सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के इक्यावनवें अध्याय से पचपनवें अध्याय तक (From the 51 chapter to the 55 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

इक्यावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  इक्यावनवें अध्याय के श्लोक 1-51 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा नहुषका एक गौके मोलपर च्यवन मुनिको खरीदना, मुनिके द्वारा गौओंका माहात्म्य-कथन तथा मत्स्यों और मल्लाहोंकी सदगति”

भीष्मजी कहते हैं--भरतनन्दन! च्यवनमुनिको ऐसी अवस्थामें अपने नगरके निकट आया जान राजा नहुष अपने पुरोहित और मन्त्रियोंको साथ ले शीघ्र वहाँ आ पहुँचे ।। १ ।

उन्होंने पवित्रभावसे हाथ जोड़कर मनको एकाग्र रखते हुए न्यायोचित रीतिसे महात्मा च्यवनको अपना परिचय दिया ।। २ ।।

प्रजानाथ! राजाके पुरोहितने देवताओंके समान तेजस्वी सत्यव्रती महात्मा च्यवनमुनिका विधिपूर्वक पूजन किया ।। ३ ।।

तत्पश्चात्‌ राजा नहुष बोले--द्विजश्रेष्ठ! बताइये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? भगवन्‌! आपकी आज्ञासे कितना ही कठिन कार्य क्‍यों न हो, मैं सब पूरा करूँगा ।।

च्यवनने कहा--राजन्‌! मछलियोंसे जीविका चलानेवाले इन मल्लाहोंने आज बड़े परिश्रमसे मुझे अपने जालमें फँसाकर निकाला है; अतः आप इन्हें इन मछलियोंके साथसाथ मेरा भी मूल्य चुका दीजिये ।। ५ ।।

तब नहुषने अपने पुरोहितसे कहा--पुरोहितजी! भृगुनन्दन च्यवनजी जैसी आज्ञा दे रहे हैं, उसके अनुसार इन पूज्यपाद महर्षिके मूल्यके रूपमें मल्‍लाहोंको एक हजार अशर्फियाँ दे दीजिये ।। ६ ।।

च्यवनने कहा--नरेश्वर! मैं एक हजार मुद्राओंपर बेचने योग्य नहीं हूँ। क्या आप मेरा इतना ही मूल्य समझते हैं, मेरे योग्य मूल्य दीजिये और वह मूल्य कितना होना चाहिये--यह अपनी ही बुद्धिसे विचार करके निश्चित कीजिये ।। ७ ।।

नहुष बोले--विप्रवर! इन निषादोंको एक लाख मुद्रा दीजिये। (यों पुरोहितको आज्ञा देकर वे मुनिसे बोले--) भगवन्‌! क्या यह आपका उचित मूल्य हो सकता है या अभी आप कुछ और देना चाहते हैं? ।।

च्यवनने कहा--नृपश्रेष्ठ! मुझे एक लाख रुपयेके मूल्यमें ही सीमित न कीजिये। उचित मूल्य चुकाइये। इस विषयमें अपने मन्त्रियोंक साथ विचार कीजिये ।। ९ ।।

नहुषने कहा--पुरोहितजी! आप इन निषादोंको एक करोड़ मुद्रा मूल्यके रूपमें दीजिये और यदि यह भी ठीक मूल्य न हो तो और अधिक दीजिये ।। १० ।।

च्यवनने कहा--महातेजस्वी नरेश। मैं एक करोड़ या उससे भी अधिक मुद्राओंमें बेचने योग्य नहीं हूँ। जो मेरे लिये उचित हो वही मूल्य दीजिये और इस विषयमें ब्राह्मणोंके साथ विचार कीजिये ।। ११ ।।

नहुष बोले--ब्रह्मन्‌! यदि ऐसी बात है तो इन मल्लाहोंको मेरा आधा या सारा राज्य दे दिया जाय। इसे ही मैं आपके लिये उचित मूल्य मानता हूँ। आप इसके अतिरिक्त और क्या चाहते हैं? ।। १२ ।।

च्यवनने कहा--पृथ्वीनाथ! आपका आधा या सारा राज्य भी मेरा उचित मूल्य नहीं है। आप उचित मूल्य दीजिये और वह मूल्य आपके ध्यानमें न आता हो तो ऋषियोंके साथ विचार कीजिये ।। १३ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! महर्षिका यह वचन सुनकर राजा नहुष दुःखसे कातर हो उठे और मन्त्री तथा पुरोहितके साथ इस विषयमें विचार करने लगे ।। १४ ।।

इतनेहीमें फल-मूलका भोजन करनेवाले एक दूसरे वनवासी मुनि, जिनका जन्म गायके पेटसे हुआ था, राजा नहुषके समीप आये और वे द्विजश्रेष्ठ उन्हें सम्बोधित करके कहने लगे-- || १५३ ।।

“राजन! ये मुनि कैसे संतुष्ट होंगे--इस बातको मैं जानता हूँ। मैं इन्हें शीघ्र संतुष्ट कर दूँगा। मैंने कभी हँसी-परिहासमें भी झूठ नहीं कहा है; फिर ऐसे समयमें असत्य कैसे बोल सकता हूँ? मैं आपसे जो कहूँ, वह आपको नि:शंक होकर करना चाहिये” ।। १६-१७ ।।

नहुषने कहा--भगवन्‌! आप मुझे भृगुपुत्र महर्षि च्यवनका मूल्य, जो इनके योग्य हो बता दीजिये और ऐसा करके मेरा, मेरे कुलका तथा समस्त राज्यका संकटसे उद्धार कीजिये ।। १८ ।।

ये भगवान्‌ च्यवन मुनि यदि कुपित हो जायँ तो तीनों लोकोंको जलाकर भस्म कर सकते हैं; फिर मुझ-जैसे तपोबलशून्य केवल बाहुबलका भरोसा रखनेवाले नरेशको नष्ट करना इनके लिये कौन बड़ी बात है? ।।

महर्षे! मैं अपने मन्त्री और पुरोहितके साथ संकटके अगाध महासागरमें डूब रहा हूँ। आप नौका बनकर मुझे पार लगाइये। इनके योग्य मूल्यका निर्णय कर दीजिये ।। २० ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! नहुषकी बात सुनकर गायके पेटसे उत्पन्न हुए वे प्रतापी महर्षि राजा तथा उनके समस्त मन्त्रियोंको आनन्दित करते हुए बोले-- ।। २१ ।।

“महाराज! ब्राह्मणों और गौओंका कुल एक है, पर ये दो रूपोंमें विभक्त हो गये हैं। एक जगह मन्त्र स्थित होते हैं और दूसरी जगह हविष्य। पुरुषसिंह! ब्राह्मण सब वर्णामें उत्तम हैं। उनका और गौओंका कोई मूल्य नहीं लगाया जा सकता; इसलिये आप इनकी कीमतमें एक गौ प्रदान कीजिये” ।। २२ ।।

“नरेश्वर! महर्षिका यह वचन सुनकर मन्त्री और पुरोहितसहित राजा नहुषको बड़ी प्रसन्नता हुई || २३ ।।

राजन! वे कठोर व्रतका पालन करनेवाले भृगुपुत्र महर्षि च्यवनके पास जाकर उन्हें अपनी वाणीद्वारा तृप्त करते हुए-से बोले || २४ ।।

नहुषने कहा--धर्मात्माओमें श्रेष्ठ ब्रह्मर्ष! भूगुनन्दन! मैंने एक गौ देकर आपको खरीद लिया; अतः उठिये, उठिये, मैं यही आपका उचित मूल्य मानता हूँ ।। २५ ।।

च्यवनने कहा--निष्पाप राजेन्द्र! अब मैं उठता हूँ। आपने उचित मूल्य देकर मुझे खरीदा है। अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले नरेश! मैं इस संसारमें गौओंके समान दूसरा कोई धन नहीं देखता हूँ || २६ ।।

वीर भूपाल! गौओंके नाम और गुणोंका कीर्तन तथा श्रवण करना, गौओंका दान देना और उनका दर्शन करना--इनकी शाम्त्रोंमें बड़ी प्रशंसा की गयी है। ये सब कार्य सम्पूर्ण पापोंको दूर करके परम कल्याणकी प्राप्ति करानेवाले हैं || २७ ।।

गौएँ सदा लक्ष्मीकी जड़ हैं। उनमें पापका लेशमात्र भी नहीं है। गौएँ ही मनुष्योंको सर्वदा अन्न और देवताओंको हविष्य देनेवाली हैं || २८ ।।

स्वाहा और वषट्कार सदा गौआओंमें ही प्रतिष्ठित होते हैं। गौएँ ही यज्ञका संचालन करनेवाली तथा उसका मुख हैं ।। २९ ।।

वे विकाररहित दिव्य अमृत धारण करती और दुहनेपर अमृत ही देती हैं। वे अमृतकी आधारभूत हैं। सारा संसार उनके सामने नतमस्तक होता है || ३० ।।

इस पृथ्वीपर गौएँ अपनी काया और कान्तिसे अग्निके समान हैं। वे महान्‌ तेजकी राशि और समस्त प्राणियोंको सुख देनेवाली हैं ।। ३१ ।।गौओंका समुदाय जहाँ बैठकर निर्भयतापूर्वक साँस लेता है, उस स्थानकी शोभा बढ़ा देता है और वहाँके सारे पापोंको खींच लेता है || ३२ ।।

गौएँ स्वर्गकी सीढ़ी हैं। गौएँ स्वर्गमें भी पूजी जाती हैं। गौएँ समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाली देवियाँ हैं। उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है || ३३ ।।

भरतश्रेष्ठ! यह मैंने गौओंका माहात्म्य बताया है। इसमें उनके गुणोंका दिग्दर्शन मात्र कराया गया है। गौओंके सम्पूर्ण गुणोंका वर्णन तो कोई कर ही नहीं सकता ।।

इसके बाद निषादोंने कहा--मुने! सज्जनोंके साथ सात पग चलनेमात्रसे मित्रता हो जाती है। हमने तो आपका दर्शन किया और हमारे साथ आपकी इतनी देरतक बातचीत भी हुई; अतः प्रभो! आप हमलोगोंपर कृपा कीजिये ।। ३५ ।।

धर्मात्मन्‌! जैसे अग्निदेव सम्पूर्ण हविष्योंको आत्मसात्‌ कर लेते हैं, उसी प्रकार आप भी हमारे दोष-दुर्गुणोंको दग्ध करनेवाले प्रतापी अग्निरूप हैं ।। ३६ ।।

विद्वन! हम आपके चरणोंमें मस्तक झुकाकर आपको प्रसन्न करना चाहते हैं। आप हमलोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये हमारी दी हुई यह गौ स्वीकार कीजिये ।। ३७ ।।

अत्यन्त आपत्तिमें डूबे हुए जीवोंका उद्धार करनेवाले पुरुषोंको जो उत्तम गति प्राप्त होती है, वह आपको विदित है। हमलोग नरकमें डूबे हुए हैं। आज आप ही हमें शरण देनेवाले हैं ।।

च्यवन बोले--निषादगण! किसी दीन-दुखियाकी, ऋषिकी तथा विषधर सर्पकी रोषपूर्ण दृष्टि मनुष्यको उसी प्रकार जड़मूलसहित जलाकर भस्म कर देती है, जैसे प्रज्वलित अग्नि सूखे घास-फ़ूसके ढेरको ।। ३८ ।।

मल्लाहो! मैं तुम्हारी दी हुई गौ स्वीकार करता हूँ। इस गोदानके प्रभावसे तुम्हारे सारे पाप दूर हो गये। अब तुमलोग जलमें पैदा हुई इन मछलियोंके साथ ही शीघ्र स्वर्गको जाओ ।। ३९ |।

भीष्मजी कहते हैं--भारत! तदनन्तर विशुद्ध अन्तःकरणवाले उन महर्षि च्यवनके पूर्वोक्त बात कहते ही उनके प्रभावसे वे मल्‍लाह उन मछलियोंके साथ ही स्वर्गलोकको चले गये ।। ४० ।।

भरतश्रेष्ठ] उस समय उन मल्लाहों और मत्स्योंको भी स्वर्गलोककी ओर जाते देख राजा नहुषको बड़ा आश्चर्य हुआ || ४१ ।।

तत्पश्चात्‌ गौसे उत्पन्न महर्षि और भृगुनन्दन च्यवन दोनोंने राजा नहुषसे इच्छानुसार वर माँगनेके लिये कहा ।।

भरतभूषण! तब वे महापराक्रमी भूपाल राजा नहुष प्रसन्न होकर बोले--“बस, आपलोगोंकी कृपा ही बहुत है' ।।

फिर दोनोंके आग्रहसे उन इन्द्रके समान तेजस्वी नरेशने धर्ममें स्थित रहनेका वरदान माँगा और उनके तथास्तु कहनेपर राजाने उन दोनों ऋषियोंका विधिवत्‌ पूजन किया ।। ४४ ।।

उसी दिन महर्षि च्यवनकी दीक्षा समाप्त हुई और वे अपने आश्रमपर चले गये। इसके बाद महातेजस्वी गोजात मुनि भी अपने आश्रमको पधारे ।। ४५ ।।

नरेश्वर! वे मलल्‍लाह और मत्स्य तो स्वर्गलोकमें चले गये और राजा नहुष भी वर पाकर अपनी राजधानीको लौट आये ।। ४६ ।।

तात युधिष्ठिर! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने यह सारा प्रसंग सुनाया है। दर्शन और सहवाससे कैसा स्नेह होता है? गौओंका माहात्म्य क्या है? तथा इस विषयमें धर्मका निश्चय क्या है? ये सारी बातें इस प्रसंगसे स्पष्ट हो जाती हैं। अब मैं तुम्हें कौन-सी बात बताऊँ? वीर! तुम्हारे मनमें क्या सुननेकी इच्छा है? || ४७-४८ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें च्यचवनका उपाख्यानविषयक इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ५० श्लोक हैं)

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अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

बावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  बावनवें अध्याय के श्लोक 1-39 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा कुशिक और ओर उनकी रानी के द्वारा महर्षि च्यवनकी सेवा”

युधिष्ठिरने पूछा--महाबाहो! मेरे मनमें एक महासागरके समान महान्‌ संदेह हो गया है। महाप्राज्ञ! उसे सुनिये और सुनकर उसकी व्याख्या कीजिये ।। १ ।।

प्रभो! धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ जमदग्निनन्दन परशुरामजीके विषयमें मेरा कौतूहल बढ़ा हुआ है; अतः आप मेरे प्रश्चका विशद विवेचन कीजिये ।। २ ।।

ये सत्यपराक्रमी परशुरामजी कैसे उत्पन्न हुए? ब्रह्मर्षियोंका यह वंश क्षत्रियधर्मसे सम्पन्न कैसे हो गया? ।। ३ 

अतः राजन! आप परशुरामजीकी उत्पत्तिका प्रसंग पूर्णरूपसे बताइये। राजा कुशिकका वंश तो क्षत्रिय था, उससे ब्राह्मण जातिकी उत्पत्ति कैसे हुई? ।। ४ ।।

पुरुषसिंह! महात्मा परशुराम और विश्वामित्रका महान्‌ प्रभाव अदभुत था ।। ५ ।

राजा कुशिक और महर्षि ऋचीक--ये ही अपने-अपने वंशके प्रवर्तक थे। उनके पुत्र गाधि और जमदग्निको लाँधकर उनके पौत्र विश्वामित्र और परशुराममें ही यह विजातीयताका दोष क्‍यों आया? इसमें जो यथार्थ कारण हो, उसकी व्याख्या कीजिये ।। ६ ।।

भीष्मजीने कहा--भारत! इस विषयमें महर्षि च्यवन और राजा कुशिकके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। ७ ।।

पूर्वकालमें भृगुपुत्र च्यवनको यह बात मालूम हुई कि हमारे वंशमें कुशिक-वंशकी कन्याके सम्बन्धसे क्षत्रियत्वका महान्‌ दोष आनेवाला है। यह जानकर उन परम बुद्धिमान्‌ मुनिश्रेष्ठने मन-ही-मन सारे गुण-दोष और बलाबलका विचार किया। तत्पश्चात्‌ कुशिकोंके समस्त कुलको भस्म कर डालनेकी इच्छासे तपोधन च्यवन राजा कुशिकके पास गये और इस प्रकार बोले--“निष्पाप नरेश! मेरे मनमें कुछ कालतक तुम्हारे साथ रहनेकी इच्छा हुई है! || ८--१० ।।

कुशिकने कहा--भगवन्‌! यह अतिथिसेवारूप सहवधर्म विद्वान्‌ पुरुष यहाँ सदा धारण करते हैं और कनन्‍्याओंके प्रदानकाल अर्थात्‌ कन्याके विवाहके समयमें सदा पण्डितजन इसका उपदेश देते हैं ।। ११ ।।

तपोधन! अबतक तो इस धर्मके मार्गका पालन नहीं हुआ और समय निकल गया, परंतु अब आपके सहयोग और कृपासे इसका पालन करूँगा। अत: आप मुझे आज्ञा प्रदान करें कि मैं आपकी क्या सेवा करूँ ।।

इतना कहकर राजा कुशिकने महामुनि च्यवनको बैठनेके लिये आसन दिया और स्वयं अपनी पत्नीके साथ उस स्थानपर आये, जहाँ वे मुनि विराजमान थे ।।

राजाने स्वयं गड्ढआ हाथमें लेकर मुनिको पैर धोनेके लिये जल निवेदन किया। इसके बाद उन महात्माको अर्घ्य आदि देनेकी सम्पूर्ण क्रियाएँ पूर्ण करायीं ।। १४ ।।

इसके बाद नियमतः व्रत पालन करनेवाले महामनस्वी राजा कुशिकने शान्तभावसे च्यवन मुनिको विधिपूर्वक मधुपर्क भोजन कराया ।। १५ |।

इस प्रकार उन ब्रह्मर्षिका यथावत्‌ सत्कार करके वे फिर उनसे बोले--“भगवन्‌! हम दोनों पति-पत्नी आपके अधीन हैं। बताइये, हम आपकी क्‍या सेवा करें ।। १६ ।।

“कठोर व्रतका पालन करनेवाले महर्षे! यदि आप राज्य, धन, गौ एवं यज्ञके निमित्त दान लेना चाहते हों तो बतावें। वह सब मैं आपको दे सकता हूँ। यह राजभवन, यह राज्य और यह धर्मानुकूल राज्यसिंहासन--सब आपका है। आप ही राजा हैं, इस पृथ्वीका पालन कीजिये। मैं तो सदा आपकी आज्ञाके अधीन रहनेवाला सेवक हूँ ।। १७-१८ ।।

उनके ऐसा कहनेपर भृगुपुत्र च्यवन मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और कुशिकसे इस प्रकार बोले-- ।।

“राजन! न मैं राज्य चाहता हूँ न धन। न युवतियोंकी इच्छा रखता हूँ न गौओं, देशों और यज्ञकी ही। आप मेरी यह बात सुनिये || २० ।।

“यदि आपलोगोंको जँचे तो मैं एक नियम आरम्भ करूँगा। उसमें आप दोनों पतिपत्नीको सर्वथा सावधान रहकर बिना किसी हिचकके मेरी सेवा करनी होगी” || २१ ।।

मुनिकी यह बात सुनकर राजदम्पतिको बड़ा हर्ष हुआ। भारत! उन दोनोंने उन्हें उत्तर दिया, “बहुत अच्छा, हम आपकी सेवा करेंगे” || २२ ।।

तदनन्तर राजा कुशिक महर्षि च्यवनको बड़े आनन्दके साथ अपने सुन्दर महलके भीतर ले गये। वहाँ उन्होंने मुनिको एक सजा-सजाया कमरा दिखाया, जो देखने योग्य था ।। २३ ||

उस घरको दिखाकर वे बोले--“तपोधन! यह आपके लिये शय्या बिछी हुई है। आप इच्छानुसार यहाँ आराम कीजिये। हमलोग आपको प्रसन्न रखनेका प्रयत्न करेंगे” || २४ ।।

इस प्रकार उनमें बातें होते-होते सूर्यास्त हो गया। तब महर्षिने राजाको अन्न और जल ले आनेकी आज्ञा दी || २५ ।।

उस समय राजा कुशिकने उनके चरणोंमें प्रणाम करके पूछा--“महर्ष! आपको कौनसा भोजन अभीष्ट है? आपकी सेवामें क्या-क्या सामान लाऊँ?” ।। २६ ।।

भरतनन्दन! यह सुनकर वे बड़ी प्रसन्नताके साथ राजासे बोले--'तुम्हारे यहाँ जो भोजन तैयार हो, वही ला दो” ।। २७ ।।

नरेश्वर! राजा मुनिके उस कथनका आदर करते हुए “जो आज्ञा" कहकर गये और जो भोजन तैयार था, उसे लाकर उन्होंने मुनिके सामने प्रस्तुत कर दिया ।। २८ ।।

प्रभो! तदनन्तर भोजन करके धर्मज्ञ भगवान्‌ च्यवनने राजदम्पत्तिसे कहा--“अब मैं सोना चाहता हूँ, मुझे नींद सता रही है” || २९ ।।

इसके बाद मुनिश्रेष्ठ भगवान्‌ च्यवन शयनागारमें जाकर सो गये और पत्नीसहित राजा कुशिक उनकी सेवामें खड़े रहे || ३० ।।

उस समय भृगुपुत्रने उन दोनोंसे कहा--'तुमलोग सोते समय मुझे जगाना मत। मेरे दोनों पैर दबाते रहना और स्वयं भी निरन्तर जागते रहना” ।। ३१ ।।

धर्मज्ञ राज कुशिकने नि:शंक होकर कहा, “बहुत अच्छा'। रात बीती, सबेरा हुआ, किंतु उन पति-पत्नीने मुनिको जगाया नहीं ।। ३२ ।।

महाराज! वे दोनों दम्पति मन और इन्द्रियोंको वशमें करके महर्षिके आज्ञानुसार उनकी सेवामें लगे रहे || ३३ ।।

उधर ब्रह्मर्षि भगवान्‌ च्यवन राजाको सेवाका आदेश देकर इक्कीस दिनोंतक एक ही करवटसे सोते रह गये ।। ३४ ।।

कुरुनन्दन! राजा और रानी बिना कुछ खाये-पीये हर्षपूर्वक महर्षिकी उपासना और आराधनामें लगे रहे ।।

बाईसवें दिन तपस्याके धनी महातपस्वी च्यवन अपने आप उठे और राजासे कुछ कहे बिना ही महलसे बाहर निकल गये ।। ३६ ।।

राजा-रानी भूखसे पीड़ित और परिश्रमसे दुर्बल हो गये थे। तो भी वे मुनिके पीछे-पीछे गये, परंतु उन मुनिश्रेष्ठने इन दोनोंकी ओर आँख उठाकर देखातक नहीं ।। ३७ ।।

राजेन्द्र! वे भूगुकुलशिरोमणि राजा-रानीके देखते-देखते वहाँसे अन्तर्धान हो गये। इससे अत्यन्त दुःखी हो राजा पृथ्वीपर गिर पड़े || ३८ ।।

दो घड़ीमें किसी तरह अपनेको सँभालकर वे महातेजस्वी राजा उठे और महारानीको साथ लेकर पुनः मुनिको दूँढ़नेका महान्‌ प्रयत्न करने लगे ।। ३९ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपव्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें च्यवन और कुशिकका संवादविषयक बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

तिरेपनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  तिरेपनवें अध्याय के श्लोक 1-70 का हिन्दी अनुवाद)

“च्यवन मुनिके द्वारा राजा-रानीके धैर्यकी परीक्षा और उनकी सेवासे प्रसन्न होकर उन्हें आशीर्वाद देना”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! च्यवन मुनिके अन्तर्धान हो जानेपर राजा कुशिक और उनकी महान्‌ सौभाग्यशालिनी पत्नीने क्या किया? यह मुझे बताइये ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! पत्नीसहित भूपालने बहुत ढूँढ़नेपर भी जब ऋषिको नहीं देखा तब वे थककर लौट आये। उस समय उन्हें बड़ा संकोच हो रहा था। वे अचेत-से हो गये थे ॥। २ ।।

वे दीनभावसे पुरीमें प्रवेश करके किसीसे कुछ बोले नहीं। केवल च्यवन मुनिके चरित्रपर मन-ही-मन विचार करने लगे ।। ३ ।।

राजाने सूने मनसे जब घरमें प्रवेश किया तब भृगुनन्दन महर्षि च्यवनको पुनः उसी शय्यापर सोते देखा ।। ४ ।।

उन महर्षिको देखकर उन दोनोंको बड़ा विस्मय हुआ। वे उस आश्वर्यजनक घटनापर विचार करके चकित हो गये। मुनिके दर्शनसे उन दोनोंकी सारी थकावट दूर हो गयी ।। ५ ।।

वे फिर यथास्थान खड़े होकर मुनिके पैर दबाने लगे। अबकी बार वे महामुनि दूसरी करवटसे सोये थे ।।

शक्तिशाली च्यवन मुनि फिर उतने ही समयमें सोकर उठे। राजा और रानी उनके भयसे शंकित थे, अतः उन्होंने अपने मनमें तनिक भी विकार नहीं आने दिया ।। ७ ।।

भारत! प्रजानाथ! जब वे मुनि जागे, तब राजा और रानीसे इस प्रकार बोले --“तुमलोग मेरे शरीरमें तेलकी मालिश करो; क्योंकि अब मैं स्नान करूँगा” ।। ८ ।

यद्यपि राजा-रानी भूख-प्याससे पीड़ित और अत्यन्त दुर्बल हो गये थे तो भी “बहुत अच्छा” कहकर वे राजदम्पति सौ बार पकाकर तैयार किये हुए बहुमूल्य तेलको लेकर उनकी सेवामें जुट गये ।। ९ ।।

ऋषि आनन्दसे बैठ गये और वे दोनों दम्पति मौन हो उनके शरीरमें तेल मलने लगे। परंतु महातपस्वी भृगुपुत्र च्यवनने अपने मुँहसे एक बार भी नहीं कहा कि “बस, अब रहने दो, तेलकी मालिश पूरी हो गयी” || १० ।।

भृगुपुत्रने इतनेपर भी जब राजा और रानीके मनमें कोई विकार नहीं देखा, तब सहसा उठकर वे स्नानागारमें चले गये ।। ११ ।।

भरतश्रेष्ठ! वहाँ स्नानके लिये राजोचित सामग्री पहलेसे ही तैयार करके रखी गयी थी; किंतु उस सारी सामग्रीकी अवहेलना करके--उसका किंचित्‌ भी उपयोग न करके वे मुनि पुन: राजाके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये; तो भी उन पति-पत्नीने उनके प्रति दोषदृष्टि नहीं की || १२-१३ ।।

कुरुनन्दन! तदनन्तर शक्तिशाली भगवान्‌ च्यवन मुनि पत्नीसहित राजा कुशिकको स्नान करके सिंहासनपर बैठे दिखायी दिये || १४ ।।

उन्हें देखते ही पत्नीसहित राजाका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा। उन्होंने निर्विकारभावसे मुनिके पास जाकर विनयपूर्वक यह निवेदन किया कि “भोजन तैयार है” || १५ ।।

तब मुनिने राजासे कहा--'ले आओ।” आज्ञा पाकर पत्नीसहित नरेशने मुनिके सामने भोजन-सामग्री प्रस्तुत की || १६ ।।

नाना प्रकारके फलोंके गूदे, भाँति-भाँतिके साग, अनेक प्रकारके व्यंजन, हलके पेय पदार्थ, स्वादिष्ट पूए, विचित्र मोदक (लड्डू), खाँड, नाना प्रकारके रस, मुनियोंके खानेयोग्य जंगली कंद-मूल, विचित्र फल, राजाओंके उपभोगमें आनेवाले अनेक प्रकारके पदार्थ, वेर, इंगुद, काश्मर्य, भल्‍लातक फल तथा गृहस्थों और वानप्रस्थोंके खाद्य पदार्थ--सब कुछ राजाने शापके डरसे मँगाकर प्रस्तुत कर दिया था || १७--२० ।।

यह सब सामग्री च्यवन मुनिके आगे परोसकर रखी गयी। मुनिने वह सब लेकर उसको तथा शय्या और आसनको भी सुन्दर वस्त्रोंस ढक दिया। इसके बाद भृगुनन्दन च्यवनने भोजन-सामग्रीके साथ उन वस्त्रोंमें भी आग लगा दी || २१-२२ ।।

परंतु उन परम बुद्धिमान्‌ दम्पतिने उनपर क्रोध नहीं प्रकट किया। उन दोनोंके देखतेही-देखते वे मुनि फिर अन्तर्धान हो गये || २३ ।।

वे श्रीमान्‌ राजर्षि अपनी स्त्रीके साथ उसी तरह वहाँ रातभर चुपचाप खड़े रह गये; किंतु उनके मनमें क्रोधका आवेश नहीं हुआ ।। २४ ।।

प्रतिदिन भाँति-भाँतिका भोजन तैयार करके राजभवनमें मुनिके लिये परोसा जाता, अच्छे-अच्छे पलंग बिछाये जाते तथा स्नानके लिये बहुत-से पात्र रखे जाते थे || २५ ।।

अनेक प्रकारके वस्त्र ला-लाकर उनकी सेवामें समर्पित किये जाते थे। जब ब्रह्मर्षि च्यवन मुनि इन सब कार्योमें कोई छिद्र न देख सके, तब फिर राजा कुशिकसे बोले--“तुम सत्रीसहित रथमें जुत जाओ और मैं जहाँ कहूँ, वहाँ मुझे शीघ्र ले चलो” || २६-२७ ।।

तब राजाने निःशंक होकर उन तपोधनसे कहा--“बहुत अच्छा, भगवन्‌! क्रीड़ाका रथ तैयार किया जाय या युद्धके उपयोगमें आनेवाला रथ?” ।। २८ ।।

हर्षमें भरे हुए राजाके इस प्रकार पूछनेपर च्यवनमुनिको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने शत्रुनगरीपर विजय पानेवाले उन नरेशसे कहा-- ।। २९ |।

“राजन! तुम्हारा जो युद्धोपयोगी रथ है, उसीको शीघ्र तैयार करो। उसमें नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र रखे रहें। पताका, शक्ति और सुवर्णदण्ड विद्यमान हों ।। ३० ।।

“उसमें लगी हुई छोटी-छोटी घंटियोंके मधुर शब्द सब ओर फैलते रहें। वह रथ वन्दनवारोंसे सजाया गया हो। उसके ऊपर जाम्बूनद नामक सुवर्ण जड़ा हुआ हो तथा उसमें अच्छे-अच्छे सैकड़ों बाण रखे गये हों” ।| ३१ 

तब राजा “जो आज्ञा" कहकर गये और एक विशाल रथ तैयार करके ले आये। उसमें बायीं ओरका बोझ ढोनेके लिये रानीको लगाकर स्वयं वे दाहिनी ओर जुट गये ।। ३२ 

उस रथपर उन्होंने एक ऐसा चाबुक भी रख दिया, जिसमें आगेकी ओर तीन दण्ड थे और जिसका अग्रभाग सूईकी नोंकके समान तीखा था। यह सब सामान प्रस्तुत करके राजाने पूछा-- ।। ३३ ।।

'भगवन्‌! भृगुनन्दन! बताइये, यह रथ कहाँ जाय? ब्रह्मर्ष] आप जहाँ कहेंगे, वहीं आपका रथ चलेगा” ।। ३४ ।।

राजाके ऐसा पूछनेपर भगवान्‌ च्यवन मुनिने उनसे कहा--“यहाँसे तुम बहुत धीरे-धीरे एक-एक कदम उठाकर चलो। यह ध्यान रखो कि मुझे कष्ट न होने पाये। तुम दोनोंको मेरी मर्जीके अनुसार चलना होगा। तुमलोग इस प्रकार इस रथको ले चलो जिससे मुझे अधिक आराम मिले और सब लोग देखें ।। ३५-३६ ||

रास्तेसे किसी राहगीरको हटाना नहीं चाहिये, मैं उन सबको धन दूँगा। मार्गमें जो ब्राह्मण मुझसे जिस वस्तुकी प्रार्थना करेंगे मैं उनको वही वस्तु प्रदान करूँगा ।। ३७ ।।

“मैं सबको उनकी इच्छाके अनुसार धन और रत्न बाँटूँगा। अतः इन सबके लिये पूरापूरा प्रबन्ध कर लो। पृथ्वीनाथ! इसके लिये मनमें कोई विचार न करो” || ३८ 

मुनिका यह वचन सुनकर राजाने अपने सेवकोंसे कहा--'ये मुनि जिस-जिस वस्तुके लिये आज्ञा दें, वह सब नि:शंक होकर देना” || ३९ ।।

राजाकी इस आज्ञाके अनुसार नाना प्रकारके रत्न, स्त्रियाँ, वाहन, बकरे, भेड़ें, सोनेके अलंकार, सोना और पर्वतोपम गजराज--ये सब मुनिके पीछे-पीछे चले। राजाके सम्पूर्ण मन्त्री भी इन वस्तुओंके साथ थे। उस समय सारा नगर आर्त होकर हाहाकार कर रहा था || ४०-४१ |।

इतनेहीमें मुनिने सहसा चाबुक उठाया और उन दोनोंकी पीठपर जोरसे प्रहार किया। उस चाबुकका अग्रभाग बड़ा तीखा था। उसकी करारी चोट पड़ते ही राजा-रानीकी पीठ और कमरमें घाव हो गया। फिर भी वे निर्विकारभावसे रथ ढोते रहे || ४२ ।।

पचास राततक उपवास करनेके कारण वे बहुत दुबले हो गये थे, उनका सारा शरीर काँप रहा था; तथापि वे वीर दम्पति किसी प्रकार साहस करके उस विशाल रथका बोझ ढो रहे थे || ४३ ।।

महाराज! वे दोनों बहुत घायल हो गये थे। उनकी पीठपर जो अनेक घाव हो गये थे, उनसे रक्त बह रहा था। खूनसे लथपथ होनेके कारण वे खिले हुए पलाशके फूलोंके समान दिखायी देते थे ।। ४४ ।।

पुरवासियोंका समुदाय उन दोनोंकी यह दुर्दशा देखकर शोकसे अत्यन्त व्याकुल हो रहा था। सब लोग मुनिके शापसे डरते थे; इसलिये कोई कुछ बोल नहीं रहा था ।। ४५ ।।

दो-दो आदमी अलग-अलग खड़े होकर आपसमें कहने लगे--“भाइयो! सब लोग मुनिकी तपस्याका बल तो देखो, हमलोग क्रोधमें भरे हुए हैं तो भी मुनिश्रेष्ठकी ओर यहाँ आँख उठाकर देख भी नहीं सकते ।। ४६ ।।

“इन विशुद्ध अन्त:करणवाले महर्षि भगवान्‌ च्यवनकी तपस्याका बल अदभुत है। तथा महाराज और महारानीका धैर्य भी कैसा अनूठा है। यह अपनी आँखों देख लो || ४७ ।।

'ये इतने थके होनेपर भी कष्ट उठाकर इस रथको खींचे जा रहे हैं। भूगुनन्दन च्यवन अभीतक इनमें कोई विकार नहीं देख सके हैं' || ४८ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! भूगुकुलशिरोमणि मुनिवर च्यवनने जब इतनेपर भी राजा और रानीके मनमें कोई विकार नहीं देखा तब वे कुबेरकी तरह उनका सारा धन लुटाने लगे ।। ४९ ।।

परंतु इस कार्यमें भी राजा कुशिक बड़ी प्रसन्नताके साथ ऋषिकी आज्ञाका पालन करने लगे। इससे मुनिश्रेष्ठ भगवान्‌ च्यवन बहुत संतुष्ट हुए || ५० ।।

उस उत्तम रथसे उतरकर उन्होंने दोनों पति-पत्नीको भार ढोनेके कार्यसे मुक्त कर दिया। मुक्त करके इन दोनोंसे विधिपूर्वक वार्तालाप किया ।। ५१ ।।

भारत! भृगुपुत्र च्यवन उस समय स्नेह और प्रसन्नतासे युक्त गम्भीर वाणीमें बोले--'मैं तुम दोनोंको उत्तम वर देना चाहता हूँ, बतलाओ क्‍या दूँ?” ।। ५२ ।।

भरतभूषण! यह कहते-कहते मुनिश्रेष्ठ च्यवन चाबुकसे घायल हुए उन दोनों सुकुमार राजदम्पतिकी पीठपर स्नेहवश अमृतके समान कोमल हाथ फेरने लगे ।। ५३ ।।

उस समय राजाने भृगुपुत्र च्यवनसे कहा--'अब हम दोनोंको यहाँ तनिक भी थकावटका अनुभव नहीं हो रहा है। हम दोनों आपके प्रभावसे पूर्ण विश्राम-सुखका अनुभव करने लगे हैं।” जब दोनोंने इस प्रकार कहा, तब भगवान्‌ च्यवन पुन: हर्षमें भरकर बोले--'मैंने पहले जो कुछ कहा है, वह व्यर्थ नहीं होगा, पूर्ण होकर ही रहेगा || ५४-५५ ।।

'पृथ्वीनाथ! यह गंगाका सुन्दर तट बड़ा ही रमणीय स्थान है। मैं कुछ कालतक व्रतपरायण होकर यहीं रहूँगा ।। ५६ ।।

“बेटा! इस समय तुम अपने नगरमें जाओ और अपनी थकावट दूर करके कल खबरेरे अपनी पत्नीके साथ फिर यहाँ आना। नरेश्वर! कल पत्नीसहित तुम मुझे यहीं देखोगे || ५७ ।।

“तुम्हें अपने मनमें खेद नहीं करना चाहिये। अब तुम्हारे कल्याणका समय उपस्थित हुआ है। तुम्हारे मनमें जो-जो अभिलाषा होगी वह सब पूर्ण हो जायगी” ।। ५८ ।।

मुनिके ऐसा कहनेपर राजा कुशिकने मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न होकर उन मुनिश्रेष्ठसे यह अर्थयुक्त वचन कहा--“भगवन्‌! महाभाग! आपने हमलोगोंको पवित्र कर दिया। हमारे मनमें तनिक भी खेद या रोष नहीं है। हम दोनोंकी तरुण अवस्था हो गयी तथा हमारा शरीर सुन्दर और बलवान हो गया ।। ५९-६० ।।

“आपने पत्नीसहित मेरे शरीरपर चाबुक मार-मारकर जो घावकर दिये थे, उन्हें भी अब मैं अपने अंगोंमें नहीं देख रहा हूँ। मैं पत्नीसहित पूर्ण स्वस्थ हूँ || ६१ ।।

“मैं अपनी इन महारानीको परम उत्तम कान्तिसे युक्त तथा अप्सराके समान मनोहर देख रहा हूँ। ये पहले मुझे जैसी दिखायी देती थीं वैसी ही हो गयी हैं || ६२ ।।

“महामुने! यह सब आपके कृपाप्रसादसे सम्भव हुआ है। भगवन्‌! आप सत्यपराक्रमी हैं। आप-जैसे तपस्वियोंमें ऐसी शक्तिका होना आश्चर्यकी बात नहीं है' ॥। ६३ ।।

उनके ऐसा कहनेपर मुनिवर च्यवन पुनः राजा कुशिकसे बोले--“नरेश्वर! तुम पुनः अपनी पत्नीके साथ कल यहाँ आना” ।। ६४ ।।

महर्षिकी यह आज्ञा पाकर राजर्षि कुशिक उन्हें प्रणाम करके विदा ले देवराजके समान तेजस्वी शरीरसे युक्त हो अपने नगरकी ओर चल दिये || ६५ ।।

तदनन्तर उनके पीछे-पीछे मन्त्री, पुरोहित, सेनापति, नर्तकियाँ तथा समस्त प्रजावर्गके लोग चले ।। ६६ ||

उनसे घिरे हुए राजा कुशिक उत्कृष्ट तेजसे प्रकाशित हो रहे थे। उन्होंने बड़े हर्षके साथ नगरमें प्रवेश किया। उस समय वन्दीजन उनके गुण गा रहे थे ।। ६७ ।।

नगरमें प्रवेश करके उन्होंने पूर्वाह्लकालकी सम्पूर्ण क्रियाएँ सम्पन्न कीं। फिर पत्नीसहित भोजन करके उन महातेजस्वी नरेशने रातको महलमें निवास किया ।। ६८ ।।

वे दोनों पति-पत्नी नीरोग देवताओंके समान दिखायी देते थे। वे एक दूसरेके शरीरमें नयी जवानीका प्रवेश हुआ देखकर शय्यापर सोये-सोये बड़े आनन्दका अनुभव करने लगे। द्विजश्रेष्ठ च्यवनकी दी हुई उत्तम शोभासे सम्पन्न नूतन शरीर धारण किये वे दोनों दम्पति बहुत प्रसन्न थे ।। ६९ ।।

इधर भृगुकुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले, तपस्याके धनी महर्षि च्यवनने गंगातटके तपोवनको अपने संकल्पद्वारा नाना प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित करके समृद्धिशाली एवं नयनाभिराम बना दिया। वैसा कमनीय कानन इन्द्रपुरी अमरावतीमें भी नहीं था || ७० ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें च्यवन और कुशिकका संवादविषयक तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

चौवनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  चौवनवें अध्याय के श्लोक 1-42 का हिन्दी अनुवाद)

“महर्षि च्यवनके प्रभावसे राजा कुशिक और उनकी रानीको अनेक आश्चर्यमय दृश्योंका दर्शन एवं च्यवन मुनिका प्रसन्न होकर राजाको वर माँगनेके लिये कहना”

भीष्मजी कहते हैं--राजन! तत्पश्चात्‌ रात्रि व्यतीत होनेपर महामना राजा कुशिक जागे और पूर्वह्निकालके नैत्यिक नियमोंसे निवृत्त होकर अपनी रानीके साथ उस तपोवनकी ओर चल दिये ।। १ ।।

वहाँ पहुँचकर नरेशने एक सुन्दर महल देखा, जो सारा-का-सारा सोनेका बना हुआ था। उसमें मणियोंके हजारों खम्भे लगे हुए थे और वह अपनी शोभासे गन्धर्वनगरके समान जान पड़ता था | २ ।।

भारत! उस समय राजा कुशिकने वहाँ शिल्पियोंके अभिप्रायके अनुसार निर्मित और भी बहुत-से दिव्य पदार्थ देखे। कहीं चाँदीके शिखरोंसे सुशोभित पर्वत, कहीं कमलोंसे भरे सरोवर, कहीं भाँति-भाँतिकी चित्रशालाएँ तथा तोरण शोभा पा रहे थे। भूमिपर कहीं सोनेसे मढ़ा हुआ पक्का फर्श और कहीं हरी-हरी घासकी बहार थी ।।

अमराइयोंमें बौर लगे थे। जहाँ-तहाँ केतक, उद्दालक, अशोक, कुन्द, अतिमुक्तक, चम्पा, तिलक, कटहल, बेंत और कनेर आदिके सुन्दर वृक्ष खिले हुए थे। राजा और रानीने उन सबको देखा ।। ५-६ ।।

राजाने विभिन्न स्थानोंमें निर्मित श्याम तमाल, वारणपुष्प तथा अष्टपदिका लताओंका दर्शन किया | ७ ||

कहीं कमल और उत्पलसे भरे हुए रमणीय सरोवर शोभा पाते थे। कहीं पर्वत-सदूश ऊँचे-ऊँचे महल दिखायी देते थे जो विमानके आकारमें बने हुए थे। वहाँ सभी ऋतुओंके फूल खिले हुए थे ।। ८ ।।

भरतनन्दन! कहीं शीतल जल थे तो कहीं उष्ण, उन महलोंमें विचित्र आसन और उत्तमोत्तम शय्याएँ बिछी हुई थीं ।। ९ ।।

सोनेके बने हुए रत्नजटित पलंगोंपर बहुमूल्य बिछौने बिछे हुए थे। विभिन्न स्थानोंमें अनन्त भक्ष्य, भोज्य पदार्थ रखे गये थे ।। १० ।।

राजाने देखा, मनुष्योंकी-सी वाणी बोलनेवाले तोते और सारिकाएँ चहक रही हैं। भृंगराज, कोयल, शतपत्र, कोयष्टि, कुक्कुभ, मोर, मुर्गे, दात्यूह, जीवजीवक, चकोर, वानर, हंस, सारस और चक्रवाक आदि मनोहर पशु-पक्षी चारों ओर सानन्द विचर रहे हैं ।। ११-१२३ ||

पृथ्वीनाथ! कहीं झुंड-की-झुंड अप्सराएँ विहार कर रही थीं। कहीं गन्धर्वोके समुदाय अपनी प्रियतमाओंके आलिंगन-पाशमें बँधे हुए थे। उन सबको राजाने देखा। वे कभी उन्हें देख पाते थे और कभी नहीं देख पाते थे || १३-१४ ।।

राजा कभी संगीतकी मधुर ध्वनि सुनते, कभी वेदोंके स्वाध्यायका गम्भीर घोष उनके कानोंमें पड़ता और कभी हंसोंकी मीठी वाणी उन्हें सुनायी देती थी ।। १५ ।।

उस अति अदभुत दृश्यको देखकर राजा मन-ही-मन सोचने लगे--“अहो! यह स्वप्न है या मेरे चित्तमें भ्रम हो गया है अथवा यह सब कुछ सत्य ही है || १६ ।।

“अहो! क्या मैं इसी शरीरसे परम गतिको प्राप्त हो गया हूँ अथवा पुण्यमय उत्तरकुरु या अमरावतीपुरीमें-आ पहुँचा हूँ || १७ ।।

“यह महान्‌ आश्वर्यकी बात जो मुझे दिखायी दे रही है, क्या है?” इस तरह वे बारंबार विचार करने लगे। राजा इस प्रकार सोच ही रहे थे कि उनकी दृष्टि मुनिप्रवर च्यवनपर पड़ी ॥| १८ ।।

मणिमय खम्भोंसे युक्त सुवर्णमय विमानके भीतर बहुमूल्य दिव्य पर्यकपर वे भृगुनन्दन च्यवन लेटे हुए थे ।।

"उन्हें देखते ही पत्नीसहित महाराज कुशिक बड़े हर्षके साथ आगे बढ़े। इतनेहीमें फिर महर्षि च्यवन अन्तर्धान हो गये। साथ ही उनका वह पलंग भी अदृश्य हो गया ।। २० ।।"

तदनन्तर वनके दूसरे प्रदेशमें राजाने फिर उन्हें देखा, उस समय वे महान्‌ व्रतधारी महर्षि कुशकी चटाईपर बैठकर जप कर रहे थे | २१ ।।

इस प्रकार ब्रह्मर्षि च्यवनने अपनी योगशक्तिसे राजा कुशिकको मोहमें डाल दिया। एक ही क्षणमें वह वन, वे अप्सराओंके समुदाय, गन्धर्व और वृक्ष सब-के-सब अदृश्य हो गये। नरेश्वर! गंगाका वह तट पुनः शब्द-रहित हो गया ।। २२-२३ ।।

वहाँ पहलेके ही समान कुश और बाँबीकी अधिकता हो गयी। तत्पश्चात्‌ पत्नीसहित राजा कुशिक ऋषिका वह महान्‌ अद्भुत प्रभाव देखकर उनके उस कार्यसे बड़े विस्मयको प्राप्त हुए। इसके बाद हर्षमग्न हुए कुशिकने अपनी पत्नीसे कहा-- || २४-२५ ||

“कल्याणी! देखो, हमने भूगुकुलतिलक च्यवन मुनिकी कृपासे कैसे-कैसे अद्भुत और परम दुर्लभ पदार्थ देखे हैं। भला, तपोबलसे बढ़कर और कौन-सा बल है? ।।

“जिसकी मनके द्वारा कल्पना मात्र की जा सकती है, वह वस्तु तपस्यासे साक्षात्‌ सुलभ हो जाती है। त्रिलोकीके राज्यसे भी तप ही श्रेष्ठ है ।। २७ ।।

“अच्छी तरह तपस्या करनेपर उसकी शक्तिसे मोक्षतक मिल सकता है। इन ब्रह्मर्षि महात्मा च्यवनका प्रभाव अद्भुत है | २८ ।।

“ये इच्छा करते ही अपनी तपस्याकी शक्तिसे दूसरे लोकोंकी सृष्टि कर सकते हैं। इस पृथ्वीपर ब्राह्मण ही पवित्रवाक्‌, पवित्रबुद्धि और पवित्र कर्मवाले होते हैं ।।

“महर्षि च्यवनके सिवा दूसरा कौन है, जो ऐसा महान्‌ कार्य कर सके? संसारमें मनुष्योंको राज्य तो सुलभ हो सकता है, परंतु वास्तविक ब्राह्मणत्व परम दुर्लभ है ।। ३० ।।

“ब्राह्मणत्वके प्रभावसे ही महर्षिने हम दोनोंको अपने वाहनोंकी भाँति रथमें जोत दिया था।” इस तरह राजा सोच-विचार कर ही रहे थे कि महर्षि च्यवनको उनका आना ज्ञात हो गया ।। ३१ |।

उन्होंने राजाकी ओर देखकर कहा--'भूपाल! शीघ्र यहाँ आओ।” उनके इस प्रकार आदेश देनेपर पत्नीसहित राजा उनके पास गये तथा उन वन्दनीय महामुनिको उन्होंने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया ।।

तब उन पुरुषप्रवर बुद्धिमान्‌ मुनिने राजाको आशीर्वाद देकर सान्त्वना प्रदान करते हुए कहा--“आओ बैठो”' ।। ३३६ |।

भरतवंशी नरेश! तदनन्तर स्वस्थ होकर भृगुपुत्र च्यवन मुनि अपनी स्निग्ध मुधर वाणीद्वारा राजाको तृप्त करते हुए-से बोले-- ।। ३४६ ।।

राजन! तुमने पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों और छठे मनको अच्छी तरह जीत लिया है। इसीलिये तुम महान्‌ संकटसे मुक्त हुए हो || ३५३ ।।

“वक्ताओंमें श्रेष्ठ पुत्र! तुमने भलीभाँति मेरी आराधना की है। तुम्हारे द्वारा कोई छोटेसे-छोटा या सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अपराध भी नहीं हुआ है || ३६३ ।।

“राजन! अब मुझे विदा दो। मैं जैसे आया था, वैसे ही लौट जाऊँगा। राजेन्द्र! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ; अतः तुम कोई वर माँगो/ ।। ३७३६ ।।

कुशिक बोले--भगवन्‌! भृगुश्रेष्ठी मैं आपके निकट उसी प्रकार रहा हूँ, जैसे कोई प्रज्वलित अग्निके बीचमें खड़ा हो। उस अवस्थामें रहकर भी मैं जलकर भस्म नहीं हुआ, यही मेरे लिये बहुत बड़ी बात है। भृगुनन्दन! यही मैंने महान्‌ वर प्राप्त कर लिया ।।

निष्पाप ब्रह्मर्ष! आप जो प्रसन्न हुए हैं तथा आपने जो मेरे कुलको नष्ट होनेसे बचा दिया, यही मुझपर आपका भारी अनुग्रह है। और इतनेसे ही मेरे जीवनका सारा प्रयोजन सफल हो गया ।। ४०

भृगुनन्दन! यही मेरे राज्यका और यही मेरी तपस्याका भी फल है। विप्रवर! यदि आपका मुझपर प्रेम हो तो मेरे मनमें एक संदेह है, उसका समाधान करनेकी कृपा करें ।।४१- ४२।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें च्यवन और कुशिकका संवादविषयक चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

पचपनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  पचपनवें अध्याय के श्लोक 1-37 का हिन्दी अनुवाद)

“च्यवनका कुशिकके पूछनेपर उनके घरमें अपने निवासका कारण बताना और उन्हें वरदान देना”

च्यवन बोले--नरश्रेष्ठ! तुम मुझसे वर भी माँग लो और तुम्हारे मनमें जो संदेह हो, उसे भी कहो। मैं तुम्हारा सब कार्य पूर्ण कर दूँगा ।। १ ।।

कुशिकने कहा--भगवन्‌! भृगुनन्दन! यदि आप मुझपर प्रसन्न हों तो मुझे यह बताइये कि आपने इतने दिनोंतक मेरे घरपर क्‍यों निवास किया था? मैं इसका कारण सुनना चाहता हूँ ।। २ ।।

मुनिपुंगव! इक्कीस दिनोंतक एक करवटसे सोते रहना, फिर उठनेपर बिना कुछ बोले बाहर चल देना, सहसा अन्तर्धान हो जाना, पुनः दर्शन देना, फिर इक्कीस दिनोंतक दूसरी करवटसे सोते रहना, उठनेपर तेलकी मालिश कराना, मालिश कराकर चल देना, पुनः मेरे महलमें जाकर नाना प्रकारके भोजनको एकत्र करना और उसमें आग लगाकर जला देना, फिर सहसा रथपर सवार हो बाहर नगरकी यात्रा करना, धन लुटाना, दिव्य वनका दर्शन कराना, वहाँ बहुत-से सुवर्णमय महलोंको प्रकट करना, मणि और मूँगोंके पायेवाले पलंगोंको दिखाना और अन्तमें सबको पुनः अदृश्य कर देना--महामुने! आपके इन कार्योंका यथार्थ कारण मैं सुनना चाहता हूँ। भूगुकुलरत्न! इस बातपर जब मैं विचार करने लगता हूँ तब मुझपर अत्यन्त मोह छा जाता है ।।३- ८।।

तपोधन! इन सब बातोंपर विचार करके भी मैं किसी निश्चयपर नहीं पहुँच पाता हूँ, अतः इन बातोंको मैं पूर्ण एवं यथार्थ रूपसे सुनना चाहता हूँ ।। ९ ।।

च्यवनने कहा--भूपाल! जिस कारणसे मैंने यह सब कार्य किया था, वह सारा वृत्तान्त तुम पूर्णरूपसे सुनो। तुम्हारे इस प्रकार पूछनेपर मैं इस रहस्यको बताये बिना नहीं रह सकता ।। १० ||

राजन! पूर्वकालकी बात है, एक दिन देवताओंकी सभामें ब्रह्माजी एक बात कह रहे थे जिसे मैंने सुना था, उसे बता रहा हूँ, सुनो || ११ ।।

नरेश्वर! ब्रह्माजीने कहा था कि ब्राह्मण और क्षत्रियमें विरोध होनेके कारण दोनों कुलोंमें संकरता आ जायगी। (उन्हींके मुहसे मैंने यह भी सुना था कि तुम्हारे वंशकी कन्यासे मेरे वंशमें क्षत्रिय तेजका संचार होगा और) तुम्हारा एक पौजत्र ब्राह्मण-तेजसे सम्पन्न तथा पराक्रमी होगा ।। १२ ।।

यह सुनकर मैं तुम्हारे कुलका विनाश करनेके लिये तुम्हारे यहाँ आया था। मैं कुशिकका मूलोच्छेद कर डालना चाहता था। मेरी प्रबल इच्छा थी कि तुम्हारे कुलको जलाकर भस्म कर डालूँ ।। १३ ।।

भूपाल! इसी उद्देश्यसे तुम्हारे नगरमें आकर मैंने तुमसे कहा कि मैं एक व्रतका आरम्भ करूँगा। तुम मेरी सेवा करो (इसी अभिप्रायसे मैं तुम्हारा दोष ढूँढ़ रहा था); किंतु तुम्हारे घरमें रहकर भी मैंने आजतक तुममें कोई दोष नहीं पाया। राजर्षे! इसीलिये तुम जीवित हो, अन्यथा तुम्हारी सत्ता मिट गयी होती ।। १४-१५ ।।

भूपते! यही विचार मनमें लेकर मैं इक्कीस दिनोंतक एक करवटसे सोता रहा कि कोई मुझे बीचमें आकर जगावे ।। १६ ।।

नृपश्रेष्ठ जब पत्नीसहित तुमने मुझे सोते समय नहीं जगाया, तभी मैं तुम्हारे ऊपर मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुआ था || १७ ।।

भूपते! प्रभो! जिस समय मैं उठकर घरसे बाहर जाने लगा उस समय यदि तुम मुझसे पूछ देते कि “कहाँ जाइयेगा' तो इतनेसे ही मैं तुम्हें शाप दे देता || १८ ।।

फिर मैं अन्तर्धान हुआ और पुनः तुम्हारे घरमें आकर योगका आश्रय ले इक्कीस दिनोंतक सोया ।।

नरेश्वर! मैंने सोचा था कि तुम दोनों भूखसे पीड़ित होकर या परिश्रमसे थककर मेरी निन्दा करोगे। इसी उद्देश्यसे मैंने तुमलोगोंको भूखे रखकर क्लेश पहुँचाया || २० 

भूपते! नरश्रेष्ठ) इतनेपर भी स्त्रीसहित तुम्हारे मनमें तनिक भी क्रोध नहीं हुआ। इससे मैं तुमलोगोंपर बहुत संतुष्ट हुआ || २१ ।।

इसके बाद जो मैंने भोजन मँगाकर जला दिया, उसमें भी यही उद्देश्य छिपा था कि तुम डाहके कारण मुझपर क्रोध करोगे; परंतु मेरे उस बर्तावको भी तुमने सह लिया ।। २२ ।।

नरेन्द्र! इसके बाद मैं रथपर आरूढ़ होकर बोला, तुम स्त्रीसहित आकर मेरा रथ खींचो। नरेश्वर! इस कार्यको भी तुमने नि:शंक होकर पूर्ण किया। इससे भी मैं तुमपर बहुत संतुष्ट हुआ || २३६ ।।

फिर जब मैं तुम्हारा धन लुटाने लगा, उस समय भी तुम क्रोधके वशीभूत नहीं हुए। इन सब बातोंसे मुझे तुम्हारे ऊपर बड़ी प्रसन्नता हुई। राजन! मनुजेश्वर! अतः मैंने पत्नीसहित तुम्हें संतुष्ट करनेके लिये ही इस वनमें स्वर्गका दर्शन कराया है। पुनः यह सब कार्य करनेका उद्देश्य तुम्हें प्रसन्न करना ही था, इस बातको अच्छी तरह जान लो || २४-२५६ ।।

नरेश्वर! राजन्‌! इस वनमें तुमने जो दिव्य दृश्य देखे हैं, वह स्वर्गकी एक झाँकी थी। नृपश्रेष्ठट भूपाल! तुमने अपनी रानीके साथ इसी शरीरसे कुछ देरतक स्वर्गीय सुखका अनुभव किया है ।। २६-२७ |।

नरेश्वर! यह सब मैंने तुम्हें तप और धर्मका प्रभाव दिखलानेके लिये ही किया है। राजन! इन सब बातोंको देखनेपर तुम्हारे मनमें जो इच्छा हुई है, वह भी मुझे ज्ञात हो चुकी है || २८ ।।

पृथ्वीनाथ! तुम सम्राट्‌ और देवराजके पदकी भी अवहेलना करके ब्राह्मणत्व पाना चाहते हो और तपकी भी अभिलाषा रखते हो ।। २९ ।।

तात! तप और ब्राह्मणत्वके सम्बन्धमें तुम जैसा उद्गार प्रकट कर रहे थे, वह बिलकुल ठीक है। वास्तवमें ब्राह्मणत्व दुर्लभ है। ब्राह्मण होनेपर भी ऋषि होना और ऋषि होनेपर भी तपस्वी होना तो और भी कठिन है ।। ३० ।।

तुम्हारी यह इच्छा पूर्ण होगी। कुशिकसे कौशिक नामक ब्राह्मणवंश प्रचलित होगा तथा तुम्हारी तीसरी पीढ़ी ब्राह्मण हो जायगी ।। ३१ ।।

नृपश्रेष्ठ! भूगुवंशियोंके ही तेजसे तुम्हारा वंश ब्राह्मणत्वको प्राप्त होगा। तुम्हारा पौत्र अग्निके समान तेजस्वी और तपस्वी ब्राह्मण होगा ।। ३२ ।।

तुम्हारा वह पौत्र अपने तपके प्रभावसे देवताओं, मनुष्यों तथा तीनों लोकोंके लिये भय उत्पन्न कर देगा। मैं तुमसे यह सच्ची बात कहता हूँ ।। ३३ ।।

राजर्षे! तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसे वरके रूपमें माँग लो। मैं तीर्थयात्राको जाऊँगा। अब देर हो रही है ।। ३४ ।।

कुशिकने कहा--महामुने! आज आप प्रसन्न हैं, यही मेरे लिये बहुत बड़ा वर है। अनघ! आप जैसा कह रहे हैं, वह सत्य हो--मेरा पौत्र ब्राह्मण हो जाय ।। ३५ ||

भगवन्‌! मेरा कुल ब्राह्मण हो जाय, यही मेरा अभीष्ट वर है। प्रभो! मैं इस विषयको पुनः विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ ।। ३६ ।।

भृगुनन्दन! मेरा कुल किस प्रकार ब्राह्मणत्वको प्राप्त होगा? मेरा वह बन्धु, वह सम्मानित पौत्र कौन होगा जो सर्वप्रथम ब्राह्मण होनेवाला है? ।। ३७ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें च्यवन और कुशिकका संवादविषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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