सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) का एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय (the 141 chapter the entire Mahabharata (anushashn Parva)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-115 का हिन्दी अनुवाद) 

“शिव-पार्वतीका धर्मविषयक संवाद--वर्णाश्रम धर्मसम्बन्धी आचार एवं प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्मका निरूपण”

भगवान्‌ शिवने कहा-्रिये! पूर्वकालमें ब्रह्माजीने एक सर्वोत्तम नारीकी सृष्टि की थी। उन्होंने सम्पूर्ण रत्नोंका तिल-तिलभर सार उद्धृत करके उस शुभलक्षणा सुन्दरीके अंगोंका निर्माण किया था; इसलिये वह तिलोत्तमा नामसे प्रसिद्ध हुई ।। १ ।।

देवि! शुभे! इस पृथ्वीपर तिलोत्तमाके रूपकी कहीं तुलना नहीं थी। वह सुमुखी बाला मुझे लुभाती हुई मेरी परिक्रमा करनेके लिये आयी ।। २ ।।

देवि! वह सुन्दर दाँतोंवाली सुन्दरी निकटसे मेरी परिक्रमा करती हुई जिस-जिस दिशाकी ओर गयी, उस-उस दिशाकी ओर मेरा मनोरम मुख प्रकट होता गया ।। ३ ।।

तिलोत्तमाके रूपको देखनेकी इच्छासे मैं योगबलसे चतुर्मूर्ति एवं चतुर्मुख हो गया। इस प्रकार मैंने लोगोंको उत्तम योगशक्तिका दर्शन कराया ।। ४ ।।

मैं पूर्व दिशावाले मुखके द्वारा इन्द्रपदका अनुशासन करता हूँ। अनिन्दिते! मैं उत्तरवर्ती मुखके द्वारा तुम्हारे साथ वार्तालापके सुखका अनुभव करता हूँ ।। ५ ।।

मेरा पश्चिमवाला मुख सौम्य है और सम्पूर्ण प्राणियोंको सुख देनेवाला है तथा दक्षिण दिशावाला भयानक मुख रौद्र है, जो समस्त प्रजाका संहार करता है ।।

लोगोंके हितकी कामनासे ही मैं जटाधारी ब्रह्मचारीके वेषमें रहता हूँ। देवताओंका हित करनेके लिये पिनाक सदा मेरे हाथमें रहता है ।। ७ ।।

पूर्वकालमें इन्द्रने मेरी श्री प्राप्त करनेकी इच्छासे मुझपर वज्रका प्रहार किया था। वह वजच्र मेरा कण्ठ दग्ध करके चला गया। इससे मेरी श्रीकण्ठ नामसे ख्याति हुई ।। ८ ।।

प्राचीन कालके दूसरे युगकी बात है, बलवान्‌ देवताओं और असुरोंने मिलकर अमृतकी प्राप्तिके लिये महान्‌ प्रयास करते हुए चिरकालतक महासागरका मन्थन किया था ।।

नागराज वासुकिकी रस्सीसे बँधी हुई मन्दराचलरूपी मथानीद्वारा जब महासागर मथा जाने लगा, तब उससे सम्पूर्ण लोकोंका विनाश करनेवाला विष प्रकट हुआ ।।

उसे देखकर सब देवताओंका मन उदास हो गया। देवि! तब मैंने तीनों लोकोंके हितके लिये उस विषको स्वयं पी लिया ।।

शुभे! उस विषके ही कारण मेरे कण्ठमें मोर-पंखके समान नीले रंगका चिह्न बन गया। तभीसे मैं नीलकण्ठ कहा जाने लगा। ये सारी बातें मैंने तुम्हें बता दी। अब और क्या सुनना चाहती हो? ।।

उमाने पूछा--सम्पूर्ण लोकोंको सुख देनेवाले नीलकण्ठ! आपको नमस्कार है। देवदेवेश्वर! बहुत-से आयुधोंके होते हुए भी आप पिनाकको ही किसलिये धारण करना चाहते हैं? यह मुझे बतानेकी कृपा करें ।।

श्रीमहेश्वरने कहा--पवित्र मुसकानवाली महादेवि! सुनो। मुझे जिस प्रकार धर्मानुकूल शस्त्रोंकी प्राप्ति हुई है, उसे बता रहा हूँ। युगान्तरमें कण्वनामसे प्रसिद्ध एक महामुनि हो गये हैं। उन्होंने दिव्य तपस्या करनी आरम्भ की ।।

प्रिये! उसके अनुसार घोर तपस्या करते हुए मुनिके मस्तकपर कालक्रमसे बाँबी जम गयी। वह सब अपने मस्तकपर लिये-दिये वे पूर्ववत्‌ तपश्चर्यामें लगे रहे ।।

मुनिकी तपस्यासे पूजित हुए ब्रह्माजी उन्हें वर देनेके लिये गये। वर देकर भगवान्‌ ब्रह्माने वहाँ एक बाँस देखा और उसके उपयोगके लिये कुछ विचार किया ।।

भामिनि! उस बाँसके द्वारा जगत॒का उपकार करनेके उद्देश्यसे कुछ सोचकर ब्रह्माजीने उस वेणुको हाथमें ले लिया और उसे धनुषके उपयोगमें लगाया ।।

लोकपितामह ब्रह्माने भगवान्‌ विष्णुकी और मेरी शक्ति जानकर उनके और मेरे लिये तत्काल दो धनुष बनाकर दिये ।।

मेरे धनुषका नाम पिनाक हुआ और श्रीहरिके धनुषका नाम शार्ज्। उस वेणुके अवशेष भागसे एक तीसरा धनुष बनाया गया, जिसका नाम गाण्डीव हुआ ।।

गाण्डीव धनुष सोमको देकर ब्रह्माजी फिर अपने लोकको चले गये। अनिन्दिते! शस्त्रोंकी प्राप्तिका यह सारा वृत्तान्त मैंने तुम्हें कह सुनाया ।।

उमाने पूछा--सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ महादेव! इस जगत्‌में अन्य सब सुन्दर वाहनोंके होते हुए क्‍यों वृषभ ही आपका वाहन बना है? ।। ९ |।

श्रीमहेश्वरने कहा--प्रिये! ब्रह्माजीने देवताओंके लिये दूध देनेवाली सुरभि नामक गायकी सृष्टि की, जो मेघके समान दूधरूपी जलकी वर्षा करनेवाली थी। उत्पन्न हुई सुरभि अमृतमय दूध बहाती हुई अनेक रूपोंमें प्रकट हो गयी || १० ।।

एक दिन उसके बछड़ेके मुखसे निकला हुआ फेन मेरे शरीरपर पड़ गया। इससे मैंने कुपित होकर गौओंको ताप देना आरम्भ किया। मेरे रोषमें दग्ध हुई गौओंके रंग नाना प्रकारके हो गये ।। ११ ।।

अब अर्थनीतिके ज्ञाता लोकमुरु ब्रह्माने मुझे शान्त किया तथा ध्वज-चिह्न और वाहनके रूपमें यह वृषभ मुझे प्रदान किया ।। १२ ।।

उमाने पूछा--भगवन्‌! स्वर्गलोकमें अनेक प्रकारके सर्वगुणसम्पन्न निवासस्थान हैं, उन सबको छोड़कर आप श्मशान-भूमिमें कैसे रमते हैं? ।। १३ ।।

श्मशानभूमि तो केशों और हड्डियोंसे भरी होती है। उस भयानक भूमिमें मनुष्योंकी खोपड़ियाँ और घड़ें पड़े रहते हैं। गीधों और गीदड़ोंकी जमातें जुटी रहती हैं। वहाँ सब ओर चिताएँ जला करती हैं। मांस, वसा और रक्तकी कीच-सी मची रहती है। बिखरी हुई आँतोंवाली हड्डियोंके ढेर पड़े रहते हैं और सियारिनोंकी हुआँ-हुआँकी ध्वनि वहाँ गूँजती रहती है, ऐसे अपवित्र स्थानमें आप क्‍यों रहते हैं? ।। १४-१५ ।।

श्रीमहेश्वरने कहा--प्रिये! मैं पवित्र स्थान ढूँढ़नेके लिये सदा सारी पृथ्वीपर दिन-रात विचरता रहता हूँ, परंतु श्मशानसे- बढ़कर दूसरा कोई पवित्रतर स्थान यहाँ मुझे नहीं दिखायी दे रहा है ।। १६ ।।

इसलिये सम्पूर्ण निवासस्थानोंमेंसे श्मशानमें ही मेरा मन अधिक रमता है। वह श्मशानभूमि बरगदकी डालियोंसे आच्छादित और मुर्दोके शरीरसे टूटकर गिरी हुई पुष्पमालाओंके द्वारा विभूषित होती है ।। १७ ।।

पवित्र मुसकानवाली देवि! ये मेरे भूतगण श्मशानमें ही रमते हैं। इन भूतगणोंके बिना मैं कहीं भी रह नहीं सकता || १८ ।।

शुभे! यह श्मशानका निवास ही मैंने अपने लिये पवित्र और स्वर्गीय माना है। यही परम पुण्यस्थली है। पवित्र वस्तुकी कामना रखनेवाले उपासक इसीकी उपासना करते हैं ।। १९ |।

अनिन्दिते! इस श्मशानभूमिसे अधिक पवित्र दूसरा कोई स्थान नहीं है, क्योंकि वहाँ मनुष्योंका अधिक आना-जाना नहीं होता। इसीलिये वह स्थान पवित्रतम माना गया है ।।

प्रिये! वह वीरोंका स्थान है, इसलिये मैंने वहाँ अपना निवास बनाया है। वह मृतकोंकी सैकड़ों खोपड़ियोंसे भरा हुआ भयानक स्थान भी मुझे सुन्दर लगता है ।।

दोपहरके समय, दोनों संध्याओंके समय तथा आर्द्रा नक्षत्रमें दीर्घायुकी कामना रखनेवाले अथवा अशुद्ध पुरुषोंको वहाँ नहीं जाना चाहिये, ऐसी मर्यादा है ।।

मेरे सिवा दूसरा कोई भूतजनित भयका नाश नहीं कर सकता। इसलिये मैं श्मशानमें रहकर समस्त प्रजाओंका प्रतिदिन पालन करता हूँ ।।

मेरी आज्ञा मानकर ही भूतोंके समुदाय अब इस जगतूमें किसीकी हत्या नहीं कर सकते हैं। सम्पूर्ण जगत्‌के हितके लिये मैं उन भूतोंको श्मशानभूमिमें रमाये रखता हूँ। श्मशानभूमिमें रहनेका सारा रहस्य मैंने तुमको बता दिया। अब और क्या सुनना चाहती हो? ।।

उमाने पूछा--भगवन! देवदेवेश्वर! त्रिनेत्र! वृषभध्वज! आपका रूप पिंगल, विकृत और भयानक प्रतीत होता है ।।

आपके सारे शरीरमें भभूति पुती हुई है, आपकी आँख विकराल दिखायी देती है, दाढ़ें तीखी हैं और सिरपर जटाओंका भार लदा हुआ है, आप बाघम्बर लपेटे हुए हैं और आपके मुखपर कपिल रंगकी दाढ़ी-मूँछ फैली हुई है ।।

आपका रूप ऐसा रौद्र, भयानक, घोर तथा शूल और पट्टिश आदिसे युक्त किसलिये है? यह मुझे बतानेकी कृपा करें ।।

श्रीमहेश्वरने कहा--प्रिये! मैं इसका भी यथार्थ कारण बताता हूँ, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। जगतके सारे पदार्थ दो भागोंमें विभक्त हैं--शीत और उष्ण (अग्नि और सोम) ।।

अग्नि-सोम-रूप यह सम्पूर्ण जगत्‌ उन शीत और उष्ण तत्त्वोंमें गुँथा हुआ है। सौम्य गुणकी स्थिति सदा भगवान्‌ विष्णुमें है और मुझमें आग्नेय (तैजस) गुण प्रतिष्ठित है। इस प्रकार इस विष्णु और शिवरूप शरीरसे मैं सदा समस्त लोकोंकी रक्षा करता हूँ ।

देवि! यह जो विकराल नेत्रोंसे युक्त और शूल-पट्टिशसे सुशोभित भयानक आकृतिवाला मेरा रूप है, यही आग्नेय है। यह सम्पूर्ण जगतके हितमें तत्पर रहता है ।।

शुभानने! यदि मैं इस रूपको त्यागकर इसके विपरीत हो जाऊँ तो उसी समय सम्पूर्ण लोकोंकी दशा विपरीत हो जायगी ।।

देवि! इसलिये लोकहितकी इच्छासे ही मैंने यह रूप धारण किया है। अपने रूपका यह सारा रहस्य बता दिया, अब और क्‍या सुनना चाहती हो? ।।

नारदजी कहते हैं--देवेश्वर भगवान्‌ शंकरके ऐसा कहनेपर सभी महर्षि बड़े विस्मित हुए और हाथ जोड़कर अपनी वाणीद्वारा उन महादेवजीकी स्तुति करने लगे ।।

ऋषि बोले--सर्वेश्वर शंकर! आपको नमस्कार है। सम्पूर्ण जगत्‌के गुरुदेव! आपको नमस्कार है। देवताओंके भी आदि देवता! आपको नमस्कार है। चन्द्रकलाधारी शिव! आपको नमस्कार है ।।

अत्यन्त घोरसे भी घोर रुद्रदेव! शंकर! आपको बार-बार नमस्कार है। अत्यन्त शान्तसे भी शान्त शिव! आपको नमस्कार है। चन्द्रमाके पालक! आपको नमस्कार है ।।

उमासहित महादेवजीको नमस्कार है। चतुर्मुख/ आपको नमस्कार है। गंगाजीके जलको सिरपर धारण करनेवाले भूतनाथ शम्भो! आपको नमस्कार है ।।

हाथोंमें त्रिशूल धारण करनेवाले तथा सर्पमय आभूषणोंसे विभूषित आप महादेवको नमस्कार है। दक्ष-यज्ञको दग्ध करनेवाले त्रिलोचन! आपको नमस्कार है ।।

लोकरक्षामें तत्पर रहनेवाले शंकर! आपके बहुत-से नेत्र हैं, आपको नमस्कार है। अहो! महादेवजीका कैसा माहात्म्य है। अहो! रुद्रदेवकी कैसी कृपा है। ऐसी धर्मपरायणता देवदेव महादेवके ही योग्य है ।।

नारदजी कहते हैं--जब मुनि इस प्रकार स्तुति कर रहे थे, उसी समय अवसरको जाननेवाली देवी पार्वती मुनियोंकी प्रसन्नताके लिये भगवान्‌ शंकरसे परम हितकी बात बोलीं ।।

उमाने पूछा--सम्पूर्ण धर्मोके ज्ञाताओंमें श्रेष्ठ! सर्वभूतेश्वरर भगवन्‌! वरदायक! पिनाकपाणे! मेरे मनमें यह एक और महान्‌ संशय है || २० ।।

प्रभो! यह जो मुनियोंका सारा समुदाय यहाँ उपस्थित है, सदा तपस्यामें संलग्न रहा है और तपस्वीका वेष धारण किये लोकमें भ्रमण कर रहा है; इन सबकी आकृति भिन्न-भिन्न प्रकारकी है। शत्रुदमन शिव! इस ऋषिसमुदायका तथा मेरा भी प्रिय करनेकी इच्छासे आप मेरे इस संदेहका समाधान करें || २१-२२ ।।

प्रभो! धर्मज्ञ! धर्मका क्या लक्षण बताया गया है? तथा जो धर्मको नहीं जानते हैं ऐसे मनुष्य उस धर्मका आचरण कैसे कर सकते हैं? यह मुझे बताइये ।। २३ ।।

नारदजी कहते हैं--तदनन्तर समस्त मुनि-समुदायने देवी पार्वतीकी ऋग्वेदके मन्त्रार्थोंसे सुशोभित वाणी तथा उत्तम अर्थयुक्त स्तोत्रोंद्वारा स्तुति एवं प्रशंसा की || २४ ।।

श्रीमहेश्वरने कहा--देवि! किसी भी जीवकी हिंसा न करना, सत्य बोलना, सब प्राणियोंपर दया करना, मन और इन्द्रियोंपर काबू रखना तथा अपनी शक्तिके अनुसार दान देना गृहस्थ-आश्रमका उत्तम धर्म है ।। २५ ।।

(उक्त गृहस्थ-धर्मका पालन करना,) परायी स्त्रीके संसर्गसे दूर रहना, धरोहर और सत्रीकी रक्षा करना, बिना दिये किसीकी वस्तु न लेना तथा मांस और मदिराको त्याग देना --से धर्मके पाँच भेद हैं, जो सुखकी प्राप्ति करानेवाले हैं। इनमेंसे एक-एक धर्मकी अनेक शाखाएँ हैं। धर्मको श्रेष्ठ माननेवाले मनुष्योंको चाहिये कि वे पुण्यप्रद धर्मका पालन अवश्य करें ।।

उमाने पूछा--भगवन्‌! मैं एक और संशय उपस्थित करती हूँ; चारों वर्णोका जो-जो धर्म अपने-अपने वर्णके लिये विशेष लाभकारी हो, वह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये || २८ ।।

ब्राह्मणके लिये धर्मका स्वरूप कैसा है, क्षत्रियके लिये कैसा है, वैश्यके लिये उपयोगी धर्मका क्‍या लक्षण है तथा शूद्रके धर्मका भी कया लक्षण है? ।। २९ ।।

श्रीमहे श्वरने कहा--देवि! तुम्हारे मनको प्रिय लगनेवाला जो यह धर्मका विषय है, उसे बताऊँगा। तुम वर्णों और आश्रमोंपर अवलम्बित समस्त धर्मका पूर्णरूपसे वर्णन सुनो ।।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र--ये वर्णोौंके चार भेद हैं। लोकतन्त्रकी इच्छा रखनेवाले विधाताने सबसे पहले ब्राह्मणोंकी सृष्टि की है और शास्त्रोंमें उनके योग्य कर्मोका विधान किया है ।।

देवि! यदि यह सारा जगत्‌ एक ही वर्णका होता तो सब साथ ही नष्ट हो जाता। इसलिये विधाताने चार वर्ण बनाये हैं ।।

ब्राह्मणोंकी सृष्टि विधाताके मुखसे हुई है, इसीलिये वे वाणीविशारद होते हैं। क्षत्रियोंकी सृष्टि दोनों भुजाओंसे हुई है, इसीलिये उन्हें अपने बाहुबलपर गर्व होता है ।।

वैश्योंकी उत्पत्ति उदरसे हुई है, इसीलिये वे उदर-पोषणके निमित्त कृषि, वाणिज्यादि वार्तवृत्तिका आश्रय ले जीवन-निर्वाह करते हैं। शूद्रोंकी सृष्टि पैरसे हुई है, इसलिये वे परिचारक होते हैं। देवि! अब तुम एकाग्रचित्त होकर चारों वर्णोौंके धर्म और कर्मोंका वर्णन सुनो ।।

ब्राह्यणको इस भूमिका देवता बनाया गया है। वे सब लोकोंकी रक्षाके लिये उत्पन्न किये गये हैं। अतः अपने हितकी इच्छा रखनेवाले किसी भी मनुष्यको ब्राह्मणोंका अपमान नहीं करना चाहिये ।।

देवि! यदि दान और योगका वहन करनेवाले वे ब्राह्मण न हों तो लोक और परलोक दोनोंकी स्थिति कदापि नहीं रह सकती ।।

जो ब्राह्मणोंका अपमान और निन्दा करता अथवा उन्हें क्रोध दिलाता या उनपर प्रहार करता अथवा उनका धन हर लेता है या काम, लोभ एवं मोहके वशीभूत होकर उनसे नीच कर्म कराता है, वह नराधम मेरा ही अपमान या निन्दा करता है। मुझे ही क्रोध दिलाता है, मुझपर ही प्रहार करता है, वह मूढ़ मेरे ही धनका अपहरण करता है तथा वह मूढ़चित्त मानव मुझे ही इधर-उधर भेजकर नीच कर्म कराता और निन्दा करता है ।।

वेदोंका स्वाध्याय, यज्ञ और दान ब्राह्मणका धर्म है, यह शास्त्रका निर्णय है। वेदोंको पढ़ाना, यजमानका यज्ञ कराना और दान लेना--ये उसकी जीविकाके साधनभूत कर्म हैं। सत्य, मनोनिग्रह, तप और शौचाचारका पालन--यह उनका सनातन धर्म है ।।

रस और धान्य (अनाज) का विक्रय करना ब्राह्मणके लिये निन्दित है ।।

सदा तप करना ही ब्राह्मणका धर्म है, इसमें संशय नहीं है। विधाताने पूर्वकालमें धर्मका अनुष्ठान करनेके लिये ही अपने तपोबलसे ब्राह्मणको उत्पन्न किया था ।।

महाभागे! मैंने तुम्हारे निकट सब प्रकारसे धर्मका निर्णय किया है। महाभाग ब्राह्मण इस लोकमें सदा भूमिदेव माने गये हैं || ३० ।।

इसमें संशय नहीं कि उपवास (इन्द्रियसंयम) व्रतका आचरण करना ब्राह्मणके लिये सदा धर्म बतलाया गया है। धर्मार्थसम्पन्न ब्राह्मण ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है ।| ३१ 

देवि! उसे धर्मका अनुष्ठान और न्यायतः ब्रह्मचर्यका पालन करना चाहिये। व्रतके पालनपूर्वक उपनयन-संस्कारका होना उसके लिये परम आवश्यक है, क्योंकि उसीसे वह द्विज होता है ।। ३२ ।।

गुरु और देवताओंकी पूजा तथा स्वाध्याय और अभ्यासरूप धर्मका पालन ब्राह्मणको अवश्य करना चाहिये। धर्मपरायण देहधारियोंको उचित है कि वे पुण्यप्रद धर्मका आचरण अवश्य करें ।। ३३ ।।

उमाने कहा--भगवन्‌! मेरे मनमें अभी संशय रह गया है। अत: उसकी व्याख्या करके मुझे समझाइये। चारों वर्णोंका जो धर्म है, उसका पूर्णरूपसे प्रतिपादन कीजिये ।। ३४ ।

श्रीमहेश्वरने कहा--धर्मका रहस्य सुनना, वेदोक्त व्रतका पालन करना, होम और गुरुसेवा करना--यह ब्रह्मचर्य-आश्रमका धर्म है || ३५ ।।

ब्रह्मचारीके लिये भैक्षचर्या (गाँवोंमेंसे भिक्षा माँगकर लाना और गुरुको समर्पित करना) परम धर्म है। नित्य यज्ञोपवीत धारण किये रहना, प्रतिदिन वेदका स्वाध्याय करना और ब्रह्मचर्याश्रमके नियमोंके पालनमें लगे रहना, ब्रह्मचारीका प्रधान कर्म है || ३६ ।।

ब्रह्मचर्यकी अवधि समाप्त होनेपर द्विज अपने गुरुकी आज्ञा लेकर समावर्तन करे और घर आकर अनुरूप स्त्रीसे विधिपूर्वक विवाह करे ।। ३७ ।।

ब्राह्मणको शूद्रका अन्न नहीं खाना चाहिये, यह उसका धर्म है। सन्मार्गका सेवन, नित्य उपवास-व्रत और ब्रह्मचर्यका पालन भी धर्म है ।। ३८ ।।

गृहस्थको अग्निस्थापनपूर्वक अग्निहोत्र करनेवाला, स्वाध्यायशील, होमपरायण, जितेन्द्रिय, विधसाशी, मिताहारी, सत्यवादी और पवित्र होना चाहिये ।। ३९ ।।

अतिथि-सत्कार करना और गार्हपत्य आदि त्रिविध अग्नियोंकी रक्षा करना उसके लिये धर्म है। वह नाना प्रकारकी इष्टियों और पशुरक्षाकर्मका भी विधिपूर्वक आचरण करे ।। ४० ।।

यज्ञ करना तथा किसी भी जीवकी हिंसा न करना उसके लिये परम धर्म है। घरमें पहले भोजन न करना तथा विघसाशी होना--कुट॒म्बके लोगोंके भोजन करानेके बाद ही अवशिष्ट अन्नका भोजन करना--यह भी उसका धर्म है || ४१ ।।

जब कुट॒ुम्बीजन भोजन कर लें उसके पश्चात्‌ स्वयं भोजन करना-यह गृहस्थ ब्राह्मणका विशेषत: श्रोत्रियका मुख्य धर्म बताया गया है || ४२ ।।

पति और पत्नीका स्वभाव एक-सा होना चाहिये। यह गृहस्थका धर्म है। घरके देवताओंकी प्रतिदिन पुष्पोंद्वारा पूजा करना, उन्हें अन्नकी बलि समर्पित करना, रोज-रोज घर लीपना और प्रतिदिन व्रत रखना भी गृहस्थका धर्म है ।। ४३ $ ।।

झाड़-बुहार, लीप-पोतकर स्वच्छ किये हुए घरमें घृतयुक्त आहुति करके उसका धुआँ फैलाना चाहिये। यह ब्राह्मणोंका गार्हस्थ्य धर्म बतलाया, जो संसारकी रक्षा करनेवाला है। अच्छे ब्राह्मणोंके यहाँ सदा ही इस धर्मका पालन किया जाता है ।। ४४-४५ ।।

देवि! मेरे द्वारा जो क्षत्रिय-धर्म बताया गया है, उसीका अब तुम्हारे समक्ष वर्णन करता हूँ, तुम मुझसे एकाग्रचित्त होकर सुनो ।। ४६ ।।

क्षत्रियका सबसे पहला धर्म है प्रजाका पालन करना। प्रजाकी आयके छठे भागका उपभोग करनेवाला राजा धर्मका फल पाता है ।। ४७ ।।

देवि! क्षत्रिय ब्राह्मणोंके पालनमें तत्पर रहते हैं। यदि संसारमें क्षत्रिय न होता तो इस जगत्‌में भारी उलट-फेर या विप्लव मच जाता क्षत्रियोंद्वारा रक्षा होनेसे ही यह जगत्‌ सदा टिका रहता है ।।

उत्तम गुणोंका सम्पादन और पुरवासियोंका हितसाधन उसके लिये धर्म है। गुणवान्‌ राजा सदा न्याययुक्त व्यवहारमें स्थित रहे ।।

जो राजा धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करता है, उसे उसके प्रजापालनरूपी धर्मके प्रभावसे उत्तम लोक प्राप्त होते हैं || ४८ ।।

राजाका परम धर्म है--इन्द्रियसंयम, स्वाध्याय, अग्निहोत्रकर्म, दान, अध्ययन, यज्ञोपवीत-धारण, यज्ञानुष्ठान, धार्मिक कार्यका सम्पादन, पोष्यवर्गका भरण-पोषण, आरम्भ किये हुए कर्मको सफल बनाना, अपराधके अनुसार उचित दण्ड देना, वैदिक यज्ञादि कर्मोका अनुष्ठान करना, व्यवहारमें न्यायकी रक्षा करना और सत्यभाषणमें अनुरक्त होना। ये सभी कर्म राजाके लिये धर्म ही हैं ।।

जो राजा दुखी मनुष्योंको हाथका सहारा देता है, वह इस लोक और परलोकमें भी सम्मानित होता है। गौओं और ब्राह्मणोंको संकटसे बचानेके लिये जो पराक्रम दिखाकर संग्राममें मृत्युको प्राप्त होता है, वह स्वर्गमें अश्वमेध यज्ञोंद्वारा जीते हुए लोकोंपर अधिकार जमा लेता है || ५२-५३ ।।

देवि! इसी प्रकार वैश्य भी लोगोंकी जीवन-यात्राके निर्वाहमें सहायक माने गये हैं। दूसरे वर्णोके लोग उन्हींके सहारे जीवन-निर्वाह करते हैं, क्योंकि वे प्रत्यक्ष फल देनेवाले हैं। यदि वैश्य न हों तो दूसरे वर्णके लोग भी न रहें ।।

पशुओंका पालन, खेती, व्यापार, अग्निहोत्रकर्म, दान, अध्ययन, सन्मार्गका आश्रय लेकर सदाचारका पालन, अतिथि-सत्कार, शम, दम, ब्राह्मणोंका स्वागत और त्याग--ये सब वैश्योंके सनातन धर्म हैं || ५४-५५ ।।

व्यापार करनेवाले सदाचारी वैश्यको तिल, चन्दन और रसकी विक्री नहीं करनी चाहिये तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य--इस त्रिवर्गका सब प्रकारसे यथाशक्ति यथायोग्य आतिथ्यसत्कार करना चाहिये ।।

शूद्रका परम धर्म है तीनों वर्णोकी सेवा। जो शूद्र सत्यवादी, जितेन्द्रिय और घरपर आये हुए अतिथिकी सेवा करनेवाला है, वह महान्‌ तपका संचय कर लेता है। उसका सेवारूप धर्म उसके लिये कठोर तप है ।। ५७-५८ ।।

नित्य सदाचारका पालन और देवता तथा ब्राह्मणोंकी पूजा करनेवाले बुद्धिमान्‌ शूद्रको धर्मका मनोवांछित फल प्राप्त होता है ।। ५९ ।।

इसी प्रकार शूद्र भी सम्पूर्ण धर्मॉके साधक बताये गये हैं। यदि शूद्र न हों तो सेवाका कार्य करनेवाला कोई नहीं है ।।

पहलेके जो तीन वर्ण हैं, वे सब शूद्रमूलक ही हैं, क्योंकि शूद्र ही सेवाका कर्म करनेवाले माने गये हैं। ब्राह्मण आदिकी सेवा ही दास या शूद्रका धर्म माना गया है ।।

वाणिज्य, कारीगरके कार्य, शिल्प तथा नाट्य भी शूद्रका धर्म है। उसे अहिंसक, सदाचारी और देवताओं तथा ब्राह्मणोंका पूजक होना चाहिये ।।

ऐसा शूद्र अपने धर्मसे सम्पन्न और उसके अभीष्ट फलोंका भागी होता है। यह तथा और भी शाूद्र-धर्म कहा गया है ।।

शोभने! इस प्रकार मैंने तुम्हें एक-एक करके चारों वर्णोका सारा धर्म बतलाया। सुभगे! अब और क्या सुनना चाहती हो? ।। ६० ।।

उमा बोलीं--भगवन्‌! देवदेवेश्वर! वृषभध्वज! देव! आपको नमस्कार है। प्रभो! अब मैं आश्रमियोंका धर्म सुनना चाहती हूँ ।।

श्रीमहेश्वरने कहा--देवि! एकाग्रचित्त होकर आश्रमधर्मका वर्णन सुनो। ब्रह्मवादी मुनियोंने आश्रमोंका जो धर्म निश्चित किया है, वही यहाँ बताया जा रहा है ।।

आश्रमोंमें गृहस्थ-आश्रम सबसे श्रेष्ठ है, क्योंकि वह गार्हस्थ्य धर्मपर प्रतिष्ठित है। पंच महायज्ञोंका अनुष्ठान, बाहर-भीतरकी पवित्रता, अपनी ही स्त्रीसे संतुष्ट रहना, आलस्यको त्याग देना, ऋतुकालमें ही पत्नीके साथ समागम करना, दान, यज्ञ और तपस्यामें लगे रहना, परदेश न जाना और अभन्निहोत्रपूर्वक वेद-शास्त्रोंका स्वाध्याय करना--ये गृहस्थके अभीष्ट धर्म हैं ।।

इसी प्रकार वानप्रस्थ आश्रमके सनातन धर्म बताये गये हैं। वानप्रस्थ आश्रममें प्रवेश करनेकी इच्छावाला पुरुष एकचित्त होकर निश्चय करनेके पश्चात्‌ घरका रहना छोड़कर वनमें चला जाय और वनमें प्राप्त होनेवाले उत्तम आहारोंसे ही जीवन-निर्वाह करे। यही उसके लिये शास्त्रविहित मर्यादा है ।।

पृथ्वीपर सोना, जटा और दाढ़ी-मूँछ रखना, मृगचर्म और वल्कल वस्त्र धारण करना, देवताओं और अतिथियोंका सत्कार करना, महान्‌ कष्ट सहकर भी देवताओंकी पूजा आदिका निर्वाह करना--यह वानप्रस्थ-का नियम है। उसके लिये प्रतिदिन अग्निहोत्र और त्रिकाल-स्नानका विधान है। ब्रह्मचर्य, क्षमा और शौच आदि उसका सनातन धर्म है। ऐसा करनेवाला वानप्रस्थ प्राणत्यागके पश्चात्‌ देवलोकमें प्रतिष्ठित होता है ।।

देवि! यतिधर्म इस प्रकार है। संन्यासी घर छोड़कर इधर-उधर विचरता रहे। वह अपने पास किसी वस्तुका संग्रह न करे। कर्मोके आरम्भ या आयोजनसे दूर रहे। सब ओरसे पवित्रता और सरलताको वह अपने भीतर स्थान दे। सर्वत्र भिक्षासे जीविका चलावे। सभी स्थानोंसे वह विलग रहे। सदा ध्यानमें तत्पर रहना, दोषोंसे शुद्ध होना, सबपर क्षमा और दयाका भाव रखना तथा बुद्धिको तत्त्वके चिन्तनमें लगाये रखना--ये सब संन्यासीके लिये धर्मकार्य हैं ।।

वरारोहे! जो भूख-प्याससे पीड़ित और थके-मादे आये हुए अतिथिकी सेवा-पूजा करते हैं, उन्हें भी महान्‌ फलकी प्राप्ति होती है ।।

धर्मकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषोंको चाहिये कि अपने घरपर आये हुए सभी अतिथियोंको दानका उत्तम पात्र समझकर दान दें। उन्हें यह विश्वास रखना चाहिये कि आज जो पात्र आयेगा, वह हमारा उद्धार कर देगा।

समयपर भोजनकी इच्छासे आये अथवा उपस्थित हुए अतिथिका जो समादर करता है, वहाँ ये साक्षात्‌ भगवान्‌ व्यास उपस्थित होते हैं ।।

अतः कोमलचित्त होकर उस अतिथिकी यथा-शक्ति पूजा करनी चाहिये; क्योंकि धर्मका मूल है चित्तका विशुद्ध भाव और यशका मूल है धर्म ।।

अतः देवि! सर्वथा सौम्यचित्तसे दान देना चाहिये; क्योंकि जो सौम्यचित्त होकर दान देता है, उसका वह दान सर्वोत्तम होता है ।।

शोभने! जैसे भूतलपर वर्षाके समय गिरती हुई जलकी छोटी-छोटी बूँदोंसे ही खेतोंकी क्यारियाँ, तालाब, सरोवर और सरिताएँ अतर्क्य भावसे जलपूर्ण दिखायी देती हैं, उसी प्रकार एक-एक करके थोड़ा-थोड़ा दिया हुआ दान भी बढ़ जाता है ।।

भरण-पोषण के योग्य कुटुम्बीजनोंको थोड़ा-सा कष्ट देकर भी यदि दान किया जा सके तो दान ही श्रेष्ठ माना गया है। स्त्री-पुत्र, धन और धान्य--ये वस्तुएँ मरे हुए पुरुषोंके साथ नहीं जाती हैं ।।

यशस्विनी! धन पाकर उसका दान और भोग करना भी श्रेष्ठ है; परंतु दान करनेसे मनुष्य महान्‌ सौभाग्यशाली नरेश होते हैं। इस पृथ्वीपर दानके समान कोई दूसरी वस्तु नहीं है। दानके समान कोई निधि नहीं है। सत्यसे बढ़कर कोई धर्म नहीं है और असत्यसे बढ़कर कोई पातक नही है ।।

जो वानप्रस्थ आश्रममें फल-मूल खाकर जटा बढ़ाये, वल्कल पहने, सूर्यकी ओर मुँह करके तपस्या करता है, हेमन्त-ऋतुमें मेठककी भाँति जलमें सोता है और ग्रीष्म-ऋतुमें पंचाग्निका ताप सहन करता है। इस प्रकार जो लोग वानप्रस्थ आश्रममें रहकर श्रद्धापूर्वक उत्तम तप करते हैं, वे भी गृहस्थाश्रमके पालनसे होनेवाले धर्मकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं हो सकते ।।

उमाने कहा--प्रभो! गृहस्थाश्रमका जो आचार है, जो व्रत और नियम हैं, गृहस्थको सदा जिस प्रकारसे देवताओंकी पूजा करनी चाहिये तथा तिथि और पर्वोके दिन उसे जिसजिस वस्तुका त्याग करना चाहिये, वह सब मैं आपके मुखसे सुनना चाहती हूँ ।।

श्रीमहे श्वरने कहा--देवि! गृहस्थ-आश्रमका जो मूल और फल है, यह उत्तम धर्म जहाँ अपने चारों चरणोंसे सदा विराजमान रहता है, वरारोहे! जैसे दहीसे घी निकाला जाता है, उसी प्रकार जो सब धर्मोंका सारभूत है, उसको मैं तुम्हें बता रहा हूँ। धर्मचारिणि! सुनो ।।

जो लोग गृहस्थ-आश्रममें रहकर माता-पिताकी सेवा करते हैं, जो नारी पतिकी सेवा करती है तथा जो ब्राह्मण नित्य अनग्निहोत्र कर्म करते हैं, उन सबपर इन्द्र आदि देवता, पितृलोकनिवासी पितर प्रसन्न होते हैं एवं वह पुरुष अपने धर्मसे आनन्दित होता है ।।

उमाने पूछा--जिन गृहस्थोंके माता-पिता न हों, उनकी अथवा विधवा स्त्रियोंकी जीवनचर्या क्या होनी चाहिये? यह मुझे बताइये ।।

श्रीमहेश्वरने कहा--देवता और अतिथियोंकी सेवा, गुरुजनों तथा वृद्ध पुरुषोंका अभिवादन, किसी भी प्राणीकी हिंसा न करना, लोभको त्याग देना, सत्यप्रतिज्ञ होना, ब्रह्मचर्य, शरणागतवत्सलता, शौचाचार, पहले बातचीत करना, उपकारीके प्रति कृतज्ञ होना, किसीकी चुगली न खाना, सदा धर्मशील रहना, दिनमें दो बार स्नान करना, देवता और पितरोंका पूजन करना, गौओंको प्रतिदिन अन्नका ग्रास और घास देना, अतिथियोंको विभागपूर्वक भोजन देना, दीप, ठहरनेके लिये स्थान तथा पाद्य और आसन देना, पंचमी, षष्ठी, द्वादशी, अष्टमी, चतुर्दशी एवं पूर्णिमाको सदा ब्रह्मचर्यका पालन करना, इन तिथियोंपर मूँछ मुड़ाने, सिरमें तेल लगाने, आँखमें अंजन करने तथा दाँतुन करने एवं दाँत धोने आदिका कार्य न करे। जो इन विधि-निषेधोंका पालन करते हैं, उनके यहाँ लक्ष्मी प्रतिष्ठित होती हैं ।।

व्रत और उपवासका नियम पालना, तपस्या करना, यथाशक्ति दान देना, पोष्यवर्गका पोषण करना, दीनोंपर कृपा रखना, परायी स्त्रीसे दूर रहना तथा सदा ही अपनी स्त्रीसे प्रेम रखना गृहस्थका धर्म है ।।

विधाताने पूर्वकालमें पति-पत्नीका एक ही शरीर बनाया था; अतः अपनी ही स्त्रीमें अनुरक्त रहनेवाला पुरुष ब्रह्मचारी माना जाता है ।।

जो शील और सदाचारसे विनीत है, जिसने अपनी इन्द्रियोंको काबूमें रखा है, जो सरलतापूर्वक बर्ताव करता है और समस्त प्राणियोंका हितैषी है, जिसको अतिथि प्रिय है, जो क्षमाशील है, जिसने धर्मपूर्वक धनका उपार्जन किया है--ऐसे गृहस्थके लिये अन्य आश्रमोंकी क्या आवश्यकता है? ।।

जैसे सभी जीव माताका सहारा लेकर जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार सभी आश्रम गृहस्थ-आश्रमका आश्रय लेकर ही जीवन-यापन करते हैं ।।

राजा, पाखण्डी, नट, सपेरा, दम्भ, चोर, राजपुरुष, विद्वान, सम्पूर्ण शीलोंके जानकार, सभी संशयालु तथा दूरके रास्तेपर आये हुए पाथेयरहित राही--ये तथा और भी बहुत-से मनुष्य गृहस्थ-आश्रमपर ही ताक लगाये रहते हैं ।।

देवि! चूहे, बिल्ली, कुत्ते, सुअर, तोते, कबूतर, कर्कटक (काक आदि), सरीसूपसेवी-ये तथा और भी बहुत-से मृग-पक्षियोंके वनवासी समुदाय हैं तथा इसी तरह इस जगतमें जो नाना प्रकारके सैकड़ों और हजारों चराचर प्राणी घर, क्षेत्र और बिलमें निवास करते हैं, वे सब-के-सब यहाँ गृहस्थके किये हुए कर्मको ही भोगते हैं ।।

जो वस्तु उनके उपयोगमें आ गयी, उसके लिये जो बुद्धिमान्‌ पुरुष कभी शोक नहीं करता, इन सबका पालन करना धर्म ही है, ऐसा समझकर संतुष्ट रहता है, उसे मिलनेवाले फलका वर्णन सुनो ।।

देवि! जो सम्पूर्ण यज्ञोंका सम्पादन कर चुका है, उसे अश्वमेधयज्ञसे जो फल मिलता है, वही फल इस गृहस्थको बारह वर्षोतक पूर्वाक्त नियमोंका पालन करनेसे प्राप्त हो जाता है ।।

उमाने कहा--भगवन्‌! आपने चारों वर्णोके लिये हितकारी एवं शुभ धर्मका पृथक्‌पृथक्‌ वर्णन किया है। अब मुझे वह धर्म बतलाइये, जो सब वर्णोके लिये समानरूपसे उपयोगी हो ।। ६१ ।।

श्रीमहेश्वरने कहा--देवि! गुणोंकी अभिलाषा रखनेवाले जगत्स्रष्टा ब्रह्माजीने समस्त लोकोंका उद्धार करनेके लिये जगत्‌की सार वस्तुद्वारा मृत्युलोकमें ब्राह्मणोंकी सृष्टि की है। ब्राह्मण इस भूमण्डलके देवता हैं, अतः पहले उनके ही धर्म-कर्म और उनके फलोंका वर्णन करता हूँ, क्योंकि ब्राह्मणोंमें जो धर्म होता है, उसे ही परम धर्म माना जाता है | ६२-६३ 

ब्रह्माजीने सम्पूर्ण जगत्‌की रक्षाके लिये तीन प्रकारके धर्मका विधान किया है। पृथ्वीकी सृष्टिके साथ ही इन तीनों धर्मोकी सृष्टि हो गयी है, इनको भी तुम मुझसे सुनो || ६४ ।।

पहला है वेदोक्त धर्म, जो सबसे उत्कृष्ट धर्म है। दूसरा है वेदानुकूल स्मृति-शास्त्रमें वर्णित--स्मार्तधर्म और तीसरा है शिष्ट पुरुषोंद्वारा आचरित धर्म (शिष्टाचार)। ये तीनों धर्म सनातन हैं ।। ६५ ।।

जो तीनों वेदोंका ज्ञाता और दविद्वान्‌ हो; पढ़ने-पढ़ानेका काम करके जीविका न चलाता हो; दान, धर्म और यज्ञ--इन तीन कर्मोका सदा अनुष्ठान करता हो; काम, क्रोध और लोभ--इन तीनों दोषोंका त्याग कर चुका हो और सब प्राणियोंके प्रति मैत्रीभाव रखता हो--ऐसा पुरुष ही वास्तवमें ब्राह्मण माना गया है ।। ६६ ।।

सम्पूर्ण भुवनोंके स्वामी ब्रह्माजीने ब्राह्मणोंकी जीविकाके लिये ये छ: कर्म बताये हैं; जो उनके लिये सनातन धर्म हैं। इनके नाम सुनो ।। ६७ ।।यजन-याजन (यज्ञ करना-कराना), दान देना, दान लेना, वेद पढ़ना और वेद पढ़ाना। इन छ: कर्मोंका आश्रय लेनेवाला ब्राह्मण धर्मका भागी होता है || ६८ ।।

इनमें भी सदा स्वाध्यायशील होना ब्राह्मणका मुख्य धर्म है, यज्ञ करना सनातन धर्म है और अपनी शक्तिके अनुसार विधिपूर्वक दान देना उसके लिये प्रशस्त धर्म है ।।

सब प्रकारके विषयोंसे उपरत होना शम कहलाता है। यह सत्पुरुषोंमें सदा दृष्टिगोचर होता है। इसका पालन करनेसे शुद्ध चित्तवाले गृहस्थोंको महान्‌ धर्म-राशिकी प्राप्ति होती है || ७० ||

गृहस्थ पुरुषको पंचमहायज्ञोंका अनुष्ठान करके अपने मनको शुद्ध बनाना चाहिये। जो गृहस्थ सदा सत्य बोलता, किसीके दोष नहीं देखता, दान देता, ब्राह्मणोंका सत्कार करता, अपने घरको झाड़-बुहारकर साफ रखता, अभिमानको त्याग देता, सदा सरल भावसे रहता, स्नेहयुक्त वचन बोलता, अतिथि और अभ्यागतोंकी सेवामें मन लगाता, यज्ञशिष्ट अन्नका भोजन करता और अतिथिको शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार पाद्य, अर्घ्य, आसन, शय्या, दीपक तथा ठहरनेके लिये गृह प्रदान करता है, उसे धार्मिक समझना चाहिये ।। ७१ --७३ ||

जो प्रातःकाल उठकर आचमन करके ब्राह्मणोंको भोजनके लिये निमन्त्रण देता और उसे ठीक समयपर सत्कारपूर्वक भोजन करानेके बाद कुछ दूरतक उसके पीछे-पीछे जाता है, उसके द्वारा सनातन धर्मका पालन होता है ।। ७४ ।।

शूद्र गृहस्थको अपनी शक्तिके अनुसार तीनों वर्णोका निरन्तर सब प्रकारसे आतिथ्यसत्कार करना चाहिये। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य--इन तीन वर्णोंकी परिचर्यामें रहना उसके लिये प्रधान धर्म बतलाया गया है || ७५ ।।

प्रवृत्तिरूप धर्मका विधान गृहस्थोंके लिये किया गया है। वह सब प्राणियोंका हितकारी और शुभ है। अब मैं उसीका वर्णन करता हूँ || ७६ ।।

अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषको सदा अपनी शक्तिके अनुसार दान करना चाहिये। सदा यज्ञ करना चाहिये और सदा ही पुष्टिजनक कर्म करते रहना चाहिये ।।

मनुष्यको धर्मके द्वारा धनका उपार्जन करना चाहिये। धर्मसे उपार्जित हुए धनके तीन भाग करने चाहिये और प्रयत्नपूर्वक धर्मप्रधान कर्मका अनुष्ठान करना चाहिये ।। ७८ ।।

अपनी उन्नति चाहनेवाले पुरुषको धनके उपर्युक्त तीन भागोंमेंसे एक भागके द्वारा धर्म और अर्थकी सिद्धि करनी चाहिये। दूसरे भागको उपभोगमें लगाना चाहिये और तीसरे अंशको बढ़ाना चाहिये (प्रवृत्तिधर्मका वर्णन किया गया है) || ७९ ।।

इससे भित्न निवृत्तिरूप धर्म है। वह मोक्षका साधन है। देवि! मैं यथार्थरूपसे उसका स्वरूप बताता हूँ, उसे सुनो || ८० ।।

मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषोंको सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करनी चाहिये। यही उनका धर्म है। उन्हें सदा एक ही गाँवमें नहीं रहना चाहिये और अपने आशारूपी बन्धनोंको तोड़नेका प्रयत्न करना चाहिये। यही मुमुक्षुके लिये प्रशंसाकी बात है || ८१ ।।

मोक्षाभिलाषी पुरुषको न तो कुटीमें आसक्ति रखनी चाहिये न जलमें, न वस्त्रमें, न आसनमें; न त्रिदण्डमें, न शय्यामें, न अग्निमें और न किसी निवासस्थानमें ही आसक्त होना चाहिये ।। ८२ ।।

मुमुक्षुको अध्यात्मज्ञानका ही चिन्तन, मनन और निदिध्यासन करना चाहिये। उसे उसीमें सदा स्थित रहना चाहिये। निरन्तर योगाभ्यासमें प्रवृत्त होकर तत्त्वका विचार करते रहना चाहिये ।। ८३ ।।

संन्यासी द्विजको उचित है कि वह सब प्रकारकी आसक्तियों और स्नेहबन्धनोंसे मुक्त होकर सर्वदा वृक्षके नीचे, सूने घरमें अथवा नदीके किनारे रहता हुआ अपने अन्तःकरणमें ही परमात्माका ध्यान करे || ८४-८५ ।।

जो युक्तचित्त होकर संन्यासी होता है और मोक्षोपयोगी कर्म श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदिके द्वारा समय व्यतीत करता हुआ निराहार (विषयसेवनसे रहित) और ठूठे काठकी भाँति स्थिर रहता है, उसको सनातन धर्मका मोक्षरूप धर्म प्राप्त होता है ।। ८६ ।।

संन्यासी किसी एक स्थानमें आसक्ति न रखे, एक ही ग्राममें न रहे तथा किसी एक ही किनारेपर सर्वदा शयन न करे। उसे सब प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्त होकर स्वच्छन्द विचरना चाहिये ।। ८७ ।।

यह मोक्षधर्मके ज्ञाता सत्पुरुषोंका वेदप्रतिपादित धर्म एवं सन्मार्ग है। जो इस मार्गपर चलता है, उसको ब्रह्मपदकी प्राप्ति होती है || ८८ ।।

संन्यासी चार प्रकारके होते हैं--कुटीचक, बहूदक, हंस और परमहंस। इनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठ है ।। ८९ ।।

इस परमहंस धर्मके द्वारा प्राप्त होनेवाले आत्म-ज्ञानसे बढ़कर दूसरा कुछ भी नहीं है। यह परमहंस-ज्ञान किसीसे निष्कृष्ट नहीं है। परमहंस-ज्ञानके सम्मुख परमात्मा तिरोहित नहीं है। यह दुःख-सुखसे रहित सौम्य अजर-अमर और अविनाशी पद है ।। ९० ।।

उमा बोलीं--भगवन्‌! आपने सत्पुरुषोंद्वारा आचरणमें लाये हुए गार्हस्थ्यधर्म और मोक्षधर्मका वर्णन किया। ये दोनों ही मार्ग जीवजगत्‌का महान्‌ कल्याण करनेवाले हैं ।। ९१ |।

धर्मज्ञ! अब मैं ऋषिधर्म सुनना चाहती हूँ। तपोवननिवासी मुनियोंके प्रति सदा ही मेरे मनमें स्नेह बना रहता है || ९२ ।।

महेश्वर! ये ऋषिलोग जब अग्निमें घीकी आहुति देते हैं, उस समय उसके धूमसे प्रकट हुई सुगन्ध मानो सारे तपोवनमें छा जाती है। उसे देखकर मेरा चित्त सदा प्रसन्न रहता है ।। ९३ |।

विभो! देव! यह मैंने मुनिधर्मके सम्बन्धमें जिज्ञासा प्रकट की है। देवदेव! आप सम्पूर्ण धर्मोका तत्त्व जाननेवाले हैं, अतः महादेव! मैंने जो कुछ पूछा है, उसका पूर्णरूपसे यथावत्‌ वर्णन कीजिये ।। ९४ ।। 

श्रीभगवान्‌ शिव बोले--शुभे! तुम्हारे इस प्रश्नसे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। अब मैं मुनियोंके सर्वोत्तम धर्मका वर्णन करता हूँ, जिसका पालन करके वे अपनी तपस्याके द्वारा परम सिद्धिको प्राप्त होते हैं ।।

महाभागे! धर्मज्ञे! सबसे पहले धर्मवेत्ता साधुपुरुष फेनप ऋषियोंका जो धर्म है, उसीका मुझसे वर्णन सुनो ।।

पूर्वकालमें ब्रह्माजीने यज्ञ करते समय जिसका पान किया तथा जो स्वर्गमें फैला हुआ है, वह अमृत (ब्रह्माजीके द्वारा पीया गया इसलिये) ब्राह्म कहलाता है। उसके फेनको जो थोड़ा-थोड़ा संग्रह करके सदा पान करते हैं (और उसीके आधारपर जीवन-निर्वाह करके तपस्यामें लगे रहते हैं,) वे फेनप- कहलाते हैं || ९७ ।।

तपोधने! यह धर्माचरणका मार्ग उन विशुद्ध फेनप महात्माओंका ही मार्ग है। अब बालखिल्य नामवाले ऋषिगणोंद्वारा जो धर्मका मार्ग बताया गया है, उसको सुनो ।। ९८ ।।

वालखिल्यगण तपस्यासे सिद्ध हुए मुनि हैं। वे सब धर्मोके ज्ञाता हैं और सूर्यमण्डलमें निवास करते हैं। वहाँ वे उज्छवृत्तिका आश्रय ले पक्षियोंकी भाँति एक-एक दाना बीनकर उसीसे जीवन-निर्वाह करते हैं ।। ९९ ।।

मृगछाला, चीर और वल्कल-- ये ही उनके वस्त्र हैं। वे बालखिल्य शीत-उष्ण आदि द्न्द्ोंसे रहित, सन्मार्गपर चलनेवाले और तपस्याके धनी हैं || १०० ।।

उनमेंसे प्रत्येकका शरीर अंगूठेके सिरेके बराबर है। इतने लघुकाय होनेपर भी वे अपने-अपने कर्तव्यमें स्थित हो सदा तपस्यामें संलग्न रहते हैं। उनके धर्मका फल महान्‌ है ।। १०१ |।

वे देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये उनके समान रूप धारण करते हैं। वे तपस्यासे सम्पूर्ण पापोंको दग्ध करके अपने तेजसे समस्त दिशाओंको प्रकाशित करते हैं || १०२

इनके अतिरिक्त दूसरे भी बहुत-से शुद्धचित्त, दयाधर्मपरायण एवं पुण्यात्मा संत हैं, जिनमें कुछ चक्रचर (चक्रके समान विचरनेवाले), कुछ सोमलोकमें रहनेवाले तथा कुछ पितृलोकके निकट निवास करनेवाले हैं। ये सब शास्त्रीय विधिके अनुसार उज्छवृत्तिसे जीविका चलाते हैं || १०३ $ ।।

कोई ऋषि सम्प्रक्षाल*, कोई अभ्मकुट्ट* और कोई दन्तोलूखलिकर हैं। ये लोग सोमप (चन्द्रमाकी किरणोंका पान करनेवाले) और उष्णप (सूर्यकी किरणोंका पान करनेवाले) देवताओंके निकट रहकर अपनी स्ट्रियों-लहित उज्छवृत्तिसे जीवन-निर्वाह करते और इन्द्रियोंको काबूमें रखते हैं || १०४-१०५ ।।

अन्निहोत्र, पितरोंका पूजन (श्राद्ध) और पंचमहा-यज्ञोंका अनुष्ठान यह उनका मुख्य धर्म कहा जाता है ।।

देवि! चक्रकी तरह विचरनेवाले और देवलोकमें निवास करनेवाले पूर्वोक्त ब्राह्मणोंने इस ऋषिधर्मका सदा ही अनुष्ठान किया है। इसके अतिरिक्त दूसरा भी जो ऋषियोंका धर्म है, उसे मुझसे सुनो || १०७ ।।

सभी आर्षधर्मोमें इन्द्रियसंयमपूर्वक आत्मज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। फिर काम और क्रोधको भी जीतना चाहिये। ऐसा मेरा मत है || १०८ ।।

प्रत्येक ऋषिके लिये अग्निहोत्रका सम्पादन, धर्मसत्रमें स्थिति, सोमयज्ञका अनुष्ठान, यज्ञविधिका ज्ञान और यज्ञमें दक्षिणा देना--इन पाँच कर्मोंका विधान आवश्यक है || १०९ ||

नित्य यज्ञका अनुष्ठान और धर्मका पालन करना चाहिये। देवपूजा और श्राद्धमें प्रीति रखना चाहिये। उछ्छवृत्तिसे उपार्जित किये हुए अन्नके द्वारा सबका आतिथ्य-सत्कार करना ऋषियोंका परम कर्तव्य है ।।

विषयभोगोंसे निवृत्त रहना, गोरसका आहार करना, शमके साधनमें प्रेम रखना, खुले मैदान चबूतरेपर सोना, योगका अभ्यास करना, साग-पातका सेवन करना, फल-मूल खाकर रहना, वायु, जल और सेवारका आहार करना--ये ऋषियोंके नियम हैं। इनका पालन करनेसे वे अजित--सर्वश्रेष्ठ गतिको प्राप्त करते हैं ।।

जब गृहस्थोंके यहाँ रसोईघरका धुआँ निकलना बंद हो जाय, मूसलसे धान कूटनेकी आवाज न आये--सन्नाटा छाया रहे, चूल्हेकी आग बुझ जाय, घरके सब लोग भोजन कर चुकें, बर्तनोंका इधर-उधर ले जाया जाना रुक जाय और भिक्षुक भीख माँगकर लौट गये हों, ऐसे समयतक ऋषिको अतिथियोंकी बाट जोहनी चाहिये और उसके बचे-खुचे अन्नको स्वयं ग्रहण करना चाहिये। ऐसा करनेसे सत्यधर्ममें अनुराग रखनेवाला शान्त पुरुष मुनिधर्मसे युक्त होता है अर्थात्‌ उसे मुनिधर्मके पालनका फल मिलता है। जिसे गर्व और अभिमान नहीं है, जो अप्रसन्न और विस्मित नहीं होता, शत्रु और मित्रको समान समझता तथा सबके प्रति मैत्रीका भाव रखता है, वही धर्मवेत्ताओंमें उत्तम ऋषि है ।। ११३-११५ ||

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपरव्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठके १०६½ “लोक मिलाकर कुल २२१½ “लोक हैं)

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  •  यहाँ आचार्य नीलकण्ठके मतमें श्मशान शब्दसे काशीका महाश्मशान ही गृहीत होता है। इसीलिये वहाँ शवके दर्शनसे शिवके दर्शनका फल माना जाता है।
  • कुछ लोग दूध पीनेके समय बछड़ोंके मुँहमें लगे हुए फेनको ही वह अमृत मानते हैं, उसीका पान करनेवाले उनके मतमें फेनप हैं। आचार्य नीलकण्ठ अन्नके अग्रभाग (रसोईसे निकाले गये अग्राशन) को फेन और उसका उपयोग करनेवालेको फेनप कहते हैं।

  1. जो भोजनके पश्चात्‌ पात्रको धो-पोंछकर रख देते हैं, दूसरे दिनके लिये कुछ भी नहीं बचाते हैं, उन्हें सम्प्रक्षाल कहते हैं।
  2. पत्थरसे फोड़कर खानेवालेको अभ्मकुट्ट कहते हैं।
  3. जो दाँतोंसे ही ओखलीका काम लेते हैं अर्थात्‌ अन्नको ओखलीमें न कूटकर दाँतोंसे ही चबाकर खाते हैं वे दन्तोलूखलिक कहलाते हैं।


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