग्निरूपी प्राण मेरे पास लौटकर आया है और निकट पहुँचनेपर शिष्यकी भाँति परिचर्या करनेके लिये उसने मेरे चरणोंमें प्रणाम किया है । इसके बाद शान्त होकर वह अपनी पूर्वावस्थाको प्राप्त हो गया है || ३६ ।।
तपोधनो! यह मैंने आपलोगोंके निकट बुद्धिमान् भगवान् विष्णुका गुप्त रहस्य संक्षेपसे बताया है। आपलोगोंको भय नहीं मानना चाहिये ।। ३७ ।।
आपलोगोंकी गति सर्वत्र है, उसका कहीं भी प्रतिरोध नहीं है; क्योंकि आपलोग दूरदर्शी हैं। तपस्वी जनोंके योग्य व्रतका आचरण करनेसे आपलोग देदीप्यमान हो रहे हैं तथा ज्ञान और विज्ञान आपकी शोभा बढ़ा रहे हैं || ३८ ।।
इसलिये मेरी प्रार्थना है कि यदि आपलोगोंने इस पृथ्वीपर या स्वर्गमें कोई महान् आश्चर्यकी बात देखी या सुनी हो तो उसको मुझे बतलाइये ।। ३९ ।।
आपलोग तपोवनमें निवास करनेवाले हैं, इस जगत्में आपके द्वारा कथित अमृतके समान मधुर वचन सुननेकी इच्छा मुझे सदा बनी रहती है ।। ४० ।।
महर्षियो! आपका दर्शन देवताओंके समान दिव्य है। यद्यपि द्युलोक अथवा पृथिवीमें जो दिव्य एवं अद्भुत दिखायी देनेवाली वस्तु है, जिसे आपलोगोंने भी नहीं देखा है, वह सब मैं प्रत्यक्ष देखता हूँ। सर्वज्ञता मेरा उत्तम स्वभाव है। वह कहीं भी प्रतिहत नहीं होता तथा मुझमें जो ऐश्वर्य है, वह मुझे आश्वर्यरूप नहीं जान पड़ता तथापि सत्पुरुषोंके कानोंमें पड़ा हुआ कथित विषय विश्वासके योग्य होता है और वह पत्थरपर खिंची हुई लकीरकी भाँति इस पृथ्वीपर बहुत दिनोंतक कायम रहता है || ४१--४३ ।।
अतः मैं आप साधु-संतोंके मुखसे निकले हुए वचनको मनुष्योंकी बुद्धिका उद्दीपक (प्रकाशक) मानकर उसे सत्पुरुषोंके समाजमें कहूँगा || ४४ ।।
यह सुनकर भगवान् श्रीकृष्णके समीप बैठे हुए सभी ऋषियोंको बड़ा विस्मय हुआ। वे कमलदलके समान खिले हुए नेत्रोंसे उनकी ओर देखने लगे || ४५ ।।
कोई उन्हें बधाई देने लगा, कोई उनकी पूजा-प्रशंसा करने लगा और कोई ऋग्वेदकी अर्थयुक्त ऋचाओंद्वारा उन मधुसूदनकी स्तुति करने लगा || ४६ ।।
तदनन्तर उन सभी मुनियोंने बातचीत करनेमें कुशल देवदर्शी नारदको भगवान्की बातचीतका उत्तर देनेके लिये नियुक्त किया || ४७ ।।
मुनि बोले--प्रभो! मुने! तीर्थयात्रापरायण मुनियोंने हिमालय पर्वतपर जिस अचिन्त्य आश्चर्यका दर्शन एवं अनुभव किया है, वह सब आप आरम्भसे ही ऋषिसमूहके हितके लिये भगवान् श्रीकृष्णको बताइये ।। ४८-४९ ।।
मुनियोंके ऐसा कहनेपर देवर्षि भगवान् नारदमुनिने यह पूर्वघटित कथा कही || ५०
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें एक सौ उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ५१ श्लोक हैं)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ चालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ चालीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-57½ का हिन्दी अनुवाद)
“नारदजीके द्वारा हिमालय पर्वतपर भूतगणोंके सहित शिवजीकी शोभाका विस्तृत वर्णन, पार्ववीका आगमन शिवजीकी दोनों आँखोंको अपने हाथोंसे बंद करना और तीसरे नेत्रका प्रकट होना, हिमालयका भस्म होना और पुनः प्राकृत अवस्थामें हो जाना तथा शिव-पार्वतीके धर्मविषयक संवादकी उत्थापना”
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठि! तदनन्तर श्रीनारायणके सुहृद् भगवान् नारदमुनिने शंकरजीका पार्वतीके साथ जो संवाद हुआ था, उसे बताना आरम्भ किया ।। १ ।।
नारदजीने कहा--भगवन्! जहाँ सिद्ध और चारण निवास करते है, जो नाना प्रकारकी ओषधियोंसे सम्पन्न तथा भाँति-भाँतिके फूलोंसे व्याप्त होनेके कारण रमणीय जान पड़ता है, जहाँ झुंड-की-झुंड अप्सराएँ भरी रहती हैं और भूतोंकी टोलियाँ निवास करती हैं; उस परम पवित्र हिमालयपर्वतपर धर्मात्मा देवाधिदेव भगवान् शंकर तपस्या कर रहे थे ।। २-३ ।।
उस स्थानपर महादेवजी सैकड़ों भूतसमुदायोंसे घिरे रहकर बड़ी प्रसन्नताका अनुभव करते थे। उन भूतोंके रूप नाना प्रकारके एवं विकृत थे, किन्हीं-किन्हींके रूप दिव्य एवं अद्भुत दिखायी देते थे || ४ ।।
कुछ भूतोंकी आकृति सिंहों, व्याप्रों एवं गजराजोंके समान थी। उनमें सभी जातियोंके प्राणी सम्मिलित थे। कितने ही भूतोंके मुख सियारों, चीतों, रीछों और बैलोंके समान थे।। ५।।
कितने ही उल्लू-जैसे मुखवाले थे। बहुत-से भयंकर भूत भेड़ियों और बाजोंके समान मुख धारण करते थे। और कितनोंके मुख हरिणोंके समान थे। उन सबके वर्ण अनेक प्रकारके थे तथा वे सभी जातियोंसे सम्पन्न थे || ६ ।।
इनके सिवा बहुत-से किन्नरों, यक्षों, गन्धर्वों, राक्षमों तथा भूतगणोंने भी महादेवजीको घेर रखा था। भगवान् शंकरकी वह सभा दिव्य पुष्पोंसे आच्छादित, दिव्य तेजसे व्याप्त, दिव्य चन्दनसे चर्चित और दिव्य धूपकी सुगन्धसे सुवासित थी। वहाँ दिव्य वाद्योंकी ध्वनि गूँजती रहती थी। मृदंग और पणवका घोष छाया रहता था। शंख और भेरियोंके नाद सब ओर व्याप्त हो रहे थे। चारों ओर नाचते हुए भूतसमुदाय और मयूर उसकी शोभा बढ़ाते थे || ७--९ ||
वहाँ अप्सराएँ नृत्य करती थीं, वह दिव्य सभा देवर्षियोंके समुदायोंसे शोभित, देखनेमें मनोहर, अनिर्वचनीय, अलौकिक और अदभुत थी ।। १० ।।
भगवान् शंकरकी तपस्यासे उस पर्वतकी बड़ी शोभा हो रही थी। स्वाध्यायपरायण ब्राह्मणोंकी वेद-ध्वनि वहाँ सब ओर गूँज रही थी ।। ११ ।।
माधव! वह अनुपम पर्वत भ्रमरोंके गीतोंसे अत्यन्त सुशोभित हो रहा था। जनार्दन! वह स्थान अत्यन्त भयंकर होनेपर भी महान् उत्सवसे सम्पन्न-सा प्रतीत होता था। उसे देखकर मुनियोंके समुदायको बड़ी प्रसन्नता हुई ।।
महान् सौभाग्यशाली मुनि, ऊर्ध्वरेता सिद्धणण, मरुदगण, वसुगण, साध्यगण, इन्द्रसहित विश्वेदेवगण, यक्ष और नाग, पिशाच, लोकपाल, अग्नि, समस्त वायु और प्रधान भूतगण वहाँ आये हुए थे ।। १३-१४ ३ ।।
ऋतुएँ वहाँ उपस्थित हो सब प्रकारके अत्यन्त अद्भुत पुष्प बिखेर रही थीं। ओषधियाँ प्रज्वलित हो उस वनको प्रकाशित कर रही थीं ।। १५६ ।।
वहाँके रमणीय पर्वतशिखरोंपर लोगोंको प्रिय लगनेवाली बोली बोलते हुए पक्षी प्रसन्नतासे युक्त हो नाचते और कलरव करते थे ।। १६६ ।।
दिव्य धातुओंसे विभूषित पर्यकके समान उस पर्वतशिखरपर बैठे हुए महामना महादेवजी बड़ी शोभा पा रहे थे || १७६ ।।
उन्होंने व्याप्रचर्मको ही वस्त्रके रूपमें धारण कर रखा था। सिंहका चर्म उनके लिये उत्तरीय वस्त्र (चादर)का काम देता था। उनके गलेमें सर्पमय यज्ञोपवीत शोभा दे रहा था। वे लाल रंगके बाजूबंदसे विभूषित थे। उनकी मूँछ काली थी, मस्तकपर जटाजूट शोभा पाता था। वे भीमस्वरूप रुद्र देवद्रोहियोंके मनमें भय उत्पन्न करते थे। अपनी ध्वजामें वृषभका चिह्न धारण करनेवाले वे भगवान् शिव भक्तों तथा सम्पूर्ण भूतोंक भयका निवारण करते थे ।। १८-१९ ३ ||
भगवान् शंकरका दर्शन करके उन सभी महर्षियोंने पृथ्वीपर सिर रखकर उन्हें प्रणाम किया और परम शुद्ध वाणीद्वारा उनकी मनोहर स्तुति की। वे सभी ऋषि सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त, क्षमाशील और कल्मषरहित थे ।।
भगवान् भूतनाथका वह भयानक स्थान बड़ी शोभा पा रहा था। वह अत्यन्त दुर्धर्ष और बड़े-बड़े सर्पोंसे भरा हुआ था || २१६ ।।
मधुसूदन! वृषभध्वजका वह भयानक सभास्थल क्षणभरमें अद्भुत शोभा पाने लगा ।। २२३ ||
उस समय भूतोंकी स्त्रियोंसे घिरी हुई गिरिराज-नन्दिनी उमा सम्पूर्ण तीर्थोके जलसे भरा हुआ सोनेका कलश लिये उनके पास आयीं। उन्होंने भी भगवान् शंकरके समान ही वस्त्र धारण किया था। वे भी उन्हींकी भाँति उत्तम व्रतका पालन करती थीं ।। २३-२४
उनके पीछे-पीछे उस पर्वतसे गिरनेवाली सभी नदियाँ चल रही थीं। शुभलक्षणा पार्वती फूलोंकी वर्षा करती और नाना प्रकारकी सुगन्ध बिखेरती हुई भगवान् शिवके पास आयीं। वे भी हिमालयके पार्श्चभागका ही सेवन करती थीं ।। २५ ।।
आते ही मनोहर हास्यवाली देवी उमाने मनोरंजन या हास-परिहासके लिये मुसकराकर अपने दोनों हाथोंसे सहसा भगवान् शंकरके दोनों नेत्र बंद कर लिये ।।
उनके दोनों नेत्रोंके आच्छादित होते ही सारा जगत् सहसा अन्धकारमय, चेतनाशून्य तथा होम और वषट्कारसे रहित हो गया ।। २७ ।।
सब लोग अनमने हो गये, सबके ऊपर त्रास छा गया। भूतनाथके नेत्र बंद कर लेनेपर इस संसारकी वैसी ही दशा हो गयी, मानो सूर्यदेव नष्ट हो गये हैं || २८ ।।
तदनन्तर क्षणभरमें सारे जगत्का अन्धकार दूर हो गया। भगवान् शिवके ललाटसे अत्यन्त दीप्तिशालिनी महाज्वाला प्रकट हो गयी ।। २९ ।।
उनके ललाटमें आदित्यके समान तेजस्वी तीसरे नेत्रका आविर्भाव हो गया। वह नेत्र प्रलयाग्निके समान देदीप्यमान हो रहा था। उस नेत्रसे प्रकट हुई ज्वालाने उस पर्वतको जलाकर मथ डाला ।। ३० ||
तब महादेवजीको प्रज्वलित अग्निके सदृश तीसरे नेत्रसे युक्त हुआ देख गिरिराजनन्दिनी विशाललोचना उमाने सिरसे प्रणाम करके उनकी ओर चकित दृष्टिसे देखा ।। ३१ |।
साल और सरल आदि वृक्षोंसे युक्त, श्रेष्ठ चन्दन-वृक्षसे सुशोभित तथा दिव्य ओषधियोंसे प्रकाशित उस रमणीय वनमें आग लग गयी थी और वह सब ओरसे जल रहा था ।। ३२ ||
भयभीत मृगोंके झुंडोंको जब कहीं भी शरण न मिली, तब वे भागते हुए महादेवजीके पास आ पहुँचे। उनसे वह सारा सभास्थल भर गया और उसकी अपूर्व शोभा होने लगी ।। ३३ ।।
वहाँ लगी हुई आगकी लपटें आकाशको चूम रही थीं। विद्युतके समान चंचल हुई वह आग बड़ी भयानक प्रतीत हो रही थी, वह बारह सूर्योके समान प्रकाशित होकर दूसरी प्रलयाग्निके समान प्रतीत होती थी ।। ३४ ।।
उसने क्षणभरमें हिमालय पर्वतको धातु और विशाल शिखरोंसहित दग्ध कर डाला। उसकी लताएँ और ओषधियाँ प्रजवलित हो जलकर भस्म हो गयीं ।।
उस पर्वतको दग्ध हुआ देख गिरिराजकुमारी उमा दोनों हाथ जोड़कर भगवान् शंकरकी शरणमें गयीं ।। ३६ ।।
उस समय उमामें नारी-स्वभाववश मृदुता (कातरता) आ गयी थी। वे पिताकी दयनीय अवस्था नहीं देखना चाहती थीं। उनकी ऐसी दशा देख भगवान् शंकरने हिमवान् पर्वतकी ओर प्रसन्नतापूर्ण दृष्टिसे देखा | ३७ ।।
उनकी दृष्टि पड़नेपर क्षणभरमें सारा हिमालय पर्वत पहली स्थितिमें आ गया। देखनेमें परम सुन्दर हो गया। वहाँ हर्षमें भरे हुए पक्षी कलरव करने लगे। उस वनके वृक्ष सुन्दर पुष्पोंसे सुशोभित हो गये ।। ३८ ।।
पर्वतको पूर्वावस्थामें स्थित हुआ देख पतित्रता पार्वती देवी बहुत प्रसन्न हुईं। फिर उन्होंने सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी कल्याणस्वरूप महेश्वरदेवसे पूछा ।। ३९ ।।
उमा बोलीं--भगवन! सर्वभूतेश्वर! शूलपाणे! महान् व्रतधारी महेश्वर! मेरे मनमें एक महान् संशय उत्पन्न हुआ है। आप मुझसे उसकी व्याख्या कीजिये ।।
क्यों आपके ललाटमें तीसरा नेत्र प्रकट हुआ? किसलिये आपने पक्षियों और वनोंसहित पर्वतको दग्ध किया और देव! फिर किसलिये आपने उसे पूर्वावस्थामें ला दिया। मेरे इन पिताको आपने जो पूर्ववत् वृक्षोंसे आच्छादित कर दिया, इसका क्या कारण है?
देवदेव! मेरे हृदयमें यह संदेह विद्यमान है। आप इसका समाधान करनेकी कृपा करें। आपको मेरा सादर नमस्कार है ।।
नारदजी कहते हैं--देवी पार्वतीके ऐसा कहने-पर भगवान् शंकर प्रसन्न होकर बोले ।।
श्रीमहे श्वरने कहा--धर्मको जानने तथा प्रिय वचन बोलनेवाली देवि! तुमने जो संशय उपस्थित किया है, वह उचित ही है। प्रिये! तुम्हारे सिवा दूसरा कोई मुझसे ऐसा प्रश्न नहीं कर सकता ।।
भामिनि! प्रकट या गुप्त जो भी बात होगी, तुम्हारा प्रिय करनेके लिये मैं सब कुछ बताऊँगा। तुम इस सभामें मुझसे सारी बातें सुनो ।।
प्रिये! सभी लोकोंमें मुझे कूटस्थ समझो। तीनों लोक मेरे अधीन हैं। ये जैसे भगवान् विष्णुके अधीन हैं, उसी प्रकार मेरे भी अधीन हैं। भामिनि! तुम यही जान लो कि भगवान् विष्णु जगतके स्रष्टा हैं और मैं इसकी रक्षा करनेवाला हूँ ।।
शोभने! इसीलिये जब मुझसे शुभ या अशुभका स्पर्श होता है, तब यह सारा जगत् वैसा ही शुभ या अशुभ हो जाता है ।।
देवि! अनिन्दिते! तुमने अपने भोलेपनके कारण मेरी दोनों आँखें बंद कर दीं। इससे क्षणभरमें समस्त संसारका प्रकाश तत्काल नष्ट हो गया ।। ४३ ।।
गिरिराजकुमारी! संसारमें जब सूर्य अदृश्य हो गये और सब ओर अन्धकार-हीअन्धकार छा गया, तब मैंने प्रजाकी रक्षाके लिये अपने तीसरे तेजस्वी नेत्रकी सृष्टि की है || ४४ ।।
उसी तीसरे नेत्रका यह महान् तेज था, जिसने इस पर्वतको मथ डाला। देवि! फिर तुम्हारा प्रिय करनेके लिये मैंने इस गिरिराज हिमवान्को पुनः प्रकृतिस्थ कर दिया है || ४५ ||
उमाने कहा--भगवन्! (आपके चार मुख क्यों हैं) आपका पूर्व दिशावाला मुख चन्द्रमाके समान कान्तिमान् एवं देखनेमें अत्यन्त प्रिय है। उत्तर और पश्चिम दिशाके मुख भी पूर्वकी ही भाँति कमनीय कान्तिसे युक्त हैं। परंतु दक्षिण दिशावाला मुख बड़ा भयंकर है। यह अन्तर क्यों? तथा आपके सिरपर कपिल वर्णकी जटाएँ कैसे हुईं? क्या कारण है कि आपका कण्ठ मोरकी पाँखके समान नीला हो गया? || ४६-४७ ।।
देव! आपके हाथमें पिनाक क्यों सदा विद्यमान रहता है? आप किसलिये नित्य जटाधारी ब्रह्मचारीके वेशमें रहते हैं? || ४८ ।।
प्रभो! वृषध्वज! मेरे इस सारे संशयका समाधान कीजिये; क्योंकि मैं आपकी सहधर्मिणी और भक्त हूँ ।। ४९ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! गिरिराजकुमारी उमाके इस प्रकार पूछनेपर पिनाकधारी भगवान् शिव उनके धैर्य और बुद्धिसे बहुत प्रसन्न हुए ।। ५० ।।
तत्पश्चात् उन्होंने पार्ववीजीसे कहा--“सुभगे! रुचिरानने! जिन हेतुओंसे मेरे ये रूप हुए हैं, उन्हें बता रहा हूँ, सुनो || ५१ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें उमामहेश्वरसंवादनामक एक सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ६½ श्लोक मिलाकर कुल ५७½ “लोक हैं)




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