सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
छिहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) छिहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-31 का हिन्दी अनुवाद)
“गोदानकी विधि, गौओंसे प्रार्थना, गौओंके निष्क्रय और गोदान करनेवाले नरेशोंके नाम”
युधिष्ठिरने कहा--नरेश्वर! अब मैं गोदानकी उत्तम विधिका यथार्थरूपसे श्रवण करना चाहता हूँ; जिससे प्रार्थी पुरुषोंके लिये अभीष्ट सनातन लोकोंकी प्राप्ति होती है ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--पृथ्वीनाथ! गोदानसे बढ़कर कुछ भी नहीं है। यदि न्यायपूर्वक प्राप्त हुई गौका दान किया जाय तो वह समस्त कुलका तत्काल उद्धार कर देती है || २ ।।
राजन! ऋषियोंने सत्पुरुषोंके लिये समीचीन भावसे जिस विधिको प्रकट किया है, वही इन प्रजाजनोंके लिये भलीभाँति निश्चित किया गया है। इसलिये तुम आदिकालसे प्रचलित हुई गोदानकी उस उत्तम विधिका मुझसे श्रवण करो ।। ३ ।।
पूर्वकालकी बात है, जब महाराज मान्धाताके पास बहुत-सी गौएँ दानके लिये लायी गयीं, तब उन्होंने 'कैसी गौ दान करे?” इस संदेहमें पड़कर बृहस्पतिजीसे तुम्हारी ही तरह प्रश्न किया। उस प्रश्नके उत्तरमें बृहस्पतिजीने इस प्रकार कहा-- ।। ४ ।।
गोदान करनेवाले मनुष्यको चाहिये कि वह नियमपूर्वक व्रतका पालन करे और ब्राह्मणको बुलाकर उसका अच्छी तरह सत्कार करके कहे कि “मैं कल प्रातः:काल आपको एक गौ दान करूँगा।” तत्पश्चात् गोदानके लिये वह लाल रंगकी (रोहिणी) गौ मँगाये और “समंगे बहुले” इस प्रकार कहकर गायको सम्बोधित करे, फिर गौओंके बीचमें प्रवेश करके इस निम्नांकित श्रुतिका उच्चारण करे-- |। ५-६ |।
“गौ मेरी माता है। वृषभ (बैल) मेरा पिता है। वे दोनों मुझे स्वर्ग तथा ऐहिक सुख प्रदान करें। गौ ही मेरा आधार है।” ऐसा कहकर गौओंकी शरण ले और उन्हींके साथ मौनावलम्बनपूर्वक रात बिताकर सबेरे गोदानकालमें ही मौन भंग करे--बोले ।। ७ ।।
इस प्रकार गौओंके साथ एक रात रहकर उनके समान व्रतका पालन करते हुए उन्हींके साथ एकात्मभावको प्राप्त होनेसे मनुष्य तत्काल सब पापोंसे छूट जाता है ।।
राजन! सूर्योदयके समय बछड़ेसहित गौका तुम्हें दान करना चाहिये। इससे स्वर्गलोककी प्राप्ति होगी और अर्थवाद मन्त्रोंमें जो आशी: (प्रार्थना) की गयी है, वह तुम्हारे लिये सफल होगी ।। ९ ।।
(वे मन्त्र इस प्रकार हैं, गोदानके पश्चात् इनके द्वारा प्रार्थना करनी चाहिये--) “गौएँ उत्साहसम्पन्न, बल और बुद्धिसे युक्त, यज्ञमें काम आनेवाले अमृतस्वरूप हविष्यके उत्पत्तिस्थान, इस जगतकी प्रतिष्ठा (आश्रय), पृथ्वीपर बैलोंके द्वारा खेती उपजानेवाली, संसारके अनादि प्रवाहको प्रवृत्त करनेवाली और प्रजापतिकी पुत्री हैं। यह सब गौओंकी प्रशंसा है ।। १० ।।
'सूर्य और चन्द्रमाके अंशसे प्रकट हुई वे गौएँ हमारे पापोंका नाश करें। हमें स्वर्ग आदि उत्तम लोकोंकी प्राप्तिमें सहायता दें। माताकी भाँति शरण प्रदान करें। जिन इच्छाओंका इन मन्त्रोंद्वारा उल्लेख नहीं हुआ है और जिनका हुआ है, वे सभी गोमाताकी कृपासे मेरे लिये पूर्ण हों ।। ११ ।।
“गौओ! जो लोग तुम्हारी सेवा करते हुए तुम्हारी आराधनामें लगे रहते हैं, उनके उन कर्मोसे प्रसन्न होकर तुम उन्हें क्षय आदि रोगोंसे छुटकारा दिलाती हो और ज्ञानकी प्राप्ति कराकर उन्हें देहबन्धनसे भी मुक्त कर देती हो। जो मनुष्य तुम्हारी सेवा करते हैं, उनके कल्याणके लिये तुम सरस्वती नदीकी भाँति सदा प्रयत्नशील रहती हो। गोमाताओ! तुम हमारे ऊपर सदा प्रसन्न रहो और हमें समस्त पुण्योंके द्वारा प्राप्त होनेवाली अभीष्ट गति प्रदान करो ।। १२ ।।
“इसके बाद प्रथम दृष्टिपथमें आया हुआ दाता पहले विधिपूर्वक निम्नांकित आधे श्लोकका उच्चारण करे “या वै यूयं सोऽहमद्यैव भावो युष्मान् दत्त्वा चाहमात्मप्रदाता ।“--गौओ! तुम्हारा जो स्वरूप है, वही मेरा भी है--तुममें और हममें कोई अन्तर नहीं है; अत: आज तुम्हें दानमें देकर हमने अपने आपको ही दान कर दिया है।' दाताके ऐसा कहनेपर दान लेनेवाला गोदानविधिका ज्ञाता ब्राह्मण शेष आधे शलोकका उच्चारण करे--“मनश्ष्युता मन एवोपपन्ना: संधुक्षध्वं सौम्य-रूपोग्ररूपा:” ।-- -गौओ! तुम शान्त और प्रचण्डरूप धारण करनेवाली हो। अब तुम्हारे ऊपर दाताका ममत्व (अधिकार) नहीं रहा, अब तुम मेरे अधिकारमें आ गयी हो; अतः अभीष्ट भोग प्रदान करके तुम मुझे और दाताको भी प्रसन्न करो” ।। १३-१४ ।।
“जो गौके निष्क्रयरूपसे उसका मूल्य, वस्त्र अथवा सुवर्ण दान करता है, उसको भी गोदाता ही कहना चाहिये। मूल्य, वस्त्र एवं सुवर्णरूपमें दी जानेवाली गौओंका नाम क्रमशः ऊर्ध्वास्या, भवितव्या और वैष्णवी है। संकल्पके समय इनके इन्हीं नामोंका उच्चारण करना चाहिये अर्थात् “इमां ऊर्ध्वास्यां' “इमां भवितव्यां” “इमां वैष्णवीं” तुभ्यमहं संप्रददे त्वं गृहाण--मैं यह ऊर्ध्वास्या, भवितव्या या वैष्णवी गौ आपको दे रहा हूँ, आप इसे ग्रहण करें।'--ऐसा कहकर ब्राह्मणको वह दान ग्रहण करनेके लिये प्रेरित करना चाहिये || १५ $||
“इनके दानका फल क्रमश: इस प्रकार है--गौका मूल्य देनेवाला छत्तीस हजार वर्षोतक, गौकी जगह वस्त्र दान करनेवाला आठ हजार वर्षोतक तथा गौके स्थानमें सुवर्ण देनेवाला पुरुष बीस हजार वर्षोतक परलोकमें सुख भोगता है। इस प्रकार गौओंके निष्क्रय दानका क्रमश: फल बताया गया है। इसे अच्छी तरह जान लेना चाहिये। साक्षात् गौका दान लेकर जब ब्राह्मण अपने घरकी ओर जाने लगता है, उस समय उसके आठ पग जाते-जाते ही दाताको अपने दानका फल मिल जाता है ।। १६-१७ ||
'साक्षात् गौका दान करनेवाला शीलवान् और उसका मूल्य देनेवाला निर्भय होता है तथा गौकी जगह इच्छानुसार सुवर्ण दान करनेवाला मनुष्य कभी दु:खमें नहीं पड़ता है। जो प्रातः:काल उठकर नैत्यिक नियमोंका अनुष्ठान करनेवाला और महाभारतका विद्वान है तथा जो विख्यात वैष्णव हैं, वे सब चन्द्रलोकमें जाते हैं || १८ ।।
'गौका दान करनेके पश्चात् मनुष्यकोी तीन राततक गोव्रतका पालन करना चाहिये और यहाँ एक रात गौओंके साथ रहना चाहिये। कामाष्टमीसे लेकर तीन राततक गोबर, गोदुग्ध अथवा गोरसमात्रका आहार करना चाहिये ।। १९ ।।
“जो पुरुष एक बैलका दान करता है, वह देवव्रती (सूर्यमण्डलका भेदन करके जानेवाला ब्रह्मचारी) होता है। जो एक गाय और एक बैल दान करता है उसे वेदोंकी प्राप्ति होती है, तथा जो विधिपूर्वक गोदान यज्ञ करता है उसे उत्तम लोक मिलते हैं, परन्तु जो विधिको नहीं जानता, उसे उत्तम फलकी प्राप्ति नहीं होती || २० ।।
“जो इच्छानुसार दूध देनेवाली धेनुका दान करता है, वह मानो समस्त पार्थिव भोगोंका एक साथ ही दान कर देता है। जब एक गौके दानका ऐसा माहात्म्य है तब हव्य-कव्यकी राशिसे सुशोभित होनेवाली बहुत-सी गौओंका यदि विधिपूर्वक दान किया जाय तो कितना अधिक फल हो सकता है? नौजवान बैलोंका दान उन गौओंसे भी अधिक पुण्यदायक होता है | २१ |।
'जो मनुष्य अपना शिष्य नहीं है, जो व्रतका पालन नहीं करता, जिसमें श्रद्धाका अभाव है तथा जिसकी बुद्धि कुटिल है, उसे इस गोदान-विधिका उपदेश न दे; क्योंकि यह सबसे गोपनीय धर्म है; अतः इसका यत्र-तत्र सर्वत्र प्रचार नहीं करना चाहिये || २२ ।।
'संसारमें बहुत-से अश्रद्धालु हैं (जो इन सब बातोंपर विश्वास नहीं करते) तथा राक्षसी प्रकृतिके मनुष्योंमें बहुत-से ऐसे क्षुद्र पुरुष हैं (जिन्हें ये बातें अच्छी नहीं लगतीं), कितने ही पुण्यहीन मानव नास्तिकताका सहारा लिये रहते हैं। उन सबको इसका उपदेश देना अभीष्ट नहीं है, उलटे अनिष्टकारक होता है” ।। २३ ।।
राजन! बृहस्पतिजीके इस उपदेशको सुनकर जिन राजाओंने गोदान करके उसके प्रभावसे उत्तम लोक प्राप्त किये तथा जो सदाके लिये पुण्यात्मा बनकर सत्करमोामें प्रवृत्त हुए, उनके नामोंका उल्लेख करता हूँ, सुनो || २४ ।।
उशीनर, विष्वगश्च, नृग, भगीरथ, सुविख्यात युवनाश्वकुमार महाराज मान्धाता, राजा मुचुकुन्द, भूरिद्युम्न, निषधनरेश नल, सोमक, पुरूरवा, चक्रवर्ती भरत--जिनके वंशमें होनेवाले सभी राजा भारत कहलाये, दशरथनन्दन वीर श्रीराम, अन्यान्य विख्यात कीर्तिवाले नरेश तथा महान् कर्म करनेवाले राजा दिलीप--इन समस्त विधिज्ञ नरेशोंने गोदान करके स्वर्गलोक प्राप्त किया है। राजा मान्धाता तो यज्ञ, दान, तपस्या, राजधर्म तथा गोदान आदि सभी श्रेष्ठ गुणोंसे सम्पन्न थे || २५--२७ ।।
अतः कुन्तीनन्दन! तुम भी मेरे कहे हुए बृहस्पतिजीके इस उपदेशको धारण करो और कौरव-राज्यपर अधिकार पाकर उत्तम ब्राह्मणको प्रसन्नतापूर्वक पवित्र गौओंका दान करो ।। २८ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! भीष्मजीने जब इस प्रकार विधिवत् गोदान करनेकी आज्ञा दी, तब धर्मराज युधिष्ठिरने सब वैसा ही किया तथा देवताओंके भी देवता बृहस्पतिजीने मान्धाताके लिये जिस उत्तम धर्मका उपदेश किया था, उसको भी भलीभाँति स्मरण रखा ।। २९ ||
नरेश्वर! राजाओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर उन दिनों सदा गोदानके लिये उद्यत होकर गोबरके साथ जौके कणोंका आहार करते हुए मन और इन्द्रियोंके संयमपूर्वक पृथ्वीपर शयन करने लगे। उनके सिरपर जटाएँ बढ़ गयीं और वे साक्षात् धर्मके समान देदीप्यमान होने लगे ।। ३० ।।
नरेन्द्र! राजा युधिष्ठिर सदा ही गौओंके प्रति विनीत-चित्त होकर उनकी स्तुति करते रहते थे। उन्होंने फिर कभी बैलका अपनी सवारीमें उपयोग नहीं किया। वे अच्छे-अच्छे घोड़ोंद्वारा ही इधर-उधरकी यात्रा करते थे ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गोदानकथनविषयक छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
सतहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) सतहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-35 का हिन्दी अनुवाद)
“कपिला गौओंकी उत्पत्ति और महिमाका वर्णन”
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर राजा युधिष्ठिरने पुनः शान्तनुनन्दन भीष्मसे गोदानकी विस्तृत विधि तथा तत्सम्बन्धी धर्मोके विषयमें विनयपूर्वक जिज्ञासा की ।। १ ||
युधिष्ठिर बोले--भारत! आप गोदानके उत्तम गुणोंका भलीभाँति पुनः मुझसे वर्णन कीजिये। वीर! ऐसा अमृतमय उपदेश सुनकर मैं तृप्त नहीं हो रहा हूँ || २ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्! धर्मराज युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर उस समय शान्तनुनन्दन भीष्म केवल गोदान-सम्बन्धी गुणोंका भलीभाँति (विधिवत्) वर्णन करने लगे ।। ३ ।।
भीष्मजीने कहा--बेटा! वात्सल्यभावसे युक्त, गुणवती और जवान गायको वस्त्र ओढ़ाकर उसका दान करे। ब्राह्मणको ऐसी गायका दान करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है | ४ ।।
असुर्य नामके जो अन्धकारमय लोक (नरक) हैं, उनमें गोदान करनेवाले पुरुषको नहीं जाना पड़ता। जिसका घास खाना और पानी पीना प्राय: समाप्त हो चुका हो, जिसका दूध नष्ट हो गया है, जिसकी इन्द्रियाँ काम न दे सकती हों, जो बुढ़ापा और रोगसे आक्रान्त होनेके कारण शरीरसे जीर्ण-शीर्ण हो बिना पानीकी बावड़ीके समान व्यर्थ हो गयी हो, ऐसी गौका दान करके मनुष्य ब्राह्मणको व्यर्थ कष्टमें डालता है और स्वयं भी घोर नरकमें पड़ता है || ५-६ ||
जो क्रोध करनेवाली, दुष्ट, रोगिणी और दुबली-पतली हो तथा जिसका दाम न चुकाया गया हो, ऐसी गौका दान करना कदापि उचित नहीं है। जो इस तरहकी गाय देकर ब्राह्मणको व्यर्थ कष्टमें डालता है, उसे निर्बल और निष्फल लोक ही प्राप्त होते हैं || ७
हृष्ट-पुष्ट, सुलक्षणा, जवान तथा उत्तम गन्धवाली गायकी सभी लोग प्रशंसा करते हैं। जैसे नदियोंमें गंगा श्रेष्ठ हैं, वैसे ही गौओंमें कपिला गौ उत्तम मानी गयी है ।।
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! किसी भी रंगकी गायका दान किया जाय, गोदान तो एक-सा ही होगा? फिर सत्पुरुषोंने कपिला गौकी ही अधिक प्रशंसा क्यों की है? मैं कपिलाके महान् प्रभावको विशेषरूपसे सुनना चाहता हूँ। मैं सुननेमें समर्थ हूँ और आप कहनेमें ।। ९ ।।
भीष्मजीने कहा--बेटा! मैंने बड़े-बूढ़ोंके मुँहसे रोहिणी (कपिला) की उत्पत्तिका जो प्राचीन वृत्तान्त सुना है, वह सब तुम्हें बता रहा हूँ || १० ।।
सृष्टिके प्रारम्भमें स्वयम्भू ब्रह्माजीने प्रजापति दक्षको यह आज्ञा दी कि “तुम प्रजाकी सृष्टि करो,' किंतु प्रजापति दक्षने प्रजाके हितकी इच्छासे सर्वप्रथम उनकी आजीविकाका ही निर्माण किया ।। ११ ।।
प्रभो! जैसे देवता अमृतका आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार समस्त प्रजा आजीविकाके सहारे जीवन धारण करती है || १२ ।।
स्थावर प्राणियोंसे जंगम प्राणी सदा श्रेष्ठ हैं। उनमें भी मनुष्य और मनुष्योंमें भी ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं; क्योंकि उन्हींमें यज्ञ प्रतिष्ठित हैं || १३ ।।
यज्ञसे सोमकी प्राप्ति होती है और वह यज्ञ गौओंमें प्रतिष्ठित है, जिससे देवता आनन्दित होते हैं; अत: पहले आजीविका है फिर प्रजा ।। १४ ।।
समस्त प्राणी उत्पन्न होते ही जीविकाके लिये कोलाहल करने लगे। जैसे भूखे-प्यासे बालक अपने माँ-बापके पास जाते हैं, उसी प्रकार समस्त जीव जीविकादाता दक्षके पास गये ।। १५ ।।
प्रजाजनोंकी इस स्थितिपर मन-ही-मन विचार करके भगवान् प्रजापतिने प्रजावर्गकी आजीविकाके लिये उस समय अमृतका पान किया ।। १६ ।।
अमृत पीकर जब वे पूर्ण तृप्त हो गये, तब उनके मुखसे सुरभि (मनोहर) गन्ध निकलने लगी। सुरभि गन्धके निकलनेके साथ ही “सुरभि” नामक गौ प्रकट हो गयी, जिसे प्रजापतिने अपने मुखसे प्रकट हुई पुत्रीके रूपमें देखा || १७ ।।
उस सुरभिने बहुत-सी 'सौरभेयी” नामवाली गौओंको उत्पन्न किया, जो सम्पूर्ण जगतके लिये माताके समान थीं। उन सबका रंग सुवर्णके समान उद्दीप्त हो रहा था। वे कपिला गौएँ प्रजाजनोंके लिये आजीविकारूप दूध देनेवाली थीं ।। १८ ।।
जैसे नदियोंकी लहरोंसे फेन उत्पन्न होता है, उसी प्रकार चारों ओर दूधकी धारा बहाती हुई अमृत (सुवर्ण) के समान वर्णवाली उन गौओंके दूधसे फेन उठने लगा ।। १९ ।।
एक दिन भगवान् शंकर पृथ्वीपर खड़े थे। उसी समय सुरभिके एक बछड़ेके मुँहसे फेन निकलकर उनके मस्तकपर गिर पड़ा। इससे वे कुपित हो उठे और अपने ललाटजनित नेत्रसे, मानो रोहिणीको भस्म कर डालेंगे, इस तरह उसकी ओर देखने लगे || २०६ ।।
प्रजानाथ! रुद्रका वह भयंकर तेज जिन-जिन कपिलाओंपर पड़ा, उनके रंग नाना प्रकारके हो गये। जैसे सूर्य बादलोंको अपनी किरणोंसे बहुरंगा बना देते हैं, उसी प्रकार उस तेजने उन सबको नाना वर्णवाली कर दिया || २१३ ।।
परंतु जो गौएँ वहाँसे भागकर चन्द्रमाकी ही शरणमें चली गयीं, वे जैसे उत्पन्न हुई थीं वैसे ही रह गयीं। उनका रंग नहीं बदला। उस समय क्रोधमें भरे हुए महादेवजीसे दक्षप्रजापतिने कहा-- || २२-२३ ।।
प्रभो! आपके ऊपर अमृतका छींटा पड़ा है। गौओंका दूध बछड़ोंके पीनेसे जूठा नहीं होता। जैसे चन्द्रमा अमृतका संग्रह करके फिर उसे बरसा देता है, उसी प्रकार ये रोहिणी गौएँ अमृतसे उत्पन्न दूध देती हैं || २४६ ।।
'जैसे वायु, अग्नि, सुवर्ण, समुद्र और देवताओंका पीया हुआ अमृत--े वस्तुएँ उच्छिष्ट नहीं होतीं, उसी प्रकार बछड़ोंके पीनेपर उन बछड़ोंके प्रति स्नेह रखनेवाली गौ भी दूषित या उच्छिष्ट नहीं होती। (तात्पर्य यह कि दूध पीते समय बछड़ेके मुँहसे गिरा हुआ झाग अशुद्ध नहीं माना जाता।) ये गौएँ अपने दूध और घीसे इस सम्पूर्ण जगत्का पालन करेंगी। सब लोग चाहते हैं कि इन गौओंके पास मंगलकारी अमृतमय दुग्धकी सम्पत्ति बनी रहे” || २५-२६३ ||
भरतनन्दन! ऐसा कहकर प्रजापतिने महादेवजीको बहुत-सी गौएँ और एक बैल भेंट किये तथा इसी उपायके द्वारा उनके मनको प्रसन्न किया || २७३ ।।
महादेवजी प्रसन्न हुए। उन्होंने वृषभको अपना वाहन बनाया और उसीकी आकृतिसे अपनी ध्वजाको चिह्नित किया, इसीलिये वे “वृषभध्वज” कहलाये ।।
तदनन्तर देवताओंने महादेवजीको पशुओंका अधिपति बना दिया और गौओंके बीचमें उन महेश्वरका नाम “वृषभांक” रख दिया ।। २९ |।
इस प्रकार कपिला गौएँ अत्यन्त तेजस्विनी और शान्त वर्णवाली हैं। इसीसे दानमें उन्हें सब गौओंसे प्रथम स्थान दिया गया है ।। ३० ।।
गौएँ संसारकी सर्वश्रेष्ठ वस्तु हैं। ये जगत्को जीवन देनेके कार्यमें प्रवृत्त हुई हैं। भगवान् शंकर सदा उनके साथ रहते हैं। वे चन्द्रमासे निकले हुए अमृतसे उत्पन्न हुई हैं तथा शान्त, पवित्र, समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली और जगत्को प्राणदान देनेवाली हैं; अतः गोदान करनेवाला मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंका दाता माना गया है ।। ३१ ।।
गौओंकी उत्पत्तिसे सम्बन्ध रखनेवाली इस उत्तम कथाका सदा पाठ करनेवाला मनुष्य अपवित्र हो तो भी मंगलप्रिय हो जाता है और कलियुगके सारे दोषोंसे छूट जाता है। इतना ही नहीं, उसे पुत्र, लक्ष्मी, धन तथा पशु आदिकी सदा प्राप्ति होती है ।। ३२ ।।
राजन! गोदान करनेवालेको हव्य, कव्य, तर्पण और शान्तिकर्मका फल तथा वाहन, वस्त्र एवं बालकों और वृद्धोंको संतोष प्राप्त होता है। इस प्रकार ये सब गोदानके गुण हैं। दाता इन सबको सदा पाता ही है ।। ३३ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--राजन्! पितामह भीष्मकी ये बातें सुनकर अजमीढवंशी राजा युधिष्ठिर और उनके भाइयोंने श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको सोनेके समान रंगवाले बैलों और उत्तम गौओंका दान किया ।। ३४ ।।
इसी प्रकार यज्ञोंकी दक्षिणाके लिये, पुण्यलोकोंपर विजय पानेके लिये तथा संसारमें अपनी उत्तम कीर्तिका विस्तार करनेके लिये राजाने उन्हीं ब्राह्मणोंको सैकड़ों और हजारों गौएँ दान कीं ।। ३५ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गौओंकी उत्पत्तिका वर्णनविषयक सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
अठहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) अठहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)
“वसिष्ठका सौदासको गोदानकी विधि एवं महिमा बताना”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! एक समयकी बात है, वक्ताओंमें श्रेष्ठ इक्ष्वाकुवंशी राजा सौदासने सम्पूर्ण लोकोंमें विचरनेवाले, वैदिक ज्ञानके भण्डार, सिद्ध सनातन ऋषिषभ्रेष्ठ वसिष्ठजीसे, जो उन्हींके पुरोहित थे, प्रणाम करके इस प्रकार पूछना आरम्भ किया ।। १-२ ।।
सौदास बोले--भगवन्! निष्पाप महर्षे! तीनों लोकोंमें ऐसी पवित्र वस्तु कौन कही जाती है जिसका नाम लेनेमात्रसे मनुष्यको सदा उत्तम पुण्यकी प्राप्ति हो सके? ।। ३
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! अपने चरणोंमें पड़े हुए राजा सौदाससे गवोपनिषद् (गौओंकी महिमाके गूढ़ रहस्यको प्रकट करनेवाली विद्या) के विद्वान् पवित्र महर्षि वसिष्ठने गौओंको नमस्कार करके इस प्रकार कहना आरम्भ किया-- || ४ ||
“राजन! गौओंके शरीरसे अनेक प्रकारकी मनोरम सुगन्ध निकलती रहती है तथा बहुतेरी गौएँ गुग्गुलके समान गन्धवाली होती हैं। गौएँ समस्त प्राणियोंकी प्रतिष्ठा (आधार) हैं और गौएँ ही उनके लिये महान् मंगलकी निधि हैं || ५ ।।
गौएँ ही भूत और भविष्य हैं। गौएँ ही सदा रहनेवाली पुष्टिका कारण तथा लक्ष्मीकी जड़ हैं। गौओंको जो कुछ दिया जाता है, उसका पुण्य कभी नष्ट नहीं होता ।। ६ ।।
'गौएँ ही सर्वोत्तम अन्नकी प्राप्तिमें कारण हैं। वे ही देवताओंको उत्तम हविष्य प्रदान करती हैं। स्वाहाकार (देवयज्ञ) और वषट्कार (इन्द्रयाग)--ये दोनों कर्म सदा गौओंपर ही अवलम्बित हैं || ७ ।।
'गौएँ ही यज्ञका फल देनेवाली हैं। उन्हींमें यज्ञोंकी प्रतिष्ठा है। गौएँ ही भूत और भविष्य हैं। उन्हींमें यज्ञ प्रतिष्ठित हैं, अर्थात् यज्ञ गौओंपर ही निर्भर है || ८ ।।
“महातेजस्वी पुरुषप्रवर! प्रातः:काल और सायंकाल सदा होमके समय ऋषियोंको गौएँ ही हवनीय पदार्थ (घृत आदि) देती हैं || ९ ।।
'प्रभो! जो लोग (नवप्रसूतिका दूध देनेवाली) गौका दान करते हैं, वे जो कोई भी दुर्गम संकट आनेवाले होते हैं, उन सबसे अपने किये हुए दुष्कर्मोंस तथा समस्त पापसमूहसे भी तर जाते हैं ।। १० ।।
“जिसके पास दस गौएँ हों, वह एक गौका दान करे। जो सौ गायें रखता हो, वह दस गौओंका दान करे और जिसके पास एक हजार गौएँ मौजूद हों, वह सौ गौएँ दानमें दे दे तो इन सबको बराबर ही फल मिलता है ।। ११ ।।
“जो सौ गौओंका स्वामी होकर भी अग्निहोत्र नहीं करता, जो हजार गौएँ रखकर भी यज्ञ नहीं करता तथा जो धनी होकर भी कृपणता नहीं छोड़ता--ये तीनों मनुष्य अर्घ्य (सम्मान) पानेके अधिकारी नहीं हैं || १२ ।।
'जो उत्तम लक्षणोंसे युक्त कपिला गौको वस्त्र ओढ़ाकर बछड़ेसहित उसका दान करते हैं और उसके साथ दूध दुहनेके लिये एक कॉँस्यका पात्र भी देते हैं, वे इहलोक और परलोक दोनोंपर विजय पाते हैं ।। १३ ।।
'शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! जो लोग जवान, सभी इन्द्रियोंसे सम्पन्न, सौ गायोंके यूथपति, बड़ी-बड़ी सींगोंवाले गवेन्द्र वृषभ (साँड़) को सुसज्जित करके सौ गायोंसहित उसे श्रोत्रिय ब्राह्मणको दान करते हैं, वे जब-जब इस संसारमें जन्म लेते हैं, तब-तब महान् ऐश्वर्यके भागी होते हैं ।। १४-१५ ।।
“गौओंका नाम-कीर्तन किये बिना न सोये। उनका स्मरण करके ही उठे और सबेरेशाम उन्हें नमस्कार करे। इससे मनुष्यको बल एवं पुष्टि प्राप्त होती है ।। १६ ।।
“गौओंके मूत्र और गोबरसे किसी प्रकार उद्विग्न न हो--घृणा न करे और उनका मांस न खाय। इससे मनुष्यको पुष्टि प्राप्त होती है ।। १७ ।।
“प्रतिदिन गौओंका नाम ले। उनका कभी अपमान न करे। यदि बुरे स्वप्न दिखायी दें तो मनुष्य गोमाताका नाम ले || १८ ।।
“प्रतिदिन शरीरमें गोबर लगाकर स्नान करे। सूखे हुए गोबरपर बैठे। उसपर थूक न फेंके, मल-मूत्र न छोड़े तथा गौओंके तिरस्कारसे बचता रहे ।। १९ ।।
'भीगे हुए गोचर्मपर बैठकर भोजन करे। पश्चिम दिशाकी ओर देखे और मौन हो भूमिपर बैठकर घीका भक्षण करे। इससे सदा गौओंकी वृद्धि एवं पुष्टि होती है ।। २० ।।
“अग्निमें घृतसे हवन करे। घृतसे ही स्वस्तिवाचन कराये। घृतका दान करे और स्वयं भी गौका घृत ही खाय। इससे मनुष्य सदा गौओंकी पुष्टि वृद्धिका अनुभव करता है ।। २१ ||
“जो मनुष्य सब प्रकारके रत्नोंसे युक्त तिलकी धेनुको “गोमाँ अग्नेविमाँ अश्रि' इत्यादि गोमती-मन्त्रसे अभिमन्त्रित करके उसका ब्राह्मणको दान करता है, वह किये हुए शुभाशुभ कर्मके लिये शोक नहीं करता ।। २२ ।।
“जैसे नदियाँ समुद्रके पास जाती हैं, उसी तरह सोनेसे मढ़ी हुई सींगोंवाली, दूध देनेवाली सुरभी और सौरभेयी गौएँ मेरे निकट आयें ।। २३ ।।
“मैं सदा गौओंका दर्शन करूँ और गौएँ मुझपर कृपा-दृष्टि करें। गौएँ हमारी हैं और हम गौओंके हैं। जहाँ गौएँ रहें, वहीं हम रहें || २४ ।।
“जो मनुष्य इस प्रकार रातमें या दिनमें, सम अवस्थामें या विषम अवस्थामें तथा बड़ेसे-बड़े भय आनेपर भी गोमाताका नामकीर्तन करता है, वह भयसे मुक्त हो जाता है! २५ ||
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपरव्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गोदानविषयक अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
उन्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) उन्यासीवें अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)
“गौओंको तपस्याद्वारा अभीष्ट वरकी प्राप्ति तथा उनके दानकी महिमा, विभिन्न प्रकारके गौओंके दानसे विभिन्न उत्तम लोकोंमें गमनका कथन”
वसिष्ठजी कहते हैं--मानद परंतप! प्राचीन कालमें जब गौओंकी सृष्टि हुई थी, तब उन गौओंने एक लाख वर्षोतक बड़ी कठोर तपस्या की थी। उनकी तपस्याका उद्देश्य यह था कि हम श्रेष्ठता प्राप्त करें। इस जगतमें जितनी दक्षिणा देने योग्य वस्तुएँ हैं, उन सबमें हम उत्तम समझी जायाँ। किसी दोषसे लिप्त न हों। हमारे गोबरसे स्नान करनेपर सदा सब लोग पवित्र हों। देवता और मनुष्य पवित्रताके लिये हमेशा हमारे गोबरका उपयोग करें। समस्त चराचर प्राणी भी हमारे गोबरसे पवित्र हो जायेँ और हमारा दान करनेवाले मनुष्य हमारे ही लोक (गोलोकधाम) में जाया ।।
जब उनकी तपस्या समाप्त हुई, तब साक्षात् भगवान ब्रह्माने उन्हें वर दिया--“गौओ! ऐसा ही हो--तुम्हारे मनमें जो संकल्प है, वह परिपूर्ण हो। तुम सम्पूर्ण जगत्के जीवोंका उद्धार करती रहो” ।। ५ ।।
इस प्रकार अपनी समस्त कामनाएँ सिद्ध हो जानेपर गौएँ तपस्यासे उठीं। वे भूत, भविष्य और वर्तमान--तीनों कालोंकी जननी हैं; अतः प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर गौओंको प्रणाम करना चाहिये। इससे मनुष्योंको पुष्टि प्राप्त होती है || ६ ।।
महाराज! तपस्या समाप्त होनेपर गौएँ सम्पूर्ण जगत्का आश्रय बन गयीं; इसलिये वे महान् सौभाग्यशालिनी गौएँ परम पवित्र बतायी जाती हैं ।। ७ ।।
ये समस्त प्राणियोंके मस्तकपर स्थित हैं (अर्थात् सबसे श्रेष्ठ एवं वन्दनीय हैं)। जो मनुष्य दूध देनेवाली सुलक्षणा कपिला गौको वस्त्र ओढ़ाकर कपिल रंगके बछड़ेसहित दान करता है, वह ब्रह्मलोकमें सम्मानित होता है ।। ८ ।।
जो मनुष्य दूध देनेवाली सुलक्षणा लाल रंगकी गौको वस्त्र ओढ़ाकर लाल रंगके बछड़ेसहित दान करता है, वह सूर्यलोकमें सम्मानित होता है ।। ९ ।।
जो पुरुष दूध देनेवाली सुलक्षणा चितकबरी गौको वस्त्र ओढ़ाकर चितकबरे बछड़ेसहित दान करता है, वह चन्द्रलोकमें पूजित होता है || १० ।।
जो मानव दूध देनेवाली सुलक्षणा श्वेत वर्णकी गौको वस्त्र ओढ़ाकर श्वेत वर्णके बछड़ेसहित दान करता है, उसे इन्द्रलोकमें सम्मान प्राप्त होता है ।। ११ ।।
जो मनुष्य दूध देनेवाली सुलक्षणा कृष्ण वर्णकी गौको वस्त्र ओढ़ाकर कृष्ण वर्णके बछड़ेसहित दान करता है, वह अग्निलोकमें प्रतिष्ठित होता है ।। १२ ।।
जो पुरुष दूध देनेवाली सुलक्षणा धूएँ-जैसे रंगकी गौको वस्त्र ओढ़ाकर धूएँके समान रंगके बछड़ेसहित दान करता है, वह यमलोकमें सम्मानित होता है || १३ ।।
जो जलके फेनके समान रंगवाली गौको वस्त्र ओढ़ाकर बछड़े और कांस्यके दुग्धपात्रसहित दान करता है, वह वरुणलोकको प्राप्त होता है ।। १४ ।।
जो हवासे उड़ी हुई धूलके समान रंगवाली गौको वस्त्र ओढ़ाकर बछड़े और कांस्यके दुग्धपात्रसहित दान करता है, उसकी वायुलोकमें पूजा होती है || १५ ।।
जो सुवर्णके समान रंग तथा पिंगल वर्णके नेत्रवाली गौको वस्त्र ओढ़ाकर बछड़े और कांस्यके दुग्धपात्रसहित दान करता है, वह कुबेर-लोकको प्राप्त होता है ।। १६ ।।
जो पुआलके धूएँके समान रंगवाली बछड़ेसहित गौको वस्त्रसे आच्छादित करके कांस्यके दुग्धपात्रसहित दान करता है, वह पितृलोकमें प्रतिष्ठित होता है || १७ ।।
जो लटकते हुए गलकम्बलसे युक्त मोटी-ताजी सवत्सा गौको अलंकृत करके ब्राह्मणको दान देता है, वह बिना किसी बाधाके विश्वेदेवोंके श्रेष्ठ लोकमें पहुँच जाता है ।। १८ ।।
जो गौर वर्णवाली और दूध देनेवाली शुभलक्षणा गौको वस्त्र ओढ़ाकर समान रंगवाले बछड़ेसहित दान करता है, वह वसुओंके लोकमें जाता है ।। १९ ।।
जो श्वेत कम्बलके समान रंगवाली सवत्सा गौको वस्त्रसे आच्छादित करके कांस्यके दुग्धपात्रसहित दान करता है, वह साध्योंके लोकमें जाता है || २० ।।
राजन! जो विशालपृष्ठभागवाले बैलको सब प्रकारके रत्नोंसे अलंकृत करके उसका दान करता है, वह मरुद्गणोंके लोकोंमें जाता है || २१ ।।
जो मनुष्य यौवनसे सम्पन्न और सुन्दर अंगवाले बैलको सम्पूर्ण रत्नोंसे विभूषित करके उसका दान करता है, वह गन्धर्वों और अप्सराओंके लोकोंको प्राप्त करता है || २२ ।।
जो लटकते हुए गलकम्बलवाले तथा गाड़ीका बोझ ढोनेमें समर्थ बैलको सम्पूर्ण रत्नोंसे अलंकृत करके ब्राह्मणको देता है, वह शोकरहित हो प्रजापतिके लोकोंमें जाता है || २३ ।।
राजन! गोदानमें अनुरागपूर्वक तत्पर रहनेवाला पुरुष सूर्यके समान देदीप्यमान विमानमें बैठकर मेघमण्डलको भेदता हुआ स्वर्गमें जाकर सुशोभित होता है || २४ ।।
उस गोदानपरायण श्रेष्ठ मनुष्यको मनोहर वेष और सुन्दर नितम्बवाली सहस्रों देवांगनाएँ (अपनी सेवासे) रमण कराती हैं || २५ ।।
वह वीणा और वल्लकीके मधुर गुंजन, मृगनयनी युवतियोंके नूपुरोंकी मनोहर झनकारों तथा हास-परिहासके शब्दोंको श्रवण करके नींदसे जागता है || २६ ।।
गौके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोतक वह स्वर्गलोकमें सम्मानपूर्वक रहता है। फिर पुण्यक्षीण होनेपर जब स्वर्गसे नीचे उतरता है, तब इस मनुष्यलोकमें आकर सम्पन्न घरमें जन्म लेता है ।। २७ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गोदानविषयक उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
अस्सीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) अस्सीवें अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“गौओं तथा गोदानकी महिमा”
वसिष्ठजी कहते हैं--राजन्! मनुष्यको चाहिये कि सदा सबेरे और सायंकाल आचमन करके इस प्रकार जप करे--“'घी और दूध देनेवाली, घीकी उत्पत्तिका स्थान, घीको प्रकट करनेवाली, घीकी नदी तथा घीकी भवँररूप गौएँ मेरे घरमें सदा निवास करें। गौका घी मेरे हृदयमें सदा स्थित रहे। घी मेरी नाभिमें प्रतिष्ठित हो। घी मेरे सम्पूर्ण अंगोंमें व्याप्त रहे और घी मेरे मनमें स्थित हो। गौएँ मेरे आगे रहें। गौंएँ मेरे पीछे भी रहें। गौएँ मेरे चारों ओर रहें और मैं गौओंके बीचमें निवास करूँ।” इस प्रकार प्रतिदिन जप करनेवाला मनुष्य दिनभरमें जो पाप करता है, उससे छुटकारा पा जाता है || १--४ ।।
सहस्र गौओंका दान करनेवाले मनुष्य जहाँ सोनेके महल हैं, जहाँ स्वर्गगंगा बहती हैं तथा जहाँ गन्धर्व और अप्सराएँ निवास करती हैं, उस स्वर्गलोकमें जाते हैं ।।
सहस्र गौओंका दान करनेवाले पुरुष जहाँ दूधके जलसे भरी हुई, दहीके सेवारसे व्याप्त हुई तथा मक्खनरूपी कीचड़से युक्त हुई नदियाँ बहती हैं, वहीं जाते हैं ।। ६ ।।
जो विधिपूर्वक एक लाख गौओंका दान करता है, वह अत्यन्त अभ्युदयको पाकर स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है | ७ ।।
वह मनुष्य अपने माता और पिताकी दस-दस पीढ़ियोंको पवित्र करके उन्हें पुण्यमय लोकोंमें भेजता है और अपने कुलको भी पवित्र कर देता है ।। ८ ।।
जो गायके बराबर तिलकी गाय बनाकर उसका दान करता है, अथवा जो जलधेनुका दान करता है, उसे यमलोकमें जाकर वहाँकी कोई यातना नहीं भोगनी पड़ती है ।। ९ ।।
गौ सबसे अधिक पवित्र, जगत्का आधार और देवताओंकी माता है। उसकी महिमा अप्रमेय है। उसका सादर स्पर्श करे और उसे दाहिने रखकर चले तथा उत्तम समय देखकर उसका सुपात्र ब्राह्मणको दान करे ।। १० ।।
जो बड़े-बड़े सींगोंवाली कपिला धेनुको वस्त्र ओढ़ाकर उसे बछड़े और काँसीकी दोहनीसहित ब्राह्मणको दान करता है, वह मनुष्य यमराजकी दुर्गम सभामें निर्भय होकर प्रवेश करता है ।। ११ ।।
प्रतिदिन यह प्रार्थना करनी चाहिये कि सुन्दर एवं अनेक प्रकारके रूप-रंगवाली विश्वरूपिणी गोमाताएँ सदा मेरे निकट आयें ।। १२ ।।
गोदानसे बढ़कर कोई पवित्र दान नहीं है। गोदानके फलसे श्रेष्ठ दूसरा कोई फल नहीं है तथा संसारमें गौसे बढ़कर दूसरा कोई उत्कृष्ट प्राणी नहीं है ।। १३ ।।
त्वचा, रोम, सींग, पूँछके बाल, दूध और मेदा आदिके साथ मिलकर गौ (दूध, दही, घी आदिके द्वारा) यज्ञका निर्वाह करती है; अतः उससे श्रेष्ठ दूसरी कौन-सी वस्तु है || १४ ।।
जिसने समस्त चराचर जगत्को व्याप्त कर रखा है, उस भूत और भविष्यकी जननी गौको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ ।। १५ ।।
नरश्रेष्ठ यह मैंने तुमसे गौओंके गुणवर्णनसम्बन्धी साहित्यका एक लघु अंशमात्र बताया है-दिग्दर्शनमात्र कराया है। गौओंके दानसे बढ़कर इस संसारमें दूसरा कोई दान नहीं है, तथा उनके समान दूसरा कोई आश्रय भी नहीं है ।। १६ ।।
भीष्मजी कहते हैं--महर्षि वसिष्ठके ये वचन सुनकर भूमिदान करनेवाले संयतात्मा महामना राजा सौदासने “यह बहुत उत्तम पुण्यकार्य है” ऐसा सोचकर ब्राह्मणोंको बहुत-सी गौएँ दान दी। इससे उन्हें उत्तम लोकोंकी प्राप्ति हुई || १७ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गोदानविषयक अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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