सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के छियालीसवें अध्याय से पचासवें अध्याय तक (From the 46 chapter to the 50 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

छियालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  छियालीसवें अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“स्त्रियोंके वस्त्रा भूषणोंसे सत्कार करनेकी आवश्यकताका प्रतिपादन”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! प्राचीन इतिहासके जाननेवाले विद्वान्‌ दक्षप्रजापतिके वचनोंको इस प्रकार उद्धृत करते हैं। कन्याके भाई-बन्धु यदि उसके वस्त्र-आभूषणके लिये धन ग्रहण करते हैं और स्वयं उसमेंसे कुछ भी नहीं लेते हैं तो वह कन्याका विक्रय नहीं है। वह तो उन कन्याओंका सत्कारमात्र है। वह परम दयालुतापूर्ण कार्य है। वह सारा धन जो कन्याके लिये ही प्राप्त हुआ हो, सब-का-सब कन्याको ही अर्पित कर देना चाहिये ।। १-२ ।।

बहुविध कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पिता, भाई, श्वशुर और देवरोंको उचित है कि वे नववधूका पूजन--वस्त्राभूषणोंद्वारा सत्कार करें ।। ३ ।।

नरेश्वर! यदि स्त्रीकी रुचि पूर्ण न की जाय तो वह अपने पतिको प्रसन्न नहीं कर सकती और उस अवस्थामें उस पुरुषकी संतानवृद्धि नहीं हो सकती। इसलिये सदा ही स्त्रियोंका सत्कार और दुलार करना चाहिये || ४६ ।।

जहाँ स्त्रियोंका आदर-सत्कार होता है वहाँ देवतालोग प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं तथा जहाँ इनका अनादर होता है वहाँकी सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं ।। ५६ ।।

जब कुलकी बहू-बेटियाँ दुःख मिलनेके कारण शोकमग्न होती हैं तब उस कुलका नाश हो जाता है। वे खिन्न होकर जिन घरोंको शाप दे देती हैं, वे कृत्याके द्वारा नष्ट हुए के समान उजाड़ हो जाते हैं। पृथ्वीनाथ! वे श्रीहीन गृह न तो शोभा पाते हैं और न उनकी वृद्धि ही होती है ।। ६-७ ।।

महाराज मनु जब स्वर्गको जाने लगे तब उन्होंने स्त्रियोंको पुरुषोंके हाथमें सौंप दिया और कहा--'मनुष्यो! स्त्रियाँ अबला, थोड़ेसे वस्त्रोंस काम चलानेवाली, अकारण हितसाधन करनेवाली, सत्यलोकको जीतनेकी इच्छावाली (सत्यपरायणा), ईर्ष्यालु, मान चाहनेवाली, अत्यन्त कोप करनेवाली, पुरुषके प्रति मैत्रीभाव रखनेवाली और भोली-भाली होती हैं। स्त्रियाँ सम्मान पानेके योग्य हैं, अतः तुम सब लोग उनका सम्मान करो; क्योंकि सत्री-जाति ही धर्मकी सिद्धिका मूल कारण है। तुम्हारे रतिभोग, परिचर्या और नमस्कार स्त्रियोंक ही अधीन होंगे || ८--१० ।।

'संतानकी उत्पत्ति, उत्पन्न हुए बालकका लालन-पालन तथा लोकयात्राका प्रसन्नतापूर्वक निर्वाह--इन सबको स्त्रियोंक ही अधीन समझो। यदि तुमलोग स्त्रियोंका सम्मान करोगे तो तुम्हारे सब कार्य सिद्ध होंगे” || ११३ ।।

(स्त्रियोंके कर्तव्यके विषयमें) विदेहग़ाज जनककी पुत्रीने एक श्लोकका गान किया है, जिसका सारांश इस प्रकार है--स्त्रीके लिये कोई यज्ञ आदि कर्म, श्राद्ध और उपवास करना आवश्यक नहीं है। उसका धर्म है अपने पतिकी सेवा। उसीसे स्त्रियाँ सस्‍्वर्गलोेकपर विजय पा लेती हैं || १२-१३ ।।

कुमारावस्थामें स्त्रीकी रक्षा उसका पिता करता है, जवानीमें पति उसका रक्षक है और वृद्धावस्थामें पुत्रणण उसकी रक्षा करते हैं। अतः स्त्रीको कभी स्वतन्त्र नहीं करना चाहिये ।। १४ ।।

भरतनन्दन! स्त्रियाँ ही घरकी लक्ष्मी होती हैं। उन्नति चाहनेवाले पुरुषको उनका भलीभाँति सत्कार करना चाहिये। अपने वशमें रखकर उनका पालन करनेसे स्त्री श्री (लक्ष्मी)-का स्वरूप बन जाती है ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मके प्रसंगमें स्त्रीकी प्रशंशानामक छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

सैतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  सैतालीसवें अध्याय के श्लोक 1-36 का हिन्दी अनुवाद)

 “ब्राह्मण आदि वर्णोकी दायभाग-विधिका वर्णन”

युधिष्ठिरने पूछा--सम्पूर्ण शास्त्रोंके विधानके ज्ञाता तथा राजधर्मके दिद्वानोंमें श्रेष्ठ पितामह! आप इस भूमण्डलमें सम्पूर्ण संशयोंका सर्वथा निवारण करनेके लिये प्रसिद्ध हैं। मेरे हृदयमें एक संशय और है, उसका मेरे लिये समाधान कीजिये। राजन! इस उत्पन्न हुए संशयके विषयमें मैं दूसरे किसीसे नहीं पूछूँगा ।। १-२ ।।

महाबाहो! धर्ममार्गका अनुसरण करनेवाले मनुष्यका इस विषयमें जैसा कर्तव्य हो, इस सबकी आप स्पष्टरूपसे व्याख्या करें ।। ३ ।।

पितामह! ब्राह्मणके लिये चार स्त्रियाँ शास्त्र-विहित हैं--ब्राह्मणी, क्षत्रिया, वैश्या और शूद्रा। इनमेंसे शूद्रा केवल रतिकी इच्छावाले कामी पुरुषके लिये विहित है ।। ४ ।।

कुरुश्रेष्ठ! इन सबके गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न हुए हों, उनमेंसे कौन क्रमश: पैतृक धनको पानेका अधिकारी है? ।। ५ ||

पितामह! किस पुत्रको पिताके धनमेंसे कौन-सा भाग मिलना चाहिये? उनके लिये जो विभाग नियत किया गया है, उसका वर्णन मैं आपके मुहँसे सुनना चाहता हूँ ।। ६ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य--ये तीनों वर्ण द्विजाति कहलाते हैं; अतः इन तीन वर्णोमें ही ब्राह्मणका विवाह धर्मतः विहित है ।। ७ ।।

परंतप नरेश! अन्यायसे, लोभसे अथवा कामनासे शूद्र जातिकी कन्या भी ब्राह्मणकी भार्या होती है; परंतु शास्त्रोंमें इसका कहीं विधान नहीं मिलता ।। ८ ।।

शूद्रजातिकी स्त्रीको अपनी शय्यापर सुलाकर ब्राह्मण अधोगतिको प्राप्त होता है। साथ ही शास्त्रीय विधिके अनुसार वह प्रायश्चित्तका भागी होता है। युधिष्ठिर! शूद्राके गर्भसे संतान उत्पन्न करनेपर ब्राह्मणको दूना पाप लगता है और उसे दूने प्रायश्चित्तका भागी होना पड़ता है।। ९६ ।।

भरतनन्दन! अब मैं ब्राह्मण आदि वर्णोकी कन्याओंके गर्भसे उत्पन्न होनेवाले पुत्रोंकी पैतृक धनका जो भाग प्राप्त होता है, उसका वर्णन करूँगा। ब्राह्मणकी ब्राह्मणी पत्नीसे जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न गृह आदि, बैल, सवारी तथा अन्य जो-जो श्रेष्ठटम पदार्थ हों, उन सबको अर्थात्‌ पैतृक धनके प्रधान अंशको पहले ही अपने अधिकारमें कर ले। युधिष्ठिर! फिर ब्राह्मणका जो शेष धन हो, उसके दस भाग करने चाहिये। पिताके उस धनमेंसे पुनः चार भाग ब्राह्मणीके पुत्रको ही ले लेने चाहिये || १०-१२ ||

क्षत्रियाका जो पुत्र है, वह भी ब्राह्मण ही होता है--इसमें संशय नहीं है। वह माताकी विशिष्टताके कारण पैतृक धनका तीन भाग ले लेनेका अधिकारी है ।। १३ ।।

युधिष्ठिर! तीसरे वर्णकी कन्या वैश्यामें जो ब्राह्मणसे पुत्र उत्पन्न होता है, उसे ब्राह्मणके धनमेंसे दो भाग लेने चाहिये || १४ ।।

भारत! ब्राह्मणसे शूद्रामें जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसे तो धन न देनेका ही विधान है तो भी शूद्राके पुत्रको पैतृक धनका स्वल्पतम भाग--एक अंश दे देना चाहिये ।।

दस भागोंमें विभक्त हुए बँटवारेका यही क्रम होता है। परंतु जो समान वर्णकी स्त्रियोंसे उत्पन्न हुए पुत्र हैं, उन सबके लिये बराबर भागोंकी कल्पना करनी चाहिये ।। १६ ।।

ब्राह्मणसे शूद्राके गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसे ब्राह्मण नहीं मानते हैं; क्योंकि उसमें ब्राह्मणो-चित निपुणता नहीं पायी जाती। शेष तीन वर्णकी स्त्रियोंसे ब्राह्मणद्वारा जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह ब्राह्मण होता है ।। १७ ।।

चार ही वर्ण बताये हैं, पाँचवाँ वर्ण नहीं मिलता। शूद्राका पुत्र ब्राह्मण पिताके धनसे उसका दसवाँ भाग ले सकता है || १८ ।।

वह भी पिताके देनेपर ही उसे लेना चाहिये, बिना दिये उसे लेनेका कोई अधिकार नहीं है। भरतनन्दन! किंतु शूद्राके पुत्रको भी धनका भाग अवश्य दे देना चाहिये ।। १९ ।।

दया सबसे बड़ा धर्म है। यह समझकर ही उसे धनका भाग दिया जाता है। दया जहाँ भी उत्पन्न हो, वह गुणकारक ही होती है ।। २० ।।

भारत! ब्राह्मणके अन्य वर्णकी स्त्रियोंसे पुत्र हों या न हों, वह शूद्राके पुत्रको दसवें भागसे अधिक धन न दे | २१ ।।

जब ब्राह्मणके पास तीन वर्षतक निर्वाह होनेसे अधिक धन एकत्र हो जाय तब वह उस धनसे यज्ञ करे। धनका व्यर्थ संग्रह न करे || २२ ।।

सत्रीको तीन हजारसे अधिक लागतका धन नहीं देना चाहिये। पतिके देनेपर ही उस धनको वह यथोचित रूपसे उपभोगमें ला सकती है ।। २३ ।।

स्त्रियोंको पतिके धनसे जो हिस्सा मिलता है, उसका उपभोग ही (उसके लिये) फल माना गया है। पतिके दिये हुए स्त्रीधनसे पुत्र आदिको कुछ नहीं लेना चाहिये ।। २४ ।।

युधिष्ठिर! ब्राह्मणीको पिताकी ओरसे जो धन मिला हो, उस धनको उसकी पुत्री ले सकती है; क्योंकि जैसा पुत्र है, वैसी ही पुत्री भी है || २५ ।।

कुरुनन्दन! भरतकुलभूषण नरेश! पुत्री पुत्रके समान ही है--ऐसा शास्त्रका विधान है। इस प्रकार वही धनके विभाजनकी धर्मयुक्त प्रणाली बतायी गयी है। इस तरह धर्मका चिन्तन एवं अनुस्मरण करते हुए ही धनका उपार्जन एवं संग्रह करे। परंतु उसे व्यर्थ न होने दे--यज्ञ-यागादिके द्वारा सफल कर ले ।। २६ ।।

युधिषछिरने पूछा--दादाजी! यदि ब्राह्मणसे शूद्रामें उत्पन्न हुए पुत्रको धन न देने योग्य बताया गया है तो किस विशेषताके कारण उसको पैतृक धनका दसवाँ भाग भी दिया जाता है? ।। २७ ||

ब्राह्मणसे ब्राह्मणीमें उत्पन्न हुआ पुत्र ब्राह्मण हो--इसमें कोई संशय ही नहीं है; वैसे ही क्षत्रिया और वैश्याके गर्भसे उत्पन्न हुए पुत्र भी ब्राह्मण ही होते हैं || २८ ।।

नृपश्रेष्ठ जब आपने ब्राह्मण आदि तीनों वर्णोवाली स्त्रियोंसे उत्पन्न हुए पुत्रोंको ब्राह्मण ही बताया है, तब वे पैतृक धनका समान भाग क्‍यों नहीं पाते हैं? क्यों वे विषम भाग ग्रहण करें? ।। २९ ||

भीष्मजीने कहा--शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! लोकमें सब स्त्रियोंका 'दारा' इस एक नामसे ही परिचय दिया जाता है। इस तथाकथित नामसे ही चारों वर्णोकी स्त्रियोंसे उत्पन्न हुए पुत्रोंमें महान्‌ अन्तर हो जाता है- ।। ३० ।।

ब्राह्मण पहले अन्य तीनों वर्णोकी स्त्रियोंको ब्याह लानेके पश्चात्‌ भी यदि ब्राह्मणकन्यासे विवाह करे तो वही अन्य स्त्रियोंकी अपेक्षा ज्येष्ठ, अधिक आदर-सत्कारके योग्य तथा विशेष गौरवकी अधिकारिणी होगी ।।

युधिष्ठि! पतिको स्नान कराना, उनके लिये शंंगार-सामग्री प्रस्तुत करना, दाँतकी सफाईके लिये दातौन और मंजन देना, पतिके नेत्रोंमें आॉजन या सुरमा लगाना, प्रतिदिन हवन और पूजनके समय हव्य और कव्यकी सामग्री जुटाना तथा घरमें और भी जो धार्मिक कृत्य हो उसके सम्पादनमें योग देना--ये सब कार्य ब्राह्मणके लिये ब्राह्मणीको ही करने चाहिये। उसके रहते हुए दूसरे किसी वर्णवाली स्त्रीको यह सब करनेका अधिकार नहीं है || ३२-३३ ।।

पतिको अन्न, पान, माला, वस्त्र और आभूषण--ये सब वस्तुएँ ब्राह्मणी ही समर्पित करे; क्योंकि वही उसके लिये सब स्त्रियोंसे अधिक गौरवकी अधिकारिणी है ।। ३४ ।।

महाराज कुरुनन्दन! मनुने भी जिस धर्मशास्त्रका प्रतिपादन किया है, उसमें भी यही सनातन धर्म देखा गया है || ३५ ।।

युधिष्ठिर! यदि ब्राह्मण कामके वशीभूत होकर इस शास्त्रीय पद्धतिके विपरीत बर्ताव करता है, वह ब्राह्मण चाण्डाल समझा जाता है जैसा कि पहले कहा गया है ।। ३६ ।।

राजन! ब्राह्मणके समान ही जो क्षत्रियाका पुत्र होगा, उसमें भी उभयवर्णसम्बन्धी अन्तर तो रहेगा ही ।। ३७ ।।

क्षत्रियकन्या संसारमें अपनी जातिद्दारा ब्राह्मण-कन्याके बराबर नहीं हो सकती। नृपश्रेष्ठ! इसी प्रकार ब्राह्मणीका पुत्र क्षत्रियाके पुत्रसे प्रथम एवं ज्येष्ठ होगा। युधिष्ठिर! इसलिये पिताके धनमेंसे ब्राह्मणीके पुत्रको अधिक-अधिक भाग देना चाहिये || ३८३ ।।

जैसे क्षत्रिया कभी ब्राह्मणीके समान नहीं हो सकती वैसे ही वैश्या भी कभी क्षत्रियाके तुल्य नहीं हो सकती ।। ३९६ ।।

राजा युधिष्ठिर! लक्ष्मी, राज्य और कोष--यह सब शास्त्रमें क्षत्रियोंक लिये ही विहित देखा जाता है। राजन! क्षत्रिय अपने धर्मके अनुसार समुद्रपर्यन्त पृथ्वी तथा बहुत बड़ी सम्पत्ति प्राप्त कर लेता है। नरेश्वर! राजा (क्षत्रिय) दण्ड धारण करनेवाला होता है। क्षत्रियके सिवा और किसीसे रक्षाका कार्य नहीं हो सकता ।। ४०-४१ ।।

राजन! महाभाग! ब्राह्मण देवताओंके भी देवता हैं; अतः उनका विधिपूर्वक पूजनआदर-सत्कार करते हुए ही उनके साथ बर्ताव करे || ४२ ।।

ऋषियोंद्वारा प्रतिपादित अविनाशी सनातन धर्मको लुप्त होता जानकर क्षत्रिय अपने धर्मके अनुसार उसकी रक्षा करता है ।। ४३ ।।

डाकुओंद्वारा लूटे जाते हुए सभी वर्णोके धन और स्त्रियोंका राजा ही रक्षक होता है || ४४ ||

इन सब दृष्टियोंसे क्षत्रियाका पुत्र वैश्याके पुत्रसे श्रेष्ठ होता है--इसमें संशय नहीं है। युधिष्ठिर! इसलिये शेष पैतृक धनमेंसे उसको भी विशेष भाग लेना ही चाहिये ।। ४५ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! आपने ब्राह्मणके धनका विभाजन विधिपूर्वक बता दिया। अब यह बताइये कि अन्य वर्णोके धनके बँटवारेका कैसा नियम होना चाहिये? ।। ४६ ।।

भीष्मजीने कहा--कुरुनन्दन! क्षत्रियके लिये भी दो वर्णोकी भार्याएँ शास्त्रविहित हैं। तीसरी शूद्रा भी उसकी भार्या हो सकती है। परंतु शास्त्रसे उसका समर्थन नहीं होता ।। ४७ ।।

राजा युधिष्ठिर! क्षत्रियोंके लिये भी बँटवारेका यही क्रम है। क्षत्रियके धनको आठ भागोंमें विभक्त करना चाहिये ।। ४८ ।।

क्षत्रियाका पुत्र उस पैतृक धनमेंसे चार भाग स्वयं ग्रहण कर ले तथा पिताकी जो युद्धसामग्री है, उसको भी वही ले ले || ४९ ।।

शेष धनमेंसे तीन भाग वैश्याका पुत्र ले ले और अवशिष्ट आठवाँ भाग शूद्राका पुत्र प्राप्त करे। वह भी पिताके देनेपर ही उसे लेना चाहिये। बिना दिया हुआ धन ले जानेका उसे अधिकार नहीं है ।। ५० ।।

कुरुनन्दन! वैश्यकी एक ही वैश्यकन्या धर्मानुसार भार्या हो सकती है। दूसरी शूद्रा भी होती है, परंतु शास्त्रसे उसका समर्थन नहीं होता है || ५१ ।।

भरतश्रेष्ठ! कुन्तीकुमार! वैश्यके वैश्या और शाद्रा दोनोंके गर्भसे पुत्र हों तो उनके लिये भी धनके बँटवारेका वैसा ही नियम है || ५२ ।।

भरतभूषण नरेश! वैश्यके धनको पाँच भागोंमें विभक्त करना चाहिये। फिर वैश्या और शूद्राके पुत्रोमें उस धनका विभाजन कैसे करना चाहिये, यह बताता हूँ ।।

भरतनन्दन! उस पैतृक धनमेंसे चार भाग तो वैश्याके पुत्रको ले लेने चाहिये और पाँचवाँ अंश शूद्राके पुत्रका भाग बताया गया है ।। ५४ ।।

वह भी पिताके देनेपर ही उस धनको ले सकता है। बिना दिया हुआ धन लेनेका उसे कोई अधिकार नहीं है। तीनों वर्णोंसे उत्पन्न हुआ शूद्र सदा धन न देनेके योग्य ही होता है ।। ५५ ||

शूद्रकी एक ही अपनी जातिकी ही स्त्री भार्या होती है। दूसरी किसी प्रकार नहीं। उसके सभी पुत्र, वे सौ भाई क्यों न हों, पैतृक धनमेंसे समान भागके अधिकारी होते हैं || ५६ ।।

समस्त वर्णोके सभी पुत्रोंका, जो समान वर्णकी स्त्रीसे उत्पन्न हुए हैं, सामान्यतः पैतृक धनमें समान भाग माना गया है ।। ५७ ।।

कुन्तीनन्दन! ज्येष्ठ पुत्रका भाग भी ज्येष्ठ होता है। उसे प्रधानत:ः एक अंश अधिक मिलता है। पूर्वकालमें स्वयम्भू ब्रह्माजीने पैतृक धनके बँटवारेकी यह विधि बतायी थी ।। ५८ ।।

नरेश्वर! समान वर्णकी स्त्रियोंमें जो पुत्र उत्पन्न हुए हैं, उनमें यह दूसरी विशेषता ध्यान देने योग्य है। विवाहकी विशिष्टताके कारण उन पुत्रोंमें भी विशिष्टता आ जाती है। अर्थात्‌ पहले विवाहकी स्त्रीसे उत्पन्न हुआ पुत्र श्रेष्ठ और दूसरे विवाहकी स्त्रीसे पैदा हुआ पुत्र कनिष्ठ होता है || ५९ ।।

तुल्य वर्णवाली स्त्रियोंसे उत्पन्न हुए उन पुत्रोंमें भी जो ज्येष्ठ है, वह एक भाग ज्येष्ठांश ले सकता है। मध्यम पुत्रको मध्यम और कनिष्ठ पुत्रको कनिष्ठ भाग लेना चाहिये ।। ६० ।।

इस प्रकार सभी जातियोंमें समान वर्णकी स्त्रीसे उत्पन्न हुआ पुत्र ही श्रेष्ठ होता है। मरीचि-पुत्र महर्षि काश्यपने भी यही बात बतायी है ।। ६१ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मके अन्तर्गत पैतृक धनका विभागनामक सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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  • दार' शब्दकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है--“आद्रियन्ते त्रिवर्गार्थिभि: इति दारा'। धर्म, अर्थ और कामकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंद्वारा जिनका आदर किया जाता है, वे दारा हैं। जहाँतक भोगविषयक आदर है, वह तो सभी स्त्रियोंके साथ समान है, परंतु व्यावहारिक जगत्‌में जो पतिके द्वारा आदर प्राप्त होता है, वह वर्णक्रमसे यथायोग्य न्यूनाधिक मात्रामें ही उपलब्ध होता है। यही बात उनके पुत्रोंके सम्बन्धमें भी लागू होती है। इसीलिये उनके पुत्रोंको पैतृक धनके विषयमें कम और अधिक भाग ग्रहण करनेका अधिकार है।

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अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

अड़तालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  अड़तालीसवें अध्याय के श्लोक 1-50 का हिन्दी अनुवाद)

“वर्णसंकर संतानोंकी उत्पत्तिका विस्तारसे वर्णन”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! धन पाकर या धनके लोभमें आकर अथवा कामनाके वशीभूत होकर जब उच्च वर्णकी स्त्री नीच वर्णके पुरुषके साथ सम्बन्ध स्थापित कर लेती है तब वर्णसंकर संतान उत्पन्न होती है। वर्णोका निश्चय अथवा ज्ञान न होनेसे भी वर्णसंकरकी उत्पत्ति होती है। इस रीतिसे जो वर्णोके मिश्रणद्वारा उत्पन्न हुए मनुष्य हैं, उनका क्या धर्म है? और कौन-कौन-से कर्म हैं? यह मुझे बताइये || १-२ ।।

भीष्मजीने कहा--बेटा! पूर्वकालमें प्रजापतिने यज्ञके लिये केवल चार वर्णों और उनके पृथक्‌-पृथक्‌ कर्मोंकी ही रचना की थी ।। ३ ।।

ब्राह्मणकी जो चार भार्याएँ बतायी गयी हैं, उनमेंसे दो स्त्रियों--ब्राह्मणी और क्षत्रियाके गर्भसे ब्राह्मण ही उत्पन्न होता है और शेष दो वैश्या और शाद्वा स्त्रियोंके गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न होते हैं, वे ब्राह्मणत्वसे हीन क्रमश: माताकी जातिके समझे जाते हैं || ४ ।।

शूद्राके गर्भसे उत्पन्न हुआ ब्राह्मणका ही जो पुत्र है, वह शवसे अर्थात्‌ शूद्रसे पर-उत्कृष्ट बताया गया है; इसीलिये ऋषिगण उसे पारशव कहते हैं। उसे अपने कुलकी सेवा करनी चाहिये और अपने इस सेवारूप आचारका कभी परित्याग नहीं करना चाहिये ।। ५ ।।

शूद्रापुत्र सभी उपायोंका विचार करके अपनी कुल-परम्पराका उद्धार करे। वह अवस्थामें ज्येष्ठ होनेपर भी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यकी अपेक्षा छोटा ही समझा जाता है, अतः उसे त्रैवर्णिकोंकी सेवा करते हुए दानपरायण होना चाहिये ।। ६ ।।

क्षत्रियकी क्षत्रिया, वैश्या और शूद्रा--ये तीन भार्याएँ होती हैं। इनमेंसे क्षत्रिया और वैश्याके गर्भसे क्षत्रियके सम्पर्कसे जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह क्षत्रिय ही होता है। तीसरी शूद्राके गर्भसे हीन वर्णवाले शूद्र ही उत्पन्न होते हैं; जिनकी उग्र संज्ञा है। ऐसा धर्मशास्त्रका कथन है ।। ७ ।।

वैश्यकी दो भार्याएँ होती हैं--वैश्या और शूद्रा। उन दोनोंके गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह वैश्य ही होता है। शूद्रकी एक ही भार्या होती है शूद्रा, जो शूद्रको ही जन्म देती है ।। ८ ।।

अतः वर्णोमें नीचे दर्जेका शूद्र यदि गुरुजनों--ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंकी स्त्रियोंके साथ समागम करता है तो वह चारों वर्णोद्वारा निन्दित वर्णबहिष्कृत (चाण्डाल आदि) को जन्म देता है || ९ ।।

क्षत्रिय ब्राह्मगीके साथ समागम करनेपर उसके गर्भसे 'सूत” जातिका पुत्र उत्पन्न करता है, जो वर्णबहिष्कृत और स्तुति-कर्म करनेवाला (एवं रथीका काम करनेवाला) होता है। उसी प्रकार वैश्य यदि ब्राह्मणीके साथ समागम करे तो वह संस्कारभ्रष्ट 'वैदेहक' जातिवाले पुत्रको उत्पन्न करता है, जिससे अन्तःपुरकी रक्षा आदिका काम लिया जाता है और इसीलिये जिसको “मौद्गल्य' भी कहते हैं || १० ।।

इसी तरह शाूद्र ब्राह्णीके साथ समागम करके अत्यन्त भयंकर चाण्डालको जन्म देता है, जो गाँवके बाहर बसता है और वध्यपुरुषोंको प्राणदण्ड आदि देनेका काम करता है। प्रभो! बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर! ब्राह्मणीके साथ नीच पुरुषोंका संसर्ग होनेपर ये सभी कुलांगार पुत्र उत्पन्न होते हैं और वर्णसंकर कहलाते हैं || ११ ।।

वैश्यके द्वारा क्षत्रिय जातिकी स्त्रीके गर्भसे उत्पन्न होनेवाला पुत्र वन्दी और मागध कहलाता है। वह लोगोंकी प्रशंसा करके अपनी जीविका चलाता है। इसी प्रकार यदि शूद्र क्षत्रिय जातिकी स्त्रीके साथ प्रतिलेम समागम करता है तो उससे मछली मारनेवाले निषाद जातिकी उत्पत्ति होती है ।। १२ ।।

और शाद्र यदि वैश्य जातिकी स्त्रीके साथ ग्राम्यधर्म (मैथुन) का आश्रय लेता है तो उससे '“आयोगव' जातिका पुत्र उत्पन्न होता है जो बढ़ईका काम करके अपने कमाये हुए धनसे जीवन निर्वाह करता है। ब्राह्मणोंको उससे दान नहीं लेना चाहिये ।। १३ ।।

ये वर्णसंकर भी जब अपनी ही जातिकी स्त्रीके साथ समागम करते हैं, तब अपने ही समान वर्णवाले पुत्रोंको जन्म देते हैं और जब अपनेसे हीन जातिकी स्त्रीसे संसर्ग करते हैं, तब नीच संतानोंकी उत्पत्ति होती है। ये संतानें अपनी माताकी जातिकी समझी जाती हैं ।। १४ ।।

जैसे चार वर्णोमेंसे अपने और अपनेसे एक वर्ण नीचेकी स्त्रियोंसे जो पुत्र उत्पन्न किया जाता है, वह अपने ही वर्णका माना जाता है और एक वर्णका व्यवधान देकर नीचेके वर्णोकी स्त्रियोंसे उत्पन्न किये जानेवाले पुत्र प्रधान वर्णसे बाह्म--माताकी जातिवाले होते हैं, उसी प्रकार ये नौ--अम्बष्ठ, पारशव, उग्र, सूत, वैदेहक, चाण्डाल, मागध, निषाद और आयोगव--अपनी जातिमें और अपने-से नीचेवाली जातिमें जब संतान उत्पन्न करते हैं, तब वह संतान पिताकी ही जातिवाली होती है और जब एक जातिका अन्तर देकर नीचेकी जातियोंमें संतान उत्पन्न करते हैं, तब वे संतानें पिताकी जातिसे हीन माताओंकी जातिवाली होती हैं || १५ ।।

इस प्रकार वर्णसंकर मनुष्य भी समान जातिकी स्त्रियोंमें अपने ही समान वर्णवाले पुत्रोंकी उत्पत्ति करते हैं और यदि परस्पर विभिन्न जातिकी स्त्रियोंसे उनका संसर्ग होता है तो वे अपनी अपेक्षा भी निन्दनीय संतानोंको ही जन्म देते हैं ।। १६ ।।

जैसे शूट्र ब्राह्मणीके गर्भसे चाण्डाल नामक बाहा (वर्ण-बहिष्कृत) पुत्र उत्पन्न करता है, उसी प्रकार उस बाह्य जातिका मनुष्य भी ब्राह्मण आदि चारों वर्णोकी एवं बाह्मतर जातिकी स्त्रियोंके साथ संसर्ग करके अपनी अपेक्षा भी नीच जातिवाला पुत्र पैदा करता है || १७ ।।

इस तरह बाह्य और बाह्मृतर जातिकी स्ट्रियोंसे समागम करनेपर प्रतिलोम वर्णसंकरोंकी सृष्टि बढ़ती जाती है। क्रमश: हीन-से-हीन जातिके बालक जन्म लेने लगते हैं। इन संकर जातियोंकी संख्या सामान्यतः: पंद्रह है ।।

अगम्या स्त्रीके साथ समागम करनेपर वर्णसंकर संतानकी उत्पत्ति होती है। मागध जातिकी सैरन्ध्री स्त्रियोंसे यदि बाह्मजातीय पुरुषोंका संसर्ग हो तो उससे जो पुत्र उत्पन्न होता है वह राजा आदि पुरुषोंके शृंगार करने तथा उनके शरीरमें अंगराग लगाने आदिकी सेवाओंका जानकार होता है और दास न होकर भी दासवृत्तिसे जीवन निर्वाह करनेवाला होता है ।। १९ ।।

मागधोंके आवान्तर भेद सैरन्ध्र जातिकी स्त्रीसे यदि आयोगव जातिका पुरुष समागम करे तो वह आयोगव जातिका पुत्र उत्पन्न करता है, जो जंगलोंमें जाल बिछाकर पशुओंको फँसानेका काम करके जीवन निर्वाह करता है। उसी जातिकी स्त्रीके साथ यदि वैदेह जातिका पुरुष समागम करता है तो वह मदिरा बनानेवाले मैरेयक जातिके पुत्रको जन्म देता है ।। २० ।।

निषादके वीर्य और मागधसैरन्ध्रीके गर्भसे मदगुर जातिका पुरुष उत्पन्न होता है, जिसका दूसरा नाम दास भी है। वह नावसे अपनी जीविका चलाता है। चाण्डाल और मागधी सैरन्ध्रीके संयोगसे श्वपाक नामसे प्रसिद्ध अधम चाण्डालकी उत्पत्ति होती है। वह मुर्दोकी रखवालीका काम करता है || २१ ।।

इस प्रकार मागध जातिकी सैरन्ध्री स्‍त्री आयोगव आदि चार जातियोंसे समागम करके मायासे जीविका चलानेवाले पूर्वोक्त चार प्रकारके क्रूर पुत्रोंको उत्पन्न करती है। इनके सिवा दूसरे भी चार प्रकारके पुत्र मागधी सैरन्ध्रीसे उत्पन्न होते हैं जो उसके सजातीय अर्थात्‌ मागध-सैरन्ध्रसे ही उत्पन्न होते हैं। उनकी मांस, स्वादुकर, क्षौद्र और सौगन्ध--इन चार नामोंसे प्रसिद्धि होती है ।।

आयोगव जातिकी पापिष्ठा स्त्री वैदेह जातिके पुरुषसे समागम करके अत्यन्त क्र्र, मायाजीवी पुत्र उत्पन्न करती है। वही निषादके संयोगसे मद्रनाभ नामक जातिको जन्म देती है, जो गदहेकी सवारी करनेवाली होती है || २३ ।।

वही पापिष्ठा स्त्री जब चाण्डालसे समागम करती है तब पुल्कस जातिको जन्म देती है। पुल्कस गधे, घोड़े और हाथीके मांस खाते हैं। वे मुर्दोपर चढ़े हुए कफन लेकर पहनते और फूटे बर्तनमें भोजन करते हैं ।।

इस प्रकार ये तीन नीच जातिके मनुष्य आयोगवीकी संतानें हैं। निघाद जातिकी स्त्रीका यदि वैदेहक जातिके पुरुषसे संसर्ग हो तो क्षुद्र, अन्ध्र और कारावर नामक जातिवाले पुत्रोंकी उत्पत्ति होती है। इनमेंसे क्षुद्र और अन्ध्र तो गाँवसे बाहर रहते हैं और जंगली पशुओंकी हिंसा करके जीविका चलाते हैं तथा कारावर मृत पशुओंके चमड़ेका कारबार करता है। इसलिये चर्मकार या चमार कहलाता है ।। २५३ ।।

चाण्डाल पुरुष और निषाद जातिकी स्त्रीके संयोगसे पाण्डुसौपाक जातिका जन्म होता है। यह जाति बाँसकी डलिया आदि बनाकर जीविका चलाती है। वैदेह जातिकी सत्रीके साथ निषादका सम्पर्क होनेपर आहिण्डकका जन्म होता है, किंतु वही स्त्री जब चाण्डालके साथ सम्पर्क करती है तब उससे सौपाककी उत्पत्ति होती है। सौपाककी जीविका-वृत्ति चाण्डालके ही तुल्य है ।। २६-२७ ।।

निषाद जातिकी स्त्रीमें चाण्डालके वीर्यसे अन्तेवसायीका जन्म होता है। इस जातिके लोग सदा श्मशानमें ही रहते हैं। निषाद आदि बाह्मजातिके लोग भी उसे बहिष्कृत या अछूत समझते हैं || २८ ।।

इस प्रकार माता-पिताके व्यतिक्रम (वर्णान्तरके संयोग)-से ये वर्णसंकर जातियाँ उत्पन्न होती हैं। इनमेंसे कुछकी जातियाँ तो प्रकट होती हैं और कुछकी गुप्त। इन्हें इनके कर्मोसे ही पहचानना चाहिये ।। २९ ।।

शास्त्रोंमें चारों वर्णोके धर्मोका निश्चय किया गया है औरोंके नहीं। धर्महीन वर्णसंकर जातियोंमेंसे किसीके वर्णसम्बन्धी भेद और उपभेदोंकी भी यहाँ कोई नियत संख्या नहीं है || ३० ।।

जो जातिका विचार न करके स्वेच्छानुसार अन्य वर्णकी स्त्रियोंक साथ समागम करते हैं तथा जो यज्ञोंक अधिकार और साधु पुरुषोंसे बहिष्कृत हैं, ऐसे वर्णबाहा मनुष्योंसे ही वर्णसंकर संतानें उत्पन्न होती हैं और वे अपनी रुचिके अनुकूल कार्य करके भिन्न-भिन्न प्रकारकी आजीविका तथा आश्रयको अपनाती हैं ।। ३१ ।।

ऐसे लोग सदा लोहेके आभूषण पहनकर चौराहोंमें, मरघटमें, पहाड़ोंपर और वृक्षोंके नीचे निवास करते हैं || ३२ ।।

इन्हें चाहिये कि गहने तथा अन्य उपकरणोंको बनायें तथा अपने उद्योग-धंधोंसे जीविका चलाते हुए प्रकटरूपसे निवास करें ।। ३३ ।।

पुरुषसिंह! यदि ये गौ और ब्राह्मणोंकी सहायता करें, क्रूरतापूर्ण कर्मको त्याग दें, सबपर दया करें, सत्य बोलें, दूसरोंके अपराध क्षमा करें और अपने शरीरको कष्टमें डालकर भी दूसरोंकी रक्षा करें तो इन वर्णसंकर मनुष्योंकी भी पारमार्थिक उन्नति हो सकती है-इसमें संशय नहीं है || ३४-३५ ।।

राजन्‌! जैसा ऋषि-मुनियोंने उपदेश किया है, उसके अनुसार बतायी हुई वर्ण एवं बाह्मजातिकी स्त्रियोंमें बुद्धिमान मनुष्यको अपने हिताहितका भलीभाँति विचार करके ही संतान उत्पन्न करनी चाहिये; क्योंकि नीच योनिमें उत्पन्न हुआ पुत्र भवसागरसे पार जानेकी इच्छावाले पिताको उसी प्रकार डुबोता है, जैसे गलेमें बँधा हुआ पत्थर तैरनेवाले मनुष्यको पानीके अतलगर्तमें निमग्न कर देता है || ३६ ।।

संसारमें कोई मूर्ख हो या विद्वान, काम और क्रोधके वशीभूत हुए मनुष्यको नारियाँ अवश्य ही कुमार्गपर पहुँचा देती हैं || ३७ ।।

इस जगतमें मनुष्योंको कलंकित कर देना नारियोंका स्वभाव है; अतः विवेकी पुरुष युवती स्त्रियोंमें अधिक आसक्त नहीं होते हैं || ३८ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! जो चारों वर्णोंसे बहिष्कृत, वर्णसंकर मनुष्यसे उत्पन्न और अनार्य होकर भी ऊपरसे देखनेमें आर्य-सा प्रतीत हो रहा हो उसे हमलोग कैसे पहचान सकते हैं? । ३९ |।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! जो कलुषित योनिमें उत्पन्न हुआ है, वह ऐसी नाना प्रकारकी चेष्टाओंसे युक्त होता है, जो सत्पुरुषोंके आचारसे विपरीत हैं; अतः उसके कर्मोंसे ही उसकी पहचान होती है। इसी प्रकार सज्जनोचित आचरणोंसे योनिकी शुद्धताका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये || ४० ।।

इस जगत्‌में अनार्यता, अनाचार, क्रूरता और अकर्मण्यता आदि दोष मनुष्यको कलुषित योनिसे उत्पन्न (वर्णसंकर) सिद्ध करते हैं ।। ४१ ।।

वर्णसंकर पुरुष अपने पिता या माताके अथवा दोनोंके ही स्वभावका अनुसरण करता है। वह किसी तरह अपनी प्रकृतिको छिपा नहीं सकता ।। ४२ ।।

जैसे बाघ अपनी चित्र-विचित्र खाल और रूपके द्वारा माता-पिताके समान ही होता है, उसी प्रकार मनुष्य भी अपनी योनिका ही अनुसरण करता है ।। ४३ ।।

यद्यपि कुल और वीर्य गुप्त रहते हैं अर्थात्‌ कौन किस कुलमें और किसके वीर्यसे उत्पन्न हुआ है, यह बात ऊपरसे प्रकट नहीं होती है तो भी जिसका जन्म संकर-योनिसे हुआ है, वह मनुष्य थोड़ा-बहुत अपने पिताके स्वभावका आश्रय लेता ही है ।। ४४ ।।

जो कृत्रिम मार्गका आश्रय लेकर श्रेष्ठ पुरुषोंक अनुरूप आचरण करता है, वह सोना है या काँच--शुद्ध वर्णका है या संकर वर्णका? इसका निश्चय करते समय उसका स्वभाव ही सब कुछ बता देता है || ४५ ।।

संसारके प्राणी नाना प्रकारके आचार-व्यवहारमें लगे हुए हैं, भाँति-भाँतिके कर्मामें तत्पर हैं; अतः आचरणके सिवा ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो जन्मके रहस्यको साफ तौरपर प्रकट कर सके ।। ४६ ।।

वर्णसंकरको शास्त्रीय बुद्धि प्राप्त हो जाय तो भी वह उसके शरीरको स्वभावसे नहीं हटा सकती। उत्तम, मध्यम या निकृष्ट जिस प्रकारके स्वभावसे उसके शरीरका निर्माण हुआ है, वैसा ही स्वभाव उसे आनन्ददायक जान पड़ता है || ४७ ।।

ऊँची जातिका मनुष्य भी यदि उत्तम शील अर्थात्‌ आचरणसे हीन हो तो उसका सत्कार न करे और शूद्र भी यदि धर्मज्ञ एवं सदाचारी हो तो उसका विशेष आदर करना चाहिये ।। ४८ ।।

मनुष्य अपने शुभाशुभ कर्म, शील, आचरण और कुलके द्वारा अपना परिचय देता है। यदि उसका कुल नष्ट हो गया हो तो भी वह अपने कर्मोद्वारा उसे फिर शीघ्र ही प्रकाशमें ला देता है | ४९ ।।

इन सभी ऊपर बतायी हुई नीच योनियोंमें तथा अन्य नीच जातियोंमें भी विद्धान्‌ पुरुषको संतानोत्पत्ति नहीं करनी चाहिये। उनका सर्वथा परित्याग करना ही उचित है || ५० ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मके प्रसंगमें वर्णयंकरकी उत्पत्तिका वर्णणविषयक अड़तालीस अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

उनचासवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  उनचासवें अध्याय के श्लोक 1-28 का हिन्दी अनुवाद)

“नाना प्रकारके पुत्रोंका वर्णन”

युधिष्ठिरने पूछा--तात! कुरुश्रेष्ठी] आप वर्णोके सम्बन्धमें पृथक्‌ू-पृथक्‌ यह बताइये कि कैसी स्त्रीके गर्भसे कैसे पुत्र उत्पन्न होते हैं? और कौन-से पुत्र किसके होते हैं? ।। १ ।।

पुत्रोंके निमित्त बहुत-सी विभिन्न बातें सुनी जाती हैं। राजन! इस विषयमें हम मोहित होनेके कारण कुछ निश्चय नहीं कर पाते; अतः आप हमारे इस संशयका निवारण करें ।। २ ।॥।

भीष्मने कहा--जहाँ पति-पत्नीके संयोगमें किसी तीसरेका व्यवधान नहीं है अर्थात्‌ जो पतिके वीर्यसे ही उत्पन्न हुआ है, उस 'अनन्तरज'” अर्थात्‌ 'औरस' पुत्रको अपना आत्मा ही समझना चाहिये। दूसरा पुत्र “निरुक्तज” होता है। तीसरा “प्रसृतज” होता है (निरुक्तज और प्रसृतज दोनों क्षेत्रजके ही दो भेद हैं) ।। ३ ।।

पतित पुरुषका अपनी स्त्रीके गर्भसे स्वयं ही उत्पन्न किया हुआ पुत्र चौथी श्रेणीका पुत्र है। इसके सिवा “दत्तक' और “क्रीत' पुत्र भी होते हैं। ये कुल मिलाकर छः हुए। सातवाँ है “अध्यूढ” पुत्र (जो कुमारी-अवस्थामें ही माताके पेटमें आ गया और विवाह करनेवालेके घरमें आकर जिसका जन्म हुआ) ।।

आठवाँ 'कानीन' पुत्र होता है। इनके अतिरिक्त छः “अपध्वंसज” (अनुलोम) पुत्र होते हैं तथा छ: “अपसद' (प्रतिलोम) पुत्र होते हैं। इस तरह इन सबकी संख्या बीस हो जाती है। भारत! इस प्रकार ये पुत्रोंक भेद बताये गये। तुम्हें इन सबको पुत्र ही जानना चाहिये ।। ५ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--दादाजी! छ: प्रकारके अपध्वंसज पुत्र कौन-से हैं तथा अपसद किन्हें कहा गया है? यह सब आप मुझे यथार्थरूपसे बताइये ।। ६ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्िर! ब्राह्मणके क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र--इन तीन वर्णोकी स्त्रियोंसे जो पुत्र उत्पन्न होते हैं वे तीन प्रकारके अपध्वंसज कहे गये हैं। भारत! क्षत्रियके वैश्य और शूद्र जातिकी स्त्रियोंसे जो पुत्र होते हैं वे दो प्रकारके अपध्वंसज हैं, तथा वैश्यके शूद्र-जातिकी स्त्रीसे जो पुत्र होता है वह भी एक अपध्वंसज है। इन सबका इसी प्रकरणमें दिग्दर्शन कराया गया है। इस प्रकार ये छ: अपध्वंसज अर्थात्‌ अनुलोम पुत्र कहे गये हैं। अब 'अपसद अर्थात्‌ प्रतिलोम' पुत्रोंका वर्णन सुनो || ७-८ ।।

ब्राह्मणी, क्षत्रिया तथा वैश्या--इन वर्णकी स्त्रियोंके गर्भसे शूद्रद्वारा जो पुत्र उत्पन्न किये जाते हैं, वे क्रमश: चाण्डाल, व्रात्य और वैद्य कहलाते हैं। ये अपसदोंके तीन भेद हैं ।। ९ ।।

ब्राह्मणी और क्षत्रियाके गर्भसे वैश्यद्वारा जो पुत्र उत्पन्न किये जाते हैं, वे क्रमश: मागध और वामक नामवाले दो प्रकारके अपसद देखे गये हैं। क्षत्रियके एक ही वैसा पुत्र देखा जाता है, जो ब्राह्मणीसे उत्पन्न होता है। उसकी सूत संज्ञा है। ये छः अपसद अर्थात्‌ प्रतिलोम पुत्र माने गये हैं। नरेश्वर! इन पुत्रोंको मिथ्या नहीं बताया जा सकता ।। १०-११ ।

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! कुछ लोग अपनी पत्नीके गर्भसे उत्पन्न हुए किसी भी प्रकारके पुत्रको अपना ही पुत्र मानते हैं और कुछ लोग अपने वीर्यसे उत्पन्न हुए पुत्रको ही सगा पुत्र समझते हैं क्या ये दोनों समान कोटिके पुत्र हैं? इनपर किसका अधिकार है? इन्हें जन्म देनेवाली स्त्रीके पतिका या गर्भाधान करनेवाले पुरुषका? यह मुझे बताइये ।। १२ 

भीष्मजीने कहा--राजन! अपने वीर्यसे उत्पन्न हुआ पुत्र तो सगा पुत्र है ही, क्षेत्रज पुत्र भी यदि गर्भस्थापन करनेवाले पिताके द्वारा छोड़ दिया गया हो तो वह अपना ही होता है। यही बात समय-भेदन करके अध्यूढ पुत्रके विषयमें भी समझनी चाहिये। तात्पर्य यह कि वीर्य डालनेवाले पुरुषने यदि अपना स्वत्व हटा लिया हो तब तो वे क्षेत्रज और अध्यूढ पुत्र क्षेत्रपतिके ही माने जाते हैं। अन्यथा उनपर वीर्यदाताका ही स्वत्व है ।। १३ ।।

युधिष्ठटिरने पूछा--दादाजी! हम तो वीर्यसे उत्पन्न होनेवाले पुत्रको ही पुत्र समझते हैं। वीर्यके बिना क्षेत्रज पुत्रका आगमन कैसे हो सकता है? तथा अध्यूढको हम किस प्रकार समय-भेदन करके पुत्र समझें? ।। १४ ।।

भीष्मजीने कहा--बेटा! जो लोग अपने वीर्यसे पुत्र उत्पन्न करके अन्यान्य कारणोंसे उसका परित्याग कर देते हैं, उनका उसपर केवल वीर्यस्थापनके कारण अधिकार नहीं रह जाता। वह पुत्र उस क्षेत्रके स्वामीका हो जाता है || १५ ।।

प्रजानाथ! पुत्रकी इच्छा रखनेवाला पुरुष पुत्रके लिये ही जिस गर्भवती कन्याको भायर्पसे ग्रहण करता है, उसका क्षेत्रज पुत्र उस विवाह करनेवाले पतिका ही माना जाता है। वहाँ गर्भ-स्थापन करनेवालेका अधिकार नहीं रह जाता है ।। १६ ।।

भरतश्रेष्ठ! दूसरेके क्षेत्रमें उत्पन्न हुआ पुत्र विभिन्न लक्षणोंसे लक्षित हो जाता है कि किसका पुत्र है। कोई भी अपनी असलियतको छिपा नहीं सकता, वह स्वतः प्रत्यक्ष हो जाती है || १७ ।।

भरतनन्दन! कहीं-कहीं कृत्रिम पुत्र भी देखा जाता है। वह ग्रहण करने या अपना मान लेने मात्रसे ही अपना हो जाता है। वहाँ वीर्य या क्षेत्र कोई भी उसके पुत्रत्व-निश्चयमें कारण होता दिखायी नहीं देता ।।

युधिष्ठिरने पूछा--भारत! जहाँ वीर्य या क्षेत्र पुत्रत्वके निश्चयमें प्रमाण नहीं देखा जाता, जो संग्रह करने मात्रसे ही अपने पुत्रके रूपमें दिखायी देने लगता है वह कृत्रिम पुत्र कैसा होता है? ।। १९ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! माता-पिताने जिसे रास्तेपर त्याग दिया हो और पता लगानेपर भी जिसके माता-पिताका ज्ञान न हो सके, उस बालकका जो पालन करता है, उसीका वह कृत्रिम पुत्र माना जाता है || २० ।।

वर्तमान समयमें जो उस अनाथ बच्चेका स्वामी दिखायी देता है और उसका पालनपोषण करता है, उसका जो वर्ण है, वही उस बच्चेका भी वर्ण हो जाता है ।। २१ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! ऐसे बालकका संस्कार कैसे और किस जातिके अनुसार करना चाहिये? तथा वास्तवमें वह किस वर्णका है, यह कैसे जाना जाय? एवं किस तरह और किस जातिकी कन्याके साथ उसका विवाह करना चाहिये? यह मुझे बताइये ।। २२ 

भीष्मजीने कहा--बेटा! जिसको माता-पिताने त्याग दिया है, वह अपने स्वामी (पालक) पिताके वर्णको प्राप्त होता है। इसलिये उसके पालन करनेवालेको चाहिये कि वह अपने ही वर्णके अनुसार उसका संस्कार करे ।। २३ ।।

धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले युधिष्ठिर! पालक पिताके सगोत्र बन्धुओंका जैसा संस्कार होता हो वैसा ही उसका भी करना चाहिये, तथा उसी वर्णकी कन्याके साथ उसका विवाह भी कर देना चाहिये ।। २४ ।।

बेटा! यदि उसकी माताके वर्ण और गोत्रका निश्चय हो जाय तो उस बालकका संस्कार करनेके लिये माताके ही वर्ण और गोत्रको ग्रहण करना चाहिये। कानीन और अध्यूढज--ये दोनों प्रकारके पुत्र निकृष्ट श्रेणीके ही समझे जाने योग्य हैं || २५ ।।

इन दोनों प्रकारके पुत्रोंका भी अपने ही समान संस्कार करे--ऐसा शास्त्रका निश्चय है। ब्राह्मण आदिको चाहिये कि वे क्षेत्रज, अपसद तथा अध्यूढ--इन सभी प्रकारके पुत्रोंका अपने ही समान संस्कार करें। वर्णोके संस्कारके सम्बन्धमें धर्मशास्त्रोंका ऐसा ही निश्चय देखा जाता है। इस प्रकार मैंने ये सारी बातें तुम्हे बतायीं। अब और क्या सुनना चाहते हो? ।। २६--२८ ।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मके प्रसंगमें पुत्रप्रतिनिधिकथनविषयक उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ४९ ॥

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

पचासवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  पचासवें अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)

“गौओंकी महिमाके प्रसंगमें च्यवन मुनिके उपाख्यानका आरम्भ, मुनिका मत्स्योंके साथ जालमें फँसकर जलसे बाहर आना”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! किसीको देखने और उसके साथ रहनेपर कैसा स्नेह होता है? तथा गौओंका माहात्म्य क्या है? यह मुझे विस्तारपूर्वक बतानेकी कृपा करें ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--महातेजस्वी नरेश! इस विषयमें मैं तुमसे महर्षि च्यवन और नहुषके संवादरूप प्राचीन इतिहासका वर्णन करूँगा ।। २ ।।

भरतश्रेष्ठ! पूर्वकालकी बात है, भृगुके पुत्र महर्षि च्यवनने महान्‌ व्रतका आश्रय ले जलके भीतर रहना आरम्भ किया ।। ३ ।।

वे अभिमान, क्रोध, हर्ष और शोकका परित्याग करके दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करते हुए बारह वर्षो-तक जलके भीतर रहे ।। ४ ।।

शीतल किरणोंवाले चन्द्रमाके समान उन शक्तिशाली मुनिने सम्पूर्ण प्राणियों, विशेषतः सारे जलचर जीवोंपर अपना परम मंगलकारी पूर्ण विश्वास जमा लिया था ।। ५ ।।

एक समय वे देवताओंको प्रणामकर अत्यन्त पवित्र होकर गंगा-यमुनाके संगममें जलके भीतर प्रविष्ट हुए और वहाँ काष्ठकी भाँति स्थिर भावसे बैठ गये ।। ६ ।।

गंगा-यमुनाका वेग बड़ा भयंकर था। उससे भीषण गर्जना हो रही थी। वह वेग वायुवेगकी भाँति दुःसह था तो भी वे मुनि अपने मस्तकपर उसका आघात सहने लगे || ७ |।

परंतु गंगा-यमुना आदि नदियाँ और सरोवर ऋषिकी केवल परिक्रमा करते थे, उन्हें वष्ट नहीं पहुँचाते थे ।। ८ ।।

भरतश्रेष्ठ! वे बुद्धिमान्‌ महामुनि कभी पानीमें काठकी भाँति सो जाते और कभी उसके ऊपर खड़े हो जाते थे | ९ ।।

वे जलचर जीवोंके बड़े प्रिय हो गये थे। जल-जन्तु प्रसन्नचित्त होकर उनका ओठ सूँघा करते थे ।।

महातेजस्वी नरेश! इस तरह उन्हें पानीमें रहते बहुत दिन बीत गये। तदनन्तर एक समय मछलियोंसे जीविका चलानेवाले बहुत-से मल्‍लाह मछली पकड़नेका निश्चय करके जाल हाथमें लिये हुए उस स्थानपर आये ।।

वे मल्लाह बड़े परिश्रमी, बलवान, शौर्यसम्पन्न और पानीसे कभी पीछे न हटनेवाले थे। वे जाल बिछानेका दृढ़ निश्चय करके उस स्थानपर आये थे ।। १३ ।।

भरतवंशशिरोमणि नरेश! उस समय जहाँ मछलियाँ रहती थीं, उतने गहरे जलमें जाकर उन्होंने अपने जालको पूर्णरूपसे फैला दिया || १४ ।।

मछली प्राप्त करनेकी इच्छावाले केवटोंने बहुत-से उपाय करके गंगा-यमुनाके जलको जालोंसे आच्छादित कर दिया ।। १५ ।।

उनका वह जाल नये सूतका बना हुआ और विशाल था तथा उसकी लंबाई-चौड़ाई भी बहुत थी एवं वह अच्छी तरहसे बनाया हुआ और मजबूत था। उसीको उन्होंने वहाँ जलपर बिछाया था। थोड़ी देर बाद वे सभी मल्लाह निडर होकर पानीमें उतर गये। वे सभी प्रसन्न और एक-दूसरेके अधीन रहनेवाले थे। उन सबने मिलकर जालको खींचना आरम्भ किया। उस जालमें उन्होंने मछलियोंके साथ ही दूसरे जल-जन्तुओंको भी बाँध लिया था ।। १६-१८ ||

महाराज! जाल खींचते समय मल्लाहोंने दैवेच्छासे उस जालके द्वारा मत्स्योंसे घिरे हुए भुगुके पुत्र महर्षि च्यवनको भी खींच लिया ।। १९ ।।

उनका सारा शरीर नदीके सेवारसे लिपटा हुआ था। उनकी मूँछ-दाढ़ी और जटाएँ हरे रंगकी हो गयी थीं और उनके अंगोंमें शंख आदि जलचरोंके नख लगनेसे चित्र बन गया था। ऐसा जान पड़ता था मानो उनके अंगोंमें शूकरके विचित्र रोम लग गये हों ।। २० ।।

वेदोंके पारंगत उन विद्वान महर्षिको जालके साथ खिंचा देख सभी मल्लाह हाथ जोड़ मस्तक झुका पृथ्वीपर पड़ गये || २१ ।।

उधर जालके आकर्षणसे अत्यन्त खेद, त्रास और स्थलका संस्पर्श होनेके कारण बहुत-से मत्स्य मर गये। मुनिने जब मत्स्योंका यह संहार देखा, तब उन्हें बड़ी दया आयी और वे बारंबार लंबी साँस खींचने लगे || २२-२३ ।।

यह देख निषाद बोले--महामुने! हमने अनजानमें जो पाप किया है, उसके लिये हमें क्षमा कर दें और हमपर प्रसन्न हों। साथ ही यह भी बतावें कि हमलोग आपका कौन-सा प्रिय कार्य करें? ।। २४ ।।

मल्लाहोंके ऐसा कहनेपर मछलियोंके बीचमें बैठे हुए महर्षि च्यवनने कहा --“मल्लाहो! इस समय जो मेरी सबसे बड़ी इच्छा है, उसे ध्यान देकर सुनो || २५ ।।

“मैं इन मछलियोंके साथ ही अपने प्राणोंका त्याग या रक्षण करूँगा। ये मेरे सहवासी रहे हैं। मैं बहुत दिनोंतक इनके साथ जलमें रह चुका हूँ; अतः मैं इन्हें त्याग नहीं सकता” ।। २६ ||

मुनिकी यह बात सुनकर निषादोंको बड़ा भय हुआ। वे थर-थर काँपने लगे। उन सबके मुखका रंग फीका पड़ गया और उसी अवस्थामें राजा नहुषके पास जाकर उन्होंने यह सारा समाचार निवेदन किया ।। २७ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें च्यवनमुनिका उपाख्यानविषयक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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