सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ इकत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ इकत्तीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
“प्रमथगणोंके द्वारा धर्माधर्मसम्बन्धी रहस्यका कथन”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! तदनन्तर सभी महाभाग देवता, पितर तथा महान् भाग्यशाली महर्षि प्रमथगणोंसे बोले-- ।। १ ।।
“महाभागगण! आपलोग प्रत्यक्ष निशाचर हैं। बताइये, अपवित्र, उच्छिष्ट और शाद्र मनुष्योंकी किस तरह और क्यों हिंसा करते हैं? ।। २ ।।
“वे कौन-से प्रतिघात (शत्रुके आघातोंको रोक देनेवाले उपाय) हैं, जिनका आश्रय लेनेसे आपलोग उन मनुष्योंकी हिंसा नहीं करते। वे रक्षोघ्न मन्त्र कौन-से हैं, जिनका उच्चारण करनेसे आपलोग घरमें ही नष्ट हो जायूँ या भाग जायँ? निशाचरो! ये सारी बातें हम आपके मुखसे सुनना चाहते हैं" || ३ ।।
प्रमथ बोले--जो मनुष्य सदा स्त्री-सहवासके कारण दूषित रहते, बड़ोंका अपमान करते, मूर्खतावश मांस खाते, वृक्षकी जड़में सोते, सिरपर मांसका बोझा ढोते, बिछौनोंपर पैर रखनेकी जगह सिर रखकर सोते, वे सब-के-सब मनुष्य उच्छिष्ट (अपवित्र) तथा बहुतसे छिद्रोंवाले माने गये हैं। जो पानीमें मल-मूत्र एवं थूक फेकते हैं, वे भी उच्छिष्टकी ही कोटिमें आते हैं। ये सभी मानव हमारी दृष्टिमें भक्षण और वधके योग्य हैं। इसमें संशय नहीं है || ४--६ |।
जिनके ऐसे शील और आचार हैं, उन मनुष्योंको हम धर दबाते हैं। अब उन प्रतिरोधक उपायोंको सुनिये, जिनके कारण हम मनुष्योंकी हिंसा नहीं कर पाते ।। ७ ।।
जो अपने शरीरमें गोरोचन लगाता, हाथमें वच नामक औषध लिये रहता, ललाटमें घी और अक्षत धारण करता तथा मांस नहीं खाता-ऐसे मनुष्योंकी हिंसा हम नहीं कर सकते ।। ८$ ||
जिसके घरमें अग्निहोत्रकी अग्नि नित्य--दिन-रात देदीप्यमान रहती है, छोटे जातिके बाघ (जरख) का चर्म, उसीकी दाढ़ें तथा पहाड़ी कछुआ मौजूद रहता है, घीकी आहुतिसे सुगन्धित धूम निकलता रहता है, बिलाव तथा काला या पीला बकरा रहता है, जिन गृहस्थोंके घरोंमें ये सभी वस्तुएँ स्थित होती हैं, उन घरोंपर भयंकर मांसभक्षी निशाचर आक्रमण नहीं करते हैं || ९--११ ।।
हमारे-जैसे जो भी निशाचर अपनी मौजसे सम्पूर्ण लोकोंमें विचरते हैं, वे उपर्युक्त घरोंको कोई हानि नहीं पहुँचा सकते; अतः प्रजानाथ! अपने घरोंमें इन रक्षोघ्न वस्तुओंको अवश्य रखना चाहिये। यह सब विषय, जिसमें आपलोगोंको महान् संदेह था, मैंने कह सुनाया ।१२॥
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें प्रमथगणोंका धर्मसम्बन्धी रहस्यविषयक एक सौ इकत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“दिग्गजोंका धर्मसम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! तदनन्तर कमलके समान कान्तिमान् कमलोदभव ब्रह्माजीने देवताओं तथा शचीपति इन्द्रसे इस प्रकार कहा-- ।। १ |॥।
“यह रसातलमें विचरनेवाला, महाबली, शक्ति-शाली, महान् सत्त्व और पराक्रमसे युक्त तेजस्वी रेणुक नामवाला नाग यहाँ उपस्थित है। सब-के-सब महान् गजराज (दिग्गज) अत्यन्त तेजस्वी और महापराक्रमी होते हैं। वे पर्वत, वन और काननोंसहित समूची पृथ्वीको धारण करते हैं ।। २-३ ।।
“यदि आपलोग आज्ञा दें तो रेणुक उन महान् गजोंके पास जाकर धर्मके समस्त गोपनीय रहस्योंको पूछे” ।।
पितामह ब्रह्माजीकी बात सुनकर शान्त चित्तवाले देवताओंने उस समय रेणुकको उस स्थानपर भेजा, जहाँ पृथ्वीको धारण करनेवाले वे दिग्गज मौजूद थे ।। ५ ।।
रेणुकने कहा--महाबली दिग्गजो! मुझे देवताओं और पितरोंने आज्ञा दी है, इसलिये यहाँ आया हूँ और आपलोगोंके जो धर्मविषयक गूढ़ विचार हैं, उन्हें मैं यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ। महाभाग दिग्गजो! आपकी बुद्धिमें जो धर्मका तत्त्व निहित हो, उसे कहिये ।। ६ ।।
दिग्गजोंने कहा--कार्तिक मासके कृष्णपक्षमें आश्लेषा नक्षत्र और मंगलमयी अष्टमी तिथिका योग होनेपर जो मनुष्य आहार-संयमपूर्वक क्रोधशून्य हो निम्नांकित मन्त्रका पाठ करते हुए श्राद्धके अवसरपर हमारे लिये गुड़मिश्रित भात देता है (वह महान् फलका भागी होता है) ।।
“बलदेव (शेष या अनन्त) आदि जो अत्यन्त बलशाली नाग हैं, वे अनन्त, अक्षय, नित्य फनधारी और महाबली हैं। वे तथा उनके कुलमें उत्पन्न हुए जो अन्य विशाल भुजंगम हों, वे भी मेरे तेज और बलकी वृद्धिके लिये मेरी दी हुई इस बलिको ग्रहण करें। जब श्रीमान् भगवान् नारायणने इस पृथ्वीका एकार्णवके जलसे उद्धार किया था, उस समय इस वसुन्धराका उद्धार करते हुए उन भगवानके श्रीविग्रहमें जो बल था, वह मुझे प्राप्त हो || ८ -:१०३ ||
इस प्रकार कहकर किसी बाँबीपर बलि निवेदन करे। उसपर नागकेसर बिखेर दे, चन्दन चढ़ा दे और उसे नीले कपड़ेसे ढक दे तथा सूर्यास्त होनेपर उस बलिको बाँबीके पास रख दे ।। ११-१२ ।।
इस प्रकार संतुष्ट होकर पृथ्वीके नीचे भारसे पीड़ित होनेपर भी हम सब लोगोंको वह परिश्रम प्रतीत नहीं होता है और हमलोग सुखपूर्वक वसुधाका भार वहन करते हैं। भारसे पीड़ित होनेपर भी किसीसे कुछ न चाहनेवाले हम सब लोग ऐसा ही मानते हैं || १३६ ।।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र यदि उपवासपूर्वक एक वर्षतक इस प्रकार हमारे लिये बलिदान करे तो उसका महान् फल होता है। बाँबीके निकट बलि अर्पित करनेपर वह हमारे लिये अधिक फल देनेवाला माना गया है ।।१४_१५
तीनों लोकोंमें जो समस्त महापराक्रमी नाग हैं, वे इस बलिदानसे सौ वर्षोके लिये यथार्थरूपसे सत्कृत हो जाते हैं ।। १६ ।।
दिग्गजोंके मुखसे यह बात सुनकर महाभाग देवता, पितर और ऋषि रेणुक नागकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे || १७ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें दिग्गजोंका धर्मसम्बन रहस्यविषयक एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ तैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ तैतीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)
“महादेवजीका धर्मसम्बन्धी रहस्य”
(ऋषि, मुनि, देवता और पितरोंसे) महेश्वर बोले--तुमलोगोंने धर्मशास्त्रका सार निकालकर उत्तम धर्मका वर्णन किया है। अब सब लोग मुझसे धर्म-सम्बन्धी इस गूढ़ रहस्यका वर्णन सुनो ।। १ ।।
जिनकी बुद्धि सदा धर्ममें ही लगी रहती है और जो मनुष्य परम श्रद्धालु हैं, उन्हींको इस महान् फलदायक रहस्ययुक्त धर्मका उपदेश देना चाहिये ।। २ ।।
जो उद्धवेगरहित होकर एक मासतक प्रतिदिन गौको भोजन देता है और स्वयं एक ही समय खाता है, उसे जो फल मिलता है, उसका वर्णन सुनो ।। ३ ।।
ये गौएँ परम सौभाग्यशालिनी और अत्यन्त पवित्र मानी गयी हैं। ये देवता, असुर और मनुष्योंसहित तीनों लोकोंको धारण करती हैं ।। ४ ।।
इनकी सेवा करनेसे बहुत बड़ा पुण्य और महान् फल प्राप्त होता है। प्रतिदिन गौओंको भोजन देनेवाला मनुष्य नित्य महान् धर्मका उपार्जन करता है || ५ ।।
मैंने पहले सत्ययुगमें गौओंको अपने पास रहनेकी आज्ञा दी थी। पद्मयोनि ब्रह्माजीने इसके लिये मुझसे बहुत अनुनय-विनय की थी ।। ६ ।।
इसलिये मेरी गौओंके झुंडमें रहनेवाला वृषभ मुझसे ऊपर मेरे रथकी ध्वजामें विद्यमान है। मैं सदा गौओंके साथ रहनेमें ही आनन्दका अनुभव करता हूँ। अतः उन गौओंकी सदा ही पूजा करनी चाहिये || ७ ।।
गौओंका प्रभाव बहुत बड़ा है। वे वरदायिनी हैं। इसलिये उपासना करनेपर अभीष्ट वर देती हैं। उसे सम्पूर्ण कर्मोंमें जो फल अभीष्ट होता है। उसके लिये वे गौएँ अनुमोदन करती --उसकी सिद्धिके लिये वरदान देती हैं। जो पूर्वोक्तरूपसे गौको नित्य भोजन देता है, उसे सदाकी जानेवाली गोसेवाके फलका एक चौथाई पुण्य प्राप्त होता है ।। ८-९ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें महादेवजीका धर्मसम्बन्धी रहस्यविषयक एक सौ तैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ चौतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ चौतीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“स्कन्ददेवका धर्मसम्बन्धी रहस्य तथा भगवान् विष्णु और भीष्मजीके द्वारा माहात्म्यका वर्णन”
स्कन्दने कहा--देवताओ! अब एकाग्रचित्त होकर मेरी मान्यताके अनुसार भी धर्मका गोपनीय रहस्य सुनो। जो मनुष्य नीले रंगके साँड़की सींगोंमें लगी हुई मिट्टी लेकर इससे तीन दिनोंतक स्नान करता है, उसे प्राप्त होनेवाले पुण्यका वर्णन सुनो ।। १½ ।।
वह अपने सारे पापोंको धो डालता है और परलोकमें आधिपत्य प्राप्त करता है। फिर जब वह मनुष्ययोनिमें जन्म लेता है, तब शूरवीर होता है || २६ ।।
अब धर्मका यह दूसरा गुप्त रहस्य सुनो। पूर्णममासी तिथिको चन्द्रोदयके समय ताँबेके बर्तनमें मधु मिलाया हुआ पकवान लेकर जो चन्द्रमाके लिये बलि अर्पण करता है, उसे जिस नित्य धर्म-फलकी प्राप्ति होती है, उसका श्रद्धापूर्वक श्रवण करो। उस पुरुषकी दी हुई उस बलिको साध्य, रुद्र, आदित्य, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार, मरुदगण और वसुदेवता भी ग्रहण करते हैं तथा उससे चन्द्रमा और समुद्रकी वृद्धि होती है। इस प्रकार मैंने रहस्यसहित सुखदायक धर्मका वर्णन किया है || ३--७ ।।
भगवान् विष्णु बोले--जो देवताओं तथा महात्मा ऋषियोंके बताये हुए धर्मसम्बन्धी इन सभी गूढ़ रहस्योंका प्रतिदिन पाठ करेगा अथवा दोषदृष्टिसे रहित हो सदा एकाग्रचित्त रहकर श्रद्धापूर्वक श्रवण करेगा, उसपर किसी विघ्नका प्रभाव नहीं पड़ेगा तथा उसे कोई भय भी नहीं प्राप्त होगा || ८-९ ।।
यहाँ जिन-जिन पवित्र एवं कल्याणकारी धर्मोंका रहस्योंसहित वर्णन किया गया है, उन सबका जो इन्द्रियसंयमपूर्वक पाठ करेगा, उसे उन धर्मोका पूरा-पूरा फल प्राप्त होगा ।। १० ।।
उसके ऊपर कभी पापका प्रभाव नहीं पड़ेगा, वह कभी पापसे लिप्त नहीं होगा। जो इस प्रसंगको पढ़ेगा, दूसरोंको सुनायेगा अथवा स्वयं सुनेगा, उसे भी उन धर्मोंके आचरणका फल मिलेगा। उसका दिया हुआ हव्य-कव्य अक्षय होगा तथा उसे देवता और पितर बड़ी प्रसन्नतासे ग्रहण करेंगे ।। ११ ई ।।
जो मनुष्य पर्वके दिन शुद्धचित्त होकर श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको धर्मके इन रहस्योंका श्रवण करायेगा, वह सदा देवता, ऋषि और पितरोंके आदरका पात्र एवं श्रीसम्पन्न होगा। उसकी सदा धर्मामें प्रवृत्ति बनी रहेगी || १२-१३ ।।
मनुष्य महापातकको छोड़कर अन्य पापोंका आचरण करके भी यदि इस रहस्यधर्मको सुन लेगा तो उन सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जायगा ।। १४ ।।
भीष्मजी कहते हैं--नरेश्वर! देवताओंके बताये हुए इस धर्मरहस्यको व्यासजीने मुझसे कहा था। उसीको मैंने तुम्हें बताया है। यह सब देवताओंद्वारा समादृत है ।।
एक ओर रत्नोंसे भरी हुई सम्पूर्ण पृथ्वी प्राप्त होती हो और दूसरी ओर यह सर्वोत्तम ज्ञान मिल रहा हो तो उस पृथ्वीको छोड़कर इस सर्वोत्तम ज्ञानको ही श्रवण एवं ग्रहण करना चाहिये। धर्मज्ञ पुरुष ऐसा ही माने ।।
न श्रद्धाहीनको, न नास्तिकको, न धर्म नष्ट करनेवालेको, न निर्दयीको, न युक्तिवादका सहारा लेकर दुष्टता करनेवालेको, न मुरुद्रोहीकों और न देहाभिमानी व्यक्तिको ही इस धर्मका उपदेश देना चाहिये ।। १७ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें स्कन्ददेवका रहस्यविषयक एक सौ चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ पैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ पैतीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्योंका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा--भरतनन्दन! इस जगत्में ब्राह्मणको किनके यहाँ भोजन करना चाहिये, क्षत्रियको किनके घरका अन्न ग्रहण करना चाहिये तथा वैश्य और शूद्रको किनकिन लोगोंके घर भोजन करना चाहिये? ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--बेटा! इस लोकमें ब्राह्मणको ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यके घर भोजन करना चाहिये। शूद्रके घर भोजन करना उसके लिये निषिद्ध है || २ ।।
इसी प्रकार क्षत्रियको ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यके घर ही भोजन ग्रहण करना चाहिये। भक्ष्य-अभक्ष्यका विचार न करके सब कुछ खानेवाले और शास्त्रके विरुद्ध आचरण करनेवाले शूद्रोंका अन्न उसके लिये भी त्याज्य है ।। ३ ।।
वैश्योंमें भी जो नित्य अग्निहोत्र करनेवाले, पवित्रतासे रहनेवाले और चातुर्मास्य-व्रतका पालन करनेवाले हैं, उन्हींका अन्न ब्राह्मण और क्षत्रियोंके लिये ग्राह्म है ।। ४ ।।
जो द्विज शूद्रोंके चरका अन्न खाता है, वह समस्त पृथ्वी और सम्पूर्ण मनुष्योंके मलका ही पान और भक्षण करता है ।। ५ ।।
जो शूट्रोंका अन्न खाता है, वह पृथ्वीका मल खाता है। शूद्रात्न भोजन करनेवाले सभी द्विज पृथ्वीका मल ही खाते हैं ।। ६ ।।
जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य शूद्रके कर्मोमें संलग्न रहनेवाला हो, वह यदि विशिष्ट कर्म --संध्या-वन्दन आदियमें संलग्न रहनेवाला हो, तो भी नरकमें पकाया जाता है। यदि शूद्रके कर्म न करके भी वह शास्त्रविरुद्ध कर्ममें संलग्न रहता हो तो भी उसे नरककी यातना भोगनी पड़ती है || ७ ।।
ब्राह्मण वेदोंके स्वाध्यायमें तत्पर और मनुष्योंके लिये मंगलकारी कार्यमें लगे रहनेवाले होते हैं। क्षत्रियको सबकी रक्षामें तत्पर बताया गया है और वैश्यको प्रजाकी पुष्टिके लिये कृषि, गोरक्षा आदि कार्य करने चाहिये ।। ८ ।।
वैश्य जो कर्म करता है, उसका आश्रय लेकर सब लोग जीविका चलाते हैं। कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य--ये वैश्यके अपने कर्म हैं। इससे उसको घृणा नहीं होनी चाहिये ।। ९ ।।
जो वैश्य अपना कर्म छोड़कर शूद्रका कर्म करता है, उसे शूद्रके समान ही जानना चाहिये और उसके यहाँ कभी भोजन नहीं करना चाहिये || १० ।।
जो चिकित्सा करनेवाला, शास्त्र बेचकर जीविका चलानेवाला, ग्रामाध्यक्ष, पुरोहित, वर्षफल बतानेवाला ज्योतिषी और वेद-शास्त्रसे भिन्न व्यर्थकी पुस्तकें पढ़नेवाला है, वे सबके सब ब्राह्मण शूद्रके समान हैं || ११ ।।
जो निर्लज्ज मनुष्य शूद्रोचित कर्म करनेवाले इन द्विजोंके घर भोजन करता है, वह अभक्ष्य-भक्षणका पाप करके दारुण भयको प्राप्त होता है ।। १२ ।।
उसके कुल, वीर्य और तेज नष्ट हो जाते हैं तथा वह धर्म-कर्मसे हीन होकर कुत्तेकी भाँति तिर्यक्-योनिमें पड़ जाता है || १३ ।।
जो चिकित्सा करनेवाले वैद्यका अन्न खाता है, उसका वह अन्न विष्ठाके समान है। व्यभिचारिणी स्त्री या वेश्याका अन्न मूत्रके समान है। कारीगरका अन्न रक्तके तुल्य है ।। १४ ।।
जो साधु पुरुषोंद्वारा सम्मानित पुरुष विद्या बेचकर जीविका चलानेवाले ब्राह्मणका अन्न खाता है, उसका वह अन्न भी शाद्वान्नके ही समान है। अतः साधु पुरुषको उसका परित्याग कर देना चाहिये ।। १५ ।।
जो कलंकित मनुष्यका अन्न ग्रहण करता है, उसे रक्तका कुण्ड कहते हैं। जो चुगुलखोरके यहाँ भोजन करता है, उसका वह भोजन करना ब्रह्महत्याके समान माना गया है। असत्कार और अवहेलनापूर्वक मिले हुए भोजनको कभी नहीं ग्रहण करना चाहिये ।। १६-१७ ।।
जो ब्राह्मण ऐसे अन्नको भोजन करता है, वह रोगी होता है और शीघ्र ही उसके कुलका संहार हो जाता है। जो नगररक्षकका अन्न खाता है, वह चण्डालके समान होता है ।। १८
गोवध, ब्राह्मणवध, सुरापान और गुरुपत्नीगमन करनेवाले मनुष्यके यहाँ भोजन कर लेनेपर ब्राह्मण राक्षसोंके कुलकी वृद्धि करनेवाला होता है ।। १९ ।।
धरोहर हड़पनेवाले, कृतघ्न तथा नपुंसकका अन्न खा लेनेसे मनुष्य मध्यदेशबहिष्कृत भीलोंके घरमें जन्म लेता है || २० ।।
कुन्तीनन्दन! जिनके यहाँ खाना चाहिये और जिनके यहाँ नहीं खाना चाहिये, ऐसे लोगोंका मैंने विधिवत् परिचय दे दिया। अब मुझसे और क्या सुनना चाहते हो ।। २१ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें भोज्याभोज्यान्नकथन नामक एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय प्रा हुआ)




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