सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के छप्पनवें अध्याय से साठवें अध्याय तक (From the 56 chapter to the 60 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

छप्पनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  छप्पनवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“च्यवन ऋषिका भृगुवंशी और कुशिकवंशियोंके सम्बन्धका कारण बताकर तीर्थयात्राके लिये प्रस्थान”

च्यवन कहते हैं--नरपुंगव! मनुजेश्वर! मैं जिस उददेश्यसे तुम्हारा मूलोच्छेद करनेके लिये यहाँ आया था, वह मुझे तुमसे अवश्य बता देना चाहिये ।। १ ।।

जनेश्वर! क्षत्रियलोग सदासे ही भृगुवंशी ब्राह्मणोंके यजमान हैं; किंतु प्रारब्धवश आगे चलकर उनमें फूट हो जायगी। इसलिये वे दैवकी प्रेरणासे समस्त भृगुवंशियोंका संहार कर डालेंगे। नरेश्वर! वे दैवदण्डसे पीड़ित हो गर्भके बच्चेतकको काट डालेंगे ।।

तदनन्तर मेरे वंशमें ऊर्व नामक एक महातेजस्वी बालक उत्पन्न होगा, जो भार्गव गोत्रकी वृद्धि करेगा। उसका तेज अग्नि और सूर्यके समान दुर्धर्ष होगा ।। ४ ।।

वह तीनों लोकोंका विनाश करनेके लिये क्रोधजनित अग्निकी सृष्टि करेगा। वह अग्नि पर्वतों और वनोंसहित सारी पृथ्वीको भस्म कर डालेगी ।। ५ ।।

कुछ कालके बाद मुनिश्रेष्ठ और्व ही उस अग्निको समुद्रमें स्थित हुई बड़वानलमें डालकर बुझा देंगे ।। ६ ।।

निष्पाप महाराज! उन्हीं और्वके पुत्र भूगुकुलनन्दन ऋचीक होंगे, जिनकी सेवामें सम्पूर्ण धनुर्वेद मूर्तिमानू होकर उपस्थित होगा ।। ७ ।।

वे क्षत्रियोंका संहार करनेके लिये दैववश उस धरनुर्वेदको ग्रहण करके तपस्यासे शुद्ध अन्तःकरणवाले अपने पुत्र महाभाग जमदग्निको उसकी शिक्षा देंगे। भृगुश्रेष्ठ जमदग्नि उस धनुर्वेदको धारण करेंगे ।। ८-९ ।।

धर्मात्मन्‌! नृपश्रेष्ठी वे ऋचीक तुम्हारे कुलकी उन्नतिके लिये तुम्हारे वंशकी कन्याका पाणिग्रहण करेंगे || १० ।।

तुम्हारी पौत्री एवं गाधिकी पुत्रीकों पाकर महातपस्वी ऋचीक क्षत्रियधर्मवाले ब्राह्मणजातीय पुत्रको उत्पन्न करेंगे (अपनी पत्नीकी प्रार्थनासे ऋचीक क्षत्रियत्वको अपने पुत्रसे हटाकर भावी पौत्रमें स्थापित कर देंगे) ।। ११ ।।

महान्‌ तेजस्वी नरेश! वे ऋचीक मुनि तुम्हारे कुलमें राजा गाधिको एक महान्‌ तपस्वी और परम धार्मिक पुत्र प्रदान करेंगे, जिसका नाम होगा विश्वामित्र। वह बृहस्पतिके समान तेजस्वी तथा ब्राह्मणोचित कर्म करनेवाला क्षत्रिय होगा || १२३६ ||

ब्रह्माजीकी प्रेरणासे गाधिकी पत्नी और पुत्री--ये स्त्रियाँ इस महान्‌ परिवर्तनमें कारण बनेंगी, यह अवश्यम्भावी है। इसे कोई पलट नहीं सकता ।। १३ $ ||

तुमसे तीसरी पीढ़ीमें तुम्हें ब्राह्मणत्व प्राप्त हो जायगा और तुम शुद्ध अन्तः:करणवाले भगुवंशियोंके सम्बन्धी होओगे ।। १४६ ।।

भीष्मजी कहते हैं--भरतश्रेष्ठ! महात्मा च्यवन मुनिका यह वचन सुनकर धर्मात्मा राजा कुशिक बड़े प्रसन्न हुए और बोले, “भगवन्‌! ऐसा ही हो ।।

महातेजस्वी च्यवनने पुनः राजा कुशिकको वर माँगनेके लिये प्रेरित किया। तब वे भूपाल इस प्रकार बोले-- || १७ ।।

महामुने! बहुत अच्छा, मैं आपसे अपना मनोरथ प्रकट करूँगा। मुझे यही वर दीजिये कि मेरा कुल ब्राह्मण हो जाय और उसका धर्ममें मन लगा रहे” ।। १८ ।।

कुशिकके ऐसा कहनेपर च्यवन मुनि बोले “तथास्तु”। फिर वे राजासे विदा ले वहाँसे तत्काल तीर्थयात्राके लिये चले गये ।। १९ ।।

नरेश्वर! इस प्रकार मैंने तुमसे भूगुवंशी और कुशिकवंशियोंके परस्पर सम्बन्धका सब कारण पूर्णरूपसे बताया है || २० ।।

युधिष्ठिर!! उस समय च्यवन ऋषिने जैसा कहा था, उसके अनुसार ही आगे चलकर भगुकुलमें परशुरामका और कुशिकवंशमें विश्वामित्रका जन्म हुआ ।। २१ ||

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें च्चवन और कुशिकका संवादविषयक छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

सत्तावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  सत्तावनवें अध्याय के श्लोक 1-44 का हिन्दी अनुवाद)

“विविध प्रकारके तप और दानोंका फल”

युधिष्ठिरने कहा--पितामह! इस पृथ्वीको जब मैं उन सम्पतिशाली नरेशोंसे हीन देखता हूँ तब भारी चिन्तामें पड़कर बारंबार मूर्च्छित-सा होने लगता हूँ ।। १ ।।

भरतनन्दन! पितामह! यद्यपि मैंने इस पृथ्वीको जीतकर सैकड़ों देशोंके राज्योंपर अधिकार पाया है तथापि इसके लिये जो करोड़ों पुरुषोंकी हत्या करनी पड़ी है, उसके कारण मेरे मनमें बड़ा संताप हो रहा है ।।

हाय! उन बेचारी सुन्दरी स्त्रियोंकी क्या दशा होगी, जो आज अपने पति, पुत्र, भाई और मामा आदि सम्बन्धियोंसे सदाके लिये बिछुड़ गयी हैं? ।। ३ ।।

हमलोग अपने ही कुटुम्बीजन कौरवों तथा अन्य सुहृदोंका वध करके नीचे मुँह किये नरकमें गिरेंगे, इसमें संशय नहीं है ।। ४ ।।

भारत! प्रजानाथ! मैं अपने शरीरको कठोर तपस्याके द्वारा सुखा डालना चाहता हूँ और इसके विषयमें आपका यथार्थ उपदेश ग्रहण करना चाहता हूँ ।। ५ ।।

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! युधिष्ठिरा यह कथन सुनकर महामनस्वी भीष्मजीने अपनी बुद्धिके द्वारा उसपर भलीभाँति विचार करके उनसे इस प्रकार कहा -- || ६ ||

प्रजानाथ! मैं तुम्हें एक अद्भुत रहस्यकी बात बताता हूँ। मनुष्यको मरनेपर किस कर्मसे कौन-सी गति मिलती है--इस विषयको सुनो ।। ७ ।।

प्रभो! तपस्यासे स्वर्ग मिलता है, तपस्यासे सुयशकी प्राप्ति होती है तथा तपस्यासे बड़ी आयु, ऊँचा पद और उत्तमोत्तम भोग प्राप्त होते हैं ।। ८ ।।

“भरतश्रेष्ठ! ज्ञान, विज्ञान, आरोग्य, रूप, सम्पत्ति तथा सौभाग्य भी तपस्यासे प्राप्त होते हैं ।। ९ ।।

“मनुष्य तप करनेसे धन पाता है। मौन-व्रतके पालनसे दूसरोंपर हुक्म चलाता है। दानसे उपभोग और ब्रह्मचर्यके पालनसे दीर्घायु प्राप्त करता है ।। १० ।।

'“अहिंसाका फल है रूप और दीक्षाका फल है उत्तम कुलमें जन्म। फल-मूल खाकर रहनेवालोंको राज्य और पत्ता चबाकर तप करनेवालोंको स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है ।।

“दूध पीकर रहनेवाला मनुष्य स्वर्गको जाता है और दान देनेसे वह अधिक धनवान्‌ होता है। गुरुकी सेवा करनेसे विद्या और नित्य श्राद्ध करनेसे संतानकी प्राप्ति होती है ।। १२ ।।

“जो केवल साग खाकर रहनेका नियम लेता है वह गोधनसे सम्पन्न होता है। तृण खाकर रहनेवाले मनुष्योंको स्वर्गकी प्राप्ति होती है। तीनों कालमें स्नान करनेसे बहुतेरी स्त्रियोंकी प्राप्ति होती है और हवा पीकर रहनेसे मनुष्यको यज्ञका फल प्राप्त होता है ।।

“राजन! जो द्विज नित्य स्नान करके दोनों समय संध्योपासना और गायत्री-जप करता है वह चतुर होता है। मरुकी साधना-जलका परित्याग करनेवाले तथा निराहार रहनेवालेको स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है ।।

“मिट्टीकी वेदी या चबूतरोंपर सोनेवालोंको घर और शब्याएँ प्राप्त होती हैं। चीर और वल्कलके वस्त्र पहननेसे उत्तमोत्तम वस्त्र और आभूषण प्राप्त होते हैं ।। १५ ।।

योगयुक्त तपोधनको शय्या, आसन और वाहन प्राप्त होते हैं। नियमपूर्वक अग्निमें प्रवेश कर जानेपर जीवको ब्रह्मलोकमें सम्मान प्राप्त होता है ।। १६ ।।

'रसोंका परित्याग करनेसे मनुष्य यहाँ सौभाग्यका भागी होता है। मांस-भक्षणका त्याग करनेसे दीर्घायु संतान उत्पन्न होती है ।। १७ ।।

“जो जलमें निवास करता है वह राजा होता है। नरश्रेष्ठ) सत्यवादी मनुष्य स्वर्गमें देवताओंके साथ आनन्द भोगता है ।। १८ ।।

“दानसे यश, अहिंसासे आरोग्य तथा ब्राह्मणोंकी सेवासे राज्य एवं अतिशय ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति होती है ।।

“जल दान करनेसे मनुष्यको अक्षय कीर्ति प्राप्त होती है, तथा अन्न-दान करनेसे मनुष्यको काम और भोगसे पूर्णतः तृप्ति मिलती है || २० ।।

“जो समस्त प्राणियोंको सान्त्वना देता है, वह सम्पूर्ण शोकोंसे मुक्त हो जाता है। देवताओंकी सेवासे राज्य और दिव्य रूप प्राप्त होते हैं || २१ ।।

मन्दिरमें दीपकका प्रकाश दान करनेसे मनुष्यका नेत्र नीरोग होता है। दर्शनीय वस्तुओंका दान करनेसे मनुष्य स्मरणशक्ति और मेधा प्राप्त कर लेता है ।। २२ ।।

“गन्ध और पुष्प-माला दान करनेसे प्रचुर यशकी प्राप्ति होती है। सिरके बाल और दाढ़ी-मूँछ धारण करनेवालोंको श्रेष्ठ संतानकी प्राप्ति होती है ।। २३ ।।

पृथ्वीनाथ! बारह वर्षोतक सम्पूर्ण भोगोंका त्याग, दीक्षा (जप आदि नियमोंका ग्रहण) तथा तीनों समय स्नान करनेसे वीर पुरुषोंकी अपेक्षा भी श्रेष्ठ गति प्राप्ति होती है || २४ 

“नरश्रेष्ठीी जो अपनी पुत्रीका ब्राह्मविवाहकी विधिसे सुयोग्य वरको दान करता है, उसे दास-दासी, अलंकार, क्षेत्र और घर प्राप्त होते हैं ।| २५ ।।

भारत! यज्ञ और उपवास करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाता है तथा फल-फूलका दान करनेवाला मानव कल्याणमय मोक्षस्वरूप ज्ञान प्राप्त कर लेता है || २६ ।।

'सोनेसे मढ़े हुए सींगोंद्वारा सुशोभित होनेवाली एक हजार गौओंका दान करनेसे मनुष्य स्वर्गमें पुण्यमय देवलोकको प्राप्त होता है--ऐसा स्वर्गवासी देववृन्द कहते हैं ।। २७ ।।

“जिसके सींगोंके अग्रभागमें सोना मढ़ा हुआ हो, ऐसी गायका काँसके बने हुए दुग्धपात्र और बछड़ेसमेत जो दान करता है, उस पुरुषके पास वह गौ उन्हीं गुणोंसे युक्त कामधेनु होकर आती है ।। २८ ।।

“उस गौके शरीरमें जितने रोएँ हैं, उतने वर्षोतक मनुष्य गोदानके पुण्यसे स्वर्गीय सुख भोगता है। इतना ही नहीं, वह गौ उसके पुत्र-पौत्र आदि सात पीढ़ियोंतक समस्त कुलका परलोकमें उद्धार कर देती है ।। २९ ।।

“जो मनुष्य सोनेके सुन्दर सींग बनवाकर और द्रव्यमय उत्तरीय देकर कांस्यमय दुग्धपात्र तथा दक्षिणासहित तिलकी धेनुका ब्राह्मणको दान करता है, उसे वसुओंके लोक सुलभ होते हैं ।। ३० ।।

“जैसे महासागरके बीचमें पड़ी हुई नाव वायुका सहारा पाकर पार पहुँचा देती है, उसी प्रकार अपने कर्मोंसे बँधकर घोर अन्धकारमय नरकमें गिरते हुए मनुष्यको गोदान ही परलोकमें पार लगाता है || ३१ ।।

“जो मनुष्य ब्राह्मनविधिसे अपनी कन्याका दान करता है, ब्राह्मणको भूमिदान देता है तथा विधिपूर्वक अन्नका दान करता है, उसे इन्द्रलोककी प्राप्ति होती है ।। ३२ ।।

“जो मनुष्य स्वाध्यायशील और सदाचारी ब्राह्मणको सर्वगुणसम्पन्न गृह और शणय्या आदि गृहस्थीके सामान देता है, उसे उत्तर कुरुदेशमें निवास प्राप्त होता है ।।

'भार ढोनेमें समर्थ बैल और गायोंका दान करनेसे मनुष्यको वसुओंके लोक प्राप्त होते हैं। सुवर्णमय आभूषणोंका दान स्वर्गलोककी प्राप्ति करानेवाला बताया गया है और विशुद्ध पक्के सोनेका दान उससे भी उत्तम फल देता है ।। ३४ ।।

“छाता देनेसे उत्तम घर, जूता दान करनेसे सवारी, वस्त्र देनेसे सुन्दर रूप और गन्ध दान करनेसे सुगन्धित शरीरकी प्राप्ति होती है ।। ३५ ।।

'जो ब्राह्मगकफो फल अथवा फूलोंसे भरे हुए वृक्षका दान करता है, वह अनायास ही नाना प्रकारके रत्नोंसे परिपूर्ण, धनसम्पन्न समृद्धिशाली घर प्राप्त कर लेता है ।। ३६ ।।

“अन्न, जल और रस प्रदान करनेवाला पुरुष इच्छानुसार सब प्रकारके रसोंको प्राप्त करता है तथा जो रहनेके लिये घर और ओबढ़नेके लिये वस्त्र देता है, उसे भी इन्हीं वस्तुओंकी उपलब्धि होती है। इसमें संशय नहीं है || ३७ ।।

“नरेन्द्र! जो मनुष्य ब्राह्मणोंको फ़ूलोंकी माला, धूप, चन्दन, उबटन, नहानेके लिये जल और पुष्प दान करता है, वह संसारमें नीरोग और सुन्दर रूपवाला होता है ।।

राजन! जो पुरुष ब्राह्मणको अन्न और शय्यासे सम्पन्न गृह दान करता है, उसे अत्यन्त पवित्र, मनोहर और नाना प्रकारके रत्नोंसे भरा हुआ उत्तम घर प्राप्त होता है ।।

“जो मनुष्य ब्राह्मणको सुगन्धयुक्त विचित्र बिछौने और तकियेसे युक्त शय्याका दान करता है, वह बिना यत्नके ही उत्तम कुलमें उत्पन्न अथवा सुन्दर केशपाशवाली, रूपवती एवं मनोहारिणी भार्या प्राप्त कर लेता है ।। ४० ।।

संग्रामभूमिमें वीरशय्यापर शयन करनेवाला पुरुष ब्रह्माजीके समान हो जाता है। ब्रह्माजीसे बढ़कर कुछ भी नहीं है--ऐसा महर्षियोंका कथन है” || ४१ ।।

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! पितामहका यह वचन सुनकर युधिष्ठिरका मन प्रसन्न हो उठा। एवं वीरमार्गकी अभिलाषा उत्पन्न हो जानेके कारण उन्होंने आश्रममें निवास करनेकी इच्छाका त्याग कर दिया ।। ४२ ।।

पुरुषप्रवर! तब शक्तिशाली राजा युधिष्ठिरने पाण्डवोंसे कहा--“वीरमार्गके विषयमें पितामहका जो कथन है, उसीमें तुम सब लोगोंकी रुचि होनी चाहिये' ।।

तब समस्त पाण्डवों तथा यशस्विनी द्रौपदी देवीने “बहुत अच्छा” कहकर युधिष्ठिरके उस वचनका आदर किया ।। ४४ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

अट्ठावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  अट्ठावनवें अध्याय के श्लोक 1-33 का हिन्दी अनुवाद)

“जलाशय बनानेका तथा बगीचे लगानेका फल”

युधिष्ठिरने कहा--कुरुकुलपुंगव! भरतश्रेष्ठ! बगीचे लगाने और जलाशय बनवानेका जो फल होता है, उसीको अब मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ ।।

भीष्मजी बोले--राजन्‌! जो देखनेमें सुन्दर हो, जहाँकी मिट्टी प्रबल, अधिक अन्न उपजानेवाली हो, जो विचित्र एवं अनेक धातुओंसे विभूषित हो तथा समस्त प्राणी जहाँ निवास करते हों, वही भूमि यहाँ श्रेष्ठ बतायी जाती है ।। २ ।।

उस भूमिसे सम्बन्ध रखनेवाले विशेष-विशेष क्षेत्र, उनमें पोखरोंके निर्माण तथा अन्य सब जलाशय--कूप आदि--इन सबके विषयमें मैं क्रमशः आवश्यक बातें बताऊँगा ।। ३ |।

पोखरे बनवानेसे जो लाभ होते हैं, उनका भी मैं वर्णन करूँगा। पोखरे बनवानेवाला मनुष्य तीनों लोकोंमें सर्वत्र पूजनीय होता है ।। ४ ।।

अथवा पोखरोंका बनवाना मित्रके घरकी भाँति उपकारी, मित्रताका हेतु और मित्रोंकी वृद्धि करनेवाला तथा कीर्तिके विस्तारका सर्वोत्तम साधन है ।। ५ ।।

मनीषी पुरुष कहते हैं कि देश या गाँवमें एक तालाबका निर्माण धर्म, अर्थ और काम तीनोंका फल देनेवाला है तथा पोखरेसे सुशोभित होनेवाला स्थान समस्त प्राणियोंके लिये एक महान्‌ आश्रय है ।।

तालाबको चारों प्रकारके प्राणियोंके लिये बहुत बड़ा आधार समझना चाहिये। सभी प्रकारके जलाशय उत्तम सम्पत्ति प्रदान करते हैं ।। ७ ।।

देवता, मनुष्य, गन्धर्व, पितर, नाग, राक्षस तथा समस्त स्थावर प्राणी जलाशयका आश्रय लेते हैं ।। ८ ।।

अतः ऋषियोंने तालाब बनवानेसे जिन फलोंकी प्राप्ति बतलायी है तथा तालाबसे जो लाभ होते हैं, उन सबको मैं तुम्हें बताऊँगा ।। ९ ।।

जिसके खोदवाये हुए तालाबमें बरसात भर पानी रहता है, उसके लिये मनीषी पुरुष अन्निहोत्रके फलकी प्राप्ति बताते हैं |। १० ।।

जिसके तालाबमें शरत्कालतक पानी ठहरता है, वह मृत्युके पश्चात्‌ एक हजार गोदानका उत्तम फल पाता है || ११ ।।

जिसके तालाबमें हेमनत (अगहन-पौष) तक पानी रुकता है, वह बहुत-से सुवर्णकी दक्षिणासे युक्त महान्‌ यज्ञके फलका भागी होता है ।। १२ ।।

जिसके जलाशयमें शिशिरकाल (माघ-फाल्गुन) तक जल रहता है, उसके लिये मनीषी पुरुषोंने अग्निष्टोम नामक यज्ञके फलकी प्राप्ति बतायी है ।। १३ ।।

जिसका खोदवाया हुआ पोखरा वसनन्‍्त ऋतुतक अपने भीतर जल रखनेके कारण प्यासे प्राणियोंके लिये महान्‌ आश्रय बना रहता है, उसे “अतिरात्र' यज्ञका फल प्राप्त होता हैं।।

जिसके तालाबमें ग्रीष्म ऋतुतक पानी रुका रहता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है--ऐसा मुनियोंका मत है ।। १५ |।

जिसके खोदवाये हुए जलाशयमें सदा साधु पुरुष और गौएँ पानी पीती हैं, वह अपने समस्त कुलका उद्धार कर देता है ।। १६ ।।

जिसके तालाबमें प्यासी गौएँ पानी पीती हैं तथा मृग, पक्षी और मनुष्योंको भी जल सुलभ होता है, वह अश्वमेध यज्ञका फल पाता है ।। १७ ।।

यदि किसीके तालाबमें लोग स्नान करते, पानी पीते और विश्राम करते हैं तो इन सबका पुण्य उस पुरुषको मरनेके बाद अक्षय सुख प्रदान करता है ।। १८ ।।

तात! जल दुर्लभ पदार्थ है। परलोकमें तो उसका मिलना और भी कठिन है। जो जलका दान करते हैं, वे ही वहाँ जलदानके पुण्यसे सदा तृप्त रहते हैं ।। १९ ।।

बन्धुओ! तिलका दान करो, जल-दान करो, दीप-दान करो, सदा धर्म करनेके लिये सजग रहो तथा कुट॒म्बीजनोंके साथ सर्वदा धर्मपालनपूर्वक रहकर आनन्दका अनुभव करो। मृत्युके बाद इन सत्कर्मोंसे परलोकमें अत्यन्त दुर्लभ फलकी प्राप्ति होती है ।।

पुरुषसिंह! जलदान सब दानोंसे महान्‌ और समस्त दानोंसे बढ़कर है; अत: उसका दान अवश्य करना चाहिये ।। २१ ।।

इस प्रकार यह मैंने तालाब बनवानेके उत्तम फलका वर्णन किया है। इसके बाद वृक्ष लगानेका माहात्म्य बतलाऊँगा ।। २२ ।।

स्थावर भूतोंकी छः जातियाँ बतायी गयी हैं--वृक्ष (बड़-पीपल आदि), गुल्म (कुश आदि), लता (वृक्षपर फैलनेवाली बेल), वलली (जमीनपर फैलनेवाली बेल), त्वक्सार (बाँस आदि) और तृण (घास आदि) ।। २३ ।।

ये वृक्षोंकी जातियाँ हैं। अब इनके लगानेसे जो लाभ हैं, वे यहाँ बताये जाते हैं। वृक्ष लगानेवाले मनुष्यकी इस लोकमें कीर्ति बनी रहती है और मरनेके बाद उसे उत्तम शुभ फलकी प्राप्ति होती है ।। २४ ।।

संसारमें उसका नाम होता है, परलोकमें पितर उसका सम्मान करते हैं तथा देवलोकमें चले जानेपर भी यहाँ उसका नाम नष्ट नहीं होता || २५ ।।

भरतनन्दन! वृक्ष लगानेवाला पुरुष अपने मरे हुए पूर्वजों और भविष्यमें होनेवाली संतानोंका तथा पितृकुलका भी उद्धार कर देता है, इसलिये वृक्षोंको अवश्य लगाना चाहिये ।। २६ ।।

जो वृक्ष लगाता है, उसके लिये ये वृक्ष पुत्ररूप होते हैं, इसमें संशय नहीं है। उन्हींके कारण परलोकमें जानेपर उसे स्वर्ग तथा अक्षय लोक प्राप्त होते हैं || २७ ।।

तात! वृक्षणण अपने फूलोंसे देवताओंकी, फलोंसे पितरोंकी और छायासे अतिथियोंकी पूजा करते हैं ।। २८ ।।

किन्नर, नाग, राक्षस, देवता, गन्धर्व, मनुष्य और ऋषियोंके समुदाय--ये सभी वृक्षोंका आश्रय लेते हैं ।।

फूले-फले वृक्ष इस जगतमें मनुष्योंको तृप्त करते हैं। जो वृक्षका दान करता है, उसको वे वृक्ष पुत्रकी भाँति परलोकमें तार देते हैं || ३० ।।

इसलिये अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको सदा ही उचित है कि वह अपने खोदवाये हुए तालाबके किनारे अच्छे-अच्छे वृक्ष लगाये और उनका पुत्रोंके समान पालन करे; क्योंकि वे वृक्ष धर्मकी दृष्टिसे पुत्र ही माने गये हैं || ३१ ।।

जो तालाब बनवाता, वृक्ष लगाता, यज्ञोंका अनुष्ठान करता तथा सत्य बोलता है, ये सभी द्विज स्वर्गलोकमें सम्मानित होते हैं || ३२ ।।

इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह तालाब खोदाये, बगीचे लगाये, भाँति-भाँतिके यज्ञोंका अनुष्ठान करे तथा सदा सत्य बोले ।। ३३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें बगीचा लगाने और तालाब बनानेका वर्णन नामक अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

उनसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  उनसठवें अध्याय के श्लोक 1-41 का हिन्दी अनुवाद)

“भीष्मद्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणोंकी प्रशंसा करते हुए उनके सत्कारका उपदेश”

युधिष्ठिरने पूछा--कुरुश्रेष्ठट! वेदीके बाहर जो ये दान बताये जाते हैं, उन सबकी अपेक्षा आपके मतमें कौन दान श्रेष्ठ है? ।। १ ।।

प्रभो! इस विषयमें मुझे महान्‌ कौतूहल हो रहा है; अत: जिस दानका पुण्य दाताका अनुसरण करता हो, वह मुझे बताइये ।। २ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! सम्पूर्ण प्राणियोंको अभयदान देना, संकटके समय उनपर अनुग्रह करना, याचकको उसकी अभीष्ट वस्तु देना तथा प्याससे पीड़ित होकर पानी माँगनेवालेको पानी पिलाना उत्तम दान है और जिसे देकर दिया हुआ मान लिया जाय अर्थात्‌ जिसमें कहीं भी ममताकी गन्ध न रह जाय, वह दान श्रेष्ठ कहलाता है। भरतश्रेष्ठ! वही दान दाताका अनुसरण करता है ।।

सुवर्णदान, गोदान और भूमिदान--ये तीन पवित्र दान हैं, जो पापीको भी तार देते हैं ।। ५ ।।

पुरुषसिंह! तुम श्रेष्ठ पुरुषोंको ही सदा उपर्युक्त पवित्र वस्तुओंका दान किया करो। ये दान मनुष्यको पापसे मुक्त कर देते हैं, इसमें संशय नहीं है ।। ६ ।।

संसारमें जो-जो पदार्थ अत्यन्त प्रिय माना जाता है तथा अपने घरमें भी जो प्रिय वस्तु मौजूद हो, वही-वही वस्तु गुणवान्‌ पुरुषको देनी चाहिये। जो अपने दानको अक्षय बनाना चाहता हो, उसके लिये ऐसा करना आवश्यक है ।। ७ ।।

जो दूसरोंको प्रिय वस्तुका दान देता है और उनका प्रिय कार्य ही करता है, वह सदा प्रिय वस्तुओंको ही पाता है तथा इहलोक और परलोकमें भी वह समस्त प्राणियोंका प्रिय होता है ।। ८ ।।

युधिष्ठि!! जो आसक्तिरहित अकिंचन याचकका अहंकारवश अपनी शक्तिके अनुसार सत्कार नहीं करता है, वह मनुष्य निर्दयी है ।। ९ ।।

शत्रु भी यदि दीन होकर शरण पानेकी इच्छासे घरपर आ जाय तो संकटके समय जो उसपर दया करता है, वही मनुष्योंमें श्रेष्ठ है ।। १० ।।

विद्वान होनेपर भी जिसकी आजीविका क्षीण हो गयी है तथा जो दीन, दुर्बल और दुखी है, ऐसे मनुष्यकी जो भूख मिटा देता है उस पुरुषके समान पुण्यात्मा कोई नहीं है ।। ११ ||

कुन्तीनन्दन! जो स्त्री-पुत्रोंक॒ पालनमें असमर्थ होनेके कारण विशेष कष्ट उठाते हैं; परंतु किसीसे याचना नहीं करते और सदा सत्कर्मोमें ही संलग्न रहते हैं, उन श्रेष्ठ पुरुषोंको प्रत्येक उपायसे सहायता देनेके लिये निमन्त्रित करना चाहिये ।। १२ ।।

युधिष्ठिर! जो देवताओं और मनुष्योंसे किसी वस्तुकी कामना नहीं करते, सदा संतुष्ट रहते और जो कुछ मिल जाय, उसीपर निर्वाह करते हैं, ऐसे पूज्य द्विजवरोंका दूतोंद्वारा पता लगाओ और उन्हें निमन्त्रित करो। भारत! वे दुखी होनेपर विषधर सर्पके समान भयंकर हो जाते हैं; अत: उनसे अपनी रक्षा करो। कुरुनन्दन! सेवकों और आवश्यक सामग्रियोंसे युक्त तथा सम्पूर्ण कामनाओंकी प्राप्ति करानेके कारण सुखद गृह निवेदन करके उनका नित्यप्रति पूर्ण सत्कार करो || १३--१५ ।।

युधिष्ठिर! यदि तुम्हारा दान श्रद्धासे पवित्र और कर्तव्य-बुद्धिसे ही किया हुआ होगा तो पुण्यकर्मोका अनुष्ठान करनेवाले वे धर्मात्मा पुरुष उसे उत्तम मानकर स्वीकार कर लेंगे ।। १६ ।।

युद्धविजयी युधिष्ठिर! विद्वान, व्रतका पालन करनेवाले, किसी धनीका आश्रय लिये बिना ही जीवन निर्वाह करनेवाले, अपने स्वाध्याय और तपको गुप्त रखनेवाले तथा कठोर व्रतके पालनमें तत्पर जो ब्राह्मण हैं, जो शुद्ध, जितेन्द्रिय तथा अपनी ही स्त्रीसे संतुष्ट रहनेवाले हैं, उनके लिये तुम जो कुछ करोगे वह जगतमें तुम्हारे लिये कल्याणकारी होगा || १७-१८ ।।

द्विजके द्वारा सायं और प्रातःकाल विधिपूर्वक किया हुआ अन्निहोत्र जो फल प्रदान करता है, वही फल संयमी ब्राह्मणोंको दान देनेसे मिलता है ।। १९ ।।

तात! तुम्हारे द्वारा किया जानेवाला विशाल दान-यज्ञ श्रद्धासे पवित्र एवं दक्षिणासे युक्त है। वह सब यज्ञोंसे बढ़कर है। तुझ दाताका वह यज्ञ सदा चालू रहे || २० ।।

युधिष्ठिर! पूर्वोक्त ब्राह्मणोंको पितरोंके लिये किये जानेवाले तर्पणकी भाँति दानरूपी जलसे तृप्त करके उन्हें निवास और आदर देते रहो। ऐसा करनेवाला पुरुष देवता आदिके ऋणसे मुक्त हो जाता है || 

जो ब्राह्मण कभी क्रोध नहीं करते, जिनके मनमें एक तिनके भरका लोभ नहीं होता तथा जो प्रिय वचन बोलनेवाले हैं, वे ही हमलोगोंके परम पूज्य हैं || २२ ।।

उपर्युक्त ब्राह्मण निःस्पृह होनेके कारण दाताके प्रति विशेष आदर नहीं प्रकट करते। इनमेंसे तो कितने ही धनोपार्जनके कार्यमें तो प्रवृत्त ही नहीं होते हैं। ऐसे ब्राह्मणोंका पुत्रवत्‌ पालन करना चाहिये। उन्हें बारंबार नमस्कार है। उनकी ओरसे हमें कोई भय न हो ।। २३ ।।

ऋत्विक, पुरोहित और आचार्य--ये प्रायः कोमल स्वभाववाले और वेदोंको धारण करनेवाले होते हैं। क्षत्रियका तेज ब्राह्मणके पास जाते ही शान्त हो जाता है ।। २४ ।।

युधिष्ठिर! “मेरे पास धन है, मैं बलवान्‌ हूँ और राजा हूँ ऐसा समझते हुए तुम ब्राह्मणोंकी उपेक्षा करके स्वयं ही अन्न और वस्त्रका उपभोग न करना || २५ ||

अनघ! तुम्हारे पास शरीर और घरकी शोभा बढ़ाने अथवा बलकी वृद्धि करनेके लिये जो धन है, उनके द्वारा स्वधर्मका अनुष्ठान करते हुए तुम्हें ब्राह्यणोंकी पूजा करनी चाहिये || २६ ।।

इतना ही नहीं, तुम्हें उन ब्राह्मणोंको सदा नमस्कार करना चाहिये। वे अपनी रुचिके अनुसार जैसे चाहें रहें। तुम्हारे पास पुत्रकी भाँति उन्हें स्नेह प्राप्त होना चाहिये तथा वे सुख और उत्साहके साथ आनन्दपूर्वक रहें, ऐसी चेष्टा करनी चाहिये || २७ ।।

कुरुश्रेष्ठ! जिनकी कृपा अक्षय है, जो अकारण ही सबका हित करनेवाले और थोड़ेमें ही संतुष्ट रहनेवाले हैं, उन ब्राह्मणोंको तुम्हारे सिवा दूसरा कौन जीविका दे सकता हैं।।

जैसे इस संसारमें स्त्रियोंका सनातन धर्म सदा पतिकी सेवापर ही अवलम्बित है, उसी प्रकार ब्राह्मण ही सदैव हमारे आश्रय हैं। हमलोगोंके लिये उनके सिवा दूसरा कोई सहारा नहीं है ।। २९ ।।

तात! यदि ब्राह्मण क्षत्रियोंके द्वारा सम्मानित न हों तथा क्षत्रियमें सदा रहनेवाले निष्ठर कर्मको देखकर ब्राह्मण भी उनका परित्याग कर दें तो वे क्षत्रिय वेद, यज्ञ, उत्तम लोक और आजीविकासे भी भ्रष्ट हो जायेँ। उस दशामें ब्राह्मणोंका आश्रय लेनेवाले तुम्हारे सिवा उन दूसरे क्षत्रियोंक जीवित रहनेका क्या प्रयोजन है? ।।

राजन! अब मैं तुम्हें सनातन कालका धार्मिक व्यवहार कैसा है, यह बताऊँगा। हमने सुना है पूर्वकालनमें क्षत्रिय ब्राह्मणोंकी, वैश्य क्षत्रियोंकी और शूद्र वैश्योंकी सेवा किया करते थे।। ३२३६ ।।

ब्राह्मण अग्निके समान तेजस्वी हैं; अतः शूद्रको दूरसे ही उनकी सेवा करनी चाहिये। उनके शरीरके स्पर्शपूर्वक सेवा करनेका अधिकार केवल क्षत्रिय और वैश्यको ही है ।। ३३ ई ||

ब्राह्मण स्वभावत: कोमल, सत्यवादी और सत्य-धर्मका पालन करनेवाले होते हैं, परंतु जब वे कुपित होते हैं तब विषैले सर्पके समान भयंकर हो जाते हैं। अतः तुम सदा ब्राह्मणोंकी सेवा करते रहो || ३४ ६ ।।

छोटे-बड़े और बड़ोंसे भी बड़े जो क्षत्रिय तेज और बलसे तप रहे हैं, उन सबके तेज और तप ब्राह्मणोंके पास जाते ही शान्त हो जाते हैं ।। ३५-३६ ।।

तात! मुझे ब्राह्मण जितने प्रिय हैं, उतने मेरे पिता, तुम, पितामह, यह शरीर और जीवन भी प्रिय नहीं हैं ।।

भरतश्रेष्ठ! इस पृथ्वीपर तुमसे अधिक प्रिय मेरे लिये दूसरा कोई नहीं है; परंतु ब्राह्मण तुमसे भी बढ़कर प्रिय हैं || ३८ ।।

पाण्डुनन्दन! मैं यह सच्ची बात कह रहा हूँ और चाहता हूँ कि इस सत्यके प्रभावसे मैं उन्हीं लोकोंमें जाऊँ जहाँ मेरे पिता शान्तनु गये हैं ।। ३९ ।।

इस सत्यके प्रभावसे ही मैं सत्पुरुषोंके उन पवित्र लोकोंका दर्शन कर रहा हूँ जहाँ ब्राह्मणों और ब्रह्माजीकी प्रधानता है। तात! मुझे शीघ्र ही चिरकालके लिये उन लोकोमें जाना है || ४० ।।

भरतश्रेष्ठ! पृथ्वीनाथ! ब्राह्मणोंके लिये मैंने जो कुछ किया है, उसके फलस्वरूप ऐसे पुण्यलोकोंका दर्शन करके मुझे संतोष हो गया है। अब मैं इस बातके लिये संतप्त नहीं हूँ कि दूसरा कोई पुण्य क्‍यों नहीं किया? ।। ४१ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

साठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  साठवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“श्रेष्ठ अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन एवं गुणवान्‌को दान देनेका विशेष फल”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! उत्तम आचरण, विद्या और कुलमें एक समान प्रतीत होनेवाले दो ब्राह्मणोंमेंसे यदि एक याचक हो और दूसरा अयाचक तो किसको दान देनेसे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है? ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! याचना करनेवालेकी अपेक्षा याचना न करनेवालेको दिया हुआ दान ही श्रेष्ठ एवं कल्याणकारी बताया गया है तथा अधीर हृदयवाले कृपण मनुष्यकी अपेक्षा धैर्य धारण करनेवाला ही विशेष सम्मानका पात्र है || २ ।।

रक्षाके कार्यमें धैर्य धारण करनेवाला क्षत्रिय और याचना न करनेमें दृढ़ता रखनेवाला ब्राह्मण श्रेष्ठ है। जो ब्राह्मण धीर, विद्वान्‌ और संतोषी होता है, वह देवताओंको अपने व्यवहारसे संतुष्ट करता है ।। ३ ।।

भारत! दरिद्रकी याचना उसके लिये तिरस्कारका कारण मानी गयी है; क्योंकि याचक प्राणी लुटेरोंकी भाँति सदा लोगोंको उद्विग्न करते रहते हैं ।। ४ ।।

याचक मर जाता है, किंतु दाता कभी नहीं मरता। युधिष्ठिर! दाता इस याचकको और अपनेको भी जीवित रखता है ।। ५ ।।

याचकको जो दान दिया जाता है, वह दयारूप परम धर्म है, परंतु जो लोग क्लेश उठाकर भी याचना नहीं करते, उन ब्राह्मणोंको प्रत्येक उपायसे अपने पास बुलाकर दान देना चाहिये || ६ ।।

यदि तुम्हारे राज्यके भीतर वैसे श्रेष्ठ ब्राह्मण रहते हों तो वे राखमें छिपी हुई आगके समान हैं। तुम्हें प्रयत्नपूर्वक ऐसे ब्राह्मणोंका पता लगाना चाहिये || ७ ।।

कुरुनन्दन! तपस्यासे देदीप्यमान होनेवाले वे ब्राह्मण पूजित न होनेपर यदि चाहें तो सारी पृथ्वीको भी भस्म कर सकते हैं; अतः वैसे ब्राह्मण सदा ही पूजा करनेके योग्य हैं ।। ८ ।।

परंतप! जो ब्राह्मण ज्ञान-विज्ञान, तपस्या और योगसे युक्त हैं, वे पूजनीय होते हैं। उन ब्राह्मणोंकी तुम्हें सदा पूजा करनी चाहिये ।। ९ ।।

जो याचना नहीं करते, उनके पास तुम्हें स्वयं जाकर नाना प्रकारके पदार्थ देने चाहिये। सायं और प्रातःकाल विधिपूर्वक अग्निहोत्र करनेसे जो फल मिलता है, वही वेदके विद्धान्‌ और व्रतधारी ब्राह्मणको दान देनेसे भी मिलता है || १०६ ||

कुरुनन्दन! जो विद्या और वेदव्रतमें निष्णात हैं, जो किसीके आश्रित होकर जीविका नहीं चलाते, जिनका स्वाध्याय और तपस्या गुप्त है तथा जो कठोर व्रतका पालन करनेवाले हैं, ऐसे उत्तम ब्राह्मणोंको तुम अपने यहाँ निमन्त्रित करो और उन्हें सेवक, आवश्यक सामग्री तथा अन्यान्य उपभोगकी वस्तुओंसे सम्पन्न मनोरम गृह बनवाकर दो ।। ११-१२।।

युधिष्ठिर! वे धर्मज्ञ तथा सूक्ष्मदर्शी ब्राह्मण तुम्हारे श्रद्धायुक्त दानको कर्तव्यबुद्धिसे किया हुआ मानकर अवश्य स्वीकार करेंगे ।। १३३ ।।

जैसे किसान वर्षाकी बाट जोहते रहते हैं, उसी प्रकार जिनके घरकी स्त्रियाँ अन्नकी प्रतीक्षामें बैठी हों और बालकोंको यह कहकर बहला रही हों कि “अब तुम्हारे बाबूजी भोजन लेकर आते ही होंगे"; क्‍या ऐसे ब्राह्मण तुम्हारे यहाँ भोजन करके अपने घरोंको गये हैं? | १४६ ।।

तात! नियमपूर्वक ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण यदि प्रातःकाल घरमें भोजन करते हैं तो तीनों अग्नियोंको तृप्त कर देते हैं || १५६ ।।

बेटा! दोपहरके समय जो तुम ब्राह्मणोंको भोजन कराकर उन्हें गौ, सुवर्ण और वस्त्र प्रदान करते हो, इससे तुम्हारे ऊपर इन्द्रदेव प्रसन्न हों । १६३ ।।

युधिष्ठिर! तीसरे समयमें जो तुम देवताओं, पितरों और ब्राह्मणोंके उद्देश्यसे दान करते हो, वह विश्वेदेवोंको संतुष्ट करनेवाला होता है | १७६ ।।

सब प्राणियोंके प्रति अहिंसाका भाव रखना, सबको यथायोग्य भाग अर्पण करना, इन्द्रियसंयम, त्याग, धैर्य और सत्य--ये सब गुण तुम्हें यज्ञान्तमें किये जानेवाले अवभृथस्नानका फल देंगे ।। १८६ ||

इस प्रकार जो तुम्हारे श्रद्धासे पवित्र एवं दक्षिणायुक्त यज्ञका विस्तार हो रहा है; यह सभी यज्ञोंस बढ़कर है। तात युधिष्छिर! तुम्हारा यह यज्ञ सदा चालू रहना चाहिये || १९-२० ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें साठवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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