सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के एक सौ आठवें अध्याय से एक सौ दसवें अध्याय तक (From the 108 chapter to the 110 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

एक सौ आठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ आठवाँ अध्याय के श्लोक 1-21½ का हिन्दी अनुवाद) 

“मानस तथा पार्थिव तीर्थकी महत्ता”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! जो सब तीथेंमें श्रेष्ठ हो तथा जहाँ जानेसे परम शुद्धि हो जाती हो, उस तीर्थको मुझे विस्तारपूर्वक बताइये ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस पृथ्वीपर जितने तीर्थ हैं, वे सब मनीषी पुरुषोंके लिए गुणकारी होते हैं; किंतु उन सबमें जो परम पवित्र और प्रधान तीर्थ हैं, उसका वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो ।। २ ।।

जिसमें धैर्यरूप कुण्ड और सत्यरूप जल भरा हुआ है तथा जो अगाध, निर्मल एवं अत्यन्त शुद्ध है, उस मानस तीर्थमें सदा परमात्माका आश्रय लेकर स्नान करना चाहिये ।। ३ ।।

कामना और याचनाका अभाव, सरलता, सत्य, मृदुता, अहिंसा, समस्त प्राणियोंके प्रति क्रूरताका अभाव--दया, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह--ये ही इस मानस तीर्थके सेवनसे प्राप्त होनेवाली पवित्रताके लक्षण हैं ।। ४ ।।

जो ममता, अहंकार, राग-द्वेषादि द्वद्ध और परिग्रहसे रहित एवं भिक्षासे जीवन निर्वाह करते हैं, वे विशुद्ध अन्तःकरणवाले साधु पुरुष तीर्थस्वरूप हैं ।। ५ ।।

किंतु जिसकी बुद्धिमें अहंकारका नाम भी नहीं है, वह तत्त्वज्ञानी पुरुष श्रेष्ठ तीर्थ कहलाता है। भगवान्‌ नारायण अथवा भगवान्‌ शिवमें जो भक्ति होती है, वह भी उत्तम तीर्थ मानी गयी है। पवित्रताका यह लक्षण तुम्हें विचार करनेपर सर्वत्र ही दृष्टिगोचर होगा ॥| ६ ।।

जिनके अन्त:करणसे तमोगुण, रजोगुण और सत्त्वगुण धुल गये हैं अर्थात्‌ जो तीनों गुणोंसे रहित है, जो बाह्य पवित्रता और अपवित्रतासे युक्त रहकर भी अपने कर्तव्य (तत्त्वविचार, ध्यान, उपासना आदि) का ही अनुसंधान करते हैं। जो सर्वस्वके त्यागमें ही अभिरुचि रखते हैं, सर्वज्ञ और समदर्शी होकर शौचाचारके पालनद्वारा आत्मशुद्धिका सम्पादन करते हैं, वे सत्पुरुष ही परम पवित्र तीर्थस्वरूप हैं || ७-८ ।।

शरीरको केवल पानीसे भिगो लेना ही स्नान नहीं कहलाता है। सच्चा स्नान तो उसीने किया है, जिसने मन-इन्द्रियके संयमरूपी जलमें गोता लगाया है। वही बाहर और भीतरसे भी पवित्र माना गया है ।। ९ ।।

जो बीते या नष्ट हुए विषयोंकी अपेक्षा नहीं रखते, प्राप्त हुए पदार्थोमें ममताशून्य होते हैं तथा जिनके मनमें कोई इच्छा पैदा ही नहीं होती, उन्हींमें परम पवित्रता होती है || १० 

इस जगतमें प्रज्ञान ही शरीर-शुद्धिका विशेष साधन है। इसी प्रकार अकिंचनता और मनकी प्रसन्नता भी शरीरको शुद्ध करनेवाले हैं ।। ११ ।।

शुद्धि चार प्रकारकी मानी गयी है--आचारशुद्धि, मनःशुद्धि, तीर्थशुद्धि और ज्ञानशुद्धि; इनमें ज्ञानसे प्राप्त होनेवाली शुद्धि ही सबसे श्रेष्ठ मानी गयी है ।। १२ ।।

जो प्रसन्न एवं शुद्ध मनसे ब्रह्मज़्ानमरूपी जलके द्वारा मानसतीर्थमें स्नान करता है, उसका वह स्नान ही तत्त्वदर्शी ज्ञानीका स्नान माना गया है ।। १३ ।।

जो सदा शौचाचारसे सम्पन्न, विशुद्ध भावसे युक्त और केवल सदगुणोंसे विभूषित है, उस मनुष्यको सदा शुद्ध ही समझना चाहिये ।। १४ ।।

भारत! यह मैंने शरीरमें स्थित तीर्थोका वर्णन किया; अब पृथ्वीपर जो पुण्यतीर्थ हैं, उनका महत्त्व भी सुनो || १५ ।।

जैसे शरीरके विभिन्न स्थान पवित्र बताये गये हैं, उसी प्रकार पृथ्वीके भिन्न-भिन्न भाग भी पवित्र तीर्थ हैं और वहाँका जल पुण्यदायक है ।। १६ ।।

जो लोग तीर्थोंके नाम लेकर तीर्थोमें स्नान करके तथा उनमें पितरोंका तर्पण करके अपने पाप धो डालते हैं, वे बड़े सुखसे स्वर्गमें जाते हैं || १७ ।।

पृथ्वीके कुछ भाग साधु पुरुषोंके निवाससे तथा स्वयं पृथ्वी और जलके तेजसे अत्यन्त पवित्र माने गये हैं ।। १८ ।।

इस प्रकार पृथ्वीपर और मनमें भी अनेक पुण्यमय तीर्थ हैं। जो इन दोनों प्रकारके तीर्थो्में स्नान करता है, वह शीघ्र ही परमात्मप्राप्तिरूप सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।। १९ ।।

जैसे क्रियाहीन बल अथवा बलरहित क्रिया इस जगत्‌में कार्यका साधन नहीं कर सकती। बल और क्रिया दोनोंके संयुक्त होनेपर ही कार्यकी सिद्धि होती है, इसी प्रकार शरीरशुद्धि और तीर्थशुद्धिसे युक्त पुरुष ही पवित्र होकर परमात्मप्राप्तिरूप सिद्धि प्राप्त करता है। अतः दोनों प्रकारकी शुद्धि ही उत्तम मानी गयी है ।।२०-२१।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें शुद्धिकी जिज्ञासानामक एक सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

(दाक्षिणात्य अधिक पावका ½ श्लोक मिलाकर कुल २१½ श्लोक हैं)

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अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

एक सौ नवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ नवाँ अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद) 

“प्रत्येक मासकी द्वादशशी तिथिको उपवास और भगवान्‌ विष्णुकी पूजा करनेका विशेष माहात्म्य”

युधिष्ठिरने कहा--पितामह! समस्त उपवासोंमें जो सबसे श्रेष्ठ और महान्‌ फल देनेवाला है तथा जिसके विषयमें लोगोंको कोई संशय नहीं है, वह आप मुझे बताइये ।। १ |।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! स्वयम्भू भगवान्‌ विष्णुने इस विषयमें जैसा कहा है, उसे बताता हूँ, सुनो। उसका अनुष्ठान करके पुरुष परम सुखी हो जाता है, इसमें संशय नहीं है ।। २ ।।

मार्गशीर्षमासमें द्वादशी तिथिको दिन-रात उपवास करके भगवान्‌ केशवकी पूजा-अर्चा करनेसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पा लेता है और उसका सारा पाप नष्ट हो जाता है ।। ३ ।।

इसी प्रकार पौषमासमें द्वादशी तिथिको उपवासपूर्वक भगवान्‌ नारायणकी पूजा करनी चाहिये। ऐसा करनेवाले पुरुषको वाजपेय यज्ञका फल मिलता है और वह परम सिद्धिको प्राप्त हो जाता है ।। ४ ।।

माघमासकी द्वादशी तिथिको दिन-रात उपवास करके भगवान्‌ माधवकी पूजा करनेसे उपासकको राजसूय यज्ञका फल प्राप्त होता है और वह अपने कुलका उद्धार कर देता है ।। ५ ।।

इसी तरह फाल्गुनमासकी द्वादशी तिथिको उपवासपूर्वक गोविन्द नामसे भगवानकी पूजा करनेवाला पुरुष अतिरात्र यज्ञका फल पाता है और मृत्युके पश्चात्‌ सोमलोकमें जाता है ।। ६ |।

चैत्रमासकी द्वादशी तिथिको दिन-रात उपवास करके विष्णुनामसे भगवान्‌का चिन्तन करनेवाला मनुष्य पौण्डरीक यज्ञका फल पाता है और देवलोकमें जाता है || ७ ।।

वैशाखमासकी द्वादशी तिथिको उपवासपूर्वक भगवान्‌ मधुसूदनका पूजन करनेवाला पुरुष अग्निष्टोम यज्ञका फल पाता और सोमलोकमें जाता है ।। ८ ।।

ज्येष्ठमासकी द्वादशी तिथिको दिन-रात उपवास करके जो भगवान्‌ त्रिविक्रमकी पूजा करता है, वह गोमेधयज्ञका फल पाता और अप्सराओंके साथ आनन्द भोगता है ।।

आषाढ़मासकी द्वादशी तिथिको उपवासपूर्वक वामन नामसे भगवान्‌का पूजन करनेवाला पुरुष नरमेध यज्ञका फल पाता और महान्‌ पुण्यका भागी होता है || १० ।।

श्रावणमासकी द्वादशी तिथिको दिन-रात उपवास करके जो भगवान्‌ श्रीधरकी आराधना करता है, वह पंच महायज्ञोंका फल पाता और विमानपर बैठकर सुख भोगता है ।। ११ ||

भाद्रपदमासकी द्वादशी तिथिको उपवासपूर्वक हृषीकेश नामसे भगवान्‌की पूजा करनेवाला मनुष्य सौत्रामणि यज्ञका फल पाता और पतवित्रात्मा होता है ।।

आश्विनमासकी द्वादशी तिथिको दिन-रात उपवास करके पद्मनाभ नामसे भगवानकी पूजा करनेवाला पुरुष सहस्र गोदानका पुण्यफल पाता है, इसमें संशय नहीं है ।। १३ ।।

कार्तिकमासकी द्वादशी तिथिको दिन-रात उपवास करके भगवान्‌ दामोदरकी पूजा करनेसे स्त्री हो या पुरुष गो-यज्ञका फल पाता है, इसमें संशय नहीं है ।। १४ ।।

इस प्रकार जो एक वर्षतक कमलनयन भगवान्‌ विष्णुका पूजन करता है, वह पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण करनेवाला होता है और उसे बहुत-सी सुवर्ण-राशि प्राप्त होती है ।। १५ ||

जो प्रतिदिन इसी प्रकार भगवान्‌ विष्णुकी पूजा करता है, वह विष्णुभावको प्राप्त होता है। यह व्रत समाप्त होनेपर ब्राह्मणोंको भोजन करावे अथवा उन्हें घृत दान करे ।। १६ ।।

इस उपवाससे बढ़कर दूसरा कोई उपवास नहीं है, इसे निश्चय समझना चाहिये। साक्षात्‌ भगवान्‌ विष्णुने ही इस पुरातन व्रतके विषयमें बताया है ।। १७ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें भगवान्‌ विष्णुका द्वादशीव्रत नामक एक सौ नवाँ अध्याय प्रा हुआ)

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अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

एक सौ दसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ दसवाँ अध्याय के श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद) 

“रूप-सौन्दर्य और लोकप्रियताकी प्राप्तिके लिये मार्गशीर्षमासमें चन्द्र-व्रत करनेका प्रतिपादन”

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! महाज्ञानी युधिष्ठिरने बाणशय्यापर सोये हुए कुरुकुलके वृद्ध पितामह भीष्मजीके निकट जाकर इस प्रकार प्रश्न किया ।।

युधिष्ठिर बोले--पितामह! मनुष्यके अंगोंको सुन्दर रूपका सौभाग्य कैसे प्राप्त होता है? मनुष्यमें लोकप्रियता कैसे आती है? धर्म, अर्थ और कामसे युक्त पुरुष किस प्रकार सुखका भागी हो सकता है? ।। २ ।।

भीष्मजीने कहा--राजेन्द्र! मार्गशीर्षमासके शुक्लपक्षकी प्रतिपदाको मूल नक्षत्रसे चन्द्रमाका योग होनेपर चन्द्रसम्बन्धी व्रत आरम्भ करे। चन्द्रमाके स्वरूपका इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये। देवता-सहित मूलनक्षत्रके द्वारा उनके दोनों चरणोंकी भावना करे और पिण्डलियोंमें रोहिणीको स्थापित करे ।। ३ ।।

जाँघोंमें अश्विनी नक्षत्र, ऊरुओंमें पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र, गुह्य भागमें पूर्वाफाल्गुनी और उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र तथा कटिभागमें कृत्तिकाकी स्थिति समझे ।। ४ ।।

नाभिमें पूर्वाभाद्रपदा और उत्तराभाद्रपदाको जाने, नेत्रमण्डलमें रेवती, पृष्ठभागमें धनिष्ठा, अनुराधा तथा उत्तराको स्थापित समझे ।। ५ ।।

राजन! दोनों भुजाओंमें विशाखाका, हाथोंमें हस्तका, अंगुलियोंमें पुनर्वसुका तथा नखोंमें आश्लेषाकी स्थापना करे ।। ६ ।।

राजेन्द्र! ज्येष्ठा नक्षत्रसे ग्रीवाकी, श्रवणसे दोनों कानोंकी, पुष्य नक्षत्रकी स्थापनासे मुखकी तथा स्वाती नक्षत्रसे दाँतों और ओठोंकी भावना बतायी जाती है ।।

शतभिषाको हास, मघाको नासिका, मृगशिराको नेत्र और मित्र (अनुराधा) को ललाट समझे ।। ८ ।।

नरेश्वरर भरणीको सिर और आर्द्रोको चन्द्रमाके केश समझे। (इस प्रकार विभिन्न अंगोंमें नक्षत्रोंकी स्थापना करके तत्सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा उन-उन अंगोंकी पूजा एवं जप) होम आदि प्रतिदिन करे। पौर्णमासीको व्रत समाप्त होनेपर वेदोंके पारंगत विद्दधान्‌ ब्राह्मणको घृत दान करे ।। ९ ।।

ऐसा करनेसे मनुष्य पूर्णिमाके चन्द्रमाकी भाँति परिपूर्णांग सौभाग्यशाली, दर्शनीय तथा ज्ञानका भागी होता है ।। १० ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें एक सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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