सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के सत्तानबेवें अध्याय से सौवें अध्याय तक (From the 97 chapter to the 100 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

सत्तानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) सत्तानबेवें अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद) 

“गृहस्थधर्म, पञठचयज्ञ-कर्मके विषयमें पृथ्वीदेवी और भगवान्‌ श्रीकृष्णका संवाद”

युधिष्ठिरने कहा--भरतश्रेष्ठ) पृथ्वीनाथ! अब आप मुझे गृहस्थ-आश्रमके सम्पूर्ण धर्मोका उपदेश कीजिये। मनुष्य कौन-सा कर्म करके इहलोकमें समृद्धिका भागी होता है? ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--नरेश्वर! भरतनन्दन! इस विषयमें भगवान्‌ श्रीकृष्ण और पृथ्वीका संवादरूप एक प्राचीन वृत्तान्त बता रहा हूँ ।। २ ।।

भरतश्रेष्ठ! प्रतापी भगवान्‌ श्रीकृष्णने पृथ्वी-देवीकी स्तुति करके उनसे यही बात पूछी थी, जो आज तुम मुझसे पूछते हो ।। ३ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने पूछा--वसुन्धरे! मुझको या मेरे-जैसे किसी दूसरे मनुष्यको गा्स्थ्य-धर्मका आश्रय लेकर किस कर्मका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये? क्या करनेसे गृहस्थको सफलता मिलती है? ।। ४ ।।

पृथ्वीने कहा--माधव! गृहस्थ पुरुषको सदा ही देवताओं, पितरों, ऋषियों और अतिथियोंका पूजन एवं सत्कार करना चाहिये। यह सब कैसे करना चाहिये! सो बता रही हूँ, सुनिये।।

प्रतिदिन यज्ञ-होमके द्वारा देवताओंका, अतिथि-सत्कारके द्वारा मनुष्योंका (श्राद्ध तर्पण करके पितरोंका) तथा वेदोंका नित्य स्वाध्याय करके पूजनीय ऋषि-महर्षियोंका यथाविधि पूजन और सत्कार करना चाहिये। इसके बाद नित्य भोजन करना उचित है ।। ६ |।

मधुसूदन! स्वाध्यायसे ऋषियोंको बड़ी प्रसन्नता होती है। प्रतिदिन भोजनके पहले ही अनिनिहोत्र एवं बलिवैश्वदेव कर्म करे। इससे देवता संतुष्ट होते हैं। पितरोंकी प्रसन्नताके लिये प्रतिदिन अन्न, जल, दूध अथवा फल-मूलके द्वारा श्राद्ध करना उचित है ।। ७-८३ ।।

सिद्ध अन्न (तैयार हुई रसोई) मेंसे अन्न लेकर उसके द्वारा विधिपूर्वक बलिवैश्वदेव कर्म करना चाहिये ।। ९ ।।

पहले अग्नि और सोमको, फिर विश्वेदेवोंको, तदनन्तर धन्वन्तरिको, तत्पश्चात्‌ प्रजापतिको पृथक्‌-पृथक्‌ आहुति देनेका विधान है || १० ।।

इसी प्रकार क्रमश: बलिकर्मका प्रयोग करे। माधव! दक्षिण दिशामें यमको, पश्चिममें वरुणको, उत्तर दिशामें सोमको, वास्तुके मध्यभागमें प्रजापतिको, ईशानकोणमें धन्वन्तरिको और पूर्वदिशामें इन्द्रको बलि समर्पित करे || ११-१२ ।।

घरके दरवाजेपर सनकादि मनुष्योंके लिये बलि देनेका विधान है। मरुदगणों तथा देवताओंको घरके भीतर बलि समर्पित करनी चाहिये ।। १३ ।।

विश्वेदेवोंके लिये आकाशमें बलि अर्पित करे। निशाचरों और भूतोंके लिये रातमें बलि दे ।। १४ ।।

इस प्रकार बलि समर्पण करके ब्राह्मणको विधिपूर्वक भिक्षा दे। यदि ब्राह्मण न मिले तो अन्नमेंसे थोड़ा-सा अग्रग्रास निकालकर उसका अग्निमें होम कर दे ।।

जिस दिन पितरोंका श्राद्ध करनेकी इच्छा हो, उस दिन पहले श्राद्धकी क्रिया पूरी करे। उसके बाद पितरोंका तर्पण करके विधिपूर्वक बलिवैश्वदेव-कर्म करे। तदनन्तर ब्राह्मणोंको सत्कारपूर्वक भोजन करावे ।।

महाराज! इसके बाद विशेष अन्तके द्वारा अतिथियोंको भी सम्मानपूर्वक भोजन करावे। ऐसा करनेसे गृहस्थ पुरुष सम्पूर्ण मनुष्योंको संतुष्ट करता है ।।

जो नित्य अपने घरमें स्थित नहीं रहता, वह अतिथि कहलाता है। आचार्य, पिता, विश्वासपात्र मित्र और अतिथिसे सदा यह निवेदन करे कि “अमुक वस्तु मेरे घरमें मौजूद है, उसे आप स्वीकार करें।” फिर वे जैसी आज्ञा दें वैसा ही करे। ऐसा करनेसे धर्मका पालन होता है ।। १९-२० ।।

श्रीकृष्ण! गृहस्थ पुरुषको सदा यज्ञशिष्ट अन्नका ही भोजन करना चाहिये। राजा, ऋत्विज, स्नातक, गुरु और श्वशुर--ये यदि एक वर्षके बाद घर आवें तो मधुपर्कसे इनकी पूजा करनी चाहिये ।। २१६ ।।

कुत्तों, चाण्डालों और पक्षियोंके लिये भूमिपर अन्न रख देना चाहिये। यह वैश्वदेव नामक कर्म है। इसका सायंकाल और प्रातःकाल अनुष्ठान किया जाता है ।।

जो मनुष्य दोषदृष्टिका परित्याग करके इन गृहस्थोचित धर्मोंका पालन करता है, उसे इस लोकमें ऋषि-महर्षियोंका वरदान प्राप्त होता है और मृत्युके पश्चात्‌ वह पुण्यलोकोंमें सम्मानित होता है || २३ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! पृथ्वी देवीके ये वचन सुनकर प्रतापी भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन्हींके अनुसार गृहस्थधर्मोंका विधिवत्‌ पालन किया। तुम भी सदा इन धर्मोंका अनुष्ठान करते रहो ।। २४ ।।

जनेश्वर! इस गृहस्थ-धर्मका पालन करते रहनेपर तुम इहलोकमें सुयश और परलोकमें स्वर्ग प्राप्त कर लोगे ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें बलिदानविधि नामक सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

अट्ठानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) अट्ठानबेवें अध्याय के श्लोक 1-67 का हिन्दी अनुवाद) 

“तपस्वी सुवर्ण और मनुका संवाद--पुष्प, धूप, दीप और उपहारके दानका माहात्म्य”

युधिष्ठिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ) यह जो दीपदान नामक कर्म है, यह कैसे किया जाता है? इसकी उत्पत्ति कैसे हुई? अथवा इसका फल कया है? यह मुझे बताइये ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--भारत! इस विषयमें प्रजापति मनु और सुवर्णके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है ।। २ ।।

भरतनन्दन! सुवर्णनामसे प्रसिद्ध एक तपस्वी ब्राह्मण थे। उनके शरीरकी कान्ति सुवर्णके समान थी। इसीलिये वे सुवर्णनामसे विख्यात हुए थे ।। ३ ।।

वे उत्तम कुल, शील और गुणसे सम्पन्न थे। स्वाध्यायमें भी उनकी बड़ी ख्याति थी। वे अपने गुणोंद्वारा उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए बहुत-से श्रेष्ठ पुरुषोंकी अपेक्षा आगे बढ़े हुए थे।। ४ ।।

एक दिन जन ब्राह्मणदेवताने प्रजापति मनुको देखा। देखकर वे उनके पास चले गये। फिर तो वे दोनों एक-दूसरेसे कुशल-समाचार पूछने लगे ।। ५ ।।

तदनन्तर वे दोनों सत्यसंकल्प महात्मा सुवर्णमय पर्वत मेरके एक रमणीय शिलापृष्ठपर एक साथ बैठ गये ।। ६ ।।

वहाँ वे दोनों ब्रह्मर्षियों, देवताओं, दैत्यों तथा प्राचीन महात्माओंके सम्बन्धमें नाना प्रकारकी कथा-वार्ता करने लगे || ७ ।।

उस समय सुवर्णने स्वायम्भुव मनुसे कहा--'प्रजापते! मैं एक प्रश्न करता हूँ, आप समस्त प्राणियोंके हितके लिये मुझे उसका उत्तर दीजिये। फूलोंसे जो देवताओंकी पूजा की जाती है, यह क्‍या है? इसका प्रचलन कैसे हुआ है? इसका फल क्या है और इसका उपयोग क्या है? यह सब मुझे बताइये” ।। ८-९ ।।

मनुजीने कहा--मुने! इस विषयमें विज्ञजन शुक्राचार्य और बलि--इन दोनों महात्माओंके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं || १० ।।

पहलेकी बात है, विरोचनकुमार बलि तीनों लोकोंका शासन करते थे। उन दिनों भुगुकुलभूषण शुक्र शीघ्रतापूर्वक उनके पास आये ।। ११ ।।

पर्याप्त दक्षिणा देनेवाले असुरराज बलिने भृगुपुत्र शुक्राचार्यको अर्घ्य आदि देकर उनकी विधिवत्‌ पूजा की और जब वे आसनपर बैठ गये, तब बलि भी अपने सिंहासनपर आसीन हुए ।। १२ ।।

वहाँ उन दोनोंमें यही बातचीत हुई, जिसे तुमने प्रस्तुत किया है। देवताओंको फूल, धूप और दीप देनेसे क्या फल मिलता है, यही उनकी वार्ताका विषय था। उस समय दैत्यराज बलिने कविवर शुक्रके सामने यह उत्तम प्रश्न उपस्थित किया ।। १३-१४ ।।

बलिने पूछा--ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ) द्विजशिरोमणे! फूल, धूप और दीपदान करनेका क्या फल है? यह बतानेकी कृपा करें ।। १५ ।।

शुक्राचार्यने कहा--राजन्‌! पहले तपस्याकी उत्पत्ति हुई है, तदनन्तर धर्मकी। इसी बीचमें लता और ओषधियोंका प्रादुर्भाव हुआ है ।। १६ ।।

इस भूतलपर अनेक प्रकारकी सोमलता प्रकट हुई। अमृत, विष तथा दूसरी-दूसरी जातिके वृणोंका प्रादुर्भाव हुआ || १७ ।।

अमृत वह है, जिसे देखते ही मन प्रसन्न हो जाता है। जो तत्काल तृप्ति प्रदान करता है और विष वह है जो अपनी गन्धसे चित्तमें सर्वथा तीव्र ग्लानि पैदा करता है ।। १८ ।।

अमृतको मंगलकारी जानो और विष महान्‌ अमंगल करनेवाला है। जितनी ओषधियाँ हैं, वे सबन-की-सब अमृत मानी गयी हैं और विष अग्निजनित तेज है ।। १९ ।।

फूल मनको आह्लाद प्रदान करता है और शोभा एवं सम्पत्तिका आधान करता है, इसलिये पुण्यात्मा मनुष्योंने उसे सुमन कहा है ।। २० ।।

जो मनुष्य पवित्र होकर देवताओंको फूल चढ़ाता है, उसके ऊपर सब देवता संतुष्ट होते और उसके लिये पुष्टि प्रदान करते हैं || २१ ।।

प्रभो! दैत्ययाज! जिस-जिस देवताके उद्देश्यसे फ़ूल दिये जाते हैं, वह उस पुष्पदानसे दातापर बहुत प्रसन्न होता और उसके मंगलके लिये सचेष्ट रहता है ।। २२ ।।

उग्रा, सौम्या, तेजस्विनी, बहुवीर्या और बहुरूपा--अनेक प्रकारकी ओषधियाँ होती हैं। उन सबको जानना चाहिये ।। २३ ।।

अब यज्ञसम्बन्धी तथा अयज्ञोपयोगी वृक्षोंका वर्णन सुनो। असुरोंके लिये हितकर तथा देवताओंके लिये प्रिय जो पुष्पमालाएँ होती हैं, उनका परिचय सुनो ।।

राक्षस, नाग, यक्ष, मनुष्य और पितरोंको प्रिय एवं मनोरम लगनेवाली ओषधियोंका भी वर्णन करता हूँ, सुनो || २५ ।।

फूलोंके बहुत-से वृक्ष गाँवोंमें होते हैं और बहुत-से जंगलोंमें। बहुतेरे वृक्ष जमीनको जोतकर क्‍्यारियोंमें लगाये जाते हैं और बहुत-से पर्वत आदिपर अपने-आप पैदा होते हैं। इन वृक्षोंमें कुछ तो काँटेदार होते हैं और कुछ बिना काँटोंके। इन सबमें रूप, रस और गन्ध विद्यमान रहते हैं || २६ ।।

फूलोंकी गन्ध दो प्रकारकी होती है--अच्छी और बुरी। अच्छी गन्धवाले फूल देवताओंको प्रिय होते हैं। इस बातको ध्यानमें रखो ।। २७ ।।

प्रभो! जिन वृक्षोंमें काँटे नहीं होते हैं, उनमें जो अधिकांश श्वेतवर्णवाले हैं, उन्हींके फूल देवताओंको सदैव प्रिय हैं। कमल, तुलसी और चमेली--ये सब फूलोंमें अधिक प्रशंसित हैं ।। २८ ।।

जलसे उत्पन्न होनेवाले जो कमल-उत्पल आदि पुष्प हैं, उन्हें विद्वान्‌ पुरुष गन्धर्विों, नागों और यक्षोंको समर्पित करे || २९ ।।

अथर्ववेदमें बतलाया गया है कि शत्रुओंका अनिष्ट करनेके लिये किये जानेवाले अभिचार कर्ममें लाल फूलोंवाली कड़वी और कण्टकाकीर्ण ओषधियोंका उपयोग करना चाहिये ।। ३० ।।

जिन फूलोंमें काँटे अधिक हों, जिनका हाथसे स्पर्श करना कठिन जान पड़े, जिनका रंग अधिकतर लाल या काला हो तथा जिनकी गन्धका प्रभाव तीव्र हो, ऐसे फूल भूतप्रेतोंके काम आते हैं। अतः उनको वैसे ही फूल भेंट करने चाहिये ।। ३१ ।।

प्रभो! मनुष्योंको तो वे ही फूल प्रिय लगते हैं, जिनका रूप-रंग सुन्दर और रस विशेष मधुर हो, तथा जो देखनेपर हृदयको आनन्ददायी जान पड़ें || ३२ ।।

श्मशान तथा जीर्ण-शीर्ण देवालयोंमें पैदा हुए फूलोंका पौष्टिक कर्म, विवाह तथा एकान्त विहारमें उपयोग नहीं करना चाहिये ।। ३३ ।।

पर्वतोंके शिखरपर उत्पन्न हुए सुन्दर और सुगन्धित पुष्पोंको धोकर अथवा उनपर जलके छींटे देकर धर्मशास्त्रोंमें बताये अनुसार उन्हें यथायोग्य देवताओंपर चढ़ाना चाहिये ।। ३४ ।।

देवता फूलोंकी सुगन्धसे, यक्ष और राक्षस उनके दर्शनसे, नागगण उनका भलीभाँति उपभोग करनेसे और मनुष्य उनके दर्शन, गन्ध एवं उपभोग तीनोंसे ही संतुष्ट होते हैं ।। ३५ ।।

फूल चढ़ानेसे मनुष्य देवताओंको तत्काल संतुष्ट करता है और संतुष्ट होकर वे सिद्धसंकल्प देवता मनुष्योंको मनोवांछित एवं मनोरम भोग देकर उनकी भलाई करते हैं ।। ३६ ||

देवताओंको यदि सदा संतुष्ट और सम्मानित किया जाता है तो वे भी मनुष्योंको संतोष एवं सम्मान देते हैं तथा यदि उनकी अवज्ञा एवं अवहेलना की गयी तो वे अवज्ञा करनेवाले नीच मनुष्यको अपनी क्रोधाग्निसे भस्म कर डालते हैं || ३७ ।।

इसके बाद अब मैं धूपदानकी विधिका फल बताऊँगा। धूप भी अच्छे और बुरे कई तरहके होते हैं। उनका वर्णन मुझसे सुनो ।। ३८ ।।

धूपके मुख्यतः तीन भेद हैं--निर्यास, सारी और कृत्रिम। इन धूपोंकी गंध भी अच्छी और बुरी दो प्रकारकी होती है। ये सब बातें मुझसे विस्तारपूर्वक सुनो ।। ३९ ।।

वृक्षोंके रस (गोंद) को निर्यास कहते हैं, सल्‍लकीनामक वृक्षके सिवा अन्य वृक्षोंसे प्रकट हुए निर्यासमय धूप देवताओंको बहुत प्रिय होते हैं। उनमें भी गुग्गुल सबसे श्रेष्ठ है। ऐसा मनीषी पुरुषोंका निश्चय है || ४० ।।

जिन काष्ठोंको आगमें जलानेपर सुगंध प्रकट होती है, उन्हें सारी धूप कहते हैं। इनमें अगुरुकी प्रधानता है। सारी धूप विशेषतः यक्ष, राक्षस और नागोंको प्रिय होते हैं। दैत्य लोग सलल्‍लकी तथा उसी तरह अन्य वृक्षोंकी गोंदका बना हुआ धूप पसंद करते हैं || ४१ ।।

पृथ्वीनाथ! राल आदिके सुगन्धित चूर्ण तथा सुगन्धित काष्ठौषधियोंके चूर्णको घी और शकक्‍्करसे मिश्रित करके जो अष्टगंध आदि धूप तैयार किया जाता है, वही कृत्रिम है। विशेषत: वही मनुष्योंके उपयोगमें आता है || ४२ ।।

वैसा धूप देवताओं, दानवों और भूतोंके लिये भी तत्काल संतोष प्रदान करनेवाला माना गया है। इनके सिवा विहार (भोग-विलास) के उपयोगमें आनेवाले और भी अनेक प्रकारके धूप हैं, जो केवल मनुष्योंके व्यवहारमें आते हैं |। ४३ ।।

देवताओंको पुष्पदान करनेसे जो गुण या लाभ बताये गये हैं, वे ही धूप निवेदन करनेसे भी प्राप्त होते हैं। ऐसा जानना चाहिये। धूप भी देवताओंकी प्रसन्नता बढ़ानेवाले हैं ।। ४४ ।।

अब मैं दीप-दानका परम उत्तम फल बताऊँगा। कब किस प्रकार किसके द्वारा किसके दीप दिये जाने चाहिये, यह सब बताता हूँ, सुनो || ४५ ।।

दीपक ऊर्ध्वगामी तेज है, वह कान्ति और कीर्तिका विस्तार करनेवाला बताया जाता है। अतः दीप या तेजका दान मनुष्योंके तेजकी वृद्धि करता है || ४६ ।।

अंधकार अंधतामिस्र नामक नरक है। दक्षिणायन भी अंधकारसे ही आच्छन्न रहता है। इसके विपरीत उत्तरायण प्रकाशमय है। इसलिये वह श्रेष्ठ माना गया है। अतः अन्धकारमय नरककी निवृत्तिके लिये दीपदानकी प्रशंसा की गयी है || ४७ ।।

दीपककी शिखा ऊर्ध्वगामिनी होती है। वह अंधकाररूपी रोगको दूर करनेकी दवा है। इसलिये जो दीपदान करता है, उसे निश्चय ही ऊर्ध्वगतिकी प्राप्ति होती है ।। ४८ ।।

देवता तेजस्वी, कांतिमान्‌ और प्रकाश फैलानेवाले होते हैं और राक्षस अंधकारप्रिय होते हैं; इसलिये देवताओंकी प्रसन्नताके लिये दीपदान किया जाता है ।।

दीपदान करनेसे मनुष्यके नेत्रोंका तेज बढ़ता है और वह स्वयं भी तेजस्वी होता है। दान करनेके पश्चात्‌ उन दीपकोंको न तो बुझावे, न उठाकर अन्यत्र ले जाय और न नष्ट ही करे।।

दीपक चुरानेवाला मनुष्य अंधा और श्रीहीन होता है तथा मरनेके बाद नरकमें पड़ता है, किंतु जो दीपदान करता है, वह स्वर्गलोकमें दीपमालाकी भाँति प्रकाशित होता है ।। ५१ ।।

घीका दीपक जलाकर दान करना प्रथम श्रेणीका दीप-दान है। ओषधियोंके रस अर्थात्‌ तिल-सरसों आदिके तेलसे जलाकर किया हुआ दीपदान दूसरी श्रेणीका है। जो अपने शरीरकी पुष्टि चाहता हो--उसे चर्बी, मेदा और हड्डियोंसे निकाले हुए तेलके द्वारा कदापि दीपक नहीं जलाना चाहिये ।। ५२ ।।

जो अपने कल्याणकी इच्छा रखता हो, उसे प्रतिदिन पर्वतीय झरनेके पास, वनमें, देवमंदिरमें, चौराहोंपर, गोशालामें, ब्राह्मणके घरमें तथा दुर्गम स्थानमें प्रतिदिन दीप-दान करना चाहिये। उक्त स्थानोंमें दिया हुआ पवित्र दीप ऐश्वर्य प्रदान करनेवाला होता है ।।

दीप-दान करनेवाला पुरुष अपने कुलको उद्दीप्त करनेवाला, शुद्धचित्त तथा श्रीसम्पन्न होता है और अंतमें वह प्रकाशमय लोकोंमें जाता है || ५४ ।।

अब मैं देवताओं, यक्षों, नागों, मनुष्यों, भूतों तथा राक्षस्रोंको बलि समर्पण करनेसे जो लाभ होता है, जिन फलोंका उदय होता है, उनका वर्णन करूँगा ।। ५५ ।।

जो लोग अपने भोजन करनेसे पहले देवताओं, ब्राह्मणों, अतिथियों और बालकोंको भोजन नहीं कराते, उन्हें भयरहित अमंगलकारी राक्षस ही समझो ।। ५६ ।।

अतः गृहस्थ मनुष्यका यह कर्तव्य है कि वह आलस्य छोड़कर देवताओंकी पूजा करके उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम करे और शुद्धचित्त हो सर्वप्रथम उन्हींको आदरपूर्वक अन्नका भाग अर्पण करे ।। ५७ ।।

क्योंकि देवतालोग सदा गृहस्थ मनुष्योंकी दी हुई बलिको स्वीकार करते और उन्हें आशीर्वाद देते हैं। देवता, पितर, यक्ष, राक्षस, सर्प तथा बाहरसे आये हुए अन्य अतिथि आदि गृहस्थके दिये हुए अन्नसे ही जीविका चलाते हैं और प्रसन्न होकर उस गृहस्थको आयु, यश तथा धनके द्वारा संतुष्ट करते हैं | ५८-५९ ।।

देवताओंको जो बलि दी जाय, वह दही-दूधकी बनी हुई, परम पवित्र, सुगंधित, दर्शनीय और फूलोंसे सुशोभित होनी चाहिये ।। ६० ।।

आसुर स्वभावके लोग यक्ष और राक्षसोंको रुधिर और मांससे युक्त बलि अर्पित करते हैं। जिसके साथ सुरा और आसव भी रहता है तथा ऊपरसे धानका लावा छींटकर उस बलिको विभूषित किया जाता है ।। ६१ ।।

नागोंको पद्म और उत्पलयुक्त बलि प्रिय होती है। गुड़मिश्रित तिल भूतोंको भेंट करे ।। ६२ ।।

जो मनुष्य देवता आदिको पहले बलि प्रदान करके भोजन करता है, वह उत्तम भोगसे सम्पन्न, बलवान्‌ और वीर्यवान्‌ होता है। इसलिये देवताओंको सम्मानपूर्वक अन्न पहले अर्पण करना चाहिये ।। ६३ ।।

गृहस्थके घरकी अधिष्ठातृ देवियाँ उसके घरको सदा प्रकाशित किये रहती हैं, अतः कल्याणकामी मनुष्यको चाहिये कि भोजनका प्रथम भाग देकर सदा ही उनकी पूजा किया करें।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! इस प्रकार शुक्राचार्यने असुरराज बलिको यह प्रसंग सुनाया और मनुने तपस्वी सुवर्णको इसका उपदेश किया। तत्पश्चात्‌ तपस्वी सुवर्णने नारदजीको और नारदजीने मुझे धूप, दीप आदिके दानके गुण बताये। महातेजस्वी पुत्र! तुम भी इस विधिको जानकर इसीके अनुसार सब काम करो ।। ६५-६६ ||

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपरव्वके अंतर्गत दानधर्मपर्वमें सुवर्ण और मनुका संवादविषयक अद्दानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ६७ श्लोक हैं)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

निन्यानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) निन्यानबेवें अध्याय के श्लोक 1-29 का हिन्दी अनुवाद) 

“नहुषका ऋषियोंपर अत्याचार तथा उसके प्रतीकारके लिये महर्षि भूगु और अगस्त्यकी बातचीत”

युधिष्ठटिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ) फ़ूल और धूप देनेवालोंको जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह मैंने सुन लिया। अब बलि समर्पित करनेका जो फल है, उसे पुनः बतानेकी कृपा करें ।। १ ॥।

धूपदान और दीपदानका फल तो ज्ञात हो गया! अब यह बताइये कि गृहस्थ पुरुष बलि किसलिये समर्पित करते हैं? || २ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! इस विषयमें भी जानकार मनुष्य राजा नहुष और अगस्त्य एवं भूगुके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। ३ ।।

महाराज! राजर्षि नहुष बड़े भारी तपस्वी थे। उन्होंने अपने पुण्यकर्मके प्रभावसे देवराज इन्द्रका पद प्राप्त कर लिया था ।। ४ ।।

राजन! वहाँ स्वर्गमें रहते हुए भी शुद्धचित्त राजा नहुष नाना प्रकारके दिव्य और मानुष कर्मोंका अनुष्ठान किया करते थे || ५ ।।

नरेश्वर! स्वर्गमें भी महामना राजा नहुषकी सम्पूर्ण मानुषी क्रियाएँ तथा दिव्य सनातन क्रियाएँ भी सदा चलती रहती थीं ।। ६ ।।

अनग्निहोत्र, समिधा, कुशा, फूल, अन्न और लावाकी बलि, धूपदान तथा दीपकर्म--ये सब-के-सब महामना राजा नहुषके घरमें प्रतिदिन होते रहते थे। वे स्वर्गमें रहकर भी जपयज्ञ एवं मनोयज्ञ (ध्यान) करते रहते थे ।। ७-८ ॥।

शत्रुदमन! वे देवेश्वर नहुष विधिपूर्वक सभी देवताओंका पूर्ववत्‌ यथोचितरूपसे पूजन किया करते थे ।। ९ ।।

किंतु तदनन्तर "मैं इन्द्र हूँ” ऐसा समझकर वे अहंकारके वशीभूत हो गये। इससे उन भूपालकी सारी क्रियाएँ नष्टप्राय होने लगीं ।। १० ।।

वे वरदानके मदसे मोहित हो ऋषियोंसे अपनी सवारी खिंचवाने लगे। उनका धर्म-कर्म छूट गया। अतः वे दुर्बल हो गये--उनमें धर्मबलका अभाव हो गया ।। ११ ।।

वे अहंकारसे अभिभूत होकर क्रमश: सभी श्रेष्ठ तपस्वी मुनियोंको अपने रथमें जोतने लगे। ऐसा करते हुए राजाका दीर्घकाल व्यतीत हो गया ।। १२ ।।

नहुषने बारी-बारीसे सभी ऋषियोंको अपना वाहन बनानेका उपक्रम किया था। भारत! एक दिन महर्षि अगस्त्यकी बारी आयी ।। १३ ।।

उसी दिन ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महातेजस्वी भूगुजी अपने आश्रमपर बैठे हुए अगस्त्यके निकट आये और इस प्रकार बोले-- ।। १४ ।।

“महामुने! देवराज बनकर बैठे हुए इस दुर्बुद्धि नहुषके अत्याचारको हमलोग किसलिये सह रहे हैं! ।।

अगस्त्यजीने कहा--महामुने! मैं इस नहुषको कैसे शाप दे सकता हूँ, जब कि वरदानी ब्रह्माजीने इसे वर दे रखा है। उसे वर मिला है, यह बात आपको भी विदित ही है ।। १६ ||

स्वर्गलोकमें आते समय इस नहुषने ब्रह्माजीसे यह वर माँगा था कि “जो मेरे दृष्टिपथमें आ जाय, वह मेरे अधीन हो जाय” ।। १७ ।।

ऐसा वरदान प्राप्त होनेके कारण ही मैंने और आपने भी अबतक इसे दग्ध नहीं किया है। इसमें संशय नहीं है। दूसरे किसी श्रेष्ठ ऋषिने भी उसी वरदानके कारण न तो अबतक उसे जलाकर भस्म किया और न स्वर्गसे नीचे ही गिराया ।। १८ ।।

प्रभो! पूर्वकालमें महात्मा ब्रह्माने इसे पीनेके लिये अमृत प्रदान किया था। इसीलिये हमलोग इस नहुषको स्वर्गसे नीचे नहीं गिरा रहे हैं ।। १९ ।।

भगवान्‌ ब्रह्माजीने जो इसे वर दिया था, वह प्रजाजनोंके लिये दुःखका कारण बन गया। वह नराधम ब्राह्मणोंके साथ अधर्मयुक्त बर्ताव कर रहा है || २० ।।

वक्ताओंमें श्रेष्ठ भुगुजी! इस समय हमारे लिये जो कर्तव्य प्राप्त हो, वह बताइये। आप जैसा कहेंगे वैसा ही मैं करूँगा; इसमें संशय नहीं है || २१ ।।

भगु बोले--मुने! ब्रह्माजीकी आज्ञासे मैं आपके पास आया हूँ। बलवान्‌ नहुष दैववश मोहित हो रहा है। आज उससे ऋषियोंपर किये गये अत्याचारका बदला लेना है || २२ ।।

आज यह महामूर्ख देवराज आपको रथमें जोतेगा। अतः आज ही मैं इस उच्छुंखल नहुषको अपने तेजसे इन्द्रपदसे भ्रष्ट कर दूँगा || २३ ।।

आज इस पापाचारी दुर्बुद्धिको इन्द्रपदसे गिराकर मैं आपके देखते-देखते पुनः शतक्रतुको इन्द्रपदपर बिठाऊँगा ।। २४ ।।

दैवने इसकी बुद्धिको नष्ट कर दिया है। अतः यह देवराज बना हुआ मन्दबुद्धि नीच नहुष अपने ही विनाशके लिये आज आपको लातसे मारेगा ।। २५ |।

आपके प्रति किये गये इस अत्याचारसे अत्यंत अमर्षमें भरकर मैं धर्मका उल्लंघन करनेवाले उस द्विजद्रोही पापीको रोषपूर्वक यह शाप दे दूँगा कि 'तू सर्प हो जा” ।। २६ ।

महामुने! तदनन्तर चारों ओरसे धिक्कारके शब्द सुनकर यह दुर्बुद्धि देवेन्द्र श्रीहीन हो जायगा और मैं ऐश्वर्यबलसे मोहित हुए इस पापाचारी नहुषको आपके देखते-देखते पृथ्वीपर गिरा दूँगा। अथवा मुने! आपको जैसा जँचे वैसा ही करूँगा || २७-२८ ।।

भगुके ऐसा कहनेपर अविनाशी मित्रावरुणकुमार अगस्त्यजी अत्यंत प्रसन्न और निश्चिन्त हो गये || २९ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अंतर्गत दानधर्मपर्वमें अगस्त्य और भ्रगुका संवादनामक निन्‍यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

सौवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) सौवें अध्याय के श्लोक 1-41 का हिन्दी अनुवाद) 

नहुषका पतन, शतक्रतुका इन्द्रपदपर पुन: अभिषेक तथा दीपदानकी महिमा

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! राजा नहुषपर कैसे विपत्ति आयी? वे कैसे पृथ्वीपर गिराये गये और किस तरह वे इन्द्रपदसे वंचित हो गये? इसे आप बतानेकी कृपा करें ।। १ ॥।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! जब महर्षि भूगु और अगस्त्य उपर्युक्त वार्तालाप कर रहे थे। उस समय महामना नहुषके घरमें दैवी और मानुषी सभी क्रियाएँ चल रही थीं || २ ।।

दीपदान, समस्त उपकरणोंसहित अन्नदान, बलिकर्म एवं नाना प्रकारके स्नानअभिषेक आदि पूर्ववत्‌ चालू थे। देवलोक तथा मनुष्यलोकमें विद्वानोंने जो सदाचार बताये हैं, वे सब महामना देवराज नहुषके यहाँ होते रहते थे ।।

राजेन्द्र! गृहस्थके घर यदि उन सदाचारोंका पालन हो तो वे गृहस्थ सर्वथा उन्नतिशील होते हैं, धूपदान, दीपदान तथा देवताओंको किये गये नमस्कार आदिसे भी गृहस्थोंकी ऋद्धि-सिद्धि बढ़ती है ।। ५ ।।

जैसे तैयार हुई रसोईमेंसे पहले अतिथिको भोजन दिया जाता है, उसी प्रकार घरमें देवताओंके लिये अन्नकी बलि दी जाती है। जिससे देवते प्रसन्न होते हैं |। ६ ।।

बलिकर्म करनेपर गृहस्थको जितना संतोष होता है, उससे सौगुनी प्रीति देवताओंको होती है || ७ ।।

इस प्रकार श्रेष्ठ पुरुष अपने लिये लाभदायक समझकर देवताओंको नमस्कारसहित धूपदान और दीपदान करते हैं ।। ८ ।।

विद्वान्‌ पुरुष जलसे स्नान करके देवता आदिके लिये नमस्कारपूर्वक जो तर्पण आदि कर्म करते हैं, उससे देवता, महाभाग पितर तथा तपोधन ऋषि संतुष्ट होते हैं तथा विधिपूर्वक पूजित होकर घरके सम्पूर्ण देवता प्रसन्न होते हैं | ९-१० ।।

इसी विचारधाराका आश्रय लेकर राजा नहुषने महान देवेन्द्रपद पाकर यह अदभुत पुण्यकर्म सदा चालू रखा था ।| ११ |।

किंतु कुछ कालके पश्चात्‌ जब उनके सौभाग्य-नाशका अवसर उपस्थित हुआ, तब उन्होंने इन सब बातोंकी अवहेलना करके ऐसा पापकर्म आरम्भ कर दिया ।। १२ ।।

बलके घमण्डमें आकर देवराज नहुष उन सत्कर्मोंसे भ्रष्ट हो गये। उन्होंने धूपदान, दीपदान और जलदानकी विधिका यथावत्‌्रूपसे पालन करना छोड़ दिया ।। १३ ।।

उसका फल यह हुआ कि उनके यज्ञस्थलमें राक्षसोंने डेरा डाल दिया। उन्हींसे प्रभावित होकर महाबली नहुषने मुसकराते हुए-से मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यको सरस्वतीतटसे तुरंत अपना रथ ढोनेके लिये बुलाया। तब महातेजस्वी भृगुने मित्रावरुणकुमार अगस्त्यजीसे कहा -- || १४-१५ ||

“मुने! आप अपनी आँखें मूँद लें, मैं आपकी जटामें प्रवेश करता हूँ।” महर्षि अगस्त्य आँखें मूँदकर काष्ठकी तरह स्थिर हो गये। अपनी मर्यादासे च्युत न होनेवाले महातेजस्वी भृगुने राजाको स्वर्गसे नीचे गिरानेके लिये अगस्त्यजीकी जटामें प्रवेश किया। इतनेहीमें देवराज नहुष ऋषिको अपना वाहन बनानेके लिये उनके पास पहुँचे || १६-१७ ।।

प्रजानाथ! तब अगस्त्यने देवराजसे कहा--“राजन्‌! मुझे शीघ्र रथमें जोतिये और बताइये मैं आपको किस स्थानपर ले चलूँ। देवेश्वरर आप जहाँ कहेंगे, वहीं आपको ले चलूँगा।” उनके ऐसा कहनेपर नहुषने मुनिको रथमें जोत दिया ।। १८-१९ ।।

यह देख उनकी जटाके भीतर बैठे हुए भृगु बहुत प्रसन्न हुए। उस समय भृगुने नहुषका साक्षात्कार नहीं किया || २० ।।

अगस्त्यमुनि महामना नहुषको मिले हुए वरदानका प्रभाव जानते थे, इसलिये उसके द्वारा रथमें जोते जानेपर भी वे कुपित नहीं हुए || २१ ।।

भारत! राजा नहुषने चाबुक मारकर हाँकना आरम्भ किया तो भी उन धर्मात्मा मुनिको क्रोध नहीं आया। तब कुपित हुए देवराजने महात्मा अगस्त्यके सिरपर बायें पैरसे प्रहार किया ।। २२६ ||

उनके मस्तकपर चोट होते ही जटाके भीतर बैठे हुए महर्षि भूगु अत्यन्त कुपित हो उठे और उन्होंने पापात्मा नहुषको इस प्रकार शाप दिया--'ओ दुर्मते! तुमने इन महामुनिके मस्तकमें क्रोधपूर्वक लात मारी है, इसलिये तू शीघ्र ही सर्प होकर पृथ्वीपर चला जा” ।।

भरतश्रेष्ठ! भूगु नहुषको दिखायी नहीं दे रहे थे। उनके इस प्रकार शाप देनेपर नहुष सर्प होकर पृथ्वीपर गिरने लगे || २५३ ।।

पृथ्वीनाथ! यदि नहुष भृगुको देख लेते तो उनके तेजसे प्रतिहत होकर वे उन्हें स्वर्गसे नीचे गिरानेमें समर्थ न होते || २६३ ।।

महाराज! नहुषने जो भिन्न-भिन्न प्रकारके दान किये थे, तप और नियमोंका अनुष्ठान किया था, उनके प्रभावसे वे पृथ्वीपर गिरकर भी पूर्वजन्मकी स्मृतिसे वंचित नहीं हुए। उन्होंने भूगुको प्रसन्न करते हुए कहा--'प्रभो! मुझको मिले हुए शापका अंत होना चाहिये” ।।

महाराज! तब अगस्त्यने दयासे द्रवित होकर उनके शापका अंत करनेके लिये भृगुको प्रसन्न किया। तब कृपायुक्त हुए भूगुने उस शापका अंत इस प्रकार निश्चित किया ।। २९ ।।

भगुने कहा--राजन! तुम्हारे कुलमें सर्वश्रेष्ठ युधिष्ठिर नामसे प्रसिद्ध एक राजा होंगे, जो तुम्हें इस शापसे मुक्त करेंगे--ऐसा कहकर भृगुजी अंतर्धान हो गये ।। ३० ।।

महातेजस्वी अगस्त्य भी शतक्रतु इन्द्रका कार्य सिद्ध करके द्विजातियोंसे पूजित होकर अपने आश्रमको चले गये ।। ३१ ।।

राजन! तुमने भी नहुषका उस शापसे उद्धार कर दिया। नरेश्वर! वे तुम्हारे देखते-देखते ब्रह्मतोकको चले गये ।। ३२ ।।

भूगु उस समय नहुषको पृथ्वीपर गिराकर ब्रह्माजीके धाममें गये और उनसे उन्होंने यह सब समाचार निवेदन किया ।। ३३ ।।

तब पितामह ब्रह्माने इन्द्र तथा अन्य देवताओंको बुलवाकर उनसे कहा--'देवगण! मेरे वरदानसे नहुषने राज्य प्राप्त किया था। परंतु कुपित हुए अगस्त्यने उन्हें स्वर्गसे नीचे गिरा दिया। अब वे पृथ्वीपर चले गये ।।

“देवताओ! बिना राजाके कहीं भी रहना असंभव है। अतः अपने पूर्व इन्द्रको पुनः देवराजके पदपर अभिषिक्त करो” || ३५३ ||

कुन्तीनंदन! नरेश्वर! पितामह ब्रह्माका यह कथन सुनकर सब देवता हर्षसे खिल उठे और बोले--'भगवन्‌! ऐसा ही हो” ।। ३६½ ।।

राजसिंह! भगवान्‌ ब्रह्माके द्वारा देवरराजके पदपर अभिषिक्त हो शतक्रतु इन्द्र फिर पूर्ववत्‌ शोभा पाने लगे || ३७३ ।।

इस प्रकार पूर्वकालमें नहुषके अपराधसे ऐसी घटना घटी कि वे नहुष बार-बार दीपदान आदि पुण्यकर्मोंसे सिद्धिको प्राप्त हुए थे || ३८३ ।।

इसलिये गृहस्थोंको सायंकालमें अवश्य दीपदान करने चाहिये। दीपदान करनेवाला पुरुष परलोकमें दिव्य नेत्र प्राप्त करता है ।। ३९६ ।।

दीपदान करनेवाले मनुष्य निश्चय ही पूर्ण चन्द्रमाके समान कान्तिमान्‌ होते हैं। जितने पलकोंके गिरनेतक दीपक जलते हैं, उतने वर्षोतक दीपदान करनेवाला मनुष्य रूपवान्‌ और बलवान होता है || ४०-४१ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अंतर्गत दानधर्मपर्वमें अगस्त्य और भ्रगुका संवादनामक सौवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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