सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के एक सौ तेरहवें अध्याय से एक सौ पन्द्रहवें अध्याय तक (From the 113 chapter to the 115 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

एक सौ तेरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ तेरहवाँ अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद) 

“बृहस्पतिजीका युधिष्ठिरको अहिंसा एवं धर्मकी महिमा बताकर स्वर्गलोकको प्रस्थान”

युधिष्ठिरने पूछा--भगवन्‌! अहिंसा, वेदोक्त कर्म, ध्यान, इन्द्रिय-संयम, तपस्या और गुरु-शुश्रूषा--इनमेंसे कौन-सा कर्म मनुष्यका (विशेष) कल्याण कर सकता है ।।

बृहस्पतिजीने कहा--भरतश्रेष्ठ! ये छः प्रकारके कर्म ही धर्मजनक हैं तथा सब-केसब भित्न-भिन्न कारणोंसे प्रकट हुए हैं। मैं इन छहोंका वर्णन करता हूँ; तुम सुनो ।।

अब मैं मनुष्यके लिये कल्याणके सर्वश्रेष्ठ उपायका वर्णन करता हूँ। जो मनुष्य अहिंसायुक्त धर्मका पालन करता है, वह मोह, मद और मत्सरतारूप तीनों दोषोंको अन्य समस्त प्राणियोंमें स्थापित करके एवं सदा काम-क्रोधका संयम करके सिद्धिको प्राप्त हो जाता है || ३-४ ।।

जो मनुष्य अपने सुखकी इच्छा रखकर अहिंसक प्राणियोंको डंडेसे मारता है, वह परलोकमें सुखी नहीं होता है ।। ५ ।।

जो मनुष्य सब भूतोंको अपने समान समझता, किसीपर प्रहार नहीं करता (दण्डको हमेशाके लिये त्याग देता है) और क्रोधको अपने काबूमें रखता है, वह मृत्युके पश्चात्‌ सुख भोगता है ।। ६ ।।

जो सम्पूर्ण भूतोंका आत्मा है, अर्थात्‌ सबकी आत्माको अपनी ही आत्मा समझता है तथा जो सब भूतोंको समान भावसे देखता है, उस गमनागमनसे रहित ज्ञानीकी गतिका पता लगाते समय देवता भी मोहमें पड़ जाते हैं || ७ ।।

जो बात अपनेको अच्छी न लगे, वह दूसरोंके प्रति भी नहीं करनी चाहिये। यही धर्मका संक्षिप्त लक्षण है। इससे भिन्न जो बर्ताव होता है, वह कामनामूलक है ।। ८ ।।

माँगनेपर देने और इनकार करनेसे, सुख और दुःख पहुँचानेसे तथा प्रिय और अप्रिय करनेसे पुरुषको स्वयं जैसे हर्ष-शोकका अनुभव होता है, उसी प्रकार दूसरोंके लिये भी समझे ।। ९ |।

जैसे एक मनुष्य दूसरोंपर आक्रमण करता है, उसी प्रकार अवसर आनेपर दूसरे भी उसके ऊपर आक्रमण करते हैं। इसीको तुम जगत्‌में अपने लिये भी दृष्टान्त समझो। अतः किसीपर आक्रमण नहीं करना चाहिये। इस प्रकार यहाँ कौशलपूर्वक धर्मका उपदेश किया है ।। १० ।।

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! धर्मराज युधिष्ठिरसे इस प्रकार कहकर परम बुद्धिमान्‌ देवगुरु बृहस्पतिजी उस समय हमलोगोंके देखते-देखते स्वर्गगलोकको चले गये।।११।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें संसारचक्रकी समाप्तिविषयक एक सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

एक सौ चौदहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ चौदहवाँ अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद) 

 “हिंसा और मांसभक्षणकी घोर निन्दा”

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर महातेजस्वी और वक्ताओंमें श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिरने बाणशय्यापर पड़े हुए पितामह भीष्मसे पुनः प्रश्न किया ।।

युधिष्ठिरने पूछा--महामते! देवता, ऋषि और ब्राह्मण वैदिक प्रमाणके अनुसार सदा अहिंसा-धर्मकी प्रशंसा किया करते हैं। अतः नृपश्रेष्ठ! मैं पूछता हूँ कि मन, वाणी और क्रियासे भी हिंसाका ही आचरण करनेवाला मनुष्य किस प्रकार उसके दुःखसे छुटकारा पा सकता है? ।। २-३ ।।

भीष्मजीने कहा--शत्रुसूदन! ब्रह्मवादी पुरुषोंने (मनसे, वाणीसे तथा कर्मसे हिंसा न करना एवं मांस न खाना--इन) चार उपायोंसे अहिंसाधर्मका पालन बतलाया है। इनमेंसे किसी एक अंशकी भी कमी रह गयी तो अहिंसा-धर्मका पूर्णतः पालन नहीं होता ।। ४ ।।

महीपाल! जैसे चार पैरोंवाला पशु तीन पैरोंसे नहीं खड़ा रह सकता, उसी प्रकार केवल तीन ही कारणोंसे पालित हुई अहिंसा पूर्णतः: अहिंसा नहीं कही जा सकती || ५ |।

जैसे हाथीके पैरके चिह्ममें सभी पदगामी प्राणियोंके पदचिह्न समा जाते हैं, उसी प्रकार पूर्वकालमें इस जगत्‌के भीतर धर्मतः अहिंसाका निर्देश किया गया है अर्थात्‌ अहिंसाधर्ममें सभी धर्मोंका समावेश हो जाता है। ऐसा माना गया है || ६३६ ||

जीव मन, वाणी और क्रियाके द्वारा हिंसाके दोषसे लिप्त होता है, किंतु जो क्रमशः पहले मनसे, फिर वाणीसे और फिर क्रियाद्वारा हिंसाका त्याग करके कभी मांस नहीं खाता, वह पूर्वोक्त तीनों प्रकारकी हिंसाके दोषसे भी मुक्त हो जाता है || ७-८ ।।

ब्रह्मवादी महात्माओंने हिंसादोषके प्रधान तीन कारण बतलाये हैं--मन (मांस खानेकी इच्छा), वाणी (मांस खानेका उपदेश) और आस्वाद (प्रत्यक्षरूपमें मांसका स्वाद लेना)। ये तीनों ही हिंसा-दोषके आधार हैं ।। ९ ।।

इसलिये तपस्यामें लगे हुए मनीषी पुरुष कभी मांस नहीं खाते हैं। राजन! अब मैं मांसभक्षणमें जो दोष है, उनको यहाँ बता रहा हूँ, सुनो || १० ।।

जो मूर्ख यह जानते हुए भी कि पुत्रके मांसमें और दूसरे साधारण मांसोंमें कोई अन्तर नहीं है, मोहवश मांस खाता है, वह नराधम है ।। ११ ।।

जैसे पिता और माताके संयोगसे पुत्रकी उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार हिंसा करनेसे पापी पुरुषको विवश होकर बारंबार पापयोनिमें जन्म लेना पड़ता है ।। १२ ।।

जैसे जीभसे जब रसका ज्ञान होता है, तब उसके प्रति वह आकृष्ट होने लगती है, उसी प्रकार मांसका आस्वादन करनेपर उसके प्रति आसक्ति बढ़ती है। शास्त्रोंमें भी कहा है कि विषयोंके आस्वादनसे उनके प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है ।। १३ ।।

संस्कृत (मसाले आदि डालकर संस्कृत किया हुआ) असंस्कृत (मसाला आदिके संस्कारसे रहित), पक्‍व, केवल नमक मिला हुआ और अलोना--ये मांसकी जो-जो अवस्थाएँ होती हैं, उन्हीं-उन्हींमें रुचिभेदसे मांसाहारी मनुष्यका चित्त आसक्त होता है ।। १४ ||

मांसभक्षी मूर्ख मनुष्य स्वर्गमें पूर्णतः सुलभ होनेवाले भेरी, मृदंग और वीणाके दिव्य मधुर शब्दोंका सेवन कैसे कर सकेंगे; क्योंकि वे स्वर्गमें नहीं जा सकते ।।

दूसरोंके धन-धान्यको नष्ट करनेवाले तथा मांस-भक्षणकी स्तुति-प्रशंसा करनेवाले मनुष्य सदा ही स्वर्गसे बहिष्कृत होते हैं ।।

जो मांसके रसमें होनेवाली आसक्तिसे अभिभूत होकर उसी अभीष्ट फल मांसकी अभिलाषा रखते हैं तथा उसके बारंबार गुण गाते हैं, उन्हें ऐसी दुर्गति प्राप्त होती है, जो कभी चिन्तनमें नहीं आयी है। जिसका वाणीद्दारा कहीं निर्देश नहीं किया गया है तथा जो कभी मनकी कल्पनामें भी नहीं आयी है ।। १६ ।।

जो मृत्युके पश्चात्‌ चितापर जला देनेसे भस्म हो जाता है अथवा किसी हिंसक प्राणीका खाद्य बनकर उसकी विष्ठाके रूपमें परिणत हो जाता है, या यों ही फेंक देनेसे जिसमें कीड़े पड़ जाते हैं--इन तीनोंमेंसे यह एक-न-एक परिणाम जिसके लिये सुनिश्चित है, उस शरीरको विद्वान्‌ पुरुष दूसरोंको पीड़ा देकर उसके मांससे कैसे पोषण कर सकता है? मांसकी प्रशंसा भी पापमय कर्मफलसे सम्बन्ध कर देती है ।। १७ ।।

उशीनर शिबि आदि बहुत-से श्रेष्ठ पुरुष दूसरोंकी रक्षाके लिये अपने प्राण देकर, अपने मांससे दूसरोंके मांसकी रक्षा करके स्वर्गलोकमें गये हैं || १८ ।।

महाराज! इस प्रकार चार उपायोंसे जिसका पालन होता है, उस अहिंसा-धर्मका तुम्हारे लिये प्रतिपादन किया गया। यह सम्पूर्ण धर्मोमें ओतप्रोत है ।। १९ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें मांसके परित्यागका उपदेशविषयक एक सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल २१ श्लोक हैं)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

एक सौ पन्द्रहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ पन्द्रहवाँ अध्याय के श्लोक 1-76 का हिन्दी अनुवाद) 

“मद्य और मांसके भक्षणमें महान्‌ दोष, उनके त्यागकी महिमा एवं त्यागमें परम लाभका प्रतिपादन”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! आपने बहुत बार यह बात कही है कि अहिंसा परम धर्म है; अतः मांसके परित्यागरूप धर्मके विषयमें मुझे संदेह हो गया है। इसलिये मैं यह जानना चाहता हूँ कि मांस खानेवालेकी क्या हानि होती है और जो मांस नहीं खाता उसे कौन-सा लाभ मिलता है? ।। १ ।।

जो स्वयं पशुका वध करके उसका मांस खाता है या दूसरेके दिये हुए मांसका भक्षण करता है या जो दूसरेके खानेके लिये पशुका वध करता है अथवा जो खरीदकर मांस खाता है, उसको क्‍या दण्ड मिलता है? ॥। २ ।।

निष्पाप पितामह! मैं चाहता हूँ कि आप इस विषयका यथार्थरूपसे विवेचन करें। मैं निश्चितरूपसे इस सनातन धर्मके पालनकी इच्छा रखता हूँ ।। ३ ।।

मनुष्य किस प्रकार आयु प्राप्त करता है, कैसे बलवान्‌ होता है, किस तरह उसे पूर्णागता प्राप्त होती है और कैसे वह शुभलक्षणोंसे संयुक्त होता है? ।। ४ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! कुरुनन्दन! मांस न खानेसे जो धर्म होता है, उसका मुझसे यथार्थ वर्णन सुनो तथा उस धर्मकी जो उत्तम विधि है, वह भी जान लो ।।

जो सुन्दर रूप, पूर्णांगता, पूर्ण आयु, उत्तम बुद्धि, सत्त्व, बल और स्मरणशक्ति प्राप्त करना चाहते थे, उन महात्मा पुरुषोंने हिंसाका सर्वथा त्याग कर दिया था ।।

कुरुनन्दन युधिष्ठिर! इस विषयको लेकर ऋषियोंमें अनेक बार प्रश्नोत्तर हो चुका है। अन्तमें उन सबकी रायसे जो सिद्धान्त निश्चित हुआ है, उसे बता रहा हूँ, सुनो || ७ ।।

युधिष्ठिर! जो पुरुष नियमपूर्वक व्रतका पालन करता हुआ प्रतिमास अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करता है तथा जो केवल मद्य और मांसका परित्याग करता है, उन दोनोंको एकसा ही फल मिलता है | ८ ।।

राजन! सप्तर्षि, वालखिल्य तथा सूर्यकी किरणोंका पान करनेवाले अन्यान्य मनीषी महर्षि मांस न खानेकी ही प्रशंसा करते हैं ।। ९ ।।

स्वायम्भुव मनुका कथन है कि जो मनुष्य न मांस खाता और न पशुकी हिंसा करता और न दूसरेसे ही हिंसा कराता है, वह सम्पूर्ण प्राणियोंका मित्र है || १० ।।

जो पुरुष मांसका परित्याग कर देता है, उसका कोई भी प्राणी तिरस्कार नहीं करता है, वह सब प्राणियोंका विश्वासपात्र हो जाता है तथा श्रेष्ठ पुरुष उसका सदा सम्मान करते हैं ।। ११ ।।

धर्मात्मा नारदजी कहते हैं--जो दूसरेके मांससे अपना मांस बढ़ाना चाहता है, वह निश्चय ही दुःख उठाता है || १२ ।।

बृहस्पतिजीका कथन है--जो मद्य और मांस त्याग देता है, वह दान देता, यज्ञ करता और तप करता है अर्थात्‌ उसे दान, यज्ञ और तपस्याका फल प्राप्त होता है | १३ ।।

जो सौ वर्षोतक प्रतिमास अश्वमेध यज्ञ करता है और जो कभी मांस नहीं खाता है-इन दोनोंका समान फल माना गया है ॥। १४ ।।

मद्य और मांसका परित्याग करनेसे मनुष्य सदा यज्ञ करनेवाला, सदा दान देनेवाला और सदा तप करनेवाला होता है ।। १५ |।

भारत! जो पहले मांस खाता रहा हो और पीछे उसका सर्वथा परित्याग कर दे, उसको जिस पुण्यकी प्राप्ति होती है, उसे सम्पूर्ण वेद और यज्ञ भी नहीं प्राप्त करा सकते ।। १६ ।।

मांसके रसका आस्वादन एवं अनुभव कर लेनेपर उसे त्यागना और समस्त प्राणियोंको अभय देनेवाले इस सर्वश्रेष्ठ अहिंसाव्रका आचरण करना अत्यन्त कठिन हो जाता है ।। १७ |।

जो विद्वान सब जीवोंको अभयदान कर देता है, वह इस संसारमें निःसंदेह प्राणदाता माना जाता है ।। १८ ।।

इस प्रकार मनीषी पुरुष अहिंसारूप परमधर्मकी प्रशंसा करते हैं। जैसे मनुष्यकोी अपने प्राण प्रिय होते हैं, उसी प्रकार समस्त प्राणियोंको अपने-अपने प्राण प्रिय जान पड़ते हैं ।। १९ |।

अत: जो बुद्धिमान्‌ और पुण्यात्मा है, उन्हें चाहिये कि सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने समान समझें। जब अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवाले विद्वानोंको भी मृत्युका भय बना रहता है।

तब जीवित रहनेकी इच्छावाले नीरोग और निरपराध प्राणियोंको, जो मांसपर जीविका चलानेवाले पापी पुरुषोंद्वारा बलपूर्वक मारे जाते हैं, क्यों न भय प्राप्त होगा || २०-२१ ।।

इसलिये महाराज! तुम्हें यह विदित होना चाहिये कि मांसका परित्याग ही धर्म, स्वर्ग और सुखका सर्वोत्तम आधार है ।। २२ ।।

अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम तप है और अहिंसा परम सत्य है; क्योंकि उसीसे धर्मकी प्रवृत्ति होती है ।। २३ ।।

तृणसे, काठसे अथवा पत्थरसे मांस नहीं पैदा होता है, वह जीवकी हत्या करनेपर ही उपलब्ध होता है; अतः उसके खानेमें महान्‌ दोष है ।। २४ ।।

जो लोग स्वाहा (देवयज्ञ) और स्वधा (पितृयज्ञ) का अनुष्ठान करके यज्ञशिष्ट अमृतका भोजन करनेवाले तथा सत्य और सरलताके प्रेमी है, वे देवता हैं, किंतु जो कुटिलता और असत्य भाषणमें प्रवृत्त होकर सदा मांसभक्षण किया करते हैं, उन्हें राक्षस समझो ।। २५ ।।

राजन! जो मनुष्य मांस नहीं खाता, उसे संकटपूर्ण स्थानों, भयंकर दुर्गों एवं गहन वनोंमें, रात-दिन और दोनों संध्याओंमें, चौराहोंपर तथा सभाओंमें भी दूसरोंसे भय नहीं प्राप्त होता तथा यदि अपने विरुद्ध हथियार उठाये गये हों अथवा हिंसक पशु एवं सर्पोके भय सामने हों तो भी वह दूसरोंसे नहीं डरता है ।। २६-२७ ।।

इतना ही नहीं, वह समस्त प्राणियोंको शरण देनेवाला और उन सबका विश्वासपात्र होता है। संसारमें न तो वह दूसरेको उद्वेगमें डालता है और न स्वयं ही कभी किसीसे उद्विग्न होता है ।। २८ ।।

यदि कोई भी मांस खानेवाला न रह जाय तो पशुओंकी हिंसा करनेवाला भी कोई न रहे; क्योंकि हत्यारा मनुष्य मांस खानेवालोंके लिये ही पशुओंकी हिंसा करता है || २९ ।।

यदि मांसको अभक्ष्य समझकर सब लोग उसे खाना छोड़ दें तो पशुओंकी हत्या स्वतः ही बंद हो जाय; क्योंकि मांस खानेवालोंके लिये ही मृग आदि पशुओंकी हत्या होती है ।। ३० ।।

महातेजस्वी नरेश! हिंसकोंकी आयुको उनका पाप ग्रस लेता है। इसलिये जो अपना कल्याण चाहता हो, वह मनुष्य मांसका सर्वथा परित्याग कर दे || ३१ ।।

जैसे यहाँ हिंसक पशुओंका लोग शिकार खेलते हैं और वे पशु अपने लिये कहीं कोई रक्षक नहीं पाते, उसी प्रकार प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले भयंकर मनुष्य दूसरे जन्ममें सभी प्राणियोंके उद्वेगपात्र होते हैं और अपने लिये कोई संरक्षक नहीं पाते हैं || ३२ ।।

लोभसे, बुद्धिके मोहसे, बल-वीर्यकी प्राप्तिके लिये अथवा पापियोंके संसर्गमें आनेसे मनुष्योंकी अधर्ममें रुचि हो जाती है ।। ३३ ।।

जो दूसरोंके मांससे अपना मांस बढ़ाना चाहता है, वह जहाँ कहीं भी जन्म लेता है, चैनसे नहीं रहने पाता है ।। ३४ ।।

नियमपरायण महर्षियोंने मांस-भक्षणके त्यागको ही धन, यश, आयु तथा स्वर्गकी प्राप्तिका प्रधान उपाय और परमकल्याणका साधन बतलाया है ।। ३५ |।

कुन्तीनन्दन! मांसभक्षणमें जो दोष हैं, उन्हें बतलाते हुए मार्कण्डेयजीके मुखसे मैंने पूर्वकालमें ऐसा सुन रखा है-- |। ३६ ||

“जो जीवित रहनेकी इच्छावाले प्राणियोंको मारकर अथवा उनके स्वयं मर जानेपर उनका मांस खाता है, वह न मारनेपर भी उन प्राणियोंका हत्यारा ही समझा जाता है || ३७ ||

खरीदनेवाला धनके द्वारा, खानेवाला उपभोगके द्वारा और घातक वध एवं बन्धनके द्वारा पशुओंकी हिंसा करता है। इस प्रकार यह तीन तरहसे प्राणियोंका वध होता है ।।

“जो मांसको स्वयं नहीं खाता पर खानेवालेका अनुमोदन करता है, वह मनुष्य भी भावदोषके कारण मांसभक्षणके पापका भागी होता है। इसी प्रकार जो मारनेवालेका अनुमोदन करता है, वह भी हिंसाके दोषसे लिप्त होता है || ३९ ।।

“जो मनुष्य मांस नहीं खाता और इस जगत्‌में सब जीवोंपर दया करता है, उसका कोई भी प्राणी तिरस्कार नहीं करते और वह सदा दीर्घायु एवं नीरोग होता है || ४० ।।

'सुवर्णदान, गोदान और भूमिदान करनेसे जो धर्म प्राप्त होता है, मांसका भक्षण न करनेसे उसकी अपेक्षा भी विशिष्ट धर्मकी प्राप्ति होती है। यह हमारे सुननेमें आया है || ४१ ।।

'जो मांस खानेवालोंके लिये पशुओंकी हत्या करता है, वह मनुष्योंमें अधम है। घातकको बहुत भारी दोष लगता है। मांस खानेवालेको उतना दोष नहीं लगता ।। ४२ ।।

“जो मांसलोभी मूर्ख एवं अधम मनुष्य यज्ञ-याग आदि वैदिक मार्गोंके नामपर प्राणियोंकी हिंसा करता है, वह नरकगामी होता है ।। ४३ ।।

“जो पहले मांस खानेके बाद फिर उससे निवृत्त हो जाता है, उसको भी अत्यन्त महान्‌ धर्मकी प्राप्ति होती है, क्योंकि वह पापसे निवृत्त हो गया है ।। ४४ ।।

“जो मनुष्य हत्याके लिये पशु लाता है, जो उसे मारनेकी अनुमति देता है, जो उसका वध करता है तथा जो खरीदता, बेचता, पकाता और खाता है, वे सब-के-सब खानेवाले ही माने जाते हैं। अर्थात्‌ वे सब खानेवालेके समान ही पापके भागी होते हैं! || ४५ ।।

अब मैं इस विषयमें एक दूसरा प्रमाण बता रहा हूँ, जो साक्षात्‌ ब्रह्माजीके द्वारा प्रतिपादित, पुरातन, ऋषियोंद्वारा सेवित तथा वेदोंमें प्रतिष्ठित है ।। ४६ ।।

नृपश्रेष्ठ! प्रजार्थी पुरुषोंने प्रवृत्तिरूप धर्मका प्रतिपादन किया है, परन्तु वह मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले विरक्त पुरुषोंके लिये अभीष्ट नहीं है ।। ४७ ।।

जो मनुष्य अपने आपको अत्यन्त उपद्रवरहित बनाये रखना चाहता हो, वह इस जगतमें प्राणियोंके मांसका सर्वथा परित्याग कर दे || ४८ ।।

सुना है, पूर्वकल्पमें मनुष्योंके यज्ञमें पुरोडाश आदिके रूपमें अन्नमय पशुका ही उपयोग होता था। पुण्यलोककी प्राप्तिके साधनोंमें लगे रहनेवाले याज्ञिक पुरुष उस अन्नके द्वारा ही यज्ञ करते थे || ४९ ।।

प्रभो! प्राचीन कालमें ऋषियोंने चेदिराज वसुसे अपना संदेह पूछा था। उस समय वसुने मांसको भी जो सर्वथा अभक्ष्य है, भक्ष्य बता दिया || ५० ।।

उस समय आकाशचारी राजा वसु अनुचित निर्णय देनेके कारण आकाशसे पृथ्वीपर गिर पड़े। तदनन्तर पृथ्वीपर भी फिर यही निर्णय देनेके कारण वे पातालमें समा गये ।। ५१ ।।

निष्पाप राजेन्द्र! मनुजेश्वर! मेरी कही हुई यह बात भी सुनो--मांस-भक्षण न करनेसे सब प्रकारका सुख मिलता है ।। ५२ ||

जो मनुष्य सौ वर्षोतक कठोर तपस्या करता है तथा जो केवल मांसका परित्याग कर देता है--ये दोनों मेरी दृष्टिमें एक समान हैं || ५३ ।।

नरेश्वर! विशेषतः शरदऋतु, शुक्लपक्षमें मद्य और मांसका सर्वथा त्याग कर दे; क्योंकि ऐसा करनेमें धर्म होता है ।। ५४ ।।

जो मनुष्य वर्षाके चार महीनोंमें मांसका परित्याग कर देता है, वह चार कल्याणमयी वस्तुओं--कीर्ति, आयु, यश और बलको प्राप्त कर लेता है ।। ५५ ।।

अथवा एक महीनेतक सब प्रकारके मांसोंका त्याग करनेवाला पुरुष सम्पूर्ण दुःखोंसे पार हो सुखी एवं नीरोग जीवन व्यतीत करता है ।। ५६ ।।

जो एक-एक मास अथवा एक-एक पक्षतक मांस खाना छोड़ देते हैं, हिंसासे दूर हटे हुए उन मनुष्योंको ब्रह्मलोककी प्राप्ति होती है (फिर जो कभी भी मांस नहीं खाते, उनके लाभकी तो कोई सीमा ही नहीं है) ।। ५७ ।।

कुन्तीनन्दन! जिन राजाओंने आश्वचिन मासके दोनों पक्ष अथवा एक पक्षमें मांस भक्षणका निषेध किया था, वे सम्पूर्ण भूतोंके आत्मरूप हो गये थे और उन्हें परावर तत्त्वका ज्ञान हो गया था। उनके नाम इस प्रकार हैं--नाभाग, अम्बरीष, महात्मा गय, आयु, अनरण्य, दिलीप, रघु, पूरु, कार्तवीर्य, अनिरुद्ध, नहुष, ययाति, नृग, विश्वगश्व, शशविन्दु, युवनाश्व, उशीनरपुत्र शिबि, मुचुकुन्द, मान्धाता अथवा हरिश्वन्द्र || ५८--६१ ।।

सत्य बोलो, असत्य न बोलो, सत्य ही सनातन धर्म है। राजा हरिश्वन्द्र सत्यके प्रभावसे आकाशमें चन्द्रमाके समान विचरते हैं || ६२ ।।

राजेन्द्र! श्येनचित्र, सोमक, वृक, रैवत, रन्तिदेव, वसु, सूंजय, अन्यान्य नरेश, कृप, भरत, दुष्यन्त, करूष, राम, अलर्क, नर, विरूपाश्वच, निमि, बुद्धिमान्‌ जनक, पुरूरवा, पृथु, वीरसेन, इक्ष्वाकु, शम्भु, श्वेतसागर, अज, धुन्धु, सुबाहु, हर्यश्च, क्षुप, भरत--इन सबने तथा अन्यान्य राजाओंने भी कभी मांस नहीं खाया था ।।

वे सब नरेश अपनी कान्तिसे प्रज्वलित होते हुए वहाँ ब्रह्मलोकमें विराज रहे हैं, गन्धर्व उनकी उपासना करते हैं और सहस्ौरों दिव्यांगनाएँ उन्हें घेरे रहती हैं ।।

अत: यह अहिंसारूप धर्म सब धर्मोसे उत्तम है। जो महात्मा इसका आचरण करते हैं, वे स्वर्गलोकमें निवास करते हैं |। ६९ ।।

जो धर्मात्मा पुरुष जन्मसे ही इस जगत्‌में शहद, मद्य और मांसका सदाके लिये परित्याग कर देते हैं, वे सब-के-सब मुनि माने गये हैं || ७० ।।

जो मांस-भक्षणके परित्यागरूप इस धर्मका आचरण करता अथवा इसे दूसरोंको सुनाता है, वह कितना ही दुराचारी क्‍यों न रहा हो, नरकमें नहीं पड़ता || ७१ ।।

राजन्‌! जो ऋषियोंद्वारा सम्मानित एवं पवित्र इस मांस-भक्षणके त्यागके प्रकरणको पढ़ता अथवा बारंबार सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो सम्पूर्ण मनोवांछित भोगोंद्वारा सम्मानित होता है और अपने सजातीय बन्धुओंमें विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है || ७२-७३ ।।

इतना ही नहीं, इसके श्रवण अथवा पठनसे आपपत्तिमें पड़ा हुआ आपत्तिसे, बन्धनमें बँधा हुआ बन्धनसे, रोगी रोगसे और दुःखी दुःखसे छुटकारा पा जाता है || ७४ ।।

कुरुश्रेष्ठी इसके प्रभावसे मनुष्य तिर्यगयोनिमें नहीं पड़ता तथा उसे सुन्दर रूप, सम्पत्ति और महान्‌ यशकी प्राप्ति होती है ।। ७५ ।।

राजन! यह मैंने तुम्हें ऋषियोंद्वारा निर्मित मांस-त्यागका विधान तथा प्रवृत्तिविषयक धर्म भी बताया है ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें मांसभक्षणका निषेधविषयक एक सौ पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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