सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के छानबेवाँ अध्याय (From the 96 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

छानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) छानबेवें अध्याय के श्लोक 1-197½ का हिन्दी अनुवाद) 

“छत्र और उपानहकी उत्पत्ति एवं दानकी प्रशंसा”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! जब सूर्यदेव इस प्रकार याचना कर रहे थे, उस समय महातेजस्वी मुनिश्रेष्ठ जमदग्निने कौन-सा कार्य किया? ।। १ ॥।

भीष्मजीने कहा--कुरुनन्दन! सूर्यदेवके इस तरह प्रार्थना करनेपर भी अग्निके समान तेजस्वी जमदग्नि मुनिका क्रोध शान्त नहीं हुआ ।। २ ।।

प्रजानाथ! तब विप्ररूपधारी सूर्यने हाथ जोड़ प्रणाम करके मधुर वाणीद्वारा यों कहा -- ३ ||

“विप्रर्ष! आपका लक्ष्य तो चल है, सूर्य भी सदा चलते रहते हैं। अतः निरन्तर यात्रा करते हुए सूर्यरूपी चंचल लक्ष्यका आप किस प्रकार भेदन करेंगे?” ।। ४ ।।

जमदग्नि बोले--हमारा लक्ष्य चंचल हो या स्थिर, हम ज्ञानदृष्टिसे पहचान गये हैं कि तुम्हीं सूर्य हो। अत: आज दण्ड देकर तुम्हें अवश्य ही विनययुक्त बनायेंगे || ५ ।।

दिवाकर! तुम दोपहरके समय आधे निमेषके लिये ठहर जाते हो! सूर्य! उसी समय तुम्हें स्थिर पाकर हम अपने बाणोंद्वारा तुम्हारे शरीरका भेदन कर डालेंगे। इस विषयमें मुझे कोई (अन्यथा) विचार नहीं करना है ।।

सूर्य बोले-धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ विप्र्षे! निस्संदेह आप मेरे शरीरका भेदन कर सकते हैं। भगवन्‌! यद्यपि मैं आपका अपराधी हूँ तो भी आप मुझे अपना शरणागत समझिये ।। ७ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! सूर्यदेवकी यह बात सुनकर भगवान्‌ जमदग्नि हँस पड़े और उनसे बोले--'सूर्यदेव! अब तुम्हें भय नहीं मानना चाहिये; क्योंकि तुम मेरे शरणागत हो गये हो ॥। ८ ।।

“ब्राह्मणोंमें जो सरलता है, पृथ्वीमें जो स्थिरता है, सोमका जो सौम्यभाव, सागरकी जो गम्भीरता, अग्निकी जो दीप्ति, मेरुकी जो चमक और सूर्यका जो प्रताप है--इन सबका वह पुरुष उल्लंघन कर जाता है, इन सबकी मर्यादाका नाश करनेवाला समझा जाता है जो शरणागतका वध करता है ।। ९-१० ।।

जो शरणागतकी हत्या करता है, उसे गुरुपत्नीगमन, ब्रह्महत्या और मदिरापानका पाप लगता है! ।। ११ ।।

तात! इस समय तुम्हारे द्वारा जो यह अपराध हुआ है, उसका कोई समाधान--उपाय सोचो। जिससे तुम्हारी किरणोंद्वारा तपा हुआ मार्ग सुगमतापूर्वक चलने योग्य हो सके” ।। १२ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! इतना कहकर भृगुश्रेष्ठ जमदग्नि मुनि चुप हो गये। तब भगवान्‌ सूर्यने उन्हें शीघ्र ही छत्र और उपानह दोनों वस्तुएँ प्रदान कीं ।। १३ ।।

सूर्यदेवने कहा--महर्षे! यह छत्र मेरी किरणोंका निवारण करके मस्तककी रक्षा करेगा तथा चमड़ेके बने ये एक जोड़े जूते हैं, जो पैरोंको जलनेसे बचानेके लिये प्रस्तुत किये गये हैं। आप इन्हें ग्रहण कीजिये ।। १४ ।।

आजसे इस जगत्‌में इन दोनों वस्तुओंका प्रचार होगा और पुण्यके सभी अवसरोंपर इनका दान उत्तम एवं अक्षय फल देनेवाला होगा ।। १५ ।।

भीष्मजी कहते हैं--भारत! छाता और जूता--इन दोनों वस्तुओंका प्राकट्य--छाता लगाने और जूता पहननेकी प्रथा सूर्यने ही जारी की है। इन वस्तुओंका दान तीनों लोकोंमें पवित्र बताया गया है ।। १६ ।।

इसलिये तुम ब्राह्मणोंको उत्तम छाते और जूते दिया करो। उनके दानसे महान धर्म होगा। इस विषयमें मुझे भी संदेह नहीं है | १७ ।।

भरतश्रेष्ठ! जो ब्राह्मगको सौ शलाकाओंसे युक्त सुन्दर छाता दान करता है, वह परलोकमें सुखी होता है ।।

भरतभूषण! वह देवताओं, ब्राह्मणों और अप्सराओंद्वारा सतत सम्मानित होता हुआ इन्द्रलोकमें निवास करता है ।। १९ ।।

महाबाहो! भरतनन्दन! जिसके पैर जल रहे हों ऐसे कठोर व्रतधारी स्नातक द्विजको जो जूते दान करता है, वह शरीर-त्यागके पश्चात्‌ देववन्दित लोकोंमें जाता है और बड़ी प्रसन्नताके साथ गोलोकमें निवास करता है ।।

भरतश्रेष्ठ] भरतसत्तम! यह मैंने तुमसे छातों और जूतोंके दानका सम्पूर्ण फल बताया है ।। २२ ।।

[सिवासे शूद्रोंकी परम गति, शौचाचार, सदाचार तथा वर्णधर्मका कथन एवं संन्यासियोंके धर्मोका वर्णन और उससे उनको परम गतिकी प्राप्ति]

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! इस जगत्‌में शूद्रोंके लिये सदा द्विजातियोंकी सेवाको ही परम धर्म बताया गया है। वह सेवा किन कारणोंसे कितने प्रकारकी कही गयी है?

भरतभूषण! भरतरत्न! शूद्रोंको द्विजोंकी सेवासे किन लोकोंकी प्राप्ति बतायी गयी है? मुझे धर्मका लक्षण बताइये ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! इस विषयमें ब्रह्मवादी पराशरने शूद्रोंपर कृपा करनेके लिये जो कुछ कहा है, उसी इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है ।।

बड़े-बूढ़े पराशर मुनिने सब वर्णोॉपर कृपा करनेके लिये शौचाचारसे सम्पन्न निर्मल एवं अनामय धर्मका प्रतिपादन किया ।।

तत्त्वज्ञ पराशर मुनिने अपने सारे धर्मोपदेशको ठीक-ठीक आनुपूर्वीसहित अपने शिष्योंको पढ़ाया। वह एक सार्थक धर्मशास्त्र था ।।

पराशरने कहा-मनुष्यको चाहिये कि वह जितेन्द्रिय, मनोनिग्रही, पवित्र, चंचलतारहित, सबल, थधैर्यशील, उत्तरोत्तर वाद-विवाद न करनेवाला, लोभहीन, दयालु, सरल, ब्रह्मवादी, सदाचारपरायण और सर्वभूतहितैषी होकर सदा अपने ही देहमें रहनेवाले काम, क्रोध, लोभ, मान, मोह और मद--इन छ: शत्रुओंको अवश्य जीते ।।

बुद्धिमान मनुष्य विधिपूर्वक धैर्यका आश्रय ले गुरुजनोंकी सेवामें तत्पर, अहंकारशून्य तथा तीनों वर्णोकी सहानुभूतिका पात्र होकर अपनी शक्ति और बलके अनुसार कर्म, मन, वाणी और नेत्र--इन चारोंके द्वारा चार प्रकारके संयमका अवलम्बन ले शान्तचित्त, दमनशील एवं जितेन्द्रिय हो जाय ।।

दक्ष--ज्ञानीजनोंका नित्य अन्वेषण करनेवाला यज्ञशेष अमृतरूप अन्नका भोजन करे। जैसे भौंरा फूलोंसे मधुका संचय करता है, उसी प्रकार तीनों वर्णोंसे मधुकरी भिक्षाका संचय करते हुए ब्राह्मण भिक्षुको धर्मका आचरण करना चाहिये ।।

ब्राह्मणोंका धन है वेद-शास्त्रोंका स्वाध्याय, क्षत्रियोंका धन है बल, वैश्योंका धन है व्यापार और खेती, तथा शूद्रोंका धन है तीनों वर्णोकी सेवा। इस धर्मरूपी धनका उच्छेद करनेसे मनुष्य नरकमें पड़ता है ।।

नरकसे निकलनेपर ये धर्मरहित निर्दय मनुष्य म्लेच्छ होते हैं और म्लेच्छ होनेके बाद फिर पापकर्म करनेसे उन्हें सदाके लिये नरक और पशु-पक्षी आदि तिर्यक्‌ योनिकी प्राप्ति होती है ।।

जो लोग प्राचीन वर्णाश्रमोचित सन्मार्गका आश्रय ले सारे विपरीत मार्गोंका परित्याग करके स्वधर्मके मार्गपर चलते हैं, समस्त प्राणियोंके प्रति दया रखते हैं और क्रोधको जीतकर शास्त्रोक्त विधिसे श्रद्धापूर्वक देवताओं तथा ब्राह्मणोंकी पूजा करते हैं, उनके लिये यथावत्‌ रूपसे क्रमशः सम्पूर्ण धर्मोंके ग्रहणकी विधि तथा सेवाभावकी प्राप्ति आदिका वर्णन करता हूँ ।।

जो विशेषरूपसे शौचका सम्पादन करना चाहते हैं, उनके लिये सभी शौचविषयक प्रयोजनोंका वर्णन करता हूँ। तत्त्वदर्शी विद्वानोंने शास्त्रमें महाशौच आदि विधानोंको प्रत्यक्ष देखा है ।।

वहाँ शूद्र भी भिक्षुओंके शौचाचारके लिये मिटटी तथा अन्य आवश्यक पदार्थोंका प्रबन्ध करे ।।

जो धर्मके ज्ञाता, केवल धर्मके ही आश्रित तथा सम्यक्‌ ज्ञानसे सम्पन्न हैं, उन सर्वहितैषी संन्यासियोंको चाहिये कि वे सज्जनाचरित मार्गपर स्थित हो इस पवित्र कामलतास्वरूप स्थान (मलत्यागके योग्य क्षेत्र आदि) का निश्चय करे ।।

मन और इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले पुरुषको चाहिये कि वह निर्जन एवं घिरे हुए स्थानको देखकर वहाँ सजल पात्र और देख-भाल कर ली हुई मृत्तिका रखे। फिर उस भूमिका भलीभाँति निरीक्षण करके मौन होकर मूत्र-त्यागके लिये बैठे ।।

यदि दिन हो तो उत्तरकी ओर मुँह करके और रात हो तो दक्षिणाभिमुख होकर मल या मूत्रका त्याग करे। मल त्याग करनेके पूर्व उस समय भूमिको तिनके आदिसे ढके रखना चाहिये तथा अपने मस्तकको भी वस्त्रसे आच्छादित किये रहना उचित है ।।

जबतक शौच-कर्म समाप्त न हो जाय तबतक मुँहसे कुछ न बोले, अर्थात्‌ मौन रहे। शौच-कर्म पूरा करके भी आचमनके अनन्तर जाते समय मौन ही रहे ।।

शौचके लिये बैठा हुआ पुरुष अपने सामने मृत्तिका और जलपात्र रखे। धीर पुरुष कमण्डलुको हाथमें लिये हुए दाहिने पार्श्व और ऊरुके मध्यदेशमें रखे और सावधानीके साथ धीरे-धीरे मूत्र-त्याग करे, जिससे अपने किसी अंगपर उसका छींटा न पड़े ।।

तत्पश्चात्‌ हाथसे विधिपूर्वक शुद्ध जल लेकर मूत्रस्थान (उपस्थ) को ऐसी सावधानीके साथ धोये, जिससे उसमें मूत्रकी बूँदें नलगी रह जायँ तथा अशुद्ध हाथसे दोनों जाँघोंका भी स्पर्श न करे ।।

यदि मल त्याग किया गया हो तो गुदाभागको धोते समय उसमें क्रमश: तीन बार मिट्टी लगाये। गुदाको शुद्ध करनेके लिये बारंबार इस प्रकार धोना चाहिये कि जलका आघात कपड़ेमें न लगे ।।

तत्पश्चात्‌ बायें हाथमें बारह बार और दाहिनेमें कई बार तीन-तीन बार मिट्टी लगावे ।।

जिसका कपड़ा मलसे दूषित हो गया है ऐसे पुरुषके लिये द्विगुण शौचका विधान है। उसे दोनों पैरों, दोनों जाँघों और दोनों हाथोंकी विशेष शुद्धि अवश्य करनी चाहिये ।।

शौचका पालन न करनेसे शरीर-शुद्धिके विषयमें संदेह बना रहता है। अत: जिस-जिस प्रकारसे शरीर-शुद्धि हो वैसे-ही-वैसे कार्य करनेकी चेष्टा करे ।।

मिट्टीके साथ क्षार और रेह मिलाकर उसके द्वारा वस्त्रकी शुद्धि करनी चाहिये। जिसमें कोई अपवित्र वस्तु लग गयी हो उस वस्त्रसे उस वस्तुका लेप मिट जाय और उसकी दुर्गन्‍्ध दूर हो जाय, ऐसी शुद्धिका सम्पादन आवश्यक होता है ।।

आपत्तिकालमें चार, तीन, दो अथवा एक बार मृत्तिका लगानी चाहिये। देश और कालके अनुसार शौचाचारमें गौरव अथवा लाघव किया जा सकता है ।।

इस विधिसे प्रतिदिन आलस्यका परित्याग करके शौच (शुद्धि) का सम्पादन करे तथा शुद्धिका सम्पादन करनेवाला पुरुष दोनों पैरोंको धोकर इधर-उधर दृष्टि न डालता हुआ बिना किसी घबराहटके चला जाय ।।

पहले पैरोंको भलीभाँति धोकर फिर कलाईसे लेकर समूचे हाथको ऊपरसे नीचेतक धो डाले। इसके बाद हाथमें जल लेकर आचमन करे ।।

आचमनके समय मौन होकर तीन बार जल पीये। उस जलमें किसी प्रकारकी आवाज न हो तथा आचमनके पश्चात्‌ वह जल हृदयतक पहुँचे। विद्वान्‌ पुरुषको चाहिये कि वह अंगूठेके मूलभागसे दो बार मुँह पोंछे। इसके बाद इन्द्रियोंके छिद्रोंका स्पर्श करे ।।

वह प्रथम बार जो जल पीता है, उससे ऋग्वेदको तृप्त करता है, द्वितीय बारका जल यजुर्वेदको और तृतीय बारका जल सामवेदको तृप्त करता है ।।

पहली बार जो मुखका मार्जन किया जाता है, उससे अथर्ववेद तृप्त होता है और द्वितीय बारके मार्जनसे इतिहास-पुराण एवं स्मृतियोंके अधिष्ठाता देवता सन्तुष्ट होते हैं ।।

मुखमार्जनके पश्चात्‌ द्विज जो अंगुलियोंसे नेत्रोंका स्पर्श करता है, उसके द्वारा वह सूर्यदेवको तृप्त करता है। नासिकाके स्पर्शसे वायुको और दोनों कानोंके स्पर्शसे वह दिशाओंको संतुष्ट करता है ।।

आचमन करनेवाला पुरुष अपने मस्तकपर जो हाथ रखता है, उसके द्वारा वह ब्रह्माजीको तृप्त करता है और ऊपरकी ओर जो जल फेंकता है, उसके द्वारा वह आकाशके अधिष्ठाता देवताको संतुष्ट करता है ।।

वह अपने दोनों पैरोंपर जो जल डालता है, इससे भगवान्‌ विष्णु प्रसन्न होते हैं। आचमन करनेवाला पुरुष पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके अपने हाथको घुटनेके भीतर रखकर जलका स्पर्श करे। भोजन आदि सभी अवसरोंपर सदा आचमन करनेकी यही विधि है ।।

यदि दाँतोंमें अन्न लगा हो तो अपनेको जूठा मानकर पुनः आचमन करे, यह शौचाचारकी विधि बतायी गयी। किसी वस्तुकी शुद्धिके लिये उसपर जल छिड़कना भी कर्तव्य माना गया है ।।

(साधु-सेवाके उद्देश्यसे) घरसे निकलते समय शूद्रके लिये भी यह शौचाचारकी विधि देखी गयी है। जिसने मनको वशमें किया है तथा जो अपने हितकी इच्छा रखता है, ऐसे सुयशकामी शूद्रको चाहिये कि वह सदा शौचाचारसे सम्पन्न होकर ही संन्यासियोंके निकट जाय और उनकी सेवा आदिका कार्य करे ।।

क्षत्रिय आस्मभ (उत्साह) रूप यज्ञ करनेवाले होते हैं। वैश्योंके यज्ञमें हविष्य (हवनीय पदार्थ) की प्रधानता होती है, शूद्रोंका यज्ञ सेवा ही है, तथा ब्राह्मण जपरूपी यज्ञ करनेवाले होते हैं ।।

शूद्र सेवासे जीवननिर्वाह करनेवाले होते हैं, वैश्य व्यापारजीवी हैं, दुष्टोंका दमन करना क्षत्रियोंकी जीवनवृत्ति है और ब्राह्मण वेदोंके स्वाध्यायसे जीवन-निर्वाह करते हैं ।।

क्योंकि ब्राह्मण तपस्यासे, क्षत्रिय पालन आदिसे, वैश्य अतिथि-सत्कारसे और शाद्र सेवावृतिसे शोभा पाते हैं ।।

अपने मनको वशमें रखनेवाले शूद्रकों सदा ही तीनों वर्णोंकी विशेषतः आश्रमवासियोंकी सेवा करनी चाहिये ।।

त्रिवर्णकी सेवामें अशक्त हुए शूद्रकों अपनी शक्ति, बुद्धि, धर्म तथा शास्त्रज्ञानके अनुसार आश्रमवासियोंकी सेवा करनी चाहिये। विशेषतः संन्यास-आश्रममें रहनेवाले भिक्षुकी सेवा उसके लिये परम कर्तव्य है ।।

शास्त्रोंके सिद्धान्त-ज्ञानमें निपुण शिष्ट पुरुष चारों आश्रमोंमें संन्यासको ही प्रधान मानते हैं ।।

शिष्ट पुरुष वेदों और स्मृतियोंके विधानके अनुसार जिस कर्तव्यका उपदेश करें असमर्थ पुरुषको उसीका अनुष्ठान करना चाहिये। उसके लिये वही धर्म निश्चित किया गया है ।।

इसके विपरीत करनेवाला मानव कल्याणका भागी नहीं होता है, अतः शूद्रको संन्यासियोंकी सेवा करके सदा अपना कल्याण करना चाहिये ।।

इसके विपरीत करनेवाला मानव कल्याणका भागी नहीं होता है, अतः शूद्रको संन्यासियोंकी सेवा करके सदा अपना कल्याण करना चाहिये ।।

मनुष्य इस लोकमें जो कल्याणकारी कार्य करता है, उसका फल मुत्युके पश्चात्‌ उसे प्राप्त होता है। जिसे वह अपना कर्तव्य समझता है, उस कार्यको वह दोषदृष्टि न रखते हुए करे। दोषदृष्टि रखते हुए जो कार्य किया जाता है, उसका फल इस जगतमें बड़े दुःखसे प्राप्त होता है ।।

शूद्रको चाहिये कि वह प्रिय वचन बोले, क्रोधको जीते, आलस्य दूर भगा दे, ईर्ष्याद्वेष से रहित हो जाय, क्षमाशील, शीलवान्‌ तथा सत्यधर्ममें तत्पर रहे। आपत्तिकालमें वह संन्यासियोंके आश्रममें (जाकर) उनकी सेवा करे ।।

“यही मेरा परम धर्म है, इसीके द्वारा मैं इस अत्यन्त दुस्तर घोर संसार-सागरसे पार हो जाऊँगा। इसमें संशय नहीं है। मैं निर्भय होकर इस देहका त्याग करके परमगतिको प्राप्त हो जाऊँगा। इससे बढ़कर मेरे लिये दूसरा कोई कर्तव्य नहीं है। यही सनातन धर्म है।” मनही-मन ऐसा विचार करके प्रसन्नचित्त हुआ शूद्र बुद्धिको एकाग्र करके सदा उत्तम शुश्रूषाधर्मका पालन करे ।।

शूद्रको चाहिये कि वह नियमपूर्वक सेवामें तत्पर रहे, सदा यज्ञशिष्ट अन्न भोजन करे। मन और इन्द्रियोंको वशमें रखे और सदा कर्तव्याकर्तव्यको जाने ।।

सभी कार्योमें जो आवश्यक कृत्य हों, उन्हें करके ही दिखावे। जैसे-जैसे संन्यासीको प्रसन्नता हो, उसी प्रकार उसका कार्य साधन करे। जो कार्य संन्यासीके लिये हितकर न हो, उसे कदापि न करे ।।

जो कार्य संन्यास-आश्रमके विरुद्ध न हो तथा जो धर्मके अनुकूल हो, शुभकी इच्छा रखनेवाले शूद्रको वह कार्य सदा बिना विचारे ही करना चाहिये ।।

मन, वाणी और क्रियाद्वारा सदा ही उन्हें संतुष्ट रखे। जब वे संन्यासी खड़े हों, तब सेवा करनेवाले शूद्रको स्वयं भी खड़ा रहना चाहिये तथा जब वे कहीं जा रहे हों, तब उसे स्वयं भी उनके पीछे-पीछे जाना चाहिये। यदि वे आसनपर बैठे हों तब वह स्वयं भी भूमिपर बैठे। तात्पर्य यह कि सदा ही उनका अनुसरण करता रहे ।।

रात्रिके कार्य पूरे करके प्रतिदिन उनसे आज्ञा लेकर विधिपूर्वक स्नान करके उनके लिये जलसे भरा हुआ कलश ले आकर रखे। फिर संन्यासियोंके स्थानपर जाकर उन्हें विधिपूर्वक प्रणाम करके इन्द्रियोंको संयममें रखकर ब्राह्मण आदि गुरुजनोंको प्रणाम करे। इसी प्रकार स्वधर्मका अनुष्ठान करनेवाले आचार्य आदिको नमस्कार एवं अभिवादन करे। उनका कुशल-समाचार पूछे। पहलेके जो शूद्र आश्रमके कार्यमें सिद्धहस्त हों, उनका स्वयं भी सदा अनुकरण करे, उनके समान कार्यपरायण हो। अपने समानधर्मा शूद्रको प्रणाम करे, दूसरे शूद्रोंकी कदापि नहीं ।।

संन्यासियों अथवा आश्रमके दूसरे व्यक्तियोंको कहे बिना ही प्रतिदिन नियमपूर्वक उठे और झाड़ू देकर आश्रमकी भूमिको लीप-पोत दे ।।

तत्पश्चात्‌ धर्मके अनुसार फूलोंका संग्रह करके पूजनीय देवताओंकी उन फूलोंद्वारा पूजा करे। इसके बाद आश्रमसे निकलकर तुरंत ही दूसरे कार्यमें लग जाय ।।

आश्रमवासियोंके स्वाध्यायमें विघ्न न पड़े, इसके लिये सदा सचेष्ट रहे। जो स्वाध्यायमें विघ्न डालता है, वह पापका भागी होता है ।।

अपने-आपको इस प्रकार सावधानीके साथ सेवामें लगाये रखना चाहिये, जिससे वे साधु पुरुष प्रसन्न हों। शूद्रकों सदा इस प्रकार विचार करना चाहिये कि “मैं तो शास्त्रोंमें धर्मतः तीनों वर्णोका सेवक बताया गया हूँ। फिर जो संन्यास-आश्रममें रहकर जो कुछ मिल जाय, उसीसे निर्वाह करनेवाले बड़े-बूढ़े संन्यासी हैं, उनकी सेवाके विषयमें तो कहना ही क्या है? (उनकी सेवा करना तो मेरा परम धर्म है ही) ।।

“जो केवल ज्ञानदर्शी, वीतराग संन्यासी हैं, उनकी सेवा मुझे विशेषरूपसे मनको वशमें रखते हुए करनी चाहिये ।।

“उनकी कृपा और तपस्यासे मैं मनोवांछित शुभगति प्राप्त कर लूँगा।' ऐसा निश्चय करके यदि शाूद्र पूर्वोक्त विधिसे संन्यासियोंका सेवन करे तो परम गतिको प्राप्त होता है ।।

शूद्र सेवाकर्मसे जिस मनोवांछित गतिको प्राप्त कर लेता है, वैसी गति दान तथा उपवास आदिके द्वारा भी नहीं प्राप्त कर सकता ।।

मनुष्य जैसे जलसे कपड़ा धोता है, उस जलकी स्वच्छताके अनुसार ही वह वस्त्र स्वच्छ होता है ।।

शूद्र भी इसी मार्गसे चलकर जैसे पुरुषका सेवन करता है, संसर्गवश वह शीघ्र वैसा हो जाता है, इसमें संशय नहीं है ।।

अतः शूद्रको चाहिये कि अपने मनको वशमें करके प्रयत्नपूर्वक संन्यासियोंकी सेवा करे ।।

जो राह चलनेसे थके-माँदे कष्ट पा रहे हों तथा रोगसे पीड़ित हों, उन संन्यासियोंकी उस आपत्तिके समय यत्न और नियमके साथ विशेष सेवा करे ।।

उनके कुशासन, मृगचर्म और भिक्षापात्रकी भी देखभाल करे तथा उनकी रुचिके अनुसार सारा कार्य करता रहे ।।

सब कार्य इस प्रकार सावधानीसे करे, जिससे कोई अपराध न बनने पावे। संन्यासी यदि रोगग्रस्त हो जायेँ तो सदा उद्यत रहकर उनके कपड़े धोवे। उनके लिये ओषधि ले आवे तथा उनकी चिकित्साके लिये प्रयत्न करे ।।

भिक्षुक बीमार होनेपर भी भिक्षाटनके लिये जाय। विद्वान्‌ चिकित्सकोंके यहाँ उपस्थित हो तथा रोग-निवारणके लिये उपयुक्त विशुद्ध ओषधियोंका संग्रह करे ।।

जो चिकित्सक प्रसन्नतापूर्वक ओषधि दे, उसीसे संन्यासीको औषध लेना चाहिये। अश्रद्धापूर्वक दी हुई ओषधियोंको संन्यासी अपने उपयोगमें न ले ।।

जो श्रद्धापूर्वक दी गयी और श्रद्धासे ही ग्रहण की गयी हो, उसी ओषधिके सेवनसे धर्म होता है और रोगोंसे छुटकारा भी मिलता है ।।

शूद्रको चाहिये कि जबतक यह शरीर छूट न जाय तबतक इसी प्रकार विधिपूर्वक सेवा करता रहे। धर्मका उल्लंघन करके उन साधु-संन्यासियोंके प्रति विपरीत आचरण न करे ।।

शीत-उष्ण आदि सारे द्वन्ध स्वभावसे ही आते-जाते रहते हैं, समस्त पदार्थ स्वभावसे ही उत्पन्न होते और नष्ट हो जाते हैं। सारे त्रिगुणमय पदार्थ समुद्रकी लहरोंके समान उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं ।।

जो बुद्धिमान्‌ एवं तत्त्वज्ञ पुरुष ऐसा जानता है, वह जलसे निर्लिप्त रहनेवाले पद्मपत्रके समान पापसे लिप्त नहीं होता ।।

इस प्रकार शूद्रोंकी आलस्यशून्य होकर संन्यासियोंकी सेवाके लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये। वह सब प्रकारकी छोटी-बड़ी सेवाओंद्वारा ऐसी चेष्टा करे, जिससे वे संन्यासी सदा संतुष्ट रहें ।।

भिक्षुका अपराध कभी न करे, उसकी अवहेलना भी न करे, उसकी कड़ी बातका कभी उत्तर न दे और यदि वह कुपित हो तो उसे प्रसन्न करनेकी चेष्टा करे ।।

सदा कल्याणकारी बात ही बोले और प्रसन्नतापूर्वक कल्याणकारी कर्म ही करे। संन्यासी कुपित हो तो उसके सामने चुप ही रहे, बातचीत न करे ।।

संन्यासीको चाहिये कि भाग्यसे कोई वस्तु मिले या न मिले, जो कुछ प्राप्त हो उसीसे जीवन-निर्वाह एवं शरीरका पोषण करे ।।

जो क्रोधी हो, उससे किसी वस्तुकी याचना न करे। जो ज्ञानसे द्वेष रखता हो, उससे भी कोई वस्तु न माँगे। स्थावर और जंगम सभी प्राणियोंपर दया करे। जैसे अपने ऊपर उसी प्रकार दूसरोंपर समतापूर्ण दृष्टि डाले ।।

संन्यासी पुण्यतीर्थोंका निरन्तर सेवन करे, नदियोंके तटपर कुटी बनाकर रहे। अथवा सूने घरमें डेरा डाले। वनमें वृक्षोंके नीचे अथवा पर्वतोंकी गुफाओंमें निवास करे। सदा वनमें विचरण करे। वेदरूपी वनका आश्रय ले, किसी भी स्थानमें एक रात या दो रातससे अधिक न रहे। कहीं भी आसक्त न हो ।।

संन्यासी जंगली फल-मूल अथवा सूखे पत्तेका आहार करे। वह भोगके लिये नहीं, शरीरयात्राके निर्वाहके लिये भोजन करे ।।

वह धर्मतः प्राप्त अन्नका ही भोजन करे। कामना-पूर्वक कुछ भी न खाय। रास्ता चलते समय वह दो हाथ आगेतककी भूमिपर ही दृष्टि रखे और एक दिनमें एक कोससे अधिक न चले ।।

मान हो या अपमान--वह दोनों अवस्थाओंमें समान भावसे रहे। मिट्टीके ढेले, पत्थर और सुवर्णको एक समान समझे। समस्त प्राणियोंको निर्भय करे और सबको अभयकी दक्षिणा दे ।।

शीत-उष्ण आदि द्वद्धोंसे निर्विकार रहे, किसीको नमस्कार न करे। सांसारिक सुख और परिग्रहसे दूर रहे। ममता और अहंकारको त्याग दे। समस्त प्राणियोंमेंसे किसीके भी आश्रित न रहे ।।

वस्तुओंके स्वरूपके विषयमें विचार करके उनके तत्त्वको जाने। सदा सत्यमें अनुरक्त रहे। ऊपर, नीचे या अगल-बगलमें कहीं किसी वस्तुकी कामना न करे ।।

इस प्रकार विधिपूर्वक यतिधर्मका पालन करनेवाला संन्यासी कालके परिणामवश अपने शरीरको पके हुए फलकी भाँति त्यागकर सनातन ब्रह्ममें प्रविष्ट हो जाता है ।।

वह ब्रह्म निरामय, अनादि, अनन्त, सौम्यगुणसे युक्त, चेतनासे ऊपर उठा हुआ, अनिर्वचनीय, बीजहीन, इन्द्रियातीत, अजन्मा, अजेय, अविनाशी, अभेद्य, सूक्ष्म, निर्मुण, सर्वशक्तिमान्‌, निर्विकार, भूत, वर्तमान और भविष्य कालका स्वामी तथा परमेश्वर है। वही अव्यक्त, अन्तर्यामी पुरुष और क्षेत्र भी है। जो उसे जान लेता है, वह मोक्षको प्राप्त कर लेता है ।।

इस प्रकार वह भिक्षु घोंसला छोड़कर उड़ जानेवाले पक्षीकी भाँति यहीं इस शरीरको त्यागकर समस्त पापोंको ज्ञानाग्निसे दग्ध कर देनेके कारण निर्वाण--मीक्ष प्राप्त कर लेता है।।

मनुष्य जो शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसका वैसा ही फल भोगता है। बिना किये हुए कर्मका फल किसीको नहीं भोगना पड़ता है तथा किये हुए कर्मका फल भोगके बिना नष्ट नहीं होता है ।।

जो शुभ कर्मका आचरण करता है, उसे शुभ फलकी ही प्राप्ति होती है और जो अशुभ कर्म करता है, वह अशुभ फलका ही भागी होता है ।।

अतः जो अपना कल्याण चाहता हो, वह शुभ-कर्मोंका ही आचरण करे। अशुभ कर्मोको त्याग दे। ऐसा करनेसे वह शुभ फलोंको ही प्राप्त करेगा ।।

मनुष्यको चाहिये कि वह अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके शास्त्रोंके ज्ञानसे सम्पन्न हो। शास्त्रके ज्ञानसे ही मनुष्यको अनामय गतिकी प्राप्ति हो सकती है ।।

साधु पुरुष जिसका अन्वेषण करते हैं, वह परमगति शास्त्रोंमें देखी गयी है। जहाँ पहुँचकर मनुष्य अनन्त दुःखका परित्याग करके अमृतत्वको प्राप्त कर लेता है ।।

इस धर्मका आश्रय लेकर पापयोनिमें उत्पन्न हुए पुरुष तथा स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र भी परमगतिको प्राप्त कर लेते हैं ।।

फिर जो दिद्वान्‌ ब्राह्मण अथवा बहुश्रुत क्षत्रिय है, उसकी सदगतिके विषयमें क्या कहना है। जिस देहधारीके पाप क्षीण नहीं हुए हैं, उसे ज्ञान नहीं होता। जब मनुष्यको ज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है, तब वह कृतकृत्य हो जाता है ।।

ज्ञान या विज्ञानको प्राप्त कर लेनेपर भी दोषदृष्टिसे रहित हो गुरुजनोंके प्रति पहले हीजैसा सद्भाव रखे। अथवा एकाग्रचित्त होकर पहलेसे भी अधिक श्रद्धाभाव रखे ।।

शिष्य जिस तरह गुरुका अपमान करता है, उसी प्रकार गुरु भी शिष्योंके प्रति बर्ताव करता है। अर्थात्‌ शिष्यको अपने कर्मके अनुसार फल मिलता है। गुरुका अपमान करनेवाले शिष्यका किया हुआ वेद-शास्त्रोंका अध्ययन व्यर्थ हो जाता है। उसका सारा ज्ञान अज्ञानरूपमें परिणत हो जाता है ।।

वह नरकमें जानेके लिये अशुभ मार्गको ही प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है। उसका पुण्य नष्ट हो जाता है और ज्ञान अज्ञान हो जाता है ।।

जिसने पहले कभी कल्याणका दर्शन नहीं किया है ऐसा मनुष्य शास्त्रोक्त विधिको न देखनेके कारण अभिमानवश मोहको प्राप्त हो जाता है। अतः उसे तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती ।।

अत: किसीको भी ज्ञानका अभिमान नहीं करना चाहिये। ज्ञानका फल है शान्ति, इसलिये सदा शान्तिके लिये ही प्रयत्न करे ।।

मनका निग्रह और इन्द्रियोंका संयम करके सदा क्षमाशील तथा अदोषदर्शी होकर गुरुजनोंकी सेवा करनी चाहिये ।।

धैर्यके द्वारा उपस्थ और उदरकी रक्षा करे। नेत्रोंके द्वारा हाथ और पैरोंकी रक्षा करे। मनसे इन्द्रियोंक विषयोंको बचावे और मनको बुद्धिमें स्थापित करे ।।

पहले शुद्ध एवं घिरे हुए स्थानमें जाकर आसन ले, उसके ऊपर धैर्यपूर्वक बैठे और शास्त्रोक्त विधिके अनुसार ध्यानके लिये प्रयत्न करे ।।

विवेकयुक्त साधक अपने हृदयमें विराजमान परमात्मदेवका साक्षात्कार करे। जैसे आकाशकमें विद्युतका प्रकाश देखा जाता है तथा जिस प्रकार किरणोंवाले सूर्य प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार उस परमात्मदेवको धूमरहित अग्निकी भाँति तेजस्वी स्वरूपसे प्रकाशित देखे। हृदयदेशमें विराजमान उन अविनाशी सनातन परमेश्वरका बुद्धिरूपी नेत्रोंके द्वारा दर्शन करे ।।

जो योगयुक्त नहीं है ऐसा पुरुष अपने हृदयमें विराजमान उस महेश्वरका साक्षात्कार नहीं कर सकता। योगयुक्त पुरुष ही मनको हृदयमें स्थापित करके बुद्धिके द्वारा उस अन्तर्यामी परमात्माका दर्शन करता है ।।

यदि इस प्रकार हृदयदेशमें ध्यान-धारणा न कर सके तो यथावत्‌्रूपसे योगका आश्रय ले सांख्यशास्त्रके अनुसार उपासना करे ।।

इस शरीरमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच भूत और सोलहवाँ मन--ये सोलह विकार हैं ।।

पाँच तन्मात्राएँ, मन, अहंकार और अव्यक्त--ये आठ प्रकृतियाँ हैं ।।

ये आठ प्रकृतियाँ और पूर्वोक्त सोलह विकार--इन चौबीस तत्त्वोंको यहाँ रहनेवाले तत्त्वज्ञ पुरुषको जानना चाहिये। इस प्रकार प्रकृति-पुरुषका विवेक हो जानेसे मनुष्य शरीरके बन्धनसे ऊपर उठकर भवसागरसे पार हो जाता है, अन्यथा नहीं ।।

ज्ञानयुक्त बुद्धिवाले पुरुषको यही सांख्ययोग मानना चाहिये। प्रतिदिन शान्तचित्त हो अपने अन्तःकरणको पवित्र बनाने और अपना हित-साधन करनेके लिये इसी प्रकार उपर्युक्त तत्त्वोंका विचार करनेसे मनुष्यको यथार्थ तत्त्वका बोध हो जाता है और वह बन्धनसे छूट जाता है ।।

शुद्ध तत्त्वार्थको तत्त्वसे जाननेवाला पुरुष अवयवरहित द्वितीय ब्रह्म हो जाता है ।

मनुष्यको सेदा सत्पुरुषोंके समीप रहना चाहिये। विद्यामें बड़े-चढ़े पुरुषोंका सेवन करना चाहिये। जो जिसके निकट रहता है, उसके समान वर्णका हो जाता है। जैसे नील पक्षी मेरु पर्वतका आश्रय लेनेसे सुवर्णके समान रंगका हो जाता है ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्छिर! शास्त्रोंके तात्पर्यको जाननेवाले महामुनि पराशर इस प्रकार चारों वर्णोके लिये कर्तव्यका विधान बताकर तथा शुश्रूषा और समाधिसे प्राप्त होनेवाली गतिका निरूपण करके एकाग्रचित्त हो अपने आश्रमको चले गये ।।

 (दाक्षिणात्य प्रतिमें अध्याय समाप्त)

[सबके पूजनीय और वन्दनीय कौन हैं--इस विषयमें इन्द्र और मातलिका संवाद]

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! इस लोकमें महाभाग देवता किन महात्माओंको मस्तक झुकाते हैं? मैं उन समस्त ऋषियोंका यथार्थ परिचय सुनना चाहता हूँ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें प्राचीन बातोंको जाननेवाले महाज्ञानी ब्राह्मण इस इतिहासका वर्णन करते हैं। तुम उस इतिहासको सुनो ।।

जब इन्द्र वृत्रासुरको मारकर लौटे, उस समय देवता उन्हें आगे करके खड़े थे। महर्षिगण महेन्द्रकी स्तुति करते थे। हरित वाहनोंवाले देवराज इन्द्र रथपर बैठकर उत्तम शोभासे सम्पन्न हो रहे थे। उसी समय मातलिने हाथ जोड़कर देवराज इन्द्रसे कहा ।।

मातलि बोले--भगवन्‌! जो सबके द्वारा वन्दित होते हैं, उन समस्त देवताओंके आप अगुआ हैं; परन्तु आप भी इस जगतमें जिनको मस्तक झुकाते हैं, उन महात्माओंका मुझे परिचय दीजिये ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! मातलिकी वह बात सुनकर शचीपति देवराज इन्द्रने उपर्युक्त प्रश्न पूछनेवाले अपने सारथिसे इस प्रकार कहा ।।

इन्द्र बोले--मातले! धर्म, अर्थ और कामका चिन्तन करते हुए भी जिनकी बुद्धि कभी अधर्ममें नहीं लगती, मैं प्रतिदिन उन्‍्हींको नमस्कार करता हूँ ।।

मातले! जो रूप और गुणसे सम्पन्न हैं तथा युवतियोंके हृदय-मन्दिरमें हठात्‌ प्रवेश कर जाते हैं--अर्थात्‌ जिन्हें देखते ही युवतियाँ मोहित हो जाती हैं, ऐसे पुरुष यदि काम-भोगसे दूर रहते हैं तो मैं उनके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ ।।

मातले! जो अपनेको प्राप्त हुए भोगोंमें ही संतुष्ट हैं--दूसरोंसे अधिककी इच्छा नहीं रखते। जो सुन्दर वाणी बोलते हैं और प्रवचन करनेमें कुशल हैं, जिनमें अहंकार और कामनाका सर्वथा अभाव है तथा जो सबसे अर्घ्य पानेके योग्य हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ ।।

धन, विद्या और ऐश्वर्य जिनकी बुद्धिको विचलित नहीं कर सकते तथा जो चंचल हुई बुद्धिको भी विवेकसे काबूमें कर लेते हैं, उनकी मैं नित्य पूजा करता हूँ ।।

मातले! जिनका अर्थ और काम धर्ममूलक होकर वृद्धिको प्राप्त हुआ है तथा जिसके धर्म और अर्थ नियत हैं, उनको मैं प्रणाम करता हूँ ।।

धर्ममूलक धनकी कामना रखनेवाले ब्राह्मणोंको तथा गौओं और पतिव्रता नारियोंको मैं नित्य प्रणाम करता हूँ ।।

मातले! जो जीवनकी पूर्व अवस्थामें मानवभोगोंका उपभोग करके तपस्याद्वारा स्वर्गमें आते हैं, उनका मैं सदा ही पूजन करता हूँ ।।

जो भोगोंसे दूर रहते हैं, जिनकी कहीं भी आसक्ति नहीं है, जो सदा धर्ममें तत्पर रहते हैं, इन्द्रियोंको काबूमें रखते हैं, जो सच्चे संन्यासी हैं और पर्वतोंके समान कभी विचलित नहीं होते हैं, उन श्रेष्ठ पुरुषोंकी मैं मनसे पूजा करता हूँ ।।

मातले! जिनकी विद्या ज्ञानके कारण स्वच्छ है, जो सुप्रसिद्ध धर्मके पालनकी इच्छा रखते हैं तथा जिनके शौचाचारकी प्रशंसा दूसरे लोग करते हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूँ ।।

(दाक्षिणात्य प्रतिमें अध्याय समाप्त)

[सरोवर खोदाने और वृक्ष लगानेका माहात्म्य]

युधिष्ठिरने कहा--कुरुपुंगव! भरतश्रेष्ठ! सरोवरोंके बनानेका जो फल है, उसे आज मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! जो तालाब बनवाता है वह पुरुष विचित्र धातुओंसे विभूषित धनाध्यक्ष कुबेरके समान दर्शनीय है। वह तीनों लोकोंमें सर्वत्र पूजित होता है ।।

तालाबका संस्थापन श्रेष्ठ एवं कीर्तिजनक है। वह इस लोक और परलोकमें भी उत्तम निवासस्थान है। वह पुत्रका घर तथा धनकी वृद्धि करनेवाला है ।।

मनीषी पुरुषोंने सरोवरोंको धर्म, अर्थ और काम तीनोंका फल देनेवाला बताया है। तालाब देशमें मूर्तिमान्‌ पुण्यस्वरूप है और क्षेत्रमें देशका भारी आश्रय है ।।

मैं तालाबको चारों (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) प्रकारके प्राणियोंके लिये उपयोगी देखता हूँ। जगतमें जितने भी सरोवर हैं, वे सभी उत्तम सम्पत्ति प्रदान करते हैं ।।

देवता, मनुष्य, गन्धर्व, पितर, नाग, राक्षस तथा स्थावर भूत--ये सभी जलाशयका आश्रय लेते हैं ।।

अतः सरोवर खोदवानेमें जो गुण हैं, उन सबका मैं तुमसे वर्णन करूँगा तथा ऋषियों ने तालाब खोदानेसे जिन फलोंकी प्राप्ति बतायी है, उनका भी परिचय दे रहा हूँ ।।

जिस सरोवरमें एक वर्षतक पानी ठहरता है, उसका फल मनीषी पुरुषोंने अग्निहोत्र बताया है अर्थात्‌ उसे खोदानेवालेको प्रतिदिन अग्निहोत्र करनेका पुण्य प्राप्त होता है ।।

जिसके तालाबमें गर्मीभर जल रहता है, उसके लिये ऋषियोंने वाजपेय यज्ञके फलकी प्राप्ति बतायी है ।।

जिसके खोदवाये हुए सरोवरमें सदा साधुपुरुष तथा गौएँ पानी पीती हैं, वह अपने कुलको तार देता है ।।

जिसके जलाशयमें प्यासी गौएँ पानी पीती हैं तथा तृषित मृग, पक्षी एवं मनुष्य अपनी प्यास बुझाते हैं, वह अश्वमेध यज्ञका फल पाता है ।।

मनुष्य उस तालाबमें जो जल पीते, स्नान करते और तटपर विश्राम लेते हैं, वह सारा पुण्य सरोवर बनवानेवालेको परलोकमें अक्षय होकर मिलता है ।।

शत्रुओंको संताप देनेवाले तात! जल विशेषरूपसे दुर्लभ वस्तु है; अतः जलदान करनेसे शाश्वत सिद्धि प्राप्त होती है ।।

तिल, जल, दीप, अन्न और रहनेके लिये घर दान करो, तथा बन्धु-बान्धवोंके साथ सदा आनन्दित रहो, क्योंकि ये सब वस्तुएँ मरे हुओंके लिये दुर्लभ हैं ।।

नरश्रेष्ठ जलका दान सभी दानोंसे गुरुतर है। वह समस्त दानोंसे बढ़कर है; अतः उसका दान अवश्य ही करना चाहिये ।।

इस प्रकार यह सरोवर खोदानेका उत्तम फल बताया गया है। इसके बाद वृक्ष लगानेका फल भली प्रकार बताऊँगा ।।

स्थावर भूतोंकी छः जातियाँ बतायी गयी हैं--वृक्ष, गुल्म, लता, वल्ली, त्वक्सार तथा तृण, वीरुध--ये वृक्षोंकी जातियाँ हैं। इनके लगानेसे ये-ये गुण बताये गये हैं ।।

कटहल और आम आदि वृक्ष जातिके अन्तर्गत हैं। मन्दार आदि गुल्म कोटियमें माने गये हैं। नागिका, मलिया आदि वल्लीके अन्तर्गत हैं। मालती आदि लताएँ हैं। बाँस और सुपारी आदिके पेड़ त्वक्सार जातिके अन्तर्गत हैं। खेतमें जो घास और अनाज उगते हैं, वे सब तृण जातिमें अन्तर्भूत हैं ।।

भरतनन्दन! वृक्ष लगानेसे मनुष्यलोकमें कीर्ति बनी रहती है और मृत्युके पश्चात्‌ स्वर्गलोकमें शुभ फलकी प्राप्ति होती है। वृक्ष लगानेवाला पुरुष पितरोंद्वारा भी सम्मानित होता है। देवलोकमें जानेपर भी उसका नाम नहीं नष्ट होता। वह अपने बीते हुए पूर्वजों और आनेवाली संतानोंको भी तार देता है। अत: वृक्ष अवश्य लगाने चाहिये ।।

जिसके कोई पुत्र नहीं हैं, उसके भी वृक्ष ही पुत्र होते हैं; इसमें संशय नहीं है। वृक्ष लगानेवाला पुरुष परलोकमें जानेपर स्वर्गमें अक्षय लोकोंको प्राप्त होता है ।।

तात! वृक्ष अपने फूलोंसे देवताओंका, फलोंसे पितरोंका तथा छायासे अतिथियोंका सदा पूजन करते रहते हैं ।।

किन्नर, नाग, राक्षस, देव, गन्धर्व, मनुष्य तथा ऋषिगण भी वृक्षोंका आश्रय लेते हैं ।।

फल और फूलोंसे भरे हुए वृक्ष इस जगतमें मनुष्योंको तृप्त करते हैं। जो वृक्ष दान करते हैं, उनके वे वृक्ष परलोकमें पुत्रकी भाँति पार उतारते हैं। अतः कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको सदा ही सरोवरके किनारे वृक्ष लगाना चाहिये ।।

वृक्ष लगाकर उनकी पुत्रोंकी भाँति रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि वे धर्मतः पुत्र माने गये हैं। जो तालाब बनवाता है और जो उसके किनारे वृक्ष लगाता है, जो द्विज यज्ञका अनुष्ठान करता है तथा दूसरे जो लोग सत्यभाषण करनेवाले हैं--वे सब-के-सब स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होते हैं ।।

इसलिये सरोवर खोदावे और उसके तटपर बगीचे भी लगावे। सदा नाना प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान करे और विधिपूर्वक सत्य बोले ।।

(दाक्षिणात्य प्रतिमें अध्याय समाप्त)

 (इस प्रकार श्रीमह्याभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें छत्रदान और उपानहदानकी प्रशंसानामक छानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठका १७५½ श्लोक मिलाकर कुल १९७½ श्लोक हैं)


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