सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के पचासीवाँ अध्याय (From the 85 chapter the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

पचासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) पचासीवें अध्याय के श्लोक 1-168 का हिन्दी अनुवाद) 

“ब्रह्माजीका देवताओंको आश्वासन, अग्निकी खोज, अन्निके द्वारा स्थापित किये हुए शिवके तेजसे संतप्त हो गंगाका उसे मेरुपर्वतपर छोड़ना, कार्तिकेय और सुवर्णकी उत्पत्ति, वरुणरूपधारी महादेवजीके यज्ञमें अग्निसे ही प्रजापतियों और सुवर्णका प्रादुर्भाव, कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध”

देवता बोले--प्रभो! आपने जिसे वर दे रखा है, वह तारक नामक असुर देवताओं और ऋषियोंको बड़ा कष्ट दे रहा है। अतः उसके वधका कोई उपाय कीजिये ।।

पितामह! देव! उस असुरसे हमलोगोंको भारी भय उत्पन्न हो गया है। आप हमारी उससे रक्षा करें; क्योंकि हमारे लिये दूसरी कोई गति नहीं है ।। २ ।।

ब्रद्माजीने कहा--मेरा तो समस्त प्राणियोंके प्रति समान भाव है तथापि मैं अधर्म नहीं पसन्द करता; अतः देवताओं तथा ऋषियोंको कष्ट देनेवाले तारकासुरको तुम लोग शीघ्र ही मार डालो || ३ ।।

सुरश्रेष्ाणण! वेदों और धर्मोंका उच्छेद न हो, इसका उपाय मैंने पहलेसे ही कर लिया है। अतः तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये ।। ४ ।।

देवता बोले--भगवन्‌! आपके ही वरदानसे वह दैत्य बलके घमंडसे भर गया है। देवता उसे नहीं मार सकते। ऐसी दशामें वह कैसे शान्त हो सकता है? ।। ५ ।।

पितामह! उसने आपसे यह वरदान प्राप्त कर लिया है कि देवताओं, असुरों तथा राक्षसोंमेंसे किसीके हाथसे भी मारा न जाऊँ ।। ६ ।।

जगत्पते! पूर्वकालमें जब हमने रुद्राणीकी संततिका उच्छेद कर दिया, तब उन्होंने सब देवताओंको शाप दे दिया कि तुम्हारे कोई संतान नहीं होगी || ७ ।।

ब्रह्माजी बोले--सुरश्रेष्टण! उस शापके समय वहाँ अग्निदेव नहीं थे। अतः देवद्रोहियोंके वधके लिये वे ही संतान उत्पन्न करेंगे || ८ ।।

वही समस्त देवताओं, दानवों, राक्षसों, मनुष्यों, गन्धर्वों, नागों तथा पक्षियोंको लाँधकर अपने अचूक अस्त्र-शक्तिके द्वारा उस असुरका वध कर डालेगा, जिससे तुम्हें भय उत्पन्न हुआ है। दूसरे जो देवशत्रु हैं, उनका भी वह संहार कर डालेगा ।। ९-१० ।।

सनातन संकल्पको ही काम कहते हैं। उसी कामसे रुद्रका जो तेज स्खलित होकर अग्निमें गिरा था, उसे अग्निने ले रखा है। द्वितीय अग्निके समान उस महान्‌ तेजको वे गंगाजीमें स्थापित करके बालकरूपसे उत्पन्न करेंगे। वही बालक देवशत्रुओंके वधका कारण होगा ।। ११-१२ |।

अग्निदेव उस समय छिपे हुए थे, इसलिये वह शाप उन्हें नहीं प्राप्त हुआ; अतः देवताओ! अग्निके जो पुत्र उत्पन्न होगा, वह तुमलोगोंका सारा भय हर लेगा ।।

तुमलोग अग्निदेवकी खोज करो और उन्हें आज ही इस कार्यमें नियुक्त करो। निष्पाप देवताओ! तारकासुरके वधका यह उपाय मैंने बता दिया ।। १४ ।।

तेजस्वी पुरुषोंके शाप तेजस्वियोंपर अपना प्रभाव नहीं दिखाते। साधारण बली कितने ही क्‍यों न हों, अत्यन्त बलशालीको पाकर दुर्बल हो जाते हैं || १५ ।।

तपस्वी पुरुषका जो काम है, वही संकल्प एवं अभिरुचिके नामसे प्रसिद्ध है। वह सनातन या चिरस्थायी होता है। वह वर देनेवाले अवध्य पुरुषोंका भी वध कर सकता है ।। १६ ||

अग्निदेव इस जगत्‌के पालक, अनिर्वचनीय, सर्वव्यापी, सबके उत्पादक, समस्त प्राणियोंके हृदयमें शयन करनेवाले, सर्वसमर्थ तथा रुद्रसे भी ज्येष्ठ हैं ।।

तेजकी राशिभूत अग्निदेवका तुम सब लोग शीघ्र अन्वेषण करो। वे तुम्हारी मनोवांछित कामनाको पूर्ण करेंगे ।।

महात्मा ब्रह्माजीका यह कथन सुनकर सफलमनोरथ हुए देवता अग्निदेवका अन्वेषण करनेके लिये वहाँसे चले गये ।। १९ ।।

तब देवताओंसहित ऋषियोंने तीनों लोकोंमें अग्निकी खोज प्रारम्भ की। उन सबका मन उन्हींमें लगा था और वे--सभी अग्निदेवका दर्शन करना चाहते थे || २० ।।

भुगुश्रेष्ठट उत्तम तपस्यासे युक्त, तेजस्वी और लोकविख्यात सभी सिद्ध देवता सभी लोकोंमें अग्निदेवकी खोज करते रहे || २१ ।।

वे छिपकर अपने-आपमें ही लीन थे; अतः देवता उनके पास नहीं पहुँच सके। तब अग्निका दर्शन करनेके लिये उत्सुक और भयभीत हुए देवताओंसे एक जलचारी मेढक, जो अग्निके तेजसे दग्ध एवं क्लान्तचित्त होकर रसातलसे ऊपरको आया था, बोला -- || २२-२३ |।

“देवताओ! अग्नि रसातलमें निवास करते हैं। प्रभो! मैं अग्निजनित संतापसे ही घबराकर यहाँ आया हूँ ।।

“देवगण! भगवान्‌ अग्निदेव अपने तेजके साथ जलको संयुक्त करके जलमें ही सोये हैं। हमलोग उन्हींके तेजसे संतप्त हो रहे हैं ।। २५ ।।

“देवताओ! यदि आपको अग्निदेवका दर्शन अभीष्ट हो और यदि उनसे आपका कोई कार्य हो तो वहीं जाकर उनसे मिलिये ।। २६ ।।

“देवगण! आप जाइये। हम भी अग्निके भयसे अन्यत्र जायँगे।! इतना ही कहकर वह मेढक तुरंत ही जलमें घुस गया ।। २७ ।।

अग्निदेव समझ गये कि मेढकने मेरी चुगली खायी है; अतः उन्होंने उसके पास पहुँचकर यह शाप दे दिया कि “तुम्हें रसका अनुभव नहीं होगा” || २८ ।।

मेढकको शाप देकर वे तुरंत दूसरी जगह निवास करनेके लिये चले गये। सर्वव्यापी अग्निने अपने-आपको प्रकट नहीं किया ।। २९ ।।

भुगुश्रेष्॒ महाबाहो! उस समय देवताओंने मेढकोंपर जो कृपा की, वह सब बता रहा हूँ, सुनो || ३० ।।

देवता बोले--मेढको! अग्निदेवके शापसे तुम्हारे जिह्ला नहीं होगी; अतः तुम रसोंके ज्ञानसे शून्य रहोगे तथापि हमारी कृपासे तुम नाना प्रकारकी वाणीका उच्चारण कर सकोगे ।। ३१ ।।

बिलमें रहते समय तुम आहार न मिलनेके कारण अचेत और निष्प्राण होकर सूख जाओगे तो भी भूमि तुम्हें धारण किये रहेगी--वर्षाका जल मिलनेपर तुम पुन: जीवित हो उठोगे। घने अन्धकारसे भरी हुई रात्रिमें भी तुम विचरते रहोगे || ३२३ ।।

मेढकोंसे ऐसा कहकर देवता पुनः अग्निकी खोजके लिये इस पृथ्वीपर विचरने लगे; किंतु वे अग्निदेवको कहीं उपलब्ध न कर सके ।। ३३६ ।।

भुगुश्रेष्ठ॒ तदनन्तर देवराज इन्द्रके ऐरावतकी भाँति कोई विशालकाय गजराज देवताओंसे बोला--'अश्वत्थ अग्निरूप है' || ३४३ ||

भगुकुलभूषण! यह सुनकर अग्निदेव क्रोधसे विह्लल हो उठे और उन्होंने समस्त हाथियोंको शाप देते हुए कहा--तुमलोगोंकी जिह्ला उलटी हो जायगी” || ३५३ ।।

ऐसा कहकर हाथीद्वारा सूचित किये गये अग्निदेव अश्वत्थसे निकलकर शमीके भीतर प्रविष्ट हो गये। वे वहाँ अच्छी तरह सोना चाहते थे ।। ३६ ।।

प्रभो! भृगुकुलश्रेष्ठ तब सत्यपराक्रमी देवताओंने प्रसन्न हो नागोंपर जिस प्रकार अपना अनुग्रह प्रकट किया, उसे सुनो || ३७ ।।

देवता बोले--हाथियो! तुम अपनी उलटी जिह्वासे भी सब प्रकारके आहार ग्रहण कर सकोगे तथा उच्चस्वरसे वाणीका उच्चारण कर सकोगे; किंतु उससे किसी अक्षरकी अभिव्यक्ति नहीं होगी ।। ३८ ।।

ऐसा कहकर देवताओंने पुनः अग्निका अनुसरण किया। उधर अग्निदेव अभश्वत्थसे निकलकर शमीके भीतर जा बैठे ।। ३९ ।।

विप्रवर! तदनन्तर तोतेने अग्निका पता बता दिया। फिर तो देवता शमीवृक्षकी ओर दौड़े। यह देख अग्निने तोतेको शाप दे दिया--'तू वाणीसे रहित हो जायगा” ।।

अग्निदेवने उसकी भी जिह्ला उलट दी। अब अग्निदेवको प्रत्यक्ष देखकर देवताओंने दयायुक्त होकर शुकसे कहा--'तू शुकयोनिमें रहकर अत्यन्त वाणीरहित नहीं होगा--कुछकुछ बोल सकेगा। जीभ उलट जानेपर भी तेरी बोली बड़ी मधुर एवं कमनीय होगी ।।

'जैसे बड़े-बूढ़े पुरुषको बालककी समझमें न आनेवाली अदभुत तोतली बोली बड़ी मीठी लगती है, उसी प्रकार तेरी बोली भी सबको प्रिय लगेगी” ।। ४२६ ।।

ऐसा कहकर शमीके गर्भमें अग्निदेवका दर्शन करके देवताओंने सभी कर्मोंके लिये शमीको ही अग्निका पवित्र स्थान नियत किया। तबसे अग्निदेव शमीके भीतर दृष्टिगोचर होने लगे || ४३-४४ ।।

भार्गव! मनुष्योंने अग्निको प्रकट करनेके लिये शमीका मन्‍्थन ही उपाय जाना। अग्निने रसातलमें जिस जलका स्पर्श किया था और वहाँ शयन करनेवाले अग्नि-देवके तेजसे जो संतप्त हो गया था, वह जल पर्वतीय झरनोंके रूपमें अपनी गरमी निकालता है || ४५-४६ ।।

उस समय देवताओंको देखकर अग्निदेव व्यथित हो गये और उनसे पूछने लगे --“किस उद्देश्यसे यहाँ आपलोगोंका शुभागमन हुआ है?” ।। ४७ ।।

तब सम्पूर्ण देवता और महर्षि उनसे बोले--“हम तुम्हें एक कार्यमें नियुक्त करेंगे। उसे तुम्हें करना चाहिये। उस कार्यको सम्पन्न कर देनेपर तुम्हें भी बहुत बड़ा लाभ होगा” || ४८-४९ ।।

अग्निने कहा--देवताओ! आपलोगोंका जो कार्य है उसे मैं अवश्य पूर्ण करूँगा, अतः उसे कहिये। मैं आपलोगोंका आज्ञापालक हूँ। इस विषयमें आपको कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये || ५० 

देवता बोले--अग्निदेव! एक तारकनामक असुर है जो ब्रह्माजीके वरदानसे मदमत्त होकर अपने पराक्रमसे हम सब लोगोंको कष्ट दे रहा है। अतः तुम उसके वधका कोई उपाय करो ।। ५१ ।।

तात! महाभाग पावक! इन देवताओं, प्रजापतियों तथा ऋषियोंकी भी रक्षा करो ।। ५२ ।।

प्रभो! हव्यवाहन! तुम एक ऐसा तेजस्वी और महावीर पुत्र उत्पन्न करो जो उस असुरसे प्राप्त होनेवाले हमारे भयका नाश करे ।। ५३ ।।

प्रभो! महादेवी पार्वतीने हमलोगोंको संतानहीन होनेका शाप दे दिया है; अतः तुम्हारे बलवीर्यके सिवा हमारे लिये दूसरा कोई आश्रय नहीं रह गया है इसलिये हमलोगोंकी रक्षा करो ।। ५४ ।।

देवताओंके ऐसा कहनेपर “तथास्तु” कहकर दुर्धर्ष भगवान्‌ हव्यवाहन भागीरथी गंगाके तटपर गये ।। ५५ ।।

वे वहाँ गंगाजीसे मिले। गंगाजीने उस समय भगवान्‌ शंकरके उस तेजको गर्भरूपसे धारण किया। जैसे सूखे तिनकों अथवा लकड़ियोंके ढेरमें रखी हुई आग प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार वह तेजस्वी गर्भ गंगाजीके भीतर बढ़ने लगा ।। ५६ ।।

अग्निदेवके दिये हुए उस तेजसे गंगाजीका चित्त व्याकुल हो गया। वे अत्यन्त संतप्त हो उठीं और उसे सहन करनेमें असमर्थ हो गयीं || ५७ ।।

अन्निके द्वारा गंगाजीमें स्थापित किया हुआ वह तेजस्वी गर्भ जब बढ़ रहा था, उसी समय किसी असुरने वहाँ आकर सहसा बड़े जोरसे भयानक गर्जना की ।। ५८ ।।

उस आकस्मिक महान्‌ सिंहनादसे भयभीत हुई गंगाजीकी आँखें घूमने लगीं और उनके नेत्रोंसे आँसू बहने लगा ।। ५९ ।।

वे अचेत हो गयीं। अतः: उस गर्भको और अपने-आपको भी न सम्हाल सकीं। उनके सारे अंग तेजसे व्याप्त हो रहे थे। विप्रवर/! उस समय जाह्नवी देवी उस गर्भकी शक्तिसे अभिभूत हो काँपती हुई-सी अग्निसे बोलीं--“भगवन्‌! मैं आपके इस तेजको धारण करनेमें असमर्थ हूँ || ६०-६१ ।।

“निष्पाप अग्निदेव! इसने मुझे मूर्च्छित-सी कर दिया है। मेरा स्वास्थ्य अब पहले-जैसा नहीं रह गया है। भगवन्‌! मैं बहुत घबरा गयी हूँ। मेरी चेतना लुप्त-सी हो रही है || ६२ ।।

“तपनेवालोंमें श्रेष्ठ पावक! अब मुझमें इस गर्भको धारण किये रहनेकी शक्ति नहीं रह गयी है। मैं असह्य दुःखसे ही इसे त्यागने जा रही हूँ। स्वेच्छासे किसी प्रकार नहीं ।। ६३ ।।

“देव! विभावसो! महाद्युते! इस तेजके साथ मेरा कोई सम्पर्क नहीं है। इस समय जो अत्यन्त सूक्ष्म सम्बन्ध स्थापित हुआ है वह भी देवताओंपर आयी हुई विपत्तिको टालनेके उद्देश्यसे ही है ।। ६४ ।।

“हुताशन! इस कार्यमें यदि कोई गुण या दोषमुक्त परिणाम हो अथवा केवल धर्म या अधर्म हो, उन सबका उत्तरदायित्व आपपर ही है, ऐसा मैं मानती हूँ” || ६५ ।।

तब अग्निने गंगाजीसे कहा--देवि! यह गर्भ मेरे तेजसे युक्त है, इससे महान्‌ गुणयुक्त फलका उदय होनेवाला है। इसे धारण करो, धारण करो ।। ६६ ।।

'देवि! तुम सारी पृथ्वीको धारण करनेमें समर्थ हो, फिर इस गर्भकों धारण करना तुम्हारे लिये कुछ असाध्य नहीं है” ।। ६७ ।।

देवताओं तथा अग्निके मना करनेपर भी सरिताओंमें श्रेष्ठ गंगाने उस गर्भको गिरिराज मेरुके शिखरपर छोड़ दिया ।। ६८ ।।

यद्यपि गंगाजी उस गर्भको धारण करनेमें समर्थ थीं; तो भी रुद्रके तेजसे पराभूत होकर बलपूर्वक उसे धारण न कर सकीं ।। ६९ ।।

भगुश्रेष्ठ! गंगाजीने बड़े दुःखसे अग्निके समान तेजस्वी उस गर्भको त्याग दिया। तत्पश्चात्‌ अग्निने उनका दर्शन किया और सरिताओंमें श्रेष्ठ उन गंगाजीसे पूछा--'“देवि! तुम्हारा गर्भ सुखपूर्वक उत्पन्न हो गया है न? उसकी कान्ति कैसी है अथवा उसका रूप कैसा दिखायी देता है, वह कैसे तेजसे युक्त है? यह सारी बातें मुझसे कहो” || ७०-७१ ।।

गंगा बोलीं--देव! वह गर्भ क्‍या है, सोना है। अनघ! वह तेजमें हूबहू आपके ही समान है। सुवर्ण-जैसी निर्मल कान्तिसे प्रकाशित होता है और सारे पर्वतको उद्धासित करता है | ७२ |।

तपनेवालोंमें श्रेष्ठ अग्निदिव! कमल और उत्पलसे संयुक्त सरोवरोंके समान उसका अंग शीतल है और कदम्ब-पुष्पोंके समान उससे मीठी-मीठी सुगन्ध फैलती रहती है || ७३ ।।

सूर्यकी किरणोंके समान उस गर्भसे वहाँकी भूमि या पर्वतोंपर रहनेवाले जिस किसी द्रव्यका स्पर्श हुआ, वह सब चारों ओरसे सुवर्णमय दिखायी देने लगा || ७४ ३ ।।

वह बालक अपने तेजसे चराचर प्राणियोंको प्रकाशित करता हुआ पर्वतों, नदियों और झरनोंकी ओर दौड़ने लगा था || ७५६ ।।

हव्यवाहन! आपका एऐश्वर्यशाली पुत्र ऐसे ही रूपवाला है। वह सूर्य तथा आपके समान तेजस्वी और दूसरे चन्द्रमाके समान कान्तिमान्‌ है || ७६ ।।

भार्गवनन्दन! ऐसा कहकर देवी गंगा वहीं अन्तर्धान हो गयीं और तेजस्वी अग्निदेव देवताओंका कार्य सिद्ध करके उस समय वहाँसे अभीष्ट देशको चले गये ।।

इन्हीं समस्त कर्मों और गुणोंके कारण देवता तथा ऋषि संसारमें अग्निको हिरण्यरेताके नामसे पुकारते हैं। उस समय अग्निजनित हिरण्य (वसु) धारण करनेके कारण पृथ्वीदेवी वसुमती नामसे विख्यात हुईं ।।

अग्निके अंशसे उत्पन्न हुआ गंगाका वह महातेजस्वी गर्भ सरकण्डोंके दिव्य वनमें पहुँचकर बढ़ने और अद्भुत दिखायी देने लगा ।। ८० ।।

प्रभातकालके सूर्यकी भाँति अरुण कान्तिवाले उस तेजस्वी बालकको कृत्तिकाओंने देखा और उसे अपना पुत्र मानकर स्तनोंका दूध पिलाकर उसका पालन-पोषण किया ।। ८१ ।।

इसीलिये वह परम तेजस्वी कुमार “कार्तिकेय' नामसे प्रसिद्ध हुआ। शिवके स्कन्दित (स्खलित) वीर्यसे उत्पन्न होनेके कारण उनका नाम 'स्कन्द' हुआ और पर्वतकी गुहामें निवास करनेसे वह “गुह” कहलाया ।। ८२ ।।

इस प्रकार अग्निसे संतानरूपमें सुवर्णकी उत्पत्ति हुई है। उसमें भी जाम्बूनद नामक सुवर्ण श्रेष्ठ है और वह देवताओंका भी भूषण है ।। ८३ ।।

तभीसे सुवर्णका नाम जातरूप हुआ। वह रत्नोंमें उत्तम रत्न और आशभृषणोंमें श्रेष्ठ आभूषण है ।। ८४ ।।

वह पवित्रोंमें भी अधिक पवित्र तथा मंगलोंमें भी अधिक मंगलमय है। जो सुवर्ण है, वही भगवान्‌ अनि्नि हैं, वही ईश्वर और प्रजापति हैं || ८५ ।।

द्विजवरो! सुवर्ण सम्पूर्ण पवित्र वस्तुओंमें अतिशय पवित्र है; उसे अग्नि और सोमरूप बताया गया है ।।

वसिष्ठजी कहते हैं--परशुराम! परमात्मा पितामह ब्रह्माका जो ब्रह्मदर्शन नामक वृत्तान्त मैंने पूर्वकालमें सुना था, वह तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो || ८७ ।।

प्रभावशाली तात परशुराम! एक समयकी बात है, सबके ईश्वर और महान्‌ देवता भगवान्‌ रुद्र वरुणका स्वरूप धारण करके वरुणके साम्राज्यपर प्रतिष्ठित थे। उस समय उनके यज्ञमें अग्नि आदि सम्पूर्ण देववा और ऋषि पधारे। सम्पूर्ण मूर्तिमान्‌ यज्ञांग, वषट्कार, साकार साम, सहसोरों यजुर्मन्त्र तथा पद और क्रमसे विभूषित ऋग्वेद भी वहाँ उपस्थित हुए ।। ८८--९० ।।

वेदोंके लक्षण, उदात्त आदि स्वर, स्तोत्र, निरुक्त, सुरपंक्ति, ओंकार तथा यज्ञके नेत्रस्वरूप प्रग्रह और निग्रह भी उस स्थानपर स्थित थे ।। ९१ ।।

वेद, उपनिषद्‌, विद्या और सावित्री देवी भी वहाँ आयी थीं। भगवान्‌ शिवने भूत, वर्तमान और भविष्य--तीनों कालोंको धारण किया था ।। ९२ ।।

प्रभो! पिनाकधारी महादेवजीने अनेक रूपवाले उस यज्ञकी शोभा बढ़ायी और उन्होंने स्वयं ही अपने द्वारा अपने आपको आहुति प्रदान की ।। ९३ ।।

ये भगवान्‌ शिव ही स्वर्ग, आकाश, पृथ्वी समस्त शून्य प्रदेश, राजा, सम्पूर्ण विद्याओंके अधीश्वर तथा तेजस्वी अग्निरूप हैं || ९४ ।।

ये ही भगवान्‌ सर्वभूतपति महादेव ब्रह्मा, शिव, रुद्र, वरुण, अग्नि, प्रजापति तथा कल्याणमय शम्भु आदि नामोंसे पुकारे जाते हैं || ९५ ।।

भगुकुलभूषण! इस प्रकार भगवान्‌ पशुपतिका वह यज्ञ चलने लगा। उसमें सम्मिलित होनेके लिये तप, क्रतु, उद्दीप्त व्रतवाली दीक्षा देवी, दिकृपालोंसहित दिशाएँ, देवपत्नियाँ, देवकन्याएँ तथा देव-माताएँ भी एक साथ आयी थीं ।। ९६-९७ ।।

महात्मा वरुण पशुपतिके यज्ञमें आकर वे देवांगनाएँ बहुत प्रसन्न थीं। उस समय उन्हें देखकर स्वयम्भू ब्रह्माजीका वीर्य स्खलित हो पृथ्वीपर गिर पड़ा ।। ९८ ।।

तब ब्रह्माजीके वीर्यसे संसिक्त धूलिकणोंको दोनों हाथोंद्वारा भूमिसे उठाकर पूषाने उसी आगमें फेंक दिया ।। ९९ ।।

तदनन्तर प्रज्वलित अग्निवाले उस यज्ञके चालू होनेपर वहाँ ब्रह्माजीका वीर्य पुनः स्खलित हुआ || १०० ||

भृगुनन्दन! स्खलित होते ही उस वीर्यको खुवेमें लेकर उन्होंने स्वयं ही मन्त्र पढ़ते हुए घीकी भाँति उसका होम कर दिया || १०१ |।

शक्तिशाली ब्रह्माजीने उस त्रिगुणात्मक वीर्यसे चतुर्विध प्राणिसमुदायको जन्म दिया। उनके वीर्यका जो रजोमय अंश था, उससे जगतमें तैजस प्रवृत्तिप्रधान जंगम प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई || १०२ ।।

तमोमय अंशसे तामस पदार्थ--स्थावर वृक्ष आदि प्रकट हुए और जो साच्चिक अंश था, वह राजस और तामस दोनोंमें अन्तर्भूत हो गया। वह सत्त्वगुण अर्थात्‌ प्रकाशस्वरूपा बुद्धिका नित्यस्वरूप है और आकाश आदि सम्पूर्ण विश्व भी उस बुद्धिका कार्य होनेसे उसका ही स्वरूप है |

अतः सम्पूर्ण भूतोंमें जो सत्त्वमुण तथा उत्तम तेज है, वह प्रजापतिके उस शुक्रसे ही प्रकट हुआ है। प्रभो! ब्रह्माजीके वीर्यकी जब अग्निमें आहुति दी गयी तब उससे तीन शरीरधारी पुरुष उत्पन्न हुए, जो अपने-अपने कारणजनित गुणोंसे सम्पन्न थे || १०४; ।।

भृग्‌ अर्थात्‌ अग्निकी ज्वालासे उत्पन्न होनेके कारण एक पुरुषका नाम “भृगु” हुआ। अंगारोंसे प्रकट हुए दूसरे पुरुषका नाम “अंगिरा' हुआ और अंगारोंके आश्रित जो स्वल्पमात्र ज्वाला या भृूगु होती है उससे “कवि' नामक तीसरे पुरुषका प्रादुर्भाव हुआ। भृगुजी ज्वालाओंके साथ ही उत्पन्न हुए थे, उससे भूगु कहलाये || १०५-१०६ ।।

उसी अग्निकी मरीचियोंसे मरीचि उत्पन्न हुए; जिनके पुत्र मारीच--कश्यप नामसे विख्यात हैं। तात! अंगारोंसे अंगिरा और कुशोंके ढेरसे वालखिल्य नामक ऋषि प्रकट हुए थे ।। १०७ ||

विभो! अत्रैव--उन्हीं कुशसमूहोंसे एक और ब्रह्मर्षि उत्पन्न हुए, जिन्हें लोग “अत्रि” कहते हैं। भस्म--राशियोंसे ब्रह्मर्षियोंद्वारा सम्मानित वैखानसोंकी उत्पत्ति हुई, जो तपस्या, शास्त्र-ज्ञान और सदगुणोंके अभिलाषी होते हैं। अग्निके अश्रुसे दोनों अश्विनीकुमार प्रकट हुए, जो अपनी रूप-सम्पत्तिके द्वारा सर्वत्र सम्मानित हैं || १०८-१०९ ।।

शेष प्रजापतिगण उनके श्रवण आदि इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए। रोमकूपोंसे ऋषि, पसीनेसे छन्‍्द और वीर्यसे मनकी उत्पत्ति हुई || ११० ।।

इस कारणसे शास्त्रज्ञानसम्पन्न महर्षियोंने वेदोंकी प्रामाणिकतापर दृष्टि रखते हुए अग्निको सर्वदेवमय बताया है || १११ ।।

उस यज्ञमें जो समिधाएँ काममें ली गयीं तथा उनसे जो रस निकला, वे ही सब मास, पक्ष, दिन, रात एवं मुहूर्तरूप हो गये और अग्निका जो पित्त था, वह उग्र तेज होकर प्रकट हुआ || ११२ |।

अग्निके तेजको लोहित कहते हैं, उस लोहितसे कनक उत्पन्न हुआ। उस कनकको मैत्र जानना चाहिये तथा अग्निके धूमसे वसुओंकी उत्पत्ति बतायी गयी है ।।

अग्निकी जो लपटें होती हैं, वे ही एकादश रुद्र तथा अत्यन्त तेजस्वी द्वादश आदित्य हैं, तथा उस यज्ञमें जो दूसरे-दूसरे अंगारे थे वे ही आकाशस्थित नक्षत्रमण्डलोंमें ज्योति:पुंजके रूपमें स्थित हैं || ११४ ।।

इस लोकके जो आदि स्रष्टा हैं, उन ब्रह्माजीका कथन है कि अग्नि परब्रह्मस्वरूप है। वही अविनाशी परब्रह्म परमात्मा है और वही सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला है। यह गोपनीय रहस्य ज्ञानी पुरुष बताते हैं ।।

तब वरुण एवं वायुरूप महादेवजीने कहा--“देवताओ! यह मेरा दिव्य यज्ञ है। मैं ही इस यज्ञका गृहस्थ यजमान हूँ ।। ११६ ।।

“आकाशचारी देवगण! पहले जो तीन पुरुष प्रकट हुए हैं, वे भूगु, अंगिरा और कवि मेरे पुत्र हैं, इसमें संशय नहीं है। इस बातको तुम जान लो; क्योंकि इस यज्ञका जो कुछ फल है, उसपर मेरा ही अधिकार है” || ११७ ।।

अग्नि बोले--ये तीनों संतानें मेरे अंगोंसे उत्पन्न हुई हैं और मेरे ही आश्रयमें विधाताने इनकी सृष्टि की है। अतः ये तीनों मेरे ही पुत्र हैं। वरुणरूपधारी महादेवजीका इनपर कोई अधिकार नहीं है ।। ११८ ।।

तदनन्तर लोकपितामह लोकगुरु ब्रह्माजीने कहा--“ये सब मेरी ही संतानें हैं; क्योंकि मेरे ही वीर्यकी आहुति दी गयी है; जिससे इनकी उत्पत्ति हुई है ।।

“मैं ही यज्ञका कर्ता और अपने वीर्यका हवन करनेवाला हूँ। जिसका बीज होता है उसको ही उसका फल मिलता है। यदि इनकी उत्पत्तिमें वीर्यकी ही कारण माना जाय तो निश्चय ही ये मेरे पुत्र हैं' | १२० ।।

इस प्रकार विवाद उपस्थित होनेपर समस्त देवताओंने ब्रह्माजीके पास जा दोनों हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर उनको प्रणाम किया और कहा-- || १२१ ।।

“भगवन्‌! हम सब लोग और चराचरसहित सारा जगत्‌ ये सब-के-सब आपकी ही संतान हैं। अत: अब ये प्रकाशमान अग्नि और ये वरुणरूपधारी ईश्वर महादेव भी अपना मनोवांछित फल प्राप्त करें! || १२२३ ।।

तब ब्रह्माजीकी आज्ञासे जलजन्तुओंके स्वामी वरुणरूपी भगवान्‌ शिवने सबसे पहले सूर्यके समान तेजस्वी भृगुको पुत्ररूपमें ग्रहण किया। फिर उन्होंने ही अंगिराको अग्निकी संतान निश्चित किया || १२३-१२४ ।।

तदनन्तर तत्त्वज्ञानी ब्रह्माने कविको अपनी संतानके रूपमें ग्रहण किया। उस समय संतानके कर्तव्यको जाननेवाले महर्षि भूगु वारुण नामसे विख्यात हुए। तेजस्वी अंगिरा आग्नेय तथा महायशस्वी कवि ब्राह्म नामसे विख्यात हुए। भूगु और अंगिरा--ये दोनों लोकमें जगत्‌की सृष्टिका विस्तार करनेवाले बतलाये गये हैं | १२५-१२६ ।।

इस प्रकार ये तीन प्रजापति हैं और शेष सब लोग इनकी संतानें हैं। यह सारा जगत्‌ इन्हींकी संतति हैं, इस बातको तुम अच्छी तरह समझ लो ।। १२७ ।।

भृगुके सात पुत्र व्यापक हुए, जो उन्हींके समान गुणवान्‌ थे। च्यवन, वज्रशीर्ष, शुचि, और्व, शुक्र, वरेण्य, तथा सवन--ये ही उन सातोंके नाम हैं। सभी भृगुवंशी सामान्यतः वारुण कहलाते हैं। जिनके वंशमें तुम भी उत्पन्न हुए हो ।। १२८-१२९ ।।

अंगिराके आठ पुत्र हैं, वे भी वारुण कहलाते हैं (वरुणके यज्ञमें उत्पन्न होनेसे ही उनकी वारुण संज्ञा हुई है)। उनके नाम इस प्रकार हैं--बृहस्पति, उतथ्य,पयस्य, शान्ति, घोर, विरूप, संवर्त और आठवाँ सुधन्वा। ये आठ अग्निके वंशमें उत्पन्न हुए हैं। अतः आग्नेय कहलाते हैं। वे सब-के-सब ज्ञाननिष्ठ एवं निरामय (रोग-शोकसे रहित) हैं || १३०-१३१ ।।

ब्रह्माके पुत्र जो कवि हैं, उनके पुत्रोंकी भी वारुण संज्ञा है। वे आठ हैं और सभी पुत्रोचित गुणोंसे सम्पन्न हैं। उन्हें शुभलक्षण एवं ब्रह्मज्ञानी माना गया है ।। १३२ ।।

उनके नाम ये हैं--कवि, काव्य, धुृष्णु, बुद्धिमान शुक्राचार्य, भूगु, विरजा, काशी तथा धर्मज्ञ उग्र || १३३ ।।

ये आठ कवितके पुत्र हैं। इन सबके द्वारा यह सारा जगत्‌ व्याप्त है। ये आठों प्रजापति हैं और प्रजाके गुणोंसे युक्त होनेके कारण प्रजा भी कहे गये हैं || १३४ ।।

भुगुश्रेष्ठी इस प्रकार अंगिरा, कवि और भृगुके वंशजों तथा संतान-परम्पराओंसे सारा जगत्‌ व्याप्त है ।।

विप्रवर! तात! प्रभावशाली जलेश्वर वरुणरूप शिवने पहले कवि और भृगुको पुत्ररूपसे ग्रहण किया था, इसलिये वे वारुण कहलाये ।। १३६ ।।

ज्वालाओंसे सुशोभित होनेवाले अग्निदेवने वरुणरूप शिवसे अंगिराको पुत्ररूपमें प्राप्त किया; इसलिये अंगिराके वंशमें उत्पन्न हुए सभी पुत्र अग्निवंशी एवं वारुण नामसे भी जानने योग्य हैं |। १३७ ।।

पूर्वकालमें देवताओंने पितामह ब्रह्माको प्रसन्न किया और कहा--'प्रभो! आप ऐसी कृपा कीजिये जिससे ये भूगु आदिके वंशज इस पृथ्वीका पालन करते हुए अपनी संतानोंद्वारा हमारा संकटसे उद्धार करें। ये सभी प्रजापति हों और सभी अत्यन्त तपस्वी हों। ये आपके कृपाप्रसादसे इस समय इस सम्पूर्ण लोकका संकटसे उद्धार करेंगे ।। १३८-१३९ ।।

“आपकी दयासे ये सब लोग वंशप्रवर्तक, आपके तेजकी वृद्धि करनेवाले तथा वेदज्ञ पुण्यात्मा हों || १४० ।।

“इन सबका स्वभाव सौम्य हो। प्रजापतियोंके वंशमें उत्पन्न हुए ये महर्षिगण सदा देवताओंके पक्षमें रहें तथा तप और उत्तम ब्रह्मचर्यका बल प्राप्त करें || १४१ ।।

'प्रभो! पितामह! ये सब और हमलोग आपहीकी संतान हैं; क्योंकि देवताओं और ब्राह्मणोंकी सृष्टि करनेवाले आप ही हैं ।। १४२ ।।

पितामह! कश्यपसे लेकर समस्त भृगुवंशियोंतक हम सब लोग आपहीकी संतान हैं --ऐसा सोचकर आपसे अपनी भूलोंके लिये क्षमा चाहते हैं ।। १४३ ।।

*वे प्रजापतिगण इसी रूपसे प्रजाओंको उत्पन्न करेंगे और सृष्टिके प्रारम्भसे लेकर प्रलयपर्यन्त अपने-आपको मर्यादामें स्थापित किये रहेंगे” || १४४ ।।

देवताओंके ऐसा कहनेपर लोकपितामह ब्रह्मा प्रसन्न होकर बोले--“तथास्तु (ऐसा ही हो)।' तत्पश्चात्‌ देवता जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये || १४५ ।।

इस प्रकार पूर्वकालमें जब कि सृष्टिके प्रारम्भका समय था, वरुण-शरीर धारण करनेवाले सुरश्रेष्ठ महात्मा रुद्रके यञ्ञमें पूर्वोक्त वृत्तान्त घटित हुआ था ।।

अनिन ही ब्रह्मा, पशुपति, शर्व, रुद्र और प्रजापतिरूप हैं। यह सुवर्ण अग्निकी ही संतान है--ऐसी सबकी मान्यता है ।। १४७ ।।

जमदग्निनन्दन परशुराम! वेद-प्रमाणका ज्ञाता पुरुष वैदिक श्रुतिके दृष्टान्तके अनुसार अग्निके अभावमें उसके स्थानपर सुवर्णका उपयोग करता है ।। १४८ ।।

कुशोंके समूहपर, उसपर रखे हुए सुवर्णपर, बाँबीके छिद्रमें, बकरेके दाहिने कानपर, जिस मार्गसे छकड़ा आता-जाता हो उस भूमिपर, दूसरेके जलाशयमें तथा ब्राह्मणके हाथपर वैदिक प्रमाण माननेवाले पुरुष अग्निस्वरूप मानकर होम आदि कर्म करते हैं और वह होमकार्य सम्पन्न होनेपर भगवान्‌ अग्निदेव आनन्ददायिनी समृद्धिका अनुभव करते हैं ।। १४९-१५० |।

अतः सब देवताओंमें अग्नि ही श्रेष्ठ हैं। यह हमने सुना है। ब्रह्मासे अग्निकी उत्पत्ति भी है और अग्निसे सुवर्णकी ।। १५१ ।।

इसलिये जो धर्मदर्शी पुरुष सुवर्णका दान करते हैं; वे समस्त देवताओंका ही दान करते हैं, यह हमारे सुननेमें आया है || १५२ ।।

सुवर्णदाता परमगतिको प्राप्त होता है, उसे अन्धकाररहित ज्योतिर्मय लोक मिलते हैं। भुगुनन्दन! स्वर्गलोकमें उसका राजाधिराज (कुबेर) के पदपर अभिषेक किया जाता है ।। १५३ ।।

जो सूर्योदय-कालमें विधिपूर्वक मन्त्र पढ़कर सुवर्णका दान करता है, वह अपने पाप और दुःस्वप्रको नष्ट कर डालता है || १५४ ।।

सूर्योदयके समय जो सुवर्णदान करता है, उसका सारा पाप धुल जाता है, तथा जो मध्याह्नकालमें सोना दान करता है, वह अपने भविष्य पापोंका नाश कर देता है || १५५ ||

जो सायं संध्याके समय व्रतका पालन करते हुए सुवर्ण दान देता है, वह ब्रह्मा, वायु, अग्नि और चन्द्रमाके लोकोंमें जाता है ।। १५६ ।।

इन्द्रसाहित सभी लोकपालोंके लोकोंमें उसे शुभ सम्मान प्राप्त होता है। साथ ही वह इस लोकमें यशस्वी एवं पापरहित होकर आनन्द भोगता है ।। १५७ ||

मृत्युके पश्चात्‌ जब वह परलोकमें जाता है, तब वहाँ अनुपम पुण्यात्मा समझा जाता है। कहीं भी उसकी गतिका प्रतिरोध नहीं होता और वह इच्छानुसार जहाँ चाहता है, विचरता रहता है। ।। १५८ ।।

सुवर्ण अक्षय द्रव्य है, उसका दान करनेवाले मनुष्यको पुण्यलोकोंसे नीचे नहीं आना पड़ता। संसारमें उसे महान्‌ यशकी प्राप्ति होती है तथा परलोकमें उसे अनेक समृद्धिशाली पुण्यलोक प्राप्त होते हैं || १५९ ।।

जो मनुष्य सूर्योदयके समय अग्नि प्रकट करके किसी व्रतके उद्देश्यसे सुवर्णदान करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है ।। १६० ।।

सुवर्णको अग्निस्वरूप ही कहते हैं। उसका दान सुख देनेवाला होता है। वह यशथेष्ट पुण्यको उत्पन्न करने-वाला और दानेच्छाका प्रवर्तक माना गया है ।। १६१ ।।

प्रभो! निष्पाप भृगुनन्दन! यह मैंने तुम्हें सुवर्ण और कार्तिकेयकी उत्पत्ति बतायी है। इसे अच्छी तरह समझ लो ।। १६२ ।।

भुगुश्रेष्! कार्तिकेय जब दीर्घकालमें बड़े हुए तब इन्द्र आदि देवताओंने उनका अपने सेनापतिके पदपर वरण किया ।। १६३ ।।

ब्रह्मन! उन्होंने लोकोंके हितकी कामना एवं देवराज इन्द्रकी आज्ञासे प्रेरित हो तारकासुर तथा अन्य दैत्योंका संहार कर डाला || १६४ ।।

प्रभो! दाताओंमें श्रेष्ठ) इस प्रकार मैंने तुम्हें सुवर्णदानका माहात्म्य बताया है। इसलिये अब तुम ब्राह्मणोंको सुवर्णका दान करो || १६५ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठि!! वसिष्ठजीके ऐसा कहनेपर प्रतापी परशुरामजीने ब्राह्मणोंको सुवर्णका दान किया। इससे वे सब पापोंसे छुटकारा पा गये ।।

राजा युधिष्ठिर! इस प्रकार मैंने तुम्हें सुवर्णकी उत्पत्ति और उसके दानका फल यह सब कुछ बता दिया ।। १६७ ||

अतः नरेश्वर! अब तुम भी ब्राह्मणोंको बहुत-सा सुवर्ण दान करो। सुवर्ण दान करके तुम पापसे मुक्त हो जाओगे ।। १६८ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें सुवर्णकी उत्पत्तिविषयक पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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