सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के छियासीवें अध्याय से नब्बेवें अध्याय तक (From the 86 chapter to the 90 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

छियासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) छियासीवें अध्याय के श्लोक 1-35 का हिन्दी अनुवाद) 

“कार्तिकेयकी उत्पत्ति, पालन-पोषण और उनका देवसेनापति-पदपर अभिषेक, उनके द्वारा तारकासुरका वध”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! सुवर्णका विधिपूर्वक दान करनेसे जो वेदोक्त फल प्राप्त होते हैं, यहाँ उनका आपने विस्तारपूर्वक वर्णन किया ।। १ ।।

सुवर्णकी उत्पत्तिका जो कारण है, वह भी आपने बताया। अब मुझे यह बताइये कि वह तारकासुर कैसे मारा गया? ।। २ ।।

पृथ्वीनाथ! आपने पहले कहा है कि वह देवताओंके लिये अवध्य था, फिर उसकी मृत्यु कैसे हुई? यह विस्सारपूर्वक बताइये ।। ३ ।।

कुरुकुलका भार वहन करनेवाले पितामह! मैं आपके मुखसे यह तारक-वधका सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनना चाहता हूँ। इसके लिये मेरे मनमें बड़ा कौतूहल है ।।

भीष्मजीने कहा--राजेन्द्र! जब गंगाजीने अग्नि-द्वारा स्थापित किये हुए उस गर्भको त्याग दिया, तब देवताओं और ऋषियोंका बना-बनाया काम बिगड़तेकी स्थितिमें आ गया। उस दशामें उन्होंने उस गर्भके भरण-पोषणके लिये छहों कृत्तिकाओंको प्रेरित किया ॥। ५ ।।

कारण यह था कि देवांगनाओंमें दूसरी कोई स्त्री अग्नि एवं रुद्रकं उस तेजका भरणपोषण करनेमें समर्थ नहीं थी और ये कृत्तिकाएँ अपनी शक्तिसे उस गर्भको भलीभाँति धारण-पोषण कर सकती थीं ।। ६ ।।

अपने तेजके स्थापन और उत्तम वीर्यके ग्रहणद्वारा गर्भ धारण करनेके कारण अग्निदेव उन छहों कृत्तिकाओंपर बहुत प्रसन्न हुए | ७ ।।

प्रभो! उन छहों कृत्तिकाओंने अग्निके उस गर्भका पोषण किया। अग्निका वह सारा तेज छः मार्गोसे उनके भीतर स्थापित हो चुका था ।। ८ ।।

गर्भमें जब वह महामना कुमार बढ़ने लगा, तब उसके तेजसे उनका सारा अंग व्याप्त होनेके कारण वे कृत्तिकाएँ कहीं चैन नहीं पाती थीं || ९ ।।

नरश्रेष्ठू तदनन्तर तेजसे व्याप्त अंगवाली उन समस्त कृत्तिकाओंने प्रसवकाल उपस्थित होनेपर एक साथ ही उस गर्भको उत्पन्न किया ।। १० |।

छः: अधिष्ठानोंमें पला हुआ वह गर्भ जब उत्पन्न होकर एकत्वको प्राप्त हो गया, तब सुवर्णके समीप स्थित हुए उस बालकको पृथ्वीने ग्रहण किया ।। ११ ।।

वह कान्तिमान्‌ शिशु अग्निके समान प्रकाशित हो रहा था। उसके शरीरकी आकृति दिव्य थी। वह देखनेमें बहुत ही प्रिय जान पड़ता था। वह दिव्य सरकंडेके वनमें जन्म ग्रहण करके दिनोंदिन बढ़ने लगा ।। १२ ।।

कृत्तिकाओंने देखा वह बालक अपनी कान्तिसे सूर्यके समान प्रकाशित हो रहा है। इससे उनके हृदयमें स्नेह उमड़ आया और वे सौहार्दवश अपने स्तनोंका दूध पिलाकर उसका पोषण करने लगीं ।। १३ ।।

इसीसे चराचर प्राणियोंसहित त्रिलोकीमें वह कार्तिकेयके नामसे प्रसिद्ध हुआ। स्कन्दन (स्खलन) के कारण वह 'स्कन्द' कहलाया और गुहामें वास करनेसे “गुह” नामसे विख्यात हुआ ।। १४ ।।

तदनन्तर तैंतीस देवता, दसों दिशाएँ, दिक्पाल, रुद्र, धाता, विष्णु, यम, पूषा, अर्यमा, भग, अंश, मित्र, साध्य, वसु, वासव (इन्द्र), अश्विनीकुमार, जल (वरुण), वायु, आकाश, चन्द्रमा, नक्षत्र, ग्रहगण, रवि तथा दूसरे-दूसरे विभिन्न प्राणी जो देवताओंके आश्रित थे, सबके-सब उस अदभुत अग्निपुत्र “कुमार” को देखनेके लिये वहाँ आये ।।

ऋषियोंने स्तुति की और गन्धर्वोने उनका यश गाया। ब्राह्मणोंके प्रेमी उस कुमारके छ: मुख, बारह नेत्र, बारह भुजाएँ, मोटे कंधे और अग्नि तथा सूर्यके समान कान्ति थी। वे सरकण्डोंके झुरमुटमें सो रहे थे। उन्हें देखकर ऋषियोंसहित देवताओंको बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ और यह विश्वास हो गया कि अब तारकासुर मारा जायगा। तदनन्तर सब देवता उन्हें उनकी प्रिय वस्तुएँ भेंट करने लगे || १८--२० ॥।

पक्षियोंने खेल-कूदमें लगे हुए कुमारको खिलौने दिये, गरुडने विचित्र पंखोंसे सुशोभित अपना पुत्र मयूर भेंट किया |। २१ ।।

राक्षसोंने सूअर और भैंसा--ये दो पशु उन्हें उपहाररूपमें दिये। गरुड़के भाई अरुणने अग्निके समान लाल वर्णवाला एक मुर्गा भेंट किया || २२ ।।

चन्द्रमाने भेंड़ा दिया, सूर्यने मनोहर कान्ति प्रदान की, गोमाता सुरभि देवीने एक लाख गौएँ प्रदान कीं ।।

अग्निने गुणवान्‌ बकरा, इलाने बहुतसे फल-फूल, सुधन्वाने छकड़ा और विशाल कूबरसे युक्त रथ दिये ।।

वरुणने वरुणलोकके अनेक सुन्दर एवं दिव्य हाथी दिये। देवराज इन्द्रने सिंह, व्याप्र, हाथी, अन्यान्य पक्षी, बहुत-से भयानक हिंसक जीव तथा नाना प्रकारके छत्र भेंट किये || २५६ ।।

राक्षमों और असुरोंका समुदाय उन शक्तिशाली कुमारके अनुगामी हो गये। उन्हें बढ़ते देख तारकासुरने युद्धके लिये ललकारा; परंतु अनेक उपाय करके भी वह उन प्रभावशाली कुमारको मारनेमें सफल न हो सका ।। २६-२७ ।।

देवताओंने गुहावासी कुमारकी पूजा करके उनका सेनापतिके पदपर अभिषेक किया और तारकासुरने देवताओंपर जो अत्याचार किया था, सो कह सुनाया ।।

महापराक्रमी देवसेनापति प्रभु गुहने वृद्धिको प्राप्त होकर अपनी अमोघ शक्तिसे तारकासुरका वध कर डाला ।। २९ |।

खेल-खेलमें ही उन अग्निकुमारके द्वारा जब तारकासुर मार डाला गया, तब ऐश्वर्यशाली देवेन्द्र पुन: देवताओंके राज्यपर प्रतिष्ठित किये गये || ३० ।।

प्रतापी स्कन्द सेनापतिके ही पदपर रहकर बड़ी शोभा पाने लगे। वे देवताओं के ईश्वर तथा संरक्षक थे और भगवान्‌ शंकरका सदा ही हित किया करते थे ।। ३१ ।।

ये अग्निपुत्र भगवान्‌ स्कन्द सुवर्णमय विग्रह धारण करते हैं। वे नित्य कुमारावस्थामें ही रहकर देवताओंके सेनापतिपदपर प्रतिष्ठित हुए हैं ।। ३२ ।।

सुवर्ण कार्तिकेयजीके साथ ही उत्पन्न हुआ है और अग्निका उत्कृष्ट तेज माना गया है। इसलिये वह मंगलमय, अक्षय एवं उत्तम रत्न है ।। ३३ ।।

कुरुनन्दन! नरेश्वर! इस प्रकार पूर्वकालमें वसिष्ठजीने परशुरामको यह सारा प्रसंग एवं सुवर्णकी उत्पत्ति और माहात्म्य सुनाया था। अतः तुम स्वर्णदानके लिये प्रयत्न करो ।। ३४ ।।

परशुरामजी सुवर्णका दान करके सब पापोंसे मुक्त हो गये और स्वर्गमें उस महान्‌ स्थानको प्राप्त हुए जो दूसरे मनुष्योंके लिये सर्वथा दुर्लभ है || ३५ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें तारकवधका उपाख्यान नामक छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

सतासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) सतासीवें अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद) 

“विविध तिथियोंमें श्राद्ध करनेका फल”

युधिष्ठिरने कहा--धर्मात्मन्‌! पृथ्वीनाथ! आपने जैसे चारों वर्णोके धर्म बताये हैं, उसी प्रकार अब मेरे लिये श्राद्ध-विधिका वर्णन कीजिये ।। १ ।।

वैशम्पायनजी कहते हैं--(जनमेजय!) राजा युधिष्ठिरके इस प्रकार अनुरोध करनेपर उस समय शान्तनुनन्दन भीष्मने इस सम्पूर्ण श्राद्धवेधिका इस प्रकार वर्णन आरम्भ किया ।। २ ।।

भीष्मजी बोले--शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! तुम श्राद्ध-कर्मके शुभ विधिको सावधान, होकर सुनो। यह धन, यश और पुत्रकी प्राप्ति करानेवाला है। इसे पितृयज्ञ कहते हैं ।। ३ ।।

देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग, राक्षस, पिशाच और किन्नर--इन सबके लिये पितर सदा ही पूज्य हैं ।। ४ ।।

मनीषी पुरुष पहले पितरोंकी पूजा करके पीछे देवताओंकी पूजा करते हैं। इसलिये पुरुषको चाहिये कि वह सदा सम्पूर्ण यज्ञोंके द्वारा पितरोंकी पूजा करे || ५ ।।

महाराज! पितरोंके श्राद्धको अन्वाहार्य कहते हैं। अतः विशेष विधिके द्वारा उसका अनुष्ठान पहले करना चाहिये ।। ६ ।।

सभी दिनोंमें श्राद्ध करनेसे पितर प्रसन्न रहते हैं। अब मैं तिथि और अतिथिके सब गुणागुणका वर्णन करूँगा ।। ७ ।।

निष्पाप नरेश! जिन दिनोंमें श्राद्ध करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वह सब मैं यथार्थरूपसे बताऊँगा, ध्यान देकर सुनो ।। ८ ।।

प्रतिपदा तिथिको पितरोंकी पूजा करनेसे मनुष्य अपने उत्तम गृहमें मनके अनुरूप सुन्दर एवं बहुसंख्यक संतानोंको जन्म देनेवाली दर्शनीय भार्या प्राप्त करता है ।।

द्वितीयाको श्राद्ध करनेसे कन्याओंका जन्म होता है। तृतीयाके श्राद्धसे घोड़ोंकी प्राप्ति होती है, चतुर्थीको पितरोंका श्राद्ध किया जाय तो घरमें बहुत-से छोटे-छोटे पशुओंकी संख्या बढ़ती है ।। १० ।।

नरेश्वर! पंचमीको श्राद्ध करनेवाले पुरुषोंके बहुत-से पुत्र होते हैं। षष्ठीको श्राद्ध करनेवाले मनुष्य कान्तिके भागी होते हैं || ११ ।।

राजन! सप्तमीको श्राद्ध करनेवाला मनुष्य कृषिकर्ममें लाभ उठाता है और अष्टमीको श्राद्ध करनेवाले पुरुषको व्यापारमें लाभ होता है || १२ ।।

नवमीको श्राद्ध करनेवाले पुरुषके यहाँ एक खुरवाले घोड़े आदि पशुओंकी बहुतायत होती है और दशमीको श्राद्ध करनेवाले मनुष्यके घरमें गौओंको वृद्धि होती है ।।

महाराज! एकादशीको श्राद्ध करनेवाला मानव सोने-चाँदीको छोड़कर शेष सभी प्रकारके धनका भागी होता है। उसके घरमें ब्रह्मतेजसे सम्पन्न पुत्र जन्म लेते हैं ।। १४ ।।

द्वादशीको श्राद्धके लिये प्रयत्न करनेवाले पुरुषको सदा ही मनोरम सुवर्ण, चाँदी तथा बहुत-से धनकी प्राप्ति होती देखी जाती है ।। १५ ।।

त्रयोदशीको श्राद्ध करनेवाला पुरुष अपने कुट॒म्बी-जनोंमें श्रेष्ठ होता है; परंतु जो चतुर्दशीको श्राद्ध करता है, उसके घरमें नवयुवकोंकी मृत्यु अवश्य होती है तथा श्राद्ध करनेवाला मनुष्य स्वयं भी युद्धका भागी होता है (इसलिये चतुर्दशीको श्राद्ध नहीं करना चाहिये)। अमावास्याको श्राद्ध करनेसे वह अपनी सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है ।। १६-१७ ।।

कृष्ण-पक्षमें केवल चतुर्दशीको छोड़कर दशमीसे लेकर अमावास्यातककी सभी तिथियाँ श्राद्धकर्ममें जैसे प्रशस्त मानी गयी हैं, वैसे दूसरी प्रतिपदासे नवमीतक नहीं ।। १८ ।।

जैसे पूर्व (शुक्ल) पक्षकी अपेक्षा अपर (कृष्ण) पक्ष श्राद्धके लिये श्रेष्ठ माना है, उसी प्रकार पूर्वाह्नकी अपेक्षा अपराह्न उत्तम माना जाता है ।। १९ ||

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वनें श्राद्धकल्पविषयक सतासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

अट्ठासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) अट्ठासीवें अध्याय के श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद) 

“श्राद्धमें पितरोंके तृप्तिविषयका वर्णन”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! पितरोंके लिये दी हुई कौन-सी वस्तु अक्षय होती है? किस वस्तुके दानसे पितर अधिक दिनतक और किसके दानसे अनन्त कालतक तृप्त रहते हैं? ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! श्राद्धवेत्ताओंने श्राद्ध-कल्पमें जो हविष्य नियत किये हैं, वे सब-के-सब काम्य हैं। मैं उनका तथा उनके फलका वर्णन करता हूँ, सुनो ।।

नरेश्वर! तिल, ब्रीहि, जौ, उड़द, जल और फल-मूलके द्वारा श्राद्ध करनेसे पितरोंको एक मासतक तृप्ति बनी रहती है ।। ३ ।।

मनुजीका कथन है कि जिस श्राद्धमें तिलकी मात्रा अधिक रहती है, वह श्राद्ध अक्षय होता है। श्राद्ध-सम्बन्धी सम्पूर्ण भोज्य-पदार्थोंमें तिलोंका प्रधानरूपसे उपयोग बताया गया है ।। ४ ।।

यदि श्राद्धमें गायका दही दान किया जाय तो उससे पितरोंको एक वर्षतक तृप्ति होती बतायी गयी है। गायके दहीका जैसा फल बताया गया है, वैसा ही घृतमिश्रित खीरका भी समझना चाहिये ।। ५ ।।

युधिष्ठिर! इस विषयमें पितरोंद्वारा गायी हुई गाथाका भी विज्ञ पुरुष गान करते हैं। पूर्वकालमें भगवान्‌ सनत्कुमारने मुझे यह गाथा बतायी थी ।। ६ ।।

पितर कहते हैं--“क्या हमारे कुलमें कोई ऐसा पुरुष उत्पन्न होगा, जो दक्षिणायनमें आश्विन मासके कृष्णपक्षमें मघा और त्रयोदशी तिथिका योग होनेपर हमारे लिये घृतमिश्रित खीरका दान करेगा? ।। ७ ।।

“अथवा वह नियमपूर्वक व्रतका पालन करके मघा नक्षत्रमें ही हाथीके शरीरकी छायामें बैठकर उसके कानरूपी व्यजनसे हवा लेता हुआ अन्न-विशेष-चावलका बना हुआ पायस या लौहशाकसे विधिपूर्वक हमारा श्राद्ध करेगा? ।। ८ ।।

“बहुत-से पुत्र पानेकी अभिलाषा रखनी चाहिये, उनमेंसे यदि एक भी उस गया-तीर्थकी यात्रा करे, जहाँ लोकविख्यात अक्षयवट विद्यमान है, जो श्राद्धके फलको अक्षय बनानेवाला है।। ९।।

'पितरोंकी क्षय-तिथिको जल, मूल, फल, उसका गूदा और अन्न आदि जो कुछ भी मधुमिश्रित करके दिया जाता है, वह उन्हें अनन्तकालतक तृप्ति देनेवाला है" || १० ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें श्राद्धकल्पविषयक अट्ठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

नवासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) नवासीवें अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद) 

“विभिन्न नक्षत्रोंमें श्राद्ध करनेका फल”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठि!! यमने राजा शशबिन्दुको भिन्न-भिन्न नक्षत्रोंमें किये जानेवाले जो काम्य श्राद्ध बताये हैं; उनका वर्णन मुझसे सुनो ।। १ ।।

जो मनुष्य सदा कृत्तिका नक्षत्रके योगमें अग्निकी स्थापना करके पुत्रसहित श्राद्ध या पितरोंका यजन करता है, वह रोग और चिन्तासे रहित हो जाता है ।। २ ।।

संतानकी इच्छावाला पुरुष रोहिणीमें और तेजकी कामनावाला पुरुष मृगशिरा नक्षत्रमें श्राद्ध करे। आर्दरा नक्षत्रमें श्राद्धका दान देनेवाला मनुष्य क्रूरकर्मा होता है (इसलिये आर्द्रा नक्षत्रमें श्राद्ध नहीं करना चाहिये) ।। ३ ।।

धनकी इच्छावाले पुरुषको पुनर्वसु नक्षत्रमें श्राद्ध करना चाहिये। पुष्टिकी कामनावाला पुरुष पुष्यनक्षत्रमें श्राद्ध करे | ४ ।।

आश्लेषामें श्राद्ध करनेवाला पुरुष धीर पुत्रोंको जन्म देता है। मघामें श्राद्ध एवं पिण्डदान करनेवाला मनुष्य अपने कुट॒म्बी जनोंमें श्रेष्ठ होता है ।। ५ ।।

पूर्वाफाल्गुनीमें श्राद्धका दान देनेवाला मानव सौभाग्यशाली होता है। उत्तराफाल्गुनीमें श्राद्ध करनेवाला संतानवान्‌ और हस्तनक्षत्रमें श्राद्ध करनेवाला अभीष्ट फलका भागी होता है ।। ६ |।

चित्रामें श्राद्धका दान करनेवाले पुरुषको रूपवानू पुत्र प्राप्त होते हैं। स्वातीके योगमें पितरोंकी पूजा करनेवाला वाणिज्यसे जीवन-निर्वाह करता है ।। ७ ।।

विशाखामें श्राद्ध करनेवाला मनुष्य यदि पुत्र चाहता हो तो बहुसंख्यक पुत्रोंसे सम्पन्न होता है। अनुराधामें श्राद्ध करनेवाला पुरुष दूसरे जन्ममें राजमण्डलका शासक होता है ।। ८ ।।

कुरुकुलश्रेष्ठ)! ज्येष्ठा नक्षत्रमें इन्द्रियसंयमपूर्वक पिण्डदान करनेवाला मनुष्य समृद्धिशाली होता है और प्रभुत्व प्राप्त करता है ।। ९ ।।

मूलमें श्राद्ध करनेसे आरोग्यकी प्राप्ति होती है और पूर्वाषाढ़ामें उत्तम यशकी। उत्तराषाढ़ामें पितृयज्ञ करनेवाला पुरुष शोकशून्य होकर पृथ्वीपर विचरण करता है ।। १० ।।

अभिजित्‌ नक्षत्रमें श्राद्ध करनेवाला वैद्यविषयक सिद्धि पाता है। श्रवण नक्षत्रमें श्राद्धका दान देनेवाला मानव मृत्युके पश्चात्‌ सदगतिको प्राप्त होता है ।। ११ ।।

धनिष्ठामें श्राद्ध करनेवाला मनुष्य नियमपूर्वक राज्यका भागी होता है। वारुण नक्षत्रशतभिषामें श्राद्ध करनेवाला पुरुष वैद्यविषयक सिद्धिको पाता है | १२ ।।

पूर्वभाद्रपदा्में श्राद्ध करनेवाला बहुत-से भेड़-बकरोंका लाभ लेता है और उत्तराभाद्रपदामें श्राद्ध करनेवाला सहस्रों गौएँ पाता है ।। १३ ।।

श्राद्धमें रेवतीका आश्रय लेनेवाला (अर्थात्‌ रेवतीमें श्राद्ध करनेवाला) पुरुष सोनेचाँदीके सिवा अन्य नाना प्रकारके धन पाता है। अभश्रिनीमें श्राद्ध करनेसे घोड़ोंकी और भरणीमें श्राद्धका अनुष्ठान करनेसे उत्तम आयुकी प्राप्ति होती है ।। १४ ।।

इस श्राद्धविधिका श्रवण करके राजा शशबिन्दुने वही किया। उन्होंने बिना किसी क्लेशके ही पृथ्वीको जीता और उसका शासनसूत्र अपने हाथमें ले लिया ।। १५ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें श्राद्धकल्पविषयक नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

नब्बेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) नब्बेवें अध्याय के श्लोक 1-55 का हिन्दी अनुवाद) 

“भ्राद्धमें ब्राह्मणोंकी परीक्षा, पंक्तिदूषक और पंक्तिपावन ब्राह्म॒णोंका वर्णन, श्राद्धमें लाख मूर्ख ब्राह्मणोंको भोजन करानेकी अपेक्षा एक वेदवेत्ताको भोजन करानेकी श्रेष्ततका कथन”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! कैसे ब्राह्मणको श्राद्धका दान (अर्थात्‌ निमन्त्रण) देना चाहिये? कुरुश्रेष्ठी आप इसका मेरे लिये स्पष्ट वर्णन करें ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन! दान-पधर्मके ज्ञाता क्षत्रियको देवसम्बन्धी कर्म (यज्ञयागादि) में ब्राह्मणकी परीक्षा नहीं करनी चाहिये, किंतु पितृकर्म (श्राद्ध) में उनकी परीक्षा न्यायसंगत मानी गयी है ।। २ ।।

देवता अपने दैव तेजसे ही इस जगतमें ब्राह्मणोंका पूजन (समादर) करते हैं; अतः देवताओंके उददेश्यसे सभी ब्राह्मणोंके पास जाकर उन्हें दान देना चाहिये ।। ३ ।।

किंतु महाराज! श्राद्धके समय विद्वान्‌ पुरुष कुल, शील (उत्तम आचरण), अवस्था, रूप, विद्या और पूर्वजोंके निवासस्थान आदिके द्वारा ब्राह्मणकी अवश्य परीक्षा करे ।। ४

ब्राह्मणोंमें कुछ तो पंक्तिदूषक होते हैं और कुछ पंक्तिपावन। राजन! पहले पंक्तिदूषक ब्राह्मणोंका वर्णन करूँगा, सुनो ।। ५ ।।

जुआरी, गर्भहत्यारा, राजयक्ष्माका रोगी, पशुपालन करनेवाला, अपढ़, गाँवभरका हरकारा, सूदखोर, गवैया, सब तरहकी चीज बेचनेवाला, दूसरोंका घर फूँकनेवाला, विष देनेवाला, माताद्वारा पतिके जीते-जी दूसरे पतिसे उत्पन्न किये हुए पुत्रके घर भोजन करनेवाला, सोमरस बेचनेवाला, सामुद्रिक विद्या (हस्तरेखा) से जीविका चलानेवाला, राजाका नौकर, तेल बेचनेवाला, झूठी गवाही देनेवाला, पितासे झगड़ा करनेवाला, जिसके घरमें जार पुरुषका प्रवेश हो वह, कलंकित, चोर, शिल्पजीवी, बहुरूपिया, चुगलखोर, मित्रद्रोही, परस्त्रीलम्पट, व्रतरहित, मनुष्योंका अध्यापक, हथियार बनाकर जीविका चलानेवाला, कुत्ते साथ लेकर घूमनेवाला, जिसे कुत्तेने काटा हो वह, जिसके छोटे भाईका विवाह हो गया हो ऐसा अविवाहित बड़ा भाई, चर्मरोगी, गुरुपत्नीगामी, नटका काम करनेवाला, देवमन्दिरमें पूजासे जीविका चलानेवाला और नक्षत्रोंका फल बताकर जीनेवाला--ये सभी ब्राह्मण पंक्तिसे बाहर रखने योग्य हैं! युधिष्ठि!! ऐसे पंक्तिदूषक ब्राह्मणोंका खाया हुआ हविष्य राक्षसोंको मिलता है, ऐसा ब्रह्मवादी पुरुषोंका कथन है ।। ६ -११½ ||

जो ब्राह्मण श्राद्धका भोजन करके फिर उस दिन वेद पढ़ता है तथा जो वृषली स्त्रीसे समागम करता है, उसके पितर उस दिनसे लेकर एक मासतक उसीकी विष्ठामें शयन करते हैं ।। १२३ ||

सोमरस बेचनेवालेको जो श्राद्धका अन्न दिया जाता है, वह पितरोंके लिये विष्ठाके तुल्य है। श्राद्धमें वैद्यकों जिमाया हुआ अन्न पीब और रक्तके समान पितरोंको अग्राह्म हो जाता है। देवमन्दिरमें पूजा करके जीविका चलानेवालेको दिया हुआ श्राद्धका दान नष्ट हो जाता है--उसका कोई फल नहीं मिलता। सूदखोरको दिया हुआ अन्न अस्थिर होता है। वाणिज्यवृत्ति करनेवालेको श्राद्धमें दिये हुए अन्नका दान न इहलोकमें लाभदायक होता है और न परलोकमें ।। १३-१४ ।।

एक पतिको छोड़कर दूसरा पति करनेवाली स्त्रीके पुत्रको दिया हुआ श्राद्धमें अन्नका दान राखमें डाले हुए हविष्यके समान व्यर्थ हो जाता है। जो लोग धर्मरहित और चरित्रहीन द्विजको हव्य-कव्यका दान करते हैं, उनका वह दान परलोकमें नष्ट हो जाता है ।। १५ 

जो मूर्ख मनुष्य जान-बूझकर वैसे पंक्तिदूषक ब्राह्मणोंको श्राद्धमें अन्नका दान करते हैं, उनके पितर परलोकमें निश्चय ही उनकी विष्ठा खाते हैं ।। १६ ।।

इन अधम ब्राह्मणोंको पंक्तिसे बाहर रखने-योग्य जानना चाहिये। जो मूढ़ ब्राह्मण शूद्रोंको वेदका उपदेश करते हैं, वे भी अपांक्तेय (अर्थात्‌ पंक्ति-बाहर) ही हैं | १७ ।।

राजन! काना मनुष्य पंक्तिमें बैठे हुए साठ मनुष्योंको दूषित कर देता है। जो नपुंसक है, वह सौ मनुष्योंको अपवित्र बना देता है तथा जो सफेद कोढ़का रोगी है, वह बैठे हुए पंक्तिमें जितने लोगोंको देखता है, उन सबको दूषित कर देता है ।। १८ ।।

जो सिरपर पगड़ी और टोपी रखकर भोजन करता है, जो दक्षिणकी ओर मुख करके खाता है तथा जूते पहने भोजन करता है, उनका वह सारा भोजन आसुर समझना चाहिये ।। १९ ।।

जो दोषदृष्टि रखते हुए दान करता है और जो बिना श्राद्धके देता है, उस सारे दानको ब्रह्माजीने असुरराज बलिका भाग निश्चित किया है || २० ।।

कुत्तों और पंकिादूषक ब्राह्मणोंकी किसी तरह दृष्टि न पड़े, इसके लिये सब ओरसे घिरे हुए स्थानमें श्राद्धका दान करे और वहाँ सब ओर तिल छींटे ।। २१ ।।

जो श्राद्ध तिलोंसे रहित होता है, अथवा जो क्रोधपूर्वक किया जाता है, उसके हविष्यको यातुधान (राक्षस) और पिशाच लुप्त कर देते हैं || २२ ।।

पंक्तिदूषक पुरुष पंक्तिमें भोजन करनेवाले जितने ब्राह्मणोंको देख लेता है, वह मूर्ख दाताको उलने ब्राह्मणोंक दानजनित फलसे वंचित कर देता है || २३ ।।

भरतश्रेष्ठस अब जिनका वर्णन किया जा रहा है, इन सबको पंक्तिपावन जानना चाहिये। इनका वर्णन इसलिये करूँगा कि तुम ब्राह्मणोंकी श्राद्धमें परीक्षा कर सको ।।

विद्या और वेदव्रतमें स्नातक हुए समस्त ब्राह्मण यदि सदाचारमें तत्पर रहनेवाले हों तो उन्हें सर्वपावन जानना चाहिये ।। २५ ।।

अब मैं पांक्तेय ब्राह्मणोंका वर्णन करूँगा। उन्हींको पंक्तिपावन जानना चाहिये। जो त्रिणाचिकेत नामक मन्त्रोंका जप करनेवाला, गार्हपत्य आदि पाँच अग्नियोंका सेवन करनेवाला, त्रिसुपर्ण नामक (त्रिसुपर्णमित्यादि) मन्त्रोंका पाठ करनेवाला है तथा “ब्रह्ममेतु माम्‌” इत्यादि तैत्तिरीय-प्रसिद्ध शिक्षा आदि छहों अंगोंका ज्ञान रखनेवाला है ये सब पंक्तिपावन हैं || २६ |।

जो परम्परासे वेद या पराविद्याका ज्ञाता अथवा उपदेशक है, जो वेदके छन्दोग शाखाका दविद्वान्‌ है, जो ज्येष्ठ साममन्त्रका गायक, माता-पिताके वशमें रहनेवाला और दस पीढ़ियोंसे श्रोत्रिय (वेदपाठी) है, वह भी पंक्तिपावन है || २७ ।।

जो अपनी धर्मपत्नियोंके साथ सदा ऋतुकालमें ही समागम करता है, वेद और विद्याके व्रतमें स्नातक हो चुका है, वह ब्राह्मण-पंक्तिको पवित्र कर देता है || २८ ।।

जो अथर्ववेदके ज्ञाता, ब्रह्मचारी, नियमपूर्वक व्रतका पालन करनेवाले, सत्यवादी, धर्मशील और अपने कर्तव्य-कर्ममें तत्पर हैं, वे पुरुष पंक्तिपावन हैं || २९ ।।

जिन्होंने पुण्य तीर्थोमें गोता लगानेके लिये श्रम--प्रयत्न किया है, वेदमन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक अनेकों यज्ञोंका अनुष्ठान करके अवभृथ-स्नान किया है; जो क्रोधरहित, चपलतारहित, क्षमाशील, मनको वशमें रखनेवाले, जितेन्द्रिय और सम्पूर्ण प्राणियोंके हितैषी हैं, उन्हीं ब्राह्मणोंको श्राद्धमें निमन्त्रित करना चाहिये ।।

क्योंकि ये पंक्तिपावन हैं; अतः इन्हें दिया हुआ दान अक्षय होता है। इनके सिवा दूसरे भी महान्‌ भाग्यशाली पंक्तिपावन ब्राह्मण हैं, उन्हें इस प्रकार जानना चाहिये ।। ३२ ।।

जो मोक्ष-धर्मका ज्ञान रखनेवाले संयमी और उत्तम प्रकारसे व्रतका आचरण करनेवाले योगी हैं, पांचरात्र आगमके जाननेवाले श्रेष्ठ पुरुष हैं, परम भागवत हैं, वानप्रस्थ-धर्मका पालन करनेवाले, कुलमें श्रेष्ठ और वैदिक आचारका अनुष्ठान करनेवाले हैं। जो मनको संयममें रखकर श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको इतिहास सुनाते हैं, जो महाभाष्य और व्याकरणके विद्वान्‌ हैं तथा जो पुराण और धर्मशास्त्रोंका न्यायपूर्वक अध्ययन करके उनकी आज्ञाके अनुसार विधिवत्‌ आचरण करनेवाले हैं, जिन्होंने नियमित समयतक गुरुकुलमें निवास करके वेदाध्ययन किया है, जो परीक्षाके सहस्रों अवसरोंपर सत्यवादी सिद्ध हुए हैं तथा जो चारों वेदोंके पढ़ने-पढ़ानेमें अग्रगण्य हैं, ऐसे ब्राह्मण पंक्तिको जितनी दूर देखते हैं उतनी दूरमें बैठे हुए ब्राह्मणोंको पवित्र कर देते हैं || ३३--३६ ।।

पंक्तिको पवित्र करनेके कारण ही उन्हें पंक्ति-पावन कहा जाता है। ब्रह्मवादी पुरुषोंकी यह मान्यता है कि वेदकी शिक्षा देनेवाले एवं ब्रह्मज्ञानी पुरुषोंके वंशमें उत्पन्न हुआ ब्राह्मण अकेला ही साढ़े तीन कोसतकका स्थान पवित्र कर सकता है ।। ३७६ ।।

जो ऋत्विक्‌ या अध्यापक न हो, वह भी यदि ऋत्विजोंकी आज्ञा लेकर श्राद्धमें अग्रासन ग्रहण करता है तो पंक्तिके दोषको हर लेता है अर्थात्‌ दूर कर देता है ।।

राजन! यदि कोई वेदज्ञ ब्राह्मण सब प्रकारके पंक्तिदोषोंसे रहित है और पतित नहीं हुआ है तो वह पंक्तिपावन ही है ।। ३९६ ।।

इसलिये सब प्रकारकी चेष्टाओंसे ब्राह्मणोंकी परीक्षा करके ही उन्हें श्राद्धमें निमन्त्रित करना चाहिये। वे स्वकर्ममें तत्पर रहनेवाले, कुलीन और बहुश्रुत होने चाहिये || ४० $ ।

जिसके श्राद्धोंक भोजनमें मित्रोंकी प्रधानता रहती है, उसके वे श्राद्ध एवं हविष्य पितरों और देवताओंको तृप्त नहीं करते हैं तथा वह श्राद्धकर्ता पुरुष स्वर्गमें नहीं जाता है || ४१३ ||

जो मनुष्य श्राद्धमें भोजन देकर उससे मित्रता जोड़ता है, वह मृत्युके बाद देवमार्गसे नहीं जाने पाता। जैसे पीपलका फल डंठलसे टूटकर नीचे गिर जाता है, वैसे ही श्राद्धको मित्रताका साधन बनानेवाला पुरुष स्वर्गलोकसे भ्रष्ट हो जाता है || ४२ ।।

इसलिये श्राद्धकर्ताको चाहिये कि वह श्राद्धमें मित्रको निमन्त्रण न दे। मित्रोंको संतुष्ट करनेके लिये धन देना उचित है। श्राद्धमें भोजन तो उसे ही कराना चाहिये जो शत्रु या मित्र न होकर मध्यस्थ हो ।। ४३ ।।

जैसे ऊसरमें बोया हुआ बीज न तो जमता है और न बोनेवालेको उसका कोई फल मिलता है, उसी प्रकार अयोग्य ब्राह्मणोंको भोजन कराया हुआ श्राद्धका अन्न न इस लोकमें लाभ पहुँचाता है, न परलोकमें ही कोई फल देता है || ४४ ।।

जैसे घास-फ़्सकी आग शीघ्र ही शान्त हो जाती है, उसी प्रकार स्वाध्यायहीन ब्राह्मण तेजहीन हो जाता है, अतः उसे श्राद्धका दान नहीं देना चाहिये, क्योंकि राखमें कोई भी हवन नहीं करता ।। ४५ ।।

जो लोग एक-दूसरेके यहाँ श्राद्धमें भोजन करके परस्पर दक्षिणा देते और लेते हैं, उनकी वह दान-दक्षिणा पिशाच-दक्षिणा कहलाती है। वह न देवताओंको मिलती है, न पितरोंको। जिसका बछड़ा मर गया है ऐसी पुण्यहीना गौ जैसे दुखी होकर गोशालामें ही चक्कर लगाती रहती है, उसी प्रकार आपसमें दी और ली हुई दक्षिणा इसी लोकमें रह जाती है, वह पितरोंतक नहीं पहुँचने पाती || ४६ ।।

जैसे आग बुझ जानेपर जो घृतका हवन किया जाता है, उसे न देवता पाते हैं, न पितर; उसी प्रकार नाचनेवाले, गवैये और झूठ बोलनेवाले अपात्र ब्राह्मणको दिया हुआ दान निष्फल होता है। अपात्र पुरुषको दी हुई दक्षिणा न दाताको तृप्त करती है न दान लेनेवालेको; प्रत्युत दोनोंका ही नाश करती है। यही नहीं, वह विनाशकारिणी निन्दित दक्षिणा दाताके पितरोंको देवयान-मार्गसे नीचे गिरा देती है || ४७-४८ ।।

युधिष्ठिर! जो सदा ऋषियोंके बताये हुए धर्ममार्गपर चलते हैं, जिनकी बुद्धि एक निश्चयपर पहुँची हुई है तथा जो सम्पूर्ण धर्मोके ज्ञाता हैं, उन्‍्हींको देवतालोग ब्राह्मण मानते हैं ।। ४९ ।।

भारत! ऋषि-मुनियोंमें किन्हींको स्वाध्यायनिष्ठ, किन्हींको ज्ञाननिष्ठ, किन्हींको तपोनिष्ठ और किन्हींको कर्मनिष्ठ जानना चाहिये ।। ५० ।।

भरतनन्दन! उनमें ज्ञाननिष्ठ महर्षियोंको ही श्राद्धका अन्न जिमाना चाहिये। जो लोग ब्राह्मणोंकी निन्दा नहीं करते, वे ही श्रेष्ठ मनुष्य हैं ।। ५१ ।।

राजन! जो बातचीतमें ब्राह्मणोंकी निन्दा करते हैं, उन्हें श्राद्धमें भोजन नहीं कराना चाहिये। नरेश्वर! वानप्रस्थ ऋषियोंका यह वचन सुना जाता है कि “ब्राह्मणोंकी निन्दा होनेपर वे निन्‍दा करनेवालेकी तीन पीढ़ियोंका नाश कर डालते हैं।” वेदवेत्ता ब्राह्मणोंकी दूरसे ही परीक्षा करनी चाहिये || ५२-५३ ।।

भारत! वेदज्ञ पुरुष अपना प्रिय हो या अप्रिय--इसका विचार न करके उसे श्राद्धमें भोजन कराना चाहिये। जो दस लाख अपात्र ब्राह्मगको भोजन कराता है, उसके यहाँ उन सबके बदले एक ही सदा संतुष्ट रहनेवाला वेदज्ञ ब्राह्मण भोजन करनेका अधिकारी है, अर्थात्‌ लाखों मूर्खोकी अपेक्षा एक सत्पात्र ब्राह्मणको भोजन कराना उत्तम है ।।५४।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें श्राद्धकल्पविषयक नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ५५ श्लोक हैं)

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