सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ सौलहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ सौलहवाँ अध्याय के श्लोक 1-32 का हिन्दी अनुवाद)
“मांस न खानेसे लाभ और अहिंसाधर्मकी प्रशंसा”
युधिष्ठिर कहते हैं-पितामह! बड़े खेदकी बात है कि संसारके ये निर्दयी मनुष्य अच्छे-अच्छे खाद्य पदार्थोका परित्याग करके महान् राक्षसोंके समान मांसका स्वाद लेना चाहते हैं ।। १ |।
भाँति-भाँतिके मालपूओं, नाना प्रकारके शाकों तथा रसीली मिठाइयोंकी भी वैसी इच्छा नहीं रखते, जैसी रुचि मांसके लिये रखते हैं ।। २ ।।
प्रभो! पुरुषप्रवर! अतः मैं मांस न खानेसे होनेवाले लाभ और उसे खानेसे होनेवाली हानियोंको पुनः सुनना चाहता हूँ ।। ३ ।।
धर्मज्ञ पितामह! इस समय धर्मके अनुसार यथावत््रूपसे यहाँ सब बातें ठीक-ठीक बताइये। इसके सिवा यह भी कहिये कि भोजन करने योग्य क्या वस्तु है और भोजन न करने योग्य क्या वस्तु है ।। ४ ।।
पितामह! मांसका जो स्वरूप है, यह जैसा है, इसका त्याग कर देनेमें जो लाभ है और इसे खानेवाले पुरुषको जो दोष प्राप्त होते हैं--ये सब बातें मुझे बताइये ।। ५ ।।
भीष्मजीने कहा--महाबाहो! भरतनन्दन! तुम जैसा कहते हो ठीक वैसी ही बात है। कौरवनन्दन! मांस न खानेमें बहुत-से लाभ हैं, जो वैसे मनुष्योंको सुलभ होते हैं; मैं बता रहा हूँ; सुनो || ६ ।।
जो दूसरेके मांससे अपना मांस बढ़ाना चाहता है, उससे बढ़कर नीच और निर्दयी मनुष्य दूसरा कोई नहीं है || ७ ।।
जगतमें अपने प्राणोंसे अधिक प्रिय दूसरी कोई वस्तु नहीं है। इसलिये मनुष्य जैसे अपने ऊपर दया चाहता है, उसी तरह दूसरोंपर भी दया करे ।। ८ ।।
तात! मांस-भक्षण करनेमें महान् दोष है; क्योंकि मांसकी उत्पत्ति वीर्यसे होती है, इसमें संशय नहीं है। अतः उससे निवृत्त होनेमें ही पुण्य बताया गया है ।। ९ ।।
कौरवनन्दन! इस लोक और परलोकमें इसके समान दूसरा कोई पुण्यकार्य नहीं है कि इस जगतमें समस्त प्राणियोंपर दया की जाय ।। १० ।।
इस जगत्में दयालु मनुष्यको कभी भयका सामना नहीं करना पड़ता। दयालु और तपस्वी पुरुषोंके लिये हहलोक और परलोक दोनों ही सुखद होते हैं ।। ११ ।।
धर्मज्ञ पुरुष यह जानते हैं कि अहिंसा ही धर्मका लक्षण है। मनस्वी पुरुष वही कर्म करे, जो अहिंसात्मक हो || १२ ।।
जो दयापरायण पुरुष सम्पूर्ण भूतोंको अभयदान देता है, उसे भी सब प्राणी अभयदान देते हैं। ऐसा हमने सुन रखा है ।। १३ ।।
वह घायल हो, लड़खड़ाता हो, गिर पड़ा हो, पानीके बहावमें खिंचकर बहा जाता हो, आहत हो अथवा किसी भी सम-विषम अवस्थामें पड़ा हो, सब प्राणी उसकी रक्षा करते हैं ।। १४ ।।
जो दूसरोंको भयसे छुड़ाता है, उसे न हिंसक पशु मारते हैं और न पिशाच तथा राक्षस ही उसपर प्रहार करते हैं। वह भयका अवसर आनेपर उससे मुक्त हो जाता है || १५ ।।
प्राणदानसे बढ़कर दूसरा कोई दान न हुआ है और न होगा। अपने आत्मासे बढ़कर प्रियतर वस्तु दूसरी कोई नहीं है। यह निश्चित बात है || १६ ।।
भरतनन्दन! किसी भी प्राणीको मृत्यु अभीष्ट नहीं है; क्योंकि मृत्युकालमें सभी प्राणियोंका शरीर तुरंत काँप उठता है ।। १७ ।।
इस संसार-समुद्रमें समस्त प्राणी सदा गर्भवास, जन्म और बुढ़ापा आदिके दु:खोंसे दुःखी होकर चारों ओर भटकते रहते हैं। साथ ही मृत्युके भयसे उद्विग्न रहा करते हैं ।। १८ ।।
गर्भमें आये हुए प्राणी मल-मूत्र और पसीनोंके बीचमें रहकर खारे, खट्टे और कड़वे आदि रसोंसे, जिनका स्पर्श अत्यन्त कठोर और दुःखदायी होता है, पकते रहते हैं, जिससे उन्हें बड़ा भारी कष्ट होता है ।।
मांसलोलुप जीव जन्म लेनेपर भी परवश होते हैं। वे बार-बार शस्त्रोंसे काटे और पकाये जाते हैं। उनकी यह बेवशी प्रत्यक्ष देखी जाती है || २० ।।
वे अपने पापोंके कारण कुम्भीपाक नरकमें राँधे जाते और भिन्न-भिन्न योनियोंमें जन्म लेकर गला घोंट-घोंटकर मारे जाते हैं। इस प्रकार उन्हें बारंबार संसार-चक्रमें भटकना पड़ता है । २१
इस भूमण्डलपर अपने आत्मासे बढ़कर कोई प्रिय वस्तु नहीं है। इसलिये सब प्राणियोंपर दया करे और सबको अपना आत्मा ही समझे ।। २२
राजन्! जो जीवनभर किसी भी प्राणीका मांस नहीं खाता, वह स्वर्गमें श्रेष्ठ एवं विशाल स्थान पाता है, इसमें संशय नहीं है || २३ ।।
जो जीवित रहनेकी इच्छावाले प्राणियोंके मांसको खाते हैं, वे दूसरे जन्ममें उन्हीं प्राणियोंद्वारा भक्षण किये जाते हैं। इस विषयमें मुझे संशय नहीं है ।। २४ ।।
भरतनन्दन! (जिसका वध किया जाता है, वह प्राणी कहता है--) “मां स भक्षयते यस्माद् भक्षयिष्ये तमप्यहम् ।” अर्थात् “आज मुझे वह खाता है तो कभी मैं भी उसे खाऊँगा।” यही मांसका मांसत्व है--इसे ही मांस शब्दका तात्पर्य समझो ।। २५ ।।
राजन्! इस जन्ममें जिस जीवकी हिंसा होती है, वह दूसरे जन्ममें सदा ही अपने घातकका वध करता है। फिर भक्षण करनेवालेको भी मार डालता है। जो दूसरोंकी निन्दा करता है, वह स्वयं भी दूसरोंके क्रोध और द्वेषका पात्र होता है ।। २६ ।।
जो जिस-जिस शरीरसे जो-जो कर्म करता है, वह उस-उस शरीरसे भी उस-उस कर्मका फल भोगता है ।। २७ ।।
अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम संयम है, अहिंसा परम दान है और अहिंसा परम तपस्या है ।।
अहिंसा परम यज्ञ है, अहिंसा परम फल है, अहिंसा परम मित्र है और अहिंसा परम सुख है || २९ ।।
सम्पूर्ण यज्ञोंमें जो दान किया जाता है, समस्त तीर्थोमें जो गोता लगाया जाता है तथा सम्पूर्ण दानोंका जो फल है-यह सब मिलकर भी अहिंसाके बराबर नहीं हो सकता ।। ३० ||
जो हिंसा नहीं करता, उसकी तपस्या अक्षय होती है। वह सदा यज्ञ करनेका फल पाता है। हिंसा न करनेवाला मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियोंके माता-पिताके समान है ।। ३१ ।।
कुरुश्रेष्ठ! यह अहिंसाका फल है। यही क्या, अहिंसाका तो इससे भी अधिक फल है। अहिंसासे होनेवाले लाभोंका सौ वर्षोमें भी वर्णन नहीं किया जा सकता || ३२ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपरव्वके अन्तर्गत दानधर्ग पर्वमें अहिंसाके फलका वर्णनविषयक एक सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ सत्तरहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ सत्तरहवाँ अध्याय के श्लोक 1-29 का हिन्दी अनुवाद)
“शुभ कर्मसे एक कीड़ेको पूर्व-जन्मकी स्मृति होना और कीट-योनिमें भी मृत्युका भय एवं सुखकी अनुभूति बताकर कीड़ेका अपने कल्याणका उपाय पूछना”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! जो योद्धा महासमरमें इच्छा या अनिच्छासे मारे गये हैं, वे किस गतिको प्राप्त हुए है? यह मुझे बताइये ।। १ ।।
महाप्राज्ञ! आप तो जानते ही हैं कि महा-संग्राममें मनुष्योंके लिये प्राणोंका परित्याग करना कितना दुःखदायक होता है। प्राणोंका त्याग करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है ।। २ ।।
प्राणी उन्नति या अवनति, शुभ या अशुभ किसी भी अवस्थामें मरना नहीं चाहते हैं। इसका क्या कारण है? यह मुझे बताइये; क्योंकि मेरी दृष्टिमें आप सर्वज्ञ हैं ।। ३ ।।
भीष्मजीने कहा--पृथ्वीनाथ! इस संसारमें आये हुए प्राणी उन्नतिमें या अवनतिमें तथा शुभ या अशुभ अवस्थामें ही सुख मानते हैं। मरना नहीं चाहते। इसका क्या कारण है, यह बताता हूँ, सुनो। युधिष्ठिर! यह तुमने बहुत अच्छा प्रश्न उपस्थित किया है ।। ४-५ ।।
नरेश्वर! युधिष्ठिर! इस विषयमें द्वैपवायन व्यास और एक कीड़ेका संवादरूप जो यह प्राचीन वृत्तान्त प्रसिद्ध है, वही तुम्हें बता रहा हूँ ।। ६ ।।
पहलेकी बात है, ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्णद्वैपायन विप्रवर व्यासजी कहीं जा रहे थे। उन्होंने एक कीड़ेको गाड़ीकी लीकसे बड़ी तेजीके साथ भागते देखा ।। ७ ।।
सर्वज्ञ व्यासजी सम्पूर्ण प्राणियोंकी गतिके ज्ञाता तथा सभी देहधारियोंकी भाषाको समझनेवाले हैं। उन्होंने उस कीड़ेको देखकर उससे इस प्रकारकी बातचीत की ।।
व्यासजीने पूछा--कीट! आज तुम बहुत डरे हुए और उतावले दिखायी दे रहे हो, बताओ तो सही--कहाँ भागे जा रहे हो? कहाँसे तुम्हें भय प्राप्त हुआ है? ।। ९ ।।
कीड़ेने कहा--महामते! यह जो बहुत बड़ी बैलगाड़ी आ रही है, इसीकी घर्घराहट सुनकर मुझे भय हो गया है; क्योंकि उसकी यह आवाज बड़ी भयंकर है ।।
यह आवाज जब कानोंमें पड़ती है, तब यह संदेह होता है कि कहीं गाड़ी आकर मुझे कुचल न डाले। इसीलिये यहाँसे जल्दी-जल्दी भाग रहा हूँ। यह देखिये बैलोंपर चाबुककी मार पड़ रही है और वे बहुत भारी बोझ लिये हाँफते हुए इधर आ रहे हैं। प्रभो! मुझे उनकी आवाज बहुत निकट सुनायी पड़ती है। गाड़ीपर बैठे हुए मनुष्योंके भी नाना प्रकारके शब्द कानोंमें पड़ रहे हैं | ११-१२ ।।
मेरे-जैसे कीड़ेके लिये इस भयंकर शब्दको बधैर्यपूर्वक सुन सकना असम्भव है। अतः इस अत्यन्त दारुण भयसे अपनी रक्षा करनेके लिये मैं यहाँसे भाग रहा हूँ ।। १३ ।।
प्राणियोंके लिये मृत्यु बड़ी दुःखदायिनी होती है। अपना जीवन सबको अत्यन्त दुर्लभ जान पड़ता है। अतः डरकर भागा जा रहा हूँ। कहीं ऐसा न हो कि मैं सुखसे दुःखमें पड़ जाऊँ || १४ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! कीड़ेके ऐसा कहनेपर व्यासजीने उससे पूछा--“कीट! तुम्हे सुख कहाँ है?” मेरी समझमें तो तुम्हारा मर जाना ही तुम्हारे लिये सुखकी बात है; क्योंकि तुम तिर्यक् योनि--अधम कीट-योनिमें पड़े हो ।।
“कीट! तुम्हें शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध तथा बहुत-से छोटे-बड़े भोगोंका अनुभव नहीं होता है। अतः तुम्हारा तो मर जाना ही अच्छा है! || १६ ।।
कीड़ेने कहा--महाप्राज्ञ! जीव सभी योनियोंमें सुखका अनुभव करते हैं। मुझे भी इस योनिमें सुख मिलता है और यही सोचकर जीवित रहना चाहता हूँ ।।
यहाँ भी इस शरीरके अनुसार सारे विषय उपलब्ध होते हैं। मनुष्यों और स्थावर प्राणियोंके भोग अलग-अलग हैं ।। १८ ।।
प्रभो! पहले जन्ममें मैं एक मनुष्य, उसमें भी बहुत धनी शूद्र हुआ था। ब्राह्मणोंके प्रति मेरे मनमें आदरका भाव न था। मैं कंजूस, क्रूर और व्याजखोर था ।। १९ |।
सबसे तीखे वचन बोलना, बुद्धिमानीके साथ लोगोंको ठगना और संसारके सभी लोगोंसे द्वेष रखना, यह मेरा स्वभाव हो गया था। झूठ बोलकर लोगोंको धोखा देना और दूसरोंके मालको हड़प लेनेमें संलग्न रहना--यही मेरा काम था ।। २० ।।
मैं इतना निर्दयी था कि केवल स्वाद लेनेकी कामनासे अकेला ही भोजनकी इच्छा रखता और ईर्ष्यावश घरपर आये हुए अतिथियों और आश्रितजनोंको भोजन कराये बिना ही भोजन कर लेता था ।। २१ ।।
पूर्वजन्ममें मैं देवताओं और पितरोंके यजनके लिये श्रद्धापूर्वक अन्न एकत्र करता; परंतु धन-संग्रहकी कामनासे उस देनेयोग्य अन्नका भी दान नहीं करता था ।। २२ ।।
भयके समय अभय पानेकी इच्छासे कितने ही शरणार्थी मेरे पास आते, किन्तु मैं उन्हें शरण लेनेयोग्य सुरक्षित स्थानमें पहुँचाकर भी अकस्मात् वहाँसे निकाल देता। उनकी रक्षा नहीं करता था || २३ ।।
दूसरे मनुष्योंके पास धन-धान्य, सुन्दरी स्त्री, अच्छी-अच्छी सवारियाँ, अदभुत वस्त्र और उत्तम लक्ष्मी देखकर मैं अकारण ही उनसे कुढ़ता रहता था ।। २४ ।।
दूसरोंका सुख देखकर मुझे ईर्ष्या होती थी, दूसरे किसीकी उन्नति हो यह मैं नहीं चाहता था, औरोंके धर्म, अर्थ और काममें बाधा डालता और अपनी ही इच्छाका अनुसरण करता था ।। २५ ||
पूर्वजन्ममें प्राय: मैंने वे ही कर्म किये हैं, जिनमें निर्दयता अधिक थी। उनकी याद आनेसे मुझे उसी तरह पश्चात्ताप होता है, जैसे कोई अपने प्यारे पुत्रको त्यागकर पछताता है ।। २६ ||
मुझे पहलेके अपने किये हुए शुभकर्मोंके फलका अबतक अनुभव नहीं हुआ है। पूर्वजन्ममें मैंने केवल अपनी बूढ़ी माताकी सेवा की थी तथा एक दिन किसीके साथ हो जानेसे अपने घरपर आये हुए ब्राह्मण अतिथिका जो अपने जातीय गुणोंसे सम्पन्न थे, स्वागत-सत्कार किया था। ब्रह्मन्! उसी पुण्यके प्रभावसे मुझे आजतक पूर्वजन्मकी स्मृति छोड़ न सकी है | २७-२८ ।।
तपोधन! अब मैं पुनः किसी शुभकर्मके द्वारा भविष्यमें सुख पानेकी आशा रखता हूँ। वह कल्याणकारी कर्म क्या है, इसे मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ ।।२९।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें कीटका उपाख्यानविषयक एक सौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ अट्ठारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ अट्ठारहवाँ अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
“कीडेका क्रमश: क्षत्रिययोनिमें जन्म लेकर व्यासजीका दर्शन करना और व्यासजीका उसे ब्राह्मण होने तथा स्वर्गसुख और अक्षय सुखकी प्राप्ति होनेका वरदान देना”
व्यासजीने कहा--कीट! तुम जिस शुभकर्मके प्रभावसे तिर्यग् योनिमें जन्म लेकर भी मोहित नहीं हुए हो, वह मेरा ही कर्म है। मेरे दर्शनके प्रभावसे ही तुम्हें मोह नहीं हो रहा है।। १।।
मैं अपने तपोबलसे केवल दर्शनमात्र देकर तुम्हारा उद्धार कर दूँगा; क्योंकि तपोबलसे बढ़कर दूसरा कोई श्रेष्ठ बल नहीं है || २ ।।
कीट! मैं जानता हूँ, अपने पूर्वकृत पापोंके कारण तुम्हें कीटयोनिमें आना पड़ा है। यदि इस समय तुम्हारी धर्मके प्रति श्रद्धा है तो तुम्हें धर्म अवश्य प्राप्त होगा ।।
देवता, मनुष्य और तिर्यग् योनिमें पड़े हुए प्राणी कर्मभूमिमें किये हुए कर्मोका ही फल भोगते हैं। अज्ञानी मनुष्यका धर्म भी कामनाको लेकर ही होता है तथा वे कामनाकी सिद्धिके लिये ही गुणोंको अपनाते हैं || ४ ।।
मनुष्य मूर्ख हो या विद्वान, यदि वह वाणी, बुद्धि और हाथ-पैरसे रहित होकर जीवित है तो उसे कौन-सी वस्तु त्यागेगी, वह तो सभी पुरुषार्थोंसे स्वयं ही परित्यक्त है ।।
कीट! एक जगह एक श्रेष्ठ ब्राह्मण रहते हैं। वे जीवनमें सदा सूर्य और चन्द्रमाकी पूजा किया करते हैं तथा लोगोंको पवित्र कथाएँ सुनाया करते हैं। उन्हींके यहाँ तुम (क्रमशः) पुत्ररूपसे जन्म लोगे || ६ ।।
वहाँ विषयोंको पंचभूतोंका विकार मानकर अनासक्तभावसे उपभोग करोगे। उस समय मैं तुम्हारे पास आकर ब्रह्मविद्याका उपदेश करूँगा तथा तुम जिस लोकमें जाना चाहोगे, वहीं तुम्हें पहुँचा दूँगा ।। ७ ।।
व्यासजीके इस प्रकार कहनेपर उस कीड़ेने बहुत अच्छा कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली और बीच रास्तेमें जाकर वह ठहर गया। इतनेहीमें वह विशाल छकड़ा अकस्मात् वहाँ आ पहुँचा और उसके पहियेसे दबकर चूर-चूर हो कीड़ेने प्राण त्याग दिये ।। ८३६
तत्पश्चात् वह क्रमश: शाही, गोधा, सूअर, मृग, पक्षी, चाण्डाल, शूद्र और वैश्यकी योनिमें जन्म लेता हुआ क्षत्रिय-जातिमें उत्पन्न हुआ। अन्य सारी योनियोंमें भ्रमण करनेके बाद अमित तेजस्वी व्यासजीकी कृपासे क्षत्रियकुलमें उत्पन्न होकर वह उन महर्षिका दर्शन करनेके लिये उनके पास गया ।। ९-१० | ।।
वह कीट-योनिमें उन सत्यवादी महर्षि वेदव्यासजीके साथ बातचीत करके जो इस प्रकार उन्नतिशील हुआ था, उसकी याद करके उस क्षत्रियने हाथ जोड़कर ऋषिके चरणोंमें अपना मस्तक रख दिया ।। ११ ।।
कीट (क्षत्रिय) ने कहा--भगवन्! आज मुझे वह स्थान मिला है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। इसे मैं दस जन्मोंसे पाना चाहता था। यह आपहीकी कृपा है कि मैं अपने दोषसे कीड़ा होकर भी आज राजकुमार हो गया हूँ ।। १२ ।।
अब सोनेकी मालाओंसे सुशोभित अत्यन्त बलवान् गजराज मेरी सवारीमें रहते हैं। उत्तम जातिके काबुली घोड़े मेरे रथोंमें जोते जाते हैं || १३ ।।
ऊँटों और खच्चरोंसे जुती हुई गाड़ियाँ मुझे ढोती हैं। मैं भाई-बन्धुओं और मन्त्रियोंके साथ मांस-भात खाता हूँ ।। १४ ।।
महाभाग! श्रेष्ठ पुरुषोंमें रहने योग्य अपने निवासभूत सुन्दर महलोंके भीतर सुखद शय्याओंपर मैं बड़े सम्मानके साथ शयन करता हूँ ।। १५ ।।
प्रतिदिन रातके पिछले पहरोंमें सूत, मागध और वन्दीजन मेरी स्तुति करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे देवता प्रिय वचन बोलकर महेन्द्रके गुण गाते हैं || १६ ।।
आप सत्यप्रतिज्ञ हैं, अमित तेजस्वी हैं, आपके प्रसादसे ही आज मैं कीड़ेसे राजपूत हो गया हूँ ।। १७ ।।
महाप्राज्ञ आपको नमस्कार है, मुझे आज्ञा दीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ; आपके तपोबलसे ही मुझे राजपद प्राप्त हुआ है || १८ ।।
व्यासजीने कहा--राजन्! आज तुमने अपनी वाणीसे मेरा भलीभाँति स्तवन किया है। अभीतक तुम्हें अपनी कीट-योनिकी घृणित स्मृति अर्थात् मांस खानेकी वृत्ति बनी हुई है || १९ ||
तुमने पूर्वजन्ममें अर्थथरायण, नृशंस और आततायी शूद्र होकर जो पाप संचय किया था, उसका सर्वदा नाश नहीं हुआ है ।। २० ।।
कीट-योनिमें जन्म लेकर भी जो तुमने मेरा दर्शन किया, उसी पुण्यका यह फल है कि तुम राजपूत हुए और आज जो तुमने मेरी पूजा की, इसके फलस्वरूप तुम इस क्षत्रिययोनिके पश्चात ब्राह्मणत्वको प्राप्त करोगे ।।
राजकुमार! तुम नाना प्रकारके सुख भोगकर अन्तमें गौ और ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये संग्रामभूमिमें अपने प्राणोंकी आहुति दोगे। तदनन्तर ब्राह्मणरूपमें पर्याप्त दक्षिणावाले यज्ञोंका अनुष्ठान करके स्वर्गसुखका उपभोग करोगे। तत्पश्चात् अविनाशी ब्रह्मस्वरूप होकर अक्षय आनन्दका अनुभव करोगे ।। २२-२३ ।।
तिर्यगू-योनिमें पड़ा हुआ जीव जब ऊपरकी ओर उठता है, तब वहाँसे पहले शूद्रभावको प्राप्त होता है। शूद्र वैश्ययोनिको, वैश्य क्षत्रिययोनिको और सदाचारसे सुशोभित क्षत्रिय ब्राह्मणयोनिको प्राप्त होता है। फिर सदाचारी ब्राह्मण पुण्यमय स्वर्गलोकको जाता है ।। २४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें कीड़ेका उपाख्यानविषयक एक सौ अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“कीड़ेका ब्राह्मणयोनिमें जन्म लेकर ब्रह्मलोकमें जाकर सनातनब्रह्म॒को प्राप्त करना”
भीष्मजी कहते हैं--राजा युधिष्ठिर! इस प्रकार कीटयोनिका त्याग करके अपने पूर्वजन्मका स्मरण करनेवाला वह जीव अब क्षत्रिय-धर्मको प्राप्त हो विशेष शक्तिशाली हो गया और बड़ी भारी तपस्या करने लगा ।। १ |।
तब धर्म और अर्थके तत्त्वको जाननेवाले उस राजकुमारकी उग्र तपस्या देखकर विप्रवर श्रीकृष्ण-द्वैघवायन व्यासजी उसके पास आये |। २ ।।
व्यासजीने कहा--पूर्वजन्मके कीट! प्राणियोंकी रक्षा करना देवताओंका व्रत है और यही क्षात्रधर्म है। इसका चिंतन और पालन करके तुम अगले जन्ममें ब्राह्मण हो जाओगे ।। ३ ।।
तुम शुभ और अशुभका ज्ञान प्राप्त करो तथा अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें करके भलीभाँति प्रजाका पालन करो। उत्तम भोगोंका दान करते हुए अशुभ दोषोंका मार्जन करके प्रजाको पावन बनाकर आत्मज्ञानी एवं सुप्रसन्न हो जाओ तथा सदा स्वधर्मके आचरणमें तत्पर रहो। तदनन्तर क्षत्रिय-शरीरका त्याग करके ब्राह्मणत्वको प्राप्त करोगे ।। ४-५ ।।
भीष्मजी कहते हैं--नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिर! वह भूतपूर्व कीट महर्षि वेदव्यासका वचन सुनकर धर्मके अनुसार प्रजाका पालन करने लगा। तत्पश्चात् वह पुनः वनमें जाकर थोड़े ही समयमें परलोकवासी हो प्रजापालनरूप धर्मके प्रभावसे ब्राह्मण-कुलमें जन्म पा गया ।। ६-७ ।।
उसे ब्राह्मण हुआ जान महायशस्वी महाज्ञानी श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास पुनः उसके पास आये ।। ८ ।।
व्यासजीने कहा--ब्राह्मणशिरोमणे! अब तुम्हें किसी प्रकार व्यथित नहीं होना चाहिये। उत्तम कर्म करनेवाला उत्तम योनियोंमें और पाप करनेवाला पाप-योनियोंमें जन्म लेता है || ९ |।
धर्मज्ञ! मनुष्य जैसा पाप करता है, उसके अनुसार ही उसे फल भोगना पड़ता है। अतः भूतपूर्व कीट! अब तुम मृत्युके भयसे किसी प्रकार व्यथित न होओ। हाँ, तुम्हें धर्मके लोपका भय अवश्य होना चाहिये, इसलिये उत्तम धर्मका आचरण करते रहो ।। १०६ ।।
भूतपूर्व कीटने कहा--भगवन्! आपके ही प्रयत्नसे मैं अधिकाधिक सुखकी अवस्थाको प्राप्त होता गया हूँ। अब इस जन्ममें धर्ममूलक सम्पत्ति पाकर मेरा सारा पाप नष्ट हो गया || ११३ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! भगवान् व्यासके कथनानुसार उस भूतपूर्व कीटने दुर्लभ ब्राह्मणत्वको पाकर पृथ्वीको सैकड़ों यज्ञयूपोंसे अंकित कर दिया। तदनन्तर ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ होकर उसने ब्रह्मसालोक्य प्राप्त किया अर्थात् ब्रह्मलोकमें जाकर सनातन ब्रह्मको प्राप्त किया || १२-१३ ।।
पार्थ! व्यासजीके कथनानुसार उसने स्वधर्मका पालन किया था। उसीका यह फल हुआ कि उस कीटने सनातन ब्रह्मपद प्राप्त कर लिया ।। १४ ।।
बेटा! (क्षत्रिययोनिमें उस कीटने युद्ध करके प्राण त्याग किया था, इसलिये उसे उत्तम गतिकी प्राप्ति हुई।) इसी प्रकार जो प्रधान-प्रधान क्षत्रिय अपनी शक्तिका परिचय देते हुए इस रणभाूमिमें मारे गये हैं, वे भी पुण्यमयी गतिको प्राप्त हुए हैं। अत: उसके लिये तुम शोक न करो || १५ ||
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें कीड़ेका उपाख्यानविषयक एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ बीसवाँ अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“व्यास और मैत्रेयका संवाद--दानकी प्रशंसा और कर्मका रहस्य”
युधिष्ठटिरने पूछा--सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ पितामह! विद्या, तप और दान--इनमेंसे कौन-सा श्रेष्ठ है? यह मैं आपसे पूछता हूँ, मुझे बताइये ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन! इस विषयमें श्रीकृष्णद्वैवायन व्यास और मैत्रेयके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है ।। २ ।।
नरेश्वर! एक समयकी बात है--भगवान् श्रीकृष्ण-द्वैपायन व्यासजी गुप्तरूपसे विचरते हुए वाराणसी-पुरीमें जा पहुँचे। वहाँ मुनियोंकी मण्डलीमें बैठे हुए मुनिवर मैत्रेयजीके यहाँ वे उपस्थित हुए ।। ३ ।।
पास आकर बैठे हुए मुनिवर व्यासजीको पहचानकर मैत्रेयजीने उनका पूजन किया और उन्हें उत्तम अन्न भोजन कराया ।। ४ ।।
वह उत्तम लाभदायक और सबकी रुचिके अनुकूल अन्न भोजन करके महामना व्यासजी बहुत संतुष्ट हुए। फिर जब वे वहाँसे चलने लगे तो मुस्कराये ।। ५ ।।
उन्हें मुस्कराते देख मैत्रेयजीने व्यासजीसे पूछा--'धर्मात्मन्! विद्वन्! मैं आपको अभिवादन- एवं प्रणाम करके यह पूछता हूँ कि आप अभी-अभी जो मुस्कराये हैं, उसका क्या कारण है? आपको हँसी कैसे आयी? आप तो तपस्वी और धैर्यवान् हैं। आपको कैसे सहसा उल्लास हो आया? यह मुझे बताइये ।। ६-७ ।।
“तात! मैं अपनेमें तपस्याजनित सौभाग्य देखता हूँ और आपमें यहाँ सहज महाभाग्य प्रतिष्ठित है (क्योंकि आप मेरे गुरुपुत्र हैं)। जीवात्मा और परमात्मामें मैं बहुत थोड़ा अनार मानता हूँ। परमात्माका सभी पदार्थोंके साथ सम्बन्ध है; क्योंकि वह सर्वव्यापी है। इसीलिये मैं उसे जीवात्माकी अपेक्षा श्रेष्ठ भी मानता हूँ, किंतु आप तो जीवात्माको परमात्मासे अभिन्न जाननेवाले हैं, फिर आपका आचरण इस मान्यतासे भिन्न हो रहा है; क्योंकि आपको कुछ विस्मय हुआ है और मुझे नहीं हुआ है” || ८ ।।
व्यासजीने कहा--ब्रह्मन! अतिथिको अत्यन्त गौरव प्रदान करते हुए उसकी इच्छाके अनुसार सत्कार करना “अतिच्छन्द' कहलाता है और वाणीद्वारा अतिथिके गौरवका जो प्रकाशन किया जाता है, उसे “अतिवाद' कहते हैं। मुझे यहाँ अतिच्छन््द और अतिवाद दोनों प्राप्त हुए हैं, इसीलिये मेरा यह विस्मय एवं हर्षोल्लास प्रकट हुआ है। (दान और आतिथ्य आदिका महत्त्व वेदोंके द्वारा प्रतिपादित हुआ है।) वेदोंका वचन कभी मिथ्या नहीं हो सकता। भला, वेद क्यों असत्य कहेगा? ।। ९ ।।
वेद मनुष्यके लिये तीन बातोंको उत्तम व्रत बताते हैं--(१) किसीके प्रति द्रोह न करे, (२) दान दे तथा (३) दूसरोंसे सदा सत्य बोले || १० ।।
वेदके इस कथनका सबसे पहले ऋषियोंने पालन किया। हमने भी बहुत पहलेसे इसे सुन रखा है और इस समय भी वेदकी इस आज्ञाका पालन करना हमारा कर्तव्य है ।। ११ ||
शास्त्रविधिके अनुसार दिया हुआ थोड़ा-सा भी दान महान् फल देनेवाला होता है। तुमने ईर्ष्या-रहित हृदयसे भूखे-प्यासे अतिथिको अन्न-जलका दान किया है || १२ ।।
प्रभो! मैं भूखा और प्यासा था। तुमने मुझ भूखे-प्यासेको अन्न-जल देकर तृप्त किया। इस पुण्यके प्रभावसे महान् यज्ञोंद्वारा प्राप्त होनेवाले बड़े-बड़े लोकोंपर तुमने विजय पायी है--यह मुझे प्रत्यक्ष दिखायी देता है ।। १३ ।।
इस दानके द्वारा पवित्र हुई तुम्हारी तपस्यासे मैं बहुत संतुष्ट हुआ हूँ। तुम्हारा बल पुण्यका ही बल है और तुम्हारा दर्शन भी पुण्यका ही दर्शन है ।। १४ ।।
तुम्हारे शरीरसे जो सदा पुण्यकी ही सुगन्ध फैलती रहती है, इसे मैं इस दानरूप पुण्यकर्मके अनुष्ठानका फल मानता हूँ। तात! दान करना तीर्थ-स्नान तथा वैदिक व्रतकी पूर्तिसे भी बढ़कर है ।। १५ ।।
ब्रह्म! जितने पवित्र कर्म हैं, उन सबमें दान ही सबसे बढ़कर पवित्र एवं कल्याणकारी है। यदि दान ही समस्त पवित्र वस्तुओंसे श्रेष्ठ न होता तो वेद-शास्त्रोंमें उसकी इतनी प्रशंसा नहीं की जाती ।। १६ |।
तुम जिन-जिन वेदोक्त उत्तम कर्मोंकी यहाँ प्रशंसा करते हो, उन सबमें दान ही श्रेष्ठतर है, इस विषयमें मुझे संशय नहीं है ।। १७ ।।
दाताओंने जो मार्ग बना दिया है, उसीसे मनीषी पुरुष चलते हैं। दान करनेवाले प्राणदाता समझे जाते हैं। उन्हींमें धर्म प्रतिष्ठित है । १८ ।।
जैसे वेदोंका स्वाध्याय, इन्द्रियोंका संयम और सर्वस्वका त्याग उत्तम है, उसी प्रकार इस संसारमें दान भी अत्यन्त उत्तम माना गया है ।। १९ ।।
तात! महाबुद्धे! तुमको इस दानके कारण उत्तम सुखकी प्राप्ति होगी। बुद्धिमान् मनुष्य दान करके उत्तरोत्तर सुख प्राप्त करता है || २० ।।
यह बात हमलोगोंके सामने प्रत्यक्ष है। हमें निःसंदेह ऐसा ही समझना चाहिये। तुमजैसे श्रीसम्पन्न पुरुष जब धन पाते हैं, तब उससे दान, यज्ञ और सुख भोग करते हैं ।। २१ ।।
महाप्राज्ञ! किंतु जो लोग विषयसुखोंमें आसक्त हैं, वे सुखसे ही महान् दु:खमें पड़ते हैं और जो तपस्या आदिके द्वारा दुःख उठाते हैं, उन्हें दु:खसे ही सुखकी प्राप्ति होती देखी जाती है। सुख और दुःख मनुष्यके स्वभावके अनुसार नियत हैं ।। २२ ।।
इस जगत्में मनीषी पुरुषोंने मनुष्यके तीन प्रकारके आचरण बतलाये हैं--पुण्यमय, पापमय तथा पुण्य-पाप दोनोंसे रहित ।। २३ ।।
ब्रह्मननिष्ठ पुरुष कर्तापनके अभिमानसे रहित होता है। अतः उसके किये हुए कर्मको न पुण्य माना जाता है न पाप। उसे अपने कर्मजनित पुण्य और पापकी प्राप्ति होती ही नहीं है ।। २४ ।।
जो यज्ञ, दान और तपस्यामें प्रवीण रहते हैं, वे ही मनुष्य पुण्य कर्म करनेवाले हैं तथा जो प्राणियोंसे द्रोह करते हैं, वे ही पापाचारी समझे जाते हैं || २५ ।।
जो मनुष्य दूसरोंके धन चुराते हैं, वे दुःख पाते और नरकमें पड़ते हैं। इन उपर्युक्त शुभाशुभ कर्मोसे भिन्न जो साधारण चेष्टा है, वह न तो पुण्य है और न तो पाप ही है।।
महर्षे! तुम आनन्दपूर्वक स्वधर्म-पालनमें रत रहो, तुम्हारी निरन्तर उन्नति हो, तुम प्रसन्न रहो, दान दो और यज्ञ करो। विद्वान् और तपस्वी तुम्हारा पराभव नहीं कर सकेंगे ।। २७ ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें मैत्रेयकी भिक्षाविषयक एक सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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- आदरणीय पुरुषके चरणोंको हाथसे पकड़कर जो नमस्कार किया जाता है, उसे अभिवादन कहते हैं और दोनों हाथोंकी अंजलि बाँधकर उसे अपने ललाटसे लगाकर जो वन्दनीय पुरुषको मस्तक झुकाया जाता है उसका नाम प्रणाम है।
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