सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ छठा अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ छठा अध्याय के श्लोक 1-72 का हिन्दी अनुवाद)
“मास, पक्ष एवं तिथिसम्बन्धी विभिन्न व्रतोपवासके फलका वर्णन ”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! सभी वर्णों और म्लेच्छ जातिके लोग भी उपवासमें मन लगाते हैं, किंतु इसका क्या कारण है? यह समझमें नहीं आता ।। १ ।।
पितामह! सुननेमें आया है कि ब्राह्मण और क्षत्रियोंको नियमोंका पालन करना चाहिये; परंतु उपवास करनेसे किस प्रकार उनके प्रयोजनकी सिद्धि होती है, यह नहीं जान पड़ता है।। २ ।।
पृथ्वीनाथ! आप कृपा करके हमें सम्पूर्ण नियमों और उपवासोंकी विधि बताइये। तात! उपवास करनेवाला मनुष्य किस गतिको प्राप्त होता है? ।। ३ ।।
नरश्रेष्ठ! कहते हैं, उपवास बहुत बड़ा पुण्य है और उपवास सबसे बड़ा आश्रय है; परंतु उपवास करके यहाँ मनुष्य कौन-सा फल पाता है? ।। ४ ।।
भरतश्रेष्ठ! मनुष्य किस कर्मके द्वारा पापसे छुटकारा पाता है और क्या करनेसे किस प्रकार उसे धर्मकी प्राप्ति होती है? वह पुण्य और स्वर्ग कैसे पाता है? ।।
नरेश्वर! उपवास करके मनुष्यको किस वस्तुका दान करना चाहिये? जिस धर्मसे सुख और धनकी प्राप्ति हो सके, वही मुझे बताइये ।। ६ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! धर्मज्ञ धर्मपुत्र कुन्तीकुमार युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछनेपर धर्मके तत्त्वको जाननेवाले शान्तनुनन्दन भीष्मने उनसे इस प्रकार कहा ।। ७ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! भरतश्रेष्ठ! उपवास करनेमें जो श्रेष्ठ गुण हैं, उनके विषयमें मैंने प्राचीन कालमें इस तरह सुन रखा है || ८ ।।
भारत! जिस तरह आज तुमने मुझसे प्रश्न किया है इसी प्रकार मैंने भी पूर्वकालमें तपोधन अंगिरा मुनिसे प्रश्न किया था | ९ ।।
भरतभूषण! जब मैंने यह प्रश्न पूछा, तब अग्निनन्दन भगवान् अंगिराने मुझे उपवासकी पवित्र विधि इस प्रकार बतायी || १० ।।
अंगिरा बोले--कुरुनन्दन! ब्राह्मण और क्षत्रियके लिये तीन रात उपवास करनेका विधान है। कहीं-कहीं दो त्रिरात्र और एक दिन अर्थात् कुल सात दिन उपवास करनेका संकेत मिलता है ।। ११ ।।
वैश्यों और शूद्रोंने जो मोहवश तीन रात अथवा दो रातका उपवास किया है, उसका उन्हें कोई फल नहीं मिला है || १२ ।।
वैश्य और शूद्रके लिये चौथे समयतकके भोजनका त्याग करनेका विधान है अर्थात् उन्हें केवल दो दिन एवं दो रात्रितक उपवास करना चाहिये; क्योंकि धर्मशास्त्रके ज्ञाता एवं धर्मदर्शी विद्वानोंने उनके लिये तीन राततक उपवास करनेका विधान नहीं किया है ।। १३ ||
भारत! यदि मनुष्य पंचमी, षष्ठी और पूर्णिमाके दिन अपने मन और इन्द्रियोंको काबूमें रखकर एक वक्त भोजन करके दूसरे वक्त उपवास करे तो वह क्षमावान्, रूपवान् और विद्वान होता है। वह बुद्धिमान् पुरुष कभी संतानहीन या दरिद्र नहीं होता | १४-१५
कुरुनन्दन! जो पुरुष भगवान्की आराधनाका इच्छुक होकर पंचमी, षष्ठी, अष्टमी तथा कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको अपने घरपर ब्राह्मणोंको भोजन कराता है और स्वयं उपवास करता है, वह रोगरहित और बलवान होता है || १६६ ।।
जो मार्गशीर्ष मासको एक समय भोजन करके बिताता है और अपनी शक्तिके अनुसार ब्राह्मणोंको भोजन कराता है, वह रोग और पापोंसे मुक्त हो जाता है ।। १७६ ।।
वह सब प्रकारके कल्याणमय साधनोंसे सम्पन्न तथा सब तरहकी ओषधियों (अन्नफल आदि) से भरा-पूरा होता है। मार्गशीर्ष मासमें उपवास करनेसे मनुष्य दूसरे जन्ममें रोगरहित और बलवान होता है। उसके पास खेती-बारीकी सुविधा रहती है तथा वह बहुत धन-धान्यसे सम्पन्न होता है ।। १८-१९ ।।
कुन्तीनन्दन! जो पौष मासको एक वक्त भोजन करके बिताता है, वह सौभाग्यशाली, दर्शनीय और यशका भागी होता है ।। २० ।।
जो माघमासको नियमपूर्वक एक समयके भोजनसे व्यतीत करता है, वह धनवान् कुलमें जन्म लेकर अपने कुट॒म्बीजनोंमें महत्त्वको प्राप्त होता है ।। २१ ।।
जो फाल्गुन मासको एक समय भोजन करके व्यतीत करता है, वह स्त्रियोंको प्रिय होता है और वे उसके अधीन रहती हैं || २२ ।।
जो नियमपूर्वक रहकर चैत्रमासको एक समय भोजन करके बिताता है, वह सुवर्ण, मणि और मोतियोंसे सम्पन्न महान् कुलमें जन्म लेता है || २३ ।।
जो स्त्री अथवा पुरुष इन्द्रियसंयमपूर्वक एक समय भोजन करके वैशाख मासको पार करता है, वह सजातीय बन्धु-बान्धवोंमें श्रेष्ठताको प्राप्त होता है ।।
जो एक समय ही भोजन करके ज्येष्ठ मासको बिताता है; वह स्त्री हो या पुरुष, अनुपम श्रेष्ठ ऐश्वर्यको प्राप्त होता है । २५ ।।
जो आषाढ़ मासमें आलस्य छोड़कर एक समय भोजन करके रहता है, वह बहुत-से धन-धान्य और पुत्रोंसे सम्पन्न होता है || २६ ।।
जो मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर एक समय भोजन करते हुए श्रावण मासको बिताता है, वह विभिन्न तीर्थोमें स्नान करनेके पुण्य-फलसे युक्त होता और अपने कुट॒म्बीजनोंकी वृद्धि करता है ।। २७ ।।
जो मनुष्य भाद्रपद मासमें एक समय भोजन करके रहता है, वह गोधनसे सम्पन्न, समृद्धिशील तथा अविचल ऐश्वर्यका भागी होता है || २८ ।।
जो आश्विन मासको एक समय भोजन करके बिताता है, वह पवित्र, नाना प्रकारके वाहनोंसे सम्पन्न तथा अनेक पुत्रोंसे युक्त होता है । २९ ।।
जो मनुष्य कार्तिक मासमें एक समय भोजन करता है, वह शूरवीर, अनेक भार्याओंसे संयुक्त और कीर्तिमान होता है || ३० ।।
पुरुषसिंह! इस प्रकार मैंने मासपर्यन्त एकभुक्त व्रत करनेवाले मनुष्योंके लिये विभिन्न मासोंके फल बताये हैं। पृथ्वीनाथ! अब तिथियोंके जो नियम हैं, उन्हें भी सुन लो || ३१ ।।
भरतनन्दन! जो पंद्रह-पंद्रह दिनपयर भोजन करता है, वह गोधनसे सम्पन्न और बहुत-से पुत्र तथा स्त्रियोंसे युक्त होता है ।। ३२ ।।
जो बारह वर्षोतक प्रतिमास अनेक न्रिरात्रव्रत करता है, वह भगवान् शिवके गणोंका निष्कण्टक एवं निर्मल आधिपत्य प्राप्त करता है ।। ३३ ।।
भरतश्रेष्ठ! प्रवृत्तिमा्गका अनुसरण करनेवाले पुरुषको ये सभी नियम बारह वर्षोंतक पालन करने चाहिये ।। ३४ ।।
जो मनुष्य प्रतिदिन सबेरे और शामको भोजन करता है, बीचमें जलतक नहीं पीता तथा सदा अहिंसा-परायण होकर नित्य अन्निहोत्र करता है, उसे छः: वर्षोमें सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इसमें संशय नहीं है तथा नरेश्वर! वह अग्निष्टोम यज्ञका फल पाता है ।।
वह पुण्यात्मा एवं रजोगुणरहित पुरुष सहस्रों दिव्य रमणियोंसे भरे हुए अप्सराओंके महलमें, जहाँ नृत्य और गीतकी ध्वनि गूँजती रहती है, रमण करता है ।। ३७ ।।
इतना ही नहीं, वह तपाये हुए सुवर्णके समान कान्तिमान् विमानपर आरूढ़ होता है और पूरे एक हजार वर्षोतक ब्रह्मलोकमें सम्मानपूर्वक रहता है। पुण्यक्षीण होनेपर इस लोकमें आकर महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करता है ।। ३८३ ।।
जो मानव पूरे एक वर्षतक प्रतिदिन एक बार भोजन करके रहता है, वह अतिरात्रयज्ञका फल भोगता है || ३९३ ।।
वह पुरुष दस हजार वर्षोतक स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। फिर पुण्यक्षीण होनेपर इस लोकमें आकर महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लेता है || ४०३ ।।
जो पूरे एक वर्षतक दो-दो दिनपर भोजन करके रहता है तथा साथ ही अहिंसा, सत्य और इन्द्रिय-संयमका पालन करता है, वह वाजपेय यज्ञका फल पाता है और दस हजार वर्षोतक स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है । ४१-४२ ई ।।
कुन्तीनन्दन! जो एक सालतक छठे समय अर्थात् तीन-तीन दिनोंपर भोजन करता है, वह मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता है ।। ४३ इ ।।
वह चक्रवाकोंद्वारा वहन किये हुए विमानसे स्वर्गलोकमें जाता है और वहाँ चालीस हजार वर्षोतक आनन्द भोगता है || ४४३६ ।।
नरेश्वर! जो मनुष्य चार दिनोंपर भोजन करता हुआ एक वर्षतक जीवन धारण करता है, उसे गवामय यज्ञका फल प्राप्त होता है ।। ४५३ ।।
वह हंस और सारसोंसे जुते हुए विमानद्वारा जाता है और पचास हजार वर्षोतक स्वर्गलोकमें सुख भोगता है ।। ४६३ ।।
राजन्! जो एक-एक पक्ष बीतनेपर भोजन करता है और इसी तरह एक वर्ष पूरा कर देता है, उसको छः: मासतक अनशन करनेका फल मिलता है। ऐसा भगवान् अंगिरा मुनिका कथन है || ४७३ ।।
प्रजानाथ! वह साठ हजार वर्षोतक स्वर्गमें निवास करता है और वहाँ वीणा, वल्लकी, वेणु आदि वाद्योंके मनोरम घोष तथा सुमधुर शब्दोंद्वारा उसे सोतेसे जगाया जाता है || ४८-४९ ।।
तात! नरेश्वर! जो मनुष्य एक वर्षतक प्रतिमास एक बार जल पीकर रहता है, उसे विश्वजित् यज्ञका फल मिलता है ।। ५० ||
वह सिंह और व्याप्र जुते हुए विमानसे यात्रा करता है और सत्तर हजार वर्षोतक स्वर्गलोकमें सुख भोगता है ।।
पुरुषसिंह! एक माससे अधिक समयतक उपवास करनेका विधान नहीं है। कुन्तीनन्दन! धर्मज्ञ पुरुषोंने अनशनकी यही विधि बतायी है ।। ५२ ।।
जो बिना रोग-व्याधिके अनशन व्रत करता है, उसे पद-पदपर यज्ञका फल मिलता है, इसमें संशय नहीं है || ५३ ।।
प्रभो! ऐसा पुरुष हंस जुते हुए दिव्य विमानसे यात्रा करता है और एक लाख वर्षोतक देवलोकमें आनन्द भोगता है, सैकड़ों कुमारी अप्सराएँ उस मनुष्यका मनोरंजन करती हैं ।। ५४ ३ ||
प्रभो! रोगी अथवा पीड़ित मनुष्य भी यदि उपवास करता है तो वह एक लाख वर्षोतक स्वर्गमें सुखपूर्वक निवास करता है ।। ५५६ ।।
वह सो जानेपर दिव्य रमणियोंकी कांची और नूपुरोंकी झनकारसे जागता है और ऐसे विमानसे यात्रा करता है, जिसमें एक हजार हंस जुते रहते हैं |। ५६३
भरतश्रेष्ठ! वह स्वर्गमें जाकर सैकड़ों रमणियोंसे भरे हुए महलमें रमण करता है। इस जगतमें दुर्बल मनुष्यको हृष्ट-पुष्ट होते देखा गया है। जिसे घाव हो गया है, उसका घाव भी भर जाता है। रोगीको अपने रोगकी निवृत्तिके लिये औषधसमूह प्राप्त होता है। क्रोधमें भरे हुए पुरुषको प्रसन्न करनेका उपाय भी उपलब्ध होता है। अर्थ और मानके लिये दुःखी हुए पुरुषके दुःखोंका निवारण भी देखा गया है; परन्तु स्वर्गकी इच्छा रखनेवाले और दिव्य सुख चाहनेवाले पुरुषको ये सब इस लोकके सुखोंकी बातें अच्छी नहीं लगतीं || ५७--५५९ ।
अतः वह पवित्रात्मा पुरुष वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत हो सैकड़ों स्त्रियोंसे भरे हुए और इच्छानुसार चलनेवाले सुवर्ण-सदृश विमानपर बैठकर रमण करता है। वह स्वस्थ, सफलमनोरथ, सुखी एवं निष्पाप होता है ।।
जो मनुष्य अनशन-व्रत करके अपने शरीरका त्याग कर देता है, वह निम्नांकित फलका भागी होता है। वह प्रातःकालके सूर्यकी भाँति प्रकाशमान, सुनहरी कान्तिवाले, वैदूर्य और मोतीसे जटित, वीणा और मृदंगकी ध्वनिसे निनादित, पताका और दीपकोंसे आलोकित तथा दिव्य घंटानादसे गूँजते हुए, सहस्रों अप्सराओंसे युक्त विमानपर बैठकर दिव्य सुख भोगता है || ६१--६३ ।।
पाण्डुनन्दन! उसके शरीरमें जितने रोमकूप होते हैं, उतने ही सहस्र वर्षोतक वह स्वर्गलोकमें सुखपूर्वक निवास करता है ।। ६४ ।।
वेदसे बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है, माताके समान कोई गुरु नहीं है, धर्मसे बढ़कर कोई उत्कृष्ट लाभ नहीं है तथा उपवाससे बढ़कर कोई तपस्या नहीं है || ६५ ।।
जैसे इस लोक और परलोकमें ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणोंसे बढ़कर कोई पावन नहीं है, उसी प्रकार उपवासके समान कोई तप नहीं है || ६६ ।।
देवताओंने विधिवत् उपवास करके ही स्वर्ग प्राप्त किया है तथा ऋषियोंको भी उपवाससे ही सिद्धि प्राप्त हुई है ।। ६७ ।।
परम बुद्धिमान् विश्वामित्रजी एक हजार दिव्य वर्षोतक प्रतिदिन एक समय भोजन करके भूखका कष्ट सहते हुए तपमें लगे रहे। उससे उन्हें ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति हुई ।।
च्यवन, जमदग्नि, वसिष्ठ, गौतम, भृगु--ये सभी क्षमावान् महर्षि उपवास करके ही दिव्य लोकोंको प्राप्त हुए हैं || ६९ ।।
पूर्वकालमें अंगिरा मुनिने महर्षियोंको इस अनशन-व्रतकी महिमाका दिग्दर्शन कराया था। जो सदा इसका लोगोंमें प्रचार करता है, वह कभी दुःखी नहीं होता ।।
कुन्तीनन्दन! महर्षि अंगिराकी बतलायी हुई इस उपवासत्रतकी विधिको जो प्रतिदिन क्रमश: पढ़ता और सुनता है, उस मनुष्यका पाप नष्ट हो जाता है || ७१ ।।
वह सब प्रकारके संकीर्ण पापोंसे छुटकारा पा जाता है तथा उसका मन कभी दोषोंसे अभिभूत नहीं होता। इतना ही नहीं, वह श्रेष्ठ मानव दूसरी योनिमें उत्पन्न हुए प्राणियोंकी बोली समझने लगता है और अक्षय कीर्तिका भागी होता है || ७२ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें उपवायविधिविषयक एक सौ छठा अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
एक सौ सातवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ सातवाँ अध्याय के श्लोक 1-144 का हिन्दी अनुवाद)
“दरिद्रोंके लिये यज्ञतुल्य फल देनेवाले उपवास-व्रत और उसके फलका विस्तारपूर्वक वर्णन”
युधिष्ठिरने कहा--महात्मा पितामहने विधिपूर्वक यज्ञोंका वर्णन किया और इहलोक तथा परलोकमें जो उनके सम्पूर्ण गुण हैं, उनका भी यथावत्रूपसे प्रतिपादन किया ।। १ |।
किन्तु पितामह! दरिद्र मनुष्य उन यज्ञोंका लाभ नहीं उठा सकता; क्योंकि उन यज्ञोंके उपकरण बहुत हैं और अनेक प्रकारके आयोजनोंके कारण उनका विस्तार बहुत बढ़ जाता है।।२।।
दादाजी! राजा अथवा राजपुत्र ही उन यज्ञोंका लाभ ले सकते हैं। जिनके पास धनकी कमी है, जो गुणहीन, एकाकी और असहाय हैं, वे उस प्रकारके यज्ञ नहीं कर सकते ।। ३ ।।
इसलिये जिस कर्मका अनुष्ठान दरिद्रों, गुणहीनों, एकाकी और असहायोंके लिये भी सुगम तथा बड़े-बड़े यज्ञोंके समान फल देनेवाला हो, उसीका मुझसे वर्णन कीजिये ।। ४ $|
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! अंगिरा मुनिकी बतलायी हुई जो उपवासकी विधि है, वह यज्ञोंके समान ही फल देनेवाली है। उसका पुनः वर्णन करता हूँ, सुनो || ५३ ||
जो सबेरे और शामको ही भोजन करता है, बीचमें जलतक नहीं पीता तथा अहिंसापरायण होकर नित्य अग्निहोत्र करता है, उसे छ: वर्षोमें ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है --इसमें संशय नहीं है ।। ६-७ ।।
वह मनुष्य तपाये हुए सुवर्णके समान कान्तिमान् विमान पाता है और अग्नितुल्य तेजस्वी प्रजापतिलोकमें नृत्य तथा गीतोंसे गूँजते हुए देवांगनाओंके महलमें एक पद्म वर्षोतक निवास करता है । ८६ ।।
जो अपनी ही धर्मपत्नीमें अनुराग रखते हुए निरन्तर तीन वर्षोतक प्रतिदिन एक समय भोजन करके रहता है, उसे अग्निष्टोम यज्ञका फल प्राप्त होता है ।। ९६ ।।
जो बहुत-सी सुवर्णकी दक्षिणासे युक्त इन्द्रप्रिय यज्ञका अनुष्ठान करता है तथा सत्यवादी, दानशील, ब्राह्मणभक्त, अदोषदर्शी, क्षमाशील, जितेन्द्रिय और क्रोधविजयी होता है, वह उत्तम गतिको प्राप्त होता है ।।
वह सफेद बादलोंके समान चमकीले हंसोपलक्षित विमानपर बैठकर दो पद्म वर्षोतक समय समाप्त होनेतक अप्सराओंके साथ वहाँ निवास करता है || १२ ।।
जो मनुष्य नित्य अग्निमें होम करता हुआ एक वर्षतक प्रति दूसरे दिन एक बार भोजन करता है तथा प्रतिदिन अग्निकी उपासनामें तत्पर रहकर नित्य सबेरे जागता है, वह अग्निष्टोम यज्ञका फल पाता है ।।
वह मानव हंस और सारसोंसे जुते हुए विमानको पाता है और इन्द्रलोकमें सुन्दरी स्त्रियोंसे घिरा हुआ निवास करता है || १५ ।।
जो बारह महीनोंतक प्रति तीसरे दिन एक समय भोजन करता, नित्य सबेरे उठता और अग्निकी परिचर्यामें तत्पर हो नित्य अग्निमें आहुति देता है, वह अतिरात्र यागका परम उत्तम फल पाता है ।। १६-१७ |।
उसे मोरोंसे जुता हुआ विमान प्राप्त होता है और वह सदा सप्तर्षियोंके लोकमें अप्सराओंके साथ निवास करता है। वहाँ तीन पद्म वर्षोतक वह निवास करता है ॥| १८३
जो प्रतिदिन अग्निहोत्र करता हुआ बारह महीनोंतक प्रति चौथे दिन एक बार भोजन करता है, वह वाजपेय यज्ञका परम उत्तम फल पाता है ।। १९-२० ||
उस मनुष्यको देवकन्याओंसे आरूढ़ विमान उपलब्ध होता है और वह पूर्वसागरके तटपर इन्द्रलोकमें निवास करता है तथा वहाँ रहकर वह प्रतिदिन देवराजकी क्रीडाओंको देखा करता है || २१६ ।।
जो बारह महीनोंतक प्रतिदिन अग्निहोत्र करता हुआ हर पाँचवें दिन एक समय भोजन करता है और लोभहीन, सत्यवादी, ब्राह्मणभक्त, अहिंसक और अदोषदर्शी होकर सदा पापकर्मोंसे दूर रहता है, उसे द्वादशाह यज्ञका फल प्राप्त होता है ।। २२-२३ ६ ।।
वह सूर्यकी किरणमालाओंके समान प्रकाशमान तथा जाम्बूनद नामक सुवर्णके बने हुए श्वेतकान्तिवाले हंसलक्षित दिव्य विमानकर आरूढ़ होता तथा चार, बारह एवं पैंतीस (कुल मिलाकर इक्यावन) पद्म वर्षोतक स्वर्गलोकमें सुखपूर्वक निवास करता है || २४-२५ ई |
जो बारह महीनेतक सदा अग्निहोत्र करता, तीनों संध्याओंके समय स्नान करता, ब्रह्मचर्यका पालन करता, दूसरोंके दोष नहीं देखता तथा मुनिवृत्तिसे रहकर प्रति छठे दिन एक बार भोजन करता है, वह गोमेध यज्ञका सर्वोत्तम फल पाता है || २६-२७ ६ ।
उसे अग्निकी ज्वालाके समान प्रकाशमान, हंस और मयूरोंसे सेवित, सुवर्णजटित उत्तम विमान प्राप्त होता है और वह अप्सराओंके अंकमें सोकर उन्हींके कांचीकलाप तथा नूपुरोंकी मधुर ध्वनिसे जगाया जाता है ।।
वह मनुष्य दो पताका (महापद्मा), अठारह पद्मा, एक हजार तीन सौ करोड़ और पचास अयुत वर्षोतक तथा सौ रीछोंके चमड़ोंमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोतक ब्रह्मलोकमें सम्मानित होता है || ३०-३१३ ।।
जो बारह महीनोंतक प्रति सातवें दिन एक समय भोजन करता, प्रतिदिन अम्निमें आहुति देता, वाणीको संयममें रखता और ब्रह्मचर्यका पालन करता एवं फूलोंकी माला, चन्दन, मधु और मांसका सदाके लिये त्याग कर देता है, वह पुरुष मरुद्गणों तथा इन्द्रके लोकमें जाता है ।। ३२--३४ ।।
उन सभी स्थानोंमें सफलमनोरथ होकर वह देवकन्याओंद्वारा पूजित होता है तथा जिस यज्ञमें बहुत-से सुवर्णकी दक्षिणा दी जाती है, उसके फलको वह प्राप्त कर लेता है और असंख्य वर्षोतक वह उन लोकोंमें आनन्द भोगता है || ३५३ ।।
जो एक वर्षतक प्रति आठवें दिन एक बार भोजन करता, सबके प्रति क्षमाभाव रखता, देवताओंके कार्यमें तत्पर रहता और नित्यप्रति अग्निहोत्र करता है, उसे पौण्डरीक यागका सर्वश्रेष्ठ फल मिलता है ।। ३६-३७ ।।
वह कमलके समान वर्णवाले विमानपर चढ़ता है और वहाँ उसे श्यामवर्णा, सुवर्णसदश गौर वर्णवाली, सोलह वर्षकी-सी अवस्थावाली और नूतन यौवन तथा मनोहर रूपविलाससे सुशोभित देवांगनाएँ प्राप्त होती हैं। इसमें संशय नहीं है ।। ३८ ३ ।।
जो एक वर्षतक नौ-नौ दिनपर एक समय भोजन करता है और बारहों महीने प्रतिदिन अग्निमें आहुति देता है, उसे एक हजार अश्वमेध यज्ञका परम उत्तम फल प्राप्त होता है || ३९-४० ।।
तथा वह पुण्डरीकके समान श्वेत वर्णोका विमान पाता है। दीप्तिमान् सूर्य और अग्निके समान तेजस्विनी और दिव्यमालाधारिणी रुद्रकन्याएँ उसे सनातन अन्तरिक्ष-लोकमें ले जाती हैं और वहाँ वह एक कल्प लाख करोड़ एवं अठारह हजार वर्षोतक सुख भोगता है ।।
जो एक वर्षतक दस-दस दिन बीतनेपर एक बार भोजन करता है और बारहों महीने प्रतिदिन अग्निमें आहुति देता है, वह सम्पूर्ण भूतोंके लिये मनोहर ब्रह्मकन्याओंके निवासस्थानमें जाकर एक हजार अभश्व-मेध यज्ञोंका परम उत्तम फल पाता है और उस सनातन पुरुषका वहाँकी रूपवती कन्याएँ मनोरंजन करती हैं ।।
वह नीले और लाल कमलके समान अनेक रंगोंसे सुशोभित, मण्डलाकार घूमनेवाला, भँवरके समान गहन चक्कर लगानेवाला, सागरकी लहरोंके समान ऊपर-नीचे होनेवाला, विचित्र मणिमालाओंसे अलंकृत और शंखध्वनिसे परिपूर्ण सर्वोत्तम विमान प्राप्त करता है ।।
उसमें स्फटिक और वज्रजसारमणिके खम्भे लगे होते हैं। उसपर सुन्दर ढंगसे बनी हुई वेदी शोभा पाती है तथा वहाँ हंस और सारस पक्षी कलरव करते रहते हैं। ऐसे विशाल विमानपर चढ़ता और स्वच्छन्द घूमता है ।।
जो बारह महीनोंतक प्रतिदिन अग्निहोत्र करता हुआ प्रति ग्यारहवें दिन एक बार हविष्यान्न ग्रहण करता है, मन-वाणीसे भी कभी परस्त्रीकी अभिलाषा नहीं करता है और माता-पिताके लिये भी कभी झूठ नहीं बोलता है, वह विमानमें विराजमान परम शक्तिमान् महादेवजीके समीप जाता और हजार अभश्वमेध यज्ञोंका सर्वोत्तम फल पाता है | ४९-५१ ||
वह अपने पास ब्रह्माजीका भेजा हुआ विमान स्वतः उपस्थित देखता है। सुवर्णके समान रंगवाली रूपवती कुमारियाँ उसे उस विमानद्वारा झुलोकमें दिव्य मनोहर रुद्रलोकमें ले जाती हैं || ५२६ ।।
वहाँ वह प्रलयकालीन अग्निके समान तेजस्वी शरीर धारण करके असंख्य वर्षोतक एक लाख एक हजार करोड़ वर्षोतक निवास करता हुआ प्रतिदिन देवदानव-सम्मानित भगवान् रुद्रको प्रणाम करता है। वे भगवान् उसे नित्य-प्रति दर्शन देते रहते हैं ।।
जो बारह महीनोंतक प्रति बारहवें दिन केवल हविष्यान्न ग्रहण करता है, उसे सर्वमेध यज्ञका फल मिलता है || ५५३ ।।
उसके लिये बारह सूर्योके समान तेजस्वी विमान प्रस्तुत किया जाता है। बहुमूल्यमणि, मुक्ता और मूँगे उस विमानकी शोभा बढ़ाते हैं। हंसश्रेणीसे परिवेष्टित और नागवीथीसे परिव्याप्त वह विमान कलरव करते हुए मोरों और चक्रवाकोंसे सुशोभित तथा ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित है। उसके भीतर बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ बनी हुई हैं। राजन! वह नित्यनिवासस्थान अनेक नर-नारियोंसे भरा हुआ होता है। यह बात महाभाग धर्मज्ञ ऋषि अंगिराने कही थी ।। ५६--५५९ |।
जो बारह महीनोंतक सदा तेरहवें दिन हविष्यात्र भोजन करता है, उसे देवसत्रका फल प्राप्त होता है ।।
उस मनुष्यको रक्तपद्मोदय नामक विमान उपलब्ध होता है, जो सुवर्णसे जटित तथा रत्नसमूहसे विभूषित है। उसमें देवकन्याएँ भरी रहती हैं, दिव्य आभूषणोंसे विभूषित उस विमानकी बड़ी शोभा होती है। उससे पवित्र सुगन्ध प्रकट होती रहती है तथा वह दिव्य विमान वायव्यास्त्रसे शोभायमान होता है || ६१-६२ ।।
वह व्रतधारी पुरुष दो शंख, दो पताका (महापद्म), एक कल्प एवं एक चतुर्युग तथा दस करोड़ एवं चार पद्म वर्षोतक ब्रह्मलोकमें निवास करता है || ६३ ।।
वहाँ देवकन्याएँ गीत और वाद्योंके घोष तथा भेरी और पणवकी मधुर ध्वनिसे उस पुरुषको आनन्द प्रदान करती हुई सदा उसका पूजन करती हैं ।। ६४ ।।
जो बारह महीनेतक प्रति चौदहवें दिन हविष्यान्न भोजन करता है, वह महामेध यज्ञका फल पाता है ।।
जिनके यौवन तथा रूपका वर्णन नहीं हो सकता, ऐसी देवकन्याएँ तपाये हुए शुद्ध स्वर्णके अंगद (बाजूबन्द) और अन्यान्य अलंकार धारण करके विमानोंद्वारा उस पुरुषकी सेवामें उपस्थित होती हैं || ६६ ।।
वह सो जानेपर कलहंसोंके कलरवों, नूपुरोंकी मधुर झनकारों तथा काड्चीकी मनोहर ध्वनियोंद्वारा जगाया जाता है ।। ६७ ।।
वह मानव देवकन्याओंके उस निवासस्थानमें उतने वर्षोतक निवास करता है, जितने कि गंगाजीमें बालूके कण हैं || ६८ ।।
जो जितेन्द्रिय पुरुष बारह महीनोंतक प्रति पंद्रहवें दिन एक बार खाता और प्रतिदिन अग्निहोत्र करता है, वह एक हजार राजसूय यज्ञका सर्वोत्तम फल पाता है और हंस तथा मोरोंसे सेवित दिव्य विमानपर आरूढ़ होता है ।। ६९-७० ।।
वह विमान सुवर्णपत्रसे जटित तथा मणिमय मण्डलाकार चिह्ढोंसे विचित्र शोभासम्पन्न है। दिव्य वस्त्राभूषणोंसे शोभायमान सुन्दरी रमणियाँ उसे सुशोभित किये रहती है ।। ७१
उस विमानमें एक ही खम्भा होता है, चार दरवाजे लगे होते हैं। वह सात तल्लोंसे युक्त एवं परममंगलमय विमान सहस्रों वैजयन्ती पताकाओंसे सुशोभित तथा गीतोंकी मधुरध्वनिसे व्याप्त होता है ।।
मणि, मोती और मूँगोंसे विभूषित वह दिव्य विमान विद्युत्की-सी प्रभासे प्रकाशित तथा दिव्य गुणोंसे सम्पन्न होता है। वह व्रतधारी पुरुष उसी विमानपर आरूढ़ होता है। उसमें गेंडे और हाथी जुते होते हैं तथा वहाँ एक सहस्र युगोंतक वह निवास करता है ।। ७३ न््]
जो बारह महीनोंतक प्रति सोलहवें दिन एक बार भोजन करता है, उसे सोमयागका फल मिलता है ।।
वह सोम-कन्याओंके महलोंमें नित्य निवास करता है, उसके अंगोंमें सौम्य गन्धयुक्त अनुलेप लगाया जाता है। वह अपनी इच्छाके अनुसार जहाँ चाहता है, घूमता है ।।
वह विमानपर विराजमान होता है और देखनेमें परम सुन्दरी तथा मधुरभाषिणी दिव्य नारियाँ उसकी पूजा करती तथा उसे काम-भोगका सेवन कराती हैं ।।
वह पुरुष सौ पद्म वर्षोके समान दस महाकल्प तथा चार चतुर्युगीतक अपने पुण्यका फल भोगता है ।। ७७३ ।।
जो मनुष्य बारह महीनोंतक प्रतिदिन अग्निहोत्र करता हुआ सोलह दिन उपवास करके सत्रहवें दिन केवल हविष्यात्र भोजन करता है, वह वरुण, इन्द्र, रुद्र, मरुत, शुक्राचार्यजी तथा ब्रह्माजीके लोकमें जाता है और उन लोकोंमें देवताओंकी कन्याएँ आसन देकर उसका पूजन करती हैं || ७८--८० ।।
वह पुरुष भूलोक, भुवर्लोक तथा विश्वरूपधारी देवर्षिका वहाँ दर्शन करता है और देवाधिदेवकी कुमारियाँ उसका मनोरंजन करती हैं। उनकी संख्या बत्तीस है। वे मनोहर रूपधारिणी, मधुरभाषिणी तथा दिव्य अलंकारोंसे अलंकृत होती हैं || ८१३ ।।
प्रभो! जबतक आकाशकमें चन्द्रमा और सूर्य विचरते हैं, तबतक वह धीर पुरुष सुधा एवं अमृतरसका भोजन करता हुआ ब्रह्मलोकमें विहार करता है || ८२३
जो लगातार बारह महीनोंतक प्रति अठारहवें दिन एक बार भोजन करता है, वह भू आदि सातों लोकोंका दर्शन करता है ।। ८३३ ||
उसके पीछे आनन्दपूर्वक जयघोष करते हुए बहुत-से तेजस्वी एवं सजे-सजाये रथ चलते हैं। उन रथोंपर देवकन्याएँ बैठी होती हैं || ८४ $ ||
उसके सामने व्याप्र और सिंहोंसे जुता हुआ तथा मेघके समान गम्भीर गर्जना करनेवाला दिव्य एवं उत्तम विमान प्रस्तुत होता है, जिसपर वह अत्यन्त सुखपूर्वक आरोहण करता है ।। ८५६ ।।
उस दिव्य लोकमें वह एक हजार कल्पोंतक देवकन्याओंके साथ आनन्द भोगता और अमृतके समान उत्तम सुधारसका पान करता है || ८६३ ||
जो लगातार बारह महीनोंतक उन्नीसवें दिन एक बार भोजन करता है, वह भी भू आदि सातों लोकोंका दर्शन करता है || ८७३६ ।।
उसे अप्सराओंद्वारा सेवित उत्तम स्थान--गन्धर्वोंके गीतोंसे गूँजता हुआ सूर्यके समान तेजस्वी विमान प्राप्त होता है ।। ८८ ।।
उस विमानमें वह सुन्दरी देवांगगाओंके साथ आनन्द भोगता है। उसे कोई चिन्ता तथा रोग नहीं सताते। दिव्यवस्त्रधारी और श्रीसम्पन्न रूप धारण करके वह दस करोड़ वर्षोतक वहाँ निवास करता है ।। ८९६ ।।
जो लगातार बारह महीनेतक पूरे बीस दिनपर एक बार भोजन करता, सत्य बोलता, व्रतका पालन करता, मांस नहीं खाता, ब्रह्मचर्यका पालन करता तथा समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहता है, वह सूर्यदेवके विशाल एवं रमणीय लोकोंमें जाता है || ९०-९१
उसके पीछे-पीछे दिव्यमाला और अनुलेपन धारण करनेवाले गन्धर्वों तथा अप्सराओंसे सेवित सोनेके मनोरम विमान चलते हैं ।। ९२ ६ ।।
जो लगातार बारह महीनोंतक प्रतिदिन अग्निहोत्र करता हुआ इक्कीसवें दिनपर एक बार भोजन करता है, वह शुक्राचार्य तथा इन्द्रके दिव्यलोकमें जाता है। इतना ही नहीं, उसे अश्विनीकुमारों और मरुद्गणोंके लोकोंकी भी प्राप्ति होती है। उन लोकोंमें वह सदा सुख भोगनेमें ही तत्पर रहता है। दुःखोंका तो वह नाम भी नहीं जानता है और श्रेष्ठ विमानपर विराजमान हो सुन्दरी स्त्रियोंसे सेवित होता हुआ शक्तिशाली देवताके समान क्रीड़ा करता है | ९३--९५ ३ ||
जो बारह महीनोंतक प्रतिदिन अग्निहोत्र करता हुआ बाईसवाँ दिन प्राप्त होनेपर एक बार भोजन करता है तथा अहिंसामें तत्पर, बुद्धिमान, सत्यवादी और दोषदृष्टिसे रहित होता है, वह सूर्यके समान तेजस्वी रूप धारण करके श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ हो वसुओंके लोकमें जाता है। वहाँ इच्छानुसार विचरता, अमृत पीकर रहता और दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हो देवकन्याओंके साथ रमण करता है || ९६--९८ $ ।।
जो लगातार बारह महीनोंतक मिताहारी और जितेन्द्रिय होकर तेईसवें दिन एक बार भोजन करता है, वह वायु, शुक्राचार्य तथा रुद्रके लोकमें जाता है ।।
वहाँ अनेक गुणोंसे युक्त श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ हो इच्छानुसार विचरता, जहाँ इच्छा होती वहाँ जाता और अप्सराओंद्वारा पूजित होता है। उन लोकोंमें वह दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हो देवकन्याओंके साथ रमण करता है ।। १०१३ ।।
जो लगातार बारह महीनोंतक अग्निहोत्र करता हुआ चौबीसवें दिन एक बार हविष्यान्न भोजन करता है, वह दिव्यमाला, दिव्यवस्त्र, दिव्यगन्ध तथा दिव्य अनुलेपन धारण करके सुदीर्घकालतक आदित्यलोकमें सानन्द निवास करता है || १०२-१०३ ई ||
वहाँ हंसयुक्त मनोरम एवं दिव्य सुवर्णमय विमानपर वह सहस्रों तथा अयुतों देवकन्याओंके साथ रमण करता है || १०४ $ ।।
जो लगातार बारह महीनोंतक पचीसवें दिन एक बार भोजन करता है, उसको सवारीके लिये बहुत-से विमान या वाहन प्राप्त होते हैं | १०५६ ।।
उसके पीछे सिंहों और व्याप्रोंसे जुते हुए तथा मेघोंकी गम्भीर गर्जनासे निनादित बहुसंख्यक रथ सानन्द विजयघोष करते हुए चलते हैं। उन सुवर्णमय, निर्मल एवं मंगलकारी रथोंपर देवकन्याएँ आरूढ़ होती हैं ।। १०६-१०७ ।।
वह दिव्य, उत्तम एवं मनोहर विमानपर विराजमान हो सैकड़ों सुन्दरियोंसे भरे हुए महलमें सहस्र कल्पोंतक निवास करता है। वहाँ देवताओंके भोज्य अमृतके समान उत्तम सुधारसको पीकर वह जीवन बिताता है || १०८६ ।।
जो लगातार बारह महीनोंतक मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर मिताहारी हो छब्बीसवें दिन एक बार भोजन करता है तथा वीतराग और जितेन्द्रिय हो प्रतिदिन अग्निमें आहुति देता है, वह महाभाग मनुष्य अप्सराओंसे पूजित हो सात मरुदगणों और आठ वसुओंके लोकोंमें जाता है ।। १०९--१११ ।।
सम्पूर्ण रत्नोंसे अलंकृत स्फटिक मणिमय दिव्य विमानोंसे सम्पन्न हो गन्धर्वों और अप्सराओंद्वारा पूजित होता हुआ दिव्य तेजसे युक्त हो देवताओंके दो हजार दिव्य युगोंतक वह उन लोकोंमें आनन्द भोगता है ।। ११२६ ।।
जो बारह महीनोंतक प्रतिदिन अग्निहोत्र करता हुआ हर सत्ताईसवें दिन एक बार भोजन करता है, वह प्रचुर फलका भागी होता और देवलोकमें सम्मान पाता है ।। ११३-११४ |।
वहाँ उसे अमृतका आहार प्राप्त होता है तथा वह तृष्णारहित हो वहाँ रहकर आनन्द भोगता है। राजन! वह दिव्यरूपधारी पुरुष राजर्षियोंद्वारा वर्णित देवर्षियोंके चरित्रका श्रवण-मनन करता है और श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ हो मनोरम सुन्दरियोंके साथ मदोन्मत्तभावसे रमण करता हुआ तीन हजार युगों एवं कल्पोंतक वहाँ सुखपूर्वक निवास करता है || ११५-११६३६ |।
जो बारह महीनोंतक सदा अपने मन और इन्द्रियोंको काबूमें रखकर अट्ठाईसवें दिन एक बार भोजन करता है, वह देवर्षियोंको प्राप्त होनेवाले महान् फलका उपभोग करता है ।। ११७-११८ ।।
वह भोगसे सम्पन्न हो अपने तेजसे निर्मल सूर्यकी भाँति प्रकाशित होता है और सुन्दर कान्तिवाली, पीन उरोज, जाँच और जघन प्रदेशवाली, दिव्य वस्त्राभूषणोंसे विभूषित सुकुमारी रमणियाँ सूर्यके समान प्रकाशित और सम्पूर्ण कामनाओंकी प्राप्ति करानेवाले मनोरम दिव्य विमानपर बैठकर उस पुण्यात्मा पुरुषका दस लाख कल्पोंके वर्षोतक मनोरंजन करती हैं || ११९-१२० ३ ।।
जो बारह महीनोंतक सदा सत्यव्रतके पालनमें तत्पर हो उन््तीसवें दिन एक बार भोजन करता है, उसे देवर्षियों तथा राजर्षियोंद्वारा पूजित दिव्य मंगलमय लोक प्राप्त होते हैं । १२१-१२२ ।।
वह सूर्य और चन्द्रमाके समान प्रकाशित, सम्पूर्ण रत्नोंस विभूषित तथा आवश्यक सामग्रियोंसे युक्त सुवर्णमय दिव्य विमान प्राप्त करता है || १२३ ।।
उस विमानमें अप्सराएँ भरी रहती हैं, गन्धर्वोके गीतोंकी मधुर ध्वनिसे वह विमान गूँजता रहता है। उस विमानमें दिव्य आभूषणोंसे विभूषित, शुभ लक्षणसम्पन्न, मनोभिराम, मदमत्त एवं मधुरभाषिणी रमणियाँ उस पुरुषका मनोरंजन करती हैं || १२४६ ।।
वह पुरुष भोगसम्पन्न, तेजस्वी, अग्निके समान दीप्तिमानू, अपने दिव्य शरीरसे देवताकी भाँति प्रकाशमान तथा दिव्यभावसे युक्त हो वसुओं, मरुद्गणों, साध्यगणों, अश्विनीकुमारों, रुद्रों तथा ब्रह्माजीके लोकमें भी जाता है || १२५-१२६ $
जो बारह महीनोंतक प्रत्येक मास व्यतीत होनेपर तीसवें दिन एक बार भोजन करता और सदा शान्तभावसे रहता है, वह ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है ।। १२७६ ।।
वह वहाँ सुधारसका भोजन करता और सबके मनको हर लेनेवाला कान्तिमान् रूप धारण करता है। वह अपने तेज, सुन्दर शरीर तथा अंगकान्तिसे सूर्यकी भाँति प्रकाशित होता है || १२८३ ||
दिव्यमाला, दिव्यवस्त्र, दिव्यगन्ध और दिव्य अनुलेपन धारण करके वह भोगकी शक्ति और साधनसे सम्पन्न हो सुख-भोगमें ही रत रहता है। दुःखोंका उसे कभी अनुभव नहीं होता है || १२९३ ।।
वह विमानपर आरूढ़ हो अपनी ही प्रभासे प्रकाशित होनेवाली दिव्य नारियोंद्वारा सम्मानित होता है। रुद्रों तथा देवर्षियोंकी कन्याएँ सदा उसकी पूजा करती हैं। वे कन्याएँ नाना प्रकारके रमणीय रूप, विभिन्न प्रकारके राग, भाँति-भाँतिकी मधुर भाषणकला तथा अनेक तरहकी रति-क्रीड़ाओंसे सुशोभित होती हैं || १३०-१३१३ ।।
जिस विमानपर वह विराजमान होता है, वह आकाशके समान विशाल दिखायी देता है। सूर्य और वैदूर्यमणिके समान तेजस्वी जान पड़ता है। उसका पिछला भाग चन्द्रमाके समान, वामभाग मेघके सदृश, दाहिना भाग लाल प्रभासे युक्त, निचला भाग नीलमण्डलके समान तथा ऊपरका भाग अनेक रंगोंके सम्मिश्रणसे विचित्र-सा प्रतीत होता है। उसमें वह अनेक नर-नारियोंके साथ सम्मानित होकर रहता है || १३२-१३३ $ ।।
मेघ जम्बूद्वीपमें जितने जलबिन्दुओंकी वर्षा करता है, उतने हजार वर्षोतक उस बुद्धिमान् पुरुषका ब्रह्मलोकमें निवास बताया गया है ।। १३४६ ।।
वर्षा-ऋतुमें आकाशसे धरतीपर जितनी बूँदें गिरती हैं, उतने वर्षोतक वह देवोपम तेजस्वी पुरुष ब्रह्मलोकमें निवास करता है ।। १३५३ ।।
दस वर्षोतक एक-एक मास उपवास करके एकतीसवें दिन भोजन करनेवाला पुरुष उत्तम स्वर्ग लोकको जाता है। वह महर्षि पदको प्राप्त होकर सशरीर दिव्यलोककी यात्रा करता है || १३६६ ||
जो मनुष्य सदा मुनि, जितेन्द्रिय, क्रोधको जीतनेवाला, शिश्व और उदरके वेगको सदा काबूमें रखनेवाला, नियमपूर्वक तीनों अग्नियोंमें आहुति देनेवाला और संध्योपासनामें तत्पर रहनेवाला है तथा जो पवित्र होकर इन पहले बताये हुए अनेक प्रकारके नियमोंके पालनपूर्वक भोजन करता है, वह आकाशके समान निर्मल होता है और उसकी कान्ति सूर्यकी प्रभाके समान प्रकाशित होती है ।।
राजन! ऐसे गुणोंसे युक्त पुरुष देवताके समान अपने शरीरके साथ ही देवलोकमें जाकर वहाँ इच्छाके अनुसार स्वर्गके पुण्यफलका उपभोग करता है ।। १३९३ ।।
भरतमश्रेष्ठ! यह तुम्हें यज्ञोंका उत्तम विधान क्रमश: विस्तारपूर्वक बताया गया है। इसमें उपवासके फलपर प्रकाश डाला गया है। कुन्तीनन्दन! दरिद्र मनुष्योंने इन उपवासात्मक व्रतोंका अनुष्ठान करके यज्ञोंका फल प्राप्त किया है ।। १४०-१४१ ।।
भरतश्रेष्ठ) देवताओं और ब्राह्मणोंकी पूजामें तत्पर रहकर जो इन उपवासोंका पालन करता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है ।। १४२ ।।
भारत! नियमशील, सावधान, शौचाचारसे सम्पन्न, महामनस्वी, दम्भ और द्रोहसे रहित, विशुद्ध बुद्धि, अचल और स्थिर स्वभाववाले मनुष्योंके लिये मैंने यह उपवासकी विधि विस्तारपूर्वक बतायी है। इस विषयमें तुम्हें संदेह नहीं करना चाहिये || १४३-१४४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें उपवासकी विधिनामक एक सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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