सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के इकहत्तरवें अध्याय से पचहत्तरवें अध्याय तक (From the 71 chapter to the 75 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

इकहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) इकहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-57 का हिन्दी अनुवाद) 

“पिताके शापसे नाचिकेतका यमराजके पास जाना और यमराजका नाचिकेतको गोदानकी महिमा बताना”

युधिष्ठिरने पूछा--निष्पाप महाबाहो! गौओंके दानसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह मुझे विस्तारके साथ बताइये। मुझे आपके वचनामृतोंको सुनते-सुनते तृप्ति नहीं होती है, इसलिये अभी और कहिये ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! इस विषयमें विज्ञ पुरुष उद्दालक ऋषि और नाचिकेत दोनोंके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। २ ।।

एक समय उद्दालक ऋषिने यज्ञकी दीक्षा लेकर अपने पुत्र नाचिकेतसे कहा--“तुम मेरी सेवामें रहो।” ।। ३ ।।

उस यज्ञका नियम पूरा हो जानेपर महर्षिने अपने पुत्रसे कहा--“बेटा! मैंने समिधा, कुशा, फूल, जलका घड़ा और प्रचुर भोजन-सामग्री (फल-फूल आदि)--इन सबका संग्रह करके नदीके किनारे रख दिया और स्नान तथा वेदपाठ करने लगा। फिर उन सब वस्तुओंको भूलकर मैं यहाँ चला आया। अब तुम जाकर नदीतटसे वह सब सामान यहाँ ले आओ' ।। ४-५ ||

नाचिकेत जब वहाँ गया, तब उसे कुछ न मिला। सारा सामान नदीके वेगमें बह गया था। नाचिकेत मुनि लौट आया और पितासे बोला--'मुझे तो वहाँ वह सब सामान नहीं दिखायी दिया” ।। ६ ।।

महातपस्वी उद्दालक मुनि उस समय भूख-प्याससे कष्ट पा रहे थे, अतः रुष्ट होकर बोले--'अरे वह सब तुम्हें क्यों दिखायी देगा? जाओ यमराजको देखो।” इस प्रकार उन्होंने उसे शाप दे दिया ।। ७ ।।

पिताके वाग्वज़्से पीड़ित हुआ नाचिकेत हाथ जोड़कर बोला--'प्रभो! प्रसन्न होइये।' इतना ही कहते-कहते वह निष्प्राण होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा ।। ८ ।।

नाचिकेतको गिरा देख उसके पिता भी दु:खसे मूर्च्छित हो गये और “अरे, यह मैंने क्या कर डाला!” ऐसा कहकर पृथ्वीपर गिर पड़े ।। ९ ।।

दुःखमें डूबे और बारंबार अपने पुत्रके लिये शोक करते हुए ही महर्षिका वह शेष दिन व्यतीत हो गया और भयानक रात्रि भी आकर समाप्त हो गयी ।। १० ।।

कुरुश्रेष्ठ! कुशकी चटाईपर पड़ा हुआ नाचिकेत पिताके आँसुओंकी धारासे भीगकर कुछ हिलने-डुलने लगा, मानो वर्षसे सिंचकर अनाजकी सूखी खेती हरी हो गयी हो | ११ ||

महर्षिका वह पुत्र मरकर पुन: लौट आया, मानो नींद टूट जानेसे जाग उठा हो। उसका शरीर दिव्य सुगन्धसे व्याप्त हो रहा था। उस समय उद्दालकने उससे पूछा-- ।। १२ ।।

बेटा! क्‍या तुमने अपने कर्मसे शुभ लोकोंपर विजय पायी है? मेरे सौभाग्यसे ही तुम पुनः यहाँ चले आये हो। तुम्हारा यह शरीर मनुष्योंका-सा नहीं है--दिव्य भावको प्राप्त हो गया है” ।। १३ ।।

अपने महात्मा पिताके इस प्रकार पूछनेपर परलोककी सब बातोंको प्रत्यक्ष देखनेवाला नाचिकेत महर्षियोंके बीचमें पितासे वहाँका सब वृत्तान्त निवेदन करने लगा-- ।। १४ ।।

“पिताजी! मैं आपकी आज्ञाका पालन करनेके लिये यहाँसे तुरन्त प्रस्थित हुआ और मनोहर कान्ति एवं प्रभावसे युक्त विशाल यमपुरीमें पहुँचकर मैंने वहाँकी सभा देखी, जो सुवर्णके समान सुन्दर प्रभासे प्रकाशित हो रही थी। उसका तेज सहस्रों योजन दूरतक फैला हुआ था || १५ |।

“मुझे सामनेसे आते देख विवस्वानके पुत्र यमने अपने सेवकोंको आज्ञा दी कि “इनके लिये आसन दो।” उन्होंने आपके नाते अर्घ्य आदि पूजनसम्बन्धी उपचारोंसे स्वयं ही मेरा पूजन किया ।। १६ |।

“तब सब सदस्योंसे घिरकर उनके द्वारा पूजित होते हुए मैंने वैवस्वत यमसे धीरेसे कहा --'धर्मराज! मैं आपके राज्यमें आया हूँ; मैं जिन लोकोंमें जानेके योग्य होऊँ, उनमें जानेके लिये मुझे आज्ञा दीजिये" || १७ ।।

“तब यमराजने मुझसे कहा--“सौम्य! तुम मरे नहीं हो। तुम्हारे तपस्वी पिताने इतना ही कहा था कि तुम यमराजको देखो। विप्रवर! वे तुम्हारे पिता प्रजजलित अग्निके समान तेजस्वी हैं। उनकी बात झूठी नहीं की जा सकती ।। १८ ।।

“तात! तुमने मुझे देख लिया। अब तुम लौट जाओ। तुम्हारे शरीरका निर्माण करनेवाले वे तुम्हारे पिताजी शोकमग्न हो रहे हैं। वत्स! तुम मेरे प्रिय अतिथि हो। तुम्हारा कौन-सा मनोरथ मैं पूर्ण करूँ। तुम्हारी जिस-जिस वस्तुके लिये इच्छा हो, उसे माँग लो” ।। १९ ।।

“उनके ऐसा कहनेपर मैंने इस प्रकार उत्तर दिया--“भगवन्‌! मैं आपके उस राज्यमें आ गया हूँ, जहाँसे लौटकर जाना अत्यन्त कठिन है। यदि मैं आपकी दृष्टिमें वर पानेके योग्य होऊँ तो पुण्यात्मा पुरुषोंको मिलनेवाले समृद्धिशाली लोकोंका मैं दर्शन करना चाहता हूँ! ।। २० ।।

द्विजेन्द्र! तब यम देवताने वाहनोंसे जुते हुए उत्तम प्रकाशसे युक्त तेजस्वी रथपर मुझे बिठाकर पुण्यात्माओंको प्राप्त होनेवाले अपने यहाँके सभी लोकोंका मुझे दर्शन कराया ।। २१ ।।

“तब मैंने महामनस्वी पुरुषोंको प्राप्त होनेवाले वहाँके तेजोमय भवनोंका दर्शन किया। उनके रूप-रंग और आकार-प्रकार अनेक तरहके थे। उन भवनोंका सब प्रकारके रत्नोंद्वारा निर्माण किया गया था ।। २२ ।।

“कोई चन्द्रमण्डलके समान उज्ज्वल थे। किन्हींपर क्षुद्रघंटियोंसे युक्त झालरें लगी थीं। उनमें सैकड़ों कक्षाएँ और मंजिलें थीं। उनके भीतर जलाशय और वन-उपवन सुशोभित थे। कितनोंका प्रकाश नीलमणिमय सूर्यके समान था। कितने ही चाँदी और सोनेके बने हुए थे। दिन्हीं-किन्हीं भवनोंके रंग प्रातःकालीन सूर्यके समान लाल थे। उनमेंसे कुछ विमान या भवन तो स्थावर थे और कुछ इच्छानुसार विचरनेवाले थे || २३-२४ ।।

“उन भवनोंमें भक्ष्य और भोज्य पदार्थोंके पर्वत खड़े थे। वस्त्रों और शय्याओंके ढेर लगे थे तथा सम्पूर्ण मनोवांछित फलोंको देनेवाले बहुत-से वृक्ष उन गृहोंकी सीमाके भीतर लहलहा रहे थे || २५ ।।

“उन दिव्य लोकोंमें बहुत-सी नदियाँ, गलियाँ, सभाभवन, बावड़ियाँ, तालाब और जोतकर तैयार खड़े हुए घोषयुक्त सहस्रों रथ मैंने सब ओर देखे थे | २६ ।।

“मैंने दूध बहानेवाली नदियाँ, पर्वत, घी और निर्मल जल भी देखे तथा यमराजकी अनुमतिसे और भी बहुत-से पहलेके न देखे हुए प्रदेशोंका दर्शन किया ।। २७ ।।

“उन सबको देखकर मैंने प्रभावशाली पुरातन देवता धर्मराजसे कहा--'प्रभो! ये जो घी और दूधकी नदियाँ बहती रहती हैं, जिनका स्रोत कभी सूखता नहीं है, किनके उपभोगमें आती हैं--इन्हें किनका भोजन नियत किया गया है?” ।। २८ ।।

“यमराजने कहा--“ब्रह्मन! तुम इन नदियोंको उन श्रेष्ठ पुरुषोंका भोजन समझो, जो गोरस दान करनेवाले हैं। जो गोदानमें तत्पर हैं, उन पुण्यात्माओंके लिये दूसरे भी सनातन लोक विद्यमान हैं, जिनमें दुःख-शोकसे रहित पुण्यात्मा भरे पड़े हैं । २९ ।।

“विप्रवर! केवल इनका दानमात्र ही प्रशस्त नहीं है; सुपात्र ब्राह्मण, उत्तम समय, विशिष्ट गौ तथा दानकी सर्वोत्तम विधि--इन सब बातोंको जानकर ही गोदान करना चाहिये। गौओंका आपसमें जो तारतम्य है, उसे जानना बहुत कठिन काम है और अग्नि एवं सूर्यके समान तेजस्वी पात्रको पहचानना भी सरल नहीं है ।। ३० ।।

जो ब्राह्मण वेदोंके स्वाध्यायसे सम्पन्न, अत्यन्त तपस्वी तथा यज्ञके अनुष्ठानमें लगा हुआ हो, वही इन गौओंके दानका सर्वोत्तम पात्र है। इनके सिवा जो ब्राह्मण कृच्छुव्रतसे मुक्त हुए हों और परिवारकी पुष्टिके लिये गोदानके प्रार्थी होकर आये हों, वे भी दानके उत्तम पात्र हैं। इन सुयोग्य पात्रोंको निमित्त बनाकर दानमें दी गयी श्रेष्ठ गौएँ उत्तम मानी गयी हैं । ३१ ।।

“तीन राततक उपवासपूर्वक केवल जल पीकर धरतीपर शयन करे। तत्पश्चात्‌ खिलापिलाकर तृप्त की हुई गौओंका भोजन आदिसे संतुष्ट किये हुए ब्राह्मणोंको दान करे। वे गौएँ बछड़ोंके साथ रहकर प्रसन्न हों, सुन्दर बच्चे देनेवाली हों तथा अन्यान्य आवश्यक सामग्रियोंसे युक्त हों। ऐसी गौओंका दान करके तीन दिनोंतक केवल गोरसका आहार करके रहना चाहिये ।। ३२ ।।

“उत्तम शील-स्वभाववाली, भले बछड़ेवाली और भागकर न जानेवाली दुधारू गायका कांस्यके दुग्धपात्रसहित दान करके उस गौके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोतक दाता स्वर्गलोकका सुख भोगता है ।। ३३ ।।

“इसी प्रकार जो शिक्षा देकर काबूमें किये हुए, बोझ ढोनेमें समर्थ, बलवान, जवान, कृषक-समुदायकी जीविका चलानेयोग्य, पराक्रमी और विशाल डील-डौलवाले बैलका ब्राह्मणोंको दान देता है, वह दुधारू गायका दान करनेवालेके तुल्य ही उत्तम लोकोंका उपभोग करता है ।॥। ३४ ।।

जो गौओंके प्रति क्षमाशील, उनकी रक्षा करनेमें समर्थ, कृतज्ञ और आजीविकासे रहित है, ऐसे ब्राह्मणको गोदानका उत्तम पात्र बताया गया है। जो बूढ़ा हो, रोगी होनेके कारण पथ्य-भोजन चाहता हो, दुर्भिक्ष आदिके कारण घबराया हो, किसी महान्‌ यज्ञका अनुष्ठान करनेवाला हो या जिसके लिये खेतीकी आवश्यकता आ पड़ी हो, होमके लिये हविष्य प्राप्त करनेकी इच्छा हो अथवा घरमें स्त्रीके बच्चा पैदा होनेवाला हो अथवा गुरुके लिये दक्षिणा देनी हो अथवा बालककी पुष्टिके लिये गोदुग्धकी आवश्यकता आ पड़ी हो, ऐसे व्यक्तियोंको ऐसे अवसरोंपर गोदानके लिये सामान्य देश-काल माना गया है (ऐसे समयमें देश-कालका विचार नहीं करना चाहिये)। जिन गौओंका विशेष भेद जाना हुआ हो, जो खरीदकर लायी गयी हों अथवा ज्ञानके पुरस्काररूपसे प्राप्त हुई हों अथवा प्राणियोंके अदला-बदलीसे खरीदी गयी हों या जीतकर लायी गयी हों अथवा दहेजमें मिली हों, ऐसी गौएँ दानके लिये उत्तम मानी गयी हैं” ।।

नाचिकेत कहता है--वैवस्वत यमकी बात सुनकर मैंने पुनः उनसे पूछा--“भगवन्‌! यदि अभाववश गोदान न किया जा सके तो गोदान करनेवालोंको ही मिलनेवाले लोकोंमें मनुष्य कैसे जा सकता है?” ।।

तदनन्तर बुद्धिमान्‌ यमराजने गोदानसम्बन्धी गति तथा गोदानके समान फल देनेवाले दानका वर्णन किया, जिसके अनुसार बिना गायके भी लोग गोदान करनेवाले हो सकते हैं? ।। ३८ ।।

“जो गौओंके अभावमें संयम-नियमसे युक्त हो घृतधेनुका दान करता है, उसके लिये ये घृतवाहिनी नदियाँ वत्सला गौओंकी भाँति घृत बहाती हैं || ३९ ।।

'घीके अभावमें जो व्रत-नियमसे युक्त हो तिलमयी धेनुका दान करता है, वह उस धेनुके द्वारा संकटसे उद्धार पाकर दूधकी नदीमें आनन्दित होता है || ४० ।।

“तिलके अभावमें जो व्रतशील एवं नियमनिष्ठ होकर जलमयी धेनुका दान करता है, वह अभीष्ट वस्तुओंको बहानेवाली इस शीतल नदीके निकट रहकर सुख भोगता है! || ४१ |।

धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले पूज्य पिताजी! इस प्रकार धर्मराजने मुझे वहाँ ये सब स्थान दिखाये। वह सब देखकर मुझे बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ ।। ४२ ।।

तात! मैं आपके लिये यह प्रिय वृत्तान्त निवेदन करता हूँ कि मैंने वहाँ थोड़े-से ही धनसे सिद्ध होनेवाला यह गोदानरूप महान्‌ यज्ञ प्राप्त किया है। वह यहाँ वेदविधिके अनुसार मुझसे प्रकट होकर सर्वत्र प्रचलित होगा ।। ४३ ।।

आपके द्वारा मुझे जो शाप मिला, वह वास्तवमें मुझपर अनुग्रहके लिये ही प्राप्त हुआ था, जिससे मैंने यमलोकमें जाकर वहाँ यमराजको देखा। महात्मन्‌! वहाँ दानके फलको प्रत्यक्ष देखकर मैं संदेहरहित दानधर्मोका अनुष्ठान करूँगा ।। ४४ ।।

महर्षे! धर्मराजने बारंबार प्रसन्न होकर मुझसे यह भी कहा था कि “जो लोग दानसे सदा पवित्र होना चाहें" वे विशेषरूपसे गोदान करें ।। ४५ ।।

“मुनिकुमार! धर्म निर्दोष विषय है। तुम धर्मकी अवहेलना न करना। उत्तम देश, काल प्राप्त होनेपर सुपात्रको दान देते रहना चाहिये। अतः तुम्हें सदा ही गोदान करना उचित है। इस विषयमें तुम्हारे भीतर कोई संदेह नहीं होना चाहिये || ४६ ।।

'पूर्वकालमें शान्तचित्तवाले पुरुषोंने दानके मार्ममें स्थित हो नित्य ही गौओंका दान किया था। वे अपनी उग्र तपस्याके विषयमें संदेह न रखते हुए भी यथाशक्ति दान देते ही रहते थे || ४७ ।।

'कितने ही शुद्धचित्त, श्रद्धालु एवं पुण्यात्मा पुरुष ईर्ष्याका त्याग करके समयपर यथाशक्ति गोदान करके परलोकमें पहुँचकर अपने पुण्यमय शील-स्वभावके कारण स्वर्गलोकमें प्रकाशित होते हैं || ४८ ।।

“न्यायपूर्वक उपार्जित किये हुए इस गोधनका ब्राह्मणोंको दान करना चाहिये तथा पात्रकी परीक्षा करके सुपात्रको दी हुई गाय उसके घर पहुँचा देना चाहिये और किसी भी शुभ अष्टमीसे आरम्भ करके दस दिनोंतक मनुष्यको गोरस, गोबर अथवा गोमूत्रका आहार करके रहना चाहिये ।। ४९ ।।

“एक बैलका दान करनेसे मनुष्य देवताओंका सेवक होता है। दो बैलोंका दान करनेपर उसे वेद-विद्याकी प्राप्ति होती है। उन बैलोंसे जुते हुए छकड़ेका दान करनेसे तीर्थसेवनका फल प्राप्त होता है और कपिला गायके दानसे समस्त पापोंका परित्याग हो जाता है ।। ५० ।।

“मनुष्य न्यायतः प्राप्त हुई एक भी कपिला गायका दान करके सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। गोरससे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है; इसीलिये विद्वान्‌ पुरुष गोदानको महादान बतलाते हैं ।। ५१ ।।

गौएँ दूध देकर सम्पूर्ण लोकोंका भूखके कष्टसे उद्धार करती हैं। ये लोकमें सबके लिये अन्न पैदा करती हैं। इस बातको जानकर भी जो गौओंके प्रति सौहार्दका भाव नहीं रखता, वह पापात्मा मनुष्य नरकमें पड़ता है || ५२ ।।

“जो मनुष्य किसी श्रेष्ठ ब्राह्यणको सहस्र, शत, दस अथवा पाँच गौओंका उनके अच्छे बछड़ोंसहित दान करता है अथवा एक ही गाय देता है, उसके लिये वह गौ परलोकमें पवित्र तीर्थोवाली नदी बन जाती है ।। ५३ ।।

'प्राप्ति, पुष्टि तथा लोकरक्षा करनेके द्वारा गौएँ इस पृथ्वीपर सूर्यकी किरणोंके समान मानी गयी हैं। एक ही “गो” शब्द धेनु और सूर्य-किरणोंका बोधक है। गौओंसे ही संतति और उपभोग प्राप्त होते हैं; अतः गोदान करनेवाला मनुष्य किरणोंका दान करनेवाले सूर्यके ही समान माना जाता है ।। ५४ ||

'शिष्य जब गोदान करने लगे, तब उसे ग्रहण करनेके लिये गुरुको चुने। यदि गुरुने वह गोदान स्वीकार कर लिया तो शिष्य निश्चय ही स्वर्गलोकमें जाता है। विधिके जाननेवाले पुरुषोंके लिये यह गोदान महान्‌ धर्म है। अन्य सब विधियाँ इस आदि विधिमें ही अन्तर्भूत हो जाती हैं ।। ५५ ।।

“तुम न्‍्यायके अनुसार गोधन प्राप्त करके पात्रकी परीक्षा करनेके पश्चात्‌ श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको उनका दान कर देना और दी हुई वस्तुको ब्राह्मणके घर पहुँचा देना। तुम पुण्यात्मा और पुण्यकार्यमें प्रवृत्त रहनेवाले हो; अतः देवता, मनुष्य तथा हमलोग तुमसे धर्मकी ही आशा रखते हैं" ।। ५६ ।।

ब्रह्मर्ष! धर्मराजके ऐसा कहनेपर मैंने उन धर्मात्मा देवताको मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और फिर उनकी आज्ञा लेकर मैं आपके चरणोंके समीप लौट आया || ५७ ||

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें यमराजका वाक्य नामक इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

बहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) बहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद) 

“गौओंके लोक और गोदानविषयक युधिष्ठिर और इन्द्रके प्रश्न”

युधिष्ठिरने पूछा--प्रभो! आपने नाचिकेत ऋषिके प्रति किये गये गोदानसम्बन्धी उपदेशकी चर्चा की और गौओंके माहात्म्यका भी संक्षेपसे वर्णन किया ।। १ ।।

महामते पितामह! महात्मा राजा नृगने अनजानमें किये हुए एकमात्र अपराधके कारण महान्‌ दुःख भोगा था ॥। २ ।।

जब द्वारकापुरी बसने लगी थी, उस समय उनका उद्धार हुआ और उनके उस उद्धारमें हेतु हुए भगवान्‌ श्रीकृष्ण। ये सारी बातें मैंने ध्यानसे सुनी और समझी हैं ।। ३ ।।

परन्तु प्रभो! मुझे गोलोकके सम्बन्धमें कुछ संदेह है; अतः गोदान करनेवाले मनुष्य जिस लोकमें निवास करते हैं, उसका मैं यथार्थ वर्णन सुनना चाहता हूँ ।। ४ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें जानकार लोग एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। जैसा कि इन्द्रने किसी समय ब्रह्माजीसे यही प्रश्न किया था।। ५।।

इन्द्रने पूछा--भगवन्‌! मैं देखता हूँ कि गोलोक-निवासी पुरुष अपने तेजसे स्वर्गवासियोंकी कान्ति फीकी करते हुए उन्हें लाँधघकर चले जाते हैं; अतः मेरे मनमें यहाँ यह संदेह होता है ।। ६ ।।

भगवन्‌! गौओंके लोक कैसे हैं? अनघ! यह मुझे बताइये। गोदान करनेवाले लोग जिन लोकोंमें निवास करते हैं, उनके विषयमें निम्नांकित बातें जानना चाहता हूँ || ७ ।।

वे लोक कैसे हैं? वहाँ क्या फल मिलता है? वहाँका सबसे महान्‌ गुण क्या है? गोदान करनेवाले मनुष्य सब चिन्ताओंसे मुक्त होकर वहाँ किस प्रकार पहुँचते हैं? || ८ ।।

दाताको गोदानका फल वहाँ कितने समयतक भोगनेको मिलता है? अनेक प्रकारका दान कैसे किया जाता है? अथवा थोड़ा-सा भी दान किस प्रकार सम्भव होता है? ।। ९ |।

बहुत-सी गौओंका दान कैसा होता है? अथवा थोड़ी-सी गौओंका दान कैसा माना जाता है? गोदान न करके भी लोग किस उपायसे गोदान करनेवालोंके समान हो जाते हैं? यह मुझे बताइये ।। १० ।।

प्रभो! बहुत दान करनेवाला पुरुष अल्प दान करनेवालेके समान कैसे हो जाता है? तथा सुरेश्वर! अल्प दान करनेवाला पुरुष बहुत दान करनेवालेके तुल्य किस प्रकार हो जाता है? ।। ११ ।।

भगवन्‌! गोदानमें कैसी दक्षिणा श्रेष्ठ मानी जाती है? यह सब यथार्थरूपसे मुझे बतानेकी कृपा करें ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपरव्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गोदानसम्बन्धी बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

तिहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) तिहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-51 का हिन्दी अनुवाद) 

“ब्रम्हाजीका इन्द्रसे गोलोक और गोदानकी महिमा बताना”

ब्रह्माजीने कहा--देवेन्द्र! गोदानके सम्बन्धमें तुमने जो यह प्रश्न उपस्थित किया है, तुम्हारे सिवा इस जगतमें दूसरा कोई ऐसा प्रश्न करनेवाला नहीं है ।। १ ।।

शक्र! ऐसे अनेक प्रकारके लोक हैं, जिन्हें तुम नहीं देख पाते हो। मैं उन लोकोंको देखता हूँ और पतित्रता स्त्रियाँ भी उन्हें देख सकती हैं ।। २ ।।

उत्तम व्रतका पालन करनेवाले ऋषि तथा शुभ बुद्धिवाले ब्राह्मण अपने शुभकर्मोंके प्रभावसे वहाँ सशरीर चले जाते हैं || ३ ।।

उत्तम व्रतका पालन करनेवाले ऋषि तथा शुभ बुद्धिवाले ब्राह्मण अपने शुभकर्मोंके प्रभावसे वहाँ सशरीर चले जाते हैं || ३ ।।

श्रेष्ठ च्रतके आचरणमें लगे हुए योगी पुरुष समाधि-अवस्थामें अथवा मृत्युके समय जब शरीरसे सम्बन्ध त्याग देते हैं, तब अपने शुद्ध चित्तके द्वारा स्वप्नकी भाँति दीखनेवाले उन लोकोंका यहाँसे भी दर्शन करते हैं || ४ ।।

सहस्राक्ष! वे लोक जैसे गुणोंसे सम्पन्न हैं, उनका वर्णन सुनो। वहाँ काल और बुढ़ापाका आक्रमण नहीं होता। अग्निका भी जोर नहीं चलता ।। ५ ।।

वहाँ किसीका किंचिन्मात्र भी अमंगल नहीं होता। उस लोकमें न रोग है न शोक। इन्द्र! वहाँकी गौएँ अपने मनमें जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करती हैं, वे सब उन्हें प्राप्त हो जाती हैं। यह मेरी प्रत्यक्ष देखी हुई बात है। वे जहाँ जाना चाहती हैं जाती हैं; जैसे चलना चाहती हैं चलती हैं और संकल्पमात्रसे सम्पूर्ण भोगोंको प्राप्तकर उनका उपभोग करती हैं ।। ६-७ ।।

बावड़ी, तालाब, नदियाँ, नाना प्रकारके वन, गृह और पर्वत आदि सभी वस्तुएँ वहाँ उपलब्ध हैं ।। ८ ।।

गोलोक समस्त प्राणियोंके लिये मनोहर है। वहाँकी प्रत्येक वस्तुपर सबका समान अधिकार देखा जाता है। इतना विशाल दूसरा कोई लोक नहीं है ।। ९ ।।

इन्द्र! जो सब कुछ सहनेवाले, क्षमाशील, दयालु, गुरुजनोंकी आज्ञामें रहनेवाले और अहंकाररहित हैं, वे श्रेष्ठ मनुष्य ही उस लोकमें जाते हैं ।। १० ।।

जो सब प्रकारके मांसोंका भोजन त्याग देता है, सदा भगवच्चिन्तनमें लगा रहता है, धर्मपरायण होता है, माता-पिताकी पूजा करता, सत्य बोलता, ब्राह्मणोंकी सेवामें संलग्न रहता, जिसकी कभी निन्दा नहीं होती, जो गौओं और ब्राह्मणोंपर कभी क्रोध नहीं करता, धर्ममें अनुरक्त रहकर गुरुजनोंकी सेवा करता है, जीवनभरके लिये सत्यका व्रत ले लेता है, दानमें प्रवृत्त रहकर किसीके अपराध करनेपर भी उसे क्षमा कर देता है, जिसका स्वभाव मृदुल है, जो जितेन्द्रिय, देवाराधक, सबका आतिथ्य-सत्कार करनेवाला और दयालु है, ऐसे ही गुणोंवाला मनुष्य उस सनातन एवं अविनाशी गोलोकमें जाता है || ११--१३

परस्त्रीगामी, गुरुहत्यारा, असत्यवादी, सदा बकवाद करनेवाला, ब्राह्मणोंसे वैर बाँध रखनेवाला, मित्रद्रोही, ठग, कृतघ्न, शठ, कुटिल, धर्मद्रेषी और ब्रह्महत्यारा--इन सब दोषोंसे युक्त दुरात्मा मनुष्य कभी मनसे भी गोलोकका दर्शन नहीं पा सकता; क्योंकि वहाँ पुण्यात्माओंका निवास है ।। १४-१५ ।।

सुरेश्वर! शतक्रतो! यह सब मैंने तुम्हें विशेषरूपसे गोलोकका माहात्म्य बताया है। अब गोदान करनेवालोंको जो फल प्राप्त होता है, उसे सुनो |। १६ ।।

जो पुरुष अपनी पैतृक सम्पत्तिसे प्राप्त हुए धनके द्वारा गौएँ खरीदकर उनका दान करता है, वह उस धनसे धर्मपूर्वक उपार्जित हुए अक्षय लोकोंको प्राप्त होता है ।। १७ ।।

शक्र! जो जूएमें धन जीतकर उसके द्वारा गायोंको खरीदता है और उनका दान करता है, वह दस हजार दिव्य वर्षोतक उसके पुण्यफलका उपभोग करता है ।। १८ ।।

जो पैतृक-सम्पत्तिसे न्यायपूर्वक प्राप्त की हुई गौओंका दान करता है, ऐसे दाताओंके लिये वे गौएँ अक्षय फल देनेवाली हो जाती हैं ।। १९ ।।

शचीपते! जो पुरुष दानमें गौएँ लेकर फिर शुद्ध हृदयसे उनका दान कर देता है, उसे भी यहाँ अक्षय एवं अटल लोकोंकी प्राप्ति होती है--यह निश्चितरूपसे समझ लो || २० ।।

जो जन्मसे ही सदा सत्य बोलता, इन्द्रियोंको काबूमें रखता, गुरुजनों तथा ब्राह्मणोंकी कठोर बातोंको भी सह लेता और क्षमाशील होता है, उसकी गौओंके समान गति होती है। अर्थात्‌ वह गोलोकमें जाता है || २१ ।।

शचीपते शक्र! ब्राह्मणके प्रति कभी कुवाच्य नहीं बोलना चाहिये और गौओंके प्रति कभी मनसे भी द्रोहका भाव नहीं रखना चाहिये। जो ब्राह्मण गौओंके समान वृत्तिसे रहता है और गौओंके लिये घास आदिकी व्यवस्था करता है, साथ ही सत्य और धर्ममें तत्पर रहता है, उसे प्राप्त होनेवाले फलका वर्णन सुनो। वह यदि एक गौका भी दान करे तो उसे एक हजार गोदानके समान फल मिलता है ।। २२-२३ ।।

यदि क्षत्रिय भी इन गुणोंसे युक्त होता है तो उसे भी ब्राह्मणके समान ही (गोदानका) फल मिलता है। इस बातको अच्छी तरह सुन लो। उसकी (दान दी हुई) गौ भी ब्राह्मणकी गौके तुल्य ही फल देनेवाली होती है। यह धर्मात्माओंका निश्चय है || २४ ।।

यदि वैश्यमें भी उपर्युक्त गुण हों तो उसे भी एक गोदान करनेपर ब्राह्मणकी अपेक्षा (आधे भाग) पाँच सौ गौओंके दानका फल मिलता है और विनयशील शूद्रको ब्राह्मणके चौथाई भाग अर्थात्‌ ढाई सौ गौओंके दानका फल प्राप्त होता है ।। २५ ।।

जो पुरुष सदा सावधान रहकर इस उपर्युक्त धर्मका पालन करता है तथा जो सत्यवादी, गुरुसेवापरायण, दक्ष, क्षमाशील, देवभक्त, शान्तचित्त, पवित्र, ज्ञानवान्‌, धर्मात्मा और अहंकारशून्य होता है, वह यदि पूर्वोक्त विधिसे ब्राह्मणको दूध देनेवाली गायका दान करे तो उसे महान्‌ फलकी प्राप्ति होती है । २६३ ।।

इन्द्र! जो सदा एक समय भोजन करके नित्य गोदान करता है, सत्यमें स्थित होता है, गुरुकी सेवा और वेदोंका स्वाध्याय करता है, जिसके मनमें गौओंके प्रति भक्ति है, जो गौओंका दान देकर प्रसन्न होता है तथा जन्मसे ही गौओंको प्रणाम करता है, उसको मिलनेवाले इस फलका वर्णन सुनो || २७-२८ ।।

राजसूय यज्ञका अनुष्ठान करनेसे जिस फलकी प्राप्ति होती है तथा बहुत-से सुवर्णकी दक्षिणा देकर यज्ञ करनेसे जो फल मिलता है, उपर्युक्त मनुष्य भी उसके समान ही उत्तम फलका भागी होता है। यह सभी सिद्ध-संत-महात्मा एवं ऋषियोंका कथन है ।। २९ ।।

जो गोसेवाका व्रत लेकर प्रतिदिन भोजनसे पहले गौओंको गोग्रास अर्पण करता है तथा शान्त एवं निर्लोेभ होकर सदा सत्यका पालन करता रहता है, वह सत्य-शील पुरुष प्रतिवर्ष एक सहस्र गोदान करनेके पुण्यका भागी होता है ।। ३० ।।

जो गोसेवाका व्रत लेनेवाला पुरुष गौओंपर दया करता और प्रतिदिन एक समय भोजन करके एक समयका अपना भोजन गौओंको दे देता है, इस प्रकार दस वर्षोतक गोसेवामें तत्पर रहनेवाले पुरुषको अनन्त सुख प्राप्त होते हैं || ३१ ।।

शतक्रतो! जो एक समय भोजन करके दूसरे समयके बचाये हुए भोजनसे गाय खरीदकर उसका दान करता है, वह उस गौके जितने रोएँ होते हैं, उतने गौओंके दानका अक्षय फल पाता है ।। ३२३ ||

यह ब्राह्मणके लिये फल बताया गया। अब क्षत्रियको मिलनेवाले फलका वर्णन सुनो। यदि क्षत्रिय इसी प्रकार पाँच वर्षोतक गौकी आराधना करे तो उसे वही फल प्राप्त होता है। उससे आधे समयमें वैश्यको और उससे भी आधे समयमें शूद्रकों उसी फलकी प्राप्ति बतायी गयी है ।। ३३-३४ ।।

जो अपने आपको बेचकर भी गायको खरीदकर उसका दान करता है, वह ब्रह्माण्डमें जबतक गोजातिकी सत्ता देखता है, तबतक उस दानका अक्षय फल भोगता रहता है ।। ३५ ।।

महाभाग इन्द्र! गौओंके रोम-रोममें अक्षय लोकोंकी स्थिति मानी गयी है। जो संग्राममें गौओंको जीतकर उनका दान कर देता है, उनके लिये वे गौएँ स्वयं अपनेको बेचकर लेकर दी हुई गौओंके समान अक्षय फल देनेवाली होती हैं--इस बातको तुम जान लो ।। ३६।।

जो संयम और नियमका पालन करनेवाला पुरुष गौओंके अभावमें तिलधेनुका दान करता है, वह उस धेनुकी सहायता पाकर दुर्गम संकटसे पार हो जाता है तथा दूधकी धारा बहानेवाली नदीके तटपर रहकर आनन्द भोगता है ।। ३७ ।।

केवल गौओंका दानमात्र कर देना प्रशंसाकी बात नहीं है; उसके लिये उत्तम पात्र, उत्तम समय, विशिष्ट गौ, विधि और कालका ज्ञान आवश्यक है। विप्रवर! गौओंमें जो परस्पर तारतम्य है, उसको तथा अग्नि और सूर्यके समान तेजस्वी पात्रको जानना बहुत ही कठिन है ।। ३८ ।।

जो वेदोंके स्वाध्यायसे सम्पन्न, शुद्ध कुलमें उत्पन्न, शान्तस्वभाव, यज्ञपरायण, पापभीरु और बहुज्ञ है, जो गौओंके प्रति क्षमाभाव रखता है, जिसका स्वभाव अत्यन्त तीखा नहीं है, जो गौओंकी रक्षा करनेमें समर्थ और जीविकासे रहित है, ऐसे ब्राह्मणको गोदानका उत्तम पात्र बताया गया है || ३९ ।।

जिसकी जीविका क्षीण हो गयी हो तथा जो अत्यन्त कष्ट पा रहा हो, ऐसे ब्राह्मणको सामान्य देश-कालमें भी दूध देनेवाली गायका दान करना चाहिये। इसके सिवा खेतीके लिये, होम-सामग्रीके लिये, प्रसूता स्त्रीके पोषणके लिये, गुरुदक्षिणाके लिये अथवा शिशुपालनके लिये सामान्य देश-कालमें भी दुधारू गायका दान करना उचित है || ४० ।।

गर्भिणी, खरीदकर लायी हुई, ज्ञान या विद्याके बलसे प्राप्त की हुई, दूसरे प्राणियोंके बदलेमें लायी हुई अथवा युद्धमें पराक्रम प्रकट करके प्राप्त की हुई, दहेजमें मिली हुई, पालनमें कष्ट समझकर स्वामीके द्वारा परित्यक्त हुई तथा पालन-पोषणके लिये अपने पास आयी हुई विशिष्ट गौएँ इन उपर्युक्त कारणोंसे ही दानके लिये प्रशंसनीय मानी गयी हैं ।। ४१ ।।

हृष्ट-पुष्ट, सीधी-सादी, जवान और उत्तम गन्धवाली सभी गौएँ प्रशंसनीय मानी गयी हैं। जैसे गंगा सब नदियोंमें श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार कपिला गौ सब गौआओंमें उत्तम है ।।

(गोदानकी विधि इस प्रकार है--) दाता तीन राततक उपवास करके केवल पानीके आधारपर रहे, पृथ्वीपर शयन करे और गौओंको घास-भूसा खिलाकर पूर्ण तृप्त करे। तत्पश्चात्‌ ब्राह्मणोंको भोजन आदिसे संतुष्ट करके उन्हें वे गौएँ दे। उन गौओंके साथ दूध पीनेवाले हृष्ट-पुष्ट बछड़े भी होने चाहिये तथा वैसी ही स्फूर्तियुक्त गौएँ भी हों। गोदान करनेके पश्चात्‌ तीन दिनोंतक केवल गोरस पीकर रहना चाहिये ।। ४३ ।।

जो गौ सीधी-सूधी हो, सुगमतासे अच्छी तरह दूध दुहा लेती हो, जिसका बछड़ा भी सुन्दर हो तथा जो बन्धन तुड़ाकर भागनेवाली न हो, ऐसी गौका दान करनेसे उसके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोतक दाता परलोकमें सुख भोगता है ।। ४४ ।।

जो मनुष्य ब्राह्मणको बोझ उठानेमें समर्थ, जवान, बलिष्ठ, विनीत--सीधा-सादा, हल खींचनेवाला और अधिक शक्तिशाली बैल दान करता है, वह दस धेनु दान करनेवालेके लोकोंमें जाता है || ४५ ।।

इन्द्र! जो दुर्गम वनमें फँसे हुए ब्राह्मण और गौओंका उद्धार करता है, वह एक ही क्षणमें समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा उसे जिस पुण्यफलकी प्राप्ति होती है, वह भी सुन लो ।। ४६ ||

सहस्राक्ष! उसे अश्वमेध यज्ञके समान अक्षय फल सुलभ होता है। वह मृत्युकालमें जिस स्थितिकी आकांक्षा करता है, उसे भी पा लेता है ।। ४७ ।।

नाना प्रकारके दिव्य लोक तथा उसके हृदयमें जो-जो कामना होती है, वह सब कुछ मनुष्य उपर्युक्त सत्कर्मके प्रभावसे प्राप्त कर लेता है || ४८ ।।

इतना ही नहीं, वह गौओंसे अनुगृहीत होकर सर्वत्र पूजित होता है। शतक्रतो! जो मनुष्य उपर्युक्त विधिसे वनमें रहकर गौओंका अनुसरण करता है तथा निःस्पृह, संयमी और पवित्र होकर घास-पत्ते एवं गोबर खाता हुआ जीवन व्यतीत करता है, वह मनमें कोई कामना न होनेपर मेरे लोकमें देवताओंके साथ आनन्दपूर्वक निवास करता है। अथवा उसकी जहाँ इच्छा होती है, उन्हीं लोकोंमें चला जाता है || ४९--५१ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें ब्रह्माजी और इन्द्रका संवादविषयक तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

चौहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) चौहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-57 का हिन्दी अनुवाद) 

“दूसरोंकी गायको चुराकर देने या बेचनेसे दोष, गोहत्याके भयंकर परिणाम तथा गोदान एवं सुवर्ण-दक्षिणाका माहात्म्य”

इन्द्रने पूछा--पितामह! यदि कोई जान-बूझकर दूसरेकी गौका अपहरण करे और धनके लोभसे उसे बेच डाले, उसकी परलोकमें क्या गति होती है? यह मैं जानना चाहता हूँ ।। १ ।।

ब्रह्माजीने कहा--इन्द्र! जो खाने, बेचने या ब्राह्मणोंको दान करनेके लिये दूसरेकी गाय चुराते हैं, उन्हें क्या फल मिलता है, यह सुनो || २ ।।

जो उच्छुंखल मनुष्य मांस बेचनेके लिये गौकी हिंसा करता या गोमांस खाता है तथा जो स्वार्थवश घातक पुरुषको गाय मारनेकी सलाह देते हैं, वे सभी महान्‌ पापके भागी होते हैं ।। ३ ।।

गौकी हत्या करनेवाले, उसका मांस खानेवाले तथा गोहत्याका अनुमोदन करनेवाले लोग गौके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोतक नरकमें डूबे रहते हैं || ४ ।।

प्रभो! ब्राह्मणके यज्ञका नाश करनेवाले पुरुषको जैसे और जितने पाप लगते हैं, दूसरोंकी गाय चुराने और बेचनेमें भी वे ही दोष बताये गये हैं ।। ५ ।।

जो दूसरेकी गाय चुराकर ब्राह्मणको दान करता है, वह गोदानका पुण्य भोगनेके लिये जितना समय शास्त्रोंमें बताया गया है, उतने ही समयतक नरक भोगता है ।। ६ ।।

महातेजस्वी इन्द्र! गोदानमें कुछ सुवर्णकी दक्षिणा देनेका विधान है। दक्षिणाके लिये सुवर्ण सबसे उत्तम बताया गया है। इसमें संशय नहीं है ।। ७ ।।

मनुष्य गोदान करनेसे अपनी सात पीढ़ी पहलेके पितरोंका और सात पीढ़ी आगे आनेवाली संतानोंका उद्धार करता है; किंतु यदि उसके साथ सोनेकी दक्षिणा भी दी जाय तो उस दानका फल दूना बताया गया है ।।

क्योंकि इन्द्र! सुवर्णका दान सबसे उत्तम दान है। सुवर्णकी दक्षिणा सबसे श्रेष्ठ है, तथा पवित्र करनेवाली वस्तुओंमें सुवर्ण ही सबसे अधिक पावन माना गया है || ९ ।।

महातेजस्वी शतक्रतो! सुवर्ण सम्पूर्ण कुलोंको पवित्र करनेवाला बताया गया है। इस प्रकार मैंने तुमसे संक्षेपमें यह दक्षिणाकी बात बतायी ।। १० ।।

भीष्मजी कहते हैं--भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर! यह उपर्युक्त उपदेश ब्रह्माजीने इन्द्रको दिया। इन्द्रने राजा दशरथको तथा पिता दशरथने अपने पुत्र श्रीरामचन्द्रजीको दिया ।। ११ ।।

प्रभो! श्रीरामचन्द्रजीने भी अपने प्रिय एवं यशस्वी भ्राता लक्ष्मणको इसका उपदेश दिया। फिर लक्ष्मणने भी वनवासके समय ऋषियोंको यह बात बतायी ।।

इस प्रकार परम्परासे प्राप्त हुए इस दुर्धर उपदेशको उत्तम व्रतका पालन करनेवाले ऋषि और धर्मात्मा राजालोग धारण करते आ रहे हैं || १३ ।।

युधिष्ठिर! मुझसे मेरे उपाध्याय (परशुरामजी) ने इस विषयका वर्णन किया था। जो ब्राह्मण अपनी मण्डलीमें बैठकर प्रतिदिन इस उपदेशको दुहराता है और यज्ञमें, गोदानके समय तथा दो व्यक्तियोंके भी समागममें इसकी चर्चा करता है, उसको सदा देवताओंके साथ अक्षयलोक प्राप्त होते हैं। यह बात भी परमेश्वर भगवान्‌ ब्रह्माने स्वयं ही इन्द्रको बतायी है ।। १४-१५ ||

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका ½ श्लोक मिलाकर कुल १५½ श्लोक हैं)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

पचहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) पचहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-41 का हिन्दी अनुवाद) 

“व्रत, नियम, दम, सत्य, ब्रह्म॒चर्य, माता-पिता, गुरु आदिकी सेवाकी महत्ता”

युधिष्ठिरने कहा--प्रभो! आपने धर्मका उपदेश करके उसमें मेरा दृढ़ विश्वास उत्पन्न कर दिया है। पितामह! अब मैं आपसे एक और संदेह पूछ रहा हूँ, उसके विषयमें मुझे बताइये ।। १ ।।

महाद्युते! व्रतोंका क्या और कैसा फल बताया गया है? नियमोंके पालन और स्वाध्यायका भी क्या फल है? ।। २ ।।

दान देने, वेदोंको धारण करने और उन्हें पढ़ानेका क्या फल होता है? यह सब मैं जानना चाहता हूँ ।। ३ ।।

पितामह! संसारमें जो प्रतिग्रह नहीं लेता, उसे क्या फल मिलता है? तथा जो वेदोंका ज्ञान प्रदान करता है, उसके लिये कौन-सा फल देखा गया है ।। ४ ।।

अपने कर्तव्यके पालनमें तत्पर रहनेवाले शूरवीरोंको भी किस फलकी प्राप्ति होती है? शौचाचारका तथा ब्रह्मचर्यके पालनका क्या फल बताया गया है? ।। ५ ।।

पिता और माताकी सेवासे कौन-सा फल प्राप्त होता है? आचार्य एवं गुरुकी सेवासे तथा प्राणियोंपर अनुग्रह एवं दयाभाव बनाये रखनेसे किस फलकी प्राप्ति होती है? || ६ ।।

धर्मज्ञ पितामह! यह सब मैं यथावत्‌ रूपसे जानना चाहता हूँ। इसके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है ।।

भीष्मजीने कहा--युथधिष्ठिर! जो मनुष्य शास्त्रोक्त विधिसे किसी व्रतको आरम्भ करके उसे अखण्डरूपसे निभा देते हैं, उन्हें सनातन लोकोंकी प्राप्ति होती है ।। ८ ।।

राजन! संसारमें नियमोंके पालनका फल तो प्रत्यक्ष देखा जाता है। तुमने भी यह नियमों और यज्ञोंका ही फल प्राप्त किया है ।। ९ ।।

वेदोंके स्वाध्यायका फल भी इहलोक और परलोकमें भी देखा जाता है। स्वाध्यायशील द्विज इहलोक और ब्रह्मलोकमें भी सदा आनन्द भोगता है || १० |।

राजन्‌! अब तुम मुझसे विस्तारपूर्वक दम (इन्द्रियसंयम)के फलका वर्णन सुनो। जितेन्द्रिय पुरुष सर्वत्र सुखी और सर्वत्र संतुष्ट रहते हैं || ११ ।।

वे जहाँ चाहते हैं वहीं चले जाते हैं और जिस वस्तुकी इच्छा करते हैं वही उन्हें प्राप्त हो जाती है। वे सम्पूर्ण शत्रुओंका अन्त कर देते हैं। इसमें संशय नहीं है ।। १२ ।।

पाण्डुनन्दन! जितेन्द्रिय पुरुष सर्वत्र सम्पूर्ण मनचाही वस्तुएँ प्राप्त कर लेते हैं। वे अपनी तपस्या, पराक्रम, दान तथा नाना प्रकारके यज्ञोंसे स्वर्गलोकमें आनन्द भोगते हैं। इन्द्रियोंका दमन करनेवाले पुरुष क्षमाशील होते हैं ।। १३ $ ।।

दानसे दमका स्थान ऊँचा होता है। दानी पुरुष ब्राह्मणको कुछ दान करते समय कभी क्रोध भी कर सकता है; परंतु दमनशील या जितेन्द्रिय पुरुष कभी क्रोध नहीं करता; इसलिये दम (इन्द्रिय-संयम) दानसे श्रेष्ठ है। जो दाता बिना क्रोध किये दान करता है उसे सनातन (नित्य) लोक प्राप्त होते हैं || १४-१५ ।।

दान करते समय यदि क्रोध आ जाय तो वह दानके फलको नष्ट कर देता है; इसलिये उस क्रोधको दबानेवाला जो दमनामक गुण है, वह दानसे श्रेष्ठ माना गया है। महाराज! नरेश्वर! सम्पूर्ण लोकोंमें निवास करनेवाले ऋषियोंके स्वर्गमें सहस्रों अदृश्य स्थान हैं, जिनमें दमके पालनद्वारा महान्‌ लोककी इच्छा रखनेवाले महर्षि और देवता इस लोकसे जाते हैं; अतः “दम' दानसे श्रेष्ठ है ।। १६-१७ ३ ।।

नरेन्द्र! शिष्योंको वेद पढ़ानेवाला अध्यापक क्लेश सहन करनेके कारण अक्षय फलका भागी होता है। अग्निमें विधिपूर्वक हवन करके ब्राह्मण ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है ।। १८ ||

जो वेदोंका अध्ययन करके न्यायपरायण शिष्योंको विद्यादान करता है तथा गुरुके कर्मोकी प्रशंसा करनेवाला है, वह भी स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है ।।

वेदाध्ययन, यज्ञ और दानकर्ममें तत्पर रहनेवाला तथा युद्धमें टूसरोंकी रक्षा करनेवाला क्षत्रिय भी स्वर्गलोकमें पूजित होता है || २० ।।

अपने कर्ममें लगा हुआ वैश्य दान देनेसे महत्‌-पदको प्राप्त होता है। अपने कर्ममें तत्पर रहनेवाला शूद्र सेवा करनेसे स्वर्गलोकमें जाता है ।। २१ ।।

शूरवीरोंके अनेक भेद बताये गये हैं। उन सबके तात्पर्य मुझसे सुनो। उन शूरोंके वंशजों तथा शूरोंके लिये जो फल बताया गया है, उसे बता रहा हूँ || २२ ।।

कुछ लोग यज्ञशूर हैं। कुछ इन्द्रियसंयममें शूर होनेके कारण दमशूर कहलाते हैं। इसी प्रकार कितने ही मानव सत्यशूर, युद्धशूर, दानशूर, बुद्धिशूर तथा क्षमाशूर कहे गये हैं ।। २३ ।।

बहुत-से मनुष्य सांख्यशूर, योगशूर, वनवासशूर, गृहवासशूर तथा त्यागशूर हैं || २४ ।।

कितने मानव सरलता दिखानेमें शूरवीर हैं। बहुत-से शम (मनोनिग्रह) में ही शूरता प्रकट करते हैं। विभिन्न नियमोंद्वारा अपना शौर्य सूचित करनेवाले और भी बहुत-से शूरवीर हैं। कितने ही वेदाध्ययनशूर, अध्यापनशूर, गुरुशुश्रूषाशूर, पितृसेवाशूर, मातृसेवाशूर तथा भिक्षाशूर हैं || २५-२६ ।।

कुछ लोग वनवासमें, कुछ गृहवासमें और कुछ लोग अतिथियोंकी सेवा-पूजामें शूरवीर होते हैं। ये सब-के-सब अपने कर्मफलोंद्वारा उपार्जित उत्तम लोकोंमें जाते हैं || २७ ।।

सम्पूर्ण वेदोंको धारण करना और समस्त तीर्थोमें स्नान करना--इन सत्कर्मोंका पुण्य सदा सत्य बोलनेवाले पुरुषके पुण्यके बराबर हो सकता है या नहीं; इसमें सन्देह है। अर्थात्‌ इनसे सत्य श्रेष्ठ है ।। २८ ।।

यदि तराजूके एक पलड़ेपर एक हजार अभश्वमेध यज्ञोंका पुण्य और दूसरे पलड़ेपर केवल सत्य रखा जाय तो एक सहसख्र अश्वमेध यज्ञोंकी अपेक्षा सत्यका ही पलड़ा भारी होगा ।। २९ ||

सत्यके प्रभावसे सूर्य तपते हैं, सत्यसे अग्नि प्रजजलित होती है और सत्यसे ही वायुका सर्वत्र संचार होता है; क्योंकि सब कुछ सत्यपर ही टिका हुआ है ।।

देवता, पितर और ब्राह्मण सत्यसे ही प्रसन्न होते हैं। सत्यको ही परम धर्म बताया गया है; अतः सत्यका कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये || ३१ ।।

ऋषि-मुनि सत्यपरायण, सत्यपराक्रमी और सत्यप्रतिज्ञ होते हैं। इसलिये सत्य सबसे श्रेष्ठ है ।। ३२ ।।

भरतश्रेष्ठ! सत्य बोलनेवाले मनुष्य स्वर्गलोकमें आनन्द भोगते हैं। किंतु इन्द्रियसंयम-दम उस सत्यके फलकी प्राप्तिमें कारण है। यह बात मैंने सम्पूर्ण हृदयसे कही है || ३३ ।।

जिसने अपने मनको वशमें करके विनयशील बना दिया है, वह निश्चय ही स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है। पृथ्वीनाथ! अब तुम ब्रह्मचर्यके गुणोंका वर्णन सुनो || ३४ ।।

नरेश्वर! जो जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त यहाँ ब्रह्मचारी ही रह जाता है, उसके लिये कुछ भी अलभ्य नहीं है, इस बातको जान लो ।। ३५ ||

ब्रह्मलोकमें ऐसे करोड़ों ऋषि निवास करते हैं, जो इस लोकमें सदा सत्यवादी, जितेन्द्रिय और ऊर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) रहे हैं | ३६ ।।

राजन! यदि ब्राह्मण विशेषरूपसे ब्रह्मचर्यका पालन करे तो वह सम्पूर्ण पापोंको भस्म कर डालता है; क्योंकि ब्रह्मचारी ब्राह्मण अग्निस्वरूप कहा जाता है || ३७ ||

तपस्वी ब्राह्मणोंमें यह बात प्रत्यक्ष देखी जाती है; क्‍योंकि ब्रह्मचारीके आक्रमण करनेपर साक्षात्‌ इन्द्र भी डरते हैं। ब्रह्मचर्यका वह फल यहाँ ऋषियों में दृष्टिगोचर होता है। अब तुम माता-पिता आदिके पूजनसे जो धर्म होता है, उसके विषयमें भी मुझसे सुनो || ३८-३९ ||

राजन! जो पिता-माता, बड़े भाई, गुरुऔर आचार्यकी सेवा करता है और कभी उनके गुणोंमें दोषदृष्टि नहीं करता है, उसको मिलनेवाले फलको जान लो। उसे स्वर्गलोकमें सर्वसम्मानित स्थान प्राप्त होता है। मनको वशमें रखनेवाला वह पुरुष गुरुशुश्रूषाके प्रभावसे कभी नरकका दर्शन नहीं करता ।। ४०-४१ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें पचद्तत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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