सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
इकसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) इकसठवें अध्याय के श्लोक 1-39½ का हिन्दी अनुवाद)
“राजाके लिये यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजाकी रक्षाका उपदेश”
युधिष्ठिरने पूछा--भारत! दान और यज्ञकर्म--इन दोनोंमेंसे कौन मृत्युके पश्चात् महान् फल देनेवाला होता है? किसका फल श्रेष्ठ बताया गया है? कैसे ब्राह्मणोंको कब दान देना चाहिये और किस प्रकार कब यज्ञ करना चाहिये? मैं इस बातको यथार्थरूपसे जानना चाहता हूँ। विद्वन! आप मुझ जिज्ञासुको दानसम्बन्धी धर्म विस्तारपूर्वक बताइये ।। १-२ ।।
तात पितामह! जो दान वेदीके भीतर श्रद्धापूर्वक दिया जाता है और जो वेदीके बाहर दयाभावसे प्रेरित होकर दिया जाता है; इन दोनोंमें कौन विशेष कल्याणकारी होता है? ।। ३ ।।
भीष्मजीने कहा--बेटा! क्षत्रियको सदा कठोर कर्म करने पड़ते हैं, अतः यहाँ यज्ञ और दान ही उसे पवित्र करनेवाले कर्म हैं || ४ ।।
श्रेष्ठ पुरुष पाप करनेवाले राजाका दान नहीं लेते हैं; इसलिये राजाको पर्याप्त दक्षिणा देकर यज्ञोंका अनुष्ठान करना चाहिये ।। ५ |।
श्रेष्ठ पुरुष यदि दान स्वीकार करें तो राजाको उन्हें प्रतिदिन बड़ी श्रद्धाके साथ दान देना चाहिये; क्योंकि श्रद्धापूर्वक दिया हुआ दान आत्मशुद्धिका सर्वोत्तम साधन है ।। ६ ।।
तुम नियमपूर्वक यज्ञमें सुशील, सदाचारी, तपस्वी, वेदवेत्ता, सबसे मैत्री रखनेवाले तथा साधु स्वभाववाले ब्राह्मणोंको धन देकर संतुष्ट करो ।। ७ ।।
यदि वे तुम्हारा दान स्वीकार नहीं करेंगे तो तुम्हें पुण्य नहीं होगा; अतः श्रेष्ठ पुरुषोंके लिये स्वादिष्ट अन्न और दक्षिणासे युक्त यज्ञोंका अनुष्ठान करो ।। ८ ।।
याज्ञिक पुरुषोंको दान करके ही तुम अपनेको यज्ञ और दानके पुण्यका भागी समझ लो। यज्ञ करनेवाले ब्राह्मणोंका सदा सम्मान करो। इससे तुम्हें भी यज्ञका आंशिक फल प्राप्त होगा ।। ९ |।
विद्वानोंको दान देनेसे, उनकी पूजा करनेसे दाता और पूजकको यज्ञका आंशिक फल प्राप्त होता है। यज्ञकर्ताओं तथा ज्ञानी पुरुषोंको दान देनेसे वह दान उत्तम लोककी प्राप्ति कराता है। जो दूसरोंको ज्ञानदान करते हैं, उन्हें भी अन्न और धनका दान करे। इससे दाता उनके ज्ञानदानके आंशिक पुण्यका भागी होता है ।।
जो बहुतोंका उपकार करनेवाले और बाल-बच्चेवाले ब्राह्मणोंका पालन-पोषण करता है वह उस शुभ कर्मके प्रभावसे प्रजापतिके समान संतानवान् होता है || १० ।।
जो संत पुरुष सदा समस्त सद्धर्मोंका प्रचार और विस्तार करते रहते हैं, अपना सर्वस्व देकर भी उनका भरण-पोषण करना चाहिये; क्योंकि वे राजाके अत्यन्त उपकारी होते हैं ।। ११ ।।
युधिष्ठिर! तुम समृद्धिशाली हो, इसलिये ब्राह्मणोंको गाय, बैल, अन्न, छाता, जूता और वस्त्र दान करते रहो ।। १२ ।।
भारत! जो ब्राह्मण यज्ञ करते हों, उन्हें घी, अन्न, घोड़े जुते हुए रथ आदिकी सवारियाँ, घर और शगय्या आदि वस्तुएँ देनी चाहिये। भरतनन्दन! राजाके लिये ये दान सरलतासे होनेवाले और समृद्धिको बढ़ानेवाले हैं || १३३ ।।
जिन ब्राह्मणोंका आचरण निन्दित न हो, वे यदि जीविकाके बिना कष्ट पा रहे हों तो उनका पता लगाकर गुप्त या प्रकट रूपमें जीविकाका प्रबन्ध करके सदा उनका पालन करते रहना चाहिये ।। १४ ३ ।।
क्षत्रियोंके लिये वह कार्य राजसूय और अश्वमेध यज्ञोंसे भी अधिक कल्याणकारी है। ऐसा करनेसे तुम सब पापोंसे मुक्त एवं पवित्र होकर स्वर्गलोकमें जाओगे ।।
कोषका संग्रह करके यदि तुम उसके द्वारा राष्ट्रकी रक्षा करोगे तो तुम्हें दूसरे जन्मोंमें धन और ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति होगी || १६६ ।।
भरतनन्दन! तुम अपनी और दूसरोंकी भी जीविकाकी रक्षा करो तथा अपने सेवकों और प्रजाजनोंका पुत्रकी भाँति पालन करो ।। १७३६ ।।
भारत! ब्राह्मणोंके पास जो वस्तु न हो, उसे उनको देना और जो हो उसकी रक्षा करना भी तुम्हारा नित्य कर्तव्य है। तुम्हारा जीवन उन्हींकी सेवामें लग जाना चाहिये। उनकी रक्षासे तुम्हें कभी मुँह नहीं मोड़ना चाहिये ।। १८ $ ।।
ब्राह्मणोंके पास यदि बहुत धन इकट्ठा हो जाय तो यह उनके लिये अनर्थका ही कारण होता है; क्योंकि लक्ष्मीका निरन्तर सहवास उन्हें दर्प और मोहमें डाल देता है ।। १९६ ।।
ब्राह्मण जब मोहग्रस्त होते हैं, तब निश्चय ही धर्मका नाश हो जाता है और धर्मका नाश होनेपर प्राणियोंका भी विनाश हो जाता है, इसमें संशय नहीं है || २० ।।
जो राजा प्रजासे करके रूपमें प्राप्त हुए धनको कोषकी रक्षा करनेवाले कोषाध्यक्ष आदिको देकर खजानेमें रखवा लेता है और अपने कर्मचारियोंको यह आज्ञा देता है कि “तुम लोग यज्ञके लिये राज्यसे धन वसूलकर ले आओ', इस प्रकार यज्ञके नामपर जो राज्यकी प्रजाको लूटता है तथा उसकी आज्ञाके अनुसार लोगोंको डरा-धमकाकर निष्ठ॒रतापूर्वक लाये हुए धनको लेकर जो उसके द्वारा यज्ञका अनुष्ठान करता है, उस राजाके ऐसे यज्ञकी श्रेष्ठ पुरुष प्रशंसा नहीं करते हैं | २१-२२ ।।
इसलिये जो लोग बहुत धनी हों और बिना पीड़ा दिये ही अनुकूलतापूर्वक धन दे सकें, उनके दिये हुए अथवा वैसे ही मृदु उपायसे प्राप्त हुए धनके द्वारा यज्ञ करना चाहिये; प्रजापीड़नरूप कठोर प्रयत्नसे लाये हुए धनके द्वारा नहीं ।। २३ ।।
जब राजाका विधिपूर्वक राज्याभिषेक हो जाय और वह राज्यासनपर बैठ जाय तब राजा बहुत-सी दक्षिणाओंसे युक्त महान् यज्ञका अनुष्ठान करे || २४ ।।
राजा वृद्ध, बालक, दीन और अन्धे मनुष्यके धनकी रक्षा करे। पानी न बरसनेपर जब प्रजा कुआँ खोदकर किसी तरह सिंचाई करके कुछ अन्न पैदा करे और उसीसे जीविका चलाती हो तो राजाको वह धन नहीं लेना चाहिये तथा किसी क्लेशमें पड़कर रोती हुई सत्रीका भी धन न ले || २५ ।।
यदि किसी दरिद्रका धन छीन लिया जाय तो वह राजाके राज्यका और लक्ष्मीका विनाश कर देता है। अत: राजाको चाहिये कि दीनोंका धन न लेकर उन्हें महान् भोग अर्पित करे और श्रेष्ठ पुरुषोंको भूखका कष्ट न होने दे || २६ ।।
जिसके स्वादिष्ट भोजनकी ओर छोटे-छोटे बच्चे तरसती आँखोंसे देखते हों और वह उन्हें न्न्यायतः खानेको न मिलता हो, उस पुरुषके द्वारा इससे बढ़कर पाप और क्या हो सकता है? ।। २७ ।।
राजन! यदि तुम्हारे राज्यमें कोई वैसा विद्वान् ब्राह्मण भूखसे कष्ट पा रहा हो तो तुम्हें भ्रूण-हत्याका पाप लगेगा और कोई बड़ा भारी पाप करनेसे मनुष्यकी जो दुर्गति होती है, वही तुम्हारी भी होगी || २८ ।।
राजा शिबिका कथन है कि “जिसके राज्यमें ब्राह्मण या कोई और मनुष्य क्षुधासे पीड़ित हो रहा हो, उस राजाके जीवनको धिक्कार है ।। २९ |।
जिस राजाके राज्यमें स्नातक ब्राह्मण भूखसे कष्ट पाता है, उसके राज्यकी उन्नति रुक जाती है; साथ ही वह राज्य शत्रु राजाओंके हाथमें चला जाता है || ३० ।।
जिसके राज्यसे रोती-बिलखती स्त्रियोंका बलपूर्वक अपहरण हो जाता हो और उनके पति-पुत्र रोते-पीटते रह जाते हों, वह राजा नहीं, मुर्दा है। अर्थात् वह जीवित रहते हुए मुर्देके समान है ।। ३१ ।।
जो प्रजाकी रक्षा नहीं करता, केवल उसके धनको लूटता-खसोटता रहता है, तथा जिसके पास कोई नेतृत्व करनेवाला मन्त्री नहीं है, वह राजा नहीं, कलियुग है। समस्त प्रजाको चाहिये कि ऐसे निर्दयी राजाको बाँधकर मार डाले ।। ३२ ।।
जो राजा प्रजासे यह कहकर कि “मैं तुमलोगोंकी रक्षा करूँगा” उनकी रक्षा नहीं करता, वह पागल और रोगी कुत्तेकी तरह सबके द्वारा मार डालने योग्य है ।।
भरतनन्दन! राजासे अरक्षित होकर प्रजा जो कुछ भी पाप करती है, उस पापका एक चौथाई भाग राजाको भी प्राप्त होता है ।। ३४ ।।
कुछ लोगोंका कहना है कि सारा पाप राजाको ही लगता है। दूसरे लोगोंका यह निश्चय है कि राजा आधे पापका भागी होता है। परंतु मनुका उपदेश सुनकर हमारा मत यही है कि राजाको उस पापका एक चतुर्थाश ही प्राप्त होता है || ३५ ।।
भारत! राजासे भलीभाँति सुरक्षित होकर प्रजा जो भी शुभ कर्म करती है, उसके पुण्यका चौथाई भाग राजा प्राप्त कर लेता है || ३६ ।।
परंतप युधिष्ठिर! जैसे सब प्राणी मेघके सहारे जीवन धारण करते हैं, जैसे पक्षी महान् वृक्षका आश्रय लेकर रहते हैं, तथा जिस प्रकार राक्षस कुबेरके और देवता इन्द्रके आश्रित रहकर जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार तुम्हारे जीते-जी सारी प्रजा तुमसे ही अपनी जीविका चलाये तथा तुम्हारे सुहृद् एवं भाई-बन्धु भी तुमपर ही अवलम्बित होकर जीवन निर्वाह करें ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें एकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १½ श्लोक मिलाकर कुल ३९½ “लोक हैं)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
बासठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) बासठवें अध्याय के श्लोक 1-98½ का हिन्दी अनुवाद)
“सब दानोंसे बढ़कर भूमिदानका महत्त्व तथा उसीके विषयमें इन्द्र और बृहस्पतिका संवाद”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! यह देना चाहिये, वह देना चाहिये, ऐसा कहकर यह श्रुति बड़े आदरके साथ दानका विधान करती है तथा शास्त्रोंमें रजाओंके लिये बहुत कुछ दान करनेके लिये बात कही गयी है; परंतु मैं यह जानना चाहता हूँ कि सब दानोंमें सर्वोत्तम दान कौन-सा है? ।। १ |।
भीष्मजीने कहा--बेटा! सब दानोंसे बढ़कर पृथ्वीदान बताया गया है। पृथ्वी अचल और अक्षय है। वह इस लोकमें समस्त उत्तम भोगोंको देनेवाली है ।।
वस्त्र, रत्न, पशु और धान-जौ आदि नाना प्रकारके अन्न--इन सबको देनेवाली पृथ्वी ही है; अतः पृथ्वीका दान करनेवाला मनुष्य सदा समस्त प्राणियोंमें सबसे अधिक अभ्युदयशील होता है ।। ३ ।।
युधिष्ठिरर! इस जगत्में जबतक पृथ्वीकी आयु है, तबतक भूमिदान करनेवाला मनुष्य समृद्धिशाली रहकर सुख भोगता है। अतः यहाँ भूमिदानसे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है ।। ४ |।
हमने सुना है कि जिन लोगोंने थोड़ी-सी भी पृथ्वी दान की है, वे सब लोग भूमिदानका ही पूर्ण फल पाकर उसका उपभोग करते हैं ।। ५ ।।
मनुष्य इहलोक और परलोकमें अपने कर्मके अनुसार ही जीवन-निर्वाह करते हैं। भूमि ऐश्वर्यस्वरूपा महादेवी है। वह दाताको अपना प्रिय बना लेती है ।।
नृपश्रेष्ठ जो इस अक्षय भूमिका दान करता है वह दूसरे जन्ममें मनुष्य होकर पृथ्वीका स्वामी होता है || ७ ।।
धर्मशास्त्रोंका सिद्धान्त है कि जैसा दान किया जाता है, वैसा ही भोग मिलता है। संग्राममें शरीरका त्याग करना तथा इस पृथ्वीका दान करना--ये दोनों ही कार्य क्षत्रियोंको उत्तम लक्ष्मीकी प्राप्ति करानेवाले होते हैं ।। ८३ ।।
दानमें दी हुई पृथ्वी दाताको पवित्र कर देती है--यह हमने सुना है। कितना ही बड़ा पापाचारी, ब्रह्महत्यारा और असत्यवादी क्यों न हो, दानमें दी हुई पृथ्वी ही दाताके पापको धो बहा देती है और वही उसे सर्वथा पापमुक्त कर देती है ।। ९-१० ।।
श्रेष्ठ पुरुष पापाचारी राजाओंसे भी पृथ्वीका दान तो ले लेते हैं, किंतु और किसी वस्तुका दान नहीं लेना चाहते। पृथ्वी वैसी ही पावन वस्तु है जैसी माता || ११ ।।
इस पृथ्वी देवीका सनातन गोपनीय नाम 'प्रियदत्ता” है। इसका दान अथवा ग्रहण दोनों ही दाता और प्रतिग्रहीताको प्रिय हैं; इसीलिये इसका यह प्रथम नाम सबको प्रिय है ।। १२ ।।
जो पृथ्वीपति विद्वान् ब्राह्मणोंको इस पृथ्वीका दान देता है, वह राजा इस दानके प्रभावसे पुनः राज्य प्राप्त करता है। भूमण्डलमें यह पृथ्वीदान सबको प्रिय है ।। १३ ।।
वह पुनर्जन्म पाकर राजाके समान ही होता है, इसमें संशय नहीं है। अत: राजाको चाहिये कि वह पृथ्वीपर अधिकार पाते ही उसमेंसे कुछ ब्राह्मणको दान करे ।। १४ ।।
जो जिस भूमिका स्वामी नहीं है, उसे उसपर किसी तरह अधिकार नहीं करना चाहिये तथा अयोग्य पात्रको भूमिदान नहीं ग्रहण करना चाहिये। जिस भूमिको दानमें दे दिया गया हो, उसे अपने उपयोगमें नहीं लाना चाहिये || १५ ।।
दूसरे भी जो लोग भावी जन्ममें भूमि पानेकी इच्छा करें, उन्हें भी इस जन्ममें इसी तरह भूमिदान करना चाहिये। इसमें संशय नहीं है। जो छल-बलसे श्रेष्ठ पुरुषकी भूमिका अपहरण कर लेता है, उसे भूमिकी प्राप्ति नहीं होती || १६ ।।
श्रेष्ठ पुरुषोंको भूमिदान देनेसे दाताको उत्तम भूमिकी प्राप्ति होती है तथा वह धर्मात्मा पुरुष इहलोक और परलोकमें भी महान् यशका भागी होता है ।। १७ ।।
जो एक घर बनाने भरके लिये भूमि दान करता है, वह साठ हजार वर्षोतक ऊर्ध्वलोकमें निवास करता है। तथा जो उतनी ही पृथ्वीका हरण कर लेता है, उसे उससे दूने अधिक कालतक नरकमें रहना पड़ता है ।।
राजन! ब्राह्मण जिस श्रेष्ठ पुरुषकी दी हुई भूमिकी सदा ही प्रशंसा करते हैं, उसकी उस भूमिकी राजाके शत्रु प्रशंसा नहीं करते हैं || १८ ।।
जीविका न होनेके कारण मनुष्य क्लेशमें पड़कर जो कुछ पाप कर डालता है, वह सारा पाप गोचर्मके बराबर भूमि-दान करनेसे धुल जाता है || १९ ।।
जो राजा कठोर कर्म करनेवाले तथा पापपरायण हैं, उन्हें पापोंसे मुक्त होनेके लिये परम पवित्र एवं सबसे उत्तम भूमिदानका उपदेश देना चाहिये || २० ।।
प्राचीनकालके लोग सदा यह मानते रहे हैं कि जो अश्वमेधयज्ञ करता है अथवा जो श्रेष्ठ पुरुषको पृथ्वीदान करता है, इन दोनोंमें बहुत कम अन्तर है ।।
दूसरा कोई पुण्य कर्म करके उसके फलके विषयमें विद्वान् पुरुषोंको भी शंका हो जाय, यह सम्भव है; किंतु एकमात्र यह सर्वोत्तम भूमिदान ही ऐसा सत्कर्म है, जिसके फलके विषयमें किसीको शंका नहीं हो सकती ।। २२ ।।
जो महाबुद्धिमान् पुरुष पृथ्वीका दान करता है, वह सोना, चाँदी, वस्त्र, मणि, मोती तथा रत्न--इन सबका दान कर देता है (अर्थात् इन सभी दानोंका फल प्राप्त कर लेता है।) ।। २३ ।।
पृथ्वीका दान करनेवाले पुरुषको तप, यज्ञ, विद्या, सुशीलता, लोभका अभाव, सत्यवादिता, गुरु-शुश्रूषा और देवाराधन--इन सबका फल प्राप्त हो जाता है ।। २४ ।।
जो अपने स्वामीका भला करनेके लिये रणभूमिमें मारे जाकर शरीर त्याग देते हैं और जो सिद्ध होकर ब्रह्मलोकमें पहुँच जाते हैं, वे भी भूमिदान करनेवाले पुरुषको लाँधकर आगे नहीं बढ़ने पाते || २५ ।।
जैसे माता अपने बच्चेको सदा दूध पिलाकर पालती है, उसी प्रकार पृथ्वी सब प्रकारके रस देकर भूमिदातापर अनुग्रह करती है ।। २६ ।।
कालकी भेजी हुई मौत, दण्ड, तमोगुण, दारुण अग्नि और अत्यन्त भयंकर पाश--ये भूमिदान करनेवाले पुरुषका स्पर्श नहीं कर सकते हैं || २७ ।।
जो पृथ्वीका दान करता है, वह शान्ताचित्त पुरुष पितृलोकमें रहनेवाले पितरों तथा देवलोकसे आये हुए देवताओंको भी तृप्त कर देता है ।। २८ ।।
दुर्बल, जीविकाके बिना दुखी और भूखके कष्टसे मरते हुए ब्राह्मगको उपजाऊ भूमिदान करनेवाला मनुष्य यज्ञका फल पाता है ।। २९ |।
महाभाग! जैसे बछड़ेके प्रति वात्सल्यभावसे भरी हुई गौ अपने थनोंसे दूध बहाती हुई उसे पिलानेके लिये दौड़ती है, उसी प्रकार यह पृथ्वी भूमिदान करनेवालेको सुख पहुँचानेके लिये दौड़ती है ।। ३० ।।
जो मनुष्य जोती-बोयी और उपजी हुई खेतीसे भरी भूमिका दान करता है अथवा विशाल भवन बनवाकर देता है, उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं || ३१ ।।
जो सदाचारी, अग्निहोत्री और उत्तम व्रतमें संलग्न ब्राह्मणको पृथ्वीका दान करता है, वह कभी भारी विपत्तिमें नहीं पड़ता है ।। ३२ ।।
जैसे चन्द्रमाकी कला प्रतिदिन बढ़ती है, उसी प्रकार दान की हुई पृथ्वीमें जितनी बार फसल पैदा होती है, उतना ही उसके पृथ्वी-दानका फल बढ़ता जाता है ।। ३३ ।।
प्राचीन बातोंको जाननेवाले लोग भूमिकी गायी हुई गाथाओंका वर्णन किया करते हैं, जिन्हें सुनकर जमदग्निनन्दन परशुरामने काश्यपजीको सारी पृथ्वी दान कर दी थी ।। ३४ ।।
वह गाथा इस प्रकार है--(पृथ्वी कहती है--) “मुझे ही दानमें दो, मुझे ही ग्रहण करो। मुझे देकर ही मुझे पाओगे; क्योंकि मनुष्य इस लोकमें जो कुछ दान करता है, वही उसे इहलोक और परलोकमें भी प्राप्त होता है” || ३५ ।।
जो ब्राह्मण श्राद्धकालमें पृथ्वीकी गायी हुई वेदसम्मत इस गाथाका पाठ करता है, वह ब्रह्मभावको प्राप्त होता है ।। ३६ ।।
अत्यन्त प्रबल कृत्या (मारणशक्ति) के प्रयोगसे जो भय प्राप्त होता है, उसको शान्त करनेका सबसे महान् साधन पृथ्वीका दान ही है। भूमिदानरूप प्रायश्चित्त करके मनुष्य अपने आगे-पीछेकी दस पीढ़ियोंको पवित्र कर देता है ।। ३७ ।।
जो वेदवाणीरूप इस भूमिगाथाको जानता है, वह भी अपनी दस पीढ़ियोंको पवित्र कर देता है। यह पृथ्वी सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्तिस्थान है और अग्नि इसका अधिष्ठाता देवता है || ३८ ।।
राजाको राजसिंहासनपर अभिषिक्त करनेके बाद उसे तत्काल ही पृथ्वीकी गायी हुई यह गाथा सुना देनी चाहिये; जिससे वह भूमिका दान करे और सत्पुरुषोंके हाथसे उन्हें दी हुई भूमि छीन न ले || ३९ ।।
यह सारी कथा ब्राह्मण और क्षत्रियके लिये है। इस विषयमें कोई संदेह नहीं है; क्योंकि राजा धर्ममें कुशल हो, यह प्रजाके ऐश्वर्य (वैभव)-को सूचित करनेवाला प्रथम लक्षण है || ४० ।।
जिनका राजा धर्मको न जाननेवाला और नास्तिक होता है, वे लोग न तो सुखसे सोते हैं और न सुखसे जागते ही हैं; अपितु उस राजाके दुराचारसे सदैव उद्विग्न रहते है। ऐसे राजाके राज्यमें बहुधा योगक्षेम नहीं प्राप्त होते ।।
किंतु जिनका राजा बुद्धिमान् और धार्मिक होता है, वे सुखसे सोते और सुखसे जागते हैं ।। ४३ ||
उस राजाके शुभ राज्य और शुभ कर्मोसे प्रजावर्गके लोग संतुष्ट रहते हैं। उस राज्यमें सबके योगक्षेमका निर्वाह होता है, समयपर वर्षा होती है और प्रजा अपने शुभ कर्मोसे समृद्धिशालिनी होती है || ४४ ।।
जो पृथ्वीका दान करता है, वही कुलीन, वही पुरुष, वही बन्धु, वही पुण्यात्मा, वही दाता और वही पराक्रमी है || ४५ ।।
जो वेदवेत्ता ब्राह्मणको धन-धान्यसे सम्पन्न भूमिदान करते हैं, वे मनुष्य इस पृथ्वीपर अपने तेजसे सूर्यके समान प्रकाशित होते हैं || ४६ ।।
जैसे भूमिमें बोये हुए बीज खेतीके रूपमें अंकुरित होते और अधिक अन्न पैदा करते हैं, उसी प्रकार भूमिदान करनेसे सम्पूर्ण कामनाएँ सफल होती हैं ।।
सूर्य, वरुण, विष्णु, ब्रह्मा, चन्द्रमा, अग्नि और भगवान् शंकर-ये सभी भूमि-दान करनेवाले पुरुषका अभिनन्दन करते हैं || ४८ ।।
सब लोग पृथ्वीपर ही जन्म लेते और पृथ्वीमें ही लीन हो जाते हैं। अण्डज, जरायुज, स्वेदज और उद्धिज्ज--इन चारों प्रकारके प्राणियोंका शरीर पृथ्वीका ही कार्य है ।।
पृथ्वीनाथ! नरेश्वर! यह पृथ्वी ही जगत्की माता और पिता है। इसके समान दूसरा कोई भूत नहीं है ।।
युधिष्ठि!! इस विषयमें विज्ञ पुरुष इन्द्र और बृहस्पतिके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। ५१ ।।
इन्द्रने महान् दक्षिणाओंसे युक्त सौ यज्ञोंका अनुष्ठान करनेके पश्चात् वाग्वेत्ताओंमें श्रेष्ठ बृहस्पतिजीसे इस प्रकार पूछा ।। ५२ ।।
इन्द्र बोले--वक्ताओंमें श्रेष्ठ भगवन्! किस दानके प्रभावसे दाताको स्वर्गसे भी अधिक सुखकी प्राप्ति होती है? जिसका फल अक्षय और अधिक महत्त्वपूर्ण हो, उस दानको ही मुझे बताइये ।। ५३ ।।
भीष्मजी कहते हैं--भारत! देवराज इन्द्रके ऐसा कहनेपर देवताओंके पुरोहित महातेजस्वी बृहस्पतिने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया ।। ५४ ।।
बृहस्पतिने कहा--वृत्रासुरका वध करनेवाले इन्द्र! सुवर्णदान, गोदान, भूमिदान, विद्यादान और कन्यादान--ये अत्यन्त पापहारी माने गये हैं। जो परम बुद्धिमान् पुरुष इन सब वस्तुओंका दान करता है वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ।। ५५ ।।
प्रभो! देवेन्द्र! जैसा कि मनीषी पुरुष कहते हैं, मैं भूमिदानसे बढ़कर दूसरे किसी दानको नहीं मानता हूँ ।। ५६ ।।
जो ब्राह्मणोंके लिये, गौओंके लिये, राष्ट्रके विनाशके अवसरपर स्वामीके लिये तथा जहाँ कुलांगनाओंका अपमान होता हो, वहाँ उन सबकी रक्षाके लिये युद्धमें प्राण त्याग करते हैं, वे ही भूमिदान करनेवालोंके समान पुण्यके भागी होते हैं ।।
विबुधश्रेष्ठ! मनमें युद्धके लिये उत्साह रखनेवाले जो शूरवीर रणभूमिमें मारे जाकर स्वर्गलोकमें जाते हैं, वे सब-के-सब भूमिदाताका उल्लंघन नहीं कर सकते ।।
स्वामीकी भलाईके लिये उद्यत हो रणभूमिमें मारे जाकर अपने शरीरका परित्याग करनेवाले पुरुष पापोंसे मुक्त हो ब्रह्मलोकमें पहुँच जाते हैं; परंतु वे भी भूमिदातासे आगे नही बढ़ पाते हैं ।। ५८ ।।
इस जगत्में भूमिदान करनेवाला मनुष्य अपनी पाँच पीढ़ीतकके पूर्वजोंका और अन्य छः पीड़ियोंतक पृथ्वीपर आनेवाली संतानोंका--इस प्रकार कुल ग्यारह पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है ।। ५९ ||
पुरंदर! जो रत्नयुक्त पृथ्वीका दान करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है || ६० ।।
राजन्! धन-धान्यसे सम्पन्न तथा समस्त मनोवांछित गुणोंसे युक्त पृथ्वीका दान करनेवाला पुरुष दूसरे जन्ममें राजाधिराज होता है; क्योंकि वह सर्वोत्तम दान है ।। ६१ ।।
इन्द्र! जो सम्पूर्ण भोगोंसे युक्त पृथ्वीका दान करता है, उसे सब प्राणी यही समझते हैं कि यह मेरा दान कर रहा है || ६२ ।।
सहस्राक्ष! जो सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली और समस्त मनोवांछित गुणोंसे सम्पन्न कामधेनु-स्वरूपा पृथ्वीका दान करता है, वह मानव स्वर्गलोकमें जाता है || ६३
देवेन्द्र! यहाँ पृथ्वीदान करनेवाले पुरुषको परलोकमें मधु, घी, दूध और दहीकी धारा बहानेवाली नदियाँ तृप्त करती हैं ।। ६४ ।।
राजा भूमिदान करनेसे समस्त पापोंसे छुटकारा पा जाता है। भूमिदानसे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है ।। ६५ ।।
जो समुद्रपर्यना पृथ्वीको शस्त्रोंसे जीतकर दान देता है, उसकी कीर्ति संसारके लोग तबतक गाया करते हैं, जबतक यह पृथ्वी कायम रहती है || ६६ ।।
पुरंदर! जो परम पवित्र और समृद्धिरूपी रससे भरी हुई पृथ्वीका दान करता है, उसे उस भूदानसम्बन्धी गुणोंसे युक्त अक्षय लोक प्राप्त होते हैं ।। ६७ ।।
इन्द्र! जो राजा सदा ऐश्वर्य चाहता हो और सुख पानेकी इच्छा रखता हो, वह विधिपूर्वक सुपात्रको भूमिदान दे ।। ६८ ।।
पाप करके भी यदि मनुष्य ब्राह्मणको भूमिदान कर देता है तो वह उस पापको उसी प्रकार त्याग देता है, जैसे सर्प पुरानी केंचुलको ।। ६९ ।।
इन्द्र! मनुष्य पृथ्वीका दान करनेके साथ ही समुद्र, नदी, पर्वत और सम्पूर्ण वन--इन सबका दान कर देता है (अर्थात् इन सबके दानका फल प्राप्त कर लेता है) ।।
इतना ही नहीं, पृथ्वीका दान करनेवाला पुरुष तालाब, कुआँ, झरना, सरोवर, स्नेह (घृत आदि) और सब प्रकारके रसोंके दानका भी फल प्राप्त कर लेता है || ७१ ।।
पृथ्वीका दान करते समय मनुष्य शक्तिशाली ओषधियों, फल और फूलोंसे भरे हुए वृक्षों, वन, प्रस्तर और पर्वतोंका भी दान कर देता है || ७२ ।।
बहुत-सी दक्षिणाओंसे युक्त अग्निष्टोम आदि यज्ञोंद्वारा यजन करके भी मनुष्य उस फलको नहीं पाता, जो उसे भूमिदानसे मिल जाता है || ७३ ।।
भूमिका दान करनेवाला मनुष्य अपनी दस पीढ़ियोंका उद्धार करता है तथा देकर छीन लेनेवाला अपनी दस पीढ़ियोंको नरकमें ढकेलता है। जो पहलेकी दी हुई भूमिका अपहरण करता है वह स्वयं भी नरकमें जाता है। जो देनेकी प्रतिज्ञा करके नहीं देता है तथा जो देकर भी फिर ले लेता है वह मृत्युकी आज्ञासे वरुणके पाशमें बँधकर तरह-तरहके कष्ट भोगता है ।। ७४ ।।
जो प्रतिदिन अग्निहोत्र करता है, सदा यज्ञके अनुष्ठानमें लगा रहता और अतिथियोंको प्रिय मानता है तथा जिसकी जीविका-वृत्ति नष्ट हो गयी है, ऐसे श्रेष्ठ द्विजकी जो सेवा करते हैं वे यमराजके पास नहीं जाते || ७६ ।।
पुरंदर! राजाको चाहिये कि वह ब्राह्मणोंके प्रति उऋ्रण रहे अर्थात् उनकी सेवा करके उन्हें संतुष्ट रखे तथा अन्य वर्णो्में भी जो लोग दीन-दुर्बल हों; उनका संकटसे उद्धार करे || ७७ |।
सुरश्रेष्ठ! देवेश्वर! जिसकी जीविका-वृत्ति नष्ट हो गयी है, ऐसे ब्राह्मणको दूसरेके द्वारा दानमें मिली हुई जो भूमि है, उसको कभी नहीं छीनना चाहिये || ७८ ।।
अपना खेत छिन जानेसे दु:खी हुए दीन ब्राह्मण जो आँसू बहाते हैं, वह छीननेवालेकी तीन पीढ़ियोंका नाश कर देता है || ७९ |।
इन्द्र! जो मनुष्य राज्यसे भ्रष्ट हुए राजाको फिर राजसिंहासनपर बैठा देता है, उसका स्वर्गलोकमें निवास होता है तथा वह वहाँ बड़ा सम्मान पाता है ॥। ८० ।।
जो भूमि गन्नेके वृक्षोंसे आच्छादित हो, जिसपर जौ और गेहूँकी खेती लहलहा रही हो अथवा जहाँ बैल और घोड़े आदि वाहन भरे हों, जिसके नीचे खजाना गड़ा हो तथा जो सब प्रकारके रत्नमय उपकरणोंसे अलंकृत हो, ऐसी भूमिको अपने बाहुबलसे जीतकर जो राजा दान कर देता है, उसे अक्षय लोक प्राप्त होते हैं। उसका वह दान भूमियज्ञ कहलाता है || ८१-८२ ।।
जो वसुधाका दान करता है, वह अपने सब पापोंका नाश करके निर्मल एवं सत्पुरुषोंके आदरका पात्र हो जाता है तथा लोकमें सज्जन पुरुष सदा ही उसका सत्कार करते हैं ।। ८३ ।।
इन्द्र! जैसे जलमें गिरी हुई तेलकी एक बूँद सब ओर फैल जाती है; उसी प्रकार दान की हुई भूमिमें जितना-जितना अन्न पैदा होता है, उतना-ही-उतना उसके दानका महत्त्व बढ़ता जाता है || ८४ ।।
देवराज! युद्धमें शोभा पानेवाले जो शूरवीर भूपाल युद्धके मुहानेपर शत्रुके सम्मुख लड़ते हुए मारे जाते हैं, वे ब्रह्मलोकमें जाते हैं || ८५ ।।
देवेन्द्र! दिव्य मालाओंसे विभूषित हो नाच और गानमें लगी हुई देवांगनाएँ स्वर्गमें भूमिदाताकी सेवामें उपस्थित होती हैं || ८६ ।।
जो यहाँ उत्तम विधिसे ब्राह्मणको भूमिका दान करता है, वह स्वर्गमें देवताओं और गन्धर्वोंसे पूजित हो सुख और आनन्द भोगता है ।। ८७ ।।
देवराज! भूदान करनेवाले पुरुषकी सेवामें ब्रह्मलोकमें दिव्य मालाओंसे विभूषित सैकड़ों अप्सराएँ उपस्थित होती हैं || ८८ ।।
भूमिदान करनेवाले मनुष्यके यहाँ सदा पुण्यके फलस्वरूप शंख, सिंहासन, छत्र, उत्तम घोड़े और श्रेष्ठ वाहन उपस्थित होते हैं ।। ८९ ।।
भूमिदान करनेसे पुरुषको सुन्दर पुष्प, सोनेके भण्डार, कभी प्रतिहत न होनेवाली आज्ञा, जयसूचक शब्द तथा भाँति-भाँतिके धन-रत्न प्राप्त होते हैं । ९० ।।
पुरंदर! भूमिदानके जो पुण्य हैं, उनके फलरूपमें स्वर्ग, सुवर्णमय फूल देनेवाली ओषधियाँ तथा सुनहरे कुश और घाससे ढकी हुई भूमि प्राप्त होती हैं || ९१ ।।
भूमिदान करनेवाला पुरुष अमृत पैदा करनेवाली भूमि पाता है, भूमिके समान कोई दान नहीं है, माताके समान कोई गुरु नहीं है, सत्यके समान कोई धर्म नहीं है और दानके समान कोई निधि नहीं है || ९२ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! बृहस्पतिजीके मुँहसे भूमिदानका यह माहात्म्य सुनकर इन्द्रने धन और रत्नोंसे भरी हुई यह पृथ्वी उन्हें दान कर दी ।। ९३ ।।
जो पुरुष श्राद्धके समय पृथ्वीदानके इस माहात्म्यको सुनता है, उसके श्राद्धकर्ममें अर्पण किये हुए भाग राक्षस और असुर नहीं लेने पाते ।। ९४ ।।
पितरोंके निमित्त उसका दिया हुआ सारा दान अक्षय होता है, इसमें संशय नहीं है; इसलिये विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह श्राद्धमें भोजन करते हुए ब्राह्मणोंको यह भूमिदानका माहात्म्य अवश्य सुनाये ।। ९५ ।।
निष्पाप भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार मैंने सब दानोंमें श्रेष्ठ पृथ्वीदानका माहात्म्य तुम्हें बताया है, अब और क्या सुनना चाहते हो? ।। ९६ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें इन्द्र और बृहस्पतिका संवादविषयक बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २½ श्लोक मिलाकर कुल ९८½ श्लोक हैं)
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