सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के चौरानबेवाँ अध्याय व पंचानबेवाँ अध्याय (From the 94 chapter and the 95 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

चौरनबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) चौरनबेवें अध्याय के श्लोक 1-54 का हिन्दी अनुवाद) 

“ब्रह्मसरतीर्थमें अगस्त्यजीके कमलोंकी चोरी होनेपर ब्रह्मर्षियों और राजर्षियोंकी धर्मोपदेशपूर्ण शपथ तथा धर्मज्ञानके उद्देश्यसे चुराये हुए कमलोंका वापस देना”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इसी विषयमें एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है। तीर्थयात्राके प्रसंगमें इसी तरहकी शपथको लेकर जो एक घटना घटित हुई थी, उसे बताता हूँ, सुनो || १ ।।

भरतवंशशिरोमणे! महाराज! पूर्वकालमें कुछ राजर्षियों और ब्रह्मर्षियोंने भी इसी प्रकार कमलोंके लिये चोरी की थी || २ ।।

पश्चिम समुद्रके तटपर प्रभास तीर्थमें बहुत-से ऋषि एकत्र हुए थे। उन समागत महर्षियोंने आपसमें यह सलाह की कि हमलोग अनेक पुण्यतीर्थोंसे भरी हुई समूची पृथ्वीकी यात्रा करें। यह हम सभी लोगोंकी अभिलाषा है। अतः सब लोग साथ-ही-साथ यात्रा प्रारम्भ कर दें ।। ३ ।।

राजन! ऐसा निश्चय करके शुक्र, अंगिरा, विद्वान्‌ कवि, अगस्त्य, नारद, पर्वत, भृगु, वसिष्ठ, कश्यप, गौतम, विश्वामित्र, जमदग्नि, गालव मुनि, अष्टक, भरद्वाज, अरुन्धती, वालखिल्यगण, शिबि, दिलीप, नहुष, अम्बरीष, राजा ययाति, धुन्धुमार और पूरु--ये सभी राजर्षि तथा ब्रह्मर्षि वज्रधारी महानुभाव वृत्रहन्ता शतक्रतु इन्द्रको आगे करके यात्राके लिये निकले और सभी तीर्थोमें घूमते हुए माघ मासकी पूर्णिमा तिथिको पुण्यसलिला कौशिकी नदीके तटपर जा पहुँचे || ४--६ ।।

इस प्रकार वहाँके तीर्थोंमें स्नानके द्वारा अपने पाप धो करके ऋषिगण उस स्थानसे परम पवित्र ब्रह्मसर तीर्थमें गये। उन अग्निके समान तेजस्वी ऋषियोंने वहाँके जलमें स्नान करके कमलके फूलोंका आहार किया ।। ७ ।।

राजन्‌! कुछ ऋषि वहाँ कमल खोदने लगे। कुछ ब्राह्मण मृणाल उखाड़ने लगे। इसी बीचमें अगस्त्यजीने उस पोखरेसे जितना कमल उखाड़कर रखा था, वह सब सहसा गायब हो गया। इस बातको सबने देखा ।। ८ ।।

तब अगस्त्यजीने उन समस्त ऋषियोंसे पूछा--'किसने मेरे सुन्दर कमल ले लिये। मैं आप सब लोगोंपर संदेह करता हूँ। मेरे कमल लौटा दीजिये। आप-जैसे साधु पुरुषोंको कमलोंकी चोरी करना कदापि उचित नहीं है ।। ९ ।।

'सुनता हूँ कि काल धर्मकी शक्तिको नष्ट कर देता है। वही काल इस समय प्राप्त हुआ है। तभी तो धर्मको हानि पहुँचायी जा रही है--अस्तेय-धर्मका हनन हो रहा है। अतः इस जगतमें अधर्मका विस्तार न हो इसके पहले ही हम चिरकालके लिये स्वर्गलोकमें चले जायेँ ।। १० ।।

“ब्राह्मणलोग गाँवके बीचमें उच्चस्वरसे वेदपाठ करके शूट्रोंको सुनाने लगें तथा राजा व्यावसायिक दृष्टिसे धर्मको देखने लगें, इसके पहले ही मैं परलोकमें चला जाऊँ ।। ११ ।।

“जबतक सभी श्रेष्ठ मनुष्य महान्‌ पुरुषोंकी नीचोंके समान अवहेलना नहीं करते हैं तथा जबतक इस संसारमें अज्ञानजनित तमोगुणका बाहुल्‍य नहीं हो जाता, इसके पहले ही मैं चिरकालके लिये परलोक चला जाऊँ ।। १२ ।।

“भविष्यकालमें बलवान मनुष्य दुर्बलोंको अपने उपभोगमें लायेंगे, इस बातको मैं अभीसे देख रहा हूँ। इसलिये मैं दीर्घकालके लिये परलोकमें चला जाऊँ। यहाँ रहकर इस जीवजगत्‌की ऐसी दुरवस्था मैं नहीं देख सकता” ।। १३ ।।

यह सुनकर सभी महर्षि घबरा उठे और अगस्त्यजीसे बोले--“महर्षे! हमने आपके कमल नहीं चुराये हैं। आपको झूठा कलंक नहीं लगाना चाहिये। हम अपनी सफाई देनेके लिये कठोर-से-कठोर शपथ खा सकते हैं! ।। १४ ।।

पृथ्वीनाथ! तदनन्तर वे महर्षि तथा नरेशगण वहाँ कुछ निश्चय करके इस धर्मपर दृष्टि रखते हुए पुत्रों और पौत्रोंसहित बारी-बारीसे शपथ खाने लगे ।। १५ ।।

भगु बोले--मुने! जिसने आपके कमलकी चोरी की है, वह गाली सुनकर बदलेमें गाली दे और मार खाकर बदलेमें स्वयं भी मारे तथा दूसरेकी पीठके मांस खाय अर्थात्‌ उपर्युक्त पापोंका भागी हो ।। १६ ।।

वसिष्ठने कहा--जिसने आपके कमल चुराये हो, वह स्वाध्यायसे विमुख हो जाय। कुत्ता साथ लेकर शिकार खेले और गाँव-गाँव भीख माँगता फिरे || १७ ।।

कश्यपने कहा--जो आपका कमल चुरा ले गया हो, वह सब जगह सब तरहकी वस्तुओंकी खरीद-विक्री करे। किसीकी धरोहरको हड़प लेनेका लोभ करे और झूठी गवाही दे, अर्थात्‌ उपर्युक्त पापोंका भागी हो || १८ ।।

गौतम बोले--जिसने आपके कमलकी चोरी की हो, वह अहंकारी, बेईमान और अयोग्यका साथ करनेवाला, खेती करनेवाला और ईरष्यायुक्त होकर जीवन व्यतीत करे ।। १९ ||

अंगिराने कहा--जो आपका कमल ले गया हो, वह अपवित्र, वेदको मिथ्या बतानेवाला, ब्रह्महत्यारा और अपने पापोंका प्रायश्चित्त न करनेवाला हो। इतना ही नहीं, वह कुत्तोंकोी साथ लेकर शिकार खेलता फिरे, अर्थात्‌ उपर्युक्त पापोंका भागी हो || २० ।।

धुन्धुमारने कहा--जिसने आपके कमलोंकी चोरी की हो, वह अपने मित्रोंका उपकार न माने। शूद्र जातिकी स्त्रीसे संतान उत्पन्न करे और अकेला ही स्वादिष्ट अन्न भोजन करे। अर्थात्‌ इन पापोंके फलका भागी बने ।। २१ ।।

पूरु बोले--जों आपका कमल चुरा ले गया हो, वह चिकित्साका व्यवसाय (वैद्य या डॉक्टरका पेशा) करे। स्त्रीकी कमाई खाय और ससुरालके धनपर गुजारा करे || २२ ।।

दिलीप बोले--जो आपका कमल चुराकर ले गया हो, वह एक कूएँपर सबके साथ पानी भरनेवाले गाँवमें रहकर शूद्र जातिकी स्त्रीसे सम्बन्ध रखनेवाले ब्राह्मणको मृत्युके पश्चात्‌ जिन दुःखदायी लोकोंमें जाना पड़ता है, उन्हींमें जाय ।। २३ ।।

शुक्रने कहा--जो आपका कमल चुराकर ले गया हो, उसे मांस खानेका, दिनमें मैथुन करनेका और राजाकी नौकरी करनेका पाप लगे ।। २४ ।।

जमदग्नि बोले--जिसने आपके कमल लिये हों, वह निषिद्ध कालमें अध्ययन करे। मित्रको ही श्राद्धमें जिमावे तथा स्वयं भी शूद्रके श्राद्धमें भोजन करे || २५ ।।

शिबिने कहा--जो आपका कमल चुरा ले गया हो; वह अग्निहोत्र किये बिना ही मर जाय, यज्ञमें विघ्म डाले और तपस्वी जनोंके साथ विरोध करे, अर्थात्‌ इन सब पापोंके फलका भागी हो ।। २६ ।।

ययातिने कहा--जिसने आपके कमलोंकी चोरी की हो, वह व्रतधारी होकर भी ऋतुकालसे अतिरिक्त समयमें स्त्री-समागम करे और वेदोंका खण्डन करे, अर्थात्‌ इन सब पापोंके फलका भागी हो ।। २७ ।।

नहुष बोले--जिसने आपके कमलोंका अपहरण किया हो, वह संन्यासी होकर भी घरमें रहे। यज्ञकी दीक्षा लेकर भी इच्छाचारी हो और वेतन लेकर विद्या पढ़ाये, अर्थात्‌ इन सब पापोंके फलका भागी हो | २८ ॥।

अम्बरीषने कहा--जो आपका कमल ले गया हो, वह क्रूरस्वभावका हो जाय। स्त्रियों, बन्धु-बान्धवों और गौओंके प्रति अपने धर्मका पालन न करे तथा ब्रह्महत्याके पापका भागी हो ।। २९ |।

नारदजीने कहा--जिसने आपके कमलोंका अपहरण किया हो, वह देहरूपी घरको ही आत्मा समझे। मर्यादाका उल्लंघन करके शास्त्र पढ़े। स्वरहीन पदका उच्चारण करे और गुरुजनोंका अपमान करता रहे, अर्थात्‌ उपर्युक्त पापोंका भागी बने || ३० ।।

नाभाग बोले--जिसने आपके कमल चुराये हों, उसे सदा झूठ बोलनेका, संतोंके साथ विरोध करनेका और कीमत लेकर कन्या बेचनेका पाप लगे || ३१ ।।

कविने कहा--जिसने आपका कमल लिया हो, उसे गौको लात मारनेका, सूर्यकी ओर मुँह करके पेशाब करनेका और शरणागतको त्याग देनेका पाप लगे ।। ३२ ।।

विश्वामित्र बोले--जो आपका कमल चुरा ले गया हो, वह वैश्यका भृत्य होकर उसीके खेतमें वर्षा होनेमें बाधा उपस्थित करे। राजाका पुरोहित हो और यज्ञके अनधिकारीका यज्ञ करानेके लिये ऋत्विक्‌ बने, अर्थात्‌ इन पापोंके फलका भागी हो ।। ३३ ।।

पर्वतने कहा--जो आपका कमल ले गया हो, वह गाँवका मुखिया हो जाय, गधेकी सवारीपर चले तथा पेट भरनेके लिये कुत्तोंकी साथ लेकर शिकार खेले ।।

भरद्वाजने कहा--जिसने आपके कमलोंकी चोरी की हो, उस पापीको निर्दयी और असत्यवादी मनुष्योंमें रहनेवाला सारा-का-सारा पाप सदा ही प्राप्त होता रहे || ३५ ।।

अष्टक बोले--जो आपका कमल ले गया हो, वह राजा मन्दबुद्धि, स्वेच्छाचारी और पापात्मा होकर अधर्मपूर्वक इस पृथ्वीका शासन करे ।। ३६ ।।

गालव बोले--जो आपका कमल चुरा ले गया हो, वह महापापियोंसे भी बढ़कर अनादरणीय हो, स्वजनोंका भी अपकार करे तथा दान देकर अपने ही मुखसे उसका बखान करे ।। ३७ ||

अरुन्धती बोलीं--जिस स्त्रीने आपका कमल लिया हो, वह अपने सासकी निन्दा करे, पतिके लिये अपने मनमें दुर्भावना रखे और अकेली ही स्वादिष्ट भोजन किया करे, अर्थात्‌ इन सब पापोंकी फलभागिनी बने ।। ३८ ।।

बालखिल्य बोले--जो आपका कमल ले गया हो, वह अपनी जीविकाके लिये गाँवके दरवाजेपर एक पैरसे खड़ा रहे और धर्मको जानते हुए भी उसका परित्याग करे ।। ३९ ।।

शुन:सख बोले--जो आपका कमल ले गया हो, वह द्विज होकर भी सबेरे और शामको अग्निहोत्रकी अवहेलना करके सुखसे सोये तथा संन्यासी होकर भी मनमाना बर्ताव करे, अर्थात्‌ उपर्युक्त पापोंके फलका भागी हो ।। ४० ।।

सुरभि बोली--जो गाय आपका कमल ले गयी हो, उसके पैर बालोंकी रस्सीसे बाँधे जाय, उसके दूधके लिये ताँबे मिले हुए धातुका दोहनपात्र हो और वह दूसरे गायके बछड़ेसे दुही जाय ।। ४१ ।।

भीष्मजी कहते हैं--कौरवेन्द्र! इस प्रकार जब सब लोग नाना प्रकारकी अनेकानेक शपथ कर चुके, तब सहस् नेत्रधारी देवराज इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए और उन विप्रवर अगस्त्यको कुपित हुआ देख उनके सामने प्रकट हो गये || ४२ ।।

राजन! ब्रह्मर्षियों, देवर्षियों तथा राजर्षियोंके बीचमें कुपित हुए महर्षि अगस्त्यको सम्बोधित करके देवराज इन्द्रने जो अपना अभिप्राय व्यक्त किया, उसे आज तुम मेरे मुखसे यहाँ सुनो ।। ४३ ।।

इन्द्र बोले--ब्रह्म)! जो आपका कमल ले गया हो, वह ब्रह्मचर्य व्रतको पूर्ण करके आये हुए यजुर्वेदी अथवा सामवेदी विद्वानको कन्यादान दे। अथवा वह ब्राह्मण अथर्ववेदका अध्ययन पूरा करके शीघ्र ही स्नातक बन जाय ।। ४४ ।।

जिसने आपके कमलोंका अपहरण किया हो, वह सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करे। पुण्यात्मा और धार्मिक हो, तथा मृत्युके पश्चात्‌ वह ब्रह्माजीके लोकमें जाय ।।

अगस्त्यने कहा--बलसूदन! आपने जो शपथ की है, वह तो आशीर्वादस्वरूप है। अतः आपने ही मेरे कमल लिये हैं, कृपया उन्हें मुझे दे दीजिये। यही सनातन धर्म है || ४६ ||

इन्द्र बोले--भगवन्‌! मैंने लोभवश कमलोंको नहीं लिया था। आपलोगोंके मुखसे धर्मकी बातें सुनना चाहता था, इसीलिये इन कमलोंका अपहरण कर लिया था। अतः मुझपर क्रोध न कीजियेगा।।

आज मैंने आपलोगोंके मुखसे उस आर्ष सनातन धर्मका श्रवण किया है जो नित्य अविकारी, अनामय और संसार-सागरसे पार उतारनेके लिये पुलके समान है। इससे धार्मिक श्रुतियोंका उत्कर्ष सिद्ध होता है ।। ४८ ।।

द्विजश्रेष्ठ! विद्वन्‌! अब आप अपने ये कमल लीजिये। भगवन्‌! अनिन्दनीय महर्षे! मेरा अपराध क्षमा कीजिये ।। ४९ ।।

महेन्द्रके ऐसा कहनेपर वे क्रोधी तपस्वी बुद्धिमान्‌ अगस्त्य मुनि बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने इन्द्रके हाथसे अपने कमल ले लिये || ५० ।।

तदनन्तर उन सब लोगोंने वनके मार्गोंसे होते हुए पुनः तीर्थयात्रा आरम्भ की और पुण्यतीर्थोमें जा-जाकर गोते लगाकर स्नान किया ।। ५१ ।।

जो प्रत्येक पर्वके अवसरपर एकाग्रचित्त हो इस पवित्र आख्यानका पाठ करता है, वह कभी मूर्ख पुत्रको नहीं जन्म देता है, तथा स्वयं भी किसी अंगसे हीन या असफलमनोरथ नहीं होता है || ५२ ।।

उसके ऊपर कोई आपत्ति नहीं आती। वह चिन्तारहित होता है। उसके ऊपर जरावस्थाका आक्रमण नहीं होता। वह रागशून्य होकर कल्याणका भागी होता है तथा मृत्युके पश्चात्‌ स्वर्गलोकमें जाता है || ५३ ।।

नरश्रेष्ठ जो ऋषियोंद्वारा सुरक्षित इस शास्त्रका अध्ययन करता है, वह अविनाशी ब्रह्मधामको प्राप्त होता है ।। ५४ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें शपथविधिनामक चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

पंचानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) पंचानबेवें अध्याय के श्लोक 1-28 का हिन्दी अनुवाद) 

“छत्र और उपानहकी उत्पत्ति एवं दानविषयक युधिष्ठिरका प्रश्न तथा सूर्यकी प्रचण्ड धूपसे रेणुकाका मस्तक और पैरोंके संतप्त होनेपर जमदग्निका सूर्यपर कुपित होना और विप्ररूपधारी सूर्यसे वार्तालाप”

युधिष्ठिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ! श्राद्धकर्मोमें जिनका दान दिया जाता है, उन छत्र और उपानहोंके दानकी प्रथा किसने चलायी है? ।। १ ।।

इनकी उत्पत्ति कैसे हुई और किसलिये इनका दान किया जाता है? केवल श्राद्धकर्ममें ही नहीं, अनेक पुण्यके अवसरोंपर भी इनका दान होता है ।। २ ।।

बहुत-से निमित्त उपस्थित होनेपर पुण्यके उद्देश्यसे इन वस्तुओंके दानकी प्रथा देखी जाती है। अतः राजन! मैं इस विषयको विस्तारके साथ यथावत्‌ रूपसे सुनना चाहता हूँ ।। ३ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! छाते और जूतेकी उत्पत्तिकी वार्ता मैं विस्तारके साथ बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनो। संसारमें किस प्रकार इनके दानका आरम्भ हुआ और कैसे उस दानका प्रचार हुआ, यह सब श्रवण करो ।। ४ ।।

नरेश्वर! इन दोनों वस्तुओंका दान किस तरह अक्षय होता है, तथा ये किस प्रकार पुण्यकी प्राप्ति करानेवाली मानी गयी हैं। इन सब बातोंका मैं पूर्णरूपसे वर्णन करूंगा।।

प्रभो! इस विषयमें महर्षि जमदग्नि और महात्मा भगवान्‌ सूर्यके संवादका वर्णन किया जाता है। पूर्वकालकी बात है, एक दिन भृगुनन्दन भगवान्‌ जमदग्निजी धनुष चलानेकी क्रीड़ा कर रहे थे। धर्मसे च्युत न होनेवाले युधिष्ठिर! वे बारंबार धनुषपर बाण रखकर उन्हें चलाते और उन चलाये हुए सम्पूर्ण तेजस्वी बाणोंको उनकी पत्नी रेणुका ला-लाकर दिया करती थीं ।। ६-७ ६ ।।

धनुषकी प्रत्यंचाकी टंकारध्वनि और बाणके छूटनेकी सनसनाहटसे जमदग्नि मुनि बहुत प्रसन्न होते थे। अतः वे बार-बार बाण चलाते और रेणुका उन्हें दूरसे उठा-उठाकर लाया करती थीं ।। ८६ ।।

जनेश्वर! इस प्रकार बाण चलानेकी क्रीड़ा करते-करते ज्येष्ठ मासके सूर्य दिनके मध्यभागमें आ पहुँचे। विप्रवर जमदग्निने पुन: बाण छोड़कर रेणुकासे कहा--'सुभ्रु! विशाललोचने! जाओ, मेरे धनुषसे छूटे हुए इन बाणोंको ले आओ, जिससे मैं पुनः इन सबको धनुषपर रखकर छोड़ूँ' ।। ९-१० ३ ।।

मानिनी रेणुका वृक्षोंक बीचसे होकर उनकी छायाका आश्रय ले जाती हुई बीच-बीचमें ठहर जाती थी; क्योंकि उसके सिर और पैर तप गये थे | ११ $ ।।

कजरारे नेत्रोंवाली वह कल्याणमयी देवी एक जगह दो ही घड़ी ठहरकर पतिके शापके भयसे पुनः उन बाणोंको लानेके लिये चल दी || १२६ ।।

उन बाणोंको लेकर सुन्दर अंगोंवाली यशस्विनी रेणुका जब लौटी; उस समय वह बहुत खिन्न हो गयी थी। पैरोंके जलनेसे जो दुःख होता था, उसको किसी तरह सहती और पतिके भयसे थर-थर काँपती हुई उनके पास आयी ।। १३-१४ ।।

उस समय महर्षि कुपित होकर सुन्दर मुखवाली अपनी पत्नीसे बारंबार पूछने लगे -- रेणुके! तुम्हारे आनेमें इतनी देर क्‍यों हुई?” ।। १५ ।।

रेणुका बोली--तपोधन! मेरा सिर तप गया, दोनों पैर जलने लगे और सूर्यके प्रचण्ड तेजने मुझे आगे बढ़नेसे रोक दिया। इसलिये थोड़ी देरतक वृक्षकी छायामें खड़ी होकर विश्राम लेने लगी थी ।। १६ ।।

ब्रह्म! इसी कारणसे मैंने आपका यह कार्य कुछ विलम्बसे पूरा किया है। तपोधन! प्रभो! मेरे इस बातपर ध्यान देकर आप क्रोध न करें ।। १७ ।।

जमदग्निने कहा-रेणुके! जिसने तुझे कष्ट पहुँचाया है, उस उद्दधीप्त किरणोंवाले सूर्यको आज मैं अपने बाणोंसे, अपनी अस्त्राग्निके तेजसे गिरा दूँगा || १८ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठि!! ऐसा कहकर महर्षि जमदग्निने अपने दिव्य धनुषकी प्रत्यंचा खींची और बहुत-से बाण हाथमें लेकर सूर्यकी ओर मुँह करके वे खड़े हो गये। जिस दिशाकी ओर सूर्य जा रहे थे, उसी ओर उन्होंने भी अपना मुँह कर लिया था ।।

कुन्तीनन्दन! उन्हें युद्धके लिये तैयार देख सूर्यदेव ब्राह्मणका रूप धारण करके उनके पास आये और बोले--'ब्रह्मन! सूर्यने आपका क्या अपराध किया है? ।।

सूर्यदेव तो आकाशगमें स्थित होकर अपनी किरणों-द्वारा वसुधाका रस खींचते हैं और बरसातमें पुनः उसे बरसा देते हैं | २१ ।।

“विप्रवर! उसी वर्षासे अन्न उत्पन्न होता है, जो मनुष्योंके लिये सुखदायक है। अन्न ही प्राण है, यह बात वेदमें भी बतायी गयी है || २२ ।।

“ब्रह्मम!)! अपने किरणसमूहसे घिरे हुए भगवान्‌ सूर्य बादलोंमें छिपकर सातों द्वीपोंकी पृथ्वीको वर्षकि जलसे आप्लावित करते हैं ।। २३ ।।

“उसीसे नाना प्रकारकी ओषधियाँ, लताएँ, पत्र-पुष्प, घास-पात आदि उत्पन्न होते हैं। प्रभो! प्राय: सभी प्रकारके अन्न वर्षकि जलसे उत्पन्न होते हैं | २४ ।।

“जातकर्म, व्रत, उपनयन, विवाह, गोदान, यज्ञ सम्पत्ति, शास्त्रीय दान, संयोग और धनसंग्रह आदि सारे कार्य अन्नसे ही सम्पादित होते हैं। भूगुनन्दन! इस बातको आप भी अच्छी तरह जानते हैं || २५-२६ ।।

“जितने सुन्दर पदार्थ हैं, अथवा जो भी उत्पादक पदार्थ हैं, वे सब अन्नसे ही प्रकट होते हैं। यह सब मैं ऐसी बात बता रहा हूँ जो आपको पहलेसे ही विदित हैं || २७ ।।

“विप्रवर! ब्रह्मर्षे! मैंने जो कुछ भी कहा है, वह सब आप भी जानते हैं। भला, सूर्यको गिरानेसे आपको क्या लाभ होगा? अतः मैं प्रार्थनापूर्वक आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ (कृपया सूर्यको नष्ट करनेका संकल्प छोड़ दीजिये)” || २८ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें छ॒त्र और उपानहकी उत्पत्तिनामक पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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