सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के एक सौ चारवाँ अध्याय व एक सौ पाँचवाँ अध्याय (From the 104 chapter and the 105 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

एक सौ चारवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ चारवें अध्याय के श्लोक 1-165½ का हिन्दी अनुवाद) 

“आयु वृद्धि और क्षय करनेवाले शुभाशुभ कर्मोके वर्णनसे गृहस्थाश्रमके कर्तव्योंका विस्तारपूर्वक निरूपण”

युधिष्ठिरने कहा--पितामह! शास्त्रोंमें कहा गया है कि “मनुष्यकी आयु सौ वर्षोकी होती है। वह सैकड़ों प्रकारकी शक्ति लेकर जन्म धारण करता है।” किंतु देखता हूँ कि कितने ही मनुष्य बचपनमें ही मर जाते हैं। ऐसा क्‍यों होता है? ।। १ ।।

मनुष्य किस उपायसे दीर्घायु होता है अथवा किस कारणसे उसकी आयु कम हो जाती है? क्या करनेसे वह कीर्ति पाता है या क्या करनेसे उसे सम्पत्तिकी प्राप्ति होती है? || २ ।।

पितामह! मनुष्य मन, वाणी अथवा शरीरके द्वारा तप, ब्रह्मचर्य, जप, होम तथा औषध आदिमेंसे किसका आश्रय ले, जिससे वह श्रेयका भागी हो, वह मुझे बताइये ।। ३ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! तुम मुझसे जो पूछ रहे हो, इसका उत्तर देता हूँ। मनुष्य जिस कारणसे अल्पायु होता है, जिस उपायसे दीर्घायु होता है, जिससे वह कीर्ति और सम्पत्तिका भागी होता है तथा जिस बर्तावसे पुरुषको श्रेयका संयोग प्राप्त होता है, वह सब बताता हूँ, सुनो ।।

सदाचारसे ही मनुष्यको आयुकी प्राप्ति होती है, सदाचारसे ही वह सम्पत्ति पाता है तथा सदाचारसे ही उसे इहलोक और परलोकमें भी कीर्तिकी प्राप्ति होती है ।। ६ ।।

दुराचारी पुरुष, जिससे समस्त प्राणी डरते और तिरस्कृत होते हैं, इस संसारमें बड़ी आयु नहीं पाता ।।

अतः यदि मनुष्य अपना कल्याण करना चाहता हो तो उसे इस जगत्‌में सदाचारका पालन करना चाहिये। जिसका सारा शरीर ही पापमय है, वह भी यदि सदाचारका पालन करे तो वह उसके शरीर और मनके बुरे लक्षणोंको दबा देता है ।। ८ ।।

सदाचार ही धर्मका लक्षण है। सच्चरित्रता ही श्रेष्ठ पुरुषोंकी पहचान है। श्रेष्ठ पुरुष जैसा बर्ताव करते हैं; वही सदाचारका स्वरूप अथवा लक्षण है ।। ९ ।।

जो मनुष्य धर्मका आचरण करता और लोक-कल्याणके कार्यमें लगा रहता है, उसका दर्शन न हुआ हो तो भी मनुष्य केवल नाम सुनकर उससे प्रेम करने लगते हैं || १० ।।

जो नास्तिक, क्रियाहीन, गुरु और शास्त्रकी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाले, धर्मको न जाननेवाले और दुराचारी हैं, उन मनुष्योंकी आयु क्षीण हो जाती है || ११ ।।

जो मनुष्य शीलहीन, सदा धर्मकी मर्यादा भंग करनेवाले तथा दूसरे वर्णकी स्त्रियोंके साथ सम्पर्क रखनेवाले हैं; वे इस लोकमें अल्पायु होते और मरनेके बाद नरकमें पड़ते हैं ।। १२ ।।

सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे हीन होनेपर भी जो मनुष्य सदाचारी, श्रद्धालु और दोषदृष्टिसे रहित होता है, वह सौ वर्षोतक जीवित रहता है ।। १३ ।।

जो क्रोधहीन, सत्यवादी, किसी भी प्राणीकी हिंसा न करनेवाला, अदोषदर्शी और कपटशून्य है, वह सौ वर्षोतक जीवित रहता है ।। १४ ।।

जो ढेले फोड़ता, तिनके तोड़ता, नख चबाता तथा सदा ही उच्छिष्ट (अशुद्ध) एवं चंचल रहता है, ऐसे कुलक्षणयुक्त मनुष्यको दीर्घायु नहीं प्राप्त होती || १५ ।।

प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्तमें (अर्थात्‌ सूर्योदयसे दो घड़ी पहले) जागे तथा धर्म और अर्थके विषयमें विचार करे। फिर शय्यासे उठकर शौच-स्नानके पश्चात्‌ आचमन करके हाथ जोड़े हुए प्रात:कालकी संध्या करे ।। १६ ।।

इसी प्रकार सायंकालमें भी मौन रहकर संध्योपासना करे। उदय और अस्तके समय सूर्यकी ओर कदापि न देखे ।। १७ ।।

ग्रहण और मध्याह्नके समय भी सूर्यकी ओर दृष्टिपात न करे तथा जलनमें स्थित सूर्यके प्रतिबिम्बकी ओर भी न देखे। ऋषियोंने प्रतिदिन संध्योपासन करनेसे ही दीर्घ आयु प्राप्त की थी। इसलिये सदा मौन रहकर द्विजमात्रको प्रात:काल और सायंकालकी संध्या अवश्य करनी चाहिये || १८३ ||

जो द्विज न तो प्रातःकालकी संध्या करते हैं और न सायंकालकी ही, उन सबसे धार्मिक राजा शूद्रोचित कर्म करावे || १९६ ।।

किसी भी वर्णके पुरुषको कभी भी परायी स्त्रियोंसे संसर्ग नहीं करना चाहिये। परस्त्रीसेवनसे मनुष्यकी आयु जल्दी ही समाप्त हो जाती है। संसारमें परस्त्री-समागमके समान पुरुषकी आयुको नष्ट करनेवाला दूसरा कोई कार्य नहीं है । २०-२१ ।।

स्त्रियोंके शरीरमें जितने रोमकूप होते हैं, उतने ही हजार वर्षोंतक व्यभिचारी पुरुषोंको नरकमें रहना पड़ता है ।। २२ ।।

केशोंको सँवारना, आँखोंमें अंजन लगाना, दाँत-मुँह धोना और देवताओंकी पूजा करना--ये सब कार्य दिनके पहले प्रहरमें ही करने चाहिये || २३ ।।

मल-मूत्रकी ओर न देखे, उसपर कभी पैर न रखे। अत्यन्त सबेरे, अधिक साँझ हो जानेपर और ठीक दोपहरके समय कहीं बाहर न जाय। न तो अपरिचित पुरुषोंके साथ यात्रा करे, न शूद्रोंके साथ और न अकेला ही ।। २४६ ।।

ब्राह्मण, गाय, राजा, वृद्ध पुरुष, गर्भिणी स्त्री, दुर्बल और भारपीड़ित मनुष्य यदि सामनेसे आते हों तो स्वयं किनारे हटकर उन्हें जानेका मार्ग देना चाहिये | २५६ ।।

मार्गमें चलते समय अश्वत्थ आदि परिचित वृक्षों तथा समस्त चौराहोंको दाहिने करके जाना चाहिये ।।

दोपहरमें, रातमें, विशेषत: आधी रातके समय और दोनों संध्याओंके समय कभी चौराहोंपर न रहे ।।

दूसरोंके पहने हुए वस्त्र और जूते न पहने। सदा ब्रह्मचर्यका पालन करे। पैरसे पैरको न दबावे। सभी पक्षोंकी अमावास्या, पौर्णमासी, चतुर्दशी और अष्टमी तिथिको सदा ब्रह्मचारी रहे--स्त्री-समागम न करे। किसीकी निंदा, बदनामी और चुगली न करे || २८--३० ।।

दूसरोंके मर्मपर आघात न करे। क्रूरतापूर्ण बात न बोले, औरोंको नीचा न दिखावे। जिसके कहनेसे दूसरोंको उद्वेग होता हो वह रुखाईसे भरी हुई बात पापियोंके लोकमें ले जानेवाली होती है। अतः वैसी बात कभी न बोले ।। ३१ ।।

वचनरूपी बाण मुँहसे निकलते हैं, जिनसे आहत होकर मनुष्य रात-दिन शोकमें पड़ा रहता है। अतः जो दूसरोंके मर्मस्थानोंपर चोट करते हैं, ऐसे वचन विद्वान्‌ पुरुष दूसरोंके प्रति कभी न कहे ।। ३२ ||

वचनरूपी बाण मुँहसे निकलते हैं, जिनसे आहत होकर मनुष्य रात-दिन शोकमें पड़ा रहता है। अतः जो दूसरोंके मर्मस्थानोंपर चोट करते हैं, ऐसे वचन विद्वान्‌ पुरुष दूसरोंके प्रति कभी न कहे ।। ३२ ||

बाणोंसे बिंधा और फरसेसे कटा हुआ वन पुन: अंकुरित हो जाता है, किंतु दुर्वचनरूपी शस्त्रसे किया हुआ भयंकर घाव कभी नहीं भरता है ।। ३३ ।।

कर्णि, नालीक और नाराच--ये शरीरमें यदि गड़ जायेँ तो चिकित्सक मनुष्य इन्हें शरीरसे निकाल देते हैं, किंतु वचनरूपी बाणको निकालना असंभव होता है; क्योंकि वह हृदयके भीतर चुभा होता है ।। ३४ ।।

हीनांग (अंधे-काने आदि), अधिकांग (छांगुर आदि), विद्याहीन, निन्दित, कुरूप, निर्धन और निर्बल मनुष्योंपर आक्षेप करना उचित नहीं है || ३५ ।।

नास्तिकता, वेदोंकी निंदा, देवताओंको कोसना, द्वेष, उद्ण्डता, अभिमान और कठोरता--इन दुर्गुणोंका त्याग कर देना चाहिये || ३६ ।।

क्रोधमें आकर पुत्र या शिष्यके सिवा दूसरे किसीको न तो डंडा मारे, न उसे पृथ्वीपर ही गिरावे। हाँ, शिक्षाके लिये पुत्र या शिष्यको ताड़ना देना उचित माना गया है ।। ३७ ।।

ब्राह्मणोंकी निंदा न करे, घर-घर घूम-घूमकर नक्षत्र और किसी पक्षकी तिथि न बताया करे। ऐसा करनेसे मनुष्यकी आयु क्षीण नहीं होती है || ३८ ।।

ब्राह्मणोंकी निंदा न करे, घर-घर घूम-घूमकर नक्षत्र और किसी पक्षकी तिथि न बताया करे। ऐसा करनेसे मनुष्यकी आयु क्षीण नहीं होती है || ३८ ।।

अमावास्याके सिवा प्रतिदिन दन्‍तधावन करना चाहिये। इतिहास, पुराणोंका पाठ, वेदोंका स्वाध्याय, दान, एकाग्रचित्त होकर संध्योपासना और गायत्रीमंत्रका जप--ये सब कर्म नित्य करने चाहिये ।।

मल-मूत्र त्यागने और रास्ता चलनेके बाद तथा स्वाध्याय और भोजन करनेके पहले पैर धो लेने चाहिये ।। ३९ ।।

जिसपर किसीकी दूषित दृष्टि न पड़ी हो, जो जलसे धोया गया हो तथा जिसकी ब्राह्मणलोग वाणीद्वारा प्रशंसा करते हों--ये ही तीन वस्तुएँ देवताओंने ब्राह्मणोंके उपयोगमें लाने योग्य और पवित्र बतायी हैं ।।

जौके आटेका हलवा, खिचड़ी, फलका गूदा, पूड़ी और खीर--ये सब वस्तुएँ अपने लिये नहीं बनानी चाहिये। देवताओंको अर्पण करनेके लिये ही इनको तैयार करना चाहिये ।। ४१ ।।

प्रतिदिन अग्निकी सेवा करे, नित्यप्रति भिक्षुको भिक्षा दे और मौन होकर प्रतिदिन दन्तथधावन किया करे ।।

सायंकालमें न सोये, नित्य स्नान करे और सदा पवित्रतापूर्वक रहे। सूर्योदय होनेतक कभी न सोये। यदि किसी दिन ऐसा हो जाय तो प्रायश्षित्त करे। प्रतिदिन प्रातःकाल सोकर उठनेके बाद पहले माता-पिताको प्रणाम करे। फिर आचार्य तथा अन्य गुरुजनोंका अभिवादन करे। इससे दीर्घायु प्राप्त होती है || ४३ $ ।।

शास्त्रोंमें जिन काष्ठोंका दाँतन निषिद्ध माना गया है, उन्हें सदा ही त्याग दे--कभी काममें न ले। शास्त्रविहित काष्ठका ही दन्‍्तधावन करे; परंतु पर्वके दिन उसका भी परित्याग कर दे || ४४६ ||

सदा एकाग्रचित्त हो दिनमें उत्तरकी ओर मुँह करके ही मल-मूत्रका त्याग करे। दन्तधावन किये बिना देवताओंकी पूजा न करे || ४५६ ।।

देवपूजा किये बिना गुरु, वृद्ध, धार्मिक तथा विद्वान्‌ पुरुषको छोड़कर दूसरे किसीके पास न जाय ।। ४६ ।।

अत्यन्त बुद्धिमान्‌ पुरुषोंको मलिन दर्पणमें कभी अपना मुँह नहीं देखना चाहिये। अपरिचित तथा गर्भिणी स्त्रीके पास भी न जाय ।। ४७ ।।

विद्वान्‌ पुरुष विवाहसे पहले मैथुन न करे, अन्यथा वह ब्रह्मचर्य-व्रतको भंग करनेका अपराधी माना जाता है। ऐसी दशामें उसे प्रायश्चित्त करना चाहिये। वह परायी स्त्रीकी ओर न तो देखे और न एकान्तमें उसके साथ एक आसनपर बैठे ही। इन्द्रियोंको सदा अपने वशमें रखे। स्वप्रमें भी शुद्ध मनवाला होकर रहे ।।

उत्तर तथा पश्चिमकी ओर सिर करके न सोये। विद्वान्‌ पुरुषको पूर्व अथवा दक्षिणकी ओर सिर करके ही सोना चाहिये ।। ४८ ।।

टूटी और ढीली खाटपर नहीं सोना चाहिये। अँधेरेमें पड़ी हुई शय्यापर भी सहसा शयन करना उचित नहीं है (उजाला करके उसे अच्छी तरह देख लेना चाहिये)। किसी दूसरेके साथ एक खाटपर न सोये। इसी तरह पलंगपर कभी तिरछा होकर नहीं, सदा सीधे ही सोना चाहिये ।। ४९ ।।

नास्तिकोंके साथ काम पड़नेपर भी न जाय। उनके शपथ खाने या प्रतिज्ञा करनेपर भी उनके साथ यात्रा न करे। आसनको पैरसे खींचकर मनुष्य उसपर न बैठे ।। ५० ।।

विद्वान पुरुष कभी नग्न होकर स्नान न करे। रातमें भी कभी न नहाय। स्नानके पश्चात्‌ अपने अंगोंमें तैल आदिकी मालिश न करावे ।। ५१ ।।

स्नान किये बिना अपने अंगोंमें चन्दन या अंगराग न लगावे। स्नान कर लेनेपर गीले वस्त्र न झटकारे। मनुष्य भीगे वस्त्र कभी न पहने ।। ५२ ।।

गलेमें पड़ी हुई मालाको कभी न खींचे। उसे कपड़ेके ऊपर न धारण करे। रजस्वला सत्रीके साथ कभी बातचीत न करे ।। ५३ ।।

बोये हुए खेतमें, गाँवके आस-पास तथा पानीमें कभी मल-मूत्रका त्याग न करे ।। ५४ ।।

देवमन्दिर, गौओंके समुदाय, देवसम्बन्धी वृक्ष और विश्रामस्थानके निकट तथा बढ़ी हुई खेतीमें भी मल-मूत्रका त्याग नहीं करना चाहिये। भोजन कर लेनेपर, छींक आनेपर, रास्ता चलनेपर तथा मल-मूत्रका त्याग करनेपर यथोचित शुद्धि करके दो बार आचमन करे। आचमनमें इतना जल पीये कि वह हृदयतक पहुँच जाय ।।

भोजन करनेकी इच्छावाला पुरुष पहले तीन बार मुखसे झलका स्पर्श (आचमन) करे। फिर भोजनके पश्चात्‌ भी तीन आचमन करे। फिर अंगुष्ठके मूलभागसे दो बार मुँहको पोंछे || ५५ ।।

भोजन करनेवाला पुरुष प्रतिदिन पूर्वकी ओर मुँह करके मौन भावसे भोजन करे। भोजन करते समय परोसे हुए अन्नकी निन्दा न करे। किंचिन्मात्र अन्न थालीमें छोड़ दे और भोजन करके मन-ही-मन अग्निका स्मरण करे ।। ५६ ।।

जो मनुष्य पूर्व दिशाकी ओर मुँह करके भोजन करता है, उसे दीर्घायु, जो दक्षिणकी ओर मुँह करके भोजन करता है उसे यश, जो पश्चिमकी ओर मुख करके भोजन करता है उसे धन और जो उत्तराभिमुख होकर भोजन करता है उसे सत्यकी प्राप्ति होती है ।।

(मनसे) अग्निका स्पर्श करके जलसे सम्पूर्ण इन्द्रियोंका, सब अंगोंका, नाभिका और दोनों हथेलियोंका स्पर्श करे | ५८ ।।

भूसी, भस्म, बाल और मुर्देकी खोपड़ी आदिपर कभी न बैठे। दूसरेके नहाये हुए जलका दूरसे ही त्याग कर दे ।। ५९ ।।

शान्ति-होम करे, सावित्रसंज्ञक मन्त्रोंका जप और स्वाध्याय करे। बैठकर ही भोजन करे, चलते-फिरते कदापि भोजन नहीं करना चाहिये ।। ६० ।।

खड़ा होकर पेशाब न करे। राखमें और गोशालामें भी मूत्र त्याग न करे, भीगे पैर भोजन तो करे, परंतु शयन न करे ।। ६१ ।।

भीगे पैर भोजन करनेवाला मनुष्य सौ वर्षोतक जीवन धारण करता है। भोजन करके हाथ-मुँह धोये बिना मनुष्य उच्छिष्ट (अपवित्र) रहता है। ऐसी अवस्थामें उसे अग्नि, गौ तथा ब्राह्मग--इन तीन तेजस्वियोंका स्पर्श नहीं करना चाहिये। इस प्रकार आचरण करनेसे आयुका नाश नहीं होता ।। ६२ ३ ।।

उच्छिष्ट मनुष्यको सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्र--इन त्रिविध तेजोंकी ओर कभी दृष्टि नहीं डालनी चाहिये ।। ६३ ह ।।

वृद्ध पुरुषके आनेपर तरुण पुरुषके प्राण ऊपरकी ओर उठने लगते हैं। ऐसी दशामें जब वह खड़ा होकर वृद्ध पुरुषोंका स्वागत और उन्हें प्रणाम करता है, तब वे प्राण पुनः पूर्वावस्थामें आ जाते हैं |। ६४ ई ।।

इसलिये जब कोई वृद्ध पुरुष अपने पास आवे, तब उसे प्रणाम करके बैठनेकी आसन दे और स्वयं हाथ जोड़कर उसकी सेवामें उपस्थित रहे। फिर जब वह जाने लगे, तब उसके पीछे-पीछे कुछ दूरतक जाय ।।

फटे हुए आसनपर न बैठे। फूटी हुई काँसीकी थालीको काममें न ले। एक ही वस्त्र (केवल धोती) पहनकर भोजन न करे (साथमें गमछा भी लिये रहे)। नग्न होकर स्नान न करे || ६६३ ।।

नंगे होकर न सोये। उच्छिष्ट अवस्थामें भी शयन न करे। जूठे हाथसे मस्तकका स्पर्श न करे; क्योंकि समस्त प्राण मस्तकके ही आश्रित हैं ।। ६७ $ ।।

सिरके बाल पकड़कर खींचना और मस्तकपर प्रहार करना वर्जित है। दोनों हाथ सटाकर उनसे अपना सिर न खुजलावे। बारंबार मस्तकपर पानी न डाले। इन सब बातोंके पालनसे मनुष्यकी आयु क्षीण नहीं होती है ।। ६८-६९ ।।

सिरके बाल पकड़कर खींचना और मस्तकपर प्रहार करना वर्जित है। दोनों हाथ सटाकर उनसे अपना सिर न खुजलावे। बारंबार मस्तकपर पानी न डाले। इन सब बातोंके पालनसे मनुष्यकी आयु क्षीण नहीं होती है ।। ६८-६९ ।।

सिरपर तेल लगानेके बाद उसी हाथसे दूसरे अंगोंका स्पर्श नहीं करना चाहिये और तिलके बने हुए पदार्थ नहीं खाने चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्यकी आयु क्षीण नहीं होती है || ७० |।

जूठे मुँह न पढ़ाये तथा उच्छिष्ट अवस्थामें स्वयं भी कभी स्वाध्याय न करे। यदि दुर्गन्धयुक्त वायु चले, तब तो मनसे स्वाध्यायका चिन्तन भी नहीं करना चाहिये || ७१ ।

प्राचीन इतिहासके जानकार लोग इस विषयमें यमराजकी गायी हुई गाथा सुनाया करते हैं। (यमराज कहते हैं--) “जो मनुष्य जूठे मुँह उठकर दौड़ता और स्वाध्याय करता है, मैं उसकी आयु नष्ट कर देता हूँ और उसकी संतानोंको भी उससे छीन लेता हूँ। जो द्विज मोहवश अनध्यायके समय भी अध्ययन करता है, उसके वैदिक ज्ञान और आयुका भी नाश हो जाता है।' अतः सावधान पुरुषको निषिद्ध समयमें कभी वेदोंका अध्ययन नहीं करना चाहिये || ७२--७४ ।।

जो सूर्य, अग्नि, गौ तथा ब्राह्मणोंकी ओर मुँह करके पेशाब करते हैं और जो बीच रास्तेमें मूतते हैं, वे सब गतायु हो जाते हैं || ७५ ।।

मल और मूत्र दोनोंका त्याग दिनमें उत्तराभिमुख होकर करे और रातमें दक्षिणाभिमुख। ऐसा करनेसे आयुका नाश नहीं होता ।। ७६ ।।

जिसे दीर्घ कालतक जीवित रहनेकी इच्छा हो, वह ब्राह्मण, क्षत्रिय और सर्प--इन तीनोंके दुर्बल होनेपर भी इनको न छेड़े; क्योंकि ये सभी बड़े जहरीले होते हैं ।।

क्रोधमें भरा हुआ साँप जहाँतक आँखोंसे देख पाता है, वहाँतक धावा करके काटता है। क्षत्रिय भी कुपित होनेपर अपनी शक्तिभर शत्रुको भस्म करनेकी चेष्टा करता है; परंतु ब्राह्मण जब कुपित होता है, तब वह अपनी दृष्टि और संकल्पसे अपमान करनेवाले पुरुषके सम्पूर्ण कुलको दग्ध कर डालता है; इसलिये समझदार मनुष्यको यत्नपूर्वक इन तीनोंकी सेवा करनी चाहिये || ७८-७९ ।।

गुरुके साथ कभी हठ नहीं ठानना चाहिये। युधिष्ठिर! यदि गुरु अप्रसन्न हों तो उन्हें हर तरहसे मान देकर मनाकर प्रसन्न करनेकी चेष्टा करनी चाहिये ।।

गुरु प्रतिकूल बर्ताव करते हों तो भी उनके प्रति अच्छा ही बर्ताव करना उचित है; क्योंकि गुरुनिन्दा मनुष्योंकी आयुको दग्ध कर देती है, इसमें संशय नहीं है ।। ८१ ।।

अपना हित चाहनेवाला मनुष्य घरसे दूर जाकर पेशाब करे, दूर ही पैर धोवे और दूरपर ही जूठे फेंके || ८२ ।।

प्रभो! विद्वान्‌ पुरुषको लाल फूलोंकी नहीं, श्वेत पुष्पोंकी माला धारण करनी चाहिये; परंतु कमल और कुवलयको छोड़कर ही यह नियम लागू होता है। अर्थात्‌ कमल और कुवलय लाल हों तो भी उन्हें धारण करनेमें कोई हर्ज नहीं है | ८३ ।।

लाल रंगके फूल तथा वन्य पुष्पको मस्तकपर धारण करना चाहिये। सोनेकी माला पहननेसे कभी अशुद्ध नहीं होती ।। ८४ ।।

प्रजानाथ! स्नानके पश्चात्‌ मनुष्यको अपने ललाटपर गीला चन्दन लगाना चाहिये। बुद्धिमान्‌ पुरुषको कपड़ोंमें कभी उलट-फेर नहीं करना चाहिये अर्थात्‌ उत्तरीय वस्त्रको अधोवस्त्रके स्थानमें और अधोवस्त्रको उत्तरीयके स्थानमें न पहने ।। ८५ ।।

नरश्रेष्ठ! दूसरेके पहने हुए कपड़े नहीं पहनने चाहिये। जिसकी कोर फट गयी हो, उसको भी नहीं धारण करना चाहिये। सोनेके लिये दूसरा वस्त्र होना चाहिये। सड़कोंपर घूमनेके लिये दूसरा और देवताओंकी पूजाके लिये दूसरा ही वस्त्र रखना चाहिये ।। ८६।।

बुद्धिमान्‌ पुरुष राई, चन्दन, बिल्व, तगर तथा केसरके द्वारा पृथक्‌ू-पृथक्‌ अपने शरीरमें उबटन लगावे ।।

मनुष्य सभी पर्वोके समय स्नान करके पवित्र हो वस्त्र एवं आभूषणोंसे विभूषित होकर उपवास करे तथा पर्वकालमें सदा ही ब्रह्मचर्यका पालन करे ।।

जनेश्वर! किसीके साथ एक पात्रमें भोजन न करे। जिसे रजस्वला स्त्रीने अपने स्पर्शसे दूषित कर दिया हो, ऐसे अन्नका भोजन न करे एवं जिसमेंसे सार निकाल लिया गया हो ऐसे पदार्थको कदापि भक्षण न करे तथा जो तरसती हुई दृष्टिसे अन्नकी ओर देख रहा हो, उसे दिये बिना भोजन न करे ।। ८९-९० ||

बुद्धिमान्‌ पुरुषको चाहिये कि वह किसी अपवित्र मनुष्यके निकट अथवा सत्पुरुषोंके सामने बैठकर भोजन न करे। धर्मशास्त्रोंमें जिनका निषेध किया गया हो, ऐसे भोजनको पीठ पीछे छिपाकर भी न खाय ।। ९१ ।।

अपना कल्याण चाहनेवाले श्रेष्ठ पुरुषको पीपल, बड़ और गूलरके फलका तथा सनके सागका सेवन नहीं करना चाहिये ।। ९२ ।।

विद्वान्‌ पुरुष हाथमें नमक लेकर न चाटे। रातमें दही और सत्तू न खाय। मांस अखाद्य वस्तु है, उसका सर्वथा त्याग कर दे || ९३ ।।

प्रतिदिन सबेरे और शामको ही एकाग्रचित्त होकर भोजन करे। बीचमें कुछ भी खाना उचित नहीं है। जिस भोजनमें बाल पड़ गया हो, उसे न खाय तथा शत्रुके श्राद्धमें कभी अन्न न ग्रहण करे ।। ९४ ।।

भोजनके समय मौन रहना चाहिये। एक ही वस्त्र धारण करके अथवा सोये-सोये कदापि भोजन न करे। भोजनके पदार्थको भूमिपर रखकर कदापि न खाय। खड़ा होकर या बातचीत करते हुए कभी भोजन नहीं करना चाहिये ।। ९५ ।।

प्रजानाथ! बुद्धिमान्‌ पुरुष पहले अतिथिको अन्न और जल देकर पीछे स्वयं एकाग्रचित्त हो भोजन करे ।।

नरेश्वर! एक पंक्तिमें बैठनेपर सबको एक समान भोजन करना चाहिये। जो अपने सुहृदजनोंको न देकर अकेला ही भोजन करता है, वह हालाहल विष ही खाता है ।। ९७ ।।

पानी, खीर, सत्तू, दही, घी और मधु--इन सबको छोड़कर अन्य भक्ष्य पदार्थोका अवशिष्ट भाग दूसरे किसीको नहीं देना चाहिये || ९८ ।।

पुरुषसिंह! भोजन करते समय भोजनके विषयमें शंका नहीं करनी चाहिये तथा अपना भला चाहनेवाले पुरुषको भोजनके अन्तमें दही नहीं पीना चाहिये || ९९ ।।

भोजन करनेके पश्चात्‌ कुल्ला करके मुँह धो ले और एक हाथसे दाहिने पैरके अँगूठेपर पानी डाले ।।

फिर प्रयोगकुशल मनुष्य एकाग्रचित्त हो अपने हाथको सिरपर रखे। उसके बाद अग्निका मनसे स्पर्श करे। ऐसा करनेसे वह कुटुम्बीजनोंमें श्रेष्ठता प्राप्त कर लेता है || १०१ |।

इसके बाद जलसे आँख, नाक आदि इन्द्रियों और नाभिका स्पर्श करके दोनों हाथोंकी हथेलियोंको धो डाले। धोनेके पश्चात्‌ गीले हाथ लेकर ही न बैठ जाय (उन्हें कपड़ोंसे पोंछकर सुखा दे) ।। १०२ ।।

अँगूठेका अन्तराल (मूलस्थान) ब्राह्मतीर्थ कहलाता है, कनिष्ठा आदि अँगुलियोंका पश्चादभाग (अग्रभाग) देवतीर्थ कहा जाता है ।। १०३ ।।

भारत! अंगुष्ठ और तर्जनीके मध्यभागको पितृतीर्थ कहते हैं। उसके द्वारा शास्त्रविधिसे जल लेकर सदा पितृकार्य करना चाहिये || १०४ ।।

अपनी भलाई चाहनेवाले पुरुषको दूसरोंकी निनन्‍्दा तथा अप्रिय वचन मुँहसे नहीं निकालने चाहिये और किसीको क्रोध भी नहीं दिलाना चाहिये || १०५ ।।

पतित मनुष्योंके साथ वार्तालापकी इच्छा न करे। उनका दर्शन भी त्याग दे और उनके सम्पर्कमें कभी न जाय। ऐसा करनेसे मनुष्य बड़ी आयु पाता है || १०६ ।।

दिनमें कभी मैथुन न करे। कुमारी कन्या और कुलटाके साथ कभी समागम न करे। अपनी पत्नी भी जबतक ऋतुस्नाता न हो तबतक उसके साथ समागम न करे। इससे मनुष्यको बड़ी आयु प्राप्त होती है ।।

कार्य उपस्थित होनेपर अपने-अपने तीर्थमें आचमन करके तीन बार जल पीये और दो बार ओठोंको पोंछ ले--ऐसा करनेसे मनुष्य शुद्ध हो जाता है ।। १०८ ।।

पहले नेत्र आदि इन्द्रियोंका एक बार स्पर्श करके तीन बार अपने ऊपर जल छिड़के इसके बाद वेदोक्त विधिके अनुसार देवयज्ञ और पितृयज्ञ करे || १०९ ।।

कुरुनन्दन! अब ब्राह्मणके लिये भोजनके आदि और अन्तमें जो पवित्र एवं हितकारक शुद्धिका विधान है, उसे बता रहा हूँ, सुनो || ११० ।।

ब्राह्मणको प्रत्येक शुद्धिके कार्यमें ब्राह्मतीर्थसी आचमन करना चाहिये। थूकने और छींकनेके बाद झलका स्पर्श (आचमन) करनेसे वह शुद्ध होता है ।।

बूढ़े कुटुम्बी, दरिद्र मित्र और कुलीन पण्डित यदि निर्धन हों तो उनकी यथाशक्ति रक्षा करनी चाहिये। उन्हें अपने घरपर ठहराना चाहिये। इससे धन और आयुकी वृद्धि होती है || ११२ ।।

परेवा, तोता और मैना आदि पक्षियोंका घरमें रहना अभ्युदयकारी एवं मंगलमय है। ये तैलपायिक पक्षियोंकी भाँति अमंगल करनेवाले नहीं होते। देवताकी प्रतिमा, दर्पण, चन्दन, फ़ूलकी लता, शुद्ध जल, सोना और चाँदी--इन सब वस्तुओंका घरमें रहना मंगल-कारक है ।। ११३ ।।

फ़ूलकी लता, शुद्ध जल, सोना और चाँदी--इन सब वस्तुओंका घरमें रहना मंगल-कारक है ।। ११३ ।।

उद्दीपक, गीध, कपोत (जंगली कबूतर) और भ्रमर नामक पक्षी यदि कभी घरमें आ जायँ तो सदा उसकी शान्ति ही करानी चाहिये; क्‍योंकि ये अमंगलकारी होते हैं। महात्माओंकी निन्‍्दा भी मनुष्यका अकल्याण करनेवाली है ।। ११४ ।।

महात्मा पुरुषोंके गुप्त कर्म कहीं किसीपर प्रकट नहीं करने चाहिये। परायी स्त्रियाँ सदा अगम्य होती हैं, उनके साथ कभी समागम न करे। राजाकी पत्नी और सखियोंके पास भी कभी न जाय ।। ११५ ||

राजेन्द्र युधिष्ठिर! वैद्यों, बालकों, वृद्धों, भृत्यों, बन्धुओं, ब्राह्मणों, शरणार्थियों तथा सम्बन्धियोंकी स्त्रियोंक पास कभी न जाय। ऐसा करनेसे दीर्घायु प्राप्त होती है ।। ११६½।।

मनुजेश्वर! अपनी उन्नति चाहनेवाले विद्वान्‌ पुरुषको उचित है कि ब्राह्मणके द्वारा वास्तुपूजनपूर्वक आरम्भ कराये और अच्छे कारीगरके द्वारा बनाये हुए घरमें सदा निवास करे || ११७६ ।।

राजन! बुद्धिमान्‌ पुरुष सायंकालमें गोधूलिकी वेलामें न तो सोये, न विद्या पढ़े और न भोजन ही करे। ऐसा करनेसे वह बड़ी आयुको प्राप्त होता है ।। ११८३ ।।

अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषको रातमें श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिये। भोजन करके केशोंका संस्कार (क्षौरकर्म) भी नहीं करना चाहिये तथा रातमें जलसे स्नान करना भी उचित नहीं है ।। ११९६ ।।

भरतनन्दन! रातमें सत्तू खाना सर्वथा वर्जित है। अन्न-भोजनके पश्चात्‌ जो पीनेयोग्य पदार्थ और जल शेष रह जाते हैं, उनका भी त्याग कर देना चाहिये ।।

रातमें न स्वयं डटकर भोजन करे और न दूसरेको ही डटकर भोजन करावे। भोजन करके दौड़े नहीं। ब्राह्मणोंका वध कभी न करे | १२१½।।

जो श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न हुई हो, उत्तम लक्षणोंसे प्रशंसित हो तथा विवाहके योग्य अवस्थाको प्राप्त हो गयी हो, ऐसी सुलक्षणा कन्याके साथ श्रेष्ठ बुद्धिमान्‌ पुरुष विवाह करे || १२२६ ।।

भारत! उसके गर्भसे संतान उत्पन्न करके वंश-परम्पराको प्रतिष्ठित करे और ज्ञान तथा कुलधर्मकी शिक्षा पानेके लिये पुत्रोंको गुरुके आश्रममें भेज दे ।।

भरतनन्दन! यदि कन्या उत्पन्न करे तो बुद्धिमान्‌ एवं कुलीन वरके साथ उसका ब्याह कर दे। पुत्रका विवाह भी उत्तम कुलकी कन्याके साथ करे और भृत्य भी उत्तम कुलके मनुष्योंको ही बनावे || १२४३ ।।

भारत! मस्तकपरसे स्नान करके देवकार्य तथा पितृकार्य करे। जिस नक्षत्रमें अपना जन्म हुआ हो उसमें एवं पूर्वा और उत्तरा दोनों भाद्रपदाओंमें तथा कृत्तिका नक्षत्रमें भी श्राद्धका निषेध है || १२५-१२६ ।।

(आश्लेषा, आर्द्रा, ज्येष्ठा और मूल आदि) सम्पूर्ण दारुण नक्षत्रों और प्रत्यरिताराकाभी परित्याग कर देना चाहिये। सारांश यह है कि ज्योतिष-शास्त्रके भीतर जिन-जिन नक्षत्रोंमें श्राद्धछक्ा निषेध किया गया है, उन सबमें देवकार्य और पितृकार्य नहीं करना चाहिये ।। १२७ ।।

राजेन्द्र! मनुष्य एकाग्रचित्त होकर पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके हजामत बनवाये, ऐसा करनेसे बड़ी आयु प्राप्त होती है ।। १२८ ।।

भरतश्रेष्ठ! सत्पुरुषों, गुरुजनों, वृद्धों और विशेषतः कुलांगनाओंकी, दूसरे लोगोंकी और अपनी भी निन्दा न करे; क्योंकि निन्‍दा करना अधर्मका हेतु बताया गया है || १२९ ।।

नरश्रेष्ठी जो कन्या किसी अंगसे हीन हो अथवा जो अधिक अंगवाली हो, जिसके गोत्र और प्रवर अपने ही समान हो तथा जो माताके कुलमें (नानाके वंशमें) उत्पन्न हुई हो, उसके साथ विवाह नहीं करना चाहिये ।। १३० ।।

जो बूढ़ी, संन्यासिनी, पतिव्रता, नीच वर्णकी तथा ऊँचे वर्णकी स्त्री हो, उसके सम्पर्कसे दूर रहना चाहिये ।।

जिसकी योनि अर्थात्‌ कुलका पता न हो तथा जो नीच कुलमें पैदा हुई हो, उसके साथ विद्वान्‌ पुरुष समागम न करे। युधिष्ठिर! जिसके शरीरका रंग पीला हो तथा जो कुष्ठ रोगवाली हो, उसके साथ तुम्हें विवाह नहीं करना चाहिये ।। १३२ ।।

नरेश्वर! जो मृगीरोगसे दूषित कुलमें उत्पन्न हुई हो, नीच हो, सफेद कोढ़वाले और राजयक्ष्माके रोगी मनुष्यके कुलमें पैदा हुई हो, उसको भी त्याग देना चाहिये || १३३ ।।

जो उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न, श्रेष्ठ आचरणोंद्वारा प्रशंसित, मनोहारिणी तथा दर्शनीय हो, उसीके साथ तुम्हें विवाह करना चाहिये ।। १३४ ।।

युधिष्ठि! अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषको अपनी अपेक्षा महान्‌ या समान कुलमें विवाह करना चाहिये। नीच जातिवाली तथा पतिता कन्याका पाणिग्रहण कदापि नहीं करना चाहिये ।। १३५ ।।

(अरणी-मन्थनद्वारा) अग्निका उत्पादन एवं स्थापन करके ब्राह्मणोंद्वारा बतायी हुई सम्पूर्ण वेदविहित क्रियाओंका यत्नपूर्वक अनुष्ठान करना चाहिये ।। १३६ ।।

सभी उपायोंसे अपनी स्त्रीकी रक्षा करनी चाहिये। स्त्रियोंसे ईर्ष्या रखना उचित नहीं है। ईर्ष्या करनेसे आयु क्षीण होती है। इसलिये उसे त्याग देना ही उचित है || १३७ ।।

दिनमें एवं सूर्योदयके पश्चात्‌ शयन आयुको क्षीण करनेवाला है। प्रातःकाल एवं रात्रिके आरम्भमें नहीं सोना चाहिये। अच्छे लोग रातमें अपवित्र होकर नहीं सोते हैं || १३८ ।।

परस्त्रीसे व्यभिचार करना और हजामत बनवाकर बिना नहाये रह जाना भी आयुका नाश करनेवाला है। भारत! अपवित्रावस्थामें वेदोंका अध्ययन यत्नपूर्वक त्याग देना चाहिये ।। १३९ |।

संध्याकालमें स्नान, भोजन और स्वाध्याय कुछ भी न करे। उस बेलामें शुद्ध चित्त होकर ध्यान एवं उपासना करनी चाहिये। दूसरा कोई कार्य नहीं करना चाहिये ।। १४० ।।

नरेश्वर! ब्राह्मणोंकी पूजा, देवताओंको नमस्कार और गुरुजनोंको प्रणाम स्नानके बाद ही करने चाहिये ।।

बिना बुलाये कहीं भी न जाय, परंतु यज्ञ देखनेके लिये मनुष्य बिना बुलाये भी जा सकता है। भारत! जहाँ अपना आदर न होता हो, वहाँ जानेसे आयुका नाश होता है || १४२ ।।

अकेले परदेश जाना और रातमें यात्रा करना मना है। यदि किसी कामके लिये बाहर जाय तो संध्या होनेके पहले ही घर लौट आना चाहिये ।। १४३ ।।

नरश्रेष्ठ! माता-पिता और गुरुजनोंकी आज्ञाका अविलम्ब पालन करना चाहिये। इनकी आज्ञा हितकर है या अहितकर, इसका विचार नहीं करना चाहिये ।।

नरेश्वर! क्षत्रियको धनुर्वेद और वेदाध्ययनके लिये यत्न करना चाहिये। राजेन्द्र! तुम हाथी-घोड़ेकी सवारी और रथ हाँकनेकी कलामें निपुणता प्राप्त करनेके लिये प्रयत्नशील बनो, क्‍योंकि यत्न करनेवाला पुरुष सुखपूर्वक उन्नतिशील होता है। वह शत्रुओं, स्वजनों और भृत्योंके लिये दुर्धर्ष हो जाता है ।। १४५-१४६ ।।

जो राजा सदा प्रजाके पालनमें तत्पर रहता है, उसे कभी हानि नहीं उठानी पड़ती। भरतनन्दन! तुम्हें तर्कशास्त्र और शब्दशास्त्र दोनोंका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये ।। १४७ ।

नरेश्वर! गान्धर्वशास्त्र (संगीत) और समस्त कलाओंका ज्ञान प्राप्त करना भी तुम्हारे लिये आवश्यक है। तुम्हें प्रतेदिन पुराण, इतिहास, उपाख्यान तथा महात्माओंके चरित्रका श्रवण करना चाहिये ।। १४८ $ ।।

राजा माननीय पुरुषोंका सम्मान और निन्दनीय मनुष्योंकी निनन्‍दा करे। वह गौओं तथा ब्राह्मणोंके लिये युद्ध करे। उनकी रक्षाके लिये आवश्यकता हो तो प्राणोंको भी निछावर कर दें।।

अपनी पत्नी भी रजस्वला हो तो उसके पास न जाय और न उसे ही अपने पास बुलाये। जब चौथे दिन वह स्नान कर ले, तब रातमें बुद्धिमान्‌ पुरुष उसके पास जाय। पाँचवें दिन गर्भाधान करनेसे कन्याकी उत्पत्ति होती है और छठे दिन पुत्रकी अर्थात्‌ समरात्रिमें गर्भाधानसे पुत्रका और विषमरात्रिमें गर्भाधान होनेसे कन्‍्याका जन्म होता है ।। १४९-१५० |।

इसी विधिसे विद्वान्‌ पुरुष पत्नीके साथ समागम करे। भाई-बन्धु, सम्बन्धी और मित्र --इन सबका सब प्रकारसे आदर करना चाहिये ।। १५१ ।।

अपनी शक्तिके अनुसार भाँति-भाँतिकी दक्षिणावाले यज्ञोंका अनुष्ठान करना चाहिये। नरेश्वर! तदनन्तर गार्हस्थ्यकी अवधि समाप्त हो जानेपर वानप्रस्थके नियमोंका पालन करते हुए वनमें निवास करना चाहिये ।। १५२ ।।

युधिष्ठिर! इस प्रकार मैंने तुमसे आयुकी वृद्धि करनेवाले नियमोंका संक्षेपसे वर्णन किया है। जो नियम बाकी रह गये हैं, उन्हें तुम तीनों वेदोंके ज्ञानमें बढ़े-चढ़े ब्राह्मणोंसे पूछकर जान लेना ।। १५३ ।।

सदाचार ही कल्याणका जनक और सदाचार ही कीर्तिको बढ़ानेवाला है। सदाचारसे आयुकी वृद्धि होती है और सदाचार ही बुरे लक्षणोंका नाश करता है ।। १५४ ।।

सम्पूर्ण आगमोंमें सदाचार ही श्रेष्ठ बतलाया जाता है। सदाचारसे धर्मकी उत्पत्ति होती है और धर्मसे आयु बढ़ती है ।। १५५ ।।

पूर्वकालमें सब वर्णोके लोगोंपर दया करके ब्रह्माजीने यह सदाचार धर्मका उपदेश दिया था। यह यश, आयु और स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला तथा कल्याणका परम आधार है ।। १५६ ||

नरेश्वर! जो प्रतिदिन इस प्रसंगको सुनता और कहता है, वह सदाचार-व्रतके प्रभावसे शुभ लोकोंमें जाता है ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें आयु बढ़ानेवाले साधनोंका वर्णनविषयक एक सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ९½ श्लोक मिलाकर कुल १६५½ श्लोक हैं)

टिका टिप्पणी - 

  • अपने जन्मनक्षत्रसे वर्तमान नक्षत्रतक गिने, गिननेपर जितनी संख्या हो उसमें नौका भाग दे। यदि पाँच शेष रहे तो उस दिनके नक्षत्रको प्रत्यरि तारा समझे।

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

एक सौ पाँचवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) एक सौ पाँचवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद) 

“बड़े और छोटे भाईके पारस्परिक बर्ताव तथा माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनोंके गौरवका वर्णन”

युधिष्ठिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ! बड़ा भाई अपने छोटे भाइयोंके साथ कैसा बर्ताव करे? और छोटे भाइयोंका बड़े भाईके साथ कैसा बर्ताव होना चाहिये? यह मुझे बताइये ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--तात भरतनन्दन! तुम अपने भाइयोंमें सबसे बड़े हो; अतः सदा बड़ेके अनुरूप ही बर्ताव करो। गुरुको अपने शिष्यके प्रति जैसा गौरवयुक्त बर्ताव होता है, वैसा ही तुम्हें भी अपने भाइयोंके साथ करना चाहिये ।। २ ।।

यदि गुरु अथवा बड़े भाईका विचार शुद्ध न हो तो शिष्य या छोटे भाई उसकी आज्ञाके अधीन नहीं रह सकते। भारत! बड़ेके दीर्घदर्शी होनेपर छोटे भाई भी दीर्घदर्शी होते हैं ।। ३ ।।

बड़े भाईको चाहिये कि वह अवसरके अनुसार अन्ध, जड़ और दिद्वान्‌ बने अर्थात्‌ यदि छोटे भाइयोंसे कोई अपराध हो जाय तो उसे देखते हुए भी न देखे। जानकर भी अनजान बना रहे और उनसे ऐसी बात करे, जिससे उनकी अपराध करनेकी प्रवृत्ति दूर हो जाय ।। ४ ||

यदि बड़ा भाई प्रत्यक्षरूपसे अपराधका दण्ड देता है तो उसके छोटे भाइयोंका हृदय छिन्न-भिन्न हो जाता है और वे उस दुर्व्यवहारका लोगोंमें प्रचार कर देते हैं, तब उनके ऐश्वर्यको देखकर जलनेवाले कितने ही शत्रु उनमें मतभेद पैदा करनेकी इच्छा करने लगते हैं ।। ५ |।

जेठा भाई अपनी अच्छी नीतिसे कुलको उन्नतिशील बनाता है; किंतु यदि वह कुनीतिका आश्रय लेता है तो उसे विनाशके गर्तमें डाल देता है! जहाँ बड़े भाईका विचार खोटा हुआ, वहाँ वह जिसमें उत्पन्न हुआ है, अपने उस समस्त कुलको ही चौपट कर देता है ।। ६ |।

जो बड़ा भाई होकर छोटे भाइयोंके साथ कुटिलतापूर्ण बर्ताव करता है, वह न तो ज्येष्ठ कहलाने योग्य है और न ज्येष्ठांश पानेका ही अधिकारी है। उसे तो राजाओंके द्वारा दण्ड मिलना चाहिये ।। ७ ।।

कपट करनेवाला मनुष्य नि:संदेह पापमय लोकों (नरक)-में जाता है। उसका जन्म पिताके लिये बेतके फूलकी भाँति निरर्थक ही माना गया है ।। ८ ।।

जिस कुलमें पापी पुरुष जन्म लेता है, उसके लिये वह सम्पूर्ण अनर्थोका कारण बन जाता है। पापात्मा मनुष्य कुलमें कलंक लगाता और उसके सुयशका नाश करता है।। ९।।

यदि छोटे भाई भी पापकर्ममें लगे रहते हों तो वे पैतृक धनका भाग पानेके अधिकारी नहीं हैं। छोटे भाइयोंको उनका उचित भाग दिये बिना बड़े भाईको पैतृक-सम्पत्तिका भाग ग्रहण नहीं करना चाहिये ।। १० ।।

यदि बड़ा भाई पैतृक धनको हानि पहुँचाये बिना ही केवल जाँघोंके परिश्रमसे परदेशमें जाकर धन पैदा करे तो वह उसके निजी परिश्रमकी कमाई है। अतः यदि उसकी इच्छा न हो तो वह उस धनमेंसे भाइयोंको नहीं दे सकता है ।। ११ ।।

यदि भाइयोंके हिस्सेका बटवारा न हुआ हो और सबने साथ-ही-साथ व्यापार आदिके द्वारा धनकी उन्नति की हो, उस अवस्थामें यदि पिताके जीते-जी सब अलग होना चाहें तो पिताको उचित है कि वह कभी किसीको कम और किसीको अधिक धन न दे अर्थात्‌ वह सब पुत्रोंको बराबर-बराबर हिस्सा दे || १२ ।।

बड़ा भाई अच्छा काम करनेवाला हो या बुरा, छोटेको उसका अपमान नहीं करना चाहिये। इसी तरह यदि स्त्री अथवा छोटे भाई बुरे रास्तेपर चल रहे हों तो श्रेष्ठ पुरुषको जिस तरहसे भी उनकी भलाई हो, वही उपाय करना चाहिये। धर्मज्ञ पुरुषोंका कहना है कि धर्म ही कल्याणका सर्वश्रेष्ठ साधन है ।। १३६ ।।

गौरवमें दस आचार्योंसे बढ़कर उपाध्याय, दस उपाध्यायोंसे बढ़कर पिता और दस पिताओंसे बढ़कर माता है। माता अपने गौरवसे समूची पृथ्वीको भी तिरस्कृत कर देती है। अतः माताके समान दूसरा कोई गुरु नहीं है ।। १४-१५ ।।

भरतनन्दन! माताका गौरव सबसे बढ़कर है, इसलिये लोग उसका विशेष आदर करते हैं। भारत! पिताकी मृत्यु हो जानेपर बड़े भाईको ही पिताके समान समझना चाहिये ।। १६ ।।

बड़े भाईको उचित है कि वह अपने छोटे भाइयोंको जीविका प्रदान करे तथा उनका पालन-पोषण करे। छोटे भाइयोंका भी कर्तव्य है कि वे सब-के-सब बड़े भाईके सामने नतमस्तक हों और उसकी इच्छाके अनुसार चलें। बड़े भाईको ही पिता मानकर उनके आश्रयमें जीवन व्यतीत करें ।। १७३ ।।

भारत! पिता और माता केवल शरीरकी सृष्टि करते हैं, किंतु आचार्यके उपदेशसे जो ज्ञानरूप नवीन जीवन प्राप्त होता है, वह सत्य, अजर और अमर है ।।

भरतश्रेष्ठ! बड़ी बहिन भी माताके समान है। इसी तरह बड़े भाईकी पत्नी तथा बचपनमें जिसका दूध पिया गया हो, वह धाय भी माताके समान है ।।२०।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें बड़े और छोटे भाईका पारस्परिक बरतावनामक एक सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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