सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ एकवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ एकवें अध्याय के श्लोक 1-29 का हिन्दी अनुवाद)
“ब्राह्मणोंके धनका अपहरण करनेसे प्राप्त होनेवाले दोषके विषयमें क्षत्रिय और चाण्डालका संवाद तथा ब्रह्मास्वकी रक्षामें प्राणोत्सर्ग करनेसे चाण्डालको मोक्षकी प्राप्ति”
युधिष्ठिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ! जो मूर्ख और मंदबुद्धि मानव क्रूरतापूर्ण कर्ममें संलग्न रहकर ब्राह्मणोंके धनका अपहरण करते हैं, वे किस लोकमें जाते हैं? ।।
भीष्मजीने कहा--राजन! ब्राह्मणोंके धनका बलपूर्वक अपहरण--यह सबसे बड़ा पातक है। ब्राह्मणोंका धन लूटनेवाले चाण्डाल-स्वभावयुक्त मनुष्य अपने कुलपरिवारसहित नष्ट हो जाते हैं ।।
भारत! इस विषयमें जानकार मनुष्य एक चाण्डाल और क्षत्रियबंधुका संवादविषयक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। २ ।।
क्षत्रियने पूछा--चाण्डाल! तू बूढ़ा हो गया है तो भी बालकों-जैसी चेष्टा करता है। कुत्तों और गधोंकी धूलिका सेवन करनेवाला होकर भी तू इन गौओंकी धूलिसे क्यों इतना उद्विग्न हो रहा है ।। ३ ।।
चाण्डालके लिये विहित कर्मकी श्रेष्ठ पुरुष निंदा करते हैं। तू गोधूलिसे ध्वस्त हुए अपने शरीरको क्यों जलके कुण्डमें डालकर धो रहा है? ।। ४ ।।
चाण्डालने कहा--राजन्! पहलेकी बात है--एक ब्राह्मणकी कुछ गौओंका अपहरण किया गया था। जिस समय वे गौएँ हरकर ले जायी जा रही थीं, उस समय उनकी दुग्धकणमिश्रित चरणधूलिने सोमरसपर पड़कर उसे दूषित कर दिया। उस सोमरसको जिन ब्राह्मणोंने पीया, वे तथा उस यज्ञकी दीक्षा लेनेवाले राजा भी शीघ्र ही नरकमें जा गिरे। उन यज्ञ करानेवाले समस्त ब्राह्मणोंसहित राजा ब्राह्मणके अपहृत धनका उपयोग करके नरकगामी हुए ।। ५-६ ||
जहाँ वे गौएँ हरकर लायी गयी थीं, वहाँ जिन मनुष्योंने उनके दूध, दही और घीका उपभोग किया, वे सभी ब्राह्मण और क्षत्रिय आदि नरकमें पड़े ।। ७ ।।
वे अपहृत हुई गौएँ जब दूसरे पशुओंको देखतीं और अपने स्वामी तथा बछड़ोंको नहीं देखती थीं, तब पीड़ासे अपने शरीरको कँपाने लगती थीं। उन दिनों सद्धावसे ही दूध देकर उन्होंने अपहरणकारी पति-पत्नीको तथा उनके पुत्रों और पौत्रोंको भी नष्ट कर दिया ।। ८ ।।
राजन! मैं भी उसी गाँवमें ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक जितेन्द्रियभावसे निवास करता था। नरेश्वर! एक दिन उन्हीं गौओंके दूध एवं धूलके कणसे मेरा भिक्षात्र भी दूषित हो गया ।। ९ ||
महाराज! उस भिक्षान्नको खाकर मैं चाण्डाल हो गया और ब्राह्मणके धनका अपहरण करनेवाले वे राजा भी नरकगामी हो गये ।। १० ।।
इसलिये कभी किंचिन्मात्र भी ब्राह्मणके धनका अपहरण न करे। ब्राह्मणके धूलधूसरित दुग्धरूप धनको खाकर मेरी जो दशा हुई है, उसे आप प्रत्यक्ष देख लें || ११ ।।
इसीलिये विद्वान् पुरुषको सोमरसका विक्रय भी नहीं करना चाहिये। मनीषी पुरुष इस जगत्में सोमरसके विक्रयकी बड़ी निंदा करते हैं || १२ ।।
तात! जो लोग सोमरसको खरीदते हैं और जो लोग उसे बेचते हैं, वे सभी यमलोकमें जाकर रौरव नरकमें पड़ते हैं ।। १३ ।।
वेदवेत्ता ब्राह्मण यदि गौओंके चरणोंकी धूलि और दूधसे दूषित सोमको विधिपूर्वक बेचता है अथवा व्याजपर रुपये चलाता है तो वह जल्दी ही नष्ट हो जाता है || १४ ।।
वह तीस नरकोंमें पड़कर अंतमें अपनी ही विष्ठापर जीनेवाला कीड़ा होता है। कुत्तोंको पालना, अभिमान तथा मित्रकी स्त्रीसे व्यभिचार--इन तीनों पापोंको तराजूपर रखकर यदि धर्मतः तौला जाय तो अभिमानका ही पलड़ा भारी होगा || १५६ ||
आप मेरे इस पापी कुत्तेको देखिये, यह कान्तिहीन, सफेद और दुर्बल हो गया है। यह पहले मनुष्य था। परंतु समस्त प्राणियोंके प्रति अभिमान रखनेके कारण इस दुर्गतिको प्राप्त हुआ है || १६३ ||
तात! प्रभो! मैं भी दूसरे जन्ममें धनसम्पन्न महान् कुलमें उत्पन्न हुआ था। ज्ञानविज्ञानमें पारंगत था। इन सब दोषोंको जानता था तो भी अभिमानवश सदा सब प्राणियोंपर क्रोध करता और पशुओंके पृष्ठका मांस खाता था; उसी दुराचार और अभक्ष्यभक्षणसे मैं इस दुरवस्थाको प्राप्त हुआ हूँ। कालके इस उलट-फेरको देखिये ।।
मेरी दशा ऐसी हो रही है, मानो मेरे कपड़ोंके छोरमें आग लग गयी हो अथवा तीखे मुखवाले भ्रमरोंने मुझे डंक मार-मारकर पीड़ित कर दिया हो। मैं रजोगुणसे युक्त हो अत्यंत रोष और आवेशमें भरकर चारों ओर दौड़ रहा हूँ। मेरी दशा तो देखिये || २०३ ।।
गृहस्थ मनुष्य वेद-शास्त्रोंके स्वाध्यायद्वारा तथा नाना प्रकारके दानोंसे अपने महान् पापको दूर कर देते हैं। जैसा कि मनीषी पुरुषोंका कथन है || २१३ ।।
पृथ्वीनाथ! आश्रममें रहकर सब प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्ता हो वेदपाठ करनेवाले ब्राह्मगको यदि वह पापाचारी हो तो भी उसके द्वारा पढ़े जानेवाले वेद उसका उद्धार कर देते हैं ।। २२६ ।।
क्षत्रियशिरोमणे! मैं पापयोनिमें उत्पन्न हुआ हूँ। मुझे यह निश्चय नहीं हो पाता कि मैं किस उपायसे मुक्त हो सकूँगा? ।। २३ ।।
नरेश्वर! पहलेके किसी शुभ कर्मके प्रभावसे मुझे पूर्व-जन्मकी बातोंका स्मरण हो रहा है, जिससे मैं मोक्ष पानेकी इच्छा करता हूँ ।। २४ ।।
सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ! मैं आपकी शरणमें आकर अपना यह संशय पूछ रहा हूँ। आप मुझे इसका समाधान बताइये। मैं चाण्डाल-योनिसे किस प्रकार मुक्त हो सकता हूँ? || २५ ।।
क्षत्रियने कहा--चाण्डाल! तू उस उपायको समझ ले, जिससे तुझे मोक्ष प्राप्त होगा। यदि तू ब्राह्मणकी रक्षाके लिये अपने प्राणोंका परित्याग करे तो तुझे अभीष्ट गति प्राप्त होगी ।। २६ ।।
यदि ब्राह्मणकी रक्षाके लिये तू अपना यह शरीर समराग्निमें होमकर कच्चा मांस खानेवाले जीव-जन्तुओंको बाँट दे तो प्राणोंकी आहुति देनेपर तेरा छुटकारा हो सकता है, अन्यथा तू मोक्ष नहीं पा सकेगा ।। २७ ।।
भीष्मजी कहते हैं--परंतप! क्षत्रियके ऐसा कहनेपर उस चाण्डालने ब्राह्मणके धनकी रक्षाके लिये युद्धके मुहानेपर अपने प्राणोंकी आहुति दे अभीष्ट गति प्राप्त कर ली || २८ ।।
बेटा! भरतश्रेष्ठ! महाबाहो! यदि तुम सनातन गति पाना चाहते हो तो तुम्हें ब्राह्मणके धनकी पूरी रक्षा करनी चाहिये || २९ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अंतर्गत दानधर्मपर्वमें क्षत्रिय और चाण्डालका संवादविषयक एक सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ३० श्लोक हैं)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ दोवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ दोवें अध्याय के श्लोक 1-63 का हिन्दी अनुवाद)
“भिन्न-भिन्न कर्मोके अनुसार भिन्न-भिन्न लोकोंकी प्राप्ति बतानेके लिये धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मणके संवादका उल्लेख”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! (मृत्युके पश्चात्) सभी पुण्यात्मा एक ही तरहके लोकमें जाते हैं या वहाँ उन्हें प्राप्त होनेवाले लोकोंमें भिन्नता होती है? दादाजी! यह मुझे बताइये ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--कुन्तीनंदन! मनुष्य अपने कर्मोके अनुसार भिन्न-भिन्न लोकोमें जाते हैं। पुण्यकर्म करनेवाले पुण्यलोकोंमें जाते हैं और पापाचारी मनुष्य पापमय लोकोंमें ।। २ ।।
तात! इस विषयमें विज्ञ पुरुष इन्द्र और गौतम मुनिके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।।
पूर्वकालमें गौतम नामवाले एक ब्राह्मण थे, जिनका स्वभाव बड़ा कोमल था। वे मनको वशमें रखनेवाले और जितेन्द्रिय थे। उन व्रतधारी मुनिने विशाल वनमें एक हाथीके बच्चेको अपने माताके बिना बड़ा कष्ट पाते देखकर उसे कृपापूर्वक जिलाया। दीर्घकालके पश्चात् वह हाथी बढ़कर अत्यंत बलवान् हो गया ।।
उस महानागके कुम्भस्थलसे फ़ूटकर मदकी धारा बहने लगी। मानो पर्वतसे झरना झर रहा हो। एक दिन इन्द्रने राजा धृतराष्ट्रके रूपमें आकर उस हाथीको अपने अधिकारमें कर लिया ।। ६ ।।
कठोर व्रतका पालन करनेवाले महातपस्वी गौतमने उस हाथीका अपहरण होता देख राजा धृतराष्ट्रसे कहा-- ।।
“कृतज्ञताशून्य राजा धृतराष्ट्र! तुम मेरे इस हाथीको न ले जाओ। यह मेरा पुत्र है। मैंने बड़े दुःखसे इसका पालन-पोषण किया है। सत्पुरुषोंमें सात पग साथ चलनेमात्रसे मित्रता हो जाती है। इस नाते हम और तुम दोनों मित्र हैं। मेरे इस हाथीको ले जानेसे तुम्हें मित्रद्रोहका पाप लगेगा। तुम्हें यह पाप न लगे, ऐसी चेष्टा करो ।। ८ ।।
“राजन! यह मुझे समिधा और जल लाकर देता है। मेरे आश्रममें जब कोई नहीं रहता है, तब यही रक्षा करता है। आचार्यकुलमें रहकर इसने विनयकी शिक्षा ग्रहण की है। गुरुसेवाके कार्यमें यह पूर्णरूपसे संलग्न रहता है। यह शिष्ट, जितेन्द्रिय, कृतज्ञ तथा मुझे सदा ही प्रिय है। मैं चिल्ला-चिल्लाकर कहता हूँ, तुम मेरे इस हाथीको न ले जाओ' ।। ९-१० ||
धृतराष्ट्रने कहा--महर्षे! मैं आपको एक हजार गौएँ दूँगा। सौ दासियाँ और पाँच सौ स्वर्णमुद्राएँ प्रदान करूँगा और भी नाना प्रकारका धन समर्पित करूँगा। ब्राह्मणके यहाँ हाथीका क्या काम है? ।। ११ ।।
गौतम बोले--राजन! वे गौएँ, दासियाँ, स्वर्णमुद्राएँ, नाना प्रकारके रत्न तथा और भी तरह-तरहके धन तुम्हारे ही पास रहें। नरेन्द्र! ब्राह्मणके यहाँ धनका क्या काम है? ।। १२ ।।
धृतराष्ट्रने कहा--विप्रवर गौतम! ब्राह्मणोंको हाथियोंसे कोई प्रयोजन नहीं है। हाथियोंके समूह तो राजाओंके ही काम आते हैं। हाथी मेरा वाहन है, अतः इस श्रेष्ठ हाथीको ले जानेमें कोई अधर्म नहीं है। आप इसकी ओरसे अपनी तृष्णा हटा लीजिये ।। १३ ।।
गौतमने कहा--महात्मन्! जहाँ जाकर पुण्यकर्मा पुरुष आनंदित होता है और जहाँ जाकर पापकर्मा मनुष्य शोकमें डूब जाता है, उस यमराजके लोकमें मैं तुमसे अपना हाथी वापस लूँगा ।। १४ ।।
धृतराष्ट्रने कहा--जो निष्क्रिय, नास्तिक, श्रद्धाहीन, पापात्मा और इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त हैं, वे ही यमयातनाको प्राप्त होते हैं; परंतु राजा धृतराष्ट्रको वहाँ नहीं जाना है।।
गौतम बोले--जहाँ कोई भी झूठ नहीं बोलता, जहाँ सदा सत्य ही बोला जाता है और जहाँ निर्बल मनुष्य भी बलवान्से अपने प्रति किये गये अन्यायका बदला लेते हैं, मनुष्योंको संयममें रखनेवाली यमराजकी वही पुरी संयमनी नामसे प्रसिद्ध है। वहीं मैं तुमसे अपना हाथी वसूल करूँगा ।। १६ ।।
धृतराष्ट्रने कहा--महर्षे! जो मदमत्त मनुष्य बड़ी बहिन, माता और पिताके साथ शत्रुके समान बर्ताव करते हैं, उन्हींके लिये यह यमराजका लोक है, परंतु धृतराष्ट्र वहाँ जानेवाला नहीं है ।। १७ ।।
गौतमने कहा--महान् सौभाग्यशाली मंदाकिनी नदी राजा कुबेरके नगरमें विराज रही हैं, जहाँ नागोंका ही प्रवेश होना संभव है, गंधर्व, यक्ष और अप्सराएँ उस मंदाकिनीका सदा सेवन करती हैं; वहाँ जाकर मैं तुमसे अपना हाथी वसूल करूँगा ।। १८ ।।
धृतराष्ट्र बोले--जो सदा अतिथियोंकी सेवामें तत्पर रहकर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले हैं, जो लोग ब्राह्मणको आश्रयदान करते हैं, तथा जो अपने आश्रितोंको बाँटकर शेष अन्नका भोजन करते हैं, वे ही लोग उस मंदाकिनीतटकी शोभा बढ़ाते हैं (राजा धृतराष्ट्रको तो वहाँ भी नहीं जाना है) ।। १९ ।।
गौतम बोले--मेरुपर्वतके सामने जो रमणीय वन शोभा पाता है, जहाँ सुंदर फूलोंकी छटा छायी रहती है और किन्नरियोंके मधुर गीत गूँजते रहते है, जहाँ देखनेमें सुंदर विशाल जम्बूवृक्ष शोभा पाता है, वहाँ पहुँचकर भी मैं तुमसे अपना हाथी वापस लूँगा || २० ।।
धृतराष्ट्र बोले--महर्षे! जो ब्राह्मण कोमलस्वभाव, सत्यशील, अनेक शास््त्रोंके विद्वान् तथा सम्पूर्ण भूतोंको प्यार करनेवाले हैं, जो इतिहास और पुराणका अध्ययन करते तथा ब्राह्मणोंको मधुर भोजन अर्पित करते हैं; ऐसे लोगोंके लिये ही यह पूर्वोक्त लोक है; परंतु राजा धृतराष्ट्र वहाँ भी जानेवाला नहीं है। आपको जो-जो स्थान विदित हैं, उन सबका यहाँ वर्णन कर जाइये। मैं जानेके लिये उतावला हूँ। यह देखिये, मैं चला ।।
गौतमने कहा--सुंदर-सुंदर फूलोंसे सुशोभित, किन्नर-राजोंसे सेवित तथा नारद, गंधर्व और अप्सराओंको सर्वदा प्रिय जो नंदननामक वन है, वहाँ जाकर भी मैं तुमसे अपना हाथी वापस लूँगा ।। २३ ।।
धृतराष्ट्र बोले--महर्ष! जो लोग नृत्य और गीतमें निपुण हैं; कभी किसीसे कुछ याचना नहीं करते हैं तथा सदा सज्जनोंके साथ विचरण करते हैं, ऐसे लोगोंके लिये ही यह नंदनवनका जगत् है; परंतु राजा धृतराष्ट्र वहाँ भी जानेवाला नहीं है | २४ ।।
गौतम बोले--नरेन्द्र! जहाँ रमणीय आकृतिवाले उत्तर कुरुके निवासी अपूर्व शोभा पाते हैं, देवताओंके साथ रहकर आनंद भोगते हैं, अग्नि, जल और पर्वतसे उत्पन्न हुए दिव्य मानव जिस देशमें निवास करते हैं, जहाँ इन्द्र सम्पूर्ण कामनाओंकी वर्षा करते हैं, जहाँकी स्त्रियाँ इच्छानुसार विचरनेवाली होती हैं तथा जहाँ स्त्रियों और पुरुषोंमें ईर्ष्याका सर्वथा अभाव है, वहाँ जाकर मैं तुमसे अपना हाथी वापस लूँगा || २५-२६ ।।
धृतराष्ट्रने कहा--महर्षे! जो समस्त प्राणियोंमें निष्काम हैं, जो मांसाहार नहीं करते, किसी भी प्राणीको दण्ड नहीं देते, स्थावर-जंगम प्राणियोंकी हिंसा नहीं करते, जिनके लिये समस्त प्राणी अपने आत्माके ही तुल्य हैं, जो कामना, ममता और आसक्तिसे रहित हैं, लाभ-हानि, निंदा तथा प्रशंसामें जो सदा समभाव रखते हैं, ऐसे लोगोंके लिये ही यह उत्तर कुरुनामक लोक है; परंतु धृतराष्ट्रको वहाँ भी नहीं जाना है ।। २७-२८ ।।
गौतमने कहा--राजन्! उससे भिन्न बहुत-से सनातन लोक हैं, जहाँ पवित्र गंध छायी रहती है। वहाँ रजोगुण तथा शोकका सर्वथा अभाव है। महात्मा राजा सोमके लोकमें उनकी स्थिति है। वहाँ पहुँचकर मैं तुमसे अपना हाथी वापस लूँगा ।। २९ ।।
धृतराष्ट्रने कहा--महर्षे! जो सदा दान करते हैं, किंतु दान लेते नहीं, जिनकी दृष्टिमें सुयोग्य पात्रके लिये कुछ भी अदेय नहीं है, जो सबका अतिथि-सत्कार करते तथा सबके प्रति कृपाभाव रखते हैं, जो क्षमाशील हैं, दूसरोंसे कभी कुछ नहीं बोलते हैं और जो पुण्यशील महात्मा सदा सबके लिये अन्नसत्ररूप हैं, ऐसे लोगोंके लिये ही यह सोमलोक है; परंतु धृतराष्ट्रको वहाँ भी नहीं जाना है ।। ३०-३१ ।।
गौतमने कहा--राजन्! सोमलोकसे भी ऊपर कितने ही सनातन लोक प्रकाशित होते हैं, जो रजोगुण, तमोगुण और शोकसे रहित है। वे महात्मा सूर्यदेवके स्थान हैं। वहाँ जाकर भी मैं तुमसे अपना हाथी वसूल करूँगा ।।
धृतराष्ट्रने कहा--महर्षे! जो स्वाध्यायशील, गुरुसेवापरायण, तपस्वी, उत्तम व्रतधारी, सत्यप्रतिज्ञ, आचार्योंके प्रतिकूल भाषण न करनेवाले, सदा उद्योगशील तथा बिना कहे ही गुरुके कार्यमें संलग्न रहनेवाले हैं, जिनका भाव विशुद्ध है, जो मौनव्रतावलम्बी, सत्यनिष्ठ और वेदवेत्ता महात्मा हैं, उन्हीं लोगोंके लिये यह सूर्यदेवका लोक है, परंतु धृतराष्ट्र वहाँ भी जानेवाला नहीं है ।। ३३-३४ ।।
गौतमने कहा--उसके सिवा दूसरे भी बहुत-से सनातन लोक प्रकाशित होते हैं, जहाँ पवित्र गंध छायी रहती है। वहाँ न तो रजोगुण है और न शोक ही। महामना राजा वरुणके लोकमें वे स्थान हैं। वहाँ जाकर मैं तुमसे अपना हाथी वापस लूँगा || ३५ ।।
धृतराष्ट्रने कहा--जो लोग सदा चातुर्मास्य याग करते हैं, हजारों इष्टियोंका अनुष्ठान करते हैं तथा जो ब्राह्मण तीन वर्षोतक वैदिक विधिके अनुसार प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक अन्निहोत्र करते हैं, धर्मका भार अच्छी तरह वहन करते हैं, वेदोक्त मार्गपर भलीभाँति स्थित होते हैं, वे ही धर्मात्मा महात्मा ब्राह्मण वरुणलोकमें जाते हैं। धृतराष्ट्रको वहाँ भी नहीं जाना है। यह उससे भी उत्तम लोक प्राप्त करेगा ।। ३६-३७ ।।
गौतमने कहा--राजन्! इन्द्रके लोक रजोगुण और शोकसे रहित हैं। उनकी प्राप्ति बहुत कठिन है। सभी मनुष्य उन्हें पानेकी इच्छा करते हैं। उन्हीं महातेजस्वी इन्द्रके भवनमें चलकर मैं आपसे अपने इस हाथीको वापस लूँगा ।। ३८ ।।
धृतराष्ट्रने कहा--जो सौ वर्षतक जीनेवाला शूरवीर मनुष्य वेदोंका स्वाध्याय करता, यज्ञमें तत्पर रहता और कभी प्रमाद नहीं करता है, ऐसे ही लोग इन्द्रलोकमें जाते हैं। धृतराष्ट्र उससे भी उत्तम लोकमें जायगा। उसे वहाँ भी नहीं जाना है || ३९ ।।
गौतम बोले--राजन! स्वर्गके शिखरपर प्रजापतिके महान् लोक हैं जो हृष्ट-पुष्ट और शोकरहित हैं। सम्पूर्ण जगतके प्राणी उन्हें पाना चाहते हैं। मैं वहीं जाकर तुमसे अपना हाथी वापस लूँगा ।। ४० ।।
धृतराष्ट्रने कहा--मुने! जो धर्मात्मा राजा राजसूय यज्ञमें अभिषिक्त होते हैं प्रजाजनोंकी रक्षा करते हैं तथा अश्वमेधयज्ञके अवभृूथ-स्नानमें जिसके सारे अंग भीग जाते हैं, उन्हींके लिये प्रजापतिलोक हैं। धृतराष्ट्र वहाँ भी नहीं जायगा ।। ४१ ।।
गौतम बोले--उससे परे जो पवित्र गन्धसे परिपूर्ण, रजोगुणरहित तथा शोकशून्य सनातन लोक प्रकाशित होते हैं, उन्हें गोलोक कहते हैं। उस दुर्लभ एवं दुर्धर्ष गोलोकमें जाकर मैं तुमसे अपना हाथी वापस लूँगा || ४२ ।।
धृतराष्ट्रने कहा--जो सहस्र गौओंका स्वामी होकर प्रतिवर्ष सौ गौओंका दान करता है, सौ गौओंका स्वामी होकर यथाशक्ति दस गौओंका दान करता है, जिसके पास दस ही गौएँ हैं, वह यदि उनमेंसे एक गायका दान करता है अथवा जो दानशील पुरुष पाँच गौओंमेंसे एक गायका दान कर देता है, वह गोलोकमें जाता है। जो ब्राह्मण ब्रह्मचर्यका पालन करते-करते ही बूढ़े हो जाते हैं, जो वेदवाणीकी सदा रक्षा करते हैं तथा जो मनस्वी ब्राह्मण सदा तीर्थयात्रामें ही तत्पर रहते हैं, वे ही गौओंके निवास-स्थान गोलोकमें आनंद भोगते हैं || ४३-४४ ।।
प्रभास, मानसरोवर तीर्थ, त्रिपुष्कर नामक महान् सरोवर, पवित्र नैमिषतीर्थ, बाहुदा नदी, करतोया नदी, गया, गयशिर, स्थूल बालुकायुक्त विपाशा (व्यास), कृष्णा, गंगा, पंचनद, महाहृद, गोमती, कौशिकी, पम्पासरोवर, सरस्वती, दृषद्वती और यमुना--इन तीर्थोमें जो व्रतधारी महात्मा जाते हैं, वे ही दिव्य रूप धारण करके दिव्य मालाओंसे अलंकृत हो गोलोकमें जाते हैं और कल्याणमय स्वरूप तथा पवित्र सुगंधसे व्याप्त होकर वहाँ निवास करते हैं। धृतराष्ट्र उस लोकमें भी नहीं मिलेगा ।।
गौतम बोले--जहाँ सर्दीका भय नहीं है, गर्मीका अणुमात्र भी भय नहीं है, जहाँ न भूख लगती है न प्यास, न ग्लानि प्राप्त होती है न दुःख-सुख, जहाँ न कोई द्वेषका पात्र है न प्रेमका, न कोई बन्धु है न शत्रु, जहाँ जरा-मृत्यु, पुण्य और पाप कुछ भी नहीं है, उस रजोगुणसे रहित, समृद्धिशाली, बुद्धि और सत्त्वगुणसे सम्पन्न तथा पुण्यमय ब्रह्मलोकमें जाकर तुम्हें मुझे यह हाथी वापस देना पड़ेगा | ४९--५१ ।।
धृतराष्ट्रने कहा--महामुने! जो सब प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्त है, जिन्होंने अपने मनको वशगमें कर लिया है, जो नियमपूर्वक व्रतका पालन करनेवाले हैं जो अध्यात्मज्ञान और योगसंबंधी आसनोंसे युक्त हैं, जो स्वर्गलोकके अधिकारी हो चुके हैं, ऐसे सात््विक पुरुष ही पुण्यमय ब्रह्मलोकमें जाते हैं। वहाँ तुम्हें धृतराष्ट्र नहीं दिखायी दे सकता || ५२-५३ ।।
गौतम बोले--जहाँ रथन्तर और बृहत्सामका गान किया जाता है, जहाँ याज्ञिक पुरुष वेदीको कमलपुष्पोंसे आच्छादित करते हैं तथा जहाँ सोमपान करनेवाला पुरुष दिव्य अश्रोंद्वारा यात्रा करता है, वहाँ जाकर मैं तुमसे अपना हाथी वापस लूँगा ।। ५४ ।।
मैं जानता हूँ, आप राजा धृतराष्ट्र नहीं, वृत्रासुरका वध करनेवाले शतक्रतु इन्द्र हैं और सम्पूर्ण जगत्का निरीक्षण करनेके लिये सब ओर घूम रहे हैं। मैंने मानसिक आवेशमें आकर कदाचित् वाणीद्वारा आपके प्रति कोई अपराध तो नहीं कर डाला? ।। ५५ ।।
शतक्रतु बोले--ैं इन्द्र हूँ और आपके हाथीके अपहरणके कारण मानव प्रजाके दृष्टिपथमें निन्दित हो गया हूँ। अब मैं आपके चरणोंमें मस्तक झुकाता हूँ। आप मुझे कर्तव्यका उपदेश दें। आप जो-जो कहेंगे, वह सब करूँगा ।। ५६ ।।
गौतम बोले--देवेन्द्र! यह श्वेत गजराजकुमार जो इस समय नवजवान हाथीके रूपमें परिणत हो चुका है, मेरा पुत्र है और अभी दस वर्षका बच्चा है। यही इस वनमें रहते हुए मेरा सहचर एवं सहयोगी है। इसे आपने हर लिया है। मेरी प्रार्थना है कि मेरे इसी हाथीको आप मुझे लौटा दें || ५७ ।।
शतक्रतुने कहा--विप्रवर! आपका पुत्रस्वरूप यह हाथी आपहीकी ओर देखता हुआ आ रहा है और पास आकर आपके दोनों चरणोंको अपनी नासिकासे सूँघता है। अब आप मेरा कल्याण-चिंतन कीजिये, आपको नमस्कार है ।।
गौतम बोले--सुरेन्द्र! मैं सदा ही यहाँ आपके कल्याणका चिंतन करता हूँ और सदा आपके लिये अपनी पूजा अर्पित करता हूँ। शक्र! आप भी मुझे कल्याण प्रदान करें। मैं आपके दिये हुए इस हाथीको ग्रहण करता हूँ ।। ५९ ।।
शतक्रतुने कहा--जिन सत्यवादी मनीषी महात्माओंकी हृदय-गुफामें सम्पूर्ण वेद निहित हैं, उनमें आप प्रमुख महात्मा हैं। केवल आपके कल्याण-चिंतनसे मैं समृद्धिशाली हो गया। इसलिये आज मैं आपपर बहुत प्रसन्न हूँ। ब्राह्मण! मैं बड़े हर्षके साथ कहता हूँ कि आप अपने इस पुत्रभूत हाथीके साथ शीघ्र चलिये। आप अभी चिरकालके लिये कल्याणमय लोकोंकी प्राप्तिके अधिकारी हो गये हैं || ६०-६१ ।।
पुत्रस्वरूप हाथीके साथ गौतमको आगे करके वज्धारी इन्द्र श्रेष्ठ पुरुषोंके साथ दुर्गम देवलोकमें चले गये || ६२ ।।
जो पुरुष जितेन्द्रिय होकर प्रतिदिन इस प्रसंगको सुनेगा, अथवा इसका पाठ करेगा, वह गौतम ब्राह्मणकी भाँति ब्रह्मलोकमें जायगा ।। ६३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अंतर्गत दानधर्मपर्वमें हस्तिकूट नामक एक सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ तीनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ तीनवें अध्याय के श्लोक 1-45 का हिन्दी अनुवाद)
“ब्रह्माजी और भगीरथका संवाद, यज्ञ, तप, दान आदिसे भी अनशन-व्रतकी विशेष महिमा”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! आपने अनेक प्रकारके दान, शांति, सत्य और अहिंसा आदिका वर्णन किया। अपनी ही स्त्रीसे संतुष्ट रहनेकी बात बतायी और दानके फलका भी निरूपण किया। आपकी जानकारीमें तपोबलसे बढ़कर दूसरा कौन बल है? यदि आपकी रायमें तपस्यासे भी कोई उत्कृष्ट साधन हो तो हमारे समक्ष उसकी व्याख्या करें ।। १-२ ।।
भीष्मजीने कहा--युथधिष्ठिर! मनुष्य जितना तप करता है, उसीके अनुसार उसे उत्तम लोक प्राप्त होते हैं; किन्तु कुंतीकुमार! मेरी रायमें अनशनसे बढ़कर दूसरा कोई तप नहीं है ।। ३ ।।
इस विषयमें विज्ञ पुरुष राजा भगीरथ और महात्मा ब्रह्माजीके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। ४ ।।
भारत! सुननेमें आया है कि राजा भगीरथ देवलोक, गौओंके लोक और ऋषिलोकको भी लाँघकर ब्रह्मलोकमें जा पहुँचे ।। ५ ।।
राजन्! राजा भगीरथको वहाँ उपस्थित देख ब्रह्माजीने उनसे पूछा--“भगीरथ! इस लोकमें तो आना बहुत ही कठिन है, तुम कैसे यहाँ आ पहुँचे ।। ६ ।।
“भगीरथ! देवता, गंधर्व और मनुष्य बिना तपस्या किये यहाँ नहीं आ सकते। फिर तुम कैसे यहाँ आ गये?” ।। ७ ।।
भगीरथने कहा--िद्वन! मैं ब्रह्मचर्यव्रतका आश्रय लेकर प्रतिदिन एक लाख स्वार्णमुद्राओंका ब्राह्मणोंके लिये दान किया करता था; परंतु उस दानके फलसे मैं यहाँ नहीं आया हूँ ।। ८ ।।
मैंने एक रातमें पूर्ण होनेवाले दस यज्ञ, पाँच रातोंमें पूर्ण होनेवाले दस यज्ञ, ग्यारह रातोंमें समाप्त होनेवाले ग्यारह यज्ञ और ज्योतिष्टोम नामक एक सौ यज्ञोंका अनुष्ठान किया है, परंतु उन यज्ञोंके फलसे भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ ।। ९ ।।
मैंने जो घोर तपस्या करते हुए लगातार सौ वर्षोतक प्रतिदिन गंगाजीके तटपर निवास किया है और वहाँ सहस्रों खच्चरियों तथा झुंड-की-झुंड कन््याओंका दान किया, उस पुण्यके प्रभावसे भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ ।। १० ।।
पुष्करतीर्थमें जो सैकड़ों-हजारों बार मैंने ब्राह्यगोंको एक लाख घोड़े और दो लाख गौएँ दान कीं तथा सोनेके उत्तम चन्द्रहार धारण करनेवाली जाम्बूनदके आभूषणोंसे विभूषित हुई साठ हजार सुन्दरी कनन््याओंका जो सहस्रों बार दान किया, उस पुण्यसे भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ ।।
लोकनाथ! गोसव नामक यज्ञका अनुष्ठान करके उसमें मैंने दूध देनेवाली सौ करोड़ गौओंका दान किया। उस समय एक-एक ब्राह्मणको दस-दस गायें मिली थीं। प्रत्येक गायके साथ उसीके समान रंगवाले बछड़े और सुवर्णमय दुग्धपात्र भी दिये गये थे; परंतु उस यज्ञके पुण्यसे भी मैं यहाँतक नहीं पहुँचा हूँ || १३ ।।
अनेक बार सोमयागकी दीक्षा लेकर उन यज्ञोंमें मैंने प्रत्येक ब्राह्मणगको पहले बारकी ब्यायी हुई दूध देनेवाली दस-दस गौएँ और रोहिणी जातिकी सौ-सौ गौएँ दान की हैं ।। १४ ।।
ब्रह्म! इनके अतिरिक्त भी मैंने दस बार दस-दस लाख दुधारू गौएँ दान की हैं; किंतु उस पुण्यसे भी मैं इस लोकमें नहीं आया हूँ || १५ ।।
वाह्लीक देशमें उत्पन्न हुए श्वेतरंगके एक लाख घोड़ोंको सोनेकी मालाओंसे सजाकर मैंने ब्राह्मणोंको दान किया; किंतु उस पुण्यसे भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ ।।
ब्रह्मन! मैंने एक-एक यज्ञमें प्रतिदिन अठारह-अठारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ बाँटी थीं; परंतु उसके पुण्यसे भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ || १७ ।।
ब्रह्म! पितामह! फिर स्वर्णहारसे विभूषित हरे रंगवाले सत्रह करोड़ श्यामकर्ण घोड़े, ईषादण्ड (हरिस) के समान दाँतोंवाले, स्वर्णमालामण्डित एवं विशाल शरीरवाले सत्रह हजार कमलचिह्नयुक्त हाथी तथा सोनेके बने हुए दिव्य आभूषणोंसे विभूषित स्वर्णमय उपकरणोंसे युक्त और सजे-सजाये घोड़े जुते हुए सत्रह हजार रथ दान किये || १८--२० $ई
इनके अतिरिक्त भी जो वस्तुएँ वेदोंमें दक्षिणाके अवयवरूपसे बतायी गयी हैं, उन सबको मैंने दस वाजपेय यज्ञोंका अनुष्ठान करके दान किया था ।। २१६ ।।
पितामह! यज्ञ और पराक्रममें जो इन्द्रके समान प्रभावशाली थे, जिनके कण्ठमें सुवर्णके हार शोभा पा रहे थे, ऐसे हजारों राजाओंको युद्धमें जीतकर प्रचुर धनके द्वारा आठ राजसूययज्ञ करके मैंने उन्हें ब्राह्मणोंको दक्षिणामें दे दिया; परंतु उस पुण्यसे भी मैं इस लोकमें नहीं आया हूँ || २२-२३ $ ।।
जगत्पते! मेरी दी हुई दक्षिणाओंसे गंगानदी आच्छादित हो गयी थी; परंतु उसके कारण भी मैं इस लोकमें नहीं आया हूँ ।। २४६ ।।
उस यज्ञमें मैंने प्रत्येक ब्राह्यणको तीन-तीन बार सोनेके सैकड़ों आभूषणोंसे विभूषित दो-दो हजार घोड़े और एक-एक सौ अच्छे गाँव दिये थे || २५६ ।।
पितामह! मिताहारी, मौन और शांतभावसे रहकर मैंने हिमालय पर्वतपर सुदीर्घ कालतक तपस्या की थी जिससे प्रसन्न होकर भगवान् शंकरने गंगाजीकी दुःसह धाराको अपने मस्तकपर धारण किया; परंतु उस तपस्याके फलसे भी मैं इस लोकमें नहीं आया हूँ ।। २६-२७ ||
देव! मैंने अनेक बार “शम्याक्षेप-” याग किये। दस हजार 'साद्यस्क' यागोंका अनुष्ठान किया। कई बार तेरह और बारह दिनोंमें समाप्त होनेवाले याग और “'पुण्डरीक” नामक यज्ञ पूर्ण किये; परंतु उनके फलोंसे भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ || २८ ।।
इतना ही नहीं, मैंने सफेद रंगके ककुद्वाले आठ हजार वृषभ भी ब्राह्मणोंको दान किये, जिनके एक-एक सींगमें सोना मढ़ा हुआ था तथा उन ब्राह्मणोंको सुवर्णमय हारसे विभूषित गौएँ भी मैंने दी थीं ।। २९ ।।
मैंने आलस्यरहित होकर अनेक बड़े-बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान करके उनमें सोने और रत्नोंके ढेर, रत्नमय पर्वत, धनधान्यसे सम्पन्न हजारों गाँव और एक बारकी ब्यायी हुई सहसों गौएँ ब्राह्मणोंको दान कीं; किंतु उनके पुण्यसे भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ || ३०-३१
देव! ब्रह्मन! मैंने ग्यारह दिनोंमें होनेवाले और चौबीस दिनोंमें होनेवाले दक्षिणासहित यज्ञ किये। बहुत-से अश्वमेधयज्ञ भी कर डाले तथा सोलह बार आर्कायणयज्ञोंका अनुष्ठान किया; परंतु उन यज्ञोंके फलसे मैं इस लोकमें नहीं आया हूँ ।। ३२ ।।
चार कोस लंबा-चौड़ा एक चम्पाके वृक्षोंका वन, जिसके प्रत्येक वृक्षमें रत्न जड़े हुए थे, वस्त्र लपेटा गया था और कण्ठदेशमें स्वर्णमाला पहनायी गयी थी, मैंने दान किया है; किंतु उस दानके फलसे भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ ।। ३३ ।।
मैं तीस वर्षोतक क्रोधरहित होकर तुरायण नामक दुष्कर व्रतका पालन करता रहा, जिसमें प्रतिदिन नौ सौ गायें ब्राह्मणोंको दान देता था ।। ३४ ।।
लोकनाथ! सुरेश्वर! इनके अतिरिक्त रोहिणी (कपिला) जातिकी बहुत-सी दुधारू गौएँ तथा बहुसंख्यक साँड़ भी मैं प्रतिदिन ब्राह्मणोंको दान करता था; परंतु उन सब दानोंके फलसे भी मैं इस लोकमें नहीं आया हूँ ।।
ब्रह्मन! मैंने प्रतिदिन एक-एक करके तीस बार अग्निचयन एवं यजन किया। आठ बार सर्वमेध, सात बार नरमेध और एक सौ अद्बाईस बार विश्वजित् यज्ञ किया है; परंतु देवेश्वर! उन यज्ञोंके फलसे भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ ।। ३६-३७ ।।
सरयू, बाहुदा, गंगा और नैमिषारण्य तीर्थमें जाकर मैंने दस लाख गोदान किये हैं; परंतु उनके फलसे भी यहाँ आना नहीं हुआ है (केवल अनशनव्रतके प्रभावसे मुझे इस दुर्लभ लोककी प्राप्ति हुई है) || ३८ ।।
पहले इन्द्रने स्वयं अनशनव्रतका अनुष्ठान करके इसे गुप्त रखा था। उसके बाद शुक्राचार्यने तपस्याके द्वारा उसका ज्ञान प्राप्त किया। फिर उन्हींके तेजसे उसका माहात्म्य सर्वत्र प्रकाशित हुआ। सर्वश्रेष्ठ पितामह! मैंने भी अंतमें उसी अनशनव्रतका साधन आरम्भ किया ।।
जब उस कर्मकी पूर्ति हुई, उस समय मेरे पास हजारों ब्राह्मण और ऋषि पधारे। वे सभी मुझपर बहुत संतुष्ट थे। प्रभो! उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक मुझे आज्ञा दी कि “तुम ब्रह्मतोकको जाओ।” भगवन्! प्रसन्न हुए उन हजारों ब्राह्मणोंके आशीर्वादसे मैं इस लोकमें आया हूँ। इसमें आप कोई अन्यथा विचार न करें ।। ४०-४१ ।।
देवेश्वर! मैंने अपनी इच्छाके अनुसार विधिपूर्वक अनशनव्रतका पालन किया। आप सम्पूर्ण जगतके विधाता हैं। आपके पूछनेपर मुझे सब बातें यथावत््रूपसे बतानी चाहिये, इसलिये सब कुछ कहा है। मेरी समझमें अनशनव्रतसे बढ़कर दूसरी कोई तपस्या नहीं है। आपको नमस्कार है, आप मुझपर प्रसन्न होइये || ४२ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! राजा भगीरथने जब इस प्रकार कहा, तब ब्रह्माजीने शास्त्रोक्त विधिसे आदरणीय नरेशका विशेष आदर-सत्कार किया ।। ४३ ।।
अतः तुम भी अनशनव्रतसे युक्त होकर सदा ब्राह्मणोंका पूजन करो; क्योंकि ब्राह्मणोंके आशीर्वादसे इह लोक और परलोकमें भी सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध होती हैं |।
अन्न, वस्त्र, गौ तथा सुंदर गृह देकर और कल्याणकारी देवताओंकी आराधना करके भी ब्राह्मणोंको ही संतुष्ट करना चाहिये। तुम लोभ छोड़कर इसी परम गोपनीय धर्मका आचरण करो ।। ४५ ||
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अंतर्गत दानधर्मपर्वमें ब्रह्मा और भगीरथका संवादविषयक एक सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
टिका टिप्पणी -
- यज्ञकर्ता पुरुष 'शम्या" नामक एक काठका डंडा खूब जोर लगाकर फेंकता है, वह जितनी दूरपर जाकर गिरता है। उतने दूरमें यज्ञकी वेदी बनायी जाती है; उस वेदीपर जो यज्ञ किया जाता है उसे “शम्याक्षेप' अथवा “शम्याप्रास” यज्ञ कहते हैं।




%20(18).jpeg)



.png)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें