सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय व एक सौ बारहवाँ अध्याय (From the 111 chapter and the 112 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय के श्लोक 1-133 का हिन्दी अनुवाद) 

“बृहस्पतिका युधिष्ठिरसे प्राणियोंके जन्मके प्रकारका और नानाविध पापोंके फलस्वरूप नरकादिकी प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियोंमें जन्म लेनेका वर्णन”

युधिष्ठिरने कहा--सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण महाप्राज्ञ पितामह! अब मैं मनुष्योंकी संसारयात्राके निर्वाहकी उत्तम विधि सुनना चाहता हूँ ।। १ ।।

युधिष्ठिरने कहा--सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण महाप्राज्ञ पितामह! अब मैं मनुष्योंकी संसारयात्राके निर्वाहकी उत्तम विधि सुनना चाहता हूँ ।। १ ।।

राजेन्द्र! पृथ्वीपर रहनेवाले मनुष्य किस बर्तावसे उत्तम स्वर्गलोक पाते हैं? और नरेश्वर! कैसा बर्ताव करनेसे वे नरकमें पड़ते हैं? || २ ।।

लोग अपने मृत शरीरको काठ और मिट्टीके ढेलेके समान छोड़कर जब यहाँसे परलोककी राह लेते हैं, उस समय उनके पीछे कौन जाता है? ।। ३ ।।

भीष्मजीने कहा--वत्स! ये उदारबुद्धि भगवान्‌ बृहस्पतिजी यहाँ पधार रहे हैं। इन्हीं महाभागसे इस सनातन गूढ़ विषयको पूछो ।। ४ ।।

आज दूसरा कोई इस विषयका प्रतिपादन नहीं कर सकता। बृहस्पतिजीके समान वक्ता दूसरा कोई कहीं भी नहीं है || ५ ।।

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर और गंगानन्दन भीष्म, इन दोनोंमें इस प्रकार बात हो ही रही थी कि विशुद्ध अन्तःकरणवाले बृहस्पतिजी स्वर्गलोकसे वहाँ आ पहुँचे || ६ ।।

उन्हें देखते ही राजा युधिष्छिर धृतराष्ट्रको आगे करके खड़े हो गये। फिर उन्होंने तथा उन सभी सभासदोंने बृहस्पतिजीकी अनुपम पूजा की ।। ७ ।।

तदनन्तर धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरने भगवान्‌ बृहस्पतिजीके समीप जाकर यथोचित रीतिसे यह तात्विक प्रश्न उपस्थित किया ।। ८ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--भगवन्‌! आप सम्पूर्ण धर्मोके ज्ञाता और सब शास्त्रोंके विद्वान हैं; अतः बताइये, पिता, माता, पुत्र, गुरु, सजातीय सम्बन्धी और मित्र आदिमेंसे मनुष्यका सच्चा सहायक कौन है? जब सब लोग अपने मरे हुए शरीरको काठ और ढेलेके समान त्यागकर चले जाते हैं, तब इस जीवके साथ परलोकमें कौन जाता है? ।।

बृहस्पतिजीने कहा--राजन्‌! प्राणी अकेला ही जन्म लेता, अकेला ही मरता, अकेला ही दुःखसे पार होता तथा अकेला ही दुर्गति भोगता है ।। ११३ ।।

पिता, माता, भाई, पुत्र, गुरु, जाति, सम्बन्धी तथा मित्रवर्ग--ये कोई भी उसके सहायक नहीं होते ।।

लोग उसके मरे हुए शरीरको काठ और मिट्टीके ढेलेकी तरह फेंककर दो घड़ी रोते हैं और फिर उसकी ओरसे मुँह फेरकर चल देते हैं |। १३ $ ।।

वे कुटुम्बीजन तो उसके शरीरका परित्याग करके चले जाते हैं, किंतु एकमात्र धर्म ही उस जीवात्माका अनुसरण करता है; इसलिये धर्म ही सच्चा सहायक है। अतः मनुष्योंको सदा धर्मका ही सेवन करना चाहिये ।।

धर्मयुक्त प्राणी ही उत्तम स्वर्गमें जाता है और अधर्मपरायण जीव नरकमें पड़ता है ।। १५३६ |।

इसलिये विद्वान्‌ पुरुषको चाहिये कि न्यायसे प्राप्त हुए धनके द्वारा धर्मका अनुष्ठान करे। एकमात्र धर्म ही परलोकमें मनुष्योंका सहायक है ।। १६३ ।।

जो बहुश्रुत नहीं है, वही मनुष्य लोभ और मोहके वशीभूत हो दूसरेके लिये लोभ, मोह, दया अथवा भयसे न करने योग्य पापकर्म कर बैठता है ।। १७६ ।।

धर्म, अर्थ और काम--ये तीन जीवनके फल हैं, अतः मनुष्यको अधर्मके त्यागपूर्वक इन तीनोंको उपलब्ध करना चाहिये ।। १८३ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--भगवन्‌! आपके मुँहसे मैंने धर्मयुक्त परम हितकर बात सुनी। अब शरीरकी स्थिति जाननेके लिये मेरा विचार हो रहा है || १९६ ।।

मनुष्यका स्थूल शरीर तो मरकर यहीं पड़ा रह जाता है और उसका सूक्ष्म शरीर अव्यक्तभावको प्राप्त हो जाता है--नेत्रोंकी पहुँचसे परे है। ऐसी दशामें धर्म किस प्रकार उसका अनुसरण करता है? ।। २० | ।।

बृहस्पतिजीने कहा--धर्मराज! पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, यम, बुद्धि और आत्मा--ये सब सदा एक साथ मनुष्यके धर्मपर दृष्टि रखते हैं || २१६ ।।

दिन और रात भी इस जगतके सम्पूर्ण प्राणियोंके कर्मोंके साक्षी हैं। इन सबके साथ धर्म भी जीवका अनुसरण करता है || २२६ ||

महामते! त्वचा, अस्थि, मांस, शुक्र और शोणित--ये सब धातु निष्प्राण शरीरका परित्याग कर देते हैं अर्थात्‌ ये उस शरीरधारी जीवात्माका साथ छोड़ देते हैं, एक धर्म ही उसके साथ जाता है || २३ ३ ||

इसलिये धर्मयुक्त जीव ही परमगति प्राप्त करता है। फिर परलोकमें अपने कर्मोंका भोग समाप्त करके प्राणी जब दूसरा शरीर धारण करता है, उस समय उसके शरीरके पाँचों भूतोंमें स्थित अधिष्ठाता देवता उस जीवके शुभ और अशुभ कर्मोंको देखते हैं। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो? ।। २४-२५ ।।

तदनन्तर धर्मयुक्त वह जीव इहलोक और परलोकमें सुखका अनुभव करता है। अब तुम्हें और क्या बताऊँ? ।। २६ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--भगवन्‌! धर्म जिस प्रकार जीवका अनुसरण करता है, वह तो आपने समझा दिया। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि इस शरीरमें वीर्यकी उत्पत्ति कैसे होती है? ।। २७ ।।

बृहस्पतिजीने कहा--शुद्धात्मन! नरेश्वर! राजेन्द्र! इस शरीरमें स्थित पृथ्वी, जल, अन्न, वायु, आकाश और मनके अधिष्ठाता देवता जो अन्न भक्षण करते हैं और उस अन्नसे मनसहित वे पाँचों भूत जब पूर्ण तृप्त होते हैं, तब महान्‌ रेतस्‌ (वीर्य) की उत्पत्ति होती है || २८-२९ |।

राजन! फिर स्त्री-पुरुषका संयोग होनेपर वही वीर्य गर्भका रूप धारण करता है। ये सब बातें मैंने तुम्हें बता दी। अब और क्या सुनना चाहते हो? ।। ३० ।।

युधिष्ठिरने कहा--भगवन्‌! गर्भ जिस प्रकार उत्पन्न होता है, वह आपने बताया। अब यह बताइये कि उत्पन्न हुआ पुरुष पुन: किस प्रकार बन्धनमें पड़ता है || ३१ ।।

बृहस्पतिजीने कहा--राजन्‌! जीव उस वीर्यमें प्रविष्ट होकर जब गर्भमें संनिहित होता है, तब वे पाँचों भूत शरीररूपमें परिणत हो उसे बाँध लेते हैं, फिर उन्हीं भूतोंसे विलग होनेपर वह दूसरी गतिको प्राप्त होता है ।।

शरीरमें सम्पूर्ण भूतोंसे युक्त हुआ वह जीव ही सुख या दु:ख पाता है। उस समय पाँचों भूतोंमें स्थित उनके अधिष्ठाता देवता जीवके शुभ या अशुभ कर्मको देखते हैं। अब और क्या सुनना चाहते हो? ।। ३३ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--भगवन्‌! जीव त्वचा, अस्थि और मांसमय शरीरका त्याग करके जब पाँचों भूतोंके सम्बन्धसे पृथक हो जाता है, तब कहाँ रहकर वह सुख-दुःखका उपभोग करता है? || ३४ ।।

बृहस्पतिजीने कहा--भारत! जीव अपने कर्मोंसे प्रेरित होकर शीघ्र ही वीर्यभावको प्राप्त होता है और स्त्रीके रजमें प्रविष्ट होकर समयानुसार जन्म धारण करता है ।। ३५ ।।

(गर्भमें आनेके पहले सूक्ष्मशरीरमें स्थित होकर अपने दुष्कर्मोंके कारण) वह यमदूतोंद्वारा नाना प्रकारके क्लेश पाता, उनके प्रहार सहता और दुःखमय संसारचक्रमें भाँति-भाँतिके कष्ट भोगता है ।। ३६ ।।

पृथ्वीनाथ! यदि प्राणी इस लोकमें जन्मसे ही पुण्यकर्ममें लगा रहता है तो वह धर्मके फलका आश्रय लेकर उसके अनुसार सुख भोगता है। यदि अपनी शक्तिके अनुसार बाल्यकालसे ही धर्मका सेवन करता है तो वह मनुष्य होकर सदा सुखका अनुभव करता है।।

किंतु धर्मके बीचमें यदि कभी-कभी वह अधर्मका भी आचरण कर बैठता है तो उसे सुखके बाद दुःख भी भोगना पड़ता है || ३९ ।।

अधर्मपरायण मनुष्य यमलोकमें जाता है और वहाँ महान्‌ दुःख भोगकर यहाँ पशुपक्षियोंकी योनिमें जन्म लेता है || ४० ।।

जीव मोहके वशीभूत होकर जिस-जिस कर्मका अनुष्ठान करनेसे जैसी-जैसी योनिमें जन्म धारण करता है, उसे बता रहा हूँ, सुनो || ४१ ।।

शास्त्र, इतिहास और वेदमें जो यह बात बतायी गयी है कि मनुष्य इस लोकमें पाप करनेपर मृत्युके पश्चात्‌ यमराजके भयंकर लोकमें जाता है, यह सत्य ही है ।।

भूपाल! इस यमलोकमें देवलोकके समान पुण्यमय स्थान भी हैं, जिनमें तिर्यक्‌ (तथा कीट-पतंग आदि) योनिके प्राणियोंको छोड़कर समस्त पुण्यात्मा जंगम जीव जाते हैं ।। ४३ ।।

यमराजका भवन सौन्दर्य आदि गुणोंके कारण ब्रह्मलोकके समान दिव्य भी है। परंतु अपने नियत पापकर्मोसे बँधा हुआ जीव वहाँ भी नरकमें पड़कर दुःख भोगता है ।। ४४ ।।

मनुष्य जिस-जिस भाव और जिस-जिस कर्मसे निष्ठुरतापूर्ण भयंकर गतिको प्राप्त होता है, अब उसीको बता रहा हूँ ।। ४५ ।।

जो द्विज चारों वेदोंका अध्ययन करनेके बाद भी मोहवश पतित मनुष्योंसे दान लेता है, उसका गदहेकी योनिमें जन्म होता है || ४६ ।।

भारत! गदहेकी योनिमें वह पंद्रह वर्षोतक जीवित रहता है। उसके बाद मरकर बैल होता है। उस योनिमें वह सात वर्षोतक जीवित रहता है ।। ४७ ।।

जब बैलका शरीर छूट जाता है, तब वह ब्रह्मराक्षस होता है। तीन मासतक ब्रह्मराक्षस रहनेके बाद फिर वह ब्राह्मणका जन्म पाता है ।। ४८ ।।

भारत! जो ब्राह्मण पतित पुरुषका यज्ञ कराता है, वह मरनेके बाद कीड़ेकी योनिमें जन्म लेता है और उस योनिमें पंद्रह वर्षोतक जीवित रहता है ।। ४९ ।।

कीड़ेकी योनिसे छूटनेपर वह गदहेका जन्म पाता है। पाँच वर्षतक गदहा रहकर पाँच वर्ष सूअर, पाँच वर्ष मुर्गा, पाँच वर्ष सियार और एक वर्ष कुत्ता होता है। उसके बाद वह मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होता है ।।

जो मूर्ख शिष्य अपने अध्यापकका अपराध करता है, वह यहाँ निम्नांकित तीन योनियोंमें जन्म ग्रहण करता है, इसमें संशय नहीं है। राजेन्द्र! पहले तो वह कुत्ता होता है, फिर राक्षस और गदहा होता है। उसके बाद मरकर प्रेतावस्थामें अनेक कष्ट भोगनेके पश्चात्‌ ब्राह्मणका जन्म पाता है || ५२-५३ ।।

जो पापाचारी शिष्य गुरुपत्नीके साथ समागमका विचार भी मनमें लाता है, वह अपने मानसिक पापके कारण भयंकर योनियोंमें जन्म लेता है || ५४ ।।

पहले कुत्तेकी योनिमें जन्म लेकर वह तीन वर्षतक जीवन धारण करता है। उस योनिमें मृत्युको प्राप्त होकर वह कीड़ेकी योनिमें उत्पन्न होता है। कीटयोनिमें जन्म लेकर वह एक वर्षषक जीवित रहता है। फिर मरनेके बाद उसका ब्राह्मण-योनिमें जन्म होता है ।। ५५-५६ ।।

यदि गुरु अपने पुत्रके समान शिष्यको बिना कारणके ही मारता-पीटता है तो वह अपनी स्वेच्छा-चारिताके कारण हिंसक पशुकी योनिमें जन्म लेता है ।।

राजन! जो पुत्र अपने माता-पिताका अनादर करता है, वह भी मरनेके बाद पहले गदहा नामक प्राणी होता ।। ५८ ।।

गदहेका शरीर पाकर वह दस वर्षोंतक जीवित रहता है। फिर एक सालतक घड़ियाल रहनेके बाद मानवयोनिमें उत्पन्न होता है ।। ५९ ।।

जिस पुत्रके ऊपर माता और पिता दोनों ही रष्ट होते हैं, वह गुरुजनोंके अनिष्टचिन्तनके कारण मृत्युके बाद गदहा होता है ।। ६० ।।

गदहेकी योनिमें वह दस मासतक जीवित रहता है। उसके बाद चौदह महीनोंतक कुत्ता और सात मासतक बिलाव होकर अनन्‍्तमें वह मनुष्यकी योनिमें जन्म ग्रहण करता है ।। ६१ ।।

माता-पिताकी निन्‍्दा करके अथवा उन्हें गाली देकर मनुष्य दूसरे जन्ममें मैना होता है। नरेश्वर! जो माता-पिताको मारता है, वह कछुआ होता है ।। ६२ ।।

दस वर्षतक कछुआ रहनेके पश्चात्‌ तीन वर्ष साही और छ: महीनेतक सर्प होता है। उसके अनन्तर वह मनुष्यकी योनिमें जन्म लेता है ।। ६३ ।।

जो पुरुष राजाके टुकड़े खाकर पलता हुआ भी मोहवश उसके शत्रुओंकी सेवा करता है, वह मरनेके बाद वानर होता है ।। ६४ ।।

दस वर्षोतक वानर, पाँच वर्षोतक चूहा और छ: महीनोंतक कुत्ता होकर वह मनुष्यका जन्म पाता है ।।

दूसरोंकी धरोहर हड़प लेनेवाला मनुष्य यमलोकमें जाता और क्रमश: सौ योनियोंमें भ्रमण करके अन्तमें कीड़ा होता है ।। ६६ ।।

भारत! कीड़ेकी योनिमें वह पंद्रह वर्षोतक जीवित रहता है और अपने पापोंका क्षय करके अन्तमें मनुष्य-योनिमें जन्म लेता है || ६७ ।।

दूसरोंके दोष दढूँढ़नेवाला मनुष्य हरिणकी योनिमें जन्म लेता है तथा जो अपनी खोटी बुद्धिके कारण किसीके साथ विश्वासघात करता है, वह मनुष्य मछली होता है ।। ६८ ।।

भारत! आठ वर्षोतक मछली रहकर मरनेके बाद वह चार मासतक मृग होता है। उसके बाद बकरेकी योनिमें जन्म लेता है ।। ६९ ।।

बकरा पूरे एक वर्षपर मृत्युको प्राप्त होनेके पश्चात्‌ कीड़ा होता है। उसके बाद उस जीवको मनुष्यका जन्म मिलता है || ७० ।।

महाराज! जो पुरुष लज्जाका परित्याग करके अज्ञान और मोहके वशीभूत होकर धान, जौ, तिल, उड़द, कुलथी, सरसों, चना, मटर, मूँग, गेहूँ और तीसी तथा दूसरे-दूसरे अनाजोंकी चोरी करता है, वह मरनेके बाद पहले चूहा होता है || ७१-७२ ।।

राजन! फिर वह चूहा मृत्युके पश्चात्‌ सूअर होता है। नरेश्वर! वह सूअर जन्म लेते ही रोगसे मर जाता है || ७३ ।।

पृथ्वीनाथ! फिर उसी कर्मसे वह मूढ़ जीव कुत्ता होता है और पाँच वर्षतक कुत्ता रहकर अन्तमें मनुष्यका जन्म पाता है ।। ७४ ।।

परस्त्रीगमनका पाप करके मनुष्य क्रमशः भेड़िया, कुत्ता, सियार, गीध, साँप, कंक और बगुला होता है || ७५ ।।

नरेश्वर! जो पापात्मा मोहवश भाईकी स्त्रीके साथ बलात्कार करता है, वह एक वर्षतक कोयलकी योनिमें पड़ा रहता है ।। ७६ ।।

जो कामनाकी पूर्तिके लिये मित्र, गुरु और राजाकी स्त्रीका सतीत्व भंग करता है, वह मरनेके बाद सूअर होता है || ७७ ।।

पाँच वर्षमक सूअर रहकर दस वर्ष भेड़िया, पाँच वर्ष बिलाव, दस वर्ष मुर्गा, तीन महीने चींटी और एक महीने कीडेकी योनिमें रहता है। इन सभी योनियोंमें चक्कर लगानेके बाद वह पुनः कीड़ेकी योनिमें जन्म लेता है || ७८-७९ ।।

उस कीट-योनिमें वह चौदह महीनोंतक जीवन धारण करता है। तदनन्तर पापक्षय करके वह पुनः मनुष्य-योनिमें जन्म लेता है || ८० ।।

प्रभो! जो विवाह, यज्ञ अथवा दानका अवसर आनेपर मोहवश उसमें विघ्न डालता है, वह भी मरनेके बाद कीड़ा ही होता है ।। ८१ ।।

भारत! वह कीट पंद्रह वर्षोतक जीवित रहता है। फिर पापोंका क्षय करके वह मनुष्ययोनिमें जन्म लेता है || ८२ ।।

राजन्‌! जो पहले एक व्यक्तिको कन्यादान करके फिर दूसरेको उसी कन्याका दान करना चाहता है, वह भी मरनेके बाद कीड़ेकी योनिमें जन्म लेता है || ८३ ।।

युधिष्ठिर! उस योनिमें वह तेरह वर्षोतक जीवन धारण करता है। तदनन्तर पापक्षयके पश्चात्‌ वह पुनः मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होता है ।। ८४ ।।

जो देवकार्य अथवा पितृकार्य न करके बलि-वैश्वदेव किये बिना ही अन्न ग्रहण करता है, वह मरनेके बाद कौएकी योनिमें जन्म लेता है || ८५ ।।

सौ वर्षोतक कौएके शरीरमें रहकर वह मुर्गा होता है। उसके बाद एक मासतक सर्प रहता है। तत्पश्चात्‌ मनुष्यका जन्म पाता है || ८६ ।।

बड़ा भाई पिताके समान आदरणीय है, जो उसका अपमान करता है, उसे मृत्युके बाद क्रौंच पक्षीकी योनिमें जन्म लेना पड़ता है || ८७ ।।

क्रौंच होकर वह एक वर्षतक जीवित रहता है। उसके बाद चीरक जातिका पक्षी होता है और फिर मरनेके बाद मनुष्य-योनिमें जन्म पाता है ।। ८८ ।।

शूद्र-जातिका पुरुष ब्राह्मणजातिकी स्त्रीके साथ समागम करके देहत्यागके पश्चात्‌ पहले कीड़ेकी योनिमें जन्म लेता है। फिर मरनेके बाद सूअर होता है ।। ८९ ।।

नरेश्वर! सूअरकी योनिमें जन्म लेते ही वह रोगसे मर जाता है। पृथ्वीनाथ! तत्पश्चात्‌ वह मूढ़ जीव उसी पाप-कर्मके कारण कुत्ता होता है ।। ९० ।।

कुत्ता होनेपर पापकर्मका भोग समाप्त करके वह मनुष्ययोनिमें जन्म लेता है। मनुष्ययोनिमें भी वह एक ही संतान पैदा करके मर जाता है और शेष पापका फल भोगनेके लिये चूहा होता है ।। ९१ ।।

राजन! कृतघ्न मनुष्य मरनेके बाद यमराजके लोकमें जाता है। वहाँ क्रोधमें भरे हुए यमदूत उसके ऊपर बड़ी निर्दयताके साथ प्रहार करते हैं || ९२ ।।

भारत! वह दण्ड, मुद्गर और शूलकी चोट खाकर दारुण अग्निकुम्भ (कुम्भीपाक), असिपत्रवन, तपी हुई भयंकर बालू, काँटोंसे भरी हुई शाल्मली आदि नरकोंमें कष्ट भोगता है। यमलोकमें पहुँचकर इन ऊपर बताये हुए तथा और भी बहुत-से नरकोंकी भयंकर यातनाएँ भोगकर वह वहाँ यमदूतोंद्वारा पीटा जाता है ।।

भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार निर्दयी यमदूतोंसे पीड़ित हुआ कृतघ्न पुरुष पुनः संसारचक्रमें आता और कीड़ेकी योनिमें जन्म लेता है ।। ९५ ।।

भारत! पंद्रह वर्षोतक वह कीड़ेकी योनिमें रहता है। फिर गर्भमें आकर वहीं गर्भस्थ शिशुकी दशामें ही मर जाता है ।। ९६ ।।

इस तरह कई सौ बार वह जीव गर्भकी यन्त्रणा भोगता है। तदनन्तर बहुत बार जन्म लेनेके पश्चात्‌ वह तिर्यग्योनिमें उत्पन्न होता है ।। ९७ ।।

इन योनियोंमें बहुत वर्षोतक दुःख भोगनेके पश्चात्‌ वह फिर मनुष्ययोनिमें न आकर दीर्घकालके लिये कछुआ हो जाता है ।। ९८ ।।

दुर्बुद्धि मनुष्य दहीकी चोरी करके बगला होता है, कच्ची मछलियोंकी चोरी करके वह कारण्डव नामक जलपक्षी होता है और मधुका अपहरण करके वह डाँस (मच्छर) की योनिमें जन्म लेता है ।। ९९ ।।

फल, मूल अथवा पूएकी चोरी करनेपर मनुष्यको चींटीकी योनिमें जन्म लेना पड़ता है। निष्पाव (मटर या उड़द) की चोरी करनेवाला हलगोलक नामवाला कीड़ा होता है || १०० ।।

खीरकी चोरी करनेवाला तीतरकी योनिमें जन्म लेता है। आटेका पूआ चुराकर मनुष्य मरनेके बाद उल्लू होता है || १०१ ।।

लोहेकी चोरी करनेवाला मूर्ख मानव कौवा होता है। काँसकी चोरी करके खोटी बुद्धिवाला मनुष्य हारीत नामक पक्षी होता है ।। १०२ ।।

चाँदीका बर्तन चुरानेवाला कबूतर होता है और सुवर्णमय भाण्डकी चोरी करके मनुष्यको कीड़ेकी योनिमें जन्म लेना पड़ता है ।। १०३ ।।

ऊनी वस्त्र चुरानेवाला कृकल (गिरगिट) की योनिमें जन्म लेता है। कौशेय (रेशमी) वस्त्रकी चोरी करनेपर मनुष्य बत्तक होता है || १०४ ।।

अंशुक (महीन कपड़े) की चोरी करके मनुष्य तोतेका जन्म पाता है तथा दुकूल (उत्तरीय वस्त्र) की चोरी करके मृत्युको प्राप्त हुआ मानव हंसकी योनिमें जन्म लेता है ।। १०५ |।

सूती वस्त्रकी चोरी करके मरा हुआ मनुष्य क्रौंच पक्षीकी योनिमें जन्म लेता है। भारत! पाटम्बर, भेड़के ऊनका बना हुआ तथा क्षौम (रेशमी) वस्त्र चुरानेवाला मनुष्य खरगोश नामक जन्तु होता है || १०६३ ।।

अनेक प्रकारके रंगोंकी चोरी करके मृत्युको प्राप्त हुआ पुरुष मोर होता है। लाल कपड़े चुरानेवाला मनुष्य चकोरकी योनिमें जन्म लेता है ।। १०७३ ।।

राजन! जो मनुष्य लोभके वशीभूत होकर वर्णक (अनुलेपन) आदि तथा चन्दनकी चोरी करता है, वह छछूँदर होता है। उस योनिमें वह पंद्रह वर्षतक जीवित रहता है || १०८-१०९ ||

फिर अधर्मका क्षय हो जानेपर वह मनुष्यका जन्म पाता है। दूध चुरानेवाली स्त्री बगुली होती है ।। ११० ।।

राजन! जो मनुष्य मोहयुक्त होकर तेल चुराता है, वह मरनेपर तेलपायी नामक कीड़ा होता है ।। १११ ।।

जो नीच मनुष्य धनके लोभसे अथवा शत्रुताके कारण हथियार लेकर निहत्थे पुरुषको मार डालता है, वह अपनी मृत्युके बाद गदहेकी योनिमें जन्म पाता है ।।

गदहा होकर वह दो वर्षोतक जीवित रहता है। फिर शस्त्रसे उसका वध होता है। इस प्रकार मरकर वह मृगकी योनिमें जन्म लेता और हिंसकोंके भयसे सदा उद्विग्न रहता है ।। ११३ |।

मृग होकर वह सालभरमें ही शस्त्रद्वारा मारा जाता है। मरनेपर मत्स्य होता है, फिर वह भी जालसे बँधता है ।। ११४ ।।

वह किसी प्रकार जालसे छूटा हुआ भी चौथे महीनेमें मृत्युको प्राप्त हो हिंसक जन्तु भेड़िया आदि होता है। उस योनिमें दस वर्षोतक रहकर वह पाँच वर्षोतक व्याप्र या चीतेकी योनिमें पड़ा रहता है ।। ११५ ।।

तदनन्तर पापका क्षय होनेपर कालकी प्रेरणासे मृत्युको प्राप्त हो वह पुनः मनुष्य होता है ।। ११६ |।

जो खोटी बुद्धिवाला पुरुष स्त्रीकी हत्या कर डालता है, वह यमराजके लोकमें जाकर नाना प्रकारके क्लेश भोगनेके पश्चात्‌ बीस बार दुःखद योनियोंमें जन्म लेता है ।। ११७ ।।

महाराज! तदनन्तर वह कीड़ेकी योनिमें जन्म लेता है और बीस वर्षोतक कीट-योनिमें रहकर अन्तमें मनुष्य होता है ।। ११८ ।।

भोजनकी चोरी करके मनुष्य मक्खी होता है और कई महीनोंतक मक्खियोंके समुदायके अधीन रहता है। तत्पश्चात्‌ पापोंका भोग समाप्त करके वह पुनः मनुष्य-योनिमें जन्म लेता है ।। ११९३ ।।

धान्यकी चोरी करनेवाले मनुष्यके शरीरमें दूसरे जन्ममें बहुत-से रोएँ पैदा होते हैं। प्रजानाथ! जो मानव तिलके चूर्णसे मिश्रित भोजनकी चोरी करता है, वह नेवलेके समान आकारवाला भयानक चूहा होता है तथा वह पापी सदा मनुष्योंको काटा करता है ।।

जो दुर्बुद्धि मनुष्य घी चुराता है, वह काकमदगु (सींगवाला जल-पक्षी) होता है। जो खोटी बुद्धिवाला मनुष्य मत्स्य और मांसकी चोरी करता है, वह कौवा होता है। नमककी चोरी करनेसे मनुष्यको चिरिकाक-योनिमें जन्म लेना पड़ता है ।। १२२-१२३ ।।

तात! जो मानव विश्वासपूर्वक रखी हुई दूसरेकी धरोहरको हड़प लेता है, वह गतायु होनेपर मत्स्यकी योनिमें जन्म लेता है ।। १२४ ।।

मत्स्ययोनिमें जन्म लेनेके बाद जब मरता है, तब पुनः मनुष्यका जन्म पाता है। मानवयोनिमें आकर उसकी आयु बहुत कम होती है ।। १२५ ।।

भारत! पाप करके मनुष्य पशु-पक्षियोंकी योनिमें जन्म लेते हैं। वहाँ उन्हें अपने उद्धार करनेवाले धर्मका कुछ भी ज्ञान नहीं रहता ।। १२६ ।।

जो पापाचारी पुरुष लोभ और मोहके वशीभूत हो पाप करके उसे व्रत आदिके द्वारा दूर करनेका प्रयत्न करते हैं, वे सदा सुख-दुःख भोगते हुए व्यथित रहते हैं। उन्हें कहीं रहनेको ठौर नहीं मिलता तथा वे म्लेच्छ होकर सदा मारे-मारे फिरते हैं। इसमें संशय नहीं है || १२७-१२८ ||

जो मनुष्य जन्मसे ही पापका परित्याग कर देते हैं, वे नीरोग, रूपवान्‌ और धनी होते हैं ।। १२९ ||

स्त्रियाँ भी यदि पूर्वोक्त पापकर्म करती हैं तो पापकी भागिनी होती हैं और वे उन पापभोगी प्राणियोंकी ही पत्नी होती हैं || १३० ।।

निष्पाप नरेश! पराये धनका अपहरण करनेसे जो दोष होते हैं, वे सब बताये गये। यहाँ मेरे द्वारा संक्षेपसे ही इस विषयका दिग्दर्शन कराया गया है ।। १३१ ।।

भरतनन्दन! अब दूसरी बार बातचीतके प्रसंगमें फिर कभी इस विषयको सुनना। महाराज! पूर्वकालमें ब्रह्माजी देवर्षियोंके बीच यह प्रसंग सुना रहे थे। वहाँ उन्हींके मुँहसे मैंने ये सारी बातें सुनी थीं और तुम्हारे पूछनेपर उन्हीं सब बातोंका मैंने भी यथार्थरूपसे वर्णन किया है। राजन्‌! यह सुनकर तुम सदा धर्ममें मन लगाओ ।। १३२-१३३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें संसारचक्र नामक एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

एक सौ बारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ बारहवाँ अध्याय के श्लोक 1-35 का हिन्दी अनुवाद)

“पापसे छूटनेके उपाय तथा अन्नदानकी विशेष महिमा”

युधिष्ठिरने पूछा--ब्रह्मनन! आपने अधर्मकी गति बतायी। पापरहित वक्ताओंमें श्रेष्ठ! अब मैं धर्मकी गति सुनना चाहता हूँ ।। १ ।।

मनुष्य पाप कर्म करके कैसे शुभगतिको प्राप्त होते हैं तथा किस कर्मके अनुष्ठानसे उन्हें उत्तम गति प्राप्त होती है? ।। २ ।।

बृहस्पतिजीने कहा--राजन्‌! जो मनुष्य पापकर्म करके अधर्मके वशीभूत हो जाता है, उसका मन धर्मके विपरीत मार्ममें जाने लगता है; इसलिये वह नरकमें गिरता है ।। ३ ।।

परंतु जो अज्ञानवश अधर्म बन जानेपर पुनः उसके लिये पश्चात्ताप करता है, उसे चाहिये कि मनको वशमें रखकर वह फिर कभी पापका सेवन न करे ।।

मनुष्यका मन ज्यों-ज्यों पापकर्मकी निन्दा करता है त्यों-त्यों उसका शरीर उस अधर्मके बन्धनसे मुक्त होता जाता है ।। ५ ।।

राजन! यदि पापी पुरुष धर्मज्ञ ब्राह्मणोंसे अपना पाप बता दे तो वह उस पापके कारण होनेवाली निन्दासे शीघ्र ही छुटकारा पा जाता है ।। ६ ।।

मनुष्य अपने मनको स्थिर करके जैसे-जैसे अपना पाप प्रकट करता है, वैसे-ही-वैसे वह मुक्त होता जाता है। ठीक उसी तरह जैसे सर्प पूर्वमुक्त, जराजीर्ण केचुलसे छूट जाता है ।। ७ ।।

मनुष्य एकाग्रचित्त होकर सावधान हो ब्राह्मणको यदि नाना प्रकारके दान करे तो वह उत्तम गतिको पाता है ।। ८ ।।

युधिष्ठिर! अब मैं उन उत्कृष्ट दानोंका वर्णन करूँगा, जिन्हें देकर मनुष्य यदि उससे न करने योग्य कर्म बन जायं तो भी धर्मके फलसे संयुक्त होता है ।।

सब प्रकारके दानोंमें अन्नका दान श्रेष्ठ बताया गया है। अतः धर्मकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यको सरलभावसे पहले अन्नका ही दान करना चाहिये ।। १० ।॥।

अन्न मनुष्योंका प्राण है, अन्नसे ही प्राणीका जन्म होता है, अन्नके ही आधारपर सारा संसार टिका हुआ है। इसलिये अन्न सबसे उत्तम माना गया है ।।

देवता, ऋषि, पितर और मनुष्य अन्नकी ही प्रशंसा करते हैं। अन्नके ही दानसे राजा रन्तिदेव स्वर्गको प्राप्त हुए हैं || १२ ।।

अतः स्वाध्यायमें तत्पर रहनेवाले ब्राह्मणोंके लिये प्रसन्न चित्तसे न्यायोपार्जित उत्तम अन्नका दान करना चाहिये ।। १३ ।।

जिस पुरुषके प्रसन्न चित्तसे दिये हुए अन्नको एक हजार ब्राह्मण खा लेते हैं, वह पशुपक्षीकी योनिमें नहीं जन्म लेता || १४ ।।

नरश्रेष्ठ! जो मनुष्य सदा योग-साधनमें संलग्न रहकर दस हजार ब्राह्मणोंको भोजन करा देता है, वह पापके बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।। १५ ।।

वेदज्ञ ब्राह्मण भिक्षासे अन्न लाकर यदि स्वाध्याय-परायण विप्रको दान देता है तो इस लोकमें सुखी होता है || १६ ।।

जो भिक्षासे भी अन्न लाकर ब्राह्मणोंको देता है और सुवर्णका दान करता है, उसके बहुत-से पाप भी नष्ट हो जाते हैं ।।

जीविका चलानेवाली भूमिका दान करके भी मनुष्य पातकसे मुक्त हो जाता है। पुराणोंके पाठसे भी ब्राह्मण पातकोंसे छुटकारा पा जाता है ।।

एक लाख गायत्री जपनेसे, एक हजार गौओंको तृप्त करनेसे, विशुद्ध ब्राह्मणोंको यथार्थरूपसे वेदार्थका ज्ञान करानेसे तथा सर्वस्वके त्याग आदिसे भी द्विज पापमुक्त हो जाता है। इन सबमें सबका अन्नके द्वारा आतिथ्य-सत्कार करना ही सबसे श्रेष्ठ कर्म है। इसलिये अन्नको सबसे उत्तम माना गया है ।।

धर्मात्मा पाण्डुनन्दन! जो क्षत्रिय ब्राह्मणके धनका अपहरण न करके न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करते हुए अपने बाहुबलसे प्राप्त किया हुआ अन्न वेदवेत्ता ब्राह्मणोंको भलीभाँति शुद्ध एवं समाहित चित्तसे दान करता है, वह उस अन्न-दानके प्रभावसे अपने पूर्वकृत पापोंका नाश कर डालता है ।। १७-१८ ।।

जो वैश्य खेतीसे अन्न पैदा करके उसका छठा भाग राजाको देकर बचे हुएमेंसे शुद्ध अन्नका ब्राह्मणको दान करता है, वह पापोंसे मुक्त हो जाता है ।। १९ ।।

शूद्र भी यदि प्राणोंकी परवा न करके कठोर परिश्रमसे कमाया हुआ अन्न ब्राह्मणोंको दान करता है तो पापसे छुटकारा पा जाता है || २० ।।

जो किसी प्राणीकी हिंसा न करके अपनी छातीके बलसे पैदा किया हुआ अन्न विप्रोंको दान करता है, वह कभी संकटका अनुभव नहीं करता || २१ ।।

न्यायके अनुसार अन्न प्राप्त करके उसे वेदवेत्ता ब्राह्मणोंको हर्षपूर्वक दान देनेवाला मनुष्य अपने पापोंके बन्धनसे मुक्त हो जाता है || २२ ।।

संसारमें अन्न ही बलकी वृद्धि करनेवाला है, अत: अन्नका दान करके मनुष्य बलवान्‌ होता है और सत्पुरुषोंके मार्गका आश्रय लेकर समस्त पापोंसे छूट जाता है | २३ ।।

दाता पुरुषोंने जिस मार्गको चालू किया है, उसीसे मनीषी पुरुष चलते हैं। अन्नदान करनेवाले मनुष्य वास्तवमें प्राणदान करनेवाले हैं। उन्ही लोगोंसे सनातन धर्मकी वृद्धि होती है ।। २४ ।।

मनुष्यको प्रत्येक अवस्थामें न्‍्यायतः उपार्जित किया हुआ अन्न सत्पात्रके लिये अर्पित करना चाहिये; क्योंकि अन्न ही सब प्राणियोंका परम आधार है || २५ ।।

अन्न-दान करनेसे मनुष्यको कभी नरककी भयंकर यातना नहीं भोगनी पड़ती; अतः न्यायोपार्जित अन्नका ही सदा दान करना चाहिये ।। २६ ।।

प्रत्येक गृहस्थको उचित है कि वह पहले ब्राह्मणको भोजन कराकर फिर स्वयं भोजन करनेका प्रयत्न करे तथा अन्न-दानके द्वारा प्रत्येक दिनको सफल बनावे ।। २७ ।।

नरेश्वर! जो मनुष्य वेद, न्याय, धर्म और इतिहासके जाननेवाले एक हजार ब्राह्मणोंको भोजन कराता है, वह घोर नरक और संसारचक्रमें नहीं पड़ता। इहलोकमें उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण होती हैं और मरनेके बाद वह परलोकमें सुख भोगता है || २८-२९ ।।

इस प्रकार अन्न-दानमें संलग्न हुआ पुरुष निश्चिन्त हो सुखका अनुभव करता है और रूपवान, कीर्तिमान्‌ तथा धनवान होता है ।। ३० ।।

भारत! अन्न-दान सब प्रकारके धर्मों और दानोंका मूल है। इस प्रकार मैंने तुम्हें यह अन्नदानका सारा महान्‌ फल बताया है ।। ३१ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें संसारचक्रविषयक एक सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल ३५ श्लोक हैं)


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