सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के छाछठवें अध्याय से सत्तरवें अध्याय तक (From the 66 chapter to the 70 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

छाछठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) छाछठवें अध्याय के श्लोक 1-65½ का हिन्दी अनुवाद) 

“जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्नके दानका माहात्म्य”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! गर्मीके दिनोंमें जिसके पैर जल रहे हों, ऐसे ब्राह्मणको जो जूते पहनाता है, उसको जो फल मिलता है, वह मुझे बताइये ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! जो एकाग्रचित्त होकर ब्राह्मणोंके लिये जूते दान करता है, वह सब कण्टकोंको मसल डालता है और कठिन विपत्तिसे भी पार हो जाता है। इतना ही नहीं, वह शत्रुओंके ऊपर विराजमान होता है। प्रजानाथ! उसे जन्मान्तरमें खच्चरियोंसे जुता हुआ उज्ज्वल रथ प्राप्त होता है ।। २-३ ।।

कुन्तीकुमार! जो नये बैलोंसे युक्त शकट दान करता है, उसे चाँदी और सोनेसे जटित रथ प्राप्त होता है ।। ४ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--कुरुनन्दन! तिल, भूमि, गौ और अन्नका दान करनेसे क्या फल मिलता है? इसका फिरसे वर्णन कीजिये ।। ५ ।।

भीष्मजीने कहा--कुन्तीनन्दन! कुरुश्रेष्ठ तिलदानका जो फल है, वह मुझसे सुनो और सुनकर यथोचित रूपसे उसका दान करो ।। ६ ।।

ब्रह्माजीने जो तिल उत्पन्न किये हैं, वे पितरोंके सर्वश्रेष्ठ खाद्य पदार्थ हैं। इसलिये तिल दान करनेसे पितरोंको बड़ी प्रसन्नता होती है || ७ ।।

जो माघ मासमें ब्राह्मणोंको तिल दान करता है, वह समस्त जन्तुओंसे भरे हुए नरकका दर्शन नहीं करता ।। ८ ।।

जो तिलोंके द्वारा पितरोंका पूजन करता है, वह मानो सम्पूर्ण यज्ञोंका अनुष्ठान कर लेता है। तिल-श्राद्ध कभी निष्काम पुरुषको नहीं करना चाहिये ।। ९ ।।

प्रभो! ये तिल महर्षि कश्यपके अंगोंसे प्रकट होकर विस्तारको प्राप्त हुए हैं; इसलिये दानके निमित्त इनमें दिव्यता आ गयी है || १० ।।

तिल पौष्टिक पदार्थ है। वे सुन्दर रूप देनेवाले और पापनाशक हैं। इसलिये तिल-दान सब दानोंसे बढ़कर है ।। ११ ।।

परम बुद्धिमान महर्षि आपस्तम्ब, शंख, लिखित तथा गौतम--ये तिलोंका दान करके दिव्यलोकको प्राप्त हुए हैं ।। १२ ।।

वे सभी ब्राह्मण स्त्री-समागमसे दूर रहकर तिलोंका हवन किया करते थे, तिल गोघृतके समान हविके योग्य माने गये हैं, इसलिये यज्ञोंमें गृहीत होते हैं एवं हरेक कर्मोंमें उनकी आवश्यकता है ।। १३ ।।

अतः तिलदान सब दानोंसे बढ़कर है। तिलदान यहाँ सब दानोंमें अक्षय फल देनेवाला बताया जाता है ।।

पूर्वकालमें परंतप राजर्षि कुशिकने हविष्य समाप्त हो जानेपर तिलोंसे ही हवन करके तीनों अग्नियोंको तृप्त किया था; इससे उन्हें उत्तम गति प्राप्त हुई || १५ ।।

कुरुश्रेष्ठ! इस प्रकार जिस विधिके अनुसार तिलदान करना उत्तम माना गया है, वह सर्वोत्तम तिलदानका विधान यहाँ बताया गया ।। १६ ।।

महाराज! इसके बाद यज्ञकी इच्छावाले देवताओं और स्वयम्भू ब्रह्माजीका समागम होनेपर उनमें परस्पर जो बातचीत हुई थी, उसे बता रहा हूँ, इसपर ध्यान दो ।।

पृथ्वीनाथ! भूतलके किसी भागमें यज्ञ करनेकी इच्छावाले देवता ब्रह्माजीके पास जाकर किसी शुभ देशकी याचना करने लगे, जहाँ यज्ञ कर सकें ।। १८ ।।

देवता बोले--भगवन्‌! महाभाग! आप पृथ्वी और सम्पूर्ण स्वर्गके भी स्वामी हैं; अतः हम आपकी आज्ञा लेकर पृथ्वीपर यज्ञ करेंगे ।। १९ ।।

क्योंकि भूस्वामी जिस भूमिपर यज्ञ करनेकी अनुमति नहीं देता, उस भूमिपर यदि यज्ञ किया जाय तो उसका फल नहीं होता। आप सम्पूर्ण चराचर जगतके स्वामी हैं; अतः पृथ्वीपर यज्ञ करनेके लिये हमें आज्ञा दीजिये ।।

ब्रह्माजीने कहा--काश्यपनन्दन सुरश्रेष्ठणण! तुमलोग पृथ्वीके जिस प्रदेशमें यज्ञ करोगे, वही भूभाग मैं तुम्हें दे रहा हूँ || २१३ ।।

देवताओंने कहा--भगवन्‌! हमारा कार्य हो गया। अब हम पर्याप्त दक्षिणावाले यज्ञपुरुषका यजन करेंगे। यह जो हिमालयके पासका प्रदेश है, इसका ऋषि-मुनि सदासे ही आश्रय लेते हैं (अत: हमारा यज्ञ भी यहीं होगा) ।।

तदनन्तर अगस्त्य, कण्व, भृगु, अत्रि, वृषाकपि, असित और देवल देवताओंके उस यज्ञमें उपस्थित हुए। तब महामनस्वी देवताओंने यज्ञपुरुष अच्युतका यजन आरम्भ किया और जन श्रेष्ठ देवगणोंने यथासमय उस यज्ञको समाप्त भी कर दिया || २३-२४ $ ।।

पर्वतराज हिमालयके पास यज्ञ पूरा करके देवताओंने भूमिदान भी किया, जो उस यज्ञके छठे भागके बराबर पुण्यका जनक था ।। २५६ ।।

जिसको खोदखादकर खराब न कर दिया गया हो, ऐसे प्रादेशमात्र भूभागका भी जो दान करता है, वह न तो कभी दुर्गम संकटोंमें पड़ता है और न पड़नेपर कभी दुःखी ही होता है ।। २६६ ||

जो सर्दी, गर्मी और हवाके वेगको सहन करनेयोग्य सजी-सजायी गृह-भूमि दान करता है, वह देवलोकमें निवास करता है। पुण्यका भोग समाप्त होनेपर भी वहाँसे हटाया नहीं जाता ।। २७३ ।।

पृथ्वीनाथ! जो विद्वान्‌ गृहदान करता है, वह भी उसके पुण्यसे इन्द्रके साथ आनन्दपूर्वक निवास करता और स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है ।। २८६ ।।

अध्यापक-वंशमें उत्पन्न श्रोत्रिय एवं जितेन्द्रिय ब्राह्मण जिसके दिये हुए घरमें प्रसन्नतासे रहता है, उसे श्रेष्ठ लोक प्राप्त होते हैं | २९६ ।।

भरतश्रेष्ठ) जो गौओंके लिये सर्दी और वर्षासे बचानेवाला सुदृढ़ निवासस्थान बनवाता है, वह अपनी सात पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है ।। ३०३ ।।

खेतके योग्य भूमि दान करनेवाला मनुष्य जगत्‌में शुभ सम्पत्ति प्राप्त करता है और जो रत्नयुक्त भूमिका दान करता है, वह अपने कुलकी वंश-परम्पराको बढ़ाता है || ३१३ ||

जो भूमि ऊसर, जली हुई और श्मशानके निकट हो तथा जहाँ पापी पुरुष निवास करते हों, उसे ब्राह्मणको नहीं देना चाहिये || ३२६ ।।

जो परायी भूमिमें पितरोंके लिये श्राद्ध करता है, अथवा जो उस भूमिको पितरोंके लिये दानमें देता है, उसके वे श्राद्धकर्म और दान दोनों ही नष्ट होते (निष्फल हो जाते) हैं ।। ३३।।

अतः विद्वान्‌ पुरुषको चाहिये कि वह थोड़ी-सी भी भूमि खरीदकर उसका दान करे। खरीदकर अपनी की हुई भूमिमें ही पितरोंको दिया हुआ पिण्ड सदा स्थिर रहनेवाला होता है | ३४६ ||

वन, पर्वत, नदी और तीर्थ--ये सब स्थान किसी स्वामीके अधीन नहीं होते हैं (इन्हें सार्वजनिक माना जाता है)। इसलिये वहाँ श्राद्ध करनेके लिये भूमि खरीदनेकी आवश्यकता नहीं है। प्रजानाथ! इस प्रकार यह भूमिदानका फल बताया गया है ।। ३५-३६ ।।

अनघ! इसके बाद मैं तुम्हें गोदानका माहात्म्य बताऊँगा। गौएँ समस्त तपस्वियोंसे बढ़कर हैं; इसलिये भगवान्‌ शंकरने गौओंके साथ रहकर तप किया था || ३७३ ।।

भारत! ये गौएँ चन्द्रमाके साथ उस ब्रह्मलोकमें निवास करती हैं, जो परमगतिरूप है और जिसे सिद्ध ब्रह्मर्षि भी प्राप्त करनेकी इच्छा रखते हैं || ३८६ ।।

भरतनन्दन! ये गौएँ अपने दूध, दही, घी, गोबर, चमड़ा, हड्डी, सींग और बालोंसे भी जगत्‌का उपकार करती रहती हैं || ३९६ ।।

इन्हें सर्दी, गर्मी और वर्षाका भी कष्ट नहीं होता है। ये सदा ही अपना काम किया करती हैं। इसलिये ये ब्राह्मणोंक साथ परमपदस्वरूप ब्रह्मलोकमें चली जाती हैं || ४०-४१ ।।

इसीसे गौ और ब्राह्मणको मनस्वी पुरुष एक बताते हैं। राजन! राजा रन्तिदेवके यज्ञमें वे पशुरूपसे दान देनेके लिये निश्चित की गयी थीं; अतः गौओंके चमड़ोंसे वह चर्मण्वती नामक नदी प्रवाहित हुई थी। वे सभी गौएँ पशुत्वसे विमुक्त थीं और दान देनेके लिये नियत की गयी थीं ।। ४२-४३ ।।

भूपाल! पृथ्वीनाथ! जो श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको इन गौओंका दान करता है, वह संकटमें पड़ा हो तो भी उस भारी विपत्तिसे उद्धार पा लेता है ।। ४४ ।।

जो एक सहस््र गोदान कर देता है, वह मरनेके बाद नरकमें नहीं पड़ता। नरेश्वर! उसे सर्वत्र विजय प्राप्त होती है ।। ४५ ।।

देवराज इन्द्रने कहा है कि 'गौओंका दूध अमृत है”; जो दूध देनेवाली गौका दान करता है, वह अमृत दान करता है ।। ४६ ।।

वेदवेत्ता पुरुषोंका अनुभव है कि “गोदुग्धरूप हविष्यका यदि अग्निमें हवन किया जाय तो वह अविनाशी फल देता है।” अतः जो धेनु दान करता है, वह हविष्यका ही दान करता है || ४७ |।

बैल स्वर्गका मूर्तिमान्‌ स्वरूप है। जो गौओंके पति--साँड़का गुणवान्‌ ब्राह्मणको दान करता है, वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है || ४८ ।।

भरतश्रेष्ठ! ये गौएँ प्राणियों (को दूध पिलाकर पालनेके कारण उन) के प्राण कहलाती हैं; इसलिये जो दूध देनेवाली गौका दान करता है, वह मानो प्राण दान देता है ।। ४९ ।।

वेदवेत्ता विद्वान्‌ ऐसा मानते हैं कि “गौएँ समस्त प्राणियोंको शरण देनेवाली हैं।' इसलिये जो धेनु दान करता है, वह सबको शरण देनेवाला है || ५० ।।

भरतश्रेष्ठ! जो मनुष्य वध करनेके लिये गौ माँग रहा हो, उसे कदापि गाय नहीं देनी चाहिये। इसी प्रकार कसाईको, नास्तिकको, गायसे ही जीविका चलानेवालेको, गोरस बेचनेवाले और पंचयज्ञ न करनेवालेको भी गाय नहीं देनी चाहिये || ५१ ।।

ऐसे पापकर्मी मनुष्योंको जो गाय देता है, वह मनुष्य अक्षय नरकमें गिरता है, ऐसा महर्षियोंका कथन है ।। ५२ ।।

जो दुबली हो, जिसका बछड़ा मर गया हो तथा जो ठाँठ, रोगिणी, किसी अंगसे हीन और थकी हुई (बूढ़ी) हो, ऐसी गौ ब्राह्मणको नहीं देनी चाहिये || ५३ ।।

दस हजार गोदान करनेवाला मनुष्य इन्द्रके साथ रहकर आनन्द भोगता है और जो लाख गौओंका दान कर देता है, उस मनुष्यको अक्षय लोक प्राप्त होते हैं ।।

भारत! इस प्रकार गोदान, तिलदान और भूमिदानका महत्त्व बतलाया गया। अब पुनः अन्नदानकी महिमा सुनो ।।

कुन्तीनन्दन! विद्वान्‌ पुरुष अन्नदानको सब दानोंमें प्रधान बताते हैं। अन्नदान करनेसे ही राजा रन्तिदेव स्वर्गलोकमें गये थे || ५६ ।।

नरेश्वर! जो भूमिपाल थके-माँदे और भूखे मनुष्यको अन्न देता है, वह ब्रह्माजीके परमधाममें जाता है || ५७ ।।

भरतनन्दन! प्रभो! अन्नदान करनेवाले मनुष्य जिस तरह कल्याणके भागी होते हैं, वैसा कल्याण उन्हें सुवर्ण, वस्त्र तथा अन्य वस्तुओंके दानसे नहीं प्राप्त होता है ।। ५८ ।।

अन्न प्रथम द्रव्य है। वह उत्तम लक्ष्मीका स्वरूप माना गया है। अन्नसे ही प्राण, तेज, वीर्य और बलकी पुष्टि होती है ।। ५९ ।।

पराशर मुनिका कथन है कि “जो मनुष्य सदा एकाग्रचित्त होकर याचकको तत्काल अन्नका दान करता है, उसपर कभी दुर्गम संकट नहीं पड़ता” ।। ६० ।।

राजन! मनुष्यको प्रतिदिन शास्त्रोक्त विधिसे देवताओंकी पूजा करके उन्हें अन्न निवेदन करना चाहिये। जो पुरुष जिस अन्नका भोजन करता है, उसके देवता भी वही अन्न ग्रहण करते हैं ।। ६१ ।।

जो कार्तिक मासके शुक्लपक्षमें अन्नका दान करता है, वह दुर्गम संकटसे पार हो जाता है और मरकर अक्षय सुखका भागी होता है || ६२ ।।

भरतश्रेष्ठ! जो पुरुष एकाग्रचित्त हो स्वयं भूखा रहकर अतिथिको अन्नदान करता है, वह ब्रह्मवेत्ताओंके लोकोंमें जाता है ।। ६३ ।।

अन्नदाता मनुष्य कठिन-से-कठिन आपत्तिमें पड़नेपर भी उस आपत्तिसे पार हो जाता है। वह पापसे उद्धार पा जाता है और भविष्यमें होनेवाले दुष्कर्मोका भी नाश कर देता है ।। ६४ ।।

इस प्रकार मैंने यह अन्नदान, तिलदान, भूमिदान और गोदानका फल बताया है ।। ६५ ||

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठका ½ श्लोक मिलाकर कुल ६५½ “लोक हैं)

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अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

सरसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) सरसठवें अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद) 

“अन्न और जलके दानकी महिमा”

युधिष्ठिरने पूछा--तात! भरतनन्दन! आपने जो दानोंका फल बताया है, उसे मैंने सुन लिया। यहाँ अन्नदानकी विशेषरूपसे प्रशंसा की गयी है || १ ।।

पितामह! अब जलदान करनेसे कैसे महान्‌ फलकी प्राप्ति होती है, इस विषयको मैं विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ ।। २ ।।

भीष्मजी कहते हैं--सत्यपराक्रमी भरतश्रेष्ठ! मैं तुम्हें सब कुछ यथार्थ रूपसे बताऊँगा। तुम आज यहाँ मेरे मुँहसे इन सब बातोंको सुनो ।। ३ ।।

अनघ! जलदानसे लेकर सब प्रकारके दानोंका फल मैं तुम्हें बताऊँगा। मनुष्य अन्न और जलका दान करके जिस फलको पाता है, वह सुनो ।। ४ ।।

तात! मेरे मनमें यह धारणा है कि अन्न और जलके दानसे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है; क्योंकि अन्नसे ही सब प्राणी उत्पन्न होते और जीवन धारण करते हैं ।। ५ ।।

इसलिये लोकमें तथा सम्पूर्ण मनुष्योंमें अन्नको ही सबसे उत्तम बताया गया है। अन्नसे ही सदा प्राणियोंके तेज और बलकी वृद्धि होती है; अतः प्रजापतिने अन्नके दानको ही सर्वश्रेष्ठ बतलाया है || ६१३ |।

कुन्तीनन्दन! तुमने सावित्रीके शुभ वचनको भी सुना है। महामते देवताओंके यज्ञमें जिस हेतुसे और जिस प्रकार जो वचन सावित्रीने कहा था, वह इस प्रकार है-- || ७- ।।

“जिस मनुष्यने यहाँ किसीको अन्न दिया है, उसने मानो प्राण दे दिये और प्राणदानसे बढ़कर इस संसारमें दूसरा कोई दान नहीं है।' महाबाहो! इस विषयमें तुमने लोमशका भी वह वचन सुना ही है || ८-९ |।

प्रजानाथ! पूर्वकालमें राजा शिबिने कबूतरके लिये प्राणदान देकर जो उत्तम गति प्राप्त की थी, ब्राह्मणको अन्न देकर दाता उसी गतिको प्राप्त कर लेता है || १० ।।

कुरुश्रेष्ठ! अतः प्राणदान करनेवाले पुरुष श्रेष्ठ गतिको प्राप्त होते हैं--ऐसा हमने सुना है। किंतु अन्न भी जलसे ही पैदा होता है। जलराशिसे उत्पन्न हुए धान्यके बिना कुछ भी नहीं हो सकता ।। ११ ||

महाराज! ग्रहोंके अधिपति भगवान्‌ सोम जलसे ही प्रकट हुए हैं। प्रजानाथ! अमृत, सुधा, स्वाहा, स्वधा, अन्न, ओषधि, तृण और लताएँ भी जलसे उत्पन्न हुई हैं, जिनसे समस्त प्राणियोंके प्राण प्रकट एवं पुष्ट होते हैं ।। १२-१३ ।।

देवताओंका अन्न अमृत, नागोंका अन्न सुधा, पितरोंका अन्न स्वधा और पशुओंका अन्न तृण-लता आदि है ।। १४ ।।

मनीषी पुरुषोंने अन्नको ही मनुष्योंका प्राण बताया है। पुरुषसिंह! सब प्रकारका अन्न (खाद्य पदार्थ) जलसे ही उत्पन्न होता है; अत: जलदानसे बढ़कर दूसरा कोई दान कहीं नहीं है । १५६ ||

जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है, उसे प्रतेदिन जलदान करना चाहिये। जलदान इस जगत्‌में धन, यश और आयुकी वृद्धि करनेवाला बताया जाता है। कुन्तीनन्दन! जलदान करनेवाला पुरुष सदा अपने शत्रुओंसे भी ऊपर रहता है ।। १६-१७ ।।

वह इस जगत्‌में सम्पूर्ण कामनाओं तथा अक्षय कीर्तिको प्राप्त करता है और सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है। मृत्युके पश्चात्‌ वह अक्षय सुखका भागी होता है ।।

महातेजस्वी पुरुषसिंह! जलदान करनेवाला पुरुष स्वर्गमें जाकर वहाँके अक्षय लोकोंपर अधिकार प्राप्त करता है--ऐसा मनुने कहा है ।। १९ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें जलदानका माहात्म्यविषयक सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

अड़सठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) अड़सठवें अध्याय के श्लोक 1-34 का हिन्दी अनुवाद) 

“तिल, जल, दीप तथा रत्न आदिके दानका माहात्म्य-धर्मराज और ब्राह्मणका संवाद”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! तिलोंके दानका कैसा फल होता है? दीप, अन्न और वस्त्रके दानकी महिमाका भी पुनः मुझसे वर्णन कीजिये ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें ब्राह्मण और यमके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है ।। २ ।।

नरेश्वर! मध्यदेशमें गंगा-यमुनाके मध्यभागमें यामुन पर्वतके निम्न स्थलमें ब्राह्मणोंका एक विशाल एवं रमणीय ग्राम था जो लोगोंमें पर्णशालानामसे विख्यात था। वहाँ बहुत-से विद्वान ब्राह्मण निवास करते थे ।। ३-४ ।।

एक दिन यमराजने काला वस्त्र धारण करनेवाले अपने एक दूतसे, जिसकी आँखें लाल, रोएँ ऊपरको उठे हुए और पैरोंकी पिण्डली, आँख एवं नाक कौएके समान थीं, कहा -- |। ५ ।।

“तुम ब्राह्मणोंके उस ग्राममें चले जाओ और जाकर अगस्त्यगोत्री शर्मी नामक शमपरायण विद्वान्‌ अध्यापक ब्राह्मणको, जो आवरणरहित है, यहाँ ले आओ ।। ६३६ 

“उसी गाँवमें उसीके समान एक दूसरा ब्राह्मण भी रहता है। वह शर्मीके ही गोत्रका है। उसके अगल-बगलमें ही निवास करता है। गुण, वेदाध्ययन और कुलमें भी वह शर्मीके ही समान है। सन्तानोंकी संख्या तथा सदाचारके पालनमें भी वह बुद्धिमान्‌ शर्मीके ही तुल्य है। तुम उसे यहाँ न ले आना ।। ७-८ ।।

“मैंने जिसे बताया है, उसी ब्राह्मणको तुम यहाँ ले आओ; क्योंकि मुझे उसकी पूजा करनी है।” उस यमदूतने वहाँ जाकर यमराजकी आज्ञाके विपरीत कार्य किया || ९ ।।

वह आक्रमण करके उसी ब्राह्णको उठा लाया, जिसके लिये यमराजने मना कर दिया था। शक्तिशाली यमराजने उठकर उसके लाये हुए ब्राह्मणकी पूजा की और दूतसे कहा -- इसको तुम ले जाओ और दूसरेको यहाँ ले आओ' ।। १०३ ।।

धर्मराजके इस प्रकार आदेश देनेपर अध्ययनसे ऊबे हुए उस समागत ब्राह्मणने उनसे कहा--:'धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले देव! मेरे जीवनका जो समय शेष रह गया है, उसमें मैं यहीं रहूँगा' ।। ११-१२ ।।

यमराजने कहा--ब्रह्मन! मैं कालके विधानको किसी तरह नहीं जानता। जगत्‌में जो पुरुष धर्माचरण करता है, केवल उसीको मैं जानता हूँ ।। १३ ।।

धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले महातेजस्वी ब्राह्मण! तुम अभी अपने घरको चले जाओ और अपनी इच्छाके अनुसार सब कुछ बताओ मैं तुम्हारे लिये क्या करूँ? ।। १४ ।।

ब्राह्मणने कहा--साधुशिरोमणे! संसारमें जो कर्म करनेसे महान्‌ पुण्य होता हो वह मुझे बताइये; क्योंकि समस्त त्रिलोकीके लिये धर्मके विषयमें आप ही प्रमाण हैं ।। १५ ।।

यमने कहा--ब्रह्मर्ष! तुम यथार्थरूपसे दानकी उत्तम विधि सुनो। तिलका दान सब दानोंमें उत्तम है। वह यहाँ अक्षय पुण्यजनक माना गया है ।। १६ ।।

द्विजश्रेष्ठ अपनी शक्तिके अनुसार तिलोंका दान अवश्य करना चाहिये। नित्यदान करनेसे तिल दाताकी सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण कर देते हैं || १७ ।।

श्राद्धमें विद्वान पुरुष तिलोंकी प्रशंसा करते हैं। यह तिलदान सबसे उत्तम दान है। अतः तुम शास्त्रीय विधिके अनुसार ब्राह्मणोंको तिलदान देते रहो ।। १८ ।।

वैशाखकी पूर्णिमाको ब्राह्मणोंके लिये तिलदान दे, तिल खाये और सदा तिलोंका ही उबटन लगाये ।। १९ ।।

जो सदा कल्याणकी इच्छा रखते हैं, उन्हें सब प्रकारसे अपने घरमें तिलॉका दान और उपयोग करना चाहिये। इसी प्रकार सर्वदा जलका दान और पान करना चाहिये--इसमें संशय नहीं है || २० ।।

द्विजश्रेष्ठ! मनुष्यको यहाँ पोखरी, तालाब और कुएँ खुदवाने चाहिये। यह इस संसारमें अत्यन्त दुर्लभ--पुण्य कार्य है ।। २१ ।।

विप्रवर! तुम्हें प्रतिदिन जलका दान करना चाहिये। जल देनेके लिये प्याऊ लगाने चाहिये। यह सर्वोत्तम पुण्य कार्य है। (भूखेको अन्न देना तो आवश्यक है ही,) जो भोजन कर चुका हो उसे भी अन्न देना चाहिये। विशेषतः जलका दान तो सभीके लिये आवश्यक है || २२ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! यमराजके ऐसा कहनेपर उस समय ब्राह्मण जानेको उद्यत हुआ। यमदूतने उसे उसके घर पहुँचा दिया और उसने यमराजकी आज्ञाके अनुसार वह सब पुण्य कार्य किया और कराया ।। २३ |।

तत्पश्चात्‌ यमदूत शर्मीको पकड़कर वहाँ ले गया और धर्मराजको इसकी सूचना दी ।। २४ ।।

प्रतापी धर्मराजने उस धर्मज्ञ ब्राह्यणकी पूजा करके उससे बातचीत की और फिर वह जैसे आया था, उसी प्रकार उसे विदा कर दिया ।। २५ ।।

उसके लिये भी यमराजने सारा उपदेश किया। परलोकमें जाकर जब वह लौटा, तब उसने भी यमराजके बताये अनुसार सब कार्य किया || २६ ।।

पितरोंके हितकी इच्छासे यमराज दीपदानकी प्रशंसा करते हैं; अतः प्रतिदिन दीपदान करनेवाला मनुष्य पितरोंका उद्धार कर देता है ।। २७ ।।

इसलिये भरतश्रेष्ठ) देवता और पितरोंके उद्देश्य्से सदा दीपदान करते रहना चाहिये। प्रभो! इससे अपने नेत्रोंका तेज बढ़ता है || २८ ।।

जनेश्वर! रत्नदानका भी बहुत बड़ा पुण्य बताया गया है। जो ब्राह्मण दानमें मिले हुए रत्नको बेचकर उसके द्वारा यज्ञ करता है, उसके लिये वह प्रतिग्रह भयदायक नहीं होता ।। २९ ||

जो ब्राह्मण किसी दातासे रत्नोंका दान लेकर स्वयं भी उसे ब्राह्मणोंको बाँट देता है तो उस दानके देने और लेनेवाले दोनोंको अक्षय पुण्य प्राप्त होता है ।। ३० ।।

जो पुरुष स्वयं धर्ममर्यादामें स्थित होकर अपने ही समान स्थितिवाले ब्राह्मणको दानमें मिली हुई वस्तुका दान करता है, उन दोनोंको अक्षय धर्मकी प्राप्ति होती है। यह धर्मज्ञ मनुका वचन है ।। ३१ ।।

जो मनुष्य अपनी ही स्त्रीमें अनुराग रखता हुआ वस्त्र दान करता है, वह सुन्दर वस्त्र और मनोहर वेष-भूषासे सम्पन्न होता है--ऐसा हमने सुन रखा है ।। ३२ ।।

पुरुषसिंह! मैंने गौ, सुवर्ण और तिलके दानका माहात्म्य अनेकों बार वेद-शास्त्रके प्रमाण दिखाकर वर्णन किया है ।। ३३ ।।

कुरुनन्दन! मनुष्य विवाह करे और पुत्र उत्पन्न करे। पुत्रका लाभ सब लाभोंसे बढ़कर है ।। ३४ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें यम और ब्राह्मणका संवादविषयक अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

उनहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) उनहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद) 

“गोदानकी महिमा तथा गौओं और ब्राह्मणोंकी रक्षासे पुण्यकी प्राप्ति”

युधिष्ठिरने कहा--महाप्राज्ञ कुरुश्रेष्ठी आप दानकी उत्तम विधिका फिरसे वर्णन कीजिये। विशेषत: भूमिदानका महत्त्व बताइये ।। १ ।।

केवल क्षत्रिय राजा ही यज्ञ करनेवाले ब्राह्मणको पृथ्वीका दान कर सकता है और उसीसे ब्राह्मण विधि-पूर्वक भूमिका प्रतिग्रह ले सकता है। दूसरा कोई यह दान नहीं कर सकता ।। २ ।।

दानके फलकी इच्छा रखनेवाले सभी वर्णोंके लोग जो दान कर सकें अथवा वेदमें जिस दानका वर्णन हो, उसकी मेरे समक्ष व्याख्या कीजिये ।। ३ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! गाय, भूमि और सरस्वती--ये तीनों समान नामवाली हैं --इन तीनों वस्तुओंका दान करना चाहिये। इन तीनोंके दानका फल भी समान ही है। ये तीनों वस्तुएँ मनुष्योंकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण करनेवाली हैं ।। ४ ।।

जो ब्राह्मण अपने शिष्यको धर्मानुकूल ब्राह्मी सरस्वती (वेदवाणी) का उपदेश करता है, वह भूमिदान और गोदानके समान फलका भागी होता है ।। ५ ।।

इसी प्रकार गोदानकी भी प्रशंसा की गयी है। उससे बढ़कर कोई दान नहीं है। युधिष्ठिर! गोदानका फल निकट भविष्यमें मिलता है तथा वे गौएँ शीघ्र अभीष्ट अर्थकी सिद्धि करती हैं ।। ६ ।।

गौएँ सम्पूर्ण प्राणियोंकी माता कहलाती हैं। वे सबको सुख देनेवाली हैं। जो अपने अभ्युदयकी इच्छा रखता हो, उसे गौओंको सदा दाहिने करके चलना चाहिये ।। ७ ।।

गौओंको लात न मारे। उनके बीचसे होकर न निकले। वे मंगलकी आधारभूत देवियाँ हैं, अतः उनकी सदा ही पूजा करनी चाहिये ।। ८ ।।

देवताओंने भी यज्ञके लिये भूमि जोतते समय बैलोंको डंडे आदिसे हाँका था। अतः पहले यज्ञके लिये ही बैलोंको जोतना या हाँकना श्रेयस्कर माना गया है। उससे भिन्न कर्मके लिये बैलोंको जोतना या डंडे आदिसे हाँकना निन्दनीय है ।। ९ ।।

विद्वान्‌ पुरुषको चाहिये कि जब गौएँ स्वच्छन्दता-पूर्वक विचर रही हों अथवा किसी उपद्रवशून्य स्थानमें बैठी हों तो उन्हें उद्वेगमें न डाले। जब गौएँ प्याससे पीड़ित हो जलकी इच्छासे अपने स्वामीकी ओर देखती हैं (और वह उन्हें पानी नहीं पिलाता है), तब वे रोषपूर्ण दृष्टिसे बन्धु-बान्धवोंसहित उसका नाश कर देती हैं || १० ।।

जिनके गोबरसे लीपनेपर देवताओंके मन्दिर और पितरोंके श्राद्धस्थान पवित्र होते हैं, उनसे बढ़कर पावन और क्या हो सकता है? ।। ११ ।।

जो एक वर्षतक प्रतिदिन स्वयं भोजनके पहले दूसरेकी गायको एक मुट्ठी घास खिलाता है, उसका वह व्रत समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला होता है ।। १२ ।।

वह अपने लिये पुत्र, यश, धन और सम्पत्ति प्राप्त करता है तथा अशुभ कर्म और दुःस्वप्रका नाश कर देता है ।। १३ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! किन लक्षणोंवाली गौओंका दान करना चाहिये और किनका दान नहीं करना चाहिये? कैसे ब्राह्मणको गाय देनी चाहिये और कैसे ब्राह्मणको नहीं देनी चाहिये? || १४ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन! दुराचारी, पापी, लोभी, असत्यवादी तथा देवयज्ञ और श्राद्धकर्म न करनेवाले ब्राह्मणको किसी तरह गौ नहीं देनी चाहिये || १५ ।।

जिसके बहुत-से पुत्र हों, जो श्रोत्रिय (वेदवेत्ता) और अन्निहोत्री ब्राह्मण हो और गौके लिये याचना कर रहा हो, ऐसे पुरुषको दस गौओंका दान करनेवाला दाता उत्तम लोकोंको पाता है || १६ ।।

जो गोदान ग्रहण करके धर्माचरण करता है, उसके धर्मका जो कुछ भी फल होता है, उस सम्पूर्ण धर्मके एक अंशका भागी दाता भी होता है, क्योंकि उसीके लिये उसकी गोदानमें प्रवृत्ति हुई थी ।। १७ ।।

जो जन्म देता है, जो भयसे बचाता है तथा जो जीविका देता है--ये तीनों ही पिताके तुल्य हैं ।। १८ ।।

गुरुजनोंकी सेवा सारे पापोंका नाश कर देती है। अभिमान महान्‌ यशको नष्ट कर देता है। तीन पुत्र पुत्रहीनताके दोषका निवारण कर देते हैं और दूध देनेवाली दस गौएँ हों तो ये जीविकाके अभावको दूर कर देती हैं ।। १९ ।।

जो वेदान्तनिष्ठ, बहुज्ञ, ज्ञानानन्दसे तृप्त, जितेन्द्रिय, शिष्ट, मनको वशमें रखनेवाला, यत्नशील, समस्त प्राणियोंके प्रति सदा प्रिय वचन बोलनेवाला, भूखके भयसे भी अनुचित कर्म न करनेवाला, मृदुल, शान्त, अतिथिप्रेमी, सबपर समानभाव रखनेवाला और स्त्री-पुत्र आदि कुटु॒म्बसे युक्त हो, उस ब्राह्मणकी जीविकाका अवश्य प्रबन्ध करना चाहिये || २०-२१ ।।

शुभ पात्रको गोदान करनेसे जो लाभ होते हैं, उसका धन ले लेनेपर उतना ही पाप लगता है; अतः किसी भी अवस्थामें ब्राह्मणोंक धनका अपहरण न करे तथा उनकी स्त्रियोंका संसर्ग दूरसे ही त्याग दे || २२ ।।

जहाँ ब्राह्मणोंकी स्त्रियों अथवा उनके धनका अपहरण होता हो, वहाँ शक्ति रहते हुए जो उन सबकी रक्षा करते हैं, उन्हें नमस्कार है। जो उनकी रक्षा नहीं करते हैं, वे मुर्दोंके समान हैं। सूर्यपुत्र यमराज ऐसे लोगोंका वध कर डालते हैं, प्रतिदिन उन्हें यातना देते और डाँटते-फटकारते हैं और नरकसे उन्हें कभी छुटकारा नहीं देते हैं। इसी प्रकार गौओंके संरक्षण और पीड़नसे भी शुभ और अशुभकी प्राप्ति होती है। विशेषतः ब्राह्मणों और गौओंके अपने द्वारा सुरक्षित होनेपर पुण्य और मारे जानेपर पाप होता है ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गोदानका माहात्म्यविषयक उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल २५ श्लोक हैं)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

सत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) सत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-33 का हिन्दी अनुवाद) 

“ब्राह्मगके धनका अपहरण करनेसे होनेवाली हानिके विषयमें दृष्टान्तके रूपमें राजा नृगका उपाख्यान”

भीष्मजी कहते हैं--कुरुश्रेष्ठ इस विषयमें श्रेष्ठ पुरुष वह प्रसंग सुनाया करते हैं, जिसके अनुसार एक ब्राह्मणके धनको ले लेनेके कारण राजा नृगको महान्‌ कष्ट उठाना पड़ा था || १ ।।

पार्थ! हमारे सुननेमें आया है कि पूर्वकालमें जब द्वारकापुरी बस रही थी, उसी समय वहाँ घास और लताओंसे ढँका हुआ एक विशाल कूप दिखायी दिया ।। २ ।।

वहाँ रहनेवाले यदुवंशी बालक उस कुएँका जल पीनेकी इच्छासे बड़े परिश्रमके साथ उस घास-फ़ूसको हटानेके लिये महान्‌ प्रयत्न करने लगे। इतनेहीमें उस कुएँके ढँके हुए जलनमें स्थित हुए एक विशालकाय गिरगिटपर उनकी दृष्टि पड़ी । ३३ ।।

फिर तो वे सहस्नों बालक उस गिरगिटको निकालनेका यत्न करने लगे। गिरगिटका शरीर एक पर्वतके समान था। बालकोंने उसे रस्सियों और चमड़ेकी पट्टियोंसे बाँधकर खींचनेके लिये बहुत जोर लगाया परंतु वह टस-से-मस न हुआ। जब बालक उसे निकालनेमें सफल न हो सके, तब वे भगवान्‌ श्रीकृष्णके पास गये ।। ४-५ ।।

उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्णसे निवेदन किया--“भगवन्‌! एक बहुत बड़ा गिरगिट कुएँमें पड़ा है, जो उस कुएँके सारे आकाशको घेरकर बैठा है; पर उसे निकालनेवाला कोई नहीं है।।

यह सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण उस कुएँके पास गये। उन्होंने उस गिरगिटको कुएँसे बाहर निकाला और अपने पावन हाथके स्पर्शसे राजा नृगका उद्धार कर दिया। इसके बाद उनसे परिचय पूछा। तब राजाने उन्हें अपना परिचय देते हुए कहा--'प्रभो! पूर्वजन्ममें मैं राजा नृग था, जिसने एक सहस्र यज्ञोंका अनुष्ठान किया था” ।।

उनकी ऐसी बात सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने पूछा--“राजन्‌! आपने तो सदा पुण्यकर्म ही किया था, पापकर्म कभी नहीं किया, फिर आप ऐसी दुर्गतिमें कैसे पड़ गये? बताइये, क्यों आपको यह ऐसा वष्ट प्राप्त हुआ? ।। ८ ।।

नरेश्वर! हमने सुना है कि पूर्वकालमें आपने ब्राह्मणोंको पहले एक लाख गौएँ दान कीं। दूसरी बार सौ गौओंका दान किया। तीसरी बार पुनः सौ गौएँ दानमें दीं। फिर चौथी बार आपने गोदानका ऐसा सिलसिला चलाया कि लगातार अस्सी लाख गौओंका दान कर दिया। (इस प्रकार आपके द्वारा इक्यासी लाख दो सौ गौएँ दानमें दी गयीं) आपके उन सब दानोंका पुण्यफल कहाँ चला गया?” ।। ९ ।।

तब राजा नृगने भगवान्‌ श्रीकृष्णसे कहा--'प्रभो! एक अग्निहोत्री ब्राह्मण परदेश चला गया था। उसके पास एक गाय थी, जो एक दिन अपने स्थानसे भागकर मेरी गौओंके झुंडमें आ मिली || १० ।।

“उस समय मेरे ग्वालोंने दानके लिये मँगायी गयी एक हजार गौओंमें उसकी भी गिनती करा दी और मैंने परलोकमें मनोवांछित फलकी इच्छासे वह गौ भी एक ब्राह्मणको दे दी | ११ ||

“कुछ दिनों बाद जब वह ब्राह्मण परदेशसे लौटा, तब अपनी गाय हढूँढ़ने लगा। ढूँढ़तेढूँढ़ते जब वह गाय उसे दूसरेके घर मिली, तब उस ब्राह्मणने, जिसकी वह गौ पहले थी, उस दूसरे ब्राह्मणसे कहा--“यह गाय तो मेरी है” || १२ ।।

'फिर तो वे दोनों आपसमें लड़ पड़े और अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए मेरे पास आये। उनमेंसे एकने कहा--“महाराज! यह गौ आपने मुझे दानमें दी है (और यह ब्राह्मण इसे अपनी बता रहा है।)” दूसरेने कहा--“महाराज! वास्तवमें यह मेरी गाय है। आपने उसे चुरा लिया है” ।। १३ ।।

“तब मैंने दान लेनेवाले ब्राह्मणसे प्रार्थनापूर्वक कहा--“मैं इस गायके बदले आपको दस हजार गौएँ देता हूँ (आप इन्हें इनकी गाय वापस दे दीजिये)। यह सुनकर वह यों बोला --“महाराज! यह गौ देश-कालके अनुरूप, पूरा दूध देनेवाली, सीधी-सादी और अत्यन्त दयालुस्वभावकी है। यह बहुत मीठा दूध देनेवाली है। धन्य भाग्य जो यह मेरे घर आयी। यह सदा मेरे ही यहाँ रहे || १४-१५ ।।

“अपने दूधसे यह गौ मेरे मातृहीन शिशुका प्रतिदिन पालन करती है; अतः मैं इसे कदापि नहीं दे सकता।” यह कहकर वह उस गायको लेकर चला गया ।। १६ 

“तब मैंने उन दूसरे ब्राह्मगसे याचना की--'भगवन्‌! उसके बदलेमें आप मुझसे एक लाख गौएँ ले लीजिये” ।। १७ ।।

“मधुसूदन! तब उस ब्राह्मणने कहा--“मैं राजाओंका दान नहीं लेता। मैं अपने लिये धनका उपार्जन करनेमें समर्थ हूँ। मुझे तो शीघ्र मेरी वही गौ ला दीजिये” ।। १८ ।

“मैंने उसे सोना, चाँदी, रथ और घोड़े--सब कुछ देना चाहा; परंतु वह उत्तम ब्राह्मण कुछ न लेकर तत्काल चुपचाप चला गया ।। १९ ||

“इसी बीचमें कालकी प्रेरणासे मैं मृत्युको प्राप्त हुआ और पितृलोकमें पहुँचकर धर्मराजसे मिला || २० ||

यमराजने मेरा आदर-सत्कार करके मुझसे यह बात कही--“राजन्‌! तुम्हारे पुण्यकर्मोकी तो गिनती ही नहीं है। परन्तु अनजानमें तुमसे एक पाप भी बन गया है। उस पापको तुम पीछे भोगो या पहले ही भोग लो, जैसी तुम्हारी इच्छा हो, करो || २१-२२ 

“आपने प्रजाके धन-जनकी रक्षाके लिये प्रतिज्ञा की थी; किंतु उस ब्राह्मणकी गाय खो जानेके कारण आपकी वह प्रतिज्ञा झूठी हो गयी। दूसरी बात यह है कि आपने ब्राह्मणके धनका भूलसे अपहरण कर लिया था। इस तरह आपके द्वारा दो तरहका अपराध हो गया है” ।। २३ ।।

तब मैंने धर्मराजसे कहा--प्रभो! मैं पहले पाप ही भोग लूँगा। उसके बाद पुण्यका उपभोग करूँगा। इतना कहना था कि मैं पृथ्वीपर गिरा | २४ ।।

“गिरते समय उच्चस्वरसे बोलते हुए यमराजकी यह बात मेरे कानोंमें पड़ी--“महाराज! एक हजार दिव्य वर्ष पूर्ण होनेपर तुम्हारे पापकर्मका भोग समाप्त होगा। उस समय जनार्दन भगवान्‌ श्रीकृष्ण आकर तुम्हारा उद्धार करेंगे और तुम अपने पुण्यकर्मोके प्रभावसे प्राप्त हुए सनातन लोकोंमें जाओगे” || २५-२६ ।।

कुएँमें गिरनेपर मैंने देखा, मुझे तिर्यग्योनि (गिरगिटकी देह) मिली है और मेरा सिर नीचेकी ओर है। इस योनिमें भी मेरी पूर्वजन्मोंकी स्मरणशक्तिने मेरा साथ नहीं छोड़ा है | २७ |।

श्रीकृष्णण आज आपने मेरा उद्धार कर दिया। इसमें आपके तपोबलके सिवा और क्या कारण हो सकता है। अब मुझे आज्ञा दीजिये, मैं स्वर्गलोकको जाऊँगा” ।। २८ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन्हें आज्ञा दे दी और वे शत्रुदमन नरेश उन्हें प्रणाम करके दिव्य मार्गका आश्रय ले स्वर्गलोकको चले गये ।। २९ ।।

भरतश्रेष्ठ) कुरुनन्दन! राजा नृगके स्वर्गलोकको चले जानेपर वसुदेवनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस श्लोकका गान किया-- ।। ३० ||

“समझदार मनुष्यको ब्राह्मणके धनका अपहरण नहीं करना चाहिये। चुराया हुआ ब्राह्मणका धन चोरका उसी प्रकार नाश कर देता है, जैसे ब्राह्मणकी गौने राजा नृगका सर्वनाश किया था” ।। ३१ ।।

कुन्तीनन्दन! यदि सज्जन पुरुष सत्पुरुषोंका संग करें तो उनका वह संग व्यर्थ नहीं जाता। देखो, श्रेष्ठ पुछुषके समागमके कारण राजा नृगका नरकसे उद्धार हो गया ।।

युधिष्ठि!! गौओंका दान करनेसे जैसा उत्तम फल मिलता है, वैसे ही गौओंसे द्रोह करनेपर बहुत बड़ा कुफल भोगना पड़ता है; इसलिये गौओंको कभी कष्ट नहीं पहुँचाना चाहिये ।। ३३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें नृगका उपाख्यानविषयक सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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