सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
इक्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) इक्यासीवें अध्याय के श्लोक 1-47 का हिन्दी अनुवाद)
“गौओंका माहात्म्य तथा व्यासजीके द्वारा शुकदेवसे गौओंकी, गोलोककी और गोदानकी महत्ताका वर्णन”
युधिष्ठिरने कहा--पितामह! संसारमें जो वस्तु पवित्रोंमें भी पवित्र तथा लोकमें पवित्र कहकर अनुमोदित एवं परम पावन हो, उसका मुझसे वर्णन कीजिये ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन! गौएँ महान प्रयोजन सिद्ध करनेवाली तथा परम पवित्र हैं। ये मनुष्योंको तारनेवाली हैं और अपने दूध-घीसे प्रजावर्गके जीवनकी रक्षा करती हैं ।। २ ।।
भरतश्रेष्ठ) गौओंसे बढ़कर परम पवित्र दूसरी कोई वस्तु नहीं है। ये पुण्यजनक, पवित्र तथा तीनों लोकोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं ।। ३ ।।
गौएँ देवताओंसे भी ऊपरके लोकोंमें निवास करती हैं। जो मनीषी पुरुष इनका दान करते हैं, वे अपने आपको तारते हैं और स्वर्गमें जाते हैं ।। ४ ।।
युवनाश्वके पुत्र राजा मान्धाता, (सोमवंशी) नहुष और ययाति--ये सदा लाखों गौओंका दान किया करते थे; इससे वे उन उत्तम स्थानोंको प्राप्त हुए हैं, जो देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ हैं ।। ५३ ।।
निष्पाप नरेश! इस विषयमें मैं तुम्हें एक पुराना वृत्तान्त सुना रहा हूँ। एक समयकी बात है, परम बुद्धिमान् शुकदेवजीने नित्यकर्मका अनुष्ठान करके पवित्र एवं शुद्धचित्त होकर अपने पिता--ऋषियोंमें उत्तम श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासको, जो लोकके भूत और भविष्यको प्रत्यक्ष देखनेवाले हैं, प्रणाम करके पूछा--'पिताजी! सम्पूर्ण यज्ञोंमें कौन-सा यज्ञ सबसे श्रेष्ठ देखा जाता है? || ६--८ ।।
'प्रभो! मनीषी पुरुष कौन-सा कर्म करके उत्तम स्थानको प्राप्त होते हैं तथा किस पवित्र कार्यके द्वारा देवता स्वर्गलोकका उपभोग करते हैं? ।। ९ ।।
“यज्ञका यज्ञत्व कया है? यज्ञ किसमें प्रतिष्ठित है? देवताओंके लिये कौन-सी वस्तु उत्तम है? इससे श्रेष्ठ यज्ञ क्या है? ।। १० ।।
“पिताजी! पवित्रोंमें पवित्र वस्तु क्या है? इन सारी बातोंका मुझसे वर्णन कीजिये।” भरतश्रेष्ठ! पुत्र शुकदेवका यह वचन सुनकर परम धर्मज्ञ व्यासने उससे सब बातें ठीक-ठीक बतायीं || ११ ।।
व्यासजी बोले--बेटा! गौएँ सम्पूर्ण भूतोंकी प्रतिष्ठा हैं। गौएँ परम आश्रय हैं। गौएँ पुण्यमयी एवं पवित्र होती हैं तथा गोधन सबको पवित्र करनेवाला है ।।
हमने सुना है कि गौएँ पहले बिना सींगकी ही थीं। उन्होंने सींगके लिये अविनाशी भगवान् ब्रह्माकी उपासना की ।। १३ |।
भगवान् ब्रह्माजीने गौओंको प्रायोपवेशन (आमरण उपवास) करते देख उन गौओंमेंसे प्रत्येकको उनकी अभीष्ट वस्तु दी || १४ ।।
बेटा! वरदान मिलनेके पश्चात् गौओंके सींग प्रकट हो गये। जिसके मनमें जैसे सींगकी इच्छा थी, उसके वैसे ही हो गये। नाना प्रकारके रूप-रंग और सींगसे युक्त हुई उन गौओंकी बड़ी शोभा होने लगी ।।
ब्रह्माजीका वरदान पाकर गौएँ मंगलमयी, हव्य-कव्य प्रदान करनेवाली, पुण्यजनक, पवित्र, सौभाग्यवती तथा दिव्य अंगों एवं लक्षणोंसे सम्पन्न हुईं || १६ ।।
गौएँ दिव्य एवं महान् तेज हैं। उनके दानकी प्रशंसा की जाती है। जो सत्पुरुष मात्सर्यका त्याग करके गौओंका दान करते हैं, वे पुण्यात्मा कहे गये हैं। वे सम्पूर्ण दानोंके दाता माने गये हैं। निष्पाप शुकदेव! उन्हें पुण्यमय गोलोककी प्राप्ति होती है । १७-१८ ।।
द्विजश्रेष्ठ! गोलोकके सभी वृक्ष मधुर एवं सुस्वादु फल देनेवाले हैं। वे दिव्य फलफूलोंसे सम्पन्न होते हैं। उन वृक्षोंके पुष्प दिव्य एवं मनोहर गन्धसे युक्त होते हैं |। १९ ।।
वहाँकी भूमि मणिमयी है। वहाँकी बालुका कांचनचूर्णरूप है। उस भूमिका स्पर्श सभी ऋतुओंमें सुखद होता है। वहाँ धूल और कीचड़का नाम भी नहीं है। वह भूमि सर्वथा मंगलमयी है ।। २० ।।
वहाँके जलाशय लाल कमलवनोंसे तथा प्रातः-कालीन सूर्यके समान प्रकाशमान मणिजटित सुवर्णमय सोपानोंसे सुशोभित होते हैं || २१ ।।
वहाँकी भूमि कितने ही सरोवरोंसे शोभा पाती है। उन सरोवरोंमें नीलोत्पलमिश्रित बहुत-से कमल खिले रहते हैं। उन कमलोंके दल बहुमूल्य मणिमय होते हैं और उनके केसर अपनी स्वर्णमयी प्रभासे प्रकाशित होते हैं || २२ ।।
उस लोकमें बहुत-सी नदियाँ हैं, जिनके तटोंपर खिले हुए कनेरोंके वन तथा विकसितसंतानक (कल्पवृक्ष-विशेष) के वन एवं अन्यान्य वृक्ष उनकी शोभा बढ़ाते हैं। वे वृक्ष और वन अपने मूल भागमें सहस्रों आवर्तोंसे घिरे हुए हैं || २३ ।।
उन नदियोंके तटोंपर निर्मल मोती, अत्यन्त प्रकाशमान मणिरत्न तथा सुवर्ण प्रकट होते हैं | २४ ।।
कितने ही उत्तम वृक्ष अपने मूलभागके द्वारा उन नदियोंके जलमें प्रविष्ट दिखायी देते हैं। वे सर्वरत्नमय विचित्र देखे जाते हैं। कितने ही सुवर्णमय होते हैं और दूसरे बहुत-से वृक्ष प्रज्ज्वलित अग्निके समान प्रकाशित होते हैं || २५ ।।
वहाँ सोनेके पर्वत तथा मणि और रत्नोंके शैलसमूह हैं, जो अपने मनोहर, ऊँचे तथा सर्वरत्नमय शिखरोंसे सुशोभित होते हैं || २६ ।।
भरतश्रेष्ठ! वहाँके वृक्षोंमें सदा ही फ़ूल और फल लगे रहते हैं। वे वृक्ष पक्षियोंसे भरे होते हैं तथा उनके फूलों और फलोंमें दिव्य सुगन्ध और दिव्य रस होते हैं ।।
युधिष्ठिर! वहाँ पुण्यात्मा पुरुष ही सदा निवास करते हैं। गोलोकवासी शोक और क्रोधसे रहित, पूर्णकाम एवं सफलमनोरथ होते हैं || २८ ।।
भरतनन्दन! वहाँके यशस्वी एवं पुण्यकर्मा मनुष्य विचित्र एवं रमणीय विमानोंमें बैठकर यथेष्ट विहार करते हुए आनन्दका अनुभव करते हैं ।। २९ ।।
राजन्! उनके साथ सुन्दरी अप्सराएँ क्रीड़ा करती हैं। युधिष्ठिर! गोदान करके मनुष्य इन्हीं लोकोंमें जाते हैं || ३० ।।
नरेन्द्र! शक्तिशाली सूर्य और बलवान् वायु जिन लोकोंके अधिपति हैं, एवं राजा वरुण जिन लोकोंके ऐश्वर्यपर प्रतिष्ठित हैं, मनुष्य गोदान करके उन्हीं लोकोंमें जाता है। गौएँ युगन्धरा, सुरूपा, बहुरूपा, विश्वरूपा तथा सबकी माताएँ हैं। शुकदेव! मनुष्य संयमनियमके साथ रहकर गौओंके इन प्रजापतिकथित नामोंका प्रतिदिन जप करे ।। ३१-३२ ।।
जो पुरुष गौओंकी सेवा और सब प्रकारसे उनका अनुगमन करता है, उसपर संतुष्ट होकर गौएँ उसे अत्यन्त दुर्लभ वर प्रदान करती हैं || ३३ ।।
गौओंके साथ मनसे भी कभी द्रोह न करे, उन्हें सदा सुख पहुँचाये, उनका यथोचित सत्कार करे और नमस्कार आदिके द्वारा उनका पूजन करता रहे ।। ३४ ।।
जो मनुष्य जितेन्द्रिय और प्रसन्नचित्त होकर नित्य गौओंकी सेवा करता है, वह समृद्धिका भागी होता है। मनुष्य तीन दिनोंतक गरम गोमूत्र पीकर रहे, फिर तीन दिनतक गरम गोदुग्ध पीकर रहे ।। ३५ ।।
गरम गोदुग्ध पीनेके पश्चात् तीन दिनोंतक गरम-गरम गोघृत पीये। तीन दिनतक गरम घी पीकर फिर तीन दिनोंतक वह वायु पीकर रहे ।। ३६ ।।
देवगण भी जिस पवित्र घृतके प्रभावसे उत्तम-उत्तम लोकका पालन करते हैं तथा जो पवित्र वस्तुओंमें सबसे बढ़कर पवित्र है, उससे घृतको शिरोधार्य करे ।। ३७ ।।
गायके घीके द्वारा अग्निमें आहुति दे। घृतकी दक्षिणा देकर ब्राह्मणोंद्वारा स्वस्तिवाचन कराये। घृत भोजन करे तथा गोघृतका ही दान करे। ऐसा करनेसे मनुष्य गौओंकी समृद्धि एवं अपनी पुष्टिका अनुभव करता है ।। ३८ ।।
गौओंके गोबरसे निकाले हुए जौकी लप्सीका एक मासतक भक्षण करे। इससे मनुष्य ब्रह्महत्या-जैसे पापसे भी छुटकारा पा जाता है ।। ३९ ।।
जब दैत्योंने देवताओंको पराजित कर दिया, तब देवताओंने इसी प्रायश्चित्तका अनुष्ठान किया। इससे उन्हें पुनः (नष्ट हुए) देवत्वकी प्राप्ति हुई तथा वे महाबलवान् और परम सिद्ध हो गये ।। ४० ।।
गौएँ परम पावन, पवित्र और पुण्यस्वरूपा हैं। वे महान् देवता हैं। उन्हें ब्राह्मणोंको देकर मनुष्य स्वर्गका सुख भोगता है || ४१ ।।
पवित्र जलसे आचमन करके पवित्र होकर गौओंके बीचमें गोमतीमन्त्र (गोमाँ अग्नेविमाँ अश्वि इत्यादि) का मन-ही-मन जप करे। ऐसा करनेसे वह अत्यन्त शुद्ध एवं निर्मल (पापमुक्त) हो जाता है || ४२ ।।
विद्या और वेददव्रतमें निष्णात पुण्यात्मा ब्राह्मणोंको चाहिये कि वे अग्नियों और गौओंके बीचमें तथा ब्राह्मणोंकी सभामें शिष्योंको यज्ञतुल्य गोमतीविद्याकी शिक्षा दें। जो तीन राततक उपवास करके गोमती-मन्त्रका जप करता है, उसे गौओंका वरदान प्राप्त होता है || ४३-४४ ।।
पुत्रकी इच्छावाला पुत्र और धन चाहनेवाला धन पाता है। पतिकी इच्छा रखनेवाली सत्रीको मनके अनुकूल पति मिलता है। सारांश यह है कि गौओंकी आराधना करके मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। गौएँ मनुष्योंद्वारा सेवित और संतुष्ट होकर उन्हें सब कुछ देती हैं, इसमें संशय नहीं है | ४५ ।।
इस प्रकार ये महाभाग्यशालिनी गौएँ यज्ञका प्रधान अंग हैं और सबको सम्पूर्ण कामनाएँ देनेवाली हैं। तुम इन्हें रोहिणी समझो। इनसे बढ़कर दूसरा कुछ नहीं है ।। ४६ ।।
युधिष्ठिर! अपने महात्मा पिता व्यासजीके ऐसा कहनेपर महातेजस्वी शुकदेवजी प्रतिदिन गौकी सेवा-पूजा करने लगे; इसलिये तुम भी गौओंकी सेवा-पूजा करो || ४७ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गोदानविषयक इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
बयासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) बयासीवें अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)
“लक्ष्मी और गौओंका संवाद तथा लक्ष्मीकी प्रार्थनापर गौओंके द्वारा गोबर और गोमूत्रमें लक्ष्मीको निवासके लिये स्थान दिया जाना”
युधिष्ठिरने कहा--पितामह! मैंने सुना है कि गौओंके गोबरमें लक्ष्मीका निवास है; किंतु इस विषयमें मुझे संदेह है; अतः इसके सम्बन्धमें मैं यथार्थ बात सुनना चाहता हूँ ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--भरतश्रेष्ठ! नरेश्वर! इस विषयमें विज्ञ पुरुष गौ और लक्ष्मीके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। २ ।।
एक समयकी बात है, लक्ष्मीने मनोहर रूप धारण करके गौओंके झुंडमें प्रवेश किया। उनके रूप-वैभवको देखकर गौएँ आश्षर्यचकित हो उठीं ।। ३ ॥।
गौओंने पूछा--देवि! तुम कौन हो और कहाँसे आयी हो? इस पृथ्वीपर तुम्हारे रूपकी कहीं तुलना नहीं है। महाभागे! तुम्हारी इस रूप-सम्पत्तिसे हमलोग बड़े आश्वर्यमें पड़ गये हैं ।। ४ ।।
इसलिये हम तुम्हारा परिचय जानना चाहती हैं। तुम कौन हो और कहाँ जाओगी? वरवर्णिनि! ये सारी बातें हमें ठीक-ठीक बताओ ।। ५ ।।
लक्ष्मी बोलीं--गौओ! तुम्हारा कल्याण हो। मैं इस जगतमें लक्ष्मी नामसे प्रसिद्ध हूँ। सारा जगत् मेरी कामना करता है। मैंने दैत्योंको छोड़ दिया, इसलिये वे सदाके लिये नष्ट हो गये हैं ।। ६ ।।
मेरे ही आश्रयमें रहनेके कारण इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, विष्णु, जलके अधिष्ठाता देवता वरुण और अग्नि आदि देवता सदा आनन्द भोग रहे हैं ।। ७ ।।
देवताओं तथा ऋषियोंको मुझसे अनुगृहीत होनेपर ही सिद्धि मिलती है। गौओ! जिनके शरीरमें मैं प्रवेश नहीं करती, वे सर्वथा नष्ट हो जाते हैं ।। ८ ।।
धर्म, अर्थ और काम मेरा सहयोग पाकर ही सुखद होते हैं; अतः सुखदायिनी गौओ! मुझे ऐसे ही प्रभावसे सम्पन्न समझो ।। ९ |।
मैं तुम सब लोगोंके भीतर भी सदा निवास करना चाहती हूँ और इसके लिये स्वयं ही तुम्हारे पास आकर प्रार्थना करती हूँ। तुमलोग मेरा आश्रय पाकर श्रीसम्पन्न हो जाओ ।। १० ||
गौओंने कहा--देवि! तुम चंचला हो। कहीं भी स्थिर होकर नहीं रहती। इसके सिवा तुम्हारा बहुतोंके साथ एक-सा सम्बन्ध है; इसलिये हम तुम्हें नहीं चाहती हैं। तुम्हारा कल्याण हो। तुम जहाँ आनन्दपूर्वक रह सको, जाओ || ११ ।।
हमारा शरीर तो यों ही हृष्ट-पुष्ट और सुन्दर है। हमें तुमसे क्या काम? तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चली जाओ। तुमने दर्शन दिया, इतनेहीसे हम कृतार्थ हो गयीं ।। १२ ।।
लक्ष्मीजीने कहा--गौओ! यह क्या बात है? क्या यही तुम्हारे लिये उचित है कि तुम मेरा अभिनन्दन नहीं करती? मैं सती-साध्वी हूँ, दुर्लभ हूँ। फिर भी इस समय तुम मुझे स्वीकार क्यों नहीं करती? ।। १३
उत्तम व्रतका पालन करनेवाली गौओ! लोकमें जो यह प्रवाद चल रहा है कि “बिना बुलाये स्वयं किसीके यहाँ जानेपर निश्चय ही अनादर होता है।” यह ठीक ही जान पड़ता है || १४ ।।
देवता, दानव, गन्धर्व, पिशाच, नाग, राक्षस और मनुष्य बड़ी उग्र तपस्या करके मेरी सेवाका सौभाग्य प्राप्त करते हैं ।। १५ ।।
सौम्य स्वभाववाली गौओ! यह तुम्हारा प्रभाव है कि मैं स्वयं तुम्हारे पास आयी हूँ। अतः तुम मुझे यहाँ ग्रहण करो। चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकीमें कहीं भी मैं अपमान पानेके योग्य नहीं हूँ ।। १६ ।।
गौओंने कहा--देवि! हम तुम्हारा अपमान या अनादर नहीं करतीं। केवल तुम्हारा त्याग कर रही हैं। वह भी इसलिये कि तुम्हारा चित्त चंचल है। तुम कहीं भी स्थिर होकर नहीं रहती || १७ ।।
इस विषयमें बहुत बात करनेसे क्या लाभ? तुम जहाँ जाना चाहो--चली जाओ। अनघे! हम सब लोगोंका शरीर तो यों ही हृष्ट-पुष्ट और सुन्दर है; अतः तुमसे हमें क्या काम है? ।। १८ ।।
लक्ष्मीने कहा--दूसरोंको सम्मान देनेवाली गौओ! तुम्हारे त्याग देनेसे मैं सम्पूर्ण जगत्के लिये अवहेलित और उपेक्षित हो जाऊँगी, इसलिये मुझपर कृपा करो ।। १९ ।।
तुम महान् सौभाग्यशालिनी और सबको शरण देनेवाली हो। मैं भी तुम्हारी शरणमें आयी हूँ। तुम्हारी भक्त हूँ। मुझमें कोई दोष भी नहीं है; अतः तुम मेरी रक्षा करो--मुझे अपना लो ॥। २० ||
गौओ! मैं तुमसे सम्मान चाहती हूँ। तुम सदा सबका कल्याण करनेवाली हो। तुम्हारे किसी एक अंगमें, नीचेके कुत्सित अंगमें भी यदि स्थान मिल जाय तो मैं उसमें रहना चाहती हूँ || २१ ।।
निष्पाप गौओ! वास्तवमें तुम्हारे अंगोंमें कहीं कोई कुत्सित स्थान नहीं दिखायी देता। तुम परम पुण्यमयी, पवित्र और सौभाग्यशालिनी हो। अतः मुझे आज्ञा दो। तुम्हारे शरीरमें जहाँ मैं रह सकूँ, उसके लिये मुझे स्पष्ट बताओ || २२३६ ।।
नरेश्वर! लक्ष्मीके ऐसा कहनेपर करुणा और वात्सल्यकी मूर्ति शुभस्वरूपा गौओंने एक साथ मिलकर सलाह की; फिर सबने लक्ष्मीसे कहा-- ।। २३ ।।
'शुभे! यशस्विनि! अवश्य ही हमें तुम्हारा सम्मान करना चाहिये। तुम हमारे गोबर और मूत्रमें निवास करो; क्योंकि हमारी ये दोनों वस्तुएँ परम पवित्र हैं! || २४ ।।
लक्ष्मीने कहा--सुखदायिनी गौओ! धन्यभाग्य जो तुमलोगोंने मुझपर अपना कृपापूर्ण प्रसाद प्रकट किया। ऐसा ही होगा--मैं तुम्हारे गोबर और मूत्रमें ही निवास करूँगी। तुमने मेरा मान रख लिया, अत: तुम्हारा कल्याण हो ।। २५ ।।
भरतनन्दन! इस प्रकार गौओंके साथ प्रतिज्ञा करके लक्ष्मीजी उनके देखते-देखते वहाँसे अन्तर्धान हो गयीं || २६ ।।
बेटा! इस तरह मैंने तुमसे गोबरका माहात्म्य बतलाया है। अब पुनः गौओंका माहात्म्य बतला रहा हूँ, सुनो || २७ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपरव्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें लक्ष्मी और गौओंका संवादनामक बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
तिरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) तिरासीवें अध्याय के श्लोक 1-52 का हिन्दी अनुवाद)
“ब्रह्माजीका इन्द्रसे गोलोक और गौओंका उत्कर्ष बताना और गौओंको वरदान देना”
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! जो मनुष्य सदा यज्ञशिष्ट अन्नका भोजन और गोदान करते हैं उन्हें प्रतेदिन अन्नदान और यज्ञ करनेका फल मिलता है ।। १ ।।
दही और गोघृतके बिना यज्ञ नहीं होता। उन्हींसे यज्ञका यज्ञत्व सफल होता है। अतः गौओंको यज्ञका मूल कहते हैं || २ ।।
सब प्रकारके दानोंमें गोदान ही उत्तम माना जाता है; इसलिये गौएँ श्रेष्ठ, पवित्र तथा परम पावन हैं ।। ३ ।।
मनुष्यको अपने शरीरकी पुष्टि तथा सब प्रकारके विघ्नोंकी शान्तिके लिये भी गौओंका सेवन करना चाहिये। इनके दूध, दही और घी सब पापोंसे छुड़ानेवाले हैं || ४ ।।
भरतश्रेष्ठ! गौएँ इहलोक और परलोकमें भी महान् तेजोरूप मानी गयी हैं। गौओंसे बढ़कर पवित्र कोई वस्तु नहीं है ।। ५ ।।
युधिष्ठिर! इस विषयमें विद्वान् पुरुष इन्द्र और ब्रह्माजीके इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। ६ ।।
पूर्वकालमें देवताओंद्वारा दैत्योंके परास्त हो जानेपर जब इन्द्र तीनों लोकोंके अधीश्वर हुए तब समस्त प्रजा मिलकर बड़ी प्रसन्नताके साथ सत्य और धर्ममें तत्पर रहने लगी ।। ७ ।।
कुन्तीनन्दन! तदनन्तर एक दिन जब ऋषि, गन्धर्व, किन्नर, नाग, राक्षस, देवता, असुर, गरुड़ और प्रजापतिगण ब्रह्माजीकी सेवामें उपस्थित थे, नारद, पर्वत, विश्वावसु, हाहा और हूृहू नामक गन्धर्व जब दिव्य तान छेड़कर गाते हुए वहाँ उन भगवान् ब्रह्माजीकी उपासना करते थे, वायुदेव दिव्य पुष्पोंकी सुगन्ध लेकर बह रहे थे, पृथक्ू-पृथक् ऋतुएँ भी उत्तम सौरभसे युक्त दिव्य पुष्प भेंट कर रही थीं, देवताओंका समाज जुटा था, समस्त प्राणियोंका समागम हो रहा था, दिव्य वाद्योंकी मनोरम ध्वनि गूँज रही थी तथा दिव्यांगनाओं और चारणोंसे वह समुदाय घिरा हुआ था, उसी समय देवराज इन्द्रने देवेश्वर ब्रह्माजीको प्रणाम करके पूछा--- | ८--१२ ॥।
“भगवन्! पितामह! गोलोक समस्त देवताओं और लोकपालोंके ऊपर क्यों है? मैं इसे जानना चाहता हूँ ।।
'प्रभो! गौओंने यहाँ किस तपस्याका अनुष्ठान अथवा ब्रह्मचर्यका पालन किया है, जिससे वे रजोगुणसे रहित होकर देवताओंसे भी ऊपर स्थानमें सुखपूर्वक निवास करती हैं? ।। १४ ।।
तब ब्रह्माजीने बलसूदन इन्द्रसे कहा--“बलासुरका विनाश करनेवाले देवेन्द्र! तुमने सदा गौओंकी अवहेलना की है। प्रभो! इसीलिये तुम इनका माहात्म्य नहीं जानते। सुरश्रेष्ठ! गौओंका महान् प्रभाव और माहात्म्य मैं बताता हूँ, सुनो || १५-१६ ।।
“वासव! गौओंको यज्ञका अंग और साक्षात् यज्ञरूप बतलाया गया है; क्योंकि इनके दूध, दही और घीके बिना यज्ञ किसी तरह सम्पन्न नहीं हो सकता ।। १७ ।।
“ये अपने दूध-घीसे प्रजाका भी पालन-पोषण करती हैं। इनके पुत्र (बैल) खेतीके काम आते तथा नाना प्रकारके धान्य एवं बीज उत्पन्न करते हैं ।। १८ $ ।।
“उन्हींसे यज्ञ सम्पन्न होते और हव्य-कव्यका भी सर्वथा निर्वाह होता है। सुरेश्वर! इन्हीं गौओंसे दूध, दही और घी प्राप्त होते हैं। ये गौएँ बड़ी पवित्र होती हैं। बैल भूख-प्याससे पीड़ित होकर भी नाना प्रकारके बोझ ढोते रहते हैं | १९-२० ।।
“इस प्रकार गौएँ अपने कर्मसे ऋषियों तथा प्रजाओंका पालन करती रहती हैं। वासव! इनके व्यवहारमें माया नहीं होती। ये सदा सत्कर्ममें ही लगी रहती हैं || २१ ।।
इसीसे ये गौएँ हम सब लोगोंके ऊपर स्थानमें निवास करती हैं। शक्र! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने यह बात बतायी कि गौएँ देवताओंके भी ऊपर स्थानमें क्यों निवास करती हैं। शतक्रतु इन्द्र! इसके सिवा ये गौएँ वरदान भी प्राप्त कर चुकी हैं और प्रसन्न होनेपर दूसरोंको वर देनेकी भी शक्ति रखती हैं || २२-२३ ।।
'सुरभी गौएँ पुण्यकर्म करनेवाली और शुभ-लक्षणा होती हैं। सुरश्रेष्ठ! बलसूदन! वे जिस उद्देश्यसे पृथ्वीपर गयी हैं, उसको भी मैं पूर्णरूपसे बता रहा हूँ, सुनो || २४३ ।।
“तात! पहले सत्ययुगमें जब महामना देवेश्वरगण तीनों लोकोंपर शासन करते थे और अमरश्रेष्ठ जब देवी अदिति पुत्रके लिये नित्य एक पैरसे खड़ी रहकर अत्यन्त घोर एवं दुष्कर तपस्या करती थी और उस तपस्यासे संतुष्ट होकर साक्षात् भगवान् विष्णु ही उनके गर्भमें पदार्पण करनेवाले थे उन्हीं दिनोंकी बात है, महादेवी अदितिको महान् तप करती देख दक्षकी धर्मपरायणा पुत्री सुरभी देवीने बड़े हर्षक साथ घोर तपस्या आस्मभ की ।। २५ --२८ ||
“कैलासके रमणीय शिखरपर जहाँ देवता और गन्धर्व सदा विराजते रहते हैं, वहाँ वह उत्तम योगका आश्रय ले ग्यारह हजार वर्षोतक एक पैरसे खड़ी रही। उसकी तपस्यासे देवता, ऋषि और बड़े-बड़े नाग भी संतप्त हो उठे || २९-३० ।।
“वे सब लोग मेरे साथ ही उस शुभलक्षणा तपस्विनी सुरभी देवीके पास जाकर खड़े हुए। तब मैंने वहाँ उससे कहा-- || ३१ ।।
“सती-साधथ्वी देवी! तुम किसलिये यह घोर तपस्या करती हो? शोभने! महाभागे! मैं तुम्हारी इस तपस्यासे बहुत संतुष्ट हूँ। देवि! तुम इच्छानुसार वर माँगो।” पुरंदर! इस तरह मैंने सुरभीको वर माँगनेके लिये प्रेरित किया || ३२-३३ ।।
सुरभीने कहा--भगवन्! निष्पाप लोकपितामह! मुझे वर लेनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। मेरे लिये तो सबसे बड़ा वर यही है कि आज आप मुझपर प्रसन्न हो गये हैं ।। ३४ ।।
ब्रह्माजीने कहा--देवेश्वर! देवेन्द्र! शचीपते! जब सुरभी ऐसी बात कहने लगी तब मैंने उसे जो उत्तर दिया, वह सुनो || ३५ ।।
(मैंने कहा--) देवि! शुभानने! तुमने लोभ और कामनाको त्याग दिया है। तुम्हारी इस निष्काम तपस्यासे मैं बहुत प्रसन्न हूँ; अतः तुम्हें अमरत्वका वरदान देता हूँ ।। ३६ ।।
तुम मेरी कृपासे तीनों लोकोंके ऊपर निवास करोगी और तुम्हारा वह धाम “गोलोक' नामसे विख्यात होगा || ३७ ।।
महाभागे! तुम्हारी सभी शुभ संतानें--समस्त पुत्र और कन्याएँ मानवलोकमें उपयुक्त कर्म करती हुई निवास करेंगी ।। ३८ ।।
देवि! शुभे! तुम अपने मनसे जिन दिव्य अथवा मानवी भोगोंका चिन्तन करोगी तथा जो स्वर्गीय सुख होगा, वे सभी तुम्हें स्वतः प्राप्त होते रहेंगे || ३९ ।।
सहस्राक्ष! सुरभीके निवासभूत गोलोकमें सबकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण होती हैं। वहाँ मृत्यु और बुढ़ापाका आक्रमण नहीं होता है। अग्निका भी जोर नहीं चलता ।। ४० ।।
वासव! वहाँ न कोई दुर्भाग्य है और न अशुभ। वहाँ दिव्य वन, दिव्य भवन तथा परम सुन्दर एवं इच्छानुसार विचरनेवाले विमान मौजूद हैं || ४१६ ।।
कमलनयन इन्द्र! ब्रह्मचर्य, तपस्या, यत्न, इन्द्रियसंयम, नाना प्रकारके दान, पुण्य, तीर्थसेवन, महान् तप और अन्यान्य शुभ कर्मोंके अनुष्ठानसे ही गोलोककी प्राप्ति हो सकती है || ४२-४३ ३ ।।
असुरसूदन शक्र! इस प्रकार तुम्हारे पूछनेके अनुसार मैंने सारी बातें बतलायी हैं। अब तुम्हें गौओंका कभी तिरस्कार नहीं करना चाहिये || ४४-४५ ।।
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! ब्रह्माजीका यह कथन सुनकर सहस्र नेत्रधारी इन्द्र प्रतिदिन गौओंकी पूजा करने लगे। उन्होंने उनके प्रति बहुत सम्मान प्रकट किया ।। ४६ ।।
महाद्युते! यह सब मैंने तुमसे गौओंका परम पावन, परम पवित्र और अत्यन्त उत्तम माहात्म्य कहा है || ४७ ।।
पुरुषसिंह! यदि इसका कीर्तन किया जाय तो यह समस्त पापोंसे छुटकारा दिलानेवाला है। जो एकाग्रचित्त हो सदा यज्ञ और श्राद्धमें हव्य और कव्य अर्पण करते समय ब्राह्मणोंको यह प्रसंग सुनायेगा, उसका दिया हुआ (हव्य और कव्य) समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला और अक्षय होकर पितरोंको प्राप्त होगा || ४८-४९ ।।
गोभक्त मनुष्य जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है, वह सब उसे प्राप्त होती है। स्त्रियोंमें भी जो गौओंकी भक्ता हैं, वे मनोवाञ्छित कामनाएँ प्राप्त कर लेती हैं || ५० ।।
पुत्रार्थी मनुष्य पुत्र पाता है और कन्यार्थी कन््या। धन चाहनेवालेको धन और धर्म चाहनेवालेको धर्म प्राप्त होता है ।। ५१ ।।
विद्यार्थी विद्या पाता है और सुखार्थी सुख। भारत! गोभक्तके लिये यहाँ कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।। ५२ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपववके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गोलोकका वर्णनविषयक तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
चौरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) चौरासीवें अध्याय के श्लोक 1-31 का हिन्दी अनुवाद)
“भीष्मजीका अपने पिता शान्तनूके हाथमें पिण्ड न देकर कुशपर देना, सुवर्णकी और उसके दानकी महिमाके सम्बन्धमें वसिष्ठ और परशुरामका संवाद, पार्वतीका देवताओंको शाप, तारकासुरसे डरे हुए देवताओंका ब्रह्माजीकी शरणमें जाना”
युधिष्ठिने कहा--पितामह! आपने सब मनुष्योंके लिये, विशेषतः धर्मपर दृष्टि रखनेवाले नरेशोंके लिये परम उत्तम गोदानका वर्णन किया है ।। १ ।।
राज्य सदा ही दुःखरूप है। जिन्होंने अपना मन वशमें नहीं किया है, उनके लिये राज्यको सुरक्षित रखना बहुत ही कठिन है। इसलिये प्रायः राजाओंको शुभ गति नहीं प्राप्त होती है ।। २ ।।
उनमें वे ही पवित्र होते हैं जो नियमपूर्वक पृथ्वीका दान करते हैं। कुरुनन्दन! आपने मुझसे समस्त धर्मोंका वर्णन किया है || ३ ।।
इसी तरह राजा नृगने जो गोदान किया था तथा नाचिकेत ऋषिने जो गौओंका दान और पूजन किया था, वह सब आपने पहले ही कहा और निर्देश किया है ।। ४ ।।
वेद और उपनिषदोंने भी प्रत्येक कर्ममें दक्षिणाका विधान किया है। सभी यज्ञोंमें भूमि, गौ और सुवर्णकी दक्षिणा बतायी गयी है ।। ५ ।।
इनमें सुवर्ण सबसे उत्तम दक्षिणा है--ऐसा श्रुतिका वचन है, अतः पितामह! मैं इस विषयको यथार्थ रूपसे सुनना चाहता हूँ ।। ६ ।।
सुवर्ण क्या है? कब और किस तरहसे इसकी उत्पत्ति हुई? सुवर्णका उपादान क्या है? इसका देवता कौन है? इसके दानका फल कया है? सुवर्ण क्यों उत्तम कहलाता है? ।। ७ ।।
मनीषी विद्वान् सुवर्णानका अधिक आदर क्यों करते हैं? तथा यज्ञ-कर्मोमें दक्षिणाके लिये सुवर्णकी प्रशंसा क्यों की जाती है? ।। ८ ।।
पितामह! क्यों सुवर्ण पृथ्वी और गौओंसे भी पावन और श्रेष्ठ है? दक्षिणाके लिये सबसे उत्तम वह क्यों माना गया है? यह मुझे बताइये ।। ९ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! ध्यान देकर सुनो! सुवर्णकी उत्पत्तिका कारण बहुत विस्तृत है। इस विषयमें मैंने जो अनुभव किया है, उसके अनुसार तुम्हें सब बातें बता रहा हूँ ।। १० ।।
मेरे महातेजस्वी पिता महाराज शान्तनुका जब देहावसान हो गया तब मैं उनका श्राद्ध करनेके लिये गंगाद्वार तीर्थ (हरद्वार)-में गया ।। ११ ।।
बेटा! वहाँ पहुँचकर मैंने पिताका श्राद्धकर्म आरम्भ किया। इस कार्यमें वहाँ उस समय मेरी माता गंगाने भी बड़ी सहायता की ।। १२ ।।
तदनन्तर अपने सामने बहुत-से सिद्ध-महर्षियोंको बिठाकर मैंने जलदान आदि सारे कार्य आरम्भ किये ।। १३ ।।
एकाग्रचित्त होकर शास्त्रोक्तविधिसे पिण्डदानके पहलेके सब कार्य समाप्त करके मैंने विधिवत् पिण्डदान देना आरम्भ किया ।। १४ ।।
प्रजानाथ! इसी समय पिण्डदानके लिये जो कुश बिछाये गये थे, उन्हें भेदकर एक बड़ी सुन्दर बाँह बाहर निकली। उस विशाल भुजामें बाजूबंद आदि अनेक आभूषण शोभा पा रहे थे ।। १५ ।।
उसे ऊपर उठी देख मुझे बड़ा आश्वर्य हुआ। भरतश्रेष्ठ! साक्षात् मेरे पिता ही पिण्डका दान लेनेके लिये उपस्थित थे। प्रभो! किंतु जब मैंने शास्त्रीय विधिपर विचार किया, तब मेरे मनमें सहसा यह बात स्मरण हो आयी कि मनुष्यके लिये हाथपर पिण्ड देनेका वेदमें विधान नहीं है। पितर साक्षात् प्रकट होकर कभी मनुष्यके हाथसे पिण्ड लेते भी नहीं हैं। शास्त्रकी आज्ञा तो यही है कि कुशोंपर पिण्डदान करें || १६--१८ $ ।।
भरतश्रेष्ठ) यह सोचकर मैंने पिताके प्रत्यक्ष दिखायी देनेवाले हाथका आदर नहीं किया। शास्त्रको ही प्रमाण मानकर उसकी पिण्डदानसम्बन्धी सूक्ष्म विधिका ध्यान रखते हुए कुशोंपर ही सब पिण्डोंका दान किया ।। १९-२० ।।
नरश्रेष्ठ! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि मैंने शास्त्रीय मार्गका अनुसरण करके ही सब कुछ किया। नरेश्वर! तदनन्तर मेरे पिताकी वह बाँह अदृश्य हो गयी ।। २१ ।।
तदनन्तर स्वप्नमें पितरोंने मुझे दर्शन दिया और प्रसन्नतापूर्वक मुझसे कहा --“भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे इस शास्त्रीय ज्ञानसे हम बहुत प्रसन्न हैं; क्योंकि उसके कारण तुम्हें धर्मके विषयमें मोह नहीं हुआ || २२६ ।।
'पृथ्वीनाथ! तुमने यहाँ शास्त्रको प्रमाण मानकर आत्मा, धर्म, शास्त्र, वेद, पितृगण, ऋषिगण, गुरु, प्रजापति और ब्रह्माजी--इन सबका मान बढ़ाया है तथा जो लोग धर्ममें स्थित हैं उन्हें भी तुमने अपना आदर्श दिखाकर विचलित नहीं होने दिया है || २३-२४ ६
“भरतश्रेष्ठ) यह सब कार्य तो तुमने बहुत उत्तम किया है; किंतु अब हमारे कहनेसे भूमिदान और गोदानके निष्क्रयरूपसे कुछ सुवर्णदान भी करो || २५३ ।।
“धर्मज्ञ! ऐसा करनेसे हम और हमारे सभी पितामह पवित्र हो जायूँगे; क्योंकि सुवर्ण सबसे अधिक पावन वस्तु है || २६६ ।।
'जो सुवर्ण दान करते हैं, वे अपने पहले और पीछेकी दस-दस पीढ़ियोंका उद्धार कर देते हैं।। राजन! जब मेरे पितरोंने ऐसा कहा तो मेरी नींद खुल गयी। उस समय स्वप्नका स्मरण करके मुझे बड़ा विस्मय हुआ। प्रजानाथ! भरतश्रेष्ठ! तब मैंने सुवर्णदान करनेका निश्चित विचार कर लिया || २७-२८ ३ ||
राजन्! अब (सुवर्णकी उत्पत्ति और उसके माहात्म्यके विषयमें) एक प्राचीन इतिहास सुनो जो जमदग्निनन्दन परशुरामजीसे सम्बन्ध रखनेवाला है। विभो! यह आख्यान धन तथा आयुकी वृद्धि करनेवाला है || २९६ ।।
पूर्वकालकी बात है, जमदग्निकुमार परशुरामजीने तीव्र रोषमें भरकर इक्कीस बार पृथ्वीको क्षत्रियोंसे शून्य कर दिया था ।। ३०३ ।।
महाराज! इसके बाद सम्पूर्ण पृथ्वीको जीतकर वीर कमलनयन परशुरामजीने ब्राह्मणों और क्षत्रियोंद्वारा सम्मानित तथा सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाले अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान किया ।। ३१-३२ |।
यद्यपि अश्वमेध यज्ञ समस्त प्राणियोंको पवित्र करनेवाला तथा तेज और कान्तिको बढ़ानेवाला है तथापि उसके फलसे तेजस्वी परशुरामजी सर्वथा पापमुक्त न हो सके। इससे उन्होंने अपनी लघुताका अनुभव किया || ३३३ ||
प्रचुर दक्षिणासे सम्पन्न उस श्रेष्ठ यज्ञका अनुष्ठान पूर्ण करके महामना भृगुवंशी परशुरामजीने मनमें दयाभाव लेकर शास्त्रज्ञ ऋषियों और देवताओंसे इस प्रकार पूछा --“महाभाग महात्माओ! उग्र कर्ममें लगे हुए मनुष्योंके लिये जो परम पावन वस्तु हो, वह मुझे बताइये।” उनके इस प्रकार पूछनेपर उन वेद-शास्त्रोंके ज्ञाता महर्षियोंने इस प्रकार कहा-- || ३४--३६ ||
“परशुराम! तुम वेदोंकी प्रामाणिकतापर दृष्टि रखते हुए ब्राह्मणोंका सत्कार करो और ब्रह्मर्षियोंके समुदायसे पुनः इस पावन वस्तुके लिये प्रश्न करो || ३७ ।।
“और वे महाज्ञानी महर्षिगण जो कुछ बतावें, उसीका प्रसन्नतापूर्वक पालन करो।” तब महातेजस्वी भृगुनन्दन परशुरामजीने वसिष्ठ, नारद, अगस्त्य और कश्यपजीके पास जाकर पूछा--“विप्रवरो! मैं पवित्र होना चाहता हूँ। बताइये, कैसे किस कर्मके अनुष्ठानसे अथवा किस दानसे पवित्र हो सकता हूँ? ।। ३८-३९ ६ ।।
'साधुशिरोमणे! तपोधनो! यदि आपलोग मुझपर अनुग्रह करना चाहते हों तो बतायें, मुझे पवित्र करनेवाला साधन क्या है?” || ४० ।।
ऋषियोंने कहा--भृगुनन्दन! हमने सुना है कि पाप करनेवाला मनुष्य यहाँ गाय, भूमि और धनका दान करके पवित्र हो जाता है || ४१ ।।
ब्रह्मर्ष! एक दूसरी वस्तुका दान भी सुनो। वह वस्तु सबसे बढ़कर पावन है। उसका आकार अत्यन्त अद्भुत और दिव्य है तथा वह अग्निसे उत्पन्न हुई है ।।
उस वस्तुका नाम है सुवर्ण। हमने सुना है कि पूर्वकालमें अग्निने सम्पूर्ण लोकोंको भस्म करके अपने वीर्यसे सुवर्णको प्रकट किया था। उसीका दान करनेसे तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी ।। ४३ ।।
तदनन्तर कठोर व्रतका पालन करनेवाले भगवान् वसिष्ठने कहा--*परशुराम! अग्निके समान प्रकाशित होनेवाला सुवर्ण जिस प्रकार प्रकट हुआ है, वह सुनो ।।
'सुवर्णका दान तुम्हें उत्तम फल देगा; क्योंकि वह दानके लिये सर्वोत्तम बताया जाता है। महाबाहो! सुवर्णका जो स्वरूप है, जिससे उत्पन्न हुआ है और जिस प्रकार वह विशेष गुणकारी है, वह सब बता रहा हूँ, मुझसे सुनो || ४५३ ।।
“यह सुवर्ण अग्नि और सोमरूप है। इस बातको तुम निश्चितरूपसे जान लो। बकरा, अग्नि, भेड़, वरुण तथा घोड़ा सूर्यका अंश है। ऐसी दृष्टि रखनी चाहिये ।।
भुगुनन्दन! हाथी और मृग नागोंके अंश हैं। भैंसे असुरोंके अंश हैं। मुर्गा और सूअर राक्षसोंके अंश हैं इडा--गौ, दुग्ध और सोम--ये सब भूमिरूप ही हैं। ऐसी स्मृति है || ४७-४८ ।।
“सारे जगत्का मन््थन करके जो तेजकी राशि प्रकट हुई है, वही सुवर्ण है। अतः ब्रह्मरष! यह अज आदि सभी वस्तुओंसे परम उत्तम रत्न है || ४९ ।।
“इसीलिये देवता, गन्धर्व, नाग, राक्षस, मनुष्य और पिशाच--ये सब प्रयत्नपूर्वक सुवर्ण धारण करते हैं ।।
'भुगुश्रेष्ठ! वे सोनेके बने हुए मुकुट, बाजूबंद तथा अन्य नाना प्रकारके अलंकारोंसे सुशोभित होते हैं ।।
“अतः नरश्रेष्ठ! जगतमें भूमि, गौ तथा रत्न आदि जितनी पवित्र वस्तुएँ हैं, सुवर्णको उन सबसे पवित्र माना गया है; इस बातको भलीभाँति जान लो ।। ५२ ।।
“विभो! पृथ्वी, गौ तथा और जो कुछ भी दान किया जाता है, उन सबसे बढ़कर सुवर्णका दान है ।।
“देवोपम तेजस्वी परशुराम! सुवर्ण अक्षय और पावन है, अतः तुम श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको यह उत्तम और पावन वस्तु ही दान करो || ५४ ।।
सब दक्षिणाओंमें सुवर्णका ही विधान है; अतः जो सुवर्ण दान करते हैं, वे सब कुछ दान करनेवाले होते हैं ।।
'जो सुवर्ण देते हैं, वे देवताओंका दान करते हैं; क्योंकि अग्नि सर्वदेवतामय है और सुवर्ण अग्निका स्वरूप है || ५६ ।।
'पुरुषसिंह! अतः सुवर्णका दान करनेवाले पुरुषोंने सम्पूर्ण देवताओंका ही दान कर दिया--ऐसा माना जाता है। अतः विद्वान् पुरुष सुवर्णसे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं मानते हैं ।। ५७ ।।
“सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ विप्ररषे! मैं पुनः सुवर्णका माहात्म्य बता रहा हूँ, ध्यान देकर सुनो || ५८ ।।
'भगुनन्दन! मैंने पहले पुराणमें प्रजापतिकी कही हुई यह न्यायोचित बात सुन रखी है ।। ५९ ||
भगुकुलरत्न! भृगुनन्दन परशुराम! यह बात उस समयकी है, जब श्रेष्ठ पर्वत हिमालयपर शूलपाणि महात्मा भगवान् रुद्रका देवी रुद्राणीके साथ विवाह-संस्कार सम्पन्न हुआ था और महामना भगवान् शिवको उमादेवीके साथ समागम-सुख प्राप्त था ।। ६०-६१ ||
“उस समय सब देवता उद्विग्न होकर कैलास-शिखरपर बैठे हुए महान् देवता रुद्र और वरदायिनी देवी उमाके पास गये ।। ६२ ।।
भुगुश्रेष्ठ॒ वहाँ उन सबने उन दोनोंके चरणोंमें मस्तक झुकाकर उन्हें प्रसन्न करके भगवान् रुद्रसे कहा--“पापरहित महादेव! यह जो देवी पार्ववीके साथ आपका समागम हुआ है, यह एक तपस्वीका तपस्विनीके साथ और एक महातेजस्वीका एक तेजस्विनीके साथ संयोग हुआ है || ६३ ६ ।।
'देव! प्रभो! आपका तेज अमोघ है। ये देवी उमा भी ऐसी ही अमोघ तेजस्विनी हैं। आप दोनोंकी जो संतान होगी वह अत्यन्त प्रबल होगी। निश्चय ही वह तीनों लोकोंमें किसीको शेष नहीं रहने देगी ।।
विशाललोचन! लोकेश्वर! हम सब देवता आपके चरणोंमें पड़े हैं। आप तीनों लोकोंके हितकी इच्छासे हमें वर दीजिये ।। ६६ ।।
'प्रभो! संतानके लिये प्रकट होनेवाला जो आपका उत्तम तेज है, उसे आप अपने भीतर ही रोक लीजिये। आप दोनों त्रिलोकीके सारभूत हैं। अतः अपनी संतानके द्वारा सम्पूर्ण जगत्को संतप्त कर डालेंगे || ६७ ।।
“आप दोनोंसे जो पुत्र उत्पन्न होगा, वह निश्चय ही देवताओंको पराजित कर देगा। प्रभो! हमारा तो ऐसा विश्वास है कि न तो पृथ्वीदेवी, न आकाश और न स्वर्ग ही आपके तेजको धारण कर सकेगा। ये सब मिलकर भी आपके इस तेजको धारण करनेमें समर्थ नहीं हैं। यह सारा जगत् आपके तेजके प्रभावसे भस्म हो जायगा ।। ६८-६९ |।
“अतः भगवन्! हमपर कृपा कीजिये। प्रभो! सुरश्रेष्ठ! हम यही चाहते हैं कि देवी पार्वतीके गर्भसे आपके कोई पुत्र न हो। आप धैर्यसे ही अपने प्रज्वलित उत्तम तेजको भीतर ही रोक लीजिये” || ७० ।।
विप्रर्ष! देवताओंके ऐसा कहनेपर भगवान् वृषभध्वजने उनसे “एवमस्तु” कह दिया || ७१ ।।
“देवताओंसे ऐसा कहकर वृषभवाहन भगवान् शंकरने अपने “रेतस' अर्थात् वीर्यको ऊपर चढ़ा लिया। तभीसे वे “ऊर्ध्वरेता' नामसे विख्यात हुए || ७२ ।।
“देवताओंने मेरी भावी संतानका उच्छेद कर डाला" यह सोचकर उस समय देवी रुद्राणी बहुत कुपित हुईं और स्त्री-स्वभाव होनेके कारण उन्होंने देवताओंसे यह कठोर वचन कहा-- ।। ७३ ||
“देवताओ! मेरे पतिदेव मुझसे संतान उत्पन्न करना चाहते थे, किंतु तुमलोगोंने इन्हें इस कार्यसे निवृत्त कर दिया; इसलिये तुम सभी देवता निर्वेश हो जाओगे ।।
“आकाशचारी देवताओ! आज तुम सब लोगोंने मिलकर मेरी संततिका उच्छेद किया है; अत: तुम सब लोगोंके भी संतान नहीं होगी” ।। ७५ ।।
भुगुश्रेष्ठ उस शापके समय वहाँ अग्निदेव नहीं थे; अतः उनपर यह शाप लागू नहीं हुआ। अन्य सब देवता देवीके शापसे संतानहीन हो गये ।। ७६ ।।
रुद्रदेवने उस समय अपने अनुपम तेज (वीर्य) को यद्यपि रोक लिया था; तो भी किंचित् स्खलित होकर वहीं पृथ्वीपर गिर पड़ा || ७७ ।।
वह अद्भुत तेज अग्निमें पड़कर बढ़ने और ऊपरको उठने लगा। तेजसे संयुक्त हुआ वह तेज एक स्वयम्भू पुरुषके रूपमें अभिव्यक्त होने लगा || ७८ ।।
इसी समय तारक नामक एक असुर उत्पन्न हुआ था, जिसने इन्द्र आदि देवताओंको अत्यन्त संतप्त कर दिया था ।। ७९ ।।
आदित्य, वसु, रुद्र, मरुदगण, अश्विनीकुमार तथा साध्य--सभी देवता उस दैत्यके पराक्रमसे संत्रस्त हो उठे थे || ८० ।।
असुरोंने देवताओंके स्थान, विमान, नगर तथा ऋषियोंके आश्रम भी छीन लिये थे।। ८१ ।।
वे सब देवता और ऋषि दीनचित्त हो अजर-अमर एवं सर्वव्यापी देवता भगवान् ब्रह्माकी शरणमें गये || ८२ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें सुवर्णकी उत्पत्ति नामक चौरासीवाँ अध्याय प्रा हुआ)
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