सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-50 का हिन्दी अनुवाद)
“विष्णु, बलदेव, देवगण, धर्म, अग्नि, विश्वामित्र, गोसमुदाय और ब्रद्माजीके द्वारा धर्मके गूढ़ रहस्यका वर्णन”
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! प्राचीन कालकी बात है, एक बार देवराज इन्द्रने भगवान् विष्णुसे पूछा--“भगवन्! आप किस कर्मसे प्रसन्न होते हैं? किस प्रकार आपको संतुष्ट किया जा सकता है?' सुरेन्द्रके इस प्रकार पूछनेपर जगदीश्वर श्रीहरिने कहा ।। १ ।।
भगवान् विष्णु बोले--इन्द्र! ब्राह्मणोंकी निन्दा करना मेरे साथ महान् द्वेष करनेके समान है तथा ब्राह्मणोंकी पूजा करनेसे सदा मेरी भी पूजा हो जाती हैं--इसमें संशय नहीं है।। २ ।।
श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकोी प्रतिदिन प्रणाम करना चाहिये। भोजनके पश्चात् अपने दोनों पैरोंकी भी सेवा करे अर्थात् पैरोंको भलीभाँति धो ले तथा तीर्थकी मृत्तिकासे सुदर्शन चक्र बनाकर उसपर मेरी पूजा करे और नाना प्रकारकी भेंट चढ़ावे। जो ऐसा करते हैं, उन मनुष्योंपर मैं सन्तुष्ट होता हूँ |। ३ ।।
जो मनुष्य बौने ब्राह्मण और पानीसे निकले हुए वराहको देखकर नमस्कार करता और उनकी उठायी मृत्तिकाको मस्तकसे लगाता है, ऐसे लोगोंको कभी कोई अशुभ या पाप नहीं प्राप्त होता | ४ ३ ।।
जो मनुष्य अश्व॒त्थ वृक्ष, गोरोचना और गौकी सदा पूजा करता है, उसके द्वारा देवताओं, असुरों और मनुष्योंसहित सम्पूर्ण जगत्की पूजा हो जाती है ।। ५६
उस रूपमें उनके द्वारा की हुई पूजाको मैं यथार्थरूपसे अपनी पूजा मानकर ग्रहण करता हूँ। जबतक ये सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित हैं, तबतक यह पूजा ही मेरी पूजा है। इससे भिन्न दूसरे प्रकारकी पूजा मेरी पूजा नहीं है ।। ६३ ।।
अल्पबुद्धि मानव अन्य प्रकारसे मेरी व्यर्थ पूजा करते हैं। मैं उसे ग्रहण नहीं करता हूँ। वह पूजा मुझे संतोष प्रदान करनेवाली नहीं हैं || ७-८ ।।
इन्द्रने पूछा--भगवन्! आप चक्र, दोनों पैर, बौने ब्राह्मण, वराह और उनके द्वारा उठायी हुई मिट्टीकी प्रशंसा किसलिये करते हैं? ।। ९ ।।
आप ही प्राणियोंकी सृष्टि करते हैं, आप ही समस्त प्रजाका संहार करते हैं और आप ही मनुष्योंसहित सम्पूर्ण प्राणियोंकी सनातन प्रकृति (मूल कारण) हैं ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! तब भगवान् विष्णुने हँसकर इस प्रकार कहा--*देवराज! मैंने चक्रसे दैत्योंको मारा है। दोनों पैरोंसे पृथ्वीको आक्रान्त किया है। वाराहरूप धारण करके हिरण्याक्ष दैत्यको धराशायी किया है और वामन ब्राह्मणका रूप ग्रहण करके मैंने राजा बलिको जीता है ।। ११-१२ |।
इस तरह इन सबकी पूजा करनेसे मैं महामना मनुष्योंपर संतुष्ट होता हूँ। जो मेरी पूजा करेंगे, उनका कभी पराभव नहीं होगा ।। १३ ।।
“ब्रह्मचारी ब्राह्मगको घरपर आया देख गृहस्थ पुरुष ब्राह्मणको प्रथम भोजन कराये, तत्पश्चात् स्वयं अवशिष्ट अन्नको ग्रहण करे तो उसका वह भोजन अमृतके समान माना गया है ।। १४ ।।
'जो प्रातःकालकी संध्या करके सूर्यके सम्मुख खड़ा होता है, उसे समस्त तीथोमें स्नानका फल मिलता है और वह सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है || १५ ।।
“तपोधनो! तुमलोगोंने जो संशय पूछा है, उसके समाधानके लिये मैंने यह सारा गूढ़ रहस्य तुम्हें बताया है। बताओ और क्या कहूँ” ।। १६ ।।
बलदेवजीने कहा--जो मनुष्योंको सुख देनेवाला है तथा मूर्ख मानव जिसे न जाननेके कारण भूतोंसे पीड़ित हो नाना प्रकारके कष्ट उठाते रहते हैं, वह परम गोपनीय विषय मैं बता रहा हूँ; उसे सुनो || १७ ।।
जो मनुष्य प्रतिदिन प्रातः:काल उठकर गाय, घी, दही, सरसों और राईका स्पर्श करता है, वह पापसे मुक्त हो जाता है ।। १८ ।।
तपस्वी पुरुष आगे या पीछेसे आनेवाले सभी हिंसक जन््तुओंको त्याग देते--उन्हें छोड़कर दूर हट जाते हैं। इसी प्रकार संकटके समय भी वे उच्छिष्ट वस्तुका सदा परित्याग ही करते हैं ।। १९ ।।
देवता बोले--मनुष्य जलसे भरा हुआ ताँबेका पात्र लेकर उत्तराभिमुख हो उपवासका नियम ले अथवा और किसी व्रतका संकल्प करे || २० ।।
जो ऐसा करता है, उसके ऊपर देवता संतुष्ट होते हैं और उसकी सारी मनोवांछा सिद्ध हो जाती है; परन्तु मंदबुद्धि मानव ऐसा न करके व्यर्थ दूसरे-दूसरे कार्य किया करते हैं ।। २१ ।।
उपवासका संकल्प लेने और पूजाका उपचार समर्पित करनेमें ताम्रपात्रको उत्तम माना गया है। पूजन-सामग्री, भिक्षा, अर्घ्य तथा पितरोंके लिये तिल-मिश्रित जल ताम्रपात्रके द्वारा देने चाहिये अन्यथा उनका फल बहुत थोड़ा होता है। यह अत्यन्त गोपनीय बात बतायी गयी है। इसके अनुसार कार्य करनेसे देवता संतुष्ट होते हैं | २२-२३ ।।
धर्मने कहा--ब्राह्मण यदि राजाका कर्मचारी हो, वेतन लेकर घण्टा बजानेका काम करता हो, दूसरोंका सेवक हो, गोरक्षा एवं वाणिज्यका व्यवसाय करता हो, शिल्पी या नट हो, मित्रद्रोही हो, वेद न पढ़ा हो अथवा शूद्र जातिकी स्त्रीका पति हो, ऐसे लोगोंको किसी तरह भी देवकार्य (यज्ञ) और पितृकार्य (श्राद्ध) का अन्न आदि नहीं देना चाहिये। जो इन्हें पिण्ड या अन्न देते हैं, उनकी अवनति होती है तथा उनके पितरोंको भी तृप्ति नहीं होती ।। २४-२५३ ।।
जिसके घरसे अतिथि निराश लौट जाता है, उसके यहाँसे अतिथिका सत्कार न होनेके कारण देवता, पितर तथा अग्नि भी निराश लौट जाते हैं || २६-२७ ।।
जिसके यहाँ अतिथिका सत्कार नहीं होता, उस पुरुषको स्त्रीहत्यारों, गोघातकों, कृतष्नों, ब्रह्मघातियों और गुरुपत्नीगामियोंके समान पाप लगता है ।। २८ ।।
अग्नि बोले--जो दुर्बद्धि मनुष्य लात उठाकर उससे गौका, महाभाग ब्राह्मणका अथवा प्रज्वलित अग्निका स्पर्श करता है, उसके दोष बता रहा हूँ, सब लोग एकाग्रचित्त होकर सुनो ।। २९३ ।।
ऐसे मनुष्यकी अपकीर्ति स्वर्गतक फैल जाती है। उसके पितर भयभीत हो उठते हैं। देवताओंमें भी उसके प्रति भारी वैमनस्य हो जाता है तथा महातेजस्वी पावक उसके दिये हुए हविष्यको नहीं ग्रहण करते हैं || ३०-३१ ।।
वह सौ जन्मोंतक नरकमें पकाया जाता है। ऋषिगण कभी उसके उद्धारका अनुमोदन नहीं करते हैं ।।
इसलिये अपना हित चाहनेवाले श्रद्धालु पुरुषको गौओंका, महातेजस्वी ब्राह्मणका तथा प्रज्वलित अग्निका भी कभी पैरसे स्पर्श नहीं करना चाहिये। जो इन तीनोंपर पैर उठाता है, उसे प्राप्त होनेवाले इन दोषोंका मैंने वर्णन किया है ।। ३३-३४ ।।
विश्वामित्र बोले--देवताओ! यह धर्मसम्बन्धी परम गोपनीय रहस्य सुनो, जब भाद्रपदमासके कृष्णपक्षमें त्रयोदशी तिथिको मघा नक्षत्रका योग हो, उस समय जो मनुष्य दक्षिणाभिमुख हो कुतप कालमें (मध्याह्नके बाद आठवें मुहूर्तमें) जब कि हाथीकी छाया पूर्व दिशाकी ओर पड़ रही हो, उस छायामें ही स्थित हो पितरोंके निमित्त उपहारके रूपमें उत्तम अन्नका दान करता है, उस दानका जैसा विस्तृत फल बताया गया है, वह सुनो। दान करनेवाले उस पुरुषने इस जगतमें तेरह वर्षोंके लिये पितरोंका महान् श्राद्ध सम्पन्न कर दिया, ऐसा जानना चाहिये || ३५--३७ ।।
गौओंने कहा--पूर्वकालमें ब्रह्मलोकके भीतर वज्रधारी इन्द्रके यज्ञमें “बहुले! समंगे! अकुतोभये! क्षेमे! सखी, भूयसी” इन नामोंका उच्चारण करके बछड़ोंसहित गौओंकी स्तुति की गयी थी, फिर जो-जो गौएँ आकाशमें स्थित थीं और जो सूर्यके मार्गमें विद्यमान थीं, नारदसहित सम्पूर्ण देवताओंने उनका 'सर्वसहा” नाम रख दिया ।। ३८-३९ |।
ये दोनों श्लोक मिलकर एक मन्त्र है। उस मन्त्रसे जो गौओंकी वन्दना करता है, वह पापकर्मसे मुक्त हो जाता है। गोसेवाके फलस्वरूप उसे इन्द्रलोककी प्राप्ति होती है तथा वह चन्द्रमाके समान कान्तिलाभ करता है ।। ४० ।।
जो पर्वके दिन गोशालामें इस देवसेवित मन्त्रका पाठ करता है, उसे न पाप होता है, न भय होता है और न शोक ही प्राप्त होता है। वह सहस्र नेत्रधारी इन्द्रके लोकमें जाता है ४१ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! तदनन्तर महान् सौभाग्यशाली विश्वविख्यात वसिष्ठ आदि सभी सप्तर्षियोंने कमलयोनि ब्रह्माजीकी प्रदक्षिणा की और सब-के-सब हाथ जोड़कर उनके सामने खड़े हो गये || ४२३ ।।
उनमेंसे ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ वसिष्ठ मुनिने समस्त प्राणियोंके लिये हितकर तथा विशेषत: ब्राह्मण और क्षत्रियजातिके लिये लाभदायक प्रश्न उपस्थित किया-- || ४३ ३ ।।
“'भगवन्! इस संसारमें सदाचारी मनुष्य प्राय: दरिद्र एवं द्रव्यहीन हैं। वे किस कर्मसे किस तरह यहाँ यज्ञका फल पा सकते हैं? उनकी यह बात सुनकर ब्रह्माजीने कहा || ४४-४५ ||
ब्रह्माजी बोले--महान् भाग्यशाली सप्तर्षियो! तुम लोगोंने परम शुभकारक, गूढ़ अर्थसे युक्त, सूक्ष्म एवं मनुष्योंके लिये कल्याणकारी प्रश्न सामने रखा है ।।
तपोधनो! मनुष्य जिस प्रकार बिना किसी संशयके यज्ञका फल पाता है, वह सब पूर्णरूपसे बताऊँगा, सुनो ।।
पौषमासके शुक्ल पक्षमें जिस दिन रोहिणी नक्षत्रका योग हो, उस दिनकी रातमें मनुष्य स्नान आदिसे शुद्ध हो एक वस्त्र धारण करके श्रद्धा और एकाग्रताके साथ खुले मैदानमें आकाशके नीचे शयन करे और चन्द्रमाकी किरणोंका ही पान करता रहे। ऐसा करनेसे उसको महान् यज्ञका फल मिलता है ।। ४८-४९ ||
विप्रवरो! तुमलोग सूक्ष्मतत्त्व एवं अर्थके ज्ञाता हो। तुमने मुझसे जो कुछ पूछा है, उसके अनुसार मैंने तुम्हें यह परम गूढ़ रहस्य बताया है || ५० ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें देवताओंका रहस्यविषयक एक सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदगन्निके द्वारा धर्मके रहस्यका वर्णन”
अग्निदेवने कहा--जो मनुष्य पूर्णिमा तिथिको चन्द्रोदयके समय चन्द्रमाकी ओर मुँह करके उन्हें जलकी भरी हुई एक अंजलि घी और अक्षतके साथ भेंट करता है, उसने अन्निहोत्रका कार्य सम्पन्न कर लिया। उसके द्वारा गार्हपत्य आदि तीनों अग्नियोंको भलीभाँति आहुति दे दी गयी ।। १-२ ।।
जो मूर्ख अमावास्याके दिन किसी वनस्पतिका एक पत्ता भी तोड़ता है, उसे ब्रह्महत्याका पाप लगता है ।। ३ ।।
जो बुद्धिहीन मानव अमावास्या तिथिको दन्तधावन काष्ठ चबाता है, उसके द्वारा चन्द्रमाकी हिंसा होती है और पितर भी उससे उद्िग्न हो उठते हैं || ४ ।।
पर्वके दिन उसके दिये हुए हविष्यको देवता नहीं ग्रहण करते हैं। उसके पितर भी कुपित हो जाते हैं और उसके कुलमें वंशकी हानि होती है ।। ५ ।।
लक्ष्मी बोलीं--जिस घरमें सब पात्र इधर-उधर बिखरे पड़े हों, बर्तन फ़ूटे और आसन फटे हों तथा जहाँ स्त्रियाँ मारी-पीटी जाती हों, वह घर पापके कारण दूषित होता है। पापसे दूषित हुए उस गृहसे उत्सव और पर्वके अवसरोंपर देवता और पितर निराश लौट जाते हैं-उस घरकी पूजा नहीं स्वीकार करते ।। ६-७ ।।
अंगिराने कहा--जो पूरे एक वर्षतक करंज (करज) वृक्षके नीचे दीपदान करे और ब्राह्मीबूटीकी जड़ हाथमें लिये रहे, उसकी संतति बढ़ती है || ८ ।।
गार्ग्यने कहा--सदा अतिथियोंका सत्कार करे, घरमें दीपक जलाये, दिनमें सोना छोड़ दे। मांस कभी न खाय। गौ और ब्राह्मणकी हत्या न करे तथा तीनों पुष्कर तीर्थोंका प्रतिदिन नाम लिया करे। यह रहस्यसहित श्रेष्ठतम धर्म महान् फल देनेवाला है || ९-१० ।।
सैकड़ों बार किये हुए यज्ञका फल भी क्षीण हो जाता है; किंतु श्रद्धालु पुरुषोंद्वारा उपर्युक्त धर्मोंका पालन किया जाय तो वे कभी क्षीण नहीं होते || ११ ।।
यह परम गोपनीय रहस्यकी बात सुनो। श्राद्धमें, यज्ञमें, तीर्थमें और पर्वोके दिन देवताओंके लिये जो हविष्य तैयार किया जाता है, उसे यदि रजस्वला, कोढ़ी अथवा वन्ध्या स्त्री देख ले तो उनके नेत्रोंद्वारा देखे हुए हविष्यको देवता नहीं ग्रहण करते हैं तथा पितर भी तेरह वर्षोतक असंतुष्ट रहते हैं || १२-१३ $ ।।
श्राद्ध और यज्ञके दिन मनुष्य स्नान आदिसे पवित्र होकर श्वेत वस्त्र धारण करे। ब्राह्मणोंसे स््वस्तिवाचन कराये तथा महाभारत (गीता आदि) का पाठ करे। ऐसा करनेसे उसका हव्य और कव्य अक्षय होता है ।। १४ ।।
धौम्य बोले--घरमें फूटे बर्तन, टूटी खाट, मुर्गा, कुत्ता और अभश्वत्थादि वृक्षका होना अच्छा नहीं माना गया है ।। १५ ।।
फूटे बर्तनमें कलियुगका वास कहा गया है। टूटी खाट रहनेसे धनकी हानि होती है। मुर्गे और कुत्तेके रहनेपर देवता उस घरमें हविष्य नहीं ग्रहण करते तथा मकानके अंदर कोई बड़ा वृक्ष होनेपर उसकी जड़के अंदर साँप, बिच्छू आदि जन्तुओंका रहना अनिवार्य हो जाता है; इसलिये घरके भीतर पेड़ न लगावे ।। १६ ।।
जमदग्नि बोले--कोई अश्वमेध या सैकड़ों बाजपेय यज्ञ करे, नीचे मस्तक करके वृक्षमें लटके अथवा समृद्धिशाली सत्र खोल दे; किंतु जिसका हृदय शुद्ध नहीं है, वह पापी निश्चय ही नरकमें जाता है; क्योंकि यज्ञ, सत्य और हृदयकी शुद्धि तीनों बराबर हैं (फिर भी हृदयकी शुद्धि सर्वश्रेष्ठ है) ।। १७-१८ ।।
(प्राचीन समयमें एक ब्राह्मण) शुद्ध हृदयसे ब्राह्मणको सेरभर सत्तू दान करके ही ब्रह्मलोकको प्राप्त हुआ था। हृदयकी शुद्धिका महत्त्व बतानेके लिये यह एक ही दृष्टान्त पर्याप्त होगा || १९ |।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें देवताओंका रहस्यविषयक एक सौ सत्ताईयवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“वायुके द्वारा धर्माधर्मके रहस्यका वर्णन”
वायुदेवने कहा--मैं मनुष्योंके लिये सुखदायक धर्मका किंचित् वर्णन करता हूँ और रहस्यसहित जो दोष हैं, उन्हें भी बतलाता हूँ। तुम सब लोग एकाग्रचित्त होकर सुनो ।। १
प्रतिदिन अग्निहोत्र करना चाहिये। श्राद्धके दिन उत्तम अन्तके द्वारा ब्राह्मण-भोजन कराना चाहिये। पितरोंके लिये दीप-दान तथा तिलमिश्रित जलसे तर्पण करना चाहिये ।। २ ।।
जो मनुष्य श्रद्धा और एकाग्रताके साथ इस विधिसे वर्षाके चार महीनोंतक पितरोंको तिलमिश्रित जलकी अंजलि देता है और वेद-शास्त्रके पारंगत विद्वान् ब्राह्मणको यथाशक्ति भोजन कराता है, वह सौ यज्ञोंका पूरा फल प्राप्त कर लेता है ।। ३-४ ।।
अब यह दूसरी उस गोपनीय बातको सुनो, जो उत्तम नहीं है अर्थात् निन्दनीय है। यदि शूद्र किसी द्विजके अग्निहोत्रकी अग्निको एक स्थानसे दूसरे स्थानको ले जाता है तथा मूर्ख स्त्रियाँ यज्ञ-सम्बन्धी हविष्यको ले जाती हैं--इस कार्यको जो धर्म ही समझता है, वह अधर्मसे लिप्त होता है। उसके ऊपर अग्नियोंका कोप होता है और वह शूद्रयोनिमें जन्म लेता है || ५-६ ।।
उसके ऊपर देवताओंसहित पितर भी विशेष संतुष्ट नहीं होते हैं। ऐसे स्थलोंपर जो प्रायश्चित्तका विधान है, उसे बताता हूँ, सुनो || ७ ।।
उसका भलीभाँति अनुष्ठान करके मनुष्य सुखी और निश्चिन्त हो जाता है। द्विजको चाहिये कि वह निराहार एवं एकाग्रचित्त होकर तीन दिनोंतक गोमूत्र, गोबर, गोदुग्ध और गोघृतसे अग्निमें आहुति दे। तत्पश्चात् एक वर्ष पूर्ण होनेपर देवता उसकी पूजा ग्रहण करते हैं और पितर भी उसके यहाँ श्राद्धकाल उपस्थित होनेपर प्रसन्न होते हैं || ८-९३ ।।
इस प्रकार मैंने रहस्यसहित धर्म और अधर्मका वर्णन किया। यह स्वर्गकी कामनावाले मनुष्योंको मृत्युके पश्चात् स्वर्गीय सुखकी प्राप्ति करानेवाला है ।।१०-११।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपव्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें देवताओंका रहस्यविषयक एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ उनत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ उनत्तीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“लोमश द्वारा धर्मके रहस्यका वर्णन”
लोशमजीने कहा--जो स्वयं विवाह न करके परायी स्त्रियोंमें आसक्त हैं, उनके यहाँ श्राद्ध.काल आनेपर पितर निराश हो जाते हैं ।। १ ।।
जो परायी स्त्रीमें आसक्त है, जो वन्ध्या स्त्रीका सेवन करता है तथा जो ब्राह्मणका धन हर लेता है--ये तीनों समान दोषके भागी होते हैं || २ ।।
ये पितरोंकी दृष्टिमें बात करनेयोग्य नहीं रह जाते हैं, इसमें संशय नहीं है और देवता तथा पितर उसके हविष्यको आदर नहीं देते हैं ।। ३ ।।
अतः अपना हित चाहनेवाले पुरुषको परायी स्त्री और वन्ध्या स्त्रीका त्याग कर देना चाहिये तथा ब्राह्मणके धनका कभी अपहरण नहीं करना चाहिये ।। ४ ।।
अब दूसरी धर्मयुक्त गोपनीय रहस्यकी बात सुनो। सदा श्रद्धापूर्वक गुरुजनोंकी आज्ञाका पालन करना चाहिये ।। ५ ।।
प्रत्येक मासकी द्वादशी और पूर्णिमाके दिन ब्राह्मणोंको घृतसहित चावलोंका दान करे। इसका जो पुण्य है, उसे सुनो ।। ६ ।।
उस दानसे चन्द्रमा तथा महोदथधि समुद्रकी वृद्धि होती है और उस दाताको इन्द्र अश्वमेध यज्ञका चतुर्थाश फल देते हैं || ७ ।।
उस दानसे मनुष्य तेजस्वी और बलवान होता है और भगवान् सोम प्रसन्न होकर उसे अभीष्ट कामनाएँ प्रदान करते हैं ।। ८ ।।
अब दूसरे महान् फलदायक रहस्ययुक्त धर्मका वर्णन सुनो। जो इस कलियुगको पाकर मनुष्योंके लिये सुखकी प्राप्ति करानेवाला है ।। ९ ।।
जो मनुष्य सबेरे उठकर स्नान करके पवित्र सफेद वस्त्रसे युक्त हो मनको एकाग्र करके ब्राह्मणोंको तिल-पात्रका दान करता है और पितरोंके लिये मधुयुक्त तिलोदक, दीपक एवं खिचड़ी देता है, उसको जो फल मिलता है, उसका वर्णन सुनो ।। १०-११ ।।
भगवान् इन्द्रने तिल-पात्रके दानका फल इस प्रकार बतलाया है--जो सदा गो-दान और भूमि-दान करता है तथा जो बहुत-सी दक्षिणावाले अग्निष्टोम यज्ञका अनुष्ठान करता है, उसके इन पुण्य-कर्मोके समान ही देवतालोग तिल-पात्रके दानको भी मानते हैं || १२-१३ ।।
पितरलोग सदा श्राद्धमें तिलसहित जलका दान करना अक्षय मानते हैं। दीपदान और खिचड़ीके दानसे उसके पितामह संतुष्ट होते हैं || १४ ।।
यह पुरातन धर्म-रहस्य ऋषियोंद्वारा देखा गया है। स्वर्गलोक और पितृलोकमें भी देवताओं तथा पितरोंने इसका समादर किया है। इस प्रकार इस धर्मका मैंने वर्णन किया है ।। १५ ||
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपरव्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें लोगशवर्णित धर्मका रहस्यविषयक एक सौ उन्तीसवाँ अध्याय प्रा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ तीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-40 का हिन्दी अनुवाद)
“अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्तद्वारा धर्मसम्बन्धी रहस्यका वर्णन”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! तदनन्तर सभी ऋषियों, पितरों और देवताओंने तपस्यामें बढ़ी-चढ़ी हुई अरुन्धती देवीसे, जो शील और शक्तिमें महात्मा वसिष्ठजीके ही समान थीं, एकाग्रचित्त होकर पूछा--“भद्रे! हम आपके मुँहसे धर्मका रहस्य सुनना चाहते है। आपकी दृष्टिमें जो गुह्मतम धर्म हो, उसे बतानेकी कृपा करें” ।। १-२ ।।
अरुन्धती बोली--देवगण! आपलोगोंने मुझे स्मरण किया, इससे मेरे तपकी वृद्धि हुई है। अब मैं आप ही लोगोंकी कृपासे गोपनीय रहस्योंसहित सनातन धर्मोंका वर्णन करती हूँ, आपलोग वह सब सुनें। जिसका मन शुद्ध हो, उस श्रद्धालु पुरुषको ही इन धर्मोंका उपदेश करना चाहिये ।। ३-४ ।।
जो श्रद्धासे रहित, अभिमानी, ब्रह्महत्यारे और गुरुस्त्रीगामी हैं, इन चार प्रकारके मनुष्योंस बात भी नहीं करनी चाहिये। इनके सामने धर्मके रहस्यको प्रकाशित न करे ।। ५ ।।
जो मनुष्य बारह वर्षोतक प्रतिदिन एक-एक कपिला गौका दान करता है, हर महीनेमें निरन्तर सत्रयाग चलाता और ज्येष्ठपुष्कर तीर्थमें जाकर एक लाख गोदान करता है, उसके धर्मका फल उस मनुष्यके बराबर नहीं हो सकता, जिसके द्वारा की हुई सेवासे अतिथि संतुष्ट हो जाता है ।। ६-७ ।।
अब मनुष्योंके लिये सुखदायक तथा महान् फल देनेवाले दूसरे धर्मका रहस्यसहित वर्णन सुनो। श्रद्धापूर्वक इसका पालन करना चाहिये ।। ८ ।।
सबेरे उठकर कुश और जल हाथमें ले गौओंके बीचमें जाय। वहाँ गौओंके सींगपर जल छिड़के और सींगसे गिरे हुए जलको अपने मस्तकपर धारण करे। साथ ही उस दिन निराहार रहे। ऐसे पुरुषको जो धर्मका फल मिलता है, उसे सुनो || ९६ ।।
तीनों लोकोंमें सिद्ध, चारण और महर्षियोंसे सेवित जो कोई भी तीर्थ सुने जाते हैं, उन सबमें स्नान करनेसे जो फल मिलता है वही गायोंके सींगके जलसे अपने मस्तकको सींचनेसे प्राप्त होता है ।। १०-११ ।।
यह सुनकर देवता, पितर और समस्त प्राणी बहुत प्रसन्न हुए। उन सबने उन्हें साधुवाद दिया और अरुन्धती देवीकी भूरि-भूरि प्रशंसा की || १२ ।।
ब्रह्माजीने कहा--महाभागे! तुम धन्य हो, तुमने रहस्यसहित अद्भुत धर्मका वर्णन किया है। मैं तुम्हें वरदान देता हूँ, तुम्हारी तपस्या सदा बढ़ती रहे ।। १३ ।।
यमराजने कहा--देवताओ और महर्षियो! मैंने आपलोगोंके मुखसे दिव्य एवं मनोरम कथा सुनी है, अब आपलोग चित्रगुप्तका तथा मेरा भी प्रिय भाषण सुनिये ।।
इस धर्मयुक्त रहस्यको महर्षि भी सुन सकते हैं। अपना हित चाहनेवाले श्रद्धालु मनुष्यको भी इसे श्रवण करना चाहिये ।। १५ ।।
मनुष्यका किया हुआ कोई भी पुण्य तथा पाप भोगके बिना नष्ट नहीं होता। पर्वकालमें जो कुछ भी दान किया जाता है, वह सब सूर्यदेवके पास पहुँचता है ।।
जब मनुष्य प्रेतलोकको जाता है, उस समय सूर्यदेव वे सारी वस्तुएँ उसे अर्पित कर देते हैं और पुण्यात्मा पुरुष परलोकमें उन वस्तुओंका उपभोग करता है ।।
अब मैं चित्रगुप्तकके मतके अनुसार कुछ कल्याण-कारी धर्मका वर्णन करता हूँ। मनुष्यको जलदान और दीपदान सदा ही करने चाहिये ।। १८ ।।
उपानह (जूता), छत्र तथा कपिला गौका भी यथोचित रीतिसे दान करना चाहिये। पुष्कर तीर्थमें वेदोंके पारंगत विद्वान् ब्राह्मणको कपिला गाय देनी चाहिये और अग्निहोत्रके नियमका सब तरहसे प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिये ।। १९६ ।।
इसके सिवा यह एक दूसरा धर्म भी चित्रगुप्तने बताया है। उसके पृथक्ू-पृथक् फलका वर्णन सभी साधु पुरुष सुनें। समस्त प्राणी कालक्रमसे प्रलयको प्राप्त होते हैं ।।
पापोंके कारण दुर्गम नरकमें पड़े हुए प्राणी भूख-प्याससे पीड़ित हो अतामें जलते हुए पकाये जाते हैं। वहाँ उस यातनासे निकल भागनेका कोई उपाय नहीं है ।।
मन्दबुद्धि मनुष्य ही नरकके घोर दुःखमय अन्धकारमें प्रवेश करते हैं। उस अवसरके लिये मैं धर्मका उपदेश करता हूँ, जिससे मनुष्य दुर्गम नरकसे पार हो सकता है ।। २३ ।।
उस धर्ममें व्यय बहुत थोड़ा है, परंतु लाभ महान् है। उससे मृत्युके पश्चात् भी उत्तम सुखकी प्राप्ति होती है। जलके गुण दिव्य हैं। प्रेतलोकमें ये गुण विशेषरूपसे लक्षित होते हैं ।। २४ ।।
वहाँ पुण्योदका नामसे प्रसिद्ध नदी है, जो यमलोकनिवासियोंके लिये विहित है। उसमें अमृतके समान मधुर, शीतल एवं अक्षय जल भरा रहता है ।।
जो यहाँ जलदान करता है, वही परलोकमें जानेपर उस नदीका जल पीता है। अब दीपदानसे जो अधिकाधिक लाभ होता है, उसको सुनो ।। २६ ।।
दीपदान करनेवाला मनुष्य नरकके नियत अन्धकारका दर्शन नहीं करता। उसे चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि प्रकाश देते रहते हैं || २७ ।।
देवता भी दीपदान करनेवालेका आदर करते हैं। उसके लिये सम्पूर्ण दिशाएँ निर्मल होती हैं तथा प्रेतलोकमें जानेपर वह मनुष्य सूर्यके समान प्रकाशित होता है ।।
इसलिये विशेष यत्न करके दीप और जलका दान करना चाहिये। विशेषतः पुष्कर तीर्थमें जो वेदोंके पारंगत विद्वान् ब्राह्यणको कपिला दान करते हैं, उन्हें उस दानका जो फल मिलता है, उसे सुनो। उसे साँड़ों-सहित सौ गौओंके दानका शाश्वत फल प्राप्त होता है ।।
ब्रह्म हत्याके समान जो कोई पाप होता है, उसे एकमात्र कपिलाका दान शुद्ध कर देता है। वह एक ही गोदान सौ गोदानोंके बराबर है। इसलिये ज्येष्ठपुष्कर तीर्थमें कार्तिककी पूर्णिमाको अवश्य कपिला गौका दान करना चाहिये || ३१३ ।।
जो श्रेष्ठ एवं सुपात्र ब्राह्मणको उपानह (जूता) दान करता है, उसके लिये कहीं कोई विषम स्थान नहीं है। न उसे दुःख उठाना पड़ता है और न काँटोंका ही सामना करना पड़ता है। छत्र-दान करनेसे परलोकमें जानेपर दाताको सुखदायिनी छाया सुलभ होती है ।।
इस लोकमें दिये हुए दानका कभी नाश नहीं होता। चित्रगुप्तका यह मत सुनकर भगवान् सूर्यके शरीरमें रोमांच हो आया। उन महातेजस्वी सूर्यने सम्पूर्ण देवताओं और पितरोंसे कहा--“आपलोगोंने महामना चित्रगुप्तके धर्मविषयक गुप्त रहस्यको सुन लिया ।।
“जो मनुष्य महामनस्वी ब्राह्मणोंपर श्रद्धा करके यह दान देते हैं, उन्हें भय नहीं होता' || ३६ |।
आगे बताये जानेवाले पाँच धर्मविषयक दोष जिनमें विद्यमान हैं, उनका यहाँ कभी उद्धार नहीं होता। ऐसे अनाचारी नराधमोंसे बात नहीं करनी चाहिये। उन्हें दूरसे ही त्याग देना चाहिये || ३७ ।।
ब्रह्महत्यारा, गोहत्या करनेवाला, परस्त्रीलम्पट, अश्रद्धालु तथा जो स्त्रीपर निर्भर रहकर जीविका चलाता है--ये ही पूर्वोक्त पाँच प्रकारके दुराचारी हैं || ३८ ।।
ये पापकर्मी मनुष्य प्रेतलोकमें जाकर नरककी आगमें मछलियोंकी तरह पकाये जाते हैं और पीब तथा रक्त भोजन करते हैं ।। ३९ ।।
इन पाँचों पापाचारियोंसे देवताओं, पितरों, स्नातक ब्राह्मणों तथा अन्यान्य तपोधनोंको बातचीत भी नहीं करनी चाहिये || ४० ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें अरन्धती और चित्रगुप्तका धर्मसम्बन्धी रहस्यविषयक एक सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)




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