सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
छत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) छत्तीसवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“ब्राह्मणकी प्रशंसाके विषयमें इन्द्र और शम्बरासुरका संवाद”
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इस विषयमें इन्द्र और शम्बरासुरके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है, इसे सुनो || १ ।।
एक समयकी बात है, देवराज इन्द्र अज्ञातरूपसे रजोगुणसम्पन्न जटाधारी तपस्वी बनकर एक बेडौल रथपर सवार हो शम्बरासुरके पास गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने उससे पूछा ।। २ ।।
इन्द्र बोले--शम्बरासुर! किस बर्तावसे अपनी जातिवालोंपर शासन करते हो? वे किस कारण तुम्हें सर्वश्रेष्ठ मानते हैं? यह ठीक-ठीक बतलाओ ।। ३ ।।
शम्बरासुरने कहा--मैं ब्राह्मणोंमें कभी दोष नहीं देखता। उनके मतको ही अपना मत समझता हूँ और शास्त्रोंकी बात बतानेवाले विप्रोंका सदा सम्मान करता हूँ--उन्हें यथासाध्य सुख देनेकी चेष्टा करता हूँ ।। ४ ।।
सुनकर उनके वचनोंकी अवहेलना नहीं करता। कभी उनका अपराध नहीं करता। उनकी पूजा करके कुशल पूछता हूँ और बुद्धिमान ब्राह्मणोंके पाँव पकड़ता हूँ ।। ५ ।।
ब्राह्मण भी अत्यन्त विश्वस्त होकर मेरे साथ बातचीत करते और मेरी कुशल पूछते हैं। ब्राह्मणोंके असावधान रहनेपर भी मैं सदा सावधान रहता हूँ। उनके सोते रहनेपर भी मैं जागता रहता हूँ ।। ६ ।।
मुझे शास्त्रीय मार्गपर चलनेवाला ब्राह्मणभक्त तथा अदोषदर्शी जानकर वे उपदेशक ब्राह्मण मुझे उसी प्रकार सदुपदेशके अमृतसे सींचते रहते हैं जैसे मधुमक्खियाँ मधुके छत्तेको ।। ७ ।।
संतुष्ट होकर वे मुझसे जो कुछ कहते हैं उसे मैं अपनी बुद्धिके द्वारा ग्रहण करता हूँ। सदा ब्राह्मणोंमें अपनी निष्ठा बनाये रखता हूँ और नित्यप्रति उनके अनुकूल विचार रखता हूँ ।। ८ ।।
उनकी वाणीसे जो उपदेशका मधुर रस प्रवाहित होता है उसका मैं आस्वादन करता रहता हूँ। इसीलिये नक्षत्रोंपर चन्द्रमाकी भाँति मैं अपनी जातिवालोंपर शासन करता हूँ ।। ९ |।
ब्राह्मणके मुखसे शास्त्रका उपदेश सुनकर इस जीवनमें उसके अनुसार बर्ताव करना ही पृथ्वीपर सर्वोत्तम अमृत और सर्वोत्तम दृष्टि है ।। १० ।।
इस कारणको जानकर अर्थात् ब्राह्मणके उपदेशके अनुसार चलना ही अमृत है--इस बातको भलीभाँति समझकर पूर्वकालमें देवासुरसंग्रामको उपस्थित हुआ देख मेरे पिता मन-ही-मन प्रसन्न और विस्मित हुए थे ।।
महात्मा ब्राह्मणोंकी इस महिमाको देखकर उन्होंने चन्द्रमासे पूछा--“निशाकर! इन ब्राह्मणोंको किस प्रकार सिद्धि प्राप्त हुई?” ।। १२ ।।
चन्द्रमाने कहा--दानवराज! सम्पूर्ण ब्राह्मण तपस्यासे ही सिद्ध हुए हैं। इनका बल सदा इनकी वाणीमें ही होता है। राजाओंका बल उनकी भुजाएँ हैं और ब्राह्मणोंका बल उनकी वाणी ।। १३ ।।
पहले गुरुके घरमें ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए क्लेश-सहनपूर्वक निवास करके प्रणवसहित वेदका अध्ययन करना चाहिये। फिर अन्तमें क्रोध त्यागकर शान्तभावसे संन्यास ग्रहण करना चाहिये। यदि संन्यासी हो तो सर्वत्र समान दृष्टि रखे ।। १४ ।।
जो सम्पूर्ण वेदोंको पिताके घरमें रहकर पढ़ता है वह ज्ञानसम्पन्न और प्रशंसनीय होनेपर भी दिद्वानोंके द्वारा ग्रामीण (गँवार) ही समझा जाता है। (वास्तवमें गुरुके घरमें क्लेश-सहनपूर्वक रहकर वेद पढ़नेवाला ही श्रेष्ठ है) || १५ ।।
जैसे साँप बिलमें रहनेवाले छोटे जीवोंको निगल जाता है, उसी प्रकार युद्ध न करनेवाले क्षत्रिय और विद्याके लिये प्रवास न करनेवाले ब्राह्मणको यह पृथ्वी निगल जाती है ।। १६ |।
मन्दबुद्धि पुरुषके भीतर जो अभिमान होता है वह उसकी लक्ष्मीका नाश करता है। गर्भ धारण करनेसे कन्या दूषित हो जाती है और सदा घरमें रहनेसे ब्राह्मण दूषित समझे जाते हैं ।। १७ ।।
जो इहलोक और परलोक दोनोंको सुधारना चाहते हों, उन्हें विद्वान, लौकिक बातोंके ज्ञाता, तपस्वी और शक्तिशाली ब्राह्मणोंकी सदा पूजा और वन्दना करनी चाहिये ।।
अदभुत दर्शनवाले चन्द्रमासे यह बात सुनकर मेरे पिताजीने महान् व्रतधारी ब्राह्मणोंका पूजन किया। वैसे ही मैं भी करता हूँ ।। १८ ।।
भीष्मजी कहते हैं--भारत! दानवराज शम्बरके मुखसे यह वचन सुनकर इन्द्रने ब्राह्मणोंका पूजन किया, इससे उन्हें महेन्द्रपदकी प्राप्ति हुई ।। १९ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें ब्राह्मणकी प्रशंसाके प्रसंगमें इन्द्र और शग्बरायुरका संवादविषयक छत्तीयवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २० श्लोक हैं)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
सैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) सैतीसवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“दानपात्रकी परीक्षा”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! दानका पात्र कौन होता है? अपरिचित पुरुष या बहुत दिनोंतक अपने साथ रहा हुआ पुरुष। अथवा किसी दूर देशसे आया हुआ मनुष्य? इनमेंसे किसको दानका उत्तम पात्र समझना चाहिये? ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! कितने ही याचकोंका तो यज्ञ, गुरुदक्षिणा या कुटुम्बका भरण-पोषण आदि कार्य ही मनोरथ होता है और किन्हींका उत्तम मौनव्रतसे रहकर निर्वाह करना प्रयोजन होता है। इनमेंसे जो-जो याचक जिस किसी वस्तुकी याचना करे उन सबके लिये यही कहना चाहिये कि “हम देंगे” (किसीको निराश नहीं करना चाहिये) ।। २ ।।
परंतु हमने सुना है कि 'जिनके भरण-पोषणका अपने ऊपर भार है उस समुदायको कष्ट दिये बिना ही दाताको दान करना चाहिये। जो पोष्यवर्गको कष्ट देकर या भूखे मारकर दान करता है वह अपने आपको नीचे गिराता है' || ३ ।।
इस दृष्टिसे विचार करनेपर जो पहलेसे परिचित नहीं है या जो चिरकालसे साथ रह चुका है, अथवा जो दूर देशसे आया हुआ है--इन तीनोंको ही विद्वान् पुरुष दान-पात्र समझते हैं ।। ४ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! किसी प्राणीको पीड़ा न दी जाय और धर्ममें भी बाधा न आने पाये, इस प्रकार दान देना उचित है; परंतु पात्रकी यथार्थ पहचान कैसे हो? जिससे दिया हुआ दान पीछे संतापका कारण न बने ।। ५ ।।
भीष्मजीने कहा--बेटा! ऋत्विक्, पुरोहित, आचार्य, शिष्य, सम्बन्धी, बान्धव, विद्वान् और दोष-दृष्टिसे रहित पुरुष--ये सभी पूजनीय और माननीय हैं ।। ६ ।।
इनसे भिन्न प्रकारके तथा भिन्न बर्ताववाले जो लोग हैं, वे सब सत्कारके पात्र नहीं हैं; अतः एकाग्रचित्त होकर प्रतिदिन सुपात्र पुरुषोंकी परीक्षा करनी चाहिये ।।
भारत! क्रोधका अभाव, सत्य-भाषण, अहिंसा, इन्ट्रियसंयम, सरलता, द्रोहहीनता, अभिमानशून्यता, लज्जा, सहनशीलता, दम और मनोनिग्रह--ये गुण जिनमें स्वभावतः दिखायी दें और धर्मविरुद्ध कार्य दृष्टिगोचर न हों, वे ही दानके उत्तम पात्र और सम्मानके अधिकारी हैं ।। ८-९ ।।
जो पुरुष बहुत दिनोंतक अपने साथ रहा हो, एवं जो कहींसे तत्काल आया हो, वह पहलेका परिचित हो या अपरिचित, वह दानका पात्र और सम्मानका अधिकारी है ।। १० ।।
वेदोंको अप्रामाणिक मानना, शास्त्रकी आज्ञाका उललड्घन करना तथा सर्वत्र अव्यवस्था फैलाना--ये सब अपना ही नाश करनेवाले हैं ।। ११ ।।
जो ब्राह्मण अपने पाण्डित्यका अभिमान करके व्यर्थके तर्कका आश्रय लेकर वेदोंकी निन्दा करता है, आन्वीक्षिकी निरर्थक तर्कविद्यामें अनुराग रखता है, सत्पुरुषोंकी सभामें कोरी तर्ककी बातें कहकर विजय पाता, शास्त्रानुकूल युक्तियोंका प्रतिपादन नहीं करता, जोर-जोरसे हल्ला मचाता और ब्राह्मणोंके प्रति सदा अतिवाद (अमर्यादित वचन)-का प्रयोग करता है, जो सबपर संदेह करता है, जो बालकों और मूर्खोका-सा व्यवहार करता तथा कटुवचन बोलता है, तात! ऐसे मनुष्यको अस्पृश्य समझना चाहिये। विद्वान् पुरुषोंने ऐसे पुरुषको कुत्ता माना है ।। १२--१४ ।।
जैसे कुत्ता भूँकने और काटनेके लिये निकट आ जाता है, उसी प्रकार वह बहस करने और शास्त्रोंका खण्डन करनेके लिये इधर-उधर दौड़ता-फिरता है (ऐसा व्यक्ति दानका पात्र नहीं है) || १५ ।।
मनुष्यको जगत्के व्यवहारपर दृष्टि डालनी चाहिये। धर्म और अपने कल्याणके उपायोंपर भी विचार करना चाहिये। ऐसा करनेवाला मनुष्य सदा ही अभ्युदयशील होता है ।। १६ |।
जो यज्ञ-यागादि करके देवताओंके ऋणसे, वेदोंका स्वाध्याय करके ऋषियोंके ऋणसे, श्रेष्ठ पुत्रकी उत्पत्ति तथा श्राद्ध करके पितरोंके ऋणसे, दान देकर ब्राह्मणोंक ऋणसे और आतिथ्य सत्कार करके अतिथियोंके ऋणसे मुक्त होता है तथा क्रमशः विशुद्ध और विनययुक्त प्रयत्नसे शास्त्रोक्त कर्मोंका अनुष्ठान करता है, वह गृहस्थ कभी धर्मसे भ्रष्ट नहीं होता ।। १७-१८ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें पात्रकी परीक्षाविषयक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
अड़तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) अड़तीसवें अध्याय के श्लोक 1-30 का हिन्दी अनुवाद)
“पञ्चचूड़ा अप्सराका नारदजीसे स्त्रियोंके दोषोंका वर्णन करना”
युधिष्ठिरे कहा--भरतश्रेष्ठ! मैं स्त्रियोंके स्वभावका वर्णन सुनना चाहता हूँ; क्योंकि सारे दोषोंकी जड़ स्त्रियाँ ही हैं। वे ओछी बुद्धिवाली मानी गयी हैं ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! इस विषयमें देवर्षि नारदका अप्सरा पञ्चचूड़ाके साथ जो संवाद हुआ था, उसी प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है || २ ।।
पहलेकी बात है, सम्पूर्ण लोकोंमें विचरते हुए देवर्षि नारदने एक दिन ब्रह्मलोककी अनिन्द्य सुन्दरी अप्सरा पञ्चचूड़ाको देखा ।। ३ ।।
मनोहर अंगोंसे युक्त उस अप्सराको देखकर मुनिने उसके सामने अपना प्रश्न रखा --'सुमध्यमे! मेरे हृदयमें एक महान् संदेह है। उसके विषयमें मुझे यथार्थ बात बताओ” ।। ४ ।।
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! नारदजीके ऐसा कहनेपर पंचचूड़ा अप्सराने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया--*यदि आप मुझे उस प्रश्नका उत्तर देनेके योग्य मानते हैं और वह बताने योग्य है तो अवश्य बताऊँगी' || ५ ।।
नारदजीने कहा--भद्रे! मैं तुम्हें ऐसी बात बतानेके लिये नहीं कहूँगा जो कहने योग्य न हो; अथवा तुम्हारा विषय न हो। सुमुखि! मैं तुम्हारे मुँहसे स्त्रियोंक स्वभावका वर्णन सुनना चाहता हूँ ।। ६ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! नारदजीका यह वचन सुनकर वह उत्तम अप्सरा बोली -- देवर्षे! मैं स्त्री होकर स्त्रियोंकी निन्दा नहीं कर सकती ।। ७ ।।
संसारमें जैसी स्त्रियाँ हैं और उनके जैसे स्वभाव हैं, वे सब आपको विदित हैं; अतः देवर्ष! आप मुझे ऐसे कार्यमें न लगावें' ।। ८ ।।
तब देवर्षिने उससे कहा--'सुमध्यमे! तुम सच्ची बात बताओ। झूठ बोलनेमें दोष लगता है। सच कहनेमें कोई दोष नहीं है” || ९ ।।
उनके इस प्रकार समझानेपर उस मनोहर हास्यवाली अप्सराने कहनेके लिये दृढ़ निश्चय करके स्त्रियोंके सच्चे और स्वाभाविक दोषोंको बताना आरम्भ किया ।। १०।।
पंचचूड़ा बोली--नारदजी! कुलीन, रूपवती और सनाथ युवतियाँ भी मर्यादाके भीतर नहीं रहती हैं। यह स्त्रियोंका दोष है ।। ११ ।।
स्त्रियोंसे बढ़कर पापिष्ठ दूसरा कोई नहीं है। स्त्रियाँ सारे दोषोंकी जड़ हैं, इस बातको आप भी अच्छी तरह जानते हैं ।। १२ ।।
यदि स्त्रियोंको दूसरोंसे मिलनेका अवसर मिल जाय तो वे सदगुणोंमें विख्यात, धनवान, अनुपम रूप-सौन्दर्यशाली तथा अपने वशमें रहनेवाले पतियोंकी भी प्रतीक्षा नहीं कर सकतीं ।। १३ ।।
प्रभो! हम स्त्रियोंमें यह सबसे बड़ा पातक है कि हम पापीसे पापी पुरुषोंको भी लाज छोड़कर स्वीकार कर लेती हैं || १४ ।।
जो पुरुष किसी स्त्रीको चाहता है, उसके निकटतक पहुँचता है और उसकी थोड़ी-सी सेवा कर देता है, उसीको वे युवतियाँ चाहने लगती हैं ।। १५ ।।
स्त्रियोंमें स्वयं मर्यादाका कोई ध्यान नहीं रहता। जब उनको कोई चाहनेवाला पुरुष न मिले और परिजनोंका भय बना रहे तथा पति पास हों, तभी ये नारियाँ मर्यादाके भीतर रह पाती हैं ।। १६ ।।
इनके लिये कोई भी पुरुष ऐसा नहीं है जो अगम्य हो। उनका किसी अवस्था-विशेषपर भी निश्चय नहीं रहता। कोई रूपवान् हो या कुरूप; पुरुष है--इतना ही समझकर स्त्रियाँ उसका उपभोग करती हैं ।। १७ ।।
स्त्रियाँ न तो भयसे, न दयासे, न धनके लोभसे और न जाति या कुलके सम्बन्धसे ही पतियोंके पास टिकती हैं ।। १८ ।।
जो जवान हैं, सुन्दर गहने और अच्छे कपड़े पहनती हैं, ऐसी स्वेच्छाचारिणी स्त्रियोंके चरित्रको देखकर कितनी ही कुलवती स्त्रियाँ भी वैसी ही बननेकी इच्छा करने लगती हैं ।। १९ ।।
जो बहुत सम्मानित और पतिकी प्यारी स्त्रियाँ हैं, जिनकी सदा अच्छी तरह रखवाली की जाती है वे भी घरमें आने-जानेवाले कुबड़ों, अन्धों, गूँगों और बौनोंके साथ भी फँस जाती हैं || २० ।।
महामुनि देवर्षे! जो पंगु हैं अथवा जो अत्यन्त घृणित मनुष्य हैं, उनमें भी स्त्रियोंकी आसक्ति हो जाती है। इस संसारमें कोई भी पुरुष स्त्रियोंके लिये अगम्य नहीं है | २१
ब्रह्मन! यदि स्त्रियोंको पुरुषकी प्राप्ति किसी प्रकार भी सम्भव न हो और पति भी दूर गये हों तो वे आपसमें ही कृत्रिम उपायोंसे ही मैथुनमें प्रवृत्त हो जाती हैं |। २२ ।।
पुरुषोंके न मिलनेसे, घरके दूसरे लोगोंके भयसे तथा वध और बन्धनके डरसे ही स्त्रियाँ सुरक्षित रहती हैं | २३ ।।
स्त्रियोंका स्वभाव चंचल होता है। उनका सेवन बहुत ही कठिन काम है। इनका भाव जल्दी किसीके समझमें नहीं आता; ठीक उसी तरह, जैसे विद्वान् पुरुषकी वाणी दुर्बोध होती है || २४ ।।
अग्नि कभी ईंधनसे तृप्त नहीं होती, समुद्र कभी नदियोंसे तृप्त नहीं होता, मृत्यु समस्त प्राणियोंको एक साथ पा जाय तो भी उनसे तृप्त नहीं होती; इसी प्रकार सुन्दर नेत्रोंवाली युवतियाँ पुरुषोंसे कभी तृप्त नहीं होतीं || २५ ।।
देवर्षे! सम्पूर्ण रमणियोंके सम्बन्धमें दूसरी भी रहस्यकी बात यह है कि किसी मनोरम पुरुषको देखते ही स्त्रीकी योनि गीली हो जाती है || २६ ।।
सम्पूर्ण कामनाओंके दाता तथा मनचाही करनेवाला पति भी यदि उनकी रक्षामें तत्पर रहनेवाला हो तो वे अपने पतिके शासनको भी सहन नहीं कर सकतीं ।। २७ ।।
वे न तो काम-भोगकी प्रचुर सामग्रीको, न अच्छे-अच्छे गहनोंको और न उत्तम घरोंको ही उतना अधिक महत्त्व देती हैं, जैसा कि रतिके लिये किये गये अनुग्रहको ।। २८ ।।
यमराज, वायु, मृत्यु, पाताल, बड़वानल, धुरेकी धार, विष, सर्प और अग्नि--ये सब विनाशके हेतु एक तरफ और स्त्रियाँ अकेली एक तरफ बराबर हैं ।। २९ |।
नारद! जहाँसे पाँचों महाभूत उत्पन्न हुए हैं, जहाँसे विधाताने सम्पूर्ण लोकोंकी सृष्टि की है तथा जहाँसे पुरुषों और स्त्रियोंका निर्माण हुआ है, वहींसे स्त्रियोंमें ये दोष भी रचे गये हैं (अर्थात् ये स्त्रियोंके स्वाभाविक दोष हैं) || ३० ।।
(इस प्रकार श्रीमह्याभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें पंचचूड़ा और नारदका संवादविषयक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
उनतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) उनतालीसवें अध्याय के श्लोक 1-36 का हिन्दी अनुवाद)
“स्त्रियोंकी रक्षाके विषयमें युधिष्ठिरका प्रश्न”
युधिष्ठिर बोले--पृथ्वीनाथ! संसारके ये मनुष्य विधाताद्वारा उत्पन्न किये गये महान् मोहसे आविष्ट हो सदा ही स्त्रियोंमें आसक्त होते हैं |। १ ।।
इसी तरह स्त्रियाँ भी पुरुषोंमें ही आसक्त होती हैं। यह बात प्रत्यक्ष देखी जाती है और लोग इसके साक्षी हैं। इस बातको लेकर मेरे मनमें भारी संदेह खड़ा हो गया है ।। २ ।
कुरुनन्दन! पुरुष क्यों इन स्त्रियोंका संग करते हैं? अथवा स्त्रियाँ भी किस निमित्तसे पुरुषोंमें अनुरक्त एवं विरक्त होती हैं || ३ ।।
पुरुषसिंह! पुरुष यौवनसे उन्मत्त स्त्रियोंकी रक्षा कैसे कर सकता है? यह विस्तारपूर्वक बतानेकी कृपा करें ।।
ये रमण करती हुई भी यहाँ पुरुषोंको ठगती रहती हैं। इनके हाथमें आया हुआ कोई भी पुरुष इनसे बचकर नहीं जा सकता || ५ |।
जैसे गौएँ नयी-नयी घास चरती हैं, उसी प्रकार ये नारियाँ नये-नये पुरुषको अपनाती रहती हैं। शम्बरासुरकी जो माया है तथा नमुचि, बलि और कुम्भीनसीकी जो मायाएँ हैं, उन सबको ये युवतियाँ जानती हैं ।। ६३ ||
पुरुषको हँसते देख ये स्त्रियाँ जोर-जोरसे हँसती हैं। उसे रोते देख स्वयं भी फूटफ़ूटकर रोने लगती हैं और अवसर आनेपर अप्रिय पुरुषको प्रिय वचनोंद्वारा अपना लेती हैं ।। ७३ ||
जिस नीतिशास्त्रको शुक्राचार्य जानते हैं, जिसे बृहस्पति जानते हैं, वह भी स्त्रीकी बुद्धिसे बढ़कर नहीं है। ऐसी स्त्रियोंकी रक्षा पुरुष कैसे कर सकते हैं ।। ८ $ ।।
वीर! जिनके झूठको भी सच और सचको भी झूठ बताया गया है, ऐसी स्त्रियोंकी रक्षा पुरुष यहाँ कैसे कर सकते हैं? ।। ९६ ।।
शत्रुघाती नरेश! मुझे तो ऐसा लगता है कि स्त्रियोंकी बुद्धिमें जो अर्थ भरा है, उसीका निष्कर्ष (सारांश) लेकर बृहस्पति आदि सत्पुरुषोंने नीतिशास्त्रोंकी रचना की है ।। १०३
नरेश्वर! पुरुषोंद्वारा सम्मानित होनेपर भी ये रमणियाँ उनका मन विकृत कर देती हैं और उनके द्वारा तिरस्कृत होनेपर भी उनके मनमें विकार उत्पन्न कर देती हैं ।। ११६
महाबाहो! हमने सुन रखा है कि ये स्त्रीरूपिणी प्रजाएँ बड़ी धार्मिक होती हैं (जैसा कि सावित्री आदिके जीवनसे प्रत्यक्ष हो चुका है); फिर भी ये स्त्रियाँ सम्मानित हों या असम्मानित, सदा ही पुरुषोंके मनमें विकार उत्पन्न करती रहती हैं। उनकी रक्षा कौन कर सकता है? यही मेरे मनमें महान् संशय है | १२-१३ ।।
महाभाग! कुरुकुलवर्धन! कुरुश्रेष्ठी यदि किसी प्रकार कभी भी उनकी रक्षा की जा सके तो वह बताइये। यदि किसीने पहले कभी किसी स्त्रीकी रक्षा की हो तो वह कथा भी मुझे विस्तारके साथ बताइये ।। १४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें स््रियोंके स््वभावका वर्णनविषयक उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
चालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) चालीसवें अध्याय के श्लोक 1-62 का हिन्दी अनुवाद)
“भृगुवंशी विपुलके द्वारा योगबलसे गुरुपत्नीके शरीरमें प्रवेश करके उसकी रक्षा करना”
भीष्मजीने कहा--महाबाहो! कुरुनन्दन! ऐसी ही बात है। नरेश्वर! नारियोंके सम्बन्धमें तुम जो कुछ कह रहे हो, उसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है ।। १ ।।
इस विषयमें मैं तुम्हें एक प्राचीन इतिहास बताऊँगा कि पूर्वकालमें महात्मा विपुलने किस प्रकार एक स्त्री (गुरुपत्नी)-की रक्षा की थी | २ ।।
भरतश्रेष्ठ! तात! नरेश्वर! ब्रह्माजीने जिस प्रकार और जिस उद्देश्यसे युवतियोंकी सृष्टि की है, वह सब मैं तुम्हें बताऊँगा ।। ३ ।।
बेटा! स्त्रियोंसे बढ़कर पापिष्ठ दूसरा कोई नहीं है। यौवन-मदसे उन्मत्त रहनेवाली स्त्रियाँ वास्तवमें प्रजजलित अग्निके समान हैं। प्रभो! वे मयदानवकी रची हुई माया हैं ।। ४ ।।
छुरेकी धार, विष, सर्प और आग--ये सब विनाशके हेतु एक ओर और तरुणी स्त्रियाँ एक ओर। महाबाहो! पहले यह सारी प्रजा धार्मिक थी। यह हमने सुन रखा है। वे प्रजाएँ स्वयं देवत्वको प्राप्त हो जाती थीं। इससे देवताओंको बड़ा भय हुआ ।। ५६ ।।
शत्रुदमन! तब वे देवता ब्रह्माजीके पास गये और उनसे अपने मनकी बात निवेदन करके मुँह नीचे किये चुपचाप बैठ गये ।। ६६ ।।
उन देवताओंके मनकी बात जानकर भगवान् ब्रह्माने मनुष्योंको मोहमें डालनेके लिये कृत्यारूप नारियोंकी सृष्टि की || ७६ ।।
कुन्तीनन्दन! सृष्टिके प्रारम्भमें यहाँ सब स्त्रियाँ पतिव्रता ही थीं। कृत्यारूप दुष्ट स्त्रियाँ तो प्रजापतिकी इस नूतन सृष्टिसे ही उत्पन्न हुई हैं। प्रजापतिने उन्हें उनकी इच्छाके अनुसार कामभाव प्रदान किया ।। ८-९ ।।
वे मतवाली युवतियाँ कामलोलुप होकर पुरुषोंको सदा बाधा देती रहती हैं। देवेश्वर भगवान् ब्रह्माने कामकी सहायताके लिये क्रोधको उत्पन्न किया। इन्हीं काम और क्रोधके वशीभूत होकर स्त्री और पुरुषरूप सारी प्रजा परस्पर आसक्त होती है || १०३ ।।
ब्राह्मण, गुरु, महागुरु और राजा--इन सबको स्टत्रीके क्षणिक संगसे निरन्तर कामजनित यातना सहनी पड़ती है।
जिनका मन कहीं आसक्त नहीं है, जिन्होंने ब्रह्मचर्यके पालनपूर्वक अपने अन्तःकरणको निर्मल बना लिया है तथा जो तपस्या, इन्द्रियसंयम और ध्यान-पूजनमें संलगन हैं, उन्हींकी उत्तम शुद्धि होती है ।।
स्त्रियोंके लिये किन्हीं वैदिक कर्मोंके करनेका विधान नहीं है। यही धर्मशास्त्रकी व्यवस्था है। स्त्रियाँ इन्द्रियशून्य हैं अर्थात् वे अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखनेमें असमर्थ हैं। शास्त्रज्ञाससे रहित हैं और असत्यकी मूर्ति हैं। ऐसा उनके विषयमें श्रुतिका कथन है। प्रजापतिने स्त्रियोंको शय्या, आसन, अलंकार, अन्न, पान, अनार्यता, दुर्वचन, प्रियता तथा रति प्रदान की है ।। ११-१२ ६ ।।
तात! लोकस्रष्टा ब्रह्मा-जैसा पुरुष भी स्त्रियोंकी किसी प्रकार रक्षा नहीं कर सकता, फिर साधारण पुरुषोंकी तो बात ही क्या ।। १३६ ।।
वाणीके द्वारा एवं वध और बन्धनके द्वारा रोककर अथवा नाना प्रकारके क्लेश देकर भी स्त्रियोंकी रक्षा नहीं की जा सकती; क्योंकि वे सदा असंयमशील होती हैं || १४३ ।।
पुरुषसिंह! पूर्वकालमें मैंने यह सुना था कि प्राचीनकालमें महात्मा विपुलने अपनी गुरुपत्नीकी रक्षा की थी। कैसे की? यह मैं तुम्हें बता रहा हूँ || १५३ ।।
पहलेकी बात है, देवशर्मा नामके एक महा-भाग्यशाली ऋषि थे। उनके रुचि नामवाली एक स्त्री थी जो इस पृथ्वीपर अद्वितीय सुन्दरी थी ।। १६६ ।।
उसका रूप देखकर देवता, गन्धर्व और दानव भी मतवाले हो जाते थे। राजेन्द्र! वृत्रासुरका वध करनेवाले पाकशासन इन्द्र उस स्त्रीपर विशेषरूपसे आसक्त थे ।।
महामुनि देवशर्मा नारियोंके चरित्रको जानते थे; अतः वे यथाशक्ति उत्साहपूर्वक उसकी रक्षा करते थे ।।
वे यह भी जानते थे कि इन्द्र बड़ा ही पर-स्त्रीलम्पट है, इसलिये वे अपनी स्त्रीकी उनसे यत्नपूर्वक रक्षा करते थे || १९६ ।।
तात! एक समय ऋषिने यज्ञ करनेका विचार किया। उस समय वे यह सोचने लगे कि 'यदि मैं यज्ञमें लग जाऊँ तो मेरी स्त्रीकी रक्षा कैसे होगी" | २०६ ।।
फिर उन महा तपस्वीने मन-ही-मन उसकी रक्षाका उपाय सोचकर अपने प्रिय शिष्य भगुवंशी विपुलको बुलाकर कहा-- || २१६ ||
देवशर्मा बोले--वत्स! मैं यज्ञ करनेके लिये जाऊँगा। तुम मेरी इस पत्नी रुचिकी यत्नपूर्वक रक्षा करना; क्योंकि देवराज इन्द्र सदा इसे प्राप्त करनेकी चेष्टामें लगा रहता है।। २२३६ ||
भुगुश्रेष्ठ! तुम्हें इन्द्रकी ओरसे सदा सावधान रहना चाहिये; क्योंकि वह अनेक प्रकारके रूप धारण करता है || २३६ |।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! गुरुके ऐसा कहनेपर अग्नि और सूर्यके समान तेजस्वी, जितेन्द्रिय तथा सदा ही कठोर तपमें लगे रहनेवाले धर्मज्ञ एवं सत्यवादी विपुलने “बहुत अच्छा” कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। महाराज! फिर जब गुरुजी प्रस्थान करने लगे तब उसने पुनः इस प्रकार पूछा || २४-२५ ।।
विपुलने पूछा--मुने! इन्द्र जब आता है तब उसके कौन-कौन-से रूप होते हैं तथा उस समय उसका शरीर और तेज कैसा होता है? यह मुझे स्पष्टरूपसे बतानेकी कृपा करें ।। २६ ।।
भीष्मजी कहते हैं--भरतनन्दन! तदनन्तर भगवान् देवशर्माने महात्मा विपुलसे इन्द्रकी मायाको यथार्थरूपसे बताना आस्मभ किया ।। २७ ।।
देवशर्माने कहा--ब्रह्मर्ष! भगवान् पाकशासन इन्द्र बहुत-सी मायाओंके जानकार हैं। वे बारंबार बहुत-से रूप बदलते रहते हैं || २८ ।।
बेटा! वे कभी तो मस्तकपर किरीट-मुकुट, कानोंमें कुण्डल तथा हाथोंमें वज्र एवं धनुष धारण किये आते हैं और कभी एक ही मुहूर्तमें चाण्डालके समान दिखायी देते हैं; फिर कभी शिखा, जटा और चीरवस्त्र धारण करनेवाले ऋषि बन जाते हैं ।। २९-३० ।।
कभी विशाल एवं हृष्ट-पुष्ट शरीर धारण करते हैं तो कभी दुर्बल शरीरमें चिथड़े लपेटे दिखायी देते हैं। कभी गोरे, कभी साँवले और कभी काले रंगके रूप बदलते रहते हैं । ३१ ।।
वे एक ही क्षणमें कुरूप और दूसरे ही क्षणमें रूपवान् हो जाते हैं। कभी जवान और कभी बूढ़े बन जाते हैं। कभी ब्राह्मण बनकर आते हैं तो कभी क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रका रूप बना लेते हैं ।। ३२ ।।
वे इन्द्र कभी अनुलोम संकरका रूप धारण करते हैं तो कभी विलोम संकरका। वे तोते, कौए, हंस और कोयलके रूपमें भी दिखायी देते हैं || ३३ ।।
सिंह, व्याप्र और हाथीके भी रूप बारंबार धारण करते हैं। देवताओं, दैत्यों तथा राजाओंके शरीर भी धारण कर लेते हैं || ३४ ।।
वे कभी हृष्ट-पुष्ट, कभी वातरोगसे भग्न शरीरवाले और कभी पक्षी बन जाते हैं। कभी विकृत वेश बना लेते हैं। फिर कभी चौपाया (पशु), कभी बहुरूपिया और कभी गँवार बन जाते हैं || ३५ ।।
वे मक्खी और मच्छर आदिके भी रूप धारण करते हैं। विपुल! कोई भी उन्हें पकड़ नहीं सकता। तात! औरोंकी तो बात ही क्या है? जिन्होंने इस संसारको बनाया है वे विधाता भी उन्हें अपने काबूमें नहीं कर सकते। अन्तर्धान हो जानेपर इन्द्र केवल ज्ञानदृष्टिसे दिखायी देते हैं || ३६-३७ ।।
फिर वे वायुरूप होकर तुरंत ही देवराजके रूपमें प्रकट हो जाते हैं। इस तरह पाकशासन इन्द्र सदा नये-नये रूप धारण करता और बदलता रहता है || ३८ ।।
भुगुश्रेष्ठ विपुल! इसलिये तुम यत्नपूर्वक इस तनुमध्यमा रुचिकी रक्षा करना जिससे दुरात्मा देवराज इन्द्र यज्ञमें रखे हुए हविष्यको चाटनेकी इच्छावाले कुत्तेकी भाँति मेरी पत्नी रुचिका स्पर्श न कर सके ।।
भरतश्रेष्ठ] ऐसा कहकर महाभाग देवशर्मा मुनि यज्ञ करनेके लिये चले गये || ४० ३
गुरुकी बात सुनकर विपुल बड़ी चिन्तामें पड़ गये और महाबली देवराजसे उस स्त्रीकी बड़ी तत्परताके साथ रक्षा करने लगे || ४१३ ।।
उन्होंने मन-ही-मन सोचा, “मैं गुरुपत्नीकी रक्षाके लिये क्या कर सकता हूँ, क्योंकि वह देवराज इन्द्र मायावी होनेके साथ ही बड़ा दुर्धर्ष और पराक्रमी है ।।
“कुटी या आश्रमके दरवाजोंको बंद करके भी पाकशासन इन्द्रका आना नहीं रोका जा सकता; क्योंकि वे कई प्रकारके रूप धारण करते हैं || ४३ ६ ।।
सम्भव है, इन्द्र वायुका रूप धारण करके आये और गुरुपत्नीको दूषित कर डाले; इसलिये आज मैं रुचिके शरीरमें प्रवेश करके रहूँगा ।। ४४ ३ ।।
“अथवा पुरुषार्थके द्वारा मैं इसकी रक्षा नहीं कर सकता; क्योंकि ऐश्वर्यवाली पाकशासन इन्द्र बहुरूपिया सुने जाते हैं। अतः योगबलका आश्रय लेकर ही मैं इन्द्रसे इसकी रक्षा करूँगा || ४५-४६ ।।
“मैं गुरुपत्नीकी रक्षा करनेके लिये अपने सम्पूर्ण अंगोंसे इसके सम्पूर्ण अंगोंमें समा जाऊँगा। यदि आज मेरे गुरुजी अपनी इस पत्नीको किसी पर-पुरुषद्वारा दूषित हुई देख लेंगे तो कुपित होकर मुझे निस्संदेह शाप दे देंगे; क्योंकि वे महा तपस्वी गुरु दिव्यज्ञानसे सम्पन्न हैं | ४७३ ।।
“दूसरी युवतियोंकी तरह इस गुरुपत्नीकी भी मनुष्योंद्वारा रक्षा नहीं की जा सकती; क्योंकि देवराज इन्द्र बड़े मायावी हैं। अहो! मैं बड़ी संशयजनित अवस्थामें पड़ गया ।। ४८ !
“यहाँ गुरुने जो आज्ञा दी है, उसका पालन मुझे अवश्य करना चाहिये। यदि मैं ऐसा कर सका तो मेरे द्वारा यह एक आश्चर्यजनक कार्य सम्पन्न होगा ।। ४९६ ।।
“अतः मुझे गुरुपत्नीके शरीरमें योगबलसे प्रवेश करना चाहिये। जिस प्रकार कमलके पत्तेपर पड़ी हुई जलकी बूँद उसपर निर्लिप्त भावसे स्थिर रहती है उसी प्रकार मैं भी अनासक्त भावसे गुरुपत्नीके भीतर निवास करूँगा || ५०-५१ ।।
“मैं रजोगुणसे मुक्ता हूँ; अतः मेरे द्वारा कोई अपराध नहीं हो सकता, जैसे राह चलनेवाला बटोही कभी किसी सूनी धर्मशालामें ठहर जाता है उसी प्रकार आज मैं सावधान होकर गुरुपत्नीके शरीरमें निवास करूँगा। इसी तरह इसके शरीरमें मेरा निवास हो सकेगा” ।। ५२-५३ ।।
पृथ्वीनाथ! इस तरह धर्मपर दृष्टि डाल, सम्पूर्ण वेद-शास्त्रोंपर विचार करके अपनी तथा गुरुकी प्रचुर तपस्याको दृष्टिमें रखते हुए भृगुवंशी विपुलने गुरुपत्नीकी रक्षाके लिये अपने मनसे उपर्युक्त उपाय ही निश्चित किया और इसके लिये जो महान् प्रयत्न किया, वह बताता हूँ, सुनो-- || ५४-५५ ।।
“महा तपस्वी विपुल गुरुपत्नीके पास बैठ गये और पास ही बैठी हुई निर्दोष अंगोंवाली उस रुचिको अनेक प्रकारकी कथा-वार्ता सुनाकर अपनी बातोंमें लुभाने लगे || ५६ ।।
'फिर अपने दोनों नेत्रोंको उन्होंने उसके नेत्रोंकी ओर लगाया और अपने नेत्रोंकी किरणोंको उसके नेत्रोंकी किरणोंके साथ जोड़ दिया। फिर उसी मार्गसे आकाशमें प्रविष्ट होनेवाली वायुकी भाँति रुचिके शरीरमें प्रवेश किया” ।।
'वे लक्षणोंसे लक्षणोंमें और मुखके द्वारा मुखमें प्रविष्ट हो कोई चेष्टा न करते हुए स्थिर भावसे स्थित हो गये। उस समय अन्तर्हित हुए विपुल मुनि छायाके समान प्रतीत होते थे! ।। ५८ ||
“विपुल गुरुपत्नीके शरीरको स्तम्भित करके उसकी रक्षामें संलग्न हो वहीं निवास करने लगे। परंतु रुचिको अपने शरीरमें उनके आनेका पता न चला ।।
“राजन! जबतक महात्मा विपुलके गुरु यज्ञ पूरा करके अपने घर नहीं लौटे तबतक विपुल इसी प्रकार अपनी गुरुपत्नीकी रक्षा करते रहे” || ६० ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें विपुलका उपाख्यानविषयक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ६२ श्लोक हैं)
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