सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के तिरसठवें अध्याय से पैसठवें अध्याय तक (From the 63 chapter to the 65 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

तिरेसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  तिरेसठवें अध्याय के श्लोक 1-52 का हिन्दी अनुवाद)

“अन्नदानका विशेष माहात्म्य”

युधिष्ठिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ] जिस राजाको दान करनेकी इच्छा हो, वह इस लोकमें गुणवान्‌ ब्राह्मणोंको किन-किन वस्तुओंका दान करे? ।। १ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ] जिस राजाको दान करनेकी इच्छा हो, वह इस लोकमें गुणवान्‌ ब्राह्मणोंको किन-किन वस्तुओंका दान करे? ।। १ ।।

किस वस्तुके देनेसे ब्राह्मण तुरन्त प्रसन्न हो जाते हैं? और प्रसन्न होकर क्या देते हैं? महाबाहो! अब मुझे दानजनित महान्‌ पुण्यका फल बताइये ।। २ ।।

राजन्‌! इहलोक और परलोकमें कौन-सा दान विशेष फल देनेवाला होता है? यह मैं आपके मुँहसे सुनना चाहता हूँ। आप इस विषयका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ।। ३ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! यही बात मैंने पहले एक बार देवदर्शी नारदजीसे पूछी थी। उस समय उन्होंने मुझसे जो कुछ कहा था, वही तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ।। ४ ।।

नारदजीने कहा--देवता और ऋषि अन्नकी ही प्रशंसा करते हैं, अन्नसे ही लोकयात्राका निर्वाह होता है। उसीसे बुद्धिको स्फूर्ति प्राप्त होती है तथा उस अन्नमें ही सब कुछ प्रतिष्ठित है ।। ५ ।।

अन्नके समान न कोई दान था और न होगा। इसलिये मनुष्य अधिकतर अन्नका ही दान करना चाहते हैं ।। ६ ।।

प्रभो! संसारमें अन्न ही शरीरके बलको बढ़ानेवाला है। अन्नके ही आधारपर प्राण टिके हुए हैं और इस सम्पूर्ण जगत्‌को अन्नने ही धारण कर रखा है || ७ ।।

इस जगतमें गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा भिक्षा माँगनेवाले भी अन्नसे ही जीते हैं। अन्नसे ही सबके प्राणोंकी रक्षा होती है। इस बातका सबको प्रत्यक्ष अनुभव है, इसमें संशय नहीं है ।। ८ ।।

अतः अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यको चाहिये कि वह अन्नके लिये दुखी, बाल-बच्चोंवाले, महामनस्वी ब्राह्मणको और भिक्षा माँगनेवालेको भी अन्नदान करे ।। ९ ।

जो याचना करनेवाले सुपात्र ब्राह्मणको अन्नदान देता है, वह परलोकमें अपने लिये एक अच्छी निधि (खजाना) बना लेता है ।। १० |।

रास्तेका थका-माँदा बूढ़ा राहगीर यदि घरपर आ जाय तो अपना कल्याण चाहनेवाले गृहस्थको उस आदरणीय अतिथिका आदर करना चाहिये ।। ११ ।।

राजन! जो पुरुष मनमें उठे हुए क्रोधको दबाकर और ईर्ष्याको त्यागकर अच्छे शीलस्वभावका परिचय देता हुआ अन्नदान करता है, वह इहलोक और परलोकमें भी सुख पाता है ।। १२ ।।

अपने घरपर कोई भी आ जाय, उसका न तो कभी अपमान करना चाहिये और न उसे ताड़ना ही देनी चाहिये; क्योंकि चाण्डाल अथवा कुत्तेको भी दिया हुआ अन्नदान कभी नष्ट नहीं होता (व्यर्थ नहीं जाता) ।। १३ ।।

जो मनुष्य कष्टमें पड़े हुए अपरिचित राहीको प्रसन्नतापूर्वक अन्न देता है, उसे महान्‌ धर्मकी प्राप्ति होती है ।। १४ ।।

नरेश्वर! जो देवताओं, पितरों, ऋषियों, ब्राह्मणों और अतिथियोंको अन्न देकर संतुष्ट करता है, उसके पुण्यका फल महान्‌ है || १५ ।।

जो महान्‌ पाप करके भी याचक मनुष्यको, उसमें भी विशेषत: ब्राह्मणको अन्न देता है, वह अपने पापके कारण मोहमें नहीं पड़ता है ।। १६ ।।

ब्राह्मणको अन्नका दान दिया जाय तो अक्षय फल प्राप्त होता है और शूद्रको भी देनेसे महान्‌ फल होता है; क्योंकि अन्नका दान शूद्रको दिया जाय या ब्राह्मणको, उसका विशेष फल होता है ।। १७ ।।

यदि ब्राह्मण अन्नकी याचना करे तो उससे गोत्र, शाखा, वेदाध्ययन और निवासस्थान आदिका परिचय न पूछे; तुरंत ही उसकी सेवामें अन्न उपस्थित कर दे ।। १८ ।।

जो राजा अन्नका दान करता है, उसके लिये अन्नके पौधे इहलोक और परलोकमें भी सम्पूर्ण मनोवांछित फल देनेवाले होते हैं, इसमें संशय नहीं है ।। १९ ।।

जैसे किसान अच्छी वृष्टि मनाया करते हैं, उसी प्रकार पितर भी यह आशा लगाये रहते हैं कि कभी हमलोगोंका पुत्र या पौत्र भी हमारे लिये अन्न प्रदान करेगा || २० ।।

ब्राह्मण एक महान्‌ प्राणी है। यदि वह “मुझे अन्न दो” इस प्रकार स्वयं अन्नकी याचना करता है तो मनुष्यको चाहिये कि सकामभावसे या निष्कामभावसे उसे अन्नदान देकर पुण्य प्राप्त करे || २१ ।।

भारत! ब्राह्मण सब मनुष्योंका अतिथि और सबसे पहले भोजन पानेका अधिकारी है। ब्राह्मण जिस घरपर सदा भिक्षा माँगनेके लिये जाते हैं और वहाँसे सत्कार पाकर लौटते हैं, उस घरकी सम्पत्ति अधिक बढ़ जाती है तथा उस घरका मालिक मरनेके बाद महान्‌ सौभाग्यशाली कुलमें जन्म पाता है ।।

जो मनुष्य इस लोकमें सदा अन्न, उत्तम स्थान और मिष्टान्नका दान करता है, वह देवताओंसे सम्मानित होकर स्वर्गलोकमें निवास करता है ।। २४ ।।

नरेश्वर! अन्न ही मनुष्योंके प्राण हैं, अन्नमें ही सब प्रतिष्ठित है, अतः अन्न दान करनेवाला मनुष्य पशु, पुत्र, धन, भोग, बल और रूप भी प्राप्त कर लेता है। जगतूमें अन्न दान करनेवाला पुरुष प्राणदाता और सर्वस्व देनेवाला कहलाता है || २५-२६ ।।

अतिथि ब्राह्मणको विधिपूर्वक अन्नदान करके दाता परलोकमें सुख पाता है और देवता भी उसका आदर करते हैं ।। २७ ।।

युधिष्ठिर! ब्राह्मण महान्‌ प्राणी एवं उत्तम क्षेत्र है। उसमें जो बीज बोया जाता है, वह महान्‌ पुण्यफल देनेवाला होता है || २८ ।।

अन्नका दान ही एक ऐसा दान है, जो दाता और भीोक्ता, दोनोंको प्रत्यक्षरूपसे संतुष्ट करनेवाला होता है। इसके सिवा अन्य जितने दान हैं, उन सबका फल परोक्ष है ।। २९ ।।

भारत! अन्नसे ही संतानकी उत्पत्ति होती है। अन्नसे ही रतिकी सिद्धि होती है। अन्नसे ही धर्म और अर्थकी सिद्धि समझो। अन्नसे ही रोगोंका नाश होता है ।। ३० ।।

पूर्वकल्पमें प्रजापतिने अन्नको अमृत बतलाया है। भूलोक, स्वर्ग और आकाश अन्नरूप ही हैं; क्योंकि अन्न ही सबका आधार है ।। ३१ ।।

अन्नका आहार न मिलनेपर शरीरमें रहनेवाले पाँचों तत्व अलग-अलग हो जाते हैं। अन्नकी कमी हो जानेसे बड़े-बड़े बलवानोंका बल भी क्षीण हो जाता है ।। ३२ ।।

निमन्त्रण, विवाह और यज्ञ भी अन्नके बिना बंद हो जाते हैं। नरश्रेष्ठ! अन्न न हो तो वेदोंका ज्ञान भी भूल जाता है || ३३ ।।

यह जो कुछ भी स्थावर-जंगमरूप जगत्‌ है, सब-का-सब अन्नके ही आधारपर टिका हुआ है। अतः बुद्धिमान्‌ पुरुषोंको चाहिये कि तीनों लोकोंमें धर्मके लिये अन्नका दान अवश्य करें ।। ३४ ।।

पृथ्वीनाथ! अन्नदान करनेवाले मनुष्यके बल, ओज, यश और कीर्तिका तीनों लोकोंमें सदा ही विस्तार होता रहता है ।। ३५ ।।

भारत! प्राणोंका स्वामी पवन मेघोंके ऊपर स्थित होता है और मेघमें जो जल है, उसे इन्द्र धरतीपर बरसाते हैं ।। ३६ ।।

सूर्य अपनी किरणोंसे पृथ्वीके रसोंको ग्रहण करते हैं। वायुदेव सूर्यसे उन रसोंको लेकर फिर भूमिपर बरसाते हैं || ३७ ।।

भरतनन्दन! इस प्रकार जब मेघसे पृथ्वीपर जल गिरता है, तब पृथ्वीदेवी स्निग्ध (गीली) होती है ।। ३८ ।।

फिर उस गीली धरतीसे अनाजके अंकुर उत्पन्न होते हैं, जिससे जगतके जीवोंका निर्वाह होता है। अन्नसे ही शरीरमें मांस, मेदा, अस्थि और वीर्यका प्रादुर्भाव होता है ।। ३९ ||

पृथ्वीनाथ! उस वीर्यसे प्राणी उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार अग्नि और सोम उस वीर्यकी सृष्टि और पुष्टि करते हैं || ४० ।।

इस तरह सूर्य, वायु और वीर्य एक ही राशि हैं जो अन्नसे प्रकट हुए हैं। उन्हींसे समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है ।। ४१ ।।

भरतश्रेष्ठ) जो घरपर आये हुए याचकको अन्न देता है, वह सब प्राणियोंको प्राण और तेजका दान करता है ।। ४२ ।।

भीष्मजी कहते हैं--नरेश्वर! जब नारदजीने मुझे इस प्रकार अन्न-दानका माहात्म्य बतलाया, तबसे मैं नित्य अन्नका दान किया करता था। अतः तुम भी दोषदृष्टि और जलन छोड़कर सदा अन्न-दान करते रहना ।। ४३ ।।

राजन! प्रभो! तुम सुयोग्य ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक अन्नका दान करके उसके पुण्यसे स्वर्गलोकको प्राप्त कर लोगे ।। ४४ ।।

नरेश्वर! अन्न-दान करनेवालोंको जो लोक प्राप्त होते हैं, उनका परिचय देता हूँ, सुनो। स्वर्गमें उन महामनस्वी अन्नदाताओंके घर प्रकाशित होते रहते हैं || ४५ ।।

उन गृहोंकी आकृति तारोंके समान उज्ज्वल और अनेकानेक खम्भोंसे सुशोभित होती है। वे गृह चन्द्रमण्डलके समान उज्ज्वल प्रतीत होते हैं। उनपर छोटी-छोटी घंटियोंसे युक्त झालरें लगी हैं || ४६ ।।

उनमेंसे कितने ही भवन प्रातःकालके सूर्यकी भाँति लाल प्रभासे युक्त हैं, कितने ही स्थावर हैं और कितने ही विमानोंके रूपमें विचरते रहते हैं। उनमें सैकड़ों कक्षाएँ और मंजिलें होती हैं। उन घरोंके भीतर जलचर जीवोंसहित जलाशय होते हैं || ४७ ।।

कितने ही घर वैदूर्यमणिमय (नील) सूर्यके समान प्रकाशित होते हैं। कितने ही चाँदी और सोनेके बने हुए हैं। उन भवनोंमें अनेकानेक वृक्ष शोभा पाते हैं, जो सम्पूर्ण मनोवांछित फल देनेवाले हैं || ४८ ।।

उन गृहोंमें अनेक प्रकारकी बावड़ियाँ, गलियाँ, सभाभवन, कूप, तालाब और गम्भीर घोष करनेवाले सहस्रों जुते हुए रथ आदि वाहन होते हैं || ४९ ।।

वहाँ भक्ष्य-भोज्य पदार्थोंके पर्वत, वस्त्र और आभूषण हैं। वहाँकी नदियाँ दूध बहाती हैं। अन्नके पर्वतोपम ढेर लगे रहते हैं |। ५० ।।

उन भवनोंमें सफेद बादलोंके समान अट्टालिकाएँ और सुवर्णनिर्मित प्रकाशपूर्ण शय्याएँ शोभा पाती हैं। वे महल अन्नदाता पुरुषोंको प्राप्त होते हैं; इसलिये तुम भी अन्नदान करो || ५१ ।।

ये पुण्यजनित लोक अन्नदान करनेवाले महामनस्वी पुरुषोंको प्राप्त होते हैं। अतः इस पृथ्वीपर सभी मनुष्योंको प्रयत्नपूर्वक अन्नका दान करना चाहिये ।। ५२ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें अन्नदानकी प्रशंसाविषयक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

चौसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  चौसठवें अध्याय के श्लोक 1-36 का हिन्दी अनुवाद)

“विभिन्न नक्षत्रोंके योगमें भिन्न-भिन्न वस्तुओंके दानका माहात्म्य”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! मैंने आपका उपदेश सुना। अन्नदानका जो विधान है, वह ज्ञात हुआ। अब मुझे यह बताइये कि किस नक्षत्रका योग प्राप्त होनेपर किस-किस वस्तुका दान करना उत्तम है ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें जानकार मनुष्य देवकी देवी और महर्षि नारदके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। २ ।।

एक समयकी बात है, धर्मदर्शी देवर्षि नारदजी द्वारकामें आये थे। उस समय वहाँ देवकी देवीने उनके सामने यही प्रश्न उपस्थित किया ।। ३ ।।

प्रजानाथ! देवकीके इस प्रकार पूछनेपर देवर्षि नारदने उस समय विधिपूर्वक सब बातें बतायीं। वे ही बातें मैं तुमसे कहता हूँ, सुनो |। ४ ।।

नारदजीने कहा--महाभागे! कृत्तिका नक्षत्र आनेपर मनुष्य घृतयुक्त खीरके द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको तृप्त करे। इससे वह सर्वोत्तम लोकोंको प्राप्त होता है ।।

रोहिणी नक्षत्रमें पके हुए फलके गूदे, अन्न, घी, दूध तथा पीनेयोग्य पदार्थ ब्राह्मणको दान करने चाहिये। इससे उनके ऋणसे छुटकारा मिलता है ।। ६ ।।

मृगशिरा नक्षत्रमें दूध देनेवाली गौका बछड़ेसहित दान करके दाता मृत्युके पश्चात्‌ इस लोकसे सर्वोत्तम स्वर्गलोकमें जाते हैं || ७ ।।

आर्द्रा नक्षत्रमें उपवासपूर्वक तिलमिश्रित खिचड़ी दान करनेवाला मनुष्य बड़े-बड़े दुर्गम संकटोंसे तथा क्षुरकी-सी धारवाले पर्वतोंसे भी पार हो जाता है ।। ८ ।।

शोभने! पुनर्वसु नक्षत्रमें पूआ और अन्न-दान करके मनुष्य उत्तम कुलमें जन्म लेता है, तथा वहाँ यशस्वी, रूपवान्‌ एवं प्रचुर अन्नसे सम्पन्न होता है ।।

पुष्य नक्षत्रमें सोनेका आभूषण अथवा केवल सोना ही दान करनेसे दाता प्रकाशशून्य लोकोंमें भी चन्द्रमाके समान प्रकाशित होता है || १० ।।

जो आश्लेषा नक्षत्रमें चाँदी अथवा बैल दान करता है, वह इस जन्ममें सब प्रकारके भयसे मुक्त हो दूसरे जन्ममें उत्तम कुलमें जन्म लेता है ।। ११ ।।

जो मनुष्य मघा नक्षत्रमें तिलसे भरे हुए वर्धमान पात्रोंका दान करता है, वह इहलोकमें पुत्रों और पशुओंसे सम्पन्न हो परलोकमें भी आनन्दका भागी होता है ।। १२ ।।

पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रमें उपवास करके जो मनुष्य ब्राह्मणोंको मक्खनमिश्रित भक्ष्य पदार्थ देता है, वह सौभाग्यशाली होता है || १३ ।।

उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें विधिपूर्वक घृत और दुग्धसे युक्त साठीके चावलके भातका दान करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है ।। १४ ।।

उत्तरा नक्षत्रमें मनुष्य जो-जो दान देते हैं, वह महान्‌ फलसे युक्त एवं अनन्त होता है-यह शाम्त्रोंका निश्चय है ।। १५ ।।

हस्तनक्षत्रमें उपवास करके ध्वजा, पताका, चँदोवा और किंकिणीजाल--इन चार वस्तुओंसे युक्त हाथी जुते हुए रथका दान करनेवाला मनुष्य पवित्र कामनाओंसे युक्त उत्तम लोकोंमें जाता है || १६ ।।

भारत! जो लोग चित्रा नक्षत्रमें वृषभ एवं पवित्र गन्धका दान करते हैं, वे अप्सराओंके लोकमें विचरते और नन्दनवनमें रमण करते हैं ।। १७ ।।

स्वाती नक्षत्रमें अपनी अधिक-से-अधिक प्रिय वस्तुका दान करके मनुष्य शुभ लोकोंमें जाता है और इस जगतमें भी महान्‌ यशका भागी होता है ।। १८ ।।

जो विशाखा नक्षत्रमें गाड़ी ढोनेवाले बैल, दूध देनेवाली गाय, धान्य, वस्त्र और प्रासंगसहित शकट दान करता है, वह देवताओं और पितरोंको तृप्त कर देता है तथा मृत्युके पश्चात्‌ अक्षय सुखका भागी होता है। वह जीते जी कभी संकटमें नहीं पड़ता और मरनेके बाद स्वर्गलोकमें जाता है || १९-२० ।।

पूर्वोक्त वस्तुओंका ब्राह्मणोंको दान करके मनुष्य इच्छित जीविका-वृत्ति पा लेता है और नरक आदिके कष्ट भी कभी नहीं भोगता। ऐसा शास्त्रोंका निश्चय है ।।

जो मनुष्य अनुराधा नक्षत्रमें उपवास करके ओढ़नेका वस्त्र और उत्तम अन्न दान करता है, वह सौ युगोंतक स्वर्गलोकमें सम्मानपूर्वक रहता है || २२ ।।

जो मनुष्य ज्येष्ठा नक्षत्रमें ब्राह्मयगोंको समयोचित शाक और मूली दान करता है, वह अभीष्ट समृद्धि और सद्गतिको प्राप्त होता है ।। २३ ।।

मूल नक्षत्रमें एकाग्रचित्त हो ब्राह्मणोंको मूल-फल दान करनेवाला मनुष्य पितरोंको तृप्त करता और अभीष्ट गतिको पाता है ।। २४ ।।

पूर्वाषाढ़ा नक्षत्रमें उपवास करके कुलीन, सदाचारी एवं वेदोंके पारंगत विद्वान्‌ ब्राह्मणको दहीसे भरे हुए पात्रका दान करनेवाला मनुष्य मृत्युके पश्चात्‌ ऐसे कुलमें जन्म लेता है, जहाँ गोधनकी अधिकता होती है ।।

जो उत्तराषाढ़ा नक्षत्रमें जलपूर्ण कलशसहित सत्तूकी बनी हुई खाद्य वस्तु, घी और प्रचुर माखन दान करता है, वह सम्पूर्ण मनोवांछित भोगोंको प्राप्त कर लेता है ।।

जो उत्तराषाढ़ा नक्षत्रमें जलपूर्ण कलशसहित सत्तूकी बनी हुई खाद्य वस्तु, घी और प्रचुर माखन दान करता है, वह सम्पूर्ण मनोवांछित भोगोंको प्राप्त कर लेता है ।।

जो नित्य धर्मपरायण पुरुष अभिजित्‌ नक्षत्रके योगमें मनीषी ब्राह्मणोंको मधु और घीसे युक्त दूध देता है, वह स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है || २७ ।।

जो श्रवण नक्षत्रमें वस्त्रवेष्टित कम्बल दान करता है, वह श्वेत विमानके द्वारा खुले हुए स्वर्गलोकमें जाता है ।।

जो धनिष्ठा नक्षत्रमें एकाग्रचित्त होकर बैलगाड़ी, वस्त्र-समूह तथा धन दान करता है, वह मृत्युके पश्चात्‌ शीघ्र ही राज्य पाता है ।। २९ ।।

जो शतभिषा नक्षत्रके योगमें अगुरु और चन्दन-सहित सुगन्धित पदार्थोका दान करता है, वह परलोकमें अप्सराओंके समुदाय तथा अक्षय गन्धको पाता है ।। ३० ।।

पूर्वाभाद्रपदा नक्षत्रके योगमें बड़ी उड़द या सफेद मटरका दान करके मनुष्य परलोकमें सब प्रकारकी खाद्य वस्तुओंसे सम्पन्न हो सुखी होता है ।। ३१ ।।

जो उत्तराभाद्रपदा नक्षत्रके योगमें औरभ्र फलका गूदा दान करता है, वह पितरोंको तृप्त करता और परलोकमें अक्षय सुखका भागी होता है | ३२ ।।

जो रेवती नक्षत्रमें कांसके दुग्धपात्रसे युक्त धेनुका दान करता है वह धेनु परलोकमें सम्पूर्ण भोगोंको लेकर उस दाताकी सेवामें उपस्थित होती है || ३३ ।।

जो नरश्रेष्ठ अश्विनी नक्षत्रमें घोड़े जुते हुए रथका दान करता है, वह हाथी, घोड़े और रथसे सम्पन्न कुलमें तेजस्वी पुत्ररूपसे जन्म लेता है ।। ३४ ।।

जो भरणी नक्षत्रमें ब्राह्मणोंको तिलमयी धेनुका दान करता है, वह इस लोकमें बहुतसी गौओंको तथा परलोकमें महान्‌ यशको प्राप्त करता है ।। ३५ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! इस प्रकार नक्षत्रोंक योगमें किये जानेवाले विविध वस्तुओंके दानका संक्षेपसे यहाँ वर्णन किया गया है। नारदजीने देवकीसे और देवकीजीने अपनी पुत्रवधुओंसे यह विषय सुनाया था ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें नक्षत्रयोग सम्बन्धी दान नामक चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

पैसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  पैसठवें अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओंके दानकी महिमा”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्िर! ब्रह्माजीके पुत्र भगवान्‌ अत्रिका प्राचीन वचन है कि 'जो सुवर्णका दान करते हैं, वे मानो याचककी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण कर देते हैं || १।।

राजा हरिश्वन्द्रने कहा है कि 'सुवर्ण परम पवित्र, आयु बढ़ानेवाला और पितरोंको अक्षय गति प्रदान करनेवाला है” || २ ।।

मनुजीने कहा है कि 'जलका दान सब दानोंसे बढ़कर है।” इसलिये कुएँ, बावड़ी और पोखरे खोदवाने चाहिये ।। ३ ।।

जिसके खोदवाये हुए कुएँमें अच्छी तरह पानी निकलकर यहाँ सदा सब लोगोंके उपयोगमें आता है, वह उस मनुष्यके पापकर्मका आधा भाग हर लेता है ।। ४ ।।

जिसके खोदवाये हुए जलाशयमें गौ, ब्राह्मण तथा श्रेष्ठ पुरुष सदा जल पीते हैं, वह जलाशय उस मनुष्यके समूचे कुलका उद्धार कर देता है ।। ५ ।।

जिसके बनवाये हुए तालाबमें गरमीके दिनोंमें भी पानी मौजूद रहता है, कभी घटता नहीं है, वह पुरुष कभी अत्यन्त विषम संकटमें नहीं पड़ता ।। ६ ।।

घी दान करनेसे भगवान्‌ बृहस्पति, पूषा, भग, अश्विनीकुमार और अग्निदेव प्रसन्न होते हैं ।। ७ ।।

घी सबसे उत्तम औषध और यज्ञ करनेकी सर्वश्रेष्ठ वस्तु है। वह रसोंमें उत्तम रस है और फलोंमें सर्वोत्तम फल है ।। ८ ।।

जो सदा फल, यश और पुष्टि चाहता हो वह पुरुष पवित्र हो मनको वशमें करके द्विजातियोंको घृत दान करे ।। ९ |।

जो आश्रिन मासमें ब्राह्मणोंको घृत दान करता है, उसपर देववैद्य अश्विनीकुमार प्रसन्न होकर यहाँ उसे रूप प्रदान करते हैं ।। १० ।।

जो ब्राह्मणोंको घृतमिश्रित खीर देता है, उसके घरपर कभी राक्षसोंका आक्रमण नहीं होता ।। ११ ।।

जो पानीसे भरा हुआ कमण्डलु दान करता है, वह कभी प्याससे नहीं मरता। उसके पास सब प्रकारकी आवश्यक सामग्री मौजूद रहती है और वह संकटमें नहीं पड़ता ॥। १२ ।।

जो पुरुष सदा एकाग्रचित्त हो ब्राह्मणके आगे बड़ी श्रद्धांके साथ विनययुक्त व्यवहार करता है, वह पुरुष सदा दानके छठे भागका पुण्य प्राप्त कर लेता है ।। १३ ।।

राजेन्द्र! जो मनुष्य सदाचारसम्पन्न ब्राह्मणोंको भोजन बनाने और तापनेके लिये सदा लकड़ियाँ देता है, उसकी सभी कामनाएँ तथा नाना प्रकारके कार्य सदा ही सिद्ध होते रहते हैं और वह शत्रुओंके ऊपर-ऊपर रहकर अपने तेजस्वी शरीरसे देदीप्यमान होता है ।। १४-१५ ||

इतना ही नहीं, उसके ऊपर सदा भगवान्‌ अग्निदेव प्रसन्न रहते हैं। उसके पशुओंकी हानि नहीं होती तथा वह संग्राममें विजयी होता है ।। १६ ।।

जो पुरुष छाता दान करता है उसे पुत्र और लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। उसके नेत्रमें कोई रोग नहीं होता और उसे सदा यज्ञका भाग मिलता है ।। १७ |।

जो गर्मी और बरसातके महीनोंमें छाता दान करता है, उसके मनमें कभी संताप नहीं होता। वह कठिन-से-कठिन संकटसे शीघ्र ही छुटकारा पा जाता है ।। १८ ।।

प्रजानाथ! महाभाग भगवान्‌ शाण्डिल्य ऋषि ऐसा कहते हैं कि 'शकट (बैलगाड़ी) का दान उपर्युक्त सब दानोंके बराबर है” ।। १९ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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