सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के इकतालीसवें अध्याय से पैंतालीसवें अध्याय तक (From the 41 chapter to the 45 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

इकतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  इकतालीसवें अध्याय के श्लोक 1-36 का हिन्दी अनुवाद)

“विपुलका देवराज इन्द्रसे गुरुपत्नीको बचाना और गुरुसे वरदान प्राप्त करना”

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर किसी समय देवराज इन्द्र यही ऋषिपत्नी रुचिको प्राप्त करनेका अच्छा अवसर है--ऐसा सोचकर दिव्य रूप एवं शरीर धारण किये उस आश्रममें आये ।। १ ।।

नरेश्वर! वहाँ इन्द्रने अनुपम लुभावना रूप धारण करके अत्यन्त दर्शनीय होकर उस आश्रममें प्रवेश किया || २ ।।

वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि विपुलका शरीर चित्रलिखितकी भाँति निश्रेष्ट पड़ा है और उनके नेत्र स्थिर हैं ।। ३ ।।

दूसरी ओर स्थूल नितम्ब एवं पीन पयोधरोंसे सुशोभित, विकसित कमलदलके समान विशाल नेत्र एवं मनोहर कटाक्षवाली पूर्णचन्द्रानना रुचि बैठी हुई दिखायी दी ।। ४ ।।

इन्द्रको देखकर वह सहसा उनकी अगवानीके लिये उठनेकी इच्छा करने लगी। उनका सुन्दर रूप देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ था, मानो वह उनसे पूछना चाहती थी कि आप कौन हैं? ।। ५ ।।

नरेन्द्र! उसने ज्यों ही उठनेका विचार किया त्यों ही विपुलने उसके शरीरको स्तब्ध कर दिया। उनके काबूमें आ जानेके कारण वह हिल भी न सकी ।। ६ |।

तब देवराज इन्द्रने बड़ी मधुर वाणीमें उसे समझाते हुए कहा--'पवित्र मुसकानवाली देवि! मुझे देवताओंका राजा इन्द्र समझो! मैं तुम्हारे लिये ही यहाँतक आया हूँ ।। ७ ।।

“तुम्हारा चिन्तन करनेसे मेरे हृदयमें जो काम उत्पन्न हुआ है वह मुझे बड़ा कष्ट दे रहा है। इसीसे मैं तुम्हारे निकट उपस्थित हुआ हूँ। सुन्दरी! अब देर न करो, समय बीता जा रहा है! | ८ ।।

देवराज इन्द्रकी यह बात गुरुपत्नीके शरीरमें बैठे हुए विपुल मुनिने भी सुनी और उन्होंने इन्द्रको देख भी लिया ।। ९ ।।

राजन! वह अनिन्द्य सुन्दरी रुचि विपुलके द्वारा स्तम्भित होनेके कारण न तो उठ सकी और न इन्द्रको कोई उत्तर ही दे सकी || १० ।।

प्रभो! गुरुपत्नीका आकार एवं चेष्टा देखकर भृगुश्रेष्ठ विपुल उसका मनोभाव ताड़ गये थे; अतः उन महा तेजस्वी मुनिने योगद्वारा उसे बलपूर्वक काबूमें रखा ।। ११ ।।

उन्होंने गुरुपत्नी रुचिकी सम्पूर्ण इन्द्रियोंको योग-सम्बन्धी बन्धनोंसे बाँध लिया था। राजन! योगबलसे मोहित हुई रुचिको काम-विकारसे शून्य देख शचीपति इन्द्र लज्जित हो गये और फिर उससे बोले--'सुन्दरी! आओ, आओ।' उनका आवाहन सुनकर वह फिर उन्हें कुछ उत्तर देनेकी इच्छा करने लगी ।। १२-१३ ।।

यह देख विपुलने गुरुपत्नीकी उस वाणीको जिसे वह कहना चाहती थी, बदल दिया। उसके मुँहले सहसा यह निकल पड़ा--'अजी! यहाँ तुम्हारे आनेका क्या प्रयोजन है?।।

उस चन्द्रोपम मुखसे जब यह संस्कृत वाणी प्रकट हुई तब वह पराधीन हुई रुचि वह वाक्य कह देनेके कारण बहुत लज्जित हुई ।। १५ ।।

वहाँ खड़े हुए इन्द्र उसकी पूर्वोक्त बात सुनकर मन-ही-मन बहुत दुःखी हुए। प्रजानाथ! उसके मनोविकार एवं भाव-परिवर्तनको लक्ष्य करके सहस्र नेत्रोंवाले देवराज इन्द्रने दिव्य दृष्टिसे उसकी ओर देखा। फिर तो उसके शरीरके भीतर विपुल मुनिपर उनकी दृष्टि पड़ी ।। १६-१७ |।

जैसे दर्पणमें प्रतिबिम्ब दिखायी देता है उसी प्रकार वे गुरुपत्नीके शरीरमें परिलक्षित हो रहे थे। प्रभो! घोर तपस्यासे युक्त विपुल मुनिको देखते ही इन्द्र शापके भयसे संत्रस्त हो थर-थर काँपने लगे ।। १८६ ।।

इसी समय महातपस्वी विपुल गुरुपत्नीको छोड़कर अपने शरीरमें आ गये और डरे हुए इन्द्रसे बोले-- ।। १९ ।।

विपुलने कहा--'पापात्मा पुरन्दर! तेरी बुद्धि बड़ी खोटी है। तू सदा इन्द्रियोंका गुलाम बना रहता है। यदि यही दशा रही तो अब देवता तथा मनुष्य अधिक कालतक तेरी पूजा नहीं करेंगे || २० ।।

इन्द्र! क्या तू उस घटनाको भूल गया? क्‍या तेरे मनमें उसकी याद नहीं रह गयी है? जब कि महर्षि गौतमने तेरे सारे शरीरमें भगके (हजार) चिह्न बनाकर तुझे जीवित छोड़ा था? | २१ |।

मैं जानता हूँ कि तू मूर्ख है, तेरा मन वशमें नहीं और तू महाचंचल है। पापी मूढ़! यह स्त्री मेरे द्वारा सुरक्षित है। तू जैसे आया है, उसी तरह लौट जा ।। २२ ।।

मूढचित्त इन्द्र! मैं अपने तेजसे तुझे जलाकर भस्म कर सकता हूँ। केवल दया करके ही तुझे इस समय जलाना नहीं चाहता ।। २३ ।।

मेरे बुद्धिमान्‌ गुरु बड़े भयंकर हैं। वे तुझ पापात्माको देखते ही आज क्रोधसे उदीप्त हुई दृष्टिद्वारा दग्ध कर डालेंगे ।। २४ ।।

इन्द्र! आजसे फिर कभी ऐसा काम न करना। तुझे ब्राह्मणोंका सम्मान करना चाहिये, अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि तुझे ब्रह्मतेजसे पीड़ित होकर पुत्रों और मन्त्रियोंसहित कालके गालमें जाना पड़े || २५ ।।

मैं अमर हूँ--ऐसी बुद्धिका आश्रय लेकर यदि तू स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त हो रहा है तो (मैं तुझे सचेत किये देता हूँ) यों किसी तपस्वीका अपमान न किया कर; क्योंकि तपस्यासे कोई भी कार्य असाध्य नहीं है (तपस्वी अमरोंको भी मार सकता है) ।। २६ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! महात्मा विपुलका वह कथन सुनकर इन्द्र बहुत लज्जित हुए और कुछ भी उत्तर न देकर वहीं अन्तर्धान हो गये ।। २७ ।।

उनके गये अभी एक ही मुहूर्त बीतने पाया था कि महा तपस्वी देवशर्मा इच्छानुसार यज्ञ पूर्ण करके अपने आश्रमपर लौट आये || २८ ।।

राजन! गुरुके आनेपर उनका प्रिय कार्य करनेवाले विपुलने अपने द्वारा सुरक्षित हुई उनकी सती-साध्वी भार्या रुचिको उन्हें सौंप दिया || २९ ।।

शान्त चित्तवाले गुरुप्रेमी विपुल गुरुदेवको प्रणाम करके पहलेकी ही भाँति निर्भीक होकर उनकी सेवामें उपस्थित हुए ।। ३० ।।

जब गुरुजी विश्राम करके अपनी पत्नीके साथ बैठे, तब विपुलने इन्द्रकी वह सारी करतूत उन्हें बतायी ।। ३१ ।।

यह सुनकर प्रतापी मुनि देवशर्मा विपुलके शील, सदाचार, तप और नियमसे बहुत संतुष्ट हुए ।। ३२ ।।

विपुलकी गुरुसेवावृत्ति, अपने प्रति भक्ति और धर्मविषयक दृढ़ता देखकर गुरुने “बहुत अच्छा, बहुत अच्छा” कहकर उनकी प्रशंसा की || ३३ ।।

परम बुद्धिमान्‌ धर्मात्मा देवशर्माने अपने धर्म-परायण शिष्य विपुलको पाकर उन्हें इच्छानुसार वर माँगनेको कहा ।। ३४ ।।

गुरुवत्सल विपुलने गुरुसे यही वर माँगा कि "मेरी धर्ममें निरन्तर स्थिति बनी रहे।” फिर गुरुकी आज्ञा लेकर उन्होंने सर्वोत्तम तपस्या आरम्भ की ।। ३५ ।।

महा तपस्वी देवशर्मा भी बल और वृत्रासुरका वध करनेवाले इन्द्रसे निर्भय हो पत्नीसहित उस निर्जन वनमें विचरने लगे ।। ३६ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विपुलका उपाख्यानविषयक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

बयालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  बयालीसवें अध्याय के श्लोक 1-33 का हिन्दी अनुवाद)

“विपुल का गुरु की आज्ञासे दिव्य पुष्प लाकर उन्हें देना और अपने द्वारा किये गये  दुष्कर्मका स्मरण करना”

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! विपुलने गुरुकी आज्ञाका पालन करके बड़ी कठोर तपस्या की। इससे उनकी शक्ति बहुत बढ़ गयी और वे अपनेको बड़ा भारी तपस्वी मानने लगे ।। १ ।।

पृथ्वीनाथ! विपुल उस तपस्याद्वारा मन-ही-मन गर्वका अनुभव करके दूसरोंसे स्पर्धा रखने लगे। नरेश्वर! उन्हें गुरुसे कीर्ति और वरदान दोनों प्राप्त हो चुके थे; अतः वे निर्भय एवं संतुष्ट होकर पृथ्वीपर विचरने लगे ।। २ ।।

कुरुनन्दन! शक्तिशाली विपुल उस गुरुपत्नी-संरक्षणरूपी कर्म तथा प्रचुर तपस्याद्वारा ऐसा समझने लगे कि मैंने दोनों लोक जीत लिये ।। ३ ।।

कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले युधिष्ठिर! तदनन्तर कुछ समय बीत जानेपर गुरुपत्नी रुचिकी बड़ी बहिनके यहाँ विवाहोत्सवका अवसर उपस्थित हुआ, जिसमें प्रचुर धनधान्यका व्यय होनेवाला था ।। ४ ।।

उन्हीं दिनों एक दिव्य लोककी सुन्दरी दिव्यांगगा परम मनोहर रूप धारण किये आकाशभमार्गसे कहीं जा रही थी ।। ५ ।।

भारत! उसके शरीरसे कुछ दिव्य पुष्प, जिनसे दिव्य सुगन्ध फैल रही थी, देवशमकि आश्रमके पास ही पृथ्वीपर गिरे ।। ६ ।।

राजन! तब मनोहर नेत्रोंवाली रुचिने वे फ़ूल ले लिये। इतनेमें ही अंगदेशसे उसका शीघ्र ही बुलावा आ गया ।। ७ ।।

तात! रुचिकी बड़ी बहिन, जिसका नाम प्रभावती था, अंगराज चित्ररथको ब्याही गयी थी ।। ८ ।।

उन दिव्य फूलोंको अपने केशोंमें गूँथकर सुन्दरी रुचि अंगराजके घर आमन्त्रित होकर गयी ।। ९ ।।

उस समय सुन्दर नेत्रोंवाली अंगराजकी सुन्दरी रानी प्रभावतीने उन फ़ूलोंको देखकर अपनी बहिनसे वैसे ही फूल मँगवा देनेका अनुरोध किया ।। १० ।।

आश्रममें लौटनेपर सुन्दर मुखवाली रुचिने बहिनकी कही हुई सारी बातें अपने स्वामीसे कह सुनायी। सुनकर ऋषिने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली || ११ ।।

भारत! तब महा तपस्वी देवशर्माने विपुलको बुलवाकर उन्हें फ़ूल लानेके लिये आदेश दिया और कहा, “जाओ, जाओ" ॥। १२ ||

राजन! गुरुकी आज्ञा पाकर महा तपस्वी विपुल उसपर कोई अन्यथा विचार न करके “बहुत अच्छा” कहते हुए उस स्थानकी ओर चल दिये जहाँ आकाशशसे वे फूल गिरे थे। वहाँ और भी बहुत-से फूल पड़े हुए थे, जो कुम्हलाये नहीं थे || १३-१४ ।।

भारत! तदनन्तर अपने तपसे प्राप्त हुए उन दिव्य सुगन्धसे युक्त मनोहर दिव्य पुष्पोंको विपुलने उठा लिया ।। १५ ।।

गुरुकी आज्ञाका पालन करनेवाले विपुल उन फूलोंको पाकर मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और तुरंत ही चम्पाके वृक्षोंसे घिरी हुई चम्पा नगरीकी ओर चल दिये ।। १६ ।।

तात! एक निर्जन वनमें आनेपर उन्होंने स्त्री-पुरुषके एक जोड़ेको देखा, जो एकदूसरेका हाथ पकड़कर कुम्हारके चाकके समान घूम रहे थे ।। १७ ।।

राजन! उनमेंसे एकने अपनी चाल तेज कर दी और दूसरेने वैसा नहीं किया। इसपर दोनों आपसमें झगड़ने लगे || १८ ।।

नरेश्वरर! एकने कहा--“'तुम जल्दी-जल्दी चलते हो।' दूसरेने कहा, “नहीं।” इस प्रकार दोनों एक-दूसरेपर दोषारोपण करते हुए एक-दूसरेको “नहीं-नहीं' कह रहे थे ।। १९ ।।

इस प्रकार एक-दूसरेसे स्पर्धा रखते हुए उन दोनोंमें शपथ खानेकी नौबत आ गयी। फिर तो सहसा विपुलको लक्ष्य करके वे दोनों इस प्रकार बोले-- ।।

“हमलोगोंमेंसे जो भी झूठ बोलता है उसकी वही गति होगी जो परलोकमें ब्राह्मण विपुलके लिये नियत हुई है” |। २१ ।।

यह सुनकर विपुलके मुँहपर विषाद छा गया। “मैं ऐसी कठोर तपस्या करनेवाला हूँ तो भी मेरी दुर्गति होगी। तब तो तपस्या करनेका वह घोर परिश्रम कष्टदायक ही सिद्ध हुआ || २२ |।

“मेरा ऐसा कौन-सा पाप है जिसके अनुसार मेरी वह दुर्गति होगी जो समस्त प्राणियोंके लिये अनिष्ट है एवं इस स्त्री-पुरुषके जोड़ेको मिलनेवाली है, जिसका इन्होंने आज मेरे समक्ष वर्णन किया है! || २३ ।।

नृपश्रेष्ठ! ऐसा सोचते हुए ही विपुल नीचे मुँह किये दीनचित्त हो अपने दुष्कर्मका स्मरण करने लगे || २४ ।।

तदनन्तर विपुलको दूसरे छ: पुरुष दिखायी पड़े, जो सोने-चाँदीके पासे लेकर जूआ खेल रहे थे और लोभ तथा हर्षमें भरे हुए थे। वे भी वही शपथ कर रहे थे जो पहले स्त्रीपुरुषके जोड़ेने की थी। उन्होंने विपुलको लक्ष्य करके कहा-- || २५-२६ ।।

“हमलोगोंमेंसे जो लोभका आश्रय लेकर बेईमानी करनेका साहस करेगा, उसको वही गति मिलेगी, जो परलोकमें विपुलको मिलनेवाली है--- || २७ ।।

कुरुनन्दन! यह सुनकर विपुलने जन्मसे लेकर वर्तमान समयतकके अपने समस्त कर्मोका स्मरण किया; किंतु कभी कोई धर्मके साथ पापका मिश्रण हुआ हो, ऐसा नहीं दिखायी दिया ।। २८ ।।

राजन! परंतु अपने विषयमें वैसा शाप सुनकर जैसे एक आगमें दूसरी आग रख दी गयी हो और उसकी ज्वाला और भी बढ़ गयी हो, उसी प्रकार विपुलका हृदय शोकाग्निसे दग्ध होने लगा और उसी अवस्थामें वे पुन-अपने कार्योंपर विचार करने लगे || २९ ।।

तात! इस प्रकार चिन्ता करते हुए उनके कई दिन और कई रातें बीत गयीं। तब गुरुपत्नी रुचिकी रक्षाके कारण उनके मनमें ऐसा विचार उठा-- ।। ३० ।।

“मैंने जब गुरुपत्नीकी रक्षाके लिये उनके शरीरमें सूक्ष्मरूपसे प्रवेश किया था तब मेरी लक्षणेन्द्रिय उनकी लक्षणेन्द्रियसे और मुख उनके मुखसे संयुक्त हुआ था। ऐसा अनुचित कार्य करके भी मैंने गुरुजीको यह सच्ची बात नहीं बतायी” ।। ३१ ।।

महाभाग कुरुनन्दन! उस समय विपुलने अपने मनमें इसीको पाप माना और निस्संदेह बात भी ऐसी ही थी ।। ३२ ।।

चम्पानगरीमें जाकर गुरुप्रेमी विपुलने वे फ़ूल गुरुजीको अर्पित कर दिये और उनका विधिपूर्वक पूजन किया ।। ३३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विपुलका उपाख्यानविषयक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

तैंतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  तैंतालिसवें अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)

“देवशर्माका विपुलको निर्दोष बताकर समझाना और भीष्मका युधिष्ठिरको स्त्रियोंकी रक्षाके लिये आदेश देना”

भीष्मजी कहते हैं--नरेश्वर! अपने शिष्य विपुलको आया हुआ देख महातेजस्वी देवशर्माने उनसे जो बात कही, वही बताता हूँ, सुनो ।। १ ।।

देवशर्माने पूछा--मेरे प्रिय शिष्य विपुल! तुमने उस महान्‌ वनमें क्‍या देखा था? वे लोग तो तुम्हें जानते हैं। उन्हें तुम्हारी अन्तरात्माका तथा मेरी पत्नी रुचिका भी पूरा परिचय प्राप्त है ।। २ ।।

विपुलने कहा--ब्रह्मर्षे! मैंने जिसे देखा था, वह स्त्री-पुरुषका जोड़ा कौन था? तथा वे छः पुरुष भी कौन थे जो मुझे अच्छी तरह जानते थे और जिनके विषयमें आप भी मुझसे पूछ रहे हैं? ।। ३ ।।

देवशर्माने कहा--ब्रह्मन्‌! तुमने जो स्त्री-पुरुषका जोड़ा देखा था उसे दिन और रात्रि समझो। वे दोनों चक्रवत्‌ घूमते रहते हैं, अतः उन्हें तुम्हारे पापका पता है। विप्रवर! तथा जो अत्यन्त हर्षमें भरकर जूआ खेलते हुए छः: पुरुष दिखायी दिये उन्हें छः ऋतु जानो; वे भी तुम्हारे पापको जानते हैं || ४-५ ।।

ब्रह्मन! पापात्मा मनुष्य एकान्तमें पापकर्म करके ऐसा विश्वास न करे कि कोई मुझे इस पापकर्ममें लिप्त नहीं जानता है ।। ६ ।।

एकान्तमें पापकर्म करते हुए पुरुषको ऋतुएँ तथा रात-दिन सदा देखते रहते हैं || ७ ।

तुमने मेरी स्त्रीकी रक्षा करते समय जिस प्रकार वह पापकर्म किया था, उसे करके भी मुझे बताया नहीं था; अतः तुम्हें वे ही पापाचारियोंके लोक मिल सकते थे ।। ८ ।।

गुरुको अपना पापकर्म न बताकर हर्ष और अभिमानमें भरा देख वे पुरुष तुम्हें अपने कर्मकी याद दिलाते हुए वैसी बातें बोल रहे थे, जिन्हें तुमने अपने कानों सुना है ।। ९ ।।

पापीमें जो पापकर्म है और शुभकर्मी मनुष्यमें जो शुभकर्म है, उन सबको दिन, रात और ऋतुएँ सदा जानती रहती हैं ।। १० ।।

ब्रह्मन! तुमने मुझसे अपना वह कर्म नहीं बताया जो व्यभिचार-दोषके कारण भयरूप था। वे जानते थे, इसलिये उन्होंने तुम्हें बता दिया ।। ११ ।।

पापकर्म करके न बतानेवाले पुरुषको, जैसा कि तुमने मेरे साथ किया है, वे ही पापाचारियोंके लोक प्राप्त होते हैं || १२ ।।

ब्रह्म! यौवनमदसे उन्मत्त रहनेवाली उस स्त्रीकी (उसके शरीरमें प्रवेश किये बिना) रक्षा करना तुम्हारे वशकी बात नहीं थी। अतः तुमने अपनी ओरसे कोई पाप नहीं किया; इसलिये मैं तुमपर प्रसन्न हूँ ।।

जो मानसिक दोषसे रहित हैं उन्हें पाप नहीं लगता। यही बात तुम्हारे लिये भी हुई है। अपनी प्राणवल्लभा पत्नीका आलिंगन और भावसे किया जाता है और अपनी पुत्रीका और भावसे; अर्थात्‌ उसे वात्सल्यस्नेहसे गले लगाया जाता है ।।

तुम्हारे मनमें राग नहीं है। तुम सर्वथा विशुद्ध हो, इसलिये रुचिके शरीरमें प्रवेश करके भी दूषित नहीं हुए हो ।।

द्विजश्रेष्ठ! यदि मैं इस कर्ममें तुम्हारा दुराचार देखता तो कुपित होकर तुम्हें शाप दे देता और ऐसा करके मेरे मनमें कोई अन्यथा विचार या पश्चात्ताप नहीं होता || १४ ।।

स्त्रियाँ पुरुषमें आसक्त होती हैं और पुरुषोंका भी इसमें पूर्णतः वैसा ही भाव होता है। यदि तुम्हारा भाव उसकी रक्षा करनेके विपरीत होता तो तुम्हें शाप अवश्य प्राप्त होता और मेरा विचार तुम्हें शाप देनेका अवश्य हो जाता ।। १५ ।।

बेटा! तुमने यथाशक्ति मेरी स्त्रीकी रक्षा की है और यह बात मुझे बतायी है, अतः मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तात! तुम स्वस्थ रहकर स्वर्गलोकमें जाओगे ।।

विपुलसे ऐसा कहकर प्रसन्न हुए महर्षि देवशर्मा अपनी पत्नी और शिष्यके साथ स्वर्गमें जाकर वहाँका सुख भोगने लगे ।। १७ ।।

राजन! पूर्वकालमें गंगाके तटपर कथा-वार्तके बीचमें ही महामुनि मार्कण्डेयने मुझे यह आख्यान सुनाया था ।। १८ ।।

अतः कुन्तीनन्दन! मैं तुमसे कहता हूँ कि तुम्हें स्त्रियोंकी सदा ही रक्षा करनी चाहिये। स्त्रियोंमें भली और बुरी दोनों बातें हमेशा देखी जाती हैं || १९ ।।

राजन! यदि स्त्रियाँ साथ्वी एवं पतिव्रता हों तो बड़ी सौभाग्यशालिनी होती हैं। संसारमें उनका आदर होता है और वे सम्पूर्ण जगत्‌की माता समझी जाती हैं। इतना ही नहीं, वे अपने पातित्रत्यके प्रभावसे वन और काननोंसहित इस सम्पूर्ण पृथ्वीको धारण करती हैं ।।

किंतु दुराचारिणी असती स्त्रियाँ कुलका नाश करनेवाली होती हैं, उनके मनमें सदा पाप ही बसता है। नरेश्वर! फिर ऐसी स्त्रियोंको उनके शरीरके साथ ही उत्पन्न हुए बुरे लक्षणोंसे पहचाना जा सकता है ।।

नृपश्रेष्ठी महामनस्वी पुरुषोंद्वारा ही ऐसी स्त्रियोंकी इस प्रकार रक्षा की जा सकती है; अन्यथा स्त्रियोंकी रक्षा असम्भव है ।। २२ ।।

पुरुषसिंह! ये स्त्रियाँ तीखे स्वभावकी तथा दुस्सह शक्तिवाली होती हैं। कोई भी पुरुष इनका प्रिय नहीं है। मैथुनकालमें जो इनका साथ देता है वही उतने ही समयके लिये प्रिय होता है || २३ ।।

भरतश्रेष्ठ! पाण्डुनन्दन! ये स्त्रियाँ कृत्याओंके समान मनुष्योंके प्राण लेनेवाली होती हैं। उन्हें जब पहले पुरुष स्वीकार कर लेता है तब आगे चलकर वे दूसरेके स्वीकार करने योग्य भी बन जाती हैं, अर्थात्‌ व्यभिचारदोषके कारण एक पुरुषको छोड़कर दूसरेपर आसक्त हो जाती हैं। किसी एक ही पुरुषमें इनका सदा अनुराग नहीं बना रहता ।। २४ ।।

नरेश्वर! मनुष्योंको स्त्रियोंके प्रति न तो विशेष आसक्त होना चाहिये और न उनसे ईर्ष्या ही करनी चाहिये। वैराग्यपूर्वक धर्मका आश्रय लेकर पर्व आदि दोषका त्याग करते हुए ऋतुस्नानके पश्चात्‌ उनका उपभोग करना चाहिये ।। २५ ।।

कौरवनन्दन! इसके विपरीत बर्ताव करनेवाला मनुष्य विनाशको प्राप्त होता है। नृपश्रेष्ठ! सर्वत्र सब प्रकारसे मोक्षका ही सम्मान किया जाता है ।। २६ ।।

नरेश्वर! एकमात्र विपुलने ही स्त्रीकी रक्षा की थी। इस त्रिलोकीमें दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है जो युवती स्त्रियोंकी इस प्रकार रक्षा कर सके ।। २७ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विपुलका उपाख्यानविषयक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल २९ श्लोक हैं)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

चौंवालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  चौंवालीसवें अध्याय के श्लोक 1-56 का हिन्दी अनुवाद)

“कन्या-विवाहके सम्बन्धमें पात्रविषयक विभिन्न विचार”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! जो समस्त धर्मोंका, कुटुम्बीजनोंका, घरका तथा देवता, पितर और अतिथियोंका मूल है, उस कन्यादानके विषयमें मुझे कुछ उपदेश कीजिये ।। १ ।।

पृथ्वीनाथ! सब धर्मोंसे बढ़कर यही चिन्तन करने योग्य धर्म माना गया है कि कैसे पात्रको कन्या देनी चाहिये? ।। २ ।।

भीष्मजीने कहा--बेटा! सत्पुरुषोंको चाहिये कि वे पहले वरके शील-स्वभाव, सदाचार, विद्या, कुल, मर्यादा और कार्योंकी जाँच करें। फिर यदि वह सभी दृष्टियोंसे गुणवान्‌ प्रतीत हो तो उसे कन्या प्रदान करें ।। ३ ।।

युधिष्ठिर! इस प्रकार ब्याहने योग्य वरको बुलाकर उसके साथ कन्याका विवाह करना उत्तम ब्राह्मणोंका धर्म-ब्राह्मविवाह है। जो धन आदिके द्वारा वरपक्षको अनुकूल करके कन्यादान किया जाता है, वह शिष्ट ब्राह्मण और क्षत्रियोंका सनातन धर्म कहा जाता है। (इसीको प्राजापत्य विवाह कहते हैं) || ४३ ।।

युधिष्ठिर! जब कन्याके माता-पिता अपने पसंद किये हुए वरको छोड़कर जिसे कन्या पसंद करती हो तथा जो कन्याको चाहता हो ऐसे वरके साथ उस कन्याका विवाह करते हैं, तब वेदवेत्ता पुरुष उस विवाहको गान्धर्व धर्म (गान्धर्व विवाह) कहते हैं ।।

नरेश्वर! कन्याके बन्धु-बान्धवोंको लोभमें डालकर उन्हें बहुत-सा धन देकर जो कन्याको खरीद लिया जाता है, इसे मनीषी पुरुष असुरोंका धर्म (आसुर विवाह) कहते हैं ।। ७ ।।

तात! इसी प्रकार कन्याके रोते हुए अभिभावकोंको मारकर, उनके मस्तक काटकर रोती हुई कनन्‍्याको उसके घरसे बलपूर्वक हर लाना राक्षसोंका काम (राक्षस विवाह) बताया जाता है ॥। ८ ।।

युधिष्ठिर! इन पाँच (त्राह्म, प्राजापत्य, गान्धर्व, आसुर और राक्षस) विवाहोंमेंसे पूर्वकथित तीन विवाह धर्मानुकूल हैं और शेष दो पापमय हैं। आसुर और राक्षस विवाह किसी प्रकार भी नहीं करने चाहिये5 ।। ९ ।।

नरश्रेष्ठ! ब्राह्य, क्षात्र (प्राजापत्य) तथा गान्धर्व--ये तीन विवाह धर्मानुकूल बताये गये हैं। ये पृथक्‌ हों या अन्य विवाहोंसे मिश्रित--करने ही योग्य हैं। इसमें संशय नहीं है ।। १० ।।

ब्राह्मणके लिये तीन भार्याएँ बतायी गयी हैं (ब्राह्मण-कन्या, क्षत्रिय-कन्या और वैश्यकन्या), क्षत्रियके लिये दो भार्याएँ कही गयी हैं (क्षत्रिय-कन्या और वैश्य-कन्या)। वैश्य केवल अपनी ही जातिकी कन्याके साथ विवाह करे। इन स्त्रियोंसे जो संतानें उत्पन्न होती हैं वे पिताके समान वर्णवाली होती हैं (माताओंके कुल या वर्णके कारण उनमें कोई तारतम्य नहीं होता) ।। ११ ।।

ब्राह्मणकी पत्रियोंमें ब्राह्मण-कन्या श्रेष्ठ मानी जाती है, क्षत्रियके लिये क्षत्रिय-कन्या श्रेष्ठ है (वैश्यकी तो एक ही पत्नी होती है; अतः वह श्रेष्ठ है ही) कुछ लोगोंका मत है कि रतिके लिये शूद्र-जातिकी कन्यासे भी विवाह किया जा सकता है; परंतु और लोग ऐसा नहीं मानते (वे शूद्र-कन्याको त्रैवर्णिकोंके लिये अग्राह्म बतलाते हैं) || १२ ।।

श्रेष्ठ पुरुष ब्राह्मणका शूद्र-कन्याके गर्भसे संतान उत्पन्न करना अच्छा नहीं मानते। शूद्राके गर्भसे संतान उत्पन्न करनेवाला ब्राह्मण प्रायश्चित्तका भागी होता है ।।

तीस वर्षका पुरुष दस वर्षकी कन्याको, जो रजस्वला न हुई हो, पत्नीरूपमें प्राप्त करे। अथवा इक्कीस वर्षका पुरुष सात वर्षकी कुमारीके साथ विवाह करे ।। १४ ।।

भरतश्रेष्ठ! जिस कन्याके पिता अथवा भाई न हों, उसके साथ कभी विवाह नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह पुत्रिका-धर्मवाली मानी जाती है ।। १५ ।।

(यदि पिता, भ्राता आदि अभिभावक ऋतुमती होनेके पहले कन्याका विवाह न कर दें तो) ऋतुमती होनेके पश्चात्‌ तीन वर्षतक कन्या अपने विवाहकी बाट देखे। चौथा वर्ष लगनेपर वह स्वयं ही किसीको अपना पति बना ले || १६ ।।

भरतश्रेष्ठ] ऐसा करनेपर उस कन्याका उस पुरुषके साथ किया हुआ सम्बन्ध तथा उससे होनेवाली संतान निम्न श्रेणीकी नहीं समझी जाती। इसके विपरीत बर्ताव करनेवाली स्त्री प्रजापतिकी दृष्टिमें निन्दनीय होती है || १७ ।।

जो कन्या माताकी सपिण्ड और पिताके गोत्रकी न हो, उसीका अनुगमन करे। इसे मनुजीने धर्मानुकूल बताया है? ।। १८ ।॥।

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! यदि एक मनुष्यने विवाह पक्का करके कन्याका मूल्य दे दिया हो, दूसरेने मूल्य देनेका वादा करके विवाह पक्का किया हो, तीसरा उसी कन्याको बलपूर्वक ले जानेकी बात कर रहा हो, चौथा उसके भाई-बन्धुओंको विशेष धनका लोभ दिखाकर ब्याह करनेको तैयार हो और पाँचवाँ उसका पाणिग्रहण कर चुका हो तो धर्मतः उसकी कन्या किसकी पत्नी मानी जायगी? हमलोग इस विषयमें यथार्थ तत्त्वको जानना चाहते हैं। आप हमारे लिये नेत्र (पथ-प्रदर्शक) हों ।। १९-२० ।।

भीष्मजीने कहा--भारत! मनुष्योंके हितसे सम्बन्ध रखनेवाला जो कोई भी कर्म है, वह व्यवस्थाके लिये देखा जाता है। समस्त विचारवान्‌ पुरुष एकत्र होकर जब यह विचार कर लें कि “अमुक कन्या अमुक पुरुषको देनी चाहिये” तो यह व्यवस्था ही विवाहका निश्चय करनेवाली होती है। जो झूठ बोलकर इस व्यवस्थाको उलट देता है, वह पापका भागी होता है।।

भार्या, पति, ऋत्विज, आचार्य, शिष्य और उपाध्याय भी यदि उपर्युक्त व्यवस्थाके विरुद्ध झूठ बोलें तो दण्डके भागी होते हैं। परंतु दूसरे लोग उन्हें दण्डके भागी नहीं मानते हैं ।। २२ ।।

अकाम पुरुषके साथ सकामा कन्याका सहवास हो, इसे मनु अच्छा नहीं मानते हैं। अतः सर्वसम्मतिसे निश्चित किये हुए विवाहको मिथ्या करनेका प्रयत्न अयश और अधर्मका कारण होता है। वह धर्मको नष्ट करनेवाला माना गया है ।। २३ ।।

भारत! कन्याके भाई-बन्धु जिस कन्याको धर्मपूर्वक पाणिग्रहणकी विधिसे दान कर देते हैं अथवा जिसे मूल्य लेकर दे डालते हैं, उस कन्याको थधर्मपूर्वक विवाह करनेवाला अथवा मूल्य देकर खरीदनेवाला यदि अपने घर ले जाय तो इसमें किसी प्रकारका दोष नहीं होता। भला उस दशामें दोषकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? ।। २४ ।।

कन्याके कुट॒म्बीजनोंकी अनुमति मिलनेपर वैवाहिक मन्त्र और होमका प्रयोग करना चाहिये, तभी वे मन्त्र सिद्ध (सफल) होते हैं, अर्थात्‌ वह मन्त्रोंद्वारा विवाह किया हुआ माना जाता है। जिस कन्याका माता-पिताके द्वारा दान नहीं किया गया उसके लिये किये गये मन्त्र-प्रयोग किसी तरह सिद्ध नहीं होते, अर्थात्‌ वह विवाह मन्त्रोंद्वारा किया हुआ नहीं माना जाता ।। २५ ||

पति और पत्नीमें भी परस्पर मन्त्रोच्चारणपूर्वक जो प्रतिज्ञा होती है वही श्रेष्ठ मानी जाती है, और यदि उसके लिये बन्धु-बान्धवोंका समर्थन प्राप्त हो तब तो और उत्तम बात है ।। २६ ।।

धर्मशास्त्रकी आज्ञाके अनुसार न्यायतः प्राप्त हुई पत्नीको पति अपने प्रारब्धकर्मके अनुसार मिली हुई भार्या समझता है। इस प्रकार वह दैवयोगसे प्राप्त हुई पत्नीको ग्रहण करता है। तथा मनुष्योंकी झूठी बातको--उस विवाहको अयोग्य बतानेवाली वार्ताको अग्राह्म कर देता है ।। २७ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! यदि एक वरसे कन्याका विवाह पक्का करके उसका मूल्य ले लिया गया हो और पीछे उससे भी श्रेष्ठ धर्म, अर्थ और कामसे सम्पन्न अत्यन्त योग्य वर मिल जाय तो पहले जिससे मूल्य लिया गया है उससे झूठ बोलना--उसको कन्या देनेसे इनकार कर देना चाहिये या नहीं? ।। २८ ।।

इसमें दोनों दशाओंमें दोष प्राप्त होता है--यदि बन्धुजनोंकी सम्मतिसे मूल्य लेकर निश्चित किये हुए विवाहको उलट दिया जाय तो वचन-भंगका दोष लगता है और श्रेष्ठ वरका उल्लंघन करनेसे कनन्‍्याके हितको हानि पहुँचानेका दोष प्राप्त होता है। ऐसी दशामें कन्यादाता क्‍या करे; जिससे वह कल्याणका भागी हो? हम तो सम्पूर्ण धर्मोमें इस कन्यादानरूप धर्मको ही अधिक चिन्तन अर्थात्‌ विचारके योग्य मानते हैं || २९ ।।

हम इस विषयमें यथार्थ तत्त्वको जानना चाहते हैं। आप हमारे पथप्रदर्शक होइये। इन सब बातोंको स्पष्टरूपसे बताइये। मैं आपकी बातें सुननेसे तृप्त नहीं हो रहा हूँ। अतः आप इस विषयका प्रतिपादन कीजिये || ३० ॥।

भीष्मजीने कहा--राजन! मूल्य दे देनेसे ही विवाहका अन्तिम निश्चय नहीं हो जाता (उसमें परिवर्तनकी सम्भावना रहती ही है)। यह समझकर ही मूल्य देनेवाला मूल्य देता है और फिर उसे वापस नहीं माँगता। सज्जन पुरुष कभी-कभी मूल्य लेकर भी किसी विशेष कारणवश कन्यादान नहीं करते हैं ।। ३१ ।।

कन्याके भाई-बन्धु किसीसे मूल्य तभी माँगते हैं जब वह विपरीत गुण (अधिक अवस्था आदि)-से युक्त होता है। यदि वरको बुलाकर कहा जाय कि “तुम मेरी कन्याको आभूषण पहनाकर इसके साथ विवाह कर लो” और ऐसा कहनेपर वह उसके लिये आभूषण देकर विवाह करे तो यह धर्मानुकूल ही है ।। ३२ ।।

क्योंकि इस प्रकार जो कन्याके लिये आभूषण लेकर कन्यादान किया जाता है, वह न तो मूल्य है और न विक्रय ही; इसलिये कन्याके लिये कोई वस्तु स्वीकार करके कन्याका दान करना सनातन धर्म है ।।

जो लोग भिन्न-भिन्न व्यक्तियोंसे कहते हैं कि 'मैं आपको अपनी कन्या दूँगा", जो कहते हैं नहीं दूँगा! और जो कहते हैं “अवश्य दूँगा' उनकी ये सभी बातें कन्या देनेके पहले नही कही हुई के ही तुल्य हैं |। ३४ ।।

जबतक कन्याका पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न न हो जाय तबतक कन्याको माँगना चाहिये। ऐसा कन्याओंके लिये मरुद्गणोंने पहले वर दिया है, अर्थात्‌ अधिकार दिया है-- यह हमारे सुननेमें आया है। इसलिये पाणिग्रहण होनेके पहलेतक वर और कन्या आपसमें एक-दूसरेके लिये प्रार्थना कर सकते हैं || ३५ ।।

महर्षियोंका मत है कि अयोग्य वरको कन्या नहीं देनी चाहिये; क्योंकि सुयोग्य पुरुषको कन्यादान करना ही काम-सम्बन्धी सुख और सुयोग्य संतानकी उत्पत्तिका कारण है। ऐसा मेरा विचार है || ३६ ।।

कन्याके क्रय-विक्रयमें बहुत-से दोष हैं। इस बातको तुम अधिक कालतक सोचनेविचारनेके बाद स्वयं समझ लोगे। केवल मूल्य दे देनेसे विवाहका अन्तिम निश्चय नहीं हो जाता है। पहले भी कभी ऐसा नहीं हुआ था, इस विषयमें तुम सुनो || ३७ ।।

मैं विचित्रवीर्यके विवाहके लिये मगध, काशी तथा कोशलदेशके समस्त वीरोंको पराजित करके काशिराजकी दो- कन्याओंको हर लाया था ।। ३८ ।।

उनमेंसे एक कन्या अम्बा अपना हाथ शाल्वराजके हाथमें दे चुकी थी; अर्थात्‌ मन-हीमन उनको अपना पति मान चुकी थी। दूसरी (दो कन्‍्याओं)-का काशिराजको शुल्क प्राप्त हो गया था। इसलिये मेरे पिता (चाचा) कुरुवंशी बाह्नीकने वहीं कहा कि “जो कन्या पाणिगृहीत हो चुकी है उसका त्याग कर दो और दूसरी कन्याका (जिनके लिये शुल्कमात्र लिया गया है) विवाह करो।” मुझे चाचाजीके इस कथनमें संदेह था, इसलिये मैंने दूसरोंसे भी इसके विषयमें पूछा ।। ३९-४० ।।

परंतु इस विषयमें मेरे चाचाजीकी बहुत प्रबल इच्छा थी कि धर्मका पालन हो (अत: वे पाणिगृहीता कन्याके त्यागपर अधिक जोर दे रहे थे)। राजन! तदनन्तर मैं आचार जाननेकी इच्छासे बोला--'पिताजी! मैं इस विषयमें यह ठीक-ठीक जानना चाहता हूँ कि परम्परागत आचार क्या है?' ।। ४१ ।।

महाराज! मेरे ऐसा कहनेपर धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ मेरे चाचा बाह्नीक इस प्रकार बोले -- || ४२ ||

“यदि तुम्हारे मतमें मूल्य देनेमात्रसे ही विवाहका पूर्ण निश्चय हो जाता है, पाणिग्रहणसे नहीं, तब तो स्मृतिका यह कथन ही व्यर्थ होगा कि कन्‍्याका पिता एक वरसे शुल्क ले लेनेपर भी दूसरे किसी गुणवान्‌ वरका आश्रय ले सकता है। अर्थात्‌ पहलेको छोड़कर दूसरे गुणवान्‌ वरसे अपनी कन्याका विवाह कर सकता है ।।

जिनका यह मत है कि शुल्कसे ही विवाहका निश्चय होता है, पाणिग्रहणसे नहीं, उनके इस कथनको धर्मज्ञ पुरुष प्रमाण नहीं मानते हैं ।। ४४ ।।

“कन्यादानके विषयमें तो लोगोंका कथन भी प्रसिद्ध है” अर्थात्‌ सब लोग यही कहते हैं कि कन्यादान हुआ है। अतः जो शुल्कसे ही विवाह निश्चय मानते हैं उनके कथनकी प्रतीति करानेवाला कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। जो क्रय और शुल्कको मान्यता देते हैं वे मनुष्य धर्मज्ञ नहीं हैं | ४५ ।।

'ऐसे लोगोंको कन्या नहीं देनी चाहिये और जो बेची जा रही हो ऐसी कनन्‍्याके साथ विवाह नहीं करना चाहिये; क्योंकि भार्या किसी प्रकार भी खरीदने या विक्रय करनेकी वस्तु नहीं है || ४६ ।।

“जो दासियोंको खरीदते और बेचते हैं वे बड़े लोभी और पापात्मा हैं। ऐसे ही लोगोंमें पत्नीको भी खरीदने-बेचनेकी निष्ठा होती है || ४७ ।।

इस विषयमें पहलेके लोगोंने सत्यवानसे पूछा था कि “महाप्राज्ञ! यदि कन्याका शुल्क देनेके पश्चात्‌ शुल्क देनेवालेकी मृत्यु हो जाय तो उसका पाणिग्रहण दूसरा कोई कर सकता है या नहीं? इसमें हमें धर्मविषयक संदेह हो गया है। आप इसका निवारण कीजिये; क्योंकि आप ज्ञानी पुरुषोंद्वारा सम्मानित हैं || ४८-४९ ।।

“हमलोग इस विषयमें यथार्थ बात जानना चाहते हैं। आप हमारे लिये पथप्रदर्शक होइये।” उन लोगोंके इस प्रकार कहनेपर सत्यवानने कहा-- ।। ५० ।।

“जहाँ उत्तम पात्र मिलता हो वहीं कन्या देनी चाहिये। इसके विपरीत कोई विचार मनमें नहीं लाना चाहिये। मूल्य देनेवाला यदि जीवित हो तो भी सुयोग्य वरके मिलनेपर सज्जन पुरुष उसीके साथ कन्याका विवाह करते हैं। फिर उसके मर जानेपर अन्यत्र करें--इसमें तो संदेह ही नहीं है ।। ५१ ।।

“शुल्क देनेवालेकी मृत्यु हो जानेपर उसके छोटे भाईको वह कन्या पतिरूपमें ग्रहण करे अथवा जन्मान्तरमें उसी पतिको पानेकी इच्छासे उसीका अनुसरण (चिन्तन) करती हुई आजीवन कुमारी रहकर तपस्या करे || ५२ ।।

'किन्हींके मतमें अक्षतयोनि कन्याको स्वीकार करनेका अधिकार है। दूसरोंके मतमें यह मन्दप्रवृत्ति--अवैध कार्य है। इस प्रकार जो विवाद करते हैं, वे अन्तमें इसी निश्चयपर पहुँचते हैं कि कन्याका पाणिग्रहण होनेसे पहलेका वैवाहिक मंगलाचार और मन्त्रप्रयोग हो जानेपर भी जहाँ अन्तर या व्यवधान पड़ जाय; अर्थात्‌ अयोग्य वरको छोड़कर किसी दूसरे योग्य वरके साथ कन्या ब्याह दी जाय तो दाताको केवल मिथ्याभाषणका पाप लगता है (पाणिग्रहणसे पूर्व कन्या विवाहित नहीं मानी जाती है) || ५३-५४ ।।

'सप्तपदीके सातवें पदमें पाणिग्रहणके मन्त्रोंकी सफलता होती है (और तभी पतिपत्नीभावका निश्चय होता है)। जिस पुरुषको जलसे संकल्प करके कन्याका दान दिया जाता है वही उसका पाणिग्रहीता पति होता है और उसीकी वह पत्नी मानी जाती है। विद्वान्‌ पुरुष इसी प्रकार कन्यादानकी विधि बताते हैं। वे इसी निश्चयपर पहुँचे हुए हैं ।। ५५ ||

“जो अनुकूल हो, अपने वंशके अनुरूप हो, अपने पिता-माता या भाईके द्वारा दी गयी हो और प्रज्वलित अग्निके समीप बैठी हो, ऐसी पत्नीको श्रेष्ठ द्विज अग्निकी परिक्रमा करके शास्त्रविधिके अनुसार ग्रहण करे ।। ५६ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मका वर्णनविषयक चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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  1. स्मृतियोंमें निम्नलिखित आठ विवाह बतलाये गये हैं--ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, गान्धर्व, आसुर, राक्षस और पैशाच। किंतु यहाँ १ ब्राह्म, २ प्राजापत्य, ३ गान्धर्व, ४ आसुर और ५ राक्षस--इन्हीं पाँच विवाहोंका उल्लेख किया गया है; अतः यहाँ जो ब्राह्म विवाह है उसीमें स्मृतिकथित दैव और आर्ष विवाहोंका भी अन्तर्भाव समझना चाहिये। इसी प्रकार यहाँ बताये हुए राक्षस विवाहमें उपर्युक्त पैशाच विवाहका समावेश कर लेना चाहिये। प्राजापत्यको ही 'क्षात्र” विवाह भी कहा गया है।
  2. सापिण्ड्य निवृत्तिके सम्बन्धमें स्मृतिका वचन है--वध्वा वरस्य वा तात: कूटस्थाद्‌ यदि सप्तम: । पंचमी चेत्तयोर्माता तत्सापिण्ड्यं निवर्तते ।। अर्थात्‌ “यदि वर अथवा कन्याका पिता मूल पुरुषसे सातवीं पीढ़ीमें उत्पन्न हुआ है तथा माता पाँचवी पीढ़ीमें पैदा हुई है तो वर और कन्या के लिये सापिण्ड्यकी निवृत्ति हो जाती है। पिताकी ओरका सापिण्ड्य सात पीढ़ीतक चलता है और माताका सापिण्ड्य पाँच पीढ़ीतक। सात पीढ़ीमें एक तो पिण्ड देनेवाला होता है, तीन पिण्डभागी होते हैं और तीन लेपभागी होते हैं।
  3. भीष्मजी काशिराजकी तीन कन्याओंको हरकर लाये थे, उनमेंसे दोको एक श्रेणीमें रखकर एकवचनका प्रयोग किया गया है, यह मानना चाहिये; तभी आदिपर्व अध्याय १०२ के वर्णनकी संगति ठीक लग सकती है।

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

पैंतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  पैंतालीसवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“कन्याके विवाहका तथा कन्या और दौहित्र आदिके उत्तराधिकारका विचार”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! जिस कन्याका मूल्य ले लिया गया हो उसका ब्याह करनेके लिये यदि कोई उपस्थित न हो, अर्थात्‌ मूल्य देनेवाला परदेश चला गया हो और उसके भयसे दूसरा पुरुष भी उस कन्यासे विवाह करनेको तैयार न हो तो उसके पिताको क्या करना चाहिये? यह मुझे बताइये ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! यदि संतानहीन धनीसे कन्याका मूल्य लिया गया है तो पिताका कर्तव्य है कि वह उसके लौटनेतक कन्याकी हर तरहसे रक्षा करे। खरीदी हुई कन्याका मूल्य जबतक लौटा नहीं दिया जाता तबतक वह कन्या मूल्य देनेवालेकी ही मानी जाती है ॥| २ ।।

जिस न्यायोचित उपायसे सम्भव हो, उसीके द्वारा वह कन्या अपने मूल्यदाता पतिके लिये ही संतान उत्पन्न करनेकी इच्छा करे। अतःदूसरा कोई पुरुष वैदिक मन्त्रयुक्त विधिसे उसका पाणिग्रहण या और कोई कार्य नहीं कर सकता ।। ३ ।।

सावित्रीने पिताकी आज्ञा लेकर स्वयं चुने हुए पतिके साथ सम्बन्ध स्थापित किया था। उसके इस कार्यकी दूसरे धर्मज्ञ पुरुष प्रशंसा करते हैं; परंतु कुछ लोग नहीं भी करते हैं ।। ४ ।।

कुछ लोगोंका कहना है कि दूसरे सत्पुरुषोंने ऐसा नहीं किया है और कुछ कहते हैं कि अन्य सत्पुरुषोंने भी कभी-कभी ऐसा किया है। अतः श्रेष्ठ पुरुषोंका आचार ही धर्मका सर्वश्रेष्ठ लक्षण है ।। ५ ।।

इसी प्रसंगमें विदेहराज महात्मा जनकके नाती सुक्रतुने ऐसा कहा है ।।

दुराचारियोंके मार्गका शास्त्रोंद्वारा कैसे अनुमोदन किया जा सकता है? इस विषयमें सत्पुरुषोंके समक्ष प्रश्न, संशय अथवा उपालम्भ कैसे उपस्थित किया जा सकता है? ।। ७ ।।

स्त्रियाँ सदा पिता, पति या पुत्रोंके संरक्षणमें ही रहती हैं, स्वतंत्र नहीं होतीं। यह पुरातन धर्म है। इस धर्मका खण्डन करना असत्‌ कर्म या आसुर धर्म है। पूर्वकालके बड़े-बूढ़ोंमें विवाहके अवसरोंपर कभी इस आसुरी पद्धतिका अपनाया जाना हमने नहीं सुना है ।। ८ ।।

पति और पत्नीका अथवा स्त्री और पुरुषका सम्बन्ध बहुत ही घनिष्ठ एवं सूक्ष्म है। रति उनका साधारण धर्म है। यह बात भी राजा सुक्रतुने कही थी ।। ९ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! पिताके लिये पुत्री भी तो पुत्रके ही समान होती है; फिर उसके रहते हुए किस प्रमाणसे केवल पुरुष ही धनके अधिकारी होते हैं? || १० ।।

भीष्मजीने कहा--बेटा! पुत्र अपने आत्माके समान है और कन्या भी पुत्रके ही तुल्य है, अतः आत्मस्वरूप पुत्रके रहते हुए दूसरा कोई उसका धन कैसे ले सकता है? ।। ११ ।।

माताको दहेजमें जो धन मिलता है उसपर कनन्‍्याका ही अधिकार है; अत: जिसके कोई पुत्र नहीं है उसके धनको पानेका अधिकारी उसका दौहित्र (नाती) ही है। वही उस धनको ले सकता है ।। १२ ।।

दौहित्र अपने पिता और नानाको भी पिण्ड देता है। धर्मकी दृष्टिसे पुत्र और दौहित्रमें कोई अन्तर नहीं है ।। १३ ।।

अन्यत्र अर्थात्‌ यदि पहले कन्या उत्पन्न हुई और वह पुत्ररूपमें स्वीकार कर ली गयी तथा उसके बाद पुत्र भी पैदा हुआ तो वह पुत्र उस कन्‍्याके साथ ही पिताके धनका अधिकारी होता है। यदि दूसरेका पुत्र गोद लिया गया हो तो उस दत्तक पुत्रकी अपेक्षा अपनी सगी बेटी ही श्रेष्ठ मानी जाती है (अतः वह पैतृक धनके अधिक भागकी अधिकारिणी है) ।। १४ ।।

जो कन्याएँ मूल्य लेकर बेच दी गयी हों उनसे उत्पन्न होनेवाले पुत्र केवल अपने पिताके ही उत्तराधिकारी होते हैं। उन्हें दौहित्रक धर्मके अनुसार नानाके धनका अधिकारी बनानेके लिये कोई युक्तिसंगत कारण मैं नहीं देखता || १५ ।।

आसुर विवाहसे जिन पुत्रोंकी उत्पत्ति होती है, वे दूसरोंके दोष देखनेवाले, पापाचारी, पराया धन हड़पनेवाले, शठ तथा धर्मके विपरीत बर्ताव करनेवाले होते हैं ।। १६ ।।

इस विषयमें प्राचीन बातोंको जाननेवाले तथा धर्मशास्त्रों और धर्ममर्यादाओंमें स्थित रहनेवाले धर्मज्ञ पुरुष यमकी गायी हुई गाथाका इस प्रकार वर्णन करते हैं-- || १७ ।।

“जो मनुष्य अपने पुत्रको बेचकर धन पाना चाहता है अथवा जीविकाके लिये मूल्य लेकर कन्याको बेच देता है, वह मूढ़ कुम्भीपाक आदि सात नरकोंसे भी निकृष्ट कालसूत्र नामक नरकमें पड़कर अपने ही मल-मूत्र और पसीनेका भक्षण करता है” ।। १८-१९ ||

राजन्‌! कुछ लोग आर्ष विवाहमें एक गाय और एक बैल--इन दो पशुओंको मूल्यके रूपमें लेनेका विधान बताते हैं, परंतु यह भी मिथ्या ही है; क्योंकि मूल्य थोड़ा लिया जाय या बहुत, उतनेहीसे वह कन्याका विक्रय हो जाता है || २० ।।

यद्यपि कुछ पुरुषोंने ऐसा आचरण किया है; परंतु यह सनातन धर्म नहीं है। दूसरे लोगोंमें भी लोकाचारवश बहुत-सी प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं || २१ ।।

जो किसी कुमारी कन्याको बलपूर्वक अपने वशमें करके उसका उपभोग करते हैं, वे पापाचारी मनुष्य अन्धकारपूर्ण नरकमें गिरते हैं || २२ ।।

किसी दूसरे मनुष्यको भी नहीं बेचना चाहिये; फिर अपनी संतानको बेचनेकी तो बात ही क्या? अधर्ममूलक धनसे किया हुआ कोई भी धर्म सफल नहीं होता ।। २३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विवाहधर्मसम्बन्धी यमगाथानामक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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