सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
इक्यानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) इक्यानबेवें अध्याय के श्लोक 1-45 का हिन्दी अनुवाद)
“शोकातुर निमिका पुत्रके निमित्त पिण्डदान तथा श्राद्धके विषयमे निमिको महर्षि अत्रिका उपदेश, विश्लवेदेवोंके नाम एवं श्राद्धमें त्याज्य वस्तुओंका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! श्राद्ध कब प्रचलित हुआ? सबसे पहले किस महर्षिने इसका संकल्प किया अर्थात् प्रचार किया? श्राद्धका स्वरूप क्या है? यदि भूगु और अंगिराके समयमें इसका प्रारम्भ हुआ तो किस मुनिने इसको प्रकट किया? श्राद्धमें कौनकौनसे कर्म, कौन-कौनसे फल-मूल और कौन-कौनसे अन्न त्याग देने योग्य हैं? वह मुझसे कहिये ।। १-२ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन! श्राद्धका जिस समय और जिस प्रकार प्रचलन हुआ, जो इसका स्वरूप है तथा सबसे पहले जिसने इसका संकल्प किया अर्थात् प्रचार किया, वह सब तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ।। ३ ।।
कुरुनन्दन! महाराज! प्राचीन कालमें ब्रह्माजीसे महर्षि अत्रिकी उत्पत्ति हुई। वे बड़े प्रतापी ऋषि थे। उनके वंभमें दत्तात्रेयजीका प्रादुर्भाव हुआ ।। ४ ।।
दत्तात्रेयके पुत्र निमि हुए, जो बड़े तपस्वी थे। निमिके भी एक पुत्र हुआ, जिसका नाम था श्रीमान। वह बड़ा कान्तिमान् था ।। ५ ।।
उसने पूरे एक हजार वर्षोतक बड़ी कठोर तपस्या करके अन्तमें काल-धर्मके अधीन होकर प्राण त्याग दिया ।।
फिर निमि शास्त्रोक्त कर्मद्वारा अशौच निवारण करके पुत्र-शोकमें मग्न हो अत्यन्त संतप्त हो उठे || ७ ।।
तदनन्तर परम बुद्धिमान् निमि चतुर्दशीके दिन श्राद्धमें देने योग्य सब वस्तुएँ एकत्रित करके पुत्रशोकसे ही चिन्तित हो रात बीतनेपर (अमावास्याको श्राद्ध करनेके लिये) प्रात:काल उठे ।। ८ ।।
प्रातःकाल जागनेपर उनका मन पुत्रशोकसे व्यथित होता रहा; किन्तु उनकी बुद्धि बड़ी विस्तृत थी। उसके द्वारा उन्होंने ममको शोककी ओरसे हटाया और एकाग्रचित्त होकर श्राद्धवेधिका विचार किया ।। ९३ ||
फिर श्राद्धके लिये शास्त्रोंमें जो फल-मूल आदि भोज्य पदार्थ बताये गये हैं तथा उनमेंसे जो-जो पदार्थ उनके पुत्रको प्रिय थे, उन सबका मन-ही-मन निश्चय करके उन तपोधनने संग्रह किया ।। १०-११ ।।
तदनन्तर, उन महान् बुद्धिमान् मुनिने अमावास्याके दिन सात ब्राह्मणोंको बुलाकर उनकी पूजा की और उनके लिये स्वयं ही प्रदक्षिण भावसे मोड़े हुए कुशके आसन बनाकर उन्हें उनपर बिठाया ।। १२ ।।
प्रभावशाली निमिने उन सातोंको एक ही साथ भोजनके लिये अलोना सावाँ परोसा ।। १३ ।।
इसके बाद भोजन करनेवाले ब्राह्मणोंके पैरोंके नीचे आसनोंपर उन्होंने दक्षिणाग्र कुश बिछा दिये और (अपने सामने भी) दक्षिणाग्र कुश रखकर पवित्र एवं सावधान हो अपने पुत्र श्रीमानके नाम और गोत्रका उच्चारण करते हुए कुशोंपर पिण्डदान किया ।। १४-१५
इस प्रकार श्राद्ध करनेके पश्चात् मुनिश्रेष्ठ निमि अपनेमें धर्मसंकरताका दोष मानकर (अर्थात् वेदमें पिता-पितामह आदिके उद्देश्यसे जिस श्राद्धका विधान है, उसको मैंने स्वेच्छासे पुत्रके निमित्त किया है--यह सोचकर) महान पश्चात्तापसे संतप्त हो उठे और इस प्रकार चिन्ता करने लगे-- || १६ ।।
“अहो! मुनियोंने जो कार्य पहले कभी नहीं किया, उसे मैंने ही क्यों कर डाला? मेरे इस मनमाने बर्तावको देखकर ब्राह्मणलोग मुझे अपने शापसे क्यों नहीं भस्म कर डालेंगे?” || १७ ।।
यह बात ध्यानमें आते ही उन्होंने अपने वंशप्रवर्तक महर्षि अत्रिका स्मरण किया। उनके चिन्तन करते ही तपोधन अत्रि वहाँ आ पहुँचे ।। १८ ।।
आनेपर जब अविनाशी अत्रिने निमिको पुत्रशोकसे व्याकुल देखा तब मधुर वाणीद्वारा उन्हें बहुत आश्वासन दिया-- ।। १९ |।
“तपोधन निमे! तुमने जो यह पितृयज्ञ किया है, इससे डरो मत। सबसे पहले स्वयं ब्रह्माजीने इस धर्मका साक्षात्कार किया है || २० ।।
“अतः तुमने यह ब्रह्माजीके चलाये हुए धर्मका ही अनुष्ठान किया है। ब्रह्माजीके सिवा दूसरा कौन इस श्राद्धविधिका उपदेश कर सकता है ।। २१ ।।
“बेटा! अब मैं तुमसे स्वयम्भू ब्रह्माजीकी बतायी हुई श्राद्धकी उत्तम विधिका वर्णन करता हूँ, इसे सुनो और सुनकर इसी विधिके अनुसार श्राद्धका अनुष्ठान करो ।। २२ ।
“तब तपोधन! पहले वेदमन्त्रके उच्चारणपूर्वक अग्नौकरण--अग्निकरणकी क्रिया पूरी करके अग्नि, सोम, वरुण और पितरोंके साथ नित्य रहनेवाले विश्वेदेवोंको उनका भाग सदा अर्पण करे। साक्षात् ब्रह्माजीने इनके भागोंकी कल्पना की है || २३-२४ ।।
“तदनन्तर श्राद्धकी आधारभूता पृथ्वीकी वैष्णवी, काश्यपी और अक्षया आदि नामोंसे स्तुति करनी चाहिये ।।
“अनघ! श्राद्धके लिये जल लानेके लिये भगवान् वरुणका स्तवन करना उचित है। इसके बाद तुम्हें अग्नि और सोमको भी तृप्त करना चाहिये || २६ ।।
“ब्रह्माजीके ही उत्पन्न किये हुए कुछ देवता पितरोंके नामसे प्रसिद्ध हैं। उन महाभाग पितरोंको उष्णप भी कहते हैं। स्वयम्भूने श्राद्धमें उनका भाग निश्चित किया है ।। २७ ।।
'श्राद्धके द्वारा उनकी पूजा करनेसे श्राद्धकर्ताके पितरोंका पापसे उद्धार हो जाता है। ब्रह्माजीने पूर्वकालमें जिन अग्निष्वात्त आदि पितरोंको श्राद्धका अधिकारी बताया है, उनकी संख्या सात है ।। २८ ।।
“विश्वेदेवोंकी चर्चा तो मैंने पहले ही की है, उन सबका मुख अग्नि है। यज्ञमें भाग पानेके अधिकारी उन महात्माओंके नामोंको कहता हूँ ।। २९ ।।
“बल, धृति, विपाप्मा, पुण्यकृत्, पावन, पर्ष्पिक्षेमा, समूह, दिव्यसानु, विवस्वान्, वीर्यवान्, हीमान्, कीर्तिमान, कृत, जितात्मा, मुनिवीर्य, दीप्तरोमा, भयंकर, अनुकर्मा, प्रतीत, प्रदाता, अंशुमान, शैलाभ, परमक्रोधी, धीरोष्णी, भूपति, स्रज, वज्री, वरी, विश्वेदेव, विद्युद्वर्चा, सोमवर्चा, सूर्यश्री, सोमप, सूर्यसावित्र, दत्तात्मा, पुण्डरीयक, उष्पीनाभ, नभोद, विश्वायु, दीप्ति, चमूहर, सुरेश, व्योमारि, शंकर, भव, ईश, कर्ता, कृति, दक्ष, भुवन, दिव्यकर्मकृत्, गणित, पंचवीर्य, आदित्य, रश्मिवान्ू, सप्तकृत, सोमवर्चा, विश्वकृत, कवि, अनुगोप्ता, सुगोप्ता, नप्ता और ईश्वर। इस प्रकार सनातन विश्वेदेवोंके नाम बतलाये गये। ये महाभाग कालकी गतिके जाननेवाले कहे गये हैं ।।
“अब श्राद्धमें निषिद्ध अन्न आदि वस्तुओंका वर्णन करता हूँ। अनाजमें कोदो और पुलक-सरसो, हिंगुद्रव्य--छौंकनेके काम आनेवाले पदार्थोंमें हींग आदि पदार्थ, शाकोंमें प्याज, लहसुन, सहिजन, कचनार, गाजर, कुम्हडा और लौकी आदि; कालानमक, गाँवमें पैदा होनेवाले वाराहीकन्दका गूदा, अप्रोक्षित--जिसका प्रोक्षण नहीं किया गया (संस्कारहीन), काला जीरा, बीरिया सौंचर नमक, शीतपाकी (शाक-विशेष), जिसमें अंकुर उत्पन्न हो गये हों ऐसे मूँग और सिंघाड़ा आदि। ये सब वस्तुएँ श्राद्धमें वर्जित हैं ।।
“सब प्रकारका नमक, जामुनका फल तथा छींक या आँसूसे दूषित हुए पदार्थ भी श्राद्धमें त्याग देने चाहिये ।।४०।।
“सब प्रकारका नमक, जामुनका फल तथा छींक या आँसूसे दूषित हुए पदार्थ भी श्राद्धमें त्याग देने चाहिये ।।
'श्राद्धविषयक हव्य-कव्यमें सुदर्शनसोमलता निन्दित है। उस हविको विश्वेदेव एवं पितृगण पसंद नहीं करते हैं || ४२ ।।
“पिण्डदानका समय उपस्थित होनेपर उस स्थानसे चाण्डालों और श्वपचोंको हटा देना चाहिये। गेरुआ वस्त्र धारण करनेवाला संन्यासी, कोढ़ी, पतित, ब्रह्महत्यारा, वर्णसंकर ब्राह्मण तथा धर्मभ्रष्ट सम्बन्धी भी श्राद्धकाल उपस्थित होनेपर विद्दानोंद्वारा वहाँसे हटा देने योग्य हैं! || ४३-४४ ।।
पूर्वकालमें अपने वंशज निमि ऋषिको श्राद्धके विषयमें यह उपदेश देकर तपस्याके धनी भगवान् अगत्रि ब्रह्माजीकी दिव्य सभामें चले गये || ४५ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वनें श्राद्धकल्पविषयक इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
बानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) बानबेवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“पितर और देवताओंका श्राद्धान्नसे अजीर्ण होकर ब्रह्माजीके पास जाना और अग्निके द्वारा अजीर्णका निवारण, श्राद्धसे तृप्त हुए पितरोंका आशीर्वाद”
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इस प्रकार जब महर्षि निमि पहले-पहल श्राद्धमें प्रवृत्त हुए, उसके बाद सभी महर्षि शास्त्रविधिके अनुसार पितृयज्ञका अनुष्ठान करने लगे ।। १ ।।
सदा धर्ममें तत्पर रहनेवाले और नियमपूर्वक व्रत धारण करनेवाले महर्षि पिण्डदान करनेके पश्चात् तीर्थके जलसे पितरोंका तर्पण भी करते थे | २ ।।
भारत! धीरे-धीरे चारों वर्णोके लोग श्राद्धमें देवताओं और पितरोंको अन्न देने लगे। लगातार श्राद्धमें भोजन करते-करते वे देवता और पितर पूर्ण तृप्त हो गये। अब वे अन्न पचानेके प्रयत्नमें लगे। अजीर्णसे उन्हें विशेष कष्ट होने लगा। तब वे सोम देवताके पास गये ।।
सोमके पास जाकर वे अजीर्णसे पीड़ित पितर इस प्रकार बोले--'देव! हम श्राद्धान्नसे बहुत कष्ट पा रहे हैं। अब आप हमारा कल्याण कीजिये! ।। ५ ।।
तब सोमने उनसे कहा--'देवताओ! यदि आप कल्याण चाहते हैं तो ब्रह्माजीकी शरणमें जाइये, वही आपलोगोंका कल्याण करेंगे' || ६ ।।
भरतनन्दन! सोमके कहनेसे वे पितरोंसहित देवता मेरुपर्वतके शिखरपर विराजमान ब्रह्माजीके पास गये ।।
पितरोंने कहा--भगवन्! निरन्तर श्राद्धका अन्न खानेसे हम अजीर्णतावश अत्यन्त वष्ट पा रहे हैं। देव! हमलोगोंपर कृपा कीजिये और हमें कल्याणके भागी बनाइये ।। ८ ।।
पितरोंकी यह बात सुनकर स्वयम्भू ब्रह्माजीने इस प्रकार कहा--“देवगण! मेरे निकट ये अग्निदेव विराजमान हैं। ये ही तुम्हारे कल्याणकी बात बतायेंगे” || ९ ।।
अग्नि बोले--देवताओे और पितरो! अबसे श्राद्धका अवसर उपस्थित होनेपर हमलोग साथ ही भोजन किया करेंगे। मेरे साथ रहनेसे आपलोग उस अन्नको पचा सकेंगे, इसमें संशय नहीं है ।। १० ।।
नरेश्वर! अग्निकी यह बात सुनकर वे पितर निश्चिंत हो गये; इसीलिये श्राद्धमें पहले अग्निको ही भाग अर्पित किया जाता है ।। ११ ।।
पुरुषप्रवर! अग्निमें हवन करनेके बाद जो पितरोंके निमित्त पिण्डदान दिया जाता है, उसे ब्रह्मराक्षस दूषित नहीं करते ।। १२ ।।
अग्निदेवके विराजमान रहनेपर राक्षस वहाँसे भाग जाते हैं। सबसे पहले पिताको पिण्ड देना चाहिये, फिर पितामहको ।। १३ ।।
तदनन्तर प्रपितामहको पिण्ड देना चाहिये। यह श्राद्धकी विधि बतायी गयी है। श्राद्धमें एकाग्रचित्त हो प्रत्येक पिण्ड देते समय गायत्री-मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये ।। १४ ।।
पिण्ड-दानके आरम्भमें पहले अग्नि और सोमके लिये जो दो भाग दिये जाते हैं, उनके मन्त्र क्रमश: इस प्रकार हैं--“अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा”, “सोमाय पितृमते स्वाहा ।' जो स्त्री रजस्वला हो अथवा जिसके दोनों कान बहरे हों, उसको श्राद्धमें नहीं ठहरना चाहिये। दूसरे वंशकी स्त्रीको भी श्राद्धकर्ममें नहीं लेना चाहिये ।।
जलको तैरते समय पितामहों (के नामों) का कीर्तन करे। किसी नदीके तटपर जानेके बाद वहाँ पितरोंके लिये पिण्डदान और तर्पण करना चाहिये ।। १६ ।।
पहले अपने वंशमें उत्पन्न पितरोंका जलके द्वारा तर्पण करके तत्पश्चात् सुहृद् और सम्बन्धियोंके समुदायको जलांजलि देनी चाहिये || १७ ।।
जो चितकबरे रंगके बैलोंसे जुती गाड़ीपर बैठकर नदीके जलको पार कर रहा हो, उसके पितर इस समय मानो नावपर बैठकर उससे जलांजलि पानेकी इच्छा रखते हैं ।।
अत: जो इस बातको जानते हैं, वे एकाग्रचित्त हो नावपर बैठनेपर सदा ही पितरोंके लिये जल दिया करते हैं। महीनेका आधा समय बीत जानेपर कृष्णपक्षकी अमावास्या तिथिको अवश्य श्राद्ध करना चाहिये। पितरोंकी भक्तिसे मनुष्यको पुष्टि, आयु, वीर्य और लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है ।। १९३ ||
कुरुकुलश्रेष्ठ! ब्रह्मा, पुलस्त्य, वसिष्ठ, पुलह, अंगिरा, क्रतु और महर्षि कश्यप--ये सात ऋषि महान् योगेश्वर और पितर माने गये हैं। राजन! इस प्रकार यह श्राद्धकी उत्तम विधि बतायी गयी || २०-२१ $ ।।
प्रेत (मरे हुए पिता आदि) पिण्डके सम्बन्धसे प्रेतत्वके कष्टसे छुटकारा पा जाते हैं। पुरुषश्रेष्ठट यह मैंने शास्त्रके अनुसार तुम्हें पूर्वमें बताये श्राद्धकी उत्पत्तिका प्रसंग विस्तारपूर्वक बताया है। अब दानके विषयमें बताऊँगा ।। २२-२३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वनें श्राद्धल्पविषयक बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
तिरानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) तिरानबेवें अध्याय के श्लोक 1-146½ का हिन्दी अनुवाद)
“गृहस्थके धर्मोका रहस्य, प्रतिग्रहके दोष बतानेके लिये वृषादर्भि और सप्तर्षियोंकी कथा, भिक्षुरूपधारी इन्द्रके द्वारा कृत्याका वध करके सप्तर्षियोंकी रक्षा तथा कमलोकी चोरीके विषयमें शपथ खानेके बहानेसे धर्मपालनका संकेत”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! यदि व्रतधारी विप्र किसी ब्राह्मणकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये उसके घर श्राद्धका अन्न भोजन कर ले तो इसे आप कैसा मानते हैं? (अपने व्रतका लोप करना उचित है या ब्राह्मणकी प्रार्थना अस्वीकार करना) ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! जो वेदोक्त व्रतका पालन नहीं करते, वे ब्राह्मणकी इच्छापूर्तिके लिये श्राद्धमें भोजन कर सकते हैं; किंतु जो वैदिक व्रतका पालन कर रहे हों, वे यदि किसीके अनुरोधसे श्राद्धका अन्न ग्रहण करते हैं तो उनका व्रत भंग हो जाता है ।।
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! साधारण लोग जो उपवासको ही तप कहा करते हैं, उसके सम्बन्धमें आपकी क्या धारणा है? मैं यह जानना चाहता हूँ कि वास्तवमें उपवास ही तप है या उसका और कोई स्वरूप है ।। ३ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! जो लोग पंद्रह दिन या एक महीनेतक उपवास करके उसे तपस्या मानते हैं, वे व्यर्थ ही अपने शरीरको कष्ट देते हैं। वास्तवमें केवल उपवास करनेवाले न तपस्वी हैं, न धर्मज्ञ || ४ ।।
त्यागका सम्पादन ही सबसे उत्तम तपस्या है। ब्राह्मणको सदा उपवासी (व्रतपरायण), ब्रह्मचारी, मुनि और वेदोंका स्वाध्यायी होना चाहिये || ५½ ।।
धर्मपालनकी इच्छासे ही उसको स्त्री आदि कुटुम्बका संग्रह करना चाहिये (विषयभोगके लिये नहीं)। ब्राह्मणको उचित है कि वह सदा जाग्रत् रहे, मांस कभी न खाय, पवित्रभावसे सदा वेदका पाठ करे, सदा सत्य भाषण करे और इन्द्रियोंको संयममें रखे। उसको सदा अमृताशी, विधघसाशी और अतिथिप्रिय तथा सदा पवित्र रहना चाहिये || ६-८ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--पृथ्वीनाथ! ब्राह्मण कैसे सदा उपवासी और ब्रह्मचारी होवे? तथा किस प्रकार वह विघसाशी एवं अतिथिप्रिय हो सकता है? ।। ९ ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! जो मनुष्य केवल प्रात:काल और सायंकाल ही भोजन करता है, बीचमें कुछ नहीं खाता, उसे सदा उपवासी समझना चाहिये ।।
जो केवल ऋतुकालमें धर्मपत्नीके साथ सहवास करता है वह ब्रह्मचारी ही माना जाता है। सदा दान देनेवाला पुरुष सत्यवादी ही समझने योग्य है ।। ११ ।।
जो मांस नहीं खाता, वह अमांसाशी होता है और जो सदा दान देनेवाला है, वह पवित्र माना जाता है। जो दिनमें नहीं सोता वह सदा जागनेवाला माना जाता है ।। १२ ।।
युधिष्ठिर! जो सदा भृत्यों- और अतिथियोंके भोजन कर लेनेके बाद ही स्वयं भोजन करता है, उसे केवल अमृत भोजन करनेवाला (अमृताशी) समझना चाहिये ।। १३ ।।
जबतक ब्राह्मण भोजन नहीं कर लें तबतक जो अन्न ग्रहण नहीं करता, वह मनुष्य अपने उस व्रतके द्वारा स्वर्गलोकपर विजय पाता है ।। १४ ।।
नरेश्वर! जो देवताओं, पितरों और आश्रितोंको भोजन करानेके बाद बचे हुए अन्नको ही स्वयं भोजन करता है उसे विघसाशी कहते हैं। उन मनुष्योंको ब्रह्मधाममें अक्षय लोकोंकी प्राप्ति होती है तथा गन्धर्वोंसहित अप्सराएँ उनकी सेवामें उपस्थित होती हैं ।।
जो देवताओं और अतिथियोंसहित पितरोंके लिये अन्नका भाग देकर स्वयं भोजन करते हैं, वे इस जगतमें पुत्र-पौत्रोंके साथ रहकर आनन्द भोगते हैं और मृत्युके पश्चात् उन्हें परम उत्तम गति प्राप्त होती है ।। १७ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! लोग ब्राह्मणोंको नाना प्रकारकी वस्तुएँ दान करते हैं। दान देने और दान लेनेवाले पुरुषोंमें क्या विशेषता होती है? ।। १८ ।॥।
भीष्मजीने कहा--राजन! जो ब्राह्मण साधु अर्थात् उत्तम गुण-आचरणवाले पुरुषसे तथा असाधु अर्थात् दुर्गुण और दुराचारवाले पुरुषसे दान ग्रहण करता है, उनमें सदगुणीसदाचारवाले पुरुषसे दान लेना अल्प दोष है। किंतु दुर्गुण और दुराचारवालेसे दान लेनेवाला पापमें डूब जाता है || १९ ।।
भारत! इस विषयमें राजा वृषादर्भि और सप्तर्षियोंके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है || २० ।।
एक समयकी बात है, कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, भरद्वाज, गौतम, विश्वामित्र, जमदग्नि और पतिव्रता देवी अरुन्धती--ये सब लोग समाधिके द्वारा सनातन ब्रह्मलोकको प्राप्त करनेकी इच्छासे तपस्या करते हुए इस पृथ्वीपर विचर रहे थे। इन सबकी सेवा करनेवाली एक दासी थी, जिसका नाम था “गण्डा'। वह पशुसख नामक एक शूद्रके साथ व्याही गयी थी (पशुसख भी इन्हीं महर्षियोंके साथ रहकर सबकी सेवा किया करता था) || २१-२३ ||
कुरुनन्दन! एक बार पृथ्वीपर दीर्घकालतक वर्षा नहीं हुई। जिससे अकाल पड़ जानेके कारण यह सारा जगत् भूखसे पीड़ित रहने लगा। लोग बड़ी कठिनाईसे अपने प्राणोंकी रक्षा करते थे || २४ ।।
पूर्वकालमें शिबिके पुत्र शैब्यने किसी यज्ञमें दक्षिणाके रूपमें अपना एक पुत्र ही ऋत्विजोंको दे दिया था || २५ ।।
उस दुर्भिक्षेके समय वह अल्पायु राजकुमार मृत्युको प्राप्त हो गया। वे सप्तर्षि भूखसे पीड़ित थे, इसलिये उस मरे हुए बालकको चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये ।। २६ ।।
तब वृषादर्भि बोले--प्रतिग्रह ब्राह्मणोंके लिये उत्तम वृत्ति नियत किया गया है। तपोधन! प्रतिग्रह दुर्भिक्ष और भूखके कष्टसे ब्राह्मणकी रक्षा करता है तथा पुष्टिका उत्तम साधन है। अतः मेरे पास जो धन है उसे आप स्वीकार करें और ले लें ।। २७ ।।
क्योंकि जो ब्राह्मण मुझसे याचना करता है, वह मुझे बहुत प्रिय लगता है। मैं आपलोगोंमेंसे प्रत्येकको एक हजार खच्चरियाँ देता हूँ तथा सभीको सफेद रोएँवाली शीघ्रगामिनी एवं ब्यायी हुई गौएँ साँडोंसहित देनेको उद्यत हूँ ।। २८ ।।
साथ ही एक कुलका भार वहन करनेवाले दस हजार भारवाहक सफेद बैल भी आप सब लोगोंको दे रहा हूँ। इतना ही नहीं, मैं आप सब लोगोंको जवान, मोटी-ताजी, पहली बारकी ब्यायी हुई, अच्छे स्वभाववाली श्रेष्ठ एवं दुधारू गौएँ भी देता हूँ || २९ ।।
इनके सिवा अच्छे-अच्छे गाँव, धान, रस, जौ, रत्न तथा और भी अनेक दुर्लभ वस्तुएँ प्रदान कर सकता हूँ। बतलाइये, मैं आपको क्या दूँ? आप इस अभक्ष्य वस्तुके भक्षणमें मन न लगावें। कहिये, आपके शरीरकी पुष्टिके लिये मैं क्या दूँ ।। ३० ।।
ऋषि बोले--राजन्! राजाका दिया हुआ दान ऊपरसे मधुके समान मीठा जान पड़ता है, परंतु परिणाममें विषके समान भयंकर हो जाता है। इस बातको जानते हुए भी आप क्यों हमें प्रलोभनमें डाल रहे हैं | ३१ ।।
ब्राह्मणोंका शरीर देवताओंका निवासस्थान है, उसमें सभी देवता विद्यमान रहते हैं। यदि ब्राह्मण तपस्यासे शुद्ध एवं संतुष्ट हो तो वह सम्पूर्ण देवताओंको प्रसन्न करता है ।। ३२ ।।
ब्राह्मण दिनभरमें जितना तप संग्रह करता है, उसको राजाका दिया हुआ दान वनको दग्ध करनेवाले दावानलकी भाँति नष्ट कर डालता है ।। ३३ ।।
राजन! इस दानके साथ ही आप सदा सकुशल रहें और यह सारा दान आप उन्हींको दें जो आपसे इन वस्तुओंको लेना चाहते हों। ऐसा कहकर वे दूसरे मार्गसे चल दिये || ३४ ।।
तब राजाकी प्रेरणासे उनके मन्त्री वनमें गये और गूलरके फल तोड़कर उन्हें देनेकी चेष्टा करने लगे || ३५ ।।
मन्त्रियोंने गूलर तथा दूसरे-दूसरे वृक्षोंक फल तोड़कर उनमें सुवर्ण-मुद्राएँ भर दीं। फिर उन फलोंको लेकर राजाके सेवक उन्हें ऋषियोंके हवाले करनेके लिये उनके पीछे दौड़े गये ।। ३६ ।।
वे सभी फल भारी हो गये थे, इस बातको महर्षि अत्रि ताड़ गये और बोले--ये “गूलर हमारे लेने योग्य नहीं हैं। हमारी बुद्धि मन्द नहीं हुई है। हमारी ज्ञानशक्ति लुप्त नहीं हुई है। हम सो नहीं रहे हैं, जागते हैं। हमें अच्छी तरह ज्ञात है कि इनके भीतर सुवर्ण भरा पड़ा है। यदि आज हम इन्हें स्वीकार कर लेते हैं तो परलोकमें हमें इनका कटु परिणाम भोगना पड़ेगा। जो इहलोक और परलोकमें भी सुख चाहता हो उसके लिये यह फल अग्राह्म है! ।। ३७-३८ ।।
वसिष्ठ बोले--एक निष्क (स्वर्णमुद्रा) का दान लेनेसे सौ हजार निष्कोंके दान लेनेका दोष लगता है। ऐसी दशामें जो बहुत-से निष्क ग्रहण करता है, उसको तो घोर पापमयी गतिमें गिरना पड़ता है ।। ३९ ||
कश्यपने कहा--इस पृथ्वीपर जितने धान, जौ, सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सब किसी एक पुरुषको मिल जाया तो भी उसे संतोष न होगा; यह सोचकर दविद्वान् पुरुष अपने मनकी तृष्णाको शान्त करे || ४० ।।
भरद्वाज बोले--जैसे उत्पन्न हुए मृगका सींग उसके बढ़नेके साथ-साथ बढ़ता रहता है, उसी प्रकार मनुष्यकी तृष्णा सदा बढ़ती ही रहती है, उसकी कोई सीमा नहीं है ।।
गौतमने कहा--संसारमें ऐसा कोई द्रव्य नहीं है, जो मनुष्यकी आशाका पेट भर सके। पुरुषकी आशा समुद्रके समान है, वह कभी भरती ही नहीं ।। ४२ ।।
विश्वामित्र बोले--किसी वस्तुकी कामना करनेवाले मनुष्यकी एक इच्छा जब पूरी होती है, तब दूसरी नयी उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार तृष्णा तीरकी तरह मनुष्यके मनपर चोट करती ही रहती है ।। ४३ ।।
अत्रि बोले--भोगोंकी कामना उनके उपभोगसे कभी नहीं शान्त होती है। अपितु घीकी आहुति पड़नेपर प्रज्वयलित होनेवाली आगकी भाँति वह और भी बढ़ती ही जाती है।।
जमदग्निने कहा--प्रतिग्रह न लेनेसे ही ब्राह्मण अपनी तपस्याको सुरक्षित रख सकता है। तपस्या ही ब्राह्मणका धन है। जो लौकिक धनके लिये लोभ करता है, उसका तपरूपी धन नष्ट हो जाता है || ४४ ।।
अरुन्धती बोलीं--संसारमें एक पक्षके लोगोंकी राय है कि धर्मके लिये धनका संग्रह करना चाहिये; किंतु मेरी रायमें धन-संग्रहकी अपेक्षा तपस्याका संचय ही श्रेष्ठ है ।। ४५।।
गण्डाने कहा--मेरे ये मालिक लोग अत्यन्त शक्तिशाली होते हुए भी जब इस भयंकर प्रतिग्रहके भयसे इतना डरते हैं, तब मेरी क्या सामर्थ्य है? मुझे तो दुर्बल प्राणियोंकी भाँति इससे बहुत बड़ा भय लग रहा है ।।
पशुसखने कहा--धर्मका पालन करनेपर जिस धनकी प्राप्ति होती है, उससे बढ़कर कोई धन नहीं है। उस धनको ब्राह्मण ही जानते हैं; अतः मैं भी उसी धर्ममय धनकी प्राप्तिका उपाय सीखनेके लिये विद्वान् ब्राह्मणोंकी सेवामें लगा हूँ || ४७ ।।
ऋषियोंने कहा--जिसकी प्रजा ये कपटयुक्त फल देनेके लिये ले आयी है तथा जो इस प्रकार फलके व्याजसे हमें सुवर्णदान कर रहा है, वह राजा अपने दानके साथ ही कुशलसे रहे ।। ४८ ।।
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! यह कहकर उन सुवर्णयुक्त फलोंका परित्याग करके वे समस्त व्रतधारी महर्षि वहाँसे अन्यत्र चले गये || ४९ ।।
तब मन्त्रियोंने शैव्यके पास जाकर कहा--महाराज! आपको विदित हो कि उन फलोंको देखते ही ऋषियोंको यह संदेह हुआ कि हमारे साथ छल किया जा रहा है। इसलिये वे फलोंका परित्याग करके दूसरे मार्गसे चले गये हैं |। ५० ।।
सेवकोंके ऐसा कहनेपर राजा वृषादर्भिको बड़ा कोप हुआ और वे उन सप्तर्षियोंसे अपने अपमानका बदला लेनेका विचार करके राजधानीको लौट गये ।। ५१ ।।
वहाँ जाकर अत्यन्त कठोर नियमोंका पालन करते हुए वे आहवनीय अमि्निमें आभिचारिक मन्त्र पढ़कर एक-एक आहुति डालने लगे ।। ५२ ।।
आहुति समाप्त होनेपर उस अग्निसे एक लोकभयंकर कृत्या प्रकट हुई। राजा वृषादर्भिने उसका नाम यातुधानी रखा ।। ५३ ।।
कालरात्रिके समान विकराल रूप धारण करनेवाली वह कृत्या हाथ जोड़कर राजाके पास उपस्थित हुई और बोली--'महाराज! मैं आपकी किस आज्ञाका पालन करूँ?” || ५४ ।।
वृषादर्भिने कहा--यातुधानी! तुम यहाँसे वनमें जाओ और वहाँ अरुन्धतीसहित सातों ऋषियोंका, उनकी दासीका और उस दासीके पतिका भी नाम पूछकर उसका तात्पर्य अपने मनमें धारण करो। इस प्रकार उन सबके नामोंका अर्थ समझकर उन्हें मार डालो; उसके बाद जहाँ इच्छा हो चली जाना || ५५-५६ ||
राजाकी यह आज्ञा पाकर यातुधानीने “तथास्तु' कहकर इसे स्वीकार किया और जहाँ वे महर्षि विचरा करते थे, उस वनमें चली गयी ।। ५७ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! उन दिनों वे अत्रि आदि महर्षि उस वनमें फल-मूलका आहार करते हुए घूमा करते थे || ५८ ।।
एक दिन उन महर्षियोंने देखा, एक संन्यासी कुत्तेके साथ वहाँ इधर-उधर विचर रहा है। उसका शरीर बहुत मोटा था। उसके मोटे कंधे, हाथ, पैर, मुख और पेट आदि सभी अंग सुन्दर और सुडौल थे ।। ५९ ।।
अरुन्धतीने सारे अंगोंसे हृष्ट-पुष्ट हुए उस सुन्दर संन्यासीको देखकर ऋषियोंसे कहा --'क्या आपलोग कभी ऐसे नहीं हो सकेंगे?” ।॥ ६० ।।
वसिष्ठजीने कहा--हमलोगोंकी तरह इसको इस बातकी चिन्ता नहीं है कि आज हमारा अग्निहोत्र नहीं हुआ और सबेरे तथा शामको अग्निहोत्र करना है; इसीलिये यह कुत्तेके साथ खूब मोटा-ताजा हो गया है ।। ६१ ।।
अत्रि बोले--हमलोगोंकी तरह भूखके मारे उसकी सारी शक्ति नष्ट नहीं हो गयी है तथा बड़े कष्टसे जो वेदोंका अध्ययन किया गया था, वह भी हमारी तरह इसका नष्ट नहीं हुआ है; इसीलिये यह कुत्तेके साथ मोटा हो गया है ।। ६२ ।।
विश्वामित्रने कहा--हमलोगोंका भूखके मारे सनातन शास्त्र विस्मृत हो गया है और शास्त्रोक्त धर्म भी क्षीण हो चला है। ऐसी दशा इसकी नहीं है तथा यह आलसी, केवल पेटकी भूख बुझानेमें ही लगा हुआ और मूर्ख है। इसीलिये यह कुत्तेके साथ मोटा हो गया है ।। ६३ ||
जमदग्नि बोले--हमारी तरह इसके मनमें वर्षभरके लिये भोजन और ईंधन जुटानेकी चिन्ता नहीं है, इसीलिये कुत्तेके साथ मोटा हो गया है ।। ६४ ।।
कश्यपने कहा--हमलोगोंके चार भाई हमसे प्रतिदिन 'भोजन दो, भोजन दो” कहकर अन्न माँगते हैं, अर्थात् हमलोगोंको एक भारी कुट॒म्बके भोजन-वस्त्रकी चिन्ता करनी पड़ती है। इस संन्यासीको यह सब चिन्ता नहीं है। अतः यह कुत्तेके साथ मोटा है ।। ६५ ।।
भरद्वाज बोले--इस विवेकशून्य ब्राह्मणबन्धुको हमलोगोंकी तरह अपनी स्त्रीके कलंकित होनेका शोक नहीं है। इसीलिये यह कुत्तेके साथ मोटा हो गया है ।।
गौतम बोले--हमलोगोंकी तरह इसे तीन-तीन वर्षोतक कुशकी रस्सीकी बनी हुई तीन लरवाली मेखला और मृगचर्म धारण करके नहीं रहना पड़ता है। इसीलिये यह कुत्तेके साथ मोटा हो गया है ।। ६७ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! कुत्तेसहित आये हुए संन्यासीने जब उन महर्षियोंको देखा, तब उनके पास आकर संन्यासकी मर्यादाकें अनुसार उनका हाथसे स्पर्श किया || ६८ ।।
तदनन्तर वे एक दूसरेको अपना कुशल-समाचार बताते हुए बोले--“हमलोग अपनी भूख मिटानेके लिये इस वनमें भ्रमण कर रहे हैं" ऐसा कहकर वे साथ-ही-साथ वहाँसे चल पड़े || ६९ ||
उन सबके निश्चय और कार्य एक-से थे। वे फल-मूलका संग्रह करके उन्हें साथ लिये उस वनमें विचर रहे थे || ७० ।।
एक दिन घूमते-फिरते हुए उन महर्षियोंको एक सुन्दर सरोवर दिखायी पड़ा; जिसका जल बड़ा ही स्वच्छ और पवित्र था। उसके चारों किनारोंपर सघन वृक्षोंकी पंक्ति शोभा पा रही थी | ७१ ।।
प्रातःकालीन सूर्यके समान अरुण रंगके कमलपुष्प उस सरोवरकी शोभा बढ़ा रहे थे तथा वैदूर्यमणिकी-सी कान्तिवाले कमलिनीके पत्ते उसमें चारों ओर छा रहे थे || ७२ ।।
नाना प्रकारके विहंगम कलरव करते हुए उसकी जलराशिका सेवन करते थे। उसमें प्रवेश करनेके लिये एक ही द्वार था। उसकी कोई वस्तु ली नहीं जा सकती थी। उसमें उतरनेके लिये बहुत सुन्दर सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। वहाँ काई और कीचड़का तो नाम भी नहीं था ।। ७३ ||
राजा वृषादर्भिकी भेजी हुई भयानक आकारवाली यातुधानी कृत्या उस तालाबकी रक्षा कर रही थी ।। ७४ ।।
पशुसखके साथ वे सभी महर्षि मृणाल लेनेके लिये उस सरोवरके तटपर गये, जो उस कृत्याके द्वारा सुरक्षित था | ७५ |।
सरोवरके तटपर खड़ी हुई उस यातुधानी कृत्याको जो बड़ी विकराल दिखायी देती थी, देखकर वे सब महर्षि बोले-- || ७६ |।
“अरी! तू कौन है और किसलिये यहाँ अकेली खड़ी है? यहाँ तेरे आनेका क्या प्रयोजन है? इस सरोवरके तटपर रहकर तू कौन-सा कार्य सिद्ध करना चाहती है?” || ७७ ।।
यातुधानी बोली--तपस्वियो! मैं जो कोई भी होऊँ, तुम्हें मेरे विषयमें पूछ-ताछ करनेका किसी प्रकार कोई अधिकार नहीं है। तुम इतना ही जान लो कि मैं इस सरोवरका संरक्षण करनेवाली हूँ ।। ७८ ।।
ऋषि बोले--भटद्रे! इस समय हमलोग भूखसे व्याकुल हैं और हमारे पास खानेके लिये दूसरी कोई वस्तु नहीं है। अतः: यदि तुम अनुमति दो तो हम सब लोग इस सरोवरसे कुछ मृणाल ले लें || ७९ ।।
यातुधानीने कहा--ऋषियो! एक शर्तपर तुम इस सरोवरसे इच्छानुसार मृणाल ले सकते हो। एक-एक करके आओ और मुझे अपना नाम और तात्पर्य बताकर मृणाल ले लो। इसमें विलम्ब करनेकी आवश्यकता नहीं है ।। ८० ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! उसकी यह बात सुनकर महर्षि अत्रि यह समझ गये कि 'यह राक्षसी कृत्या है और हम सब ऋषियोंका वध करनेकी इच्छासे यहाँ आयी हुई है।' तथापि भूखसे व्याकुल होनेके कारण उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया || ८१ ।।
अत्रि बोले--कल्याणी! काम आदि शत्रुओंसे त्राण करनेवालेको अरात्रि कहते हैं और अत् (मृत्यु) से बचानेवाला अत्रि कहलाता है। इस प्रकार मैं ही अरात्रि होनेके कारण अत्रि हूँ। जबतक जीवको एकमात्र परमात्माका ज्ञान नहीं होता, तबतककी अवस्था रात्रि कहलाती है। उस अज्ञानावस्थासे रहित होनेके कारण भी मैं अरात्रि एवं अत्रि कहलाता हूँ। सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये अज्ञात होनेके कारण जो रात्रिके समान है, उस परमात्मतत्त्वमें मैं सदा जाग्रत् रहता हूँ; अतः वह मेरे लिये अरात्रिके समान है, इस व्युत्पत्तिके अनुसार भी मैं अरात्रि और अत्रि (ज्ञानी) नाम धारण करता हूँ। यही मेरे नामका तात्पर्य समझो ।।
यातुधानीने कहा--तेजस्वी महर्षे! आपने जिस प्रकार अपने नामका तात्पर्य बताया है, उसका मेरी समझमें आना कठिन है। अच्छा, अब आप जाइये और तालाबमें उतरिये ।। ८३ ।।
वसिष्ठ बोले--मेरा नाम वसिष्ठ है, सबसे श्रेष्ठ होनेके कारण लोग मुझे वरिष्ठ भी कहते हैं। मैं गृहस्थ-आश्रममें वास करता हूँ; अतः वसिष्ठता (ऐश्वर्य-सम्पत्ति) और वासके कारण तुम मुझे वसिष्ठ समझो ।।
यातुधानी बोली--मुने! आपने जो अपने नामकी व्याख्या की है उसके तो अक्षरोंका भी उच्चारण करना कठिन है। मैं इस नामको नहीं याद रख सकती। आप जाइये तालाबमें प्रवेश कीजिये || ८५ ।।
कश्यपने कहा--यातुधानी! कश्य नाम है शरीरका, जो उसका पालन करता है उसे कश्यप कहते हैं। मैं प्रत्येक कुल (शरीर) में अन्तर्यामी रूप से प्रवेश करके उसकी रक्षा करता हूँ, इसीलिये कश्यप हूँ। कु अर्थात् पृथ्वीपर वम यानी वर्षा करनेवाला सूर्य भी मेरा ही स्वरूप है, इसलिये मुझे “कुवम” भी कहते हैं। मेरे देहका रंग काशके फूलकी भाँति उज्ज्वल है, अतः मैं काश्य नामसे भी प्रसिद्ध हूँ। यही मेरा नाम है। इसे तुम धारण करो ।। ८६ ||
यातुधानी बोली--महर्षे! आपके नामका तात्पर्य समझना मेरे लिये बहुत कठिन है। आप भी कमलोंसे भरी हुई बावड़ीमें जाइये || ८७ ।।
भरद्वाजने कहा--कल्याणी! जो मेरे पुत्र और शिष्य नहीं हैं, उनका भी मैं पालन करता हूँ, तथा देवता, ब्राह्मण, अपनी धर्मपत्नी तथा द्वाज (वर्णसंकर) मनुष्योंका भी भरण-पोषण करता हूँ, इसलिये भरद्वाज नामसे प्रसिद्ध हूँ || ८८ ।।
यातुधानी बोली--मुनिवर! आपके नामाक्षरका उच्चारण करनेमें भी मुझे क्लेश जान पड़ता है, इसलिये मैं इसे धारण नहीं कर सकती। जाइये, आप भी इस सरोवरमें उतरिये ।। ८९ ।।
गौतमने कहा--कृत्ये! मैंने गो नामक इन्द्रियोंका संयम किया है, इसलिये “गोदम' नाम धारण करता हूँ। मैं धूमरहित अग्निके समान तेजस्वी हूँ, सबमें समान दृष्टि रखनेके कारण तुम्हारे या और किसीके द्वारा मेरा दमन नहीं हो सकता। मेरे शरीरकी कान्ति (गो) अन्धकारको दूर भगानेवाली (अतम) है, अतः तुम मुझे गौतम समझो ।। ९० ।।
यातुधानी बोली--महामुने! आपके नामकी व्याख्या भी मैं नहीं समझ सकती। जाइये, पोखरेमें प्रवेश कीजिये || ९१ ।।
विश्वामित्रने कहा--यातुधानी! तू कान खोलकर सुन ले, विश्वेदेव मेरे मित्र हैं, तथा गौओं और सम्पूर्ण विश्वका मैं मित्र हूँ। इसलिये संसारमें विश्वामित्रके नामसे प्रसिद्ध हूँ ।। ९२ ।।
यातुधानी बोली--महर्ष! आपके नामकी व्याख्याके एक अक्षरका भी उच्चारण करना मेरे लिये कठिन है। इसे याद रखना मेरे लिये असम्भव है। अतः जाइये, सरोवरमें प्रवेश कीजिये ।। ९३ ।।
जमदग्निने कहा--कल्याणी! मैं जगत् अर्थात् देवताओंके आहवनीय अग्निसे उत्पन्न हुआ हूँ, इसलिये तुम मुझे जमदग्नि नामसे विख्यात समझो ।। ९४ ।।
यातुधानी बोली--महामुने! आपने जिस प्रकार अपने नामका तात्पर्य बतलाया है, उसको समझना मेरे लिये बहुत कठिन है। अब आप सरोवरमें प्रवेश कीजिये || ९५ ।।
अरुन्धतीने कहा--यातुधानी! मैं अरु अर्थात् पर्वत, पृथ्वी और द्युलोकको अपनी शक्तिसे धारण करती हूँ। अपने स्वामीसे कभी दूर नहीं रहती और उनके मनके अनुसार चलती हूँ, इसलिये मेरा नाम अरुन्धती है ।। ९६ ।।
यातुधानी बोली--देवि! आपने जो अपने नामकी व्याख्या की है, उसके एक अक्षरका भी उच्चारण मेरे लिये कठिन है, अतः इसे भी मैं नहीं याद रख सकती। आप तालाबमें प्रवेश कीजिये || ९७ ।।
गण्डाने कहा--अग्निसे उत्पन्न होनेवाली कृत्ये! गडि धातुसे गण्ड शब्दकी सिद्धि होती है, यह मुखके एक देश--कपोलका वाचक है। मेरा कपोल (गण्ड) ऊँचा है, इसलिये लोग मुझे गण्डा कहते हैं ।। ९८ ।।
यातुधानी बोली--तुम्हारे नामकी व्याख्याका भी उच्चारण करना मेरे लिये कठिन है। अतः इसको याद रखना असम्भव है। जाओ, तुम भी बावड़ीमें उतरो || ९९ ।।
पशुसखने कहा--आगसे पैदा हुई कृत्ये! मैं पशुओंको प्रसन्न रखता हूँ और उनका प्रिय सखा हूँ; इस गुणके अनुसार मेरा नाम पशुसख है || १०० ।।
यातुधानी बोली--तुमने जो अपने नामकी व्याख्या की है, उसके अक्षरोंका उच्चारण करना भी मेरे लिये कष्टप्रद है। अत: इसको याद नहीं रख सकती; अब तुम भी पोखरेमें जाओ || १०१ ||
शुन:ःसख (संन्यासी) ने कहा--यातुधानी! इन ऋषियोंने जिस प्रकार अपना नाम बताया है; उस तरह मैं नहीं बता सकता। तू मेरा नाम शुन:सख समझ ।।
यातुधानी बोली--विप्रवर! आपने संदिग्धवाणीमें अपना नाम बताया है। अत: अब फिर स्पष्टरूपसे अपने नामकी व्याख्या कीजिये || १०३ ।।
शुन:ःसखने कहा--मैंने एक बार अपना नाम बता दिया फिर भी यदि तूने उसे ग्रहण नहीं किया तो इस प्रमादके कारण मेरे इस त्रिदण्डकी मार खाकर अभी भस्म हो जा-इसमें विलम्ब न हो || १०४ ।।
यह कहकर उस संन्यासीने ब्रह्मदण्डके समान अपने त्रिदण्डसे उसके मस्तकपर ऐसा हाथ जमाया कि वह यातुधानी पृथ्वीपर गिर पड़ी और तुरंत भस्म हो गयी ।।
इस प्रकार शुन:ः:सखने उस महाबलवती राक्षसीका वध करके त्रिदण्डको पृथ्वीपर रख दिया और स्वयं भी वे वहीं घाससे ढँकी हुई भूमिपर बैठ गये || १०६ ।।
तदनन्तर वे सभी महर्षि इच्छानुसार कमलके फूल और मृणाल लेकर प्रसन्नतापूर्वक सरोवरसे बाहर निकले ।। १०७ ।।
फिर बहुत परिश्रम करके उन्होंने अलग-अलग बोझे बाँधे। इसके बाद उन्हें किनारेपर ही रखकर वे सरोवरके जलसे तर्पण करने लगे ।। १०८ ।।
थोड़ी देर बाद जब वे पुरुषप्रवर पानीसे बाहर निकले तो उन्हें रखे हुए अपने वे मृणाल नहीं दिखायी पड़े || १०९ |।
तब वे ऋषि एक दूसरेसे कहने लगे--अरे! हम सब लोग भूखसे व्याकुल थे और अब भोजन करना चाहते थे। ऐसे समयमें किस निर्दयीने हम पापियोंके मृणाल चुरा लिये ।। ११० ।।
शत्रुसूदन! वे श्रेष्ठ ब्राह्मण आपसमें ही एक-दूसरेपर संदेह करते हुए पूछ-ताछ करने लगे और अन्तमें बोले--“हम सब लोग मिलकर शपथ करें" ।। १११ ।।
शपथकी बात सुनकर सब-के-सब बोल उठे--“बहुत अच्छा'। फिर वे भूखसे पीड़ित और परिश्रमसे थके-माँदे ब्राह्मण एक साथ ही शपथ खानेको तैयार हो गये || ११२ ।।
अत्रि बोले--जो मृणालकी चोरी करता हो उसे गायको लात मारने, सूर्यकी ओर मुँह करके पेशाब करने और अनध्यायके समय अध्ययन करनेका पाप लगे ।।
वसिष्ठ बोले--जिसने मृणाल चुराये हों उसे निषिद्ध समयमें वेद पढ़ने, कुत्ते लेकर शिकार खेलने, संन्यासी होकर मनमाना बर्ताव करने, शरणागतको मारने, अपनी कन्या बेचकर जीविका चलाने तथा किसानके धन छीन लेनेका पाप लगे ।। ११४-११५ ||
कश्यपने कहा--जिसने मृणालोंकी चोरी की हो उसको सब जगह सब तरहकी बातें कहने, दूसरोंकी धरोहर हड़प लेने और झूठी गवाही देनेका पाप लगे ।।
जो मृणालोंकी चोरी करता हो उसे मांसाहारका पाप लगे। उसका दान व्यर्थ चला जाय तथा उसे दिनमें स्त्रीके साथ समागम करनेका पाप लगे || ११७ ।।
भरद्वाज बोले--जिसने मृणाल चुराया हो उस निर्दयीको धर्मके परित्यागका दोष लगे। वह स्त्रियों, कुटुम्बीजनों तथा गौओंके साथ पापपूर्ण बर्ताव करनेका दोषी हो और ब्राह्मणको वाद-विवादमें पराजित करनेका पाप लगे ।। ११८ ।।
जो मृणालकी चोरी करता हो, उसे उपाध्याय (अध्यापक या गुरु) को नीचे बैठाकर उनसे ऋग्वेद और यजुर्वेदका अध्ययन करने और घास-फ़ूसकी आगमें आहुति डालनेका पाप लगे ।। ११९ ||
जमदग्नि बोले--जिसने मृणालोंका अपहरण किया हो, उसे पानीमें मलत्याग करनेका पाप लगे, गाय मारनेका अथवा उसके साथ द्रोह करनेका तथा ऋतुकाल आये बिना ही स्त्रीके साथ समागम करनेका पाप लगे || १२० ।।
जिसने मृणाल चुराये हों उसे सबके साथ द्वेष करनेका, स्त्रीकी कमाईपर जीविका चलानेका, भाई-बन्धुओंसे दूर रहनेका, सबसे वैर करनेका और एक-दूसरेके घर अतिथि होनेका पाप लगे ।। १२१ ।।
गौतम बोले--जिसने मृणाल चुराये हों उसे वेदोंको पढ़कर त्यागनेका, तीनों अग्नियोंका परित्याग करनेका और सोमरसका विक्रय करनेका पाप लगे ।। १२२ ।।
जिसने मृणालोंकी चोरी की हो उसे वही लोक मिले, जो एक ही कूपमें पानी भरनेवाले, गाँवमें निवास करनेवाले और शूद्रकी पत्नीसे संसर्ग रखनेवाले ब्राह्मणको मिलता है || १२३ |।
विश्वामित्र बोले--जो इन मृणालोंको चुरा ले गया हो, जिस पुरुषके जीवित रहनेपर उसके गुरु और माता तथा पिताका दूसरे पुरुष पोषण करें उसको और जिसकी कुगति हुई हो तथा जिसके बहुत-से पुत्र हों उसको जो पाप लगता है वह पाप उसे लगे ।। १२४
जिसने मृणालोंका अपहरण किया हो, उसे अपवित्र रहनेका, वेदको मिथ्या माननेका, धनका घमंड करनेका, ब्राह्मण होकर खेत जोतनेका और दूसरोंसे डाह रखनेका पाप लगे ।। १२५ ||
जिसने मृणाल चुराये हों, उसे वर्षाकालमें परदेशकी यात्रा करनेका, ब्राह्मण होकर वेतन लेकर काम करनेका, राजाके पुरोहित तथा यज्ञके अनधिकारीसे भी यज्ञ करानेका पाप लगे ।। १२६ ।।
अरुन्धती बोलीं--जो स्त्री मृणालोंकी चोरी करती हो उसे प्रतिदिन सासका तिरस्कार करनेका, अपने पतिका दिल दुखानेका और अकेली ही स्वादिष्ट वस्तुएँ खानेका पाप लगे ।। १२७ ।।
जिसने मृणालोंकी चोरी की हो, उस स्त्रीको कुटुम्बीजनोंका अपमान करके घरमें रहनेका, दिन बीत जानेपर सत्तू खानेका, कलंकिनी होनेके कारण पतिके उपभोगमें न आनेका और ब्राह्मणी होकर भी क्षत्राणियोंके समान उग्र स्वभाववाले वीर पुत्रकी जननी होनेका पाप लगे ।। १२८ ।।
गण्डा बोली--जिस स्त्रीने मृणलकी चोरी की हो उसे सदा झूठ बोलनेका, भाईबन्धुओंसे लड़ने और विरोध करने और शुल्क लेकर कन्यादान करनेका पाप लगे ।।
जिस स्त्रीने मृणाल चुराया हो उसे रसोई बनाकर अकेली भोजन करनेका, दूसरोंकी गुलामी करती-करती ही बूढ़ी होनेका और पापकर्म करके मौतके मुखमें पड़नेका पाप लगे ।। १३० ।।
पशुसख बोला--जिसने मृणालोंकी चोरी की हो उसे दूसरे जन्ममें भी दासीके ही घरमें पैदा होने, संतानहीन और निर्धन होने तथा देवताओंको नमस्कार न करनेका पाप लगे ।। १३१ ||
शुन:ःसखने कहा--जिसने मृणालोंको चुराया हो वह ब्रह्मचर्यव्रत पूर्ण करके आये हुए यजुर्वेदी अथवा सामवेदी विद्वानको कन्यादान दे अथवा वह ब्राह्मण अथर्ववेदका अध्ययन पूरा करके शीघ्र ही स्नातक बन जाय ।। १३२ ।।
ऋषियोंने कहा--शुनःसख ! तुमने जो शपथ की है, वह तो ब्राह्मणोंको अभीष्ट ही है। अतः जान पड़ता है, हमारे मृणालोंकी चोरी तुमने ही की है || १३३
शुन:सखने कहा--मुनिवरो! आपका कहना ठीक है। वास्तवमें आपका भोजन मैंने ही रख लिया है। आपलोग जब तर्पण कर रहे थे, उस समय आपकी दृष्टि इधर नहीं थी; तभी मैंने वह सब लेकर रख लिया था। अत: आपका यह कथन कि तुमने ही मृणाल चुराये हैं, ठीक है। मिथ्या नहीं है। वास्तवमें मैंने ही उन मृणालोंकी चोरी की है ।। १३४ ।।
मैंने उन मृणालोंको यहाँ छिपा दिया था। देखिये, ये रहे आपके मृणाल। निष्पाप मुनियो! मैंने आपलोगोंकी परीक्षाके लिये ही ऐसा किया था || १३५ ।।
मैं आप सब लोगोंकी रक्षाके लिये यहाँ आया था यह यातुधानी अत्यन्त क्रूर स्वभाववाली कृत्या थी और आपलोगोंका वध करना चाहती थी ।। १३६ ।।
तपोधनो! राजा वृषादर्भिने इसे भेजा था, किंन्तु यह मेरे द्वारा मारी गयी। ब्राह्मणो! मैंने सोचा कि अग्निसे उत्पन्न यह दुष्ट पापिनी कृत्या कहीं आप-लोगोंकी हिंसा न कर डाले; इसलिये मैं यहाँ आ गया। आपलोग मुझे इन्द्र समझें। आपलोगोंने जो लोभका परित्याग किया है, इससे आपको वे अक्षयलोक प्राप्त हुए हैं, जो सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाले हैं। अतः ब्राह्मणो! अब आपलोग यहाँसे उठें और शीघ्र उन लोकोंमें पदार्पण करें || १३७-१३९ ||
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इन्द्रकी बात सुनकर महर्षियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने देवराजसे “तथास्तु”/ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। फिर वे सब-के-सब देवेन्द्रके साथ ही स्वर्गलोक चले गये ।। १४० ।।
इस प्रकार उन महात्माओंने अत्यन्त भूखे होनेपर और बड़े-बड़े लोगोंके अनेक प्रकारके भोगोंद्वारा लालच देनेपर भी उस समय लोभ नहीं किया। इसीसे उन्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति हुई || १४१-१४२ ।।
राजन! इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह सभी दशाओंमें लोभका त्याग करे, क्योंकि यह सबसे बड़ा धर्म है। अत: लोभको अवश्य त्याग देना चाहिये ।। १४३ ।।
जो मनुष्य जनसमुदायमें इस पवित्र चरित्रका कीर्तन करता है, वह धन एवं मनोवांछित वस्तुका भागी होता है और कभी संकटमें नहीं पड़ता है || १४४ ।।
उसके ऊपर देवता, ऋषि और पितर सभी प्रसन्न होते हैं। वह मनुष्य इहलोकमें यश, धर्म एवं धनका भागी होता है। और मृत्युके पश्चात् उसे स्वर्गलोक सुलभ होता है ।। १४५ ||
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गृणालकी चोरीका उपाख्यानविषयक तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दक्षिणात्य अधिक पाठके १½ “लोक मिलाकर कुल १४६½ “लोक हैं)
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