सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के एक सौ इक्कीसवें अध्याय से एक सौ पच्चीसवें अध्याय तक (From the 121 chapter to the 125 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद) 

“व्यास-मैत्रेय-संवाद--विद्वान्‌ एवं सदाचारी ब्राह्मणको अन्नदानकी प्रशंसा”

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! व्यासजीके ऐसा कहनेपर कर्मपूजक मैत्रेयने जो अत्यन्त श्रीसम्पन्न कुलमें उत्पन्न हुए बहुश्रुत विद्वान्‌ थे, उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया ।।

मैत्रेय बोले--महाप्राज्ञ! आप जैसा कहते हैं ठीक वैसी ही बात है, इसमें संशय नहीं है। प्रभो! यदि आप आज्ञा दें तो मैं कुछ कहूँ ।। २ ।।

व्यासजीने कहा--महा प्राज्ञ मैत्रेय! तुम जो-जो, जितनी-जितनी और जैसी-जैसी बातें कहना चाहो, कहो। मैं तुम्हारी बातें सुनूँगा || ३ ।।

मैत्रेय बोले--मुने! आपने दानके सम्बन्धमें जो बातें बतायी हैं, वे दोषरहित और निर्मल हैं। इसमें संदेह नहीं कि आपने विद्या और तपस्यासे अपने अन्तःकरणको परम पवित्र बना लिया है || ४ ।।

आप शुद्धचित्त हैं, इसलिये आपके समागमसे मुझे यह महान्‌ लाभ पहुँचा है। यह बात मैं समृद्धिशाली तपवाले महर्षिके समान बुद्धिसे बारंबार विचारकर प्रत्यक्ष देखता हूँ ।।

आपके दर्शनसे ही हमलोगोंका महान्‌ अभ्युदय हो सकता है। आपने जो दर्शन दिया, यह आपकी बहुत बड़ी कृपा है। मैं ऐसा ही मानता हूँ। यह कर्म भी आपकी कृपासे ही स्वभावत: बन गया है ।। ६ ।।

ब्राह्मणत्वके तीन कारण माने गये हैं--तपस्या, शास्त्रज्ञान और विशुद्ध ब्राह्मणकुलमें जन्म। जो इन तीनों गुणोंसे सम्पन्न है, वही सच्चा ब्राह्मण है || ७ ।।

ऐसे ब्राह्मणके तृप्त होनेपर देवता और पितर भी तृप्त हो जाते हैं। विद्वानोंके लिये ब्राह्मणसे बढ़कर दूसरा कोई मान्य नहीं है ।। ८ ।।

यदि ब्राह्मण न हों तो यह सारा जगत्‌ अज्ञानान्धकारसे आच्छन्न हो जाय। किसीको कुछ सूझ न पड़े तथा चारों वर्णोकी स्थिति, धर्म-अधर्म और सत्यासत्य कुछ भी न रह जाय ।। ९ ||

जैसे मनुष्य अच्छी तरह जोतकर तैयार किये हुए खेतमें बीज डालनेपर उसका फल पाता है, उसी प्रकार विद्वान ब्राह्मणको दान देकर दाता निश्चय ही उसके फलका भागी होता है ।। १० ।।

यदि विद्या और सदाचारसे सम्पन्न ब्राह्मण जो दान लेनेका प्रधान अधिकारी है, धन न पा सके तो धनियोंका धन व्यर्थ हो जाय ।। ११ ।।

मूर्ख मनुष्य यदि किसीका अन्न खाता है तो वह उस अन्नको नष्ट करता है (अर्थात्‌ कर्ताको उसका कुछ फल नहीं मिलता)। इसी प्रकार वह अन्न भी उस मूर्खको नष्ट कर डालता है। जो सुपात्र होनेके कारण अन्न और दाताकी रक्षा करता है, उसकी भी वह अन्न रक्षा करता है। जो मूर्ख दानके फलका हनन करता है, वह स्वयं भी मारा जाता है ।। १२ ।।

प्रभाव और शक्तिसे सम्पन्न दिद्वान्‌ ब्राह्मण यदि अन्न भोजन करता है तो वह पुनः अन्नका उत्पादन करता है, किंतु वह स्वयं अन्नसे उत्पन्न होता है, इसलिये यह व्यतिक्रम सूक्ष्म (दुर्विज्ञेय) है अर्थात्‌ यद्यपि वृष्टिसे अन्नकी और अन्नसे प्रजाकी उत्पत्ति होती है; किंतु यह प्रजा (विद्वान ब्राह्मण) से अन्नकी उत्पत्तिका विषय दुर्विज्ञेय है ।। १३ ।।

“दान देनेवालेको जो पुण्य होता है, वही दान लेनेवालेको भी (यदि वह योग्य अधिकारी है तो) होता है। (क्योंकि दोनों एक दूसरेके उपकारक होते हैं) एक पहियेसे गाड़ी नहीं चलती--प्रतिग्रहीताके बिना दाताका दान सफल नहीं हो सकता।” ऐसी ऋषियोंकी मान्यता है ।।

जहाँ विद्वान्‌ और सदाचारी ब्राह्मण रहते हैं, वहीं दिये हुए दानका फल इहलोक और परलोकमें मनुष्य भोगता है || १५ ।।

जो ब्राह्मण विशुद्ध कुलमें उत्पन्न, निरन्तर तपस्यामें संलग्न रहनेवाले, बहुत दानपरायण तथा अध्ययनसम्पन्न हैं, वे ही सदा पूज्य माने गये हैं | १६ ।।

ऐसे सत्पुरुषोंने जिस मार्गका निर्माण किया है, उससे चलनेवालेको कभी मोह नहीं होता; क्योंकि वे मनुष्योंको स्वर्गलोकमें ले जानेवाले तथा सनातन यज्ञनिर्वाहक हैं || १७।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें मैत्रेयकी भिक्षाविषयक एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

एक सौ बाईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ बाईसवाँ अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद) 

“व्यास-मैत्रेय-संवाद--तपकी प्रशंसा तथा गृहस्थके उत्तम कर्तव्यका निर्देश”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! मैत्रेयके इस प्रकार कहनेपर भगवान्‌ वेदव्यास उनसे इस प्रकार बोले--'ब्रह्मन! तुम बड़े सौभाग्यशाली हो, जो ऐसी बातोंका ज्ञान रखते हो। भाग्यसे ही तुमको ऐसी बुद्धि प्राप्त हुई है ।। १ ।।

“संसारके लोग उत्तम गुणवाले पुरुषकी ही अधिक प्रशंसा करते हैं। सौभाग्यकी बात है कि रूप, अवस्था और सम्पत्तिके अभिमान तुम्हारे ऊपर प्रभाव नहीं डालते हैं। यह तुमपर देवताओंका महान्‌ अनुग्रह है। इसमें संशय नहीं है | २६ ।।

'अस्तु, अब मैं दानसे भी उत्तम धर्मका तुमसे वर्णन करता हूँ, सुनो। इस जगतमें जितने शास्त्र और जो कोई भी प्रवृतियाँ हैं, वे सब वेदको ही सामने रखकर क्रमशः प्रचलित हुए हैं |। ३-४ ।।

मैं दानकी प्रशंसा करता हूँ, तुम भी तपस्या और शास्त्रज्ञानकी प्रशंसा करते हो, वास्तवमें तपस्या पवित्र और वेदाध्ययन एवं स्वर्गका उत्तम साधन है ।। ५ ।।

“मैंने सुना है कि तपस्या और विद्या दोनोंसे ही मनुष्य महान्‌ पदको प्राप्त करता है। अन्यान्य जो पाप हैं, उन्हें भी तपस्यासे ही वह दूर कर सकता है ।। ६ ।।

“जो कोई भी उद्देश्य लेकर पुरुष तपस्यामें प्रवृत्त होता है, वह सब उसे तप और विद्यासे प्राप्त हो जाता है; यह हमारे सुननेमें आया है ।। ७ ।।

“जिससे सम्बन्ध स्थापित करना अत्यन्त कठिन है, जो दुर्धर्ष, दुर्लभ और दुर्लड्घ्य है, वह सब तपस्यासे सुलभ हो जाता है; क्योंकि तपस्याका बल सबसे बड़ा है ।। ८ ।।

“शराबी, चोर, गर्भहत्यारा, गुरुकी शय्यापर शयन करनेवाला पापी भी तपस्याद्वारा सम्पूर्ण संसारसे पार हो जाता है और अपने पापोंसे छुटकारा पा जाता है ।।

“जो सब प्रकारकी विद्याओंमें प्रवीण है, वही नेत्रवान्‌ है और तपस्वी, चाहे जैसा हो उसे भी नेत्रवान्‌ ही कहा जाता है। इन दोनोंको सदा नमस्कार करना चाहिये ।।

“जो विद्याके धनी और तपस्वी हैं, वे सब पूजनीय हैं तथा दान देनेवाले भी इस लोकमें धन-सम्पत्ति और परलोकमें सुख पाते हैं ।। ११ ।।

संसारके पुण्यात्मा पुरुष अन्न-दान देकर इस लोकमें भी सुखी होते हैं और मृत्युके बाद ब्रह्मलोक तथा दूसरे शक्तिशाली लोकको प्राप्त कर लेते हैं ।।

“दानी स्वयं पूजित और सम्मानित होकर दूसरोंका पूजन और सम्मान करते हैं। दाता जहाँ-जहाँ जाते हैं, सब ओर उनकी स्तुति की जाती है ।। १३ ।।

“मनुष्य दान करता हो या न करता हो, वह ऊपरके लोकमें रहता हो या नीचेके लोकमें, जिसे कर्मानुसार जैसा लोक प्राप्त होगा, वह अपने उसी लोकमें जायगा ।।

“मैत्रेयजी! तुम जो कुछ चाहोगे, उसके अनुसार तुमको अन्न-पानकी सामग्री प्राप्त होगी। तुम बुद्धिमान, कुलीन, शास्त्रज्ञ और दयालु हो। तुम्हारी तरुण अवस्था है और तुम व्रतधारी हो। अतः सदा धर्म-पालनमें लगे रहो और गृहस्थोंके लिये जो सबसे उत्तम एवं मुख्य कर्तव्य है, उसे ग्रहण करो--ध्यान देकर सुनो ।।

“जिस कुलमें पति अपनी पत्नीसे और पत्नी अपने पतिसे संतुष्ट रहती हो, वहाँ सदा कल्याण होता है ।।

“जिस प्रकार जलसे शरीरका मल धुल जाता है और अग्निकी प्रभासे अन्धकार दूर हो जाता है, उसी प्रकार दान और तपस्यासे मनुष्यके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ।। १८ ।।

“महाभाग! ब्राह्मण दान, तपस्या और भगवान्‌ विष्णुकी आराधनाके द्वारा संसारसागरसे पार हो जाता है। जिन्होंने अपने वर्णोचित कर्मोका अनुष्ठान करके अन्तःकरणको शुद्ध बना लिया है, तपस्याद्वारा जिनका चित्त निर्मल हो गया है तथा विद्याके प्रभावसे जिनका मोह दूर हो गया है, ऐसे मनुष्योंके उद्धारके लिये भगवान्‌ श्रीहरि माने गये हैं अर्थात्‌ उनका स्मरण करते ही वे अवश्य उद्धार करते हैं। अतः तुम भगवान्‌ विष्णुकी आराधनामें तत्पर हो सदा उनके भक्त बने रहो और निरन्तर उन्हें नमस्कार करो। अष्टाक्षर मन्त्रके जपमें तत्पर रहनेवाले भगवद्धक्त कभी नष्ट नहीं होते। जो इस जगतमें प्रणवोपासनामें संलग्न और परमार्थ-साधनमें तत्पर हैं, ऐसे श्रेष्ठ पुरुषोंके संगसे सारा पाप दूर करके अपने आपको पवित्र करो ।।

“मैत्रेय! तुम्हारा कल्याण हो। अब मैं सावधानीके साथ अपने आश्रमको जा रहा हूँ। मैंने जो कुछ बताया है, उसे याद रखना; इससे तुम्हारा कल्याण होगा” ।। १९ |।

तब मैत्रेयजीने व्यासजीको प्रणाम करके उनकी परिक्रमा की और हाथ जोड़कर कहा --“भगवन्‌! आप मंगल प्राप्त करें! || २० ।।

(इस प्रकार श्रीमह्ाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें मैत्रेयकी भिक्षाविषयक एक सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर २४ श्लोक हैं)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-25½ का हिन्दी अनुवाद) 

“शाण्डिली और सुमनाका संवाद--पतिव्रता स्त्रियोंके कर्तव्यका वर्णन”

युधिष्ठिरने पूछा--सम्पूर्ण धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ पितामह! साध्वी स्त्रियोंके सदाचारका क्‍या स्वरूप है? यह मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ। उसे मुझे बताइये ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! देवलोककी बात है--सम्पूर्ण तत्त्वोंको जाननेवाली सर्वज्ञा एवं मनस्विनी शाण्डिलीदेवीसे केकयराजकी पुत्री सुमनाने इस प्रकार प्रश्न किया-- ।। २ ।

“कल्याणि! तुमने किस बर्ताव अथवा किस सदाचारके प्रभावसे समस्त पापोंका नाश करके देवलोकमें पदार्पण किया है? ।। ३ ।।

“तुम अपने तेजसे अग्निकी ज्वालाके समान प्रज्वलित हो रही हो और चन्द्रमाकी पुत्रीके समान अपनी उज्ज्वल प्रभासे प्रकाशित होती हुई स्वर्गगलोकमें आयी हो ।। ४ ।।

निर्मल वस्त्र धारण किये थकावट और परिश्रमसे रहित होकर विमानपर बैठी हो। तुम्हारी मंगलमयी आकृति है, तुम अपने तेजसे सहख्रगुनी शोभा पा रही हो ।। ५ ।।

'थोड़ी-सी तपस्या थोड़े-से दान या छोटे-मोटे नियमोंका पालन करके तुम इस लोकमें नहीं आयी हो। अत: अपनी साधनाके सम्बन्धमें सच्ची-सच्ची बात बताओ' ।।

सुमनाके इस प्रकार मधुर वाणीमें पूछनेपर मनोहर मुसकानवाली शाण्डिलीने उससे नम्रतापूर्ण शब्दोंमें इस प्रकार कहा-- ।। ७ ।।

*देवि! मैंने गेरआ वस्त्र नहीं धारण किया, वल्कलवस्त्र नहीं पहना, मूँड़ नहीं मुड़ाया और बड़ी-बड़ी जटाएँ नहीं रखायीं। वह सब करके मैं देवलोकमें नहीं आयी हूँ || ८ ।।

“मैंने सदा सावधान रहकर अपने पतिदेवके प्रति मुँहले कभी अहितकर और कठोर वचन नहीं निकाले हैं ।। ९ ।।

“मैं सदा सास-ससुरकी आज्ञामें रहती और देवता, पितर तथा ब्राह्मणोंकी पूजामें सदा सावधान होकर संलग्न रहती थी ।। १० ।।

“किसीकी चुगली नहीं खाती थी। चुगली करना मेरे मनको बिलकुल नहीं भाता था। मैं घरका दरवाजा छोड़कर अन्यत्र नहीं खड़ी होती और देरतक किसीसे बात नहीं करती थी ।। ११ ।।

“मैंने कभी एकान्तमें या सबके सामने किसीके साथ अश्लील परिहास नहीं किया तथा मेरी किसी क्रियाद्वारा किसीका अहित भी नहीं हुआ। मैं ऐसे कार्योमें कभी प्रवृत्त नहीं होती थी ।। १२ ।।

“यदि मेरे स्वामी किसी कार्यसे बाहर जाकर फिर घरको लौटते तो मैं उठकर उन्हें बैठनेके लिये आसन देती और एकाग्रचित्त हो उनकी पूजा करती थी ।। १३ ।।

“मेरे स्वामी जिस अन्नको ग्रहण करने योग्य नहीं समझते थे तथा जिस भक्ष्य, भोज्य या लेह्म आदिको वे नहीं पसंद करते थे, उन सबको मैं भी त्याग देती थी ।। १४ ।।

'सारे कुट॒म्बके लिये जो कुछ कार्य आ पड़ता, वह सब मैं सबेरे ही उठकर कर-करा लेती थी ।। १५ ।।

“मैं अग्निहोत्रकी रक्षा करती और घरको लीप-पोतकर शुद्ध रखती थी। बच्चोंका प्रतिदिन पालन करती और कन्याओंको नारीधर्मकी शिक्षा देती थी। अपनेको प्रिय लगनेवाली खाद्य वस्तुएँ त्यागकर भी गर्भकी रक्षामें ही सदा संलग्न रहती थी। बच्चोंको शाप (गाली) देना, उनपर क्रोध करना अथवा उन्हें सताना आदि मैं सदाके लिये त्याग चुकी थी। मेरे घरमें कभी अनाज छीटे नहीं जाते थे। किसी भी अन्नको बिखेरा नहीं जाता था। मैं अपने घरमें गौओंको घास-भूसा खिलाकर, पानी पिलाकर तृप्त करती थी और रत्नकी भाँति उन्हें सुरक्षित रखनेकी इच्छा करती थी तथा शुद्ध अवस्थामें मैं आगे बढ़कर ब्राह्मणोंको भिक्षा देती थी ।।

यदि मेरे पति किसी आवश्यक कार्यवश कभी परदेश जाते तो मैं नियमसे रहकर उनके कल्याणके लिये नाना प्रकारके मांगलिक कार्य किया करती थी ।।

'स्वामीके बाहर चले जानेपर मैं आँखोंमें आँजन लगाना, ललाटमें गोरोचनका तिलक करना, तैलाभ्यंगपूर्वक स्नान करना, फूलोंकी माला पहनना, अंगोंमें अंगराग लगाना तथा शृंगार करना पसंद नहीं करती थी ।। १७ ।।

“जब स्वामी सुखपूर्वक सो जाते उस समय आवश्यक कार्य आ जानेपर भी मैं उन्हें कभी नहीं जगाती थी। इससे मेरे मनको विशेष संतोष प्राप्त होता था ।।

'परिवारके पालन-पोषणके कार्यके लिये भी मैं उन्हें कभी नहीं तंग करती थी। घरकी गुप्त बातोंको सदा छिपाये रखती और घर-आँगनको सदा झाड़-बुहारकर साफ रखती थी ।। १९ |।

'जो स्त्री सदा सावधान रहकर इस धर्ममार्गकका पालन करती है, वह नारियोंमें अरुन्धतीके समान आदरणीय होती है और स्वर्गलोकमें भी उसकी विशेष प्रतिष्ठा होती है! || २० |।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! सुमनाको इस प्रकार पातित्रत्य धर्मका उपदेश देकर तपस्विनी महाभागा शाण्डिली देवी तत्काल वहाँ अदृश्य हो गयीं || २१ ।।

पाण्डुनन्दन! जो प्रत्येक पर्वके दिन इस आख्यानका पाठ करता है, वह देवलोकमें पहुँचकर नन्दनवनमें सुखपूर्वक निवास करता है || २२ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें शाण्डिली और युमनाका संवादविषयक एक सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३½ श्लोक मिलाकर कुल २५½ श्लोक हैं)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

एक सौ चौबीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ चौबीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-67½ का हिन्दी अनुवाद) 

“नारदका पुण्डरीकको भगवान्‌ नारायणकी आराधनाका उपदेश तथा उन्हें भगवद्धामकी प्राप्ति, सामगुणकी प्रशंसा, ब्राह्मणका राक्षसके सफेद और दुर्बल होनेका कारण बताना”

युधिष्ठिरने कहा--पितामह! जो सर्वोत्तम कर्तव्य-रूपसे जानने योग्य है, महात्मा पुरुष जिसका अनुष्ठान करना अपना धर्म समझते हैं तथा जो सम्पूर्ण शास्त्रोंका सार है, उस श्रेयका कृपापूर्वक वर्णन कीजिये ।।

भीष्मजीने कहा--प्रजानाथ! जो अत्यन्त गूढ़, संसारबन्धनसे मुक्त करनेवाला और तुम्हारे द्वारा श्रवण करने एवं भलीभाँति जाननेके योग्य है, उस परम श्रेयका वर्णन सुनो ।।

प्राचीन कालकी बात है, पुण्डरीक नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण किसी पुण्यतीर्थमें सदा जप किया करते थे। उन्होंने योगपरायण मुनिवर नारदजीसे श्रेय (कल्याणकारी साधन) के विषयमें पूछा। तब नारदजीने महात्मा ब्रह्माजीके द्वारा बताये हुए श्रेयका उन्हें इस प्रकार उपदेश दिया ।।

नारदजीने कहा--तात! तुम सावधान होकर परम उत्तम ज्ञानयोगका वर्णन सुनो। यह किसी व्यक्ति-विशेषसे नहीं प्रकट हुआ है--अनादि है, प्रचुर अर्थका साधक है तथा वेदों और शास्त्रोंके अर्थका सारभूत है ।।

जो चौबीस तत्त्वमयी प्रकृतिसे उसका साक्षिभूत पचीसवाँ तत्त्व पुरुष कहा गया है तथा जो सम्पूर्ण भूतोंका आत्मा है, उसीको नर कहते हैं ।।

नरसे सम्पूर्ण तत्त्व प्रकट हुए हैं, इसलिये उन्हें नार कहते हैं। नार ही भगवानूका अयन --निवासस्थान है, इसलिये वे नारायण कहलाते हैं ।।

सृष्टिकालमें यह सारा जगत्‌ नारायणसे ही प्रकट होता है और प्रलयकालमें फिर उन्हींमें इसका लय होता है ।।

नारायण ही परब्रह्म हैं, परमपुरुष नारायण ही सम्पूर्ण तत्त्व हैं, वे ही परसे भी परे हैं। उनके सिवा दूसरा कोई परात्पर तत्त्व नहीं है ।।

उन्हींको वासुदेव, विष्णु तथा आत्मा कहते हैं। संज्ञाभेदसे एकमात्र नारायण ही सम्पूर्ण शास्त्रोंद्वारा वर्णित होते हैं ।।

समस्त शास्त्रोंका आलोडन करके बारंबार विचार करनेपर एकमात्र यही सिद्धान्त स्थिर हुआ है कि सदा भगवान्‌ नारायणका ध्यान करना चाहिये ।।

अतः तुम शात्त्रार्थके सम्पूर्ण गहन विस्तारका त्याग करके अनन्यचित्त होकर सर्वव्यापी अजन्मा भगवान्‌ नारायणका ध्यान करो ।।

जो आलस्य छोड़कर दो घड़ी भी नारायणका ध्यान करता है, वह भी उत्तम गतिको प्राप्त होता है। फिर जो निरन्तर उन्हींके भजन-ध्यानमें तत्पर रहता है, उसकी तो बात ही क्या है।।

जो “ॐ नमो नारायणाय” इस अष्टाक्षर मन्त्रको सनातन ब्रह्मरूप जानता है और अन्तकालमें इसका जप करता है, वह भगवान्‌ विष्णुके परम पदको प्राप्त कर लेता है ।।

जो मनुष्य अपना हित चाहता हो, वह सदा श्रवण, मनन, गीत, स्तुति और पूजन आदिके द्वारा सर्वदा ब्रह्मस्वरूप नारायणकी आराधना करे ।।

नारायणके भजनमें तत्पर रहनेवाला पुरुष पापसे लिप्त नहीं होता। वह उदित हुए सहस््र किरणोंवाले सूर्यकी भाँति समस्त लोकको पवित्र कर देता है ।।

ब्रह्मचारी हो या गृहस्थ, वानप्रस्थ हो या संन्यासी, भगवान्‌ विष्णुकी आराधना छोड़ देनेपर ये कोई भी परम गतिको नहीं प्राप्त होते हैं ।।

उत्तम व्रतका पालन करनेवाले पुण्डरीक! सहस्रों जन्म धारण करनेपर भी भगवान्‌ विष्णुमें मन और बुद्धिका लगना अत्यन्त दुर्लभ है। अतः तुम उन भक्तवत्सल नारायणदेवकी भलीभाँति आराधना करो ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! नारदजीके इस प्रकार उपदेश देनेपर विप्रवर पुण्डरीक भगवान्‌ श्रीहरिकी आराधना करने लगे। वे स्वप्रमें भी शंख-चक्र गदाधारी, किरीट और कुण्डलसे सुशोभित, सुन्दर श्रीवत्स-चिह्न एवं कौस्तुभभणि धारण करनेवाले कमलनयन नारायण देवका दर्शन करते थे और उन देवदेवेश्वरको देखते ही बड़े वेगसे उठकर उनके चरणोंमें साष्टांग प्रणाम करते थे ।।

तदनन्तर दीर्घकालके बाद भगवानने उसी रूपमें पुण्डरीकको प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उस समय सम्पूर्ण वेद तथा देवता, गन्धर्व और किन्नर नाना प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति करते थे ।।

योग ही जिनका निवासस्थान है, वे भगवान्‌ अधोक्षज श्रीहरि सबके द्वारा पूजित हो उस भक्त पुण्डरीकको साथ लेकर ही पुनः अपने धामको चले गये ।।

राजेन्द्र! इसलिये तुम भी भगवानके भक्त एवं शरणागत होकर उनकी यथायोग्य पूजा करके उन्हीं पुरुषोत्तमके भजनमें लगे रहो ।।

जो अजर, अमर, एक (अद्वितीय), ध्येय, अनादि, अनन्त, सगुण, निर्गुण, सबके आदि कारण, स्थूल, अत्यन्त सूक्ष्म, उपमारहित, उपमाके योग्य तथा योगियोंके लिये ज्ञान-गम्य हैं, उन त्रिभुवनगुरु भगवान्‌ विष्णुकी शरण लो ।।

युधिष्ठिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ! आपके मतमें साम और दानमें कौन-सा श्रेष्ठ है? इनमें जो उत्कृष्ट हो, उसे बताइये || १ ।।

भीष्मजीने कहा--बेटा! कोई मनुष्य सामसे प्रसन्न होता है और कोई दानसे। अतः पुरुषके स्वभावको समझकर दोनोंमेंसे एकको अपनाना चाहिये ।। २ ।।

राजन! भरतश्रेष्ठ] अब तुम सामके गुणोंको सुनो। सामके द्वारा मनुष्य भयानक-सेभयानक प्राणीको वशमें कर सकता है ।। ३ ।।

इस विषयमें एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है, जिसके अनुसार कोई ब्राह्मण किसी जंगलमें किसी राक्षसके चंगुलमें फँसकर भी सामनीतिके द्वारा उससे मुक्त हो गया था ।। ४ ।।

एक बुद्धिमान्‌ एवं वाचाल ब्राह्मण किसी निर्जन वनमें घूम रहा था। उसी समय किसी राक्षएने आकर उसे खानेकी इच्छासे पकड़ लिया। बेचारा ब्राह्मण बड़े कष्टमें पड़ गया ।। ५ |।

ब्राह्मणकी बुद्धि तो अच्छी थी ही, वह शास्त्रोंका विद्वान्‌ भी था। इसलिये उस अत्यन्त भयानक राक्षसको देखकर भी वह न तो घबराया और न व्यथित ही हुआ। बल्कि उसके प्रति उसने साम नीतिका ही प्रयोग किया ।। ६ ।।

राक्षसने ब्राह्मणके शान्तिमय वचनोंकी प्रशंसा करके उनके सामने अपना प्रश्न उपस्थित किया और कहा--'यदि मेरे प्रश्नका उत्तर दे दोगे तो तुम्हें छोड़ दूँगा! बताओ, मैं किस कारणसे अत्यन्त दुर्बल और सफेद (पाण्डु) हो गया हूँ! ।। ७ ।।

यह सुनकर ब्राह्मणने दो घड़ीतक विचार करके शान्तभावसे निम्नांकित गाथाओं (वचनोंद्वारा) उस राक्षसके प्रश्नका उत्तर देना आरम्भ किया ।। ८ ॥।

ब्राह्मण बोला--राक्षस! निश्चय ही तुम सुहृदजनोंसे अलग होकर परदेशमें दूसरे लोगोंके साथ रहते और अनुपम विषयोंका उपभोग करते हो; इसीलिये चिन्ताके कारण तुम दुबले एवं सफेद होते जा रहे हो || ९ ।।

निशाचर! तुम्हारे मित्र तुम्हारे द्वारा भलीभाँति सम्मानित होनेपर भी अपने स्वभावदोषके कारण तुमसे विमुख रहते हैं; इसीलिये तुम चिन्तावश दुबले होकर सफेद पड़ते जा रहे हो || १० ||

जो गुणोंमें तुम्हारी अपेक्षा निम्नश्रेणीके हैं, वे जड मनुष्य भी धन और ऐश्वर्यमें अधिक होनेके कारण निश्चय ही सदा तुम्हारी अवहेलना किया करते हैं; इसीलिये तुम दुर्बल और सफेद (पीले) होते जा रहे हो ।। ११ ।।

तुम गुणवान्‌, विद्वान्‌ एवं विनीत होनेपर भी सम्मान नहीं पाते और गुणहीन तथा मूढ़ व्यक्तियोंको सम्मानित होते देखते हो; इसीलिये तुम्हारे शरीरका रंग फीका पड़ गया है और तुम दुर्बल हो गये हो ।। १२ ।।

जीवन-निर्वाहका कोई उपाय न होनेसे तुम क्लेश उठाते होगे, किंतु अपने गौरवके कारण जीविकाके प्रतिग्रह आदि उपायोंकी निनन्‍्दा करते हुए उन्हें स्वीकार नहीं करते होगे। यही तुम्हारी उदासी और दुर्बलताका कारण है ।। १३ ।।

साधो! तुम सज्जनताके कारण अपने शरीरको कष्ट देकर भी जब किसीका उपकार करते हो; तब वह तुम्हें अपनी शक्तिसे पराजित समझता है; इसीलिये तुम कृशकाय और सफेद होते जा रहे हो ।। १४ ।।

जिनका चित्त काम और क्रोधसे आक्रान्त है, अतएव जो कुमार्गपर चलकर कष्ट भोग रहे हैं। सम्भवत: ऐसे ही लोगोंके लिये तुम सदा चिन्तित रहते हो; इसीलिये दुर्बल होकर सफेद (पीले) पड़ते जा रहे हो ।। १५ ।।

यद्यपि तुम अपनी उत्तम बुद्धिके द्वारा सम्मानके योग्य हो तो भी अज्ञानी पुरुष तुम्हारी हँसी उड़ाते हैं और दुराचारी मनुष्य तुम्हारा तिरस्कार करते हैं। इसी चिन्तासे तुम्हारा शरीर सूखकर पीला पड़ता जा रहा है ।। १६ ।।

निश्चय ही कोई शत्रु मुँहसे मित्रताकी बातें करता हुआ आया, श्रेष्ठ पुरुषके समान बर्ताव करने लगा और तुम्हें ठगकर चला गया; इसीलिये तुम दुर्बल और सफेद होते जा रहे हो ।। १७ ।।

तुम्हारी अर्थगति--कार्यपद्धति सबको विदित है, तुम रहस्यकी बातें समझानेमें कुशल और दिद्दान्‌ हो तो भी गुणज्ञ पुरुष तुम्हारा आदर नहीं करते हैं; इसीसे तुम सफेद और दुर्बल हो रहे हो ।। १८ ।।

तुम दुराग्रही दुष्ट पुरुषोंके बीचमें ही संशयरहित होकर उत्तम बात कहते हो, तो भी तुम्हारे गुण वहाँ प्रकाशित नहीं होते; इसीलिये तुम दुर्बल होते और फीके पड़ते जा रहे हो ।। १९ ||

अथवा यह भी हो सकता है कि तुम धन, बुद्धि और विद्यासे हीन होकर भी केवल शारीरिक शक्तिसे सम्पन्न होकर ऊँचा पद चाहते रहे हो और इसमें तुम्हें सफलता न मिली हो; इसीलिये तुम पाण्डुवर्णके हो गये हो और तुम्हारा शरीर भी सूखता जा रहा है || २० ।।

मुझे यह भी जान पड़ता है कि तुम्हारा मन तपस्यामें लगा है और इसलिये तुम जंगलमें रहना चाहते हो, परंतु तुम्हारे भाई-बन्धु इस बातको पसंद नहीं करते हैं; इसीलिये तुम सफेद और दुर्बल हो गये हो || २१ ।।

अथवा यह भी सम्भव है कि तुम्हारा पुत्र दुर्विनीत--उद्दण्ड हो, या दामाद घरकी सारी सम्पत्ति झाड़-पोंछकर ले जानेवाला हो या तुम्हारी पत्नी प्रतिकूल स्वभावकी हो; इसीसे तुम कृशकाय और पीले होते जा रहे हो ।।

तुम्हारे भाई बड़े बेईमान हों अथवा तुम्हारे पिता, माता या ज्येष्ठ भाई एवं गुरुजन भूखसे दुर्बल होकर मर गये हों, इस बातकी भी सम्भावना है। शायद इसीसे तुम्हारे शरीरका रंग सफेद हो गया है और तुम सूखते चले जा रहे हो ।।

अथवा यह भी अनुमान होता है कि पहले तुमने किसी ब्राह्मण या गौकी हत्या की हो, किसी ब्राह्मण या देवताका किसी समय अधिक-से-अधिक धन चुरा लिया हो, इसीलिये तुम कृशकाय और पीले हो रहे हो ।।

यह भी सम्भव है कि तुम्हारी स्त्रीका किसीने अपहरण कर लिया हो। अथवा तुम बूढ़े हो चले हो या जगतके मनुष्य तुमसे द्वेष करने लगे हों। अथवा अज्ञानके द्वारा ही तुम बढ़ेचढ़े हो और इसीलिये चिन्ताके कारण तुम्हारा शरीर सफेद तथा दुर्बल हो गया हो ।।

बुढ़ापेके लिये तुम्हारे पास धनका संग्रह देखकर दूसरोंने तुम्हारी उस निजी सम्पत्तिका अपहरण कर लिया हो अथवा जीविकाके लिये दुष्ट पुरुषोंकी अपेक्षा रखनी पड़ती हो, इसकी भी सम्भावना जान पड़ती है। शायद इसी चिन्तासे तुम्हारा शरीर दुबला होता और पीला पड़ता जा रहा हो ।।

यह भी सम्भव है कि तुम्हारी स्त्री परम सुन्दरी होनेके कारण तुम्हें बहुत प्रिय हो और तुम्हारे पड़ोसमें ही कोई बहुत सुन्दर, महाधनी और कामी नवयुवक निवास करता हो! इसी चिन्तासे तुम दुबले और पीले पड़ते जा रहे हो || २२ ।।

निश्चय ही तुम धनवानोंके बीच परम उत्तम और समयोचित बात कहते होगे, किंतु वह उन्हें पसंद न आती होगी। इसीलिये तुम सफेद और दुर्बल हो रहे हो ।।

तुम्हारा कोई पहलेका दृढ़ निश्चयवाला प्रिय व्यक्ति मूर्खताके कारण तुमपर कुपित हो गया होगा और तुम उसे किसी तरह समझा-बुझाकर शान्त नहीं कर पाते होगे। इसीलिये तुम दुर्बल और फीके पड़ते जा रहे हो | २४ ।।

निश्चय ही कोई मनुष्य अपनी इच्छाके अनुसार किसी अभीष्ट कार्यमें नियुक्त करके सदा अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है; इसीलिये तुम श्वेत (पीत) वर्णके और दुबले हो रहे हो || २५ ।।

अवश्य ही तुम सदगुणोंसे युक्त होनेके कारण दूसरे लोगोंद्वारा पूजित होते हो; परंतु तुम्हारा मित्र समझता है कि यह मेरे ही प्रभावसे आदर पा रहा है। इसीलिये तुम चिन्तासे दुर्बल एवं पीले होते जा रहे हो || २६ ।।

निश्चय ही तुम लज्जावश किसीपर अपना आन्तरिक अभिप्राय नहीं प्रकट करना चाहते, क्योंकि तुम्हें अपनी अभीष्ट वस्तुकी प्राप्तिके विषयमें संदेह है, इसीलिये चिन्तावश सूखते और पीले पड़ते जा रहे हो || २७ ।।

निश्चय ही संसारमें नाना प्रकारकी बुद्धि और भिन्न-भिन्न रुचि रखनेवाले लोग रहते हैं। उन सबको तुम अपने गुणोंसे वशमें करना चाहते हो। इसीलिये क्षीणकाय और पाण्डुवर्णके हो रहे हो || २८ ।।

अथवा यह भी हो सकता है कि तुम विद्वान्‌ न होकर भी विद्यासे मिलनेवाले यशको पाना चाहते हो। डरपोक और कायर होनेपर भी पराक्रमजनित कीर्ति पानेकी अभिलाषा रखते हो और अपने पास बहुत थोड़ा धन होनेपर भी दानवीर होनेका यश पानेके लिये उत्सुक हो। इसीलिये कृुशकाय और पीले हो रहे हो ।। २९ ।।

तुमने कोई कार्य किया, जिसका चिरकालसे अभिलषित कोई फल तुम्हें प्राप्त होनेवाला था, किंतु तुम्हें तो वह प्राप्त हुआ नहीं और दूसरे लोग उसे हर ले गये। इसीलिये तुम्हारे शरीरकी कान्ति फीकी पड़ गयी है और दिनोंदिन दुबले होते जा रहे हो || ३० ।।

एक बात यह भी ध्यानमें आती है कि तुम्हें तो अपना कोई दोष दिखायी नहीं देता तथापि दूसरे लोग अकारण ही तुम्हें कोसते रहते हैं। शायद इसीलिये तुम कान्तिहीन और दुर्बल होते जा रहे हो || ३१ ।।

तुम विरक्त साधुओंको गृहस्थ, दुर्जनोंको वनवासी तथा संन्यासियोंको मठ-मन्दिरमें आसक्त देखते हो; इसीलिये सफेद और दुर्बल होते जा रहे हो || ३२ ।।

तुम्हारे स्नेही बन्धु-बान्धव रोग आदिसे पीड़ित होकर महान्‌ दुःख भोगते हैं और तुम उन्हें उस पीड़ाजनित कष्टसे मुक्त नहीं कर पाते हो तथा अपने आपको भी तुम अर्थ-लाभसे हीन पाते हो; शायद इसीलिये तुम सफेद और दुबले-पतले हो गये हो ।। ३३ ।।

तुम्हारी बातें धर्म, अर्थ और कामके अनुकूल एवं सामयिक होती हैं, तो भी दूसरे लोग उनपर ठीक विश्वास नहीं करते हैं। इसलिये तुम कान्तिहीन एवं कृशकाय हो रहे हो ।। ३४ ।।

मनीषी होनेपर भी तुम जीवन-निर्वाहकी इच्छासे ही अज्ञानी पुरुषोंके दिये हुए धनको लेकर उसीपर गुजारा करते हो; इसीलिये तुम कान्तिहीन और दुर्बल हो ।। ३५ ।।

पापियोंको आगे बढ़ते और कल्याणकारी कर्मोंमें लगे हुए पुण्यात्मा पुरुषोंको दुःख उठाते देखकर अवश्य ही तुम सदा इस परिस्थितिकी निन्‍्दा करते हो; इसीलिये दुर्बल और पाण्डुवर्णके हो गये हो ।। ३६ ।।

एक दूसरेसे विरोध रखनेवाले अपने सुहृदोंको रोककर तुम निश्चय ही उनका प्रिय करना चाहते हो; इसीलिये चिन्ताके कारण श्रीहीन और दुर्बल हो गये हो || ३७ ।।

वेदज्ञ ब्राह्मणोंको वेदविरुद्ध कर्ममें तत्यर और विद्दानोंको इन्द्रियोंक अधीन देखकर मेरी समझमें तुम निरन्तर चिन्तित रहते हो। सम्भवतः इसीलिये तुम्हारा शरीर सफेद (पीला) पड़ गया है और तुम दुर्बल हो गये हो || ३८ ।।

ऐसा कहकर जब उस ब्राह्मणने राक्षसका समादर किया, तब राक्षसने भी ब्राह्मणका विशेष सत्कार किया। उसने ब्राह्मणगको अपना मित्र बना लिया और उसे धन देकर छोड़ दिया ।। ३९ ||

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें दुर्बल और पाण्डुवर्णके राक्षमका आख्यानविषयक एक सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २८½ श्लोक मिलाकर कुल ६७½ श्लोक हैं)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

एक सौ पच्चीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ पच्चीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-84 का हिन्दी अनुवाद) 

“श्राद्धके विषयमें देवदूत और पितरोंका, पापोंसे छूटनेके विषयमें महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्रका, धर्मके विषयमें इन्द्र और बृहस्पतिका तथा वृषोत्सर्ग आदिके विषयमें देवताओं, ऋषियों और पितरोंका संवाद”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! मनुष्यकुलमें जन्म और परम दुर्लभ कर्मक्षेत्र पाकर अपना कल्याण चाहनेवाले दरिद्र पुरुषको क्या करना चाहिये? ।। १ ।।

गंगानन्दन! सब दानोंमें जो उत्तम दान है, जिस वस्तुका जिस-जिस प्रकारसे दान करना उचित है तथा जो माननीय और पूजनीय हैं--इन सब रहस्यमय (गोपनीय) विषयोंका वर्णन कीजिये ।। २ ।।

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! यशस्वी पाण्डुपुत्र महाराज युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछनेपर भीष्मजीने उनसे धर्मका परम गुह्य रहस्य बताना आरम्भ किया ।। ३ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! भरतनन्दन! पूर्वकालमें भगवान्‌ वेदव्यासने मुझे धर्मके जो गूढ़ रहस्य बताये थे, उनका वर्णन करता हूँ, सावधान होकर सुनो ।। ४ ।।

राजन्‌! अनायास ही महान्‌ कर्म करनेवाले यमने नियमपरायण और योगयुक्त होकर महान्‌ तपके फलस्वरूप इस देवगुह्य रहस्यको प्राप्त किया था ।। ५ ।।

जिससे देवता, पितर, ऋषि, प्रमथगण, लक्ष्मी, चित्रगुप्त और दिग्गज प्रसन्न होते हैं ।। ६ ।।

जिसमें महान्‌ फल देनेवाले ऋषिधर्मका रहस्यसहित समावेश हुआ है तथा जिसके अनुष्ठानसे बड़े-बड़े दानों और सम्पूर्ण यज्ञोंका फल मिलता है || ७ ।।

निष्पाप नरेश! जो उस धर्मको इस प्रकार जानता और जानकर इसके अनुसार आचरण करता है, वह सदोष (पापी) रहा हो भी तो उस दोषसे मुक्त होकर उन सदगुणोंसे सम्पन्न हो जाता है ।। ८ ।।

दस कसाइयोंके समान एक तेली, दस तेलियोंके समान एक कलवार, दस कलवारोंके समान एक वेश्या और दस वेश्याओंके समान एक राजा है ।। ९ ।।

राजा इन सबकी अपेक्षा अधिक दोषयुक्त बताया जाता है, इसलिये ये सब पाप राजाके आधेसे भी कम हैं। (अतः राजाका दान लेना निषिद्ध है।) धर्म, अर्थ और कामका प्रतिपादन करनेवाला जो शास्त्र है, वह पवित्र एवं पुण्यका परिचय करानेवाला है ।। १० 

उसमें धर्म और उसके रहस्योंकी व्याख्या है वह परम पवित्र, महान्‌ रहस्यमय तत्त्वका श्रवण करानेवाला, धर्मयुक्त और साक्षात्‌ देवताओंद्वारा निर्मित है। उसका श्रवण करना चाहिये ।। ११ ।।

जिसमें पितरोंके श्राद्धके विषयमें गूढ़ बातें बतायी गयी हैं, जहाँ सम्पूर्ण देवताओंके रहस्यका पूरा-पूरा वर्णन है तथा जिसमें रहस्यसहित महान्‌ फलदायी ऋषि-धर्मका एवं बड़े-बड़े यज्ञों और सम्पूर्ण दानोंके फलका प्रतिपादन किया गया है || १२-१३ ।।

जो मनुष्य उस शास्त्रको सदा पढ़ते हैं, जिन्हें उसका तत्त्व हृदयंगम हो जाता है तथा जो उसका फल सुनकर दूसरोंके सामने व्याख्या करते हैं, वे साक्षात्‌ भगवान्‌ नारायणस्वरूप हो जाते हैं || १४ ।।

जो मानव अतिथियोंकी पूजा करता है, वह गोदान, तीर्थस्थान और यज्ञानुष्ठानका फल पा लेता है ।। १५ ।।

जो श्रद्धापूर्वक धर्मशास्त्रका श्रवण करते हैं तथा जिनका हृदय शुद्ध हो गया है, वे श्रद्धालु एवं श्रेष्ठ मनके द्वारा अवश्य ही पुण्यलोकपर विजय प्राप्त कर लेते हैं || १६ ।।

शुद्धचित्त पुरुष श्रद्धापूर्वक शास्त्र-श्रवण करनेसे पूर्व पापसे मुक्त हो जाता है तथा वह भविष्यमें भी पापसे लिप्त नहीं होता है। नित्य-प्रति धर्मका अनुष्ठान करता है और मरनेके बाद उसे उत्तम लोककी प्राप्ति होती है ।। १७ ।।

एक समयकी बात है, एक देवदूतने अकस्मात्‌ पहुँचकर आकाशमें स्थित हो इन्द्रसे कहा-- || १८ ।।

“वे जो कमनीय गुणोंसे सम्पन्न वैद्यप्रवर अश्विनीकुमार हैं, उन दोनोंकी आज्ञासे मैं यहाँ देवताओं, पितरों और मनुष्योंके पास आया हूँ ।। १९ |।

“मेरे मनमें यह जिज्ञासा हुई है कि श्राद्धके दिन श्राद्ध-कर्ता और श्राद्धात्नर भोजन करनेवाले ब्राह्मणके लिये जो मैथुनका निषेध किया गया है, उसका क्या कारण है? तथा श्राद्धमें पूथक्‌ू-पृथक्‌ तीन पिण्ड किसलिये दिये जाते हैं? ।। २० ।।

“प्रथम पिण्ड किसे देना चाहिये? दूसरा पिण्ड किसे प्राप्त होता तथा तीसरे पिण्डपर किसका अधिकार माना गया है? यह सब कुछ मैं जानना चाहता हूँ” ।।

उस श्रद्धालु देवदूतके इस प्रकार धर्मयुक्त भाषण करनेपर पूर्वदिशामें स्थित हुए सभी देवताओं और पितरोंने उस आकाशचारी पुरुषकी प्रशंसा करते हुए कहा ।। २२ ।।

पितर बोले--आकाशचारियोंमें श्रेष्ठ देवदूत! तुम्हारा स्वागत है। तुम कल्याणके भागी होओ। तुमने गूढ़ अभिप्रायसे युक्त बहुत उत्तम प्रश्न उपस्थित किया है। इसका उत्तर सुनो || २३ ।।

जो पुरुष श्राद्धका दान और भोजन करके स्त्रीके साथ समागम करता है, उसके पितर उस महीनेभर उसी वीर्यमें शयन करते हैं || २४ ।।

अब मैं पिण्डोंका क्रमश: विभाग बताऊँगा। श्राद्धमें जो तीन पिण्डोंका विधान है, उनमें पहला पिण्ड जलमें डाल देना चाहिये। मध्यम पिण्ड केवल श्राद्धकर्ताकी पत्नीको भोजन करना चाहिये और उनमें जो तीसरा पिण्ड है, उसे आगमें डाल देना चाहिये || २५-२६ ।।

यही श्राद्धकी विधि बतायी गयी है, जिसके अनुसार चलनेपर धर्मका लोप नहीं होता। जो इस धर्मका पालन करता है, उसके पितर सदा प्रसन्नचित्त एवं संतुष्ट रहते हैं। उसकी संतति बढ़ती है और कभी क्षीण नहीं होती || २७६ ।।

देवदूतने पूछा--पितृगण! आपलोगोंने क्रमश: पिण्डोंका विभाग बतलाया और तीनों लोकोंमें जो समस्त पितर हैं, उनको पिण्डदान करनेका शास्त्रोक्त प्रकार भी बतला दिया ।। २८६ ।।

किंतु पहले पिण्डको उठाकर जो नीचे जलमें डाल देनेकी बात कही गयी है, उसके अनुसार यदि वह जलमें डाला जाय तो वह किसको प्राप्त होता है? किस देवताको तृप्त करता है? और किस प्रकार पितरोंको तारता है? ।। २९½।।

इसी प्रकार यदि गुरुजनोंकी आज्ञाके अनुसार मध्यम पिण्ड पत्नी ही खाती है तो उसके पितर किस प्रकार उस पिण्डका उपभोग करते हैं? || ३०६ ।।

तथा अन्तिम पिण्ड जब अग्निमें डाल दिया जाता है, तब उसकी क्या गति होती है? वह किस देवताको प्राप्त होता है? |। ३१६ ।।

यह सब मैं सुनना चाहता हूँ। तीनों पिण्डोंकी जो गति होती है, उसका जो फल, वृत्ति और मार्ग है तथा जो देवता उस पिण्डको पाता है, उन सबपर प्रकाश डालिये || ३२६ 

पितरोंने कहा--आकाशचारी देवदूत! तुमने यह महान प्रश्न उपस्थित किया है और हमलोगोंसे अद्भुत रहस्यकी बात पूछी है। देवता और मुनि भी इस पितृकर्मकी प्रशंसा करते हैं ।। ३३-३४ ।।

परन्तु वे भी इस प्रकार पितृकार्यके रहस्यको निश्चित रूपसे नहीं जानते हैं। जो पिताके भक्त हैं और जिन महायशस्वी ब्राह्मणको वर प्राप्त हुआ है, उन सर्वश्रेष्ठ चिरजीवी महात्मा मार्कण्डेयको छोड़कर और किसीको उसका पता नहीं है || ३५६ ।।

उन्होंने भगवान्‌ विष्णुसे तीनों पिण्डोंकी गति सुनकर श्राद्धका रहस्य जान लिया है। देवदूत! तुमने जो श्राद्धविधिका निर्णय पूछा है, उसके अनुसार तीनों पिण्डोंकी गति बतायी जा रही है। सावधान होकर मुझसे सुनो || ३६-३७ ।।

महामते! इस श्राद्धमें जो पहला पिण्ड पानीके भीतर चला जाता है, वह चन्द्रमाको तृप्त करता है और चन्द्रमा स्वयं देवता तथा पितरोंको तृप्त करते हैं ।।

इसी प्रकार श्राद्धकर्ताकी पत्नी गुरुजनोंकी आज्ञासे जो मध्यम पिण्डका भक्षण करती है, उससे प्रसन्न हुए पितामह पुत्रकी कामनावाले पुरुषको पुत्र प्रदान करते हैं ।। ३९ ।।

अग्निमें जो पिण्ड डाला जाता है, उसके विषयमें भी मुझसे समझ लो। उससे पितर तृप्त होते हैं और तृप्त होकर वे मनुष्यकी सब कामनाएँ पूर्ण करते हैं || ४० ।।

इस प्रकार तुम्हें यह सब कुछ बताया गया। तीनों पिण्डोंकी जो गति होती है, उसका भी प्रतिपादन किया गया। श्राद्धमें भोजनके लिये निमन्त्रित हुआ ब्राह्मण उस दिनके लिये यजमानके पितृभावको प्राप्त हो जाता है; अत: उस दिन उसके लिये मैथुनको त्याज्य मानते हैं। आकाशचारियोंमें श्रेष्ठ देवदूत! ब्राह्मगको स्नान आदिसे पवित्र होकर सदा श्राद्धमें भोजन करना चाहिये ।। ४१-४२ ।।

मैंने जो दोष बताये हैं, वे वैसे ही प्राप्त होते हैं। इसमें कोई परिवर्तन नहीं होता; अतः ब्राह्मण स्नान करके पवित्र एवं क्षमाशील हो श्राद्धमें भोजन करे ।।

जो इस प्रकार श्राद्धका दान देता है, उसकी संतति बढ़ती है। पितरोंके इस प्रकार कहनेके बाद विद्युत्प्रभ नामवाले एक महातपस्वी महर्षिने अपना प्रश्न उपस्थित किया ।। ४४ ।।

उनका रूप सूर्यके समान तेजसे प्रकाशित हो रहा था। उन्होंने धर्मके रहस्योंको सुनकर इन्द्रसे पूछा-- ।।

“देवराज! मनुष्य मोहवश जो तिर्यग्योनिमें पड़े हुए प्राणियों, मृग, पक्षी और भेड़ आदिको तथा कीड़ों, चींटे-चींटियों एवं सर्पोंकी हिंसा करते हैं, इससे वे बहुत-सा पाप बटोर लेते हैं। उनके लिये इन पापोंसे छूटनेका क्या उपाय है?” ।। ४६६ ।।

उनका यह प्रश्न सुनकर सम्पूर्ण देवता, तपोधन ऋषि तथा महाभाग पितर विद्युत्प्रभ मुनिकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे ।। ४७ $ ।।

इन्द्र बोले--मुने! मनुष्यको चाहिये कि कुरुक्षेत्र, गया, गंगा, प्रभास और पुष्करक्षेत्रका मन-ही-मन चिन्तन करके जलमें स्नान करे। ऐसा करनेसे वह पापसे उसी प्रकार मुक्त हो जाता है, जैसे चन्द्रमा राहुके ग्रहणसे ।।

जो मनुष्य गायकी पीठ छूता और उसकी पूँछको नमस्कार करता है, वह मानो उपर्युक्त तीर्थोमें तीन दिनतक उपवासपूर्वक रहकर स्नान कर लेता है ।।

तदनन्तर विद्युत्प्रभने इन्द्रसे कहा--“शतक्रतो! यह सूक्ष्मतर धर्म मैं बता रहा हूँ। इसे ध्यानपूर्वक सुनिये ।।

“बरगदकी जटासे अपने शरीरको रगड़े, राईका उबटन लगाये और दूधके साथ साठीके चावलोंकी खीर बनाकर भोजन करे तो मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ।।

“एक दूसरा गूढ़ रहस्य, जिसका ऋषियोंने चिन्तन किया है, सुनिये। इसे मैंने भगवान्‌ शंकरके स्थानमें भाषण करते हुए बृहस्पतिजीके मुखसे भगवान्‌ रुद्रके साथ ही सुना था। देवेश! शचीपते! उसे ध्यानपूर्वक सुनिये ।।

“जो पर्वतपर चढ़कर भोजनसे पूर्व एक पैरसे खड़ा हो दोनों भुजाएँ ऊपर उठाये हाथ जोड़े वहाँ अग्निदिवकी ओर देखता है, वह महान्‌ तपस्यासे युक्त होकर उपवास करनेका फल पाता है ।। ५४-५५ ||

'जो ग्रीष्म अथवा शीतकालमें सूर्यकी किरणोंसे तापित होता है, वह अपने सारे पापोंको नाश कर देता है। इस प्रकार मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। पापसे मुक्त हुए पुरुषको सनातन कान्ति प्राप्त होती है। वह अपने तेजसे सूर्यके समान देदीप्यमान और चन्द्रमाके समान प्रकाशित होता है” || ५६-५७ ।।

तत्पश्चात्‌ देवराज शतक्रतु इन्द्रने देवमण्डलीके बीचमें अपने सर्वश्रेष्ठ गुरु बृहस्पतिजीसे मधुर वाणीमें कहा-- ।।

'भगवन्‌! मनुष्योंको सुख देनेवाले धर्मके गूढ़-स्वरूपका तथा रहस्योंसहित जो दोष हैं, उनका भी यथावत्‌्रूपसे वर्णन कीजिये” ।। ५९ |।

बृहस्पतिजीने कहा--शचीपते! जो सूर्यकी ओर मुँह करके मूत्र त्याग करते हैं, वायुदेवसे द्वेष रखते हैं अर्थात्‌ वायुके सम्मुख मूत्र त्याग करते हैं, जो प्रज्वलित अम्निमें समिधाकी आहुति नहीं देते तथा जो दूधके लोभसे बहुत छोटे बछड़ेवाली धेनुको भी दुह लेते हैं, उन सबके दोषोंका वर्णन करता हूँ। ध्यानपूर्वक सुनो ।।

वासव! साक्षात्‌ ब्रह्माजीने सूर्य, वायु, अग्नि तथा लोकमाता गौओंकी सृष्टि की है ।। ६२ ।।

ये मर्त्यलोकके देवता हैं तथा सम्पूर्ण जगत्‌का उद्धार करनेकी शक्ति रखते हैं। आप सब लोग सुनें, मैं एक-एक धर्मका निश्चय बता रहा हूँ ।। ६३ ।।

इन्द्र! जो दुराचारी और कुलांगार पुरुष तथा जो समस्त दुराचारिणी स्त्रियाँ सूर्यकी ओर मुँह करके पेशाब करती हैं और जो लोग वायुसे द्वेष रखते अर्थात्‌ वायुके सम्मुख मूत्रत्याग करते हैं उन सबकी छियासी वर्षोतक गर्भमें आयी हुई संतान गिर जाती है ।। ६४ ३ ।।

जो प्रज्वलित यज्ञाग्निमें समिधाकी आहुति नहीं देते, उनके अन्निहोत्रमें अग्निदेव हविष्य ग्रहण नहीं करते हैं (अतः अग्नि प्रज्वलित किये बिना उसे आहुति नहीं देनी चाहिये) || ६५३ ।।

जो मानव छोटे बछड़ेवाली गौओंके दूध दुहकर पी जाते हैं, उनके वंशमें दूध पीनेवाले और कुलकी वृद्धि करनेवाले कोई बालक नहीं उत्पन्न होते हैं। उनकी संतान नष्ट हो जाती है तथा उनके कुल एवं वंशका क्षय हो जाता है || ६६-६७ ।।

इस प्रकार उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए ब्राह्मणोंने पूर्वकालमें यह प्रत्यक्ष देखा और अनुभव किया है; अत: अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंको शास्त्रमें जिन्हें त्याज्य बतलाया है, उन कर्मोको त्याग देना चाहिये और जो कर्तव्य कर्म है, उसका सदा अनुष्ठान करते रहना चाहिये। यह मैं तुम्हें सच्ची बात बता रहा हूँ || ६८ ३ ।।

तब मरुदगणोंसहित सम्पूर्ण महाभाग देवता और परम सौभाग्यशाली ऋषियोंने पितरोंसे पूछा-- ।। ६९३ ।।

“मनुष्योंकी बुद्धि थोड़ी होती है; अतः वे कौन-सा कर्म करें, जिससे आप सम्पूर्ण पितर उनके ऊपर संतुष्ट होंगे? श्राद्धमें दिया हुआ दान किस प्रकार अक्षय हो सकता है? अथवा मनुष्य किस कर्मसे किस प्रकार पितरोंके ऋणसे छुटकारा पा सकते हैं? हम यह सुनना चाहते हैं। यह सब सुननेके लिये हमारे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है” || ७०-७१ $ ।।

पितरोंने कहा--महाभाग देवताओ! आपने न्यायतः अपना संदेह उपस्थित किया है। उत्तम कर्म करनेवाले मनुष्योंके जिस कार्यसे हम संतुष्ट होते हैं, उसको सुनिये || ७२३ ।

नीले रंगके साँड़ छोड़नेसे, अमावास्याको तिलमिश्रित जलद्दारा तर्पण करनेसे और वर्षा-ऋतुमें पितरोंके लिये दीप देनेसे मनुष्य उनके ऋणसे मुक्त हो सकता है ।।

इस तरह निष्कपट भावसे किया हुआ दान अक्षय एवं महान्‌ फलदायक होता है और उससे हमें भी अक्षय संतोष प्राप्त होता है--ऐसा शास्त्रका कथन है ।।

जो मनुष्य पितरोंमें श्रद्धा रखकर संतान उत्पन्न करेंगे, वे अपने प्रपितामहोंका दुर्गम नरकसे उद्धार कर देंगे ।।

पितरोंका यह भाषण सुनकर तपस्याके धनी महातेजस्वी वृद्धगार्ग्यके शरीरमें रोमांच हो आया और उनसे इस प्रकार पूछा-- || ७६३ ।।

“तपोधनो! नीले रंगके साँड़ छोड़ने, वर्षा-ऋतुमें दीप देने और अमावास्याको तिलमिश्रित जलद्वारा तर्पण करनेसे क्या लाभ होते हैं?” ।। ७७६ ।।

पितरोंने कहा--मुने! छोड़े हुए नीले रंगके साँड़की पूँछ यदि नदी आदिके जलमें भीगकर उस जलको ऊपर उछालती है तो जिसने उस साँड़को छोड़ा है उसके पितर साठ हजार वर्षोतक उस जलसे तृप्त रहते हैं ।।

जो नदी या तालाबके तटसे अपने सींगोंद्वारा कीचड़ उछालकर खड़ा होता है, उससे वृषोत्सर्ग करनेवालेके पितर निस्संदेह चन्द्रलोकमें जाते हैं || ७९६ ।।

वर्षा-ऋतुमें दीपदान करनेसे मनुष्य चन्द्रमाके समान शोभा पाता है। जो दीपदान करता है, उसके लिये नरकका अन्धकार है ही नहीं | ८०६ ।।

तपोधन! जो मनुष्य अमावास्याके दिन ताँबेके पात्रमें मधु एवं तिलसे मिश्रित जल लेकर उसके द्वारा पितरोंका तर्पण करते हैं, उनके द्वारा रहस्यसहित श्राद्धकर्म यथार्थरूपसे सम्पादित हो जाता है ।। ८१-८२

उनकी प्रजा सदा हृष्ट-पुष्ट मनवाली होती है। कुल और वंश-परम्पराकी वृद्धि श्राद्धका फल है। पिण्डदान करनेवालेको यह फल सुलभ होता है। जो श्रद्धापूर्वक पितरोंका श्राद्ध करता है, वह उनके ऋणसे छुटकारा पा जाता है ॥। ८३ ।।

इस प्रकार यह श्राद्धके काल, क्रम, विधि, पात्र और फलका यथावतरूपसे वर्णन किया गया है ।।८४।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें पितरोंका रहस्य नामक एक सौ पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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