सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के इकत्तीसवें अध्याय से पैतीसवें अध्याय तक (From the 31 chapter to the 35 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

इकत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  इकत्तीसवें अध्याय के श्लोक 1-36 का हिन्दी अनुवाद)

“नारदजीके द्वारा पूजनीय पुरुषोंके लक्षण तथा उनके आदर-सत्कार और पूजनसे प्राप्त होनेवाले लाभका वर्णन”

युधिष्ठिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ! इन तीनों लोकोंमें कौन-कौन-से मनुष्य पूज्य होते हैं? यह विस्तार-पूर्वक बताइये। आपकी बातें सुनते-सुनते मुझे तृप्ति नहीं होती है ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें विज्ञ पुरुष देवर्षि नारद और भगवान्‌ श्रीकृष्णके संवादरूप इस इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। २ ।।

एक समयकी बात है, देवर्षि नारदजी हाथ जोड़कर उत्तम ब्राह्मणोंकी पूजा कर रहे थे। यह देखकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने पूछा--“भगवन्‌! आप किनको नमस्कार कर रहे हैं? । ३ ।।

'प्रभो! धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नारदजी! आपके हृदयमें जिनके प्रति बहुत बड़ा आदर है तथा आप भी जिनके सामने मस्तक झुकाते हैं, वे कौन हैं? यदि हमें सुनाना उचित समझें तो आप उन पूज्य पुरुषोंका परिचय दीजिये' || ४ ।।

नारदजीने कहा--शत्रुमर्दन गोविन्द! मैं जिनका पूजन करता हूँ उनका परिचय सुननेके लिये इस संसारमें आपसे बढ़कर दूसरा कौन पुरुष अधिकारी है? ।। ५ ।।

जो लोग वरुण, वायु, आदित्य, पर्जन्य, अग्नि, रुद्र, स्वामी कार्तिकेय, लक्ष्मी, विष्णु, ब्रह्मा, बृहस्पति, चन्द्रमा, जल, पृथ्वी और सरस्वतीको सदा प्रणाम करते हैं, प्रभो! मैं उन्हीं पूज्य पुरुषोंको मस्तक झुकाता हूँ ।।

वृष्णिसिंह! तपस्या ही जिनका धन है, जो वेदोंके ज्ञाता तथा वेदोक्त धर्मका ही आश्रय लेनेवाले हैं, उन परम पूजनीय पुरुषोंकी ही मैं सदा पूजा करता रहता हूँ ।। ८ ।।

प्रभो! जो भोजनसे पहले देवताओंकी पूजा करते, अपनी झूठी बड़ाई नहीं करते, संतुष्ट रहते और क्षमाशील होते हैं, उनको मैं प्रणाम करता हूँ ।। ९ ।।

यदुनन्दन! जो विधिपूर्वक यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं, जो क्षमाशील, जितेन्द्रिय और मनको वशमें करनेवाले हैं और सत्य, धर्म, पृथ्वी तथा गौओंकी पूजा करते हैं, उन्हींको मैं प्रणाम करता हूँ || १० ।।

यादव! जो लोग वनमें फल-मूल खाकर तपस्यामें लगे रहते हैं, किसी प्रकारका संग्रह नहीं रखते और क्रियानिष्ठ होते हैं, उन्हींको मैं मस्तक झुकाता हूँ ।।

जो माता-पिता, कुटुम्बीजन एवं सेवक आदि भरण-पोषणके योग्य व्यक्तियोंका पालन करनेमें समर्थ हैं, जिन्होंने सदा अतिथिसेवाका व्रत ले रखा है तथा जो देवयज्ञसे बचे हुए अन्नको ही भोजन करते हैं, मैं उन्हींके सामने नतमस्तक होता हूँ || १२ ।।

जो वेदका अध्ययन करके दुर्धर्ष और बोलनेमें कुशल हो गये हैं, ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं और यज्ञ कराने तथा वेद पढ़ानेमें लगे रहते हैं उनकी मैं सदा पूजा किया करता हूँ ।। १३ ।।

जो नित्य-निरन्तर समस्त प्राणियोंपर प्रसन्नचित्त रहते और सबेरेसे दोपहरतक वेदोंके स्वाध्यायमें संलग्न रहते हैं, उनका मैं पूजन करता हूँ ।। १४ ।।

यदुकुलतिलक! जो गुरुको प्रसन्न रखने और स्वाध्याय करनेके लिये सदा यत्नशील रहते हैं, जिनका व्रत कभी भंग नहीं होने पाता, जो गुरुजनोंकी सेवा करते और किसीके भी दोष नहीं देखते उनको मैं प्रणाम करता हूँ || १५ ।।

यदुनन्दन! जो उत्तम व्रतका पालन करनेवाले, मननशील, सत्यप्रतिज्ञ तथा हव्यकव्यको नियमित-रूपसे चलानेवाले ब्राह्मण हैं उनको मैं मस्तक झुकाता हूँ ।। १६ ।।

यदुकुलभूषण! जो गुरुकुलमें रहकर भिक्षासे जीवन निर्वाह करते हैं, तपस्यासे जिनका शरीर दुर्बल हो गया है और जो कभी धन तथा सुखकी चिन्ता नहीं करते हैं उनको मैं प्रणाम करता हूँ ।। १७ ।।

केशव! जिनके मनमें ममता नहीं है, जो प्रति-द्वन्धियोंसे रहित, लज्जासे ऊपर उठे हुए तथा कहीं भी कोई प्रयोजन न रखनेवाले हैं, जो वेदोंके ज्ञानका बल पाकर दुर्धर्ष हो गये हैं, प्रवचन-कुशल और ब्रह्मवादी हैं, जिन्होंने अहिंसामें तत्पर रहकर सदा सत्य बोलनेका व्रत ले रखा है तथा जो इन्द्रियसंयम एवं मनोनिग्रहके साधनमें संलग्न रहते हैं उनको मैं नमस्कार करता हूँ ।।

यादव! जो गृहस्थ ब्राह्मण सदा कपोतवृत्तिसे रहते हुए देवता और अतिथियोंकी पूजामें संलग्न रहते हैं, उनको मैं मस्तक झुकाता हूँ |। २० ।।

जिनके कार्योमें धर्म, अर्थ और काम तीनोंका निर्वाह होता है, किसी एककी भी हानि नहीं होने पाती तथा जो सदा शिष्टाचारमें ही संलग्न रहते हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूँ ।। २१ ।।

केशव! जो ब्राह्मण वेद-शास्त्रोंके ज्ञानसे सम्पन्न, धर्म, अर्थ और कामका सेवन करनेवाले, लोलुपतासे रहित और स्वभावत:ः पुण्यात्मा हैं उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ ।। २२ ।।

माधव! जो नाना प्रकारके व्रतोंका पालन करते हुए केवल पानी या हवा पीकर ही रह जाते हैं तथा जो सदा यज्ञशेष अन्नका ही भोजन करते हैं उनके चरणोंमें मैं प्रणाम करता हूँ ।। २३ ।।

जो स्त्री नहीं रखते अर्थात्‌ ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं, जो अग्निहोत्रसे युक्त हैं तथा जो वेदोंको धारण करनेवाले हैं और समस्त प्राणियोंके आत्मस्वरूप परमात्माको ही सबका कारण माननेवाले हैं उनकी मैं सदा वन्दना करता हूँ ।। २४ ।।

श्रीकृष्ण! जो लोकोंकी सृष्टि करनेवाले, संसारमें सबसे श्रेष्ठ, उत्तम कुलमें उत्पन्न, अज्ञानान्धकारका नाश करनेवाले तथा सूर्यके समान जगत्‌को ज्ञानालोक प्रदान करनेवाले हैं उन ऋषियोंको मैं सदा मस्तक झुकाता हूँ || २५ ।।

वार्ष्णेय! अतः आप भी सदा ब्राह्मणोंका पूजन करें। निष्पाप श्रीकृष्ण! वे पूजनीय ब्राह्मण पूजित होनेपर आपको अपने आशीर्वादसे सुख प्रदान करेंगे ।। २६ ।।

ये ब्राह्मण सदा इहलोक और परलोकमें भी सुख प्रदान करते हुए विचरते हैं। ये सम्मानित होनेपर आपको अवश्य ही सुख प्रदान करेंगे || २७ ।।

जो सबका अतिथि सत्कार करते तथा गौ-ब्राह्मण और सत्यपर प्रेम रखते हैं वे बड़ेबड़े संकटसे पार हो जाते हैं || २८ ।।

जो सदा मनको वशमें रखते, किसीके दोषपर दृष्टि नहीं डालते और प्रतिदिन स्वाध्यायमें संलग्न रहते हैं वे दुर्गण संकटसे पार हो जाते हैं || २९ ।।

जो सब देवताओंको प्रणाम करते हैं, एकमात्र वेदका आश्रय लेते, श्रद्धा रखते और इन्द्रियोंको वशमें रखते हैं वे भी दुस्तर संकटसे छुटकारा पा जाते हैं ।।

इसी प्रकार जो नियमपूर्वक व्रतोंका पालन करते हैं और श्रेष्ठ ब्राह्मगोंको नमस्कार करके उन्हें दान देते हैं वे दुस्तर विपत्ति लाँघ जाते हैं || ३१ ।।

जो तपस्वी, आबालब्रह्मचारी और तपस्यासे शुद्ध अन्तःकरणवाले हैं वे दुर्गमण संकटसे पार हो जाते हैं || ३२ ।।

जो देवता, अतिथि, पोष्यवर्ग तथा पितरोंके पूजनमें तत्पर रहते हैं और यज्ञशिष्ट अन्नका भोजन करते हैं वे भी दुर्गम संकटसे पार हो जाते हैं ।। ३३ ।।

जो विधिपूर्वक अग्निकी स्थापना करके सदा अग्निदेवकी उपासना और वन्दना करते हुए सर्वदा उस अग्निकी रक्षा करते हैं; तथा उसमें सोमरसकी आहुति देते हैं वे दुस्तर विपत्तिसे पार हो जाते हैं || ३४ ।।

वृष्णिसिंह! जो आपकी ही भाँति माता-पिता और गुरुके प्रति पूर्णतः न्याययुक्त बर्ताव करते हैं वे भी संकटसे पार हो जाते हैं--ऐसा कहकर नारदजी चुप हो गये ।। ३५ ।।

अतः कुन्तीनन्दन! यदि तुम भी सदा देवताओं, पितरों, ब्राह्मणों और अतिथियोंका भलीभाँति पूजन एवं सत्कार करते रहोगे तो अभीष्ट गति प्राप्त कर लोगे || ३६ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपरव्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें श्रीकृष्णनारदसंवादविषयक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

बत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  बत्तीसवें अध्याय के श्लोक 1-39 का हिन्दी अनुवाद)

“राजर्षि वृषदर्भ (या उशीनर)-के द्वारा शरणागत कपोतकी रक्षा तथा उस पुण्यके प्रभावसे अक्षयलोककी प्राप्ति”

युधिष्ठिरने पूछा--महाप्राज्ञ पितामह! आप सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण हैं, अतः भरतसत्तम! मैं आपसे ही धर्मविषयक उपदेश सुनना चाहता हूँ ।। १ ।।

भरतश्रेष्ठी अब यह बतानेकी कृपा कीजिये कि जो लोग शरणमें आए हुए अण्डज, पिण्डज, स्वेदज और उद्धिज्ज--इन चार प्रकारके प्राणियोंकी रक्षा करते हैं उनको वास्तवमें क्या फल मिलता है? ।। २ ।।

भीष्मजीने कहा--महा प्राज्ञ, महायशस्वी धर्मपुत्र युधिष्ठिर! शरणागतकी रक्षा करनेसे जो महान्‌ फल प्राप्त होता है, उसके विषयमें तुम यह एक प्राचीन इतिहास सुनो ।। ३ ।।

एक समयकी बात है, एक बाज किसी सुन्दर कबूतरको मार रहा था। वह कबूतर बाजके डरसे भागकर महाभाग राजा वृषदर्भ (उशीनर)-की शरणमें गया ।। ४ ।।

भयके मारे अपनी गोदमें आये हुए उस कबूतरको देखकर विशुद्ध अन्त:करणवाले राजा उशीनरने उस पक्षीको आश्वासन देकर कहा--“अण्डज! शान्त रह। यहाँ तुझे कोई भय नहीं है ।। ५ ।।

“बता, तुझे यह महान्‌ भय कहाँ और किससे प्राप्त हुआ है? तूने क्या अपराध किया है? जिससे तेरी चेतना भ्रान्त-सी हो रही है तथा तू यहाँ बेसुध-सा होकर आया है ।। ६ ।।

“नूतन नील-कमलके हारकी भाँति तेरी मनोहर कान्ति है। तू देखनेमें बड़ा सुन्दर है। तेरी आँखें अनार और अशोकके फूलोंकी भाँति लाल हैं। तू भयभीत न हो। मैं तुझे अभय दान देता हूँ || ७ ।।

“अब तू मेरे पास आ गया है; अतः रक्षाध्यक्षके सामने है। यहाँ तुझे कोई मनसे भी पकड़नेका साहस नहीं कर सकता ।। ८ ।।

“कबूतर! आज ही मैं तेरी रक्षाके लिये यह काशिराज्य अर्थात्‌ प्रकाशमान उशीनर देशका राज्य तथा अपना जीवन भी निछावर कर दूँगा। तू इस बातपर विश्वास करके निश्चिन्त हो जा। अब तूझे कोई भय नहीं है' ।। ९ ।।

इतनेहीमें बाज भी वहाँ आ गया और बोला--राजन्‌! विधाताने इस कबूतरको मेरा भोजन नियत किया है। आप इसकी रक्षा न करें। इसका जीवन गया हुआ ही है; क्योंकि अब यह मुझे मिल गया है। इसे मैंने बड़े प्रयत्नसे प्राप्त किया है ।। १० ।।

इसके रक्त, मांस, मज्जा और मेदा सभी मेरे लिये हितकर हैं। यह कबूतर मेरी क्षुधा मिटाकर मुझे पूर्णतः तृप्त कर देगा; अतः आप इस मेरे आहारके आगे आकर विध्न न डालिये ।। ११ ।।

मुझे बड़े जोरकी प्यास सता रही है। भूखकी ज्वाला मुझे दग्ध-सा किये देती है। राजन! उसे छोड़ दीजिये। मैं अपनी भूखको दबा नहीं सकूँगा ।। १२ ।।

मैं बड़ी दूरसे इसके पीछे पड़ा हुआ हूँ। यह मेरे पंखों और पंजोंसे घायल हो चुका है। अब इसकी कुछ-कुछ साँस बाकी रह गयी है। राजन! ऐसी दशामें आप इसकी रक्षा न करें ।। १३ ।।

श्रेष्ठ नरेश्वर! अपने देशमें रहनेवाले मनुष्योंकी ही रक्षा करनेके लिये आप राजा बनाये गये हैं। भूख-प्याससे पीड़ित हुए पक्षीके आप स्वामी नहीं हैं ।। १४ ।।

यदि आपमें शक्ति है तो वैरियों, सेवकों, स्वजनों, वादी-प्रतिवादीके व्यवहारों (मुद्दईमुद्दालहोंके मामलों) तथा इन्द्रियोंके विषयोंपर पराक्रम प्रकट कीजिये। आकाशमें रहनेवालोंपर अपने बलका प्रयोग न कीजिये ।। १५ ।।

जो लोग आपकी आज्ञाभंग करनेवाले शत्रुकोटिके अन्तर्गत हैं उनपर पराक्रम करके अपनी प्रभुता प्रकट करना आपके लिये उचित हो सकता है। यदि धर्मके लिये आप यहाँ कबूतरकी रक्षा करते हों तो मुझ भूखे पक्षीपर भी आपको दृष्टि डालनी चाहिये ।। १६ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठि![ बाजकी यह बात सुनकर राजर्षि उशीनरको बड़ा विस्मय हुआ। वे उसके कथनकी प्रशंसा करके कपोतकी रक्षाके लिये इस प्रकार बोले -- || १७ ||

राजाने कहा--बाज! तुम चाहो तो तुम्हारी भूख मिटानेके लिये आज तुम्हारे भोजनके निमित्त बैल, भैंसा, सूअर अथवा मृग प्रस्तुत कर दिया जाय ।। १८ ।।

विहंगम! मैं शरणागतका त्याग नहीं कर सकता--यह मेरा व्रत है। देखो, यह पक्षी भयके मारे मेरे अंगोंको छोड़ नहीं रहा है ।। १९ ।।

बाजने कहा--महाराज! मैं न तो सूअर, न बैल और न दूसरे ही नाना प्रकारके पक्षियोंका मांस खाऊँगा। जो दूसरोंका भोजन है उसे लेकर मैं क्या करूँगा ।। २० ।।

साक्षात्‌ देवताओंने सनातनकालसे मेरे लिये जो खाद्य नियत कर दिया है वही मुझे मिलना चाहिये। प्राचीनकालसे लोग इस बातको जानते हैं कि बाज कबूतर खाते हैं ।। २१ ।।

निष्पाप महाराज उशीनर! यदि आपको इस कबूतरपर बड़ा स्नेह है तो आप मुझे इसके बराबर अपना ही मांस तराजूपर तौलकर दे दीजिये || २२ ।।

राजाने कहा--'बाज! तुमने ऐसी बात कहकर मुझपर बड़ा अनुग्रह किया। बहुत अच्छा, मैं ऐसा ही करूँगा।' यों कहकर नृपश्रेष्ठ उशीनरने अपना मांस काट-काटकर तराजूपर रखना आरम्भ किया ॥| २३६ ||

यह समाचार सुनकर अन्तःपुरकी रत्नविभूषित रानियाँ बहुत दुःखी हुईं और हाहाकार करती हुई बाहर निकल आयीं ।। २४३ ।।

उनके रोनेके शब्दसे तथा मन्त्रियों और भृत्यजनोंके हाहाकारसे मेघकी गम्भीर गर्जनाके समान वहाँ बड़ा भारी कोलाहल मच गया ।। २५३ ।।

सारा शुभ्र आकाश सब ओससे मेघोंद्वारा आच्छादित हो गया। उनके सत्यकर्मके प्रभावसे पृथ्वी काँपने लगी || २६६ ।।

राजा अपनी पसलियों, भुजाओं और जाँघोंसे मांस काटकर जल्दी-जल्दी तराजू भरने लगे। तथापि वह मांसराशि उस कबूतरके बराबर नहीं हुई || २७-२८ ।।

जब राजाके शरीरका मांस चुक गया और रक्तकी धारा बहाता हुआ हडडियोंका ढाँचामात्र रह गया तब वे मांस काटनेका काम बंद करके स्वयं ही तराजूपर चढ़ गये ।। २९ ।।

फिर तो इन्द्र आदि देवताओंसहित तीनों लोकोंके प्राणी उन नरेन्द्रके पास आ पहुँचे। कुछ देवता आकाशगमें ही खड़े होकर दुन्दुभियाँ बजाने लगे ।। ३० ।।

कुछ देवताओंने राजा वृषदर्भकों अमृतसे नहलाया और उनके ऊपर अत्यन्त सुखदायक दिव्य पुष्पोंकी बारंबार वर्षा की || ३१ ।।

देव-गन्धवोंके समुदाय और अप्सराएँ सब ओरसे उन्हें घेरकर गाने और नाचने लगीं। वे उनके बीचमें भगवान्‌ ब्रह्माजीके समान शोभा पाने लगे ।। ३२ ।।

इतनेहीमें एक दिव्य विमान उपस्थित हुआ जिसमें सुवर्णके महल बने हुए थे। सोने और मणियोंकी बन्दनवारें लगी थीं और वैदूर्यमणिके खम्भे शोभा पा रहे थे ।। ३३ ।।

युधिष्ठिर! तुम भी शरणागतोंके लिये इसी प्रकार अपना सर्वस्व निछावर कर दो। जो मनुष्य अपने भक्त, प्रेमी और शरणागत पुरुषोंकी रक्षा करता है तथा सब प्राणियोंपर दया रखता है वह परलोकमें सुख पाता है || ३४-३५ ।।

जो राजा सदाचारी होकर सबके साथ सदबर्ताव करता है वह अपने निश्छल कर्मसे किस वस्तुको नहीं प्राप्त कर लेता | ३६ ।।

सत्यपराक्रमी, धीर और शुद्ध हृदयवाले काशीनरेश राजर्षि उशीनर अपने पुण्यकर्मसे तीनों लोकोंमें विख्यात हो गये || ३७ ।।

भरतश्रेष्ठ) यदि दूसरा कोई भी पुरुष इसी प्रकार शरणागतकी रक्षा करेगा तो वह भी उसी गतिको प्राप्त करेगा || ३८ ।।

राजर्षि वृषदर्भ (उशीनर)-के इस चरित्रका जो सदा श्रवण और वर्णन करता है वह संसारमें पुण्यात्मा होता है ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें बाज और कबृतरका संवादविषयक बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

तैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  तैतीसवें अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)

“ब्राह्मणके महत्त्वका वर्णन”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! राजाके सम्पूर्ण कृत्योंमें किसका महत्त्व सबसे अधिक है? किस कर्मका अनुष्ठान करनेवाला राजा इहलोक और परलोक दोनोंमें सुखी होता है? ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--भारत! राजसिंहासनपर अभिषिक्त होकर राज्यशासन करनेवाले राजाका सबसे प्रधान कर्तव्य यही है कि वह ब्राह्मणोंकी सेवा-पूजा करे। भरतश्रेष्ठ! अक्षय सुखकी इच्छा रखनेवाले नरेशको ऐसा ही करना चाहिये ।। २६ ।।

राजा वेदज्ञ ब्राह्मणों तथा बड़े-बूढ़ोंका सदा ही आदर करे। नगर और जनपदमें रहनेवाले बहुश्रुत ब्राह्मणोंको मधुर वचन बोलकर, उत्तम भोग प्रदानकर तथा सादर शीश झुकाकर सम्मानित करे ।। ३-४ ।।

राजा जिस प्रकार अपनी तथा अपने पुत्रोंकी रक्षा करता है उसी प्रकार इन ब्राह्मणोंकी भी करे। यही राजाका प्रधान कर्तव्य है; जिसपर उसे सदा ही दृष्टि रखनी चाहिये ।। ५ ।।

जो इन ब्राह्मणोंके भी पूजनीय हों उन पुरुषोंका भी सुस्थिर चित्तसे पूजन करे; क्योंकि उनके शान्त रहनेपर ही सारा राष्ट्र शान्त एवं सुखी रह सकता है ।।

राजाके लिये ब्राह्मण ही पिताकी भाँति पूजनीय, वन्दनीय और माननीय है। जैसे प्राणियोंका जीवन वर्षा करनेवाले इन्द्रपर निर्भर है उसी प्रकार जगत्‌की जीवन-यात्रा ब्राह्मणोंपर ही अवलम्बित है | ७ ।।

ये सत्य-पराक्रमी ब्राह्मण जब कुपित होकर उमग्ररूप धारण कर लेते हैं उस समय अभिचार या अन्य उपायोंद्वारा संकल्पमात्रसे अपने विरोधियोंको भस्म कर सकते हैं और उनका सर्वनाश कर डालते हैं ।। ८ ।।

मुझे इनका अन्त दिखायी नहीं देता। इनके लिये किसी भी दिशाका द्वार बंद नहीं है। ये जिस समय क्रोधमें भर जाते हैं उस समय दावानलकी लपटोंके समान हो जाते हैं और वैसी ही दाहक दृष्टिसे देखने लगते हैं ।।

बड़े-बड़े साहसी भी इनसे भय मानते हैं; क्योंकि इनके भीतर गुण ही अधिक होते हैं। इन ब्राह्मणोंमेंसे कुछ तो घास-फ़ूससे ढके हुए कूपकी तरह अपने तेजको छिपाए रखते हैं और कुछ निर्मल आकाशकी भाँति प्रकाशित होते रहते हैं || १० ।।

कुछ हठी होते हैं और कुछ रूईकी तरह कोमल। इनमें जो श्रेष्ठ पुरुष हों, उनका सम्मान करना चाहिये; परंतु जो श्रेष्ठ न हों, उनकी भी निन्दा नहीं करनी चाहिये। इन ब्राह्मणोंमें कुछ तो अत्यन्त शठ होते हैं और दूसरे महान्‌ तपस्वी ।। ११ ।।

कोई-कोई ब्राह्मण खेती और गोरक्षासे जीवन चलाते हैं, कोई भिक्षापर जीवन-निर्वाह करते हैं, कितने ही चोरी करते हैं, कोई झूठ बोलते हैं और दूसरे कितने ही नटोंका तथा नाचनेका कार्य करते हैं ।। १२ ।।

भरतश्रेष्ठट कितने ही ब्राह्मण राजाओं तथा अन्य लोगोंके यहाँ सब प्रकारके कार्य करनेमें समर्थ होते हैं और अनेक ब्राह्मण नाना प्रकारके आकार धारण करते हैं ।। १३ ।।

नाना प्रकारके कर्मोंमें संलग्न तथा अनेक कर्मोंसे जीविका चलानेवाले उन धर्मज्ञ एवं सत्पुरुष ब्राह्मणोंका सदा ही गुण गाना चाहिये ।। १४ ।।

नरेश्वर! प्राचीनकालसे ही ये महाभाग ब्राह्मण-लोग देवता, पितर, मनुष्य, नाग और राक्षसोंके पूजनीय हैं ।। १५ ।।

ये द्विज न तो देवताओं, न पितरों, न गन्धर्वों, न राक्षसों, न असुरों और न पिशाचोंद्वारा ही जीते जा सकते हैं ।। १६ ।।

ये चाहें तो जो देवता नहीं है उसे देवता बना दें और जो देवता हैं उन्हें भी देवत्वसे गिरा दें। ये जिसे राजा बनाना चाहें वही राजा रह सकता है। जिसे राजाके रूपमें ये न देखना चाहें उसका पराभव हो जाता है ।। १७ ||

राजन! मैं तुमसे यह सच्ची बात बता रहा हूँ कि जो मूढ़ मानव ब्राह्मणोंकी निनन्‍्दा करते हैं वे नष्ट हो जाते हैं--इसमें संशय नहीं है || १८ ।।

निन्‍्दा और प्रशंसामें निपुण तथा लोगोंके यश और अपयशको बढ़ानेमें तत्पर रहनेवाले द्विज अपने प्रति सदा द्वेष रखनेवालोंपर कुपित हो उठते हैं ।। १९ ।।

ब्राह्मण जिसकी प्रशंसा करते हैं; उस पुरुषका अभ्युदय होता है और जिसको वे शाप देते हैं; उसका एक क्षणमें पराभव हो जाता है ।। २० ।।

शक, यवन और काम्बोज आदि जातियाँ पहले क्षत्रिय ही थीं; किंतु ब्राह्मणोंकी कृपादृष्टिसे वज्चित होनेके कारण उन्हें वृषल (शूद्र एवं म्लेच्छ) होना पड़ा || २१ ।।

विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ नरेश! द्राविड़, कलिंग, पुलिन्द, उशीनर, कोलिसर्प और माहिषक आदि क्षत्रिय जातियाँ भी ब्राह्मणोंकी कृपादृष्टि न मिलनेसे ही शूद्र हो गयीं। ब्राह्मणोंसे हार मान लेनेमें ही कल्याण है, उन्हें हराना अच्छा नहीं है || २२-२३ ।।

जो इस सम्पूर्ण जगत्‌को मार डाले तथा जो ब्राह्मणका वध करे, उन दोनोंका पाप समान नहीं है। महर्षियोंका कहना है कि ब्रह्महत्या महान्‌ दोष है || २४ ।।

ब्राह्मणोंकी निन्दा किसी तरह नहीं सुननी चाहिये। जहाँ उनकी निन्दा होती हो, वहाँ नीचे मुँह करके चुपचाप बैठे रहना या वहाँसे उठकर चल देना चाहिये || २५ ।।

इस पृथ्वीपर ऐसा कोई मनुष्य न तो पैदा हुआ है और न आगे पैदा होगा ही जो ब्राह्मणके साथ विरोध करके सुखपूर्वक जीवित रहनेका साहस करे || २६ ।।

राजन! हवाको मुट्ठीमें पकड़ना, चन्द्रमाको हाथसे छूना और पृथ्वीको उठा लेना जैसे अत्यन्त कठिन काम है, उसी तरह इस पृथ्वीपर ब्राह्मणोंको जीतना दुष्कर है || २७ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें ब्राह्मणकी प्रशंसा नामक तैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठक ½ श्लोक मिलाकर २७३ श्लोक हैं)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

इकत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  इकत्तीसवें अध्याय के श्लोक 1-31 का हिन्दी अनुवाद)

“श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी प्रशंसा”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! ब्राह्मणोंका सदा ही भलीभाँति पूजन करना चाहिये। चन्द्रमा इनके राजा हैं। ये मनुष्यको सुख और दु:ख देनेमें समर्थ हैं ।

राजाओंको चाहिये कि वे उत्तम भोग, आभूषण तथा पूछकर प्रस्तुत किये गये दूसरे मनोवांछित पदार्थ देकर नमस्कार आदिके द्वारा सदा ब्राह्मणोंकी पूजा करें और पिताके समान उनके पालन-पोषणका ध्यान रखें। तभी इन ब्राह्मणोंसे राष्ट्रमें शान्ति रह सकती है। ठीक उसी तरह, जैसे इन्द्रसे वृष्टि प्राप्त होनेपर समस्त प्राणियोंको सुख-शान्ति मिलती है।। २६ ।।

सबको यह इच्छा करनी चाहिये कि राष्ट्रमें ब्रह्मतेजसे सम्पन्न पवित्र ब्राह्मण उत्पन्न हो और शत्रुओंको संताप देनेवाले महारथी क्षत्रियकी उत्पत्ति हो | ३६ |।

राजन! विशुद्ध जातिसे युक्त तथा तीक्ष्ण व्रतका पालन करनेवाले धर्मज्ञ ब्राह्मणको अपने घरमें ठहराना चाहिये। इससे बढ़कर दूसरा कोई पुण्यकर्म नहीं है || ४६ ।।

ब्राह्मणोंको जो हविष्य अर्पित किया जाता है उसे देवता ग्रहण करते हैं; क्योंकि ब्राह्मण समस्त प्राणियोंके पिता हैं। इनसे बढ़कर दूसरा कोई प्राणी नहीं है ।। ५३ ।।

सूर्य, चन्द्रमा, वायु, जल, पृथ्वी, आकाश और दिशा--इन सबके अधिष्ठाता देवता सदा ब्राह्मणके शरीरमें प्रवेश करके अन्न भोजन करते हैं ।। ६६ ।।

ब्राह्मण जिसका अन्न नहीं खाते उसके अन्नको पितर भी नहीं स्वीकार करते। उस ब्राह्मणद्रोही पापात्माका अन्न देवता भी नहीं ग्रहण करते हैं ।। ७३ ।।

राजन! यदि ब्राह्मण संतुष्ट हो जायँ तो पितर तथा देवता भी सदा प्रसन्न रहते हैं। इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये ।। ८३ ।।

इसी प्रकार वे यजमान भी प्रसन्न होते हैं जिनकी दी हुई हवि ब्राह्मणोंके उपयोगमें आती है। वे मरनेके बाद नष्ट नहीं होते हैं, उत्तम गतिको प्राप्त हो जाते हैं ।। ९६ ।।

मनुष्य जिस-जिस हविष्यसे ब्राह्मणोंको तृप्त करता है, उसी-उसीसे देवता और पितर भी तृप्त होते हैं ।। १० ६ ।।

जिससे समस्त प्रजा उत्पन्न होती है, वह यज्ञ आदि कर्म ब्राह्मणोंसे ही सम्पन्न होता है। जीव जहाँसे उत्पन्न होता है और मृत्युके पश्चात्‌ जहाँ जाता है, उस तत्त्वको, स्वर्ग और नरकके मार्गको तथा भूत, वर्तमान और भविष्यको ब्राह्मण ही जानता है। ब्राह्मण मनुष्योंमें सबसे श्रेष्ठ है। भरतश्रेष्ठ) जो अपने धर्मको जानता है और उसका पालन करता है, वही सच्चा ब्राह्मण है ।। ११--१३ ।।

जो लोग ब्राह्मणोंका अनुसरण करते हैं उनकी कभी पराजय नहीं होती तथा मृत्युके पश्चात्‌ उनका पतन नहीं होता। वे अपमानको भी नहीं प्राप्त होते हैं || १४ ।।

ब्राह्मणके मुखसे जो वाणी निकलती है, उसे जो शिरोधार्य करते हैं, वे सम्पूर्ण भूतोंको आत्मभावसे देखनेवाले महात्मा कभी पराभवको नहीं प्राप्त होते हैं ।।

अपने तेज और बलसे तपते हुए क्षत्रियोंके तेज और बल ब्राह्मणोंके सामने आनेपर ही शान्त होते हैं ।।

भरतश्रेष्ठ! भृगुवंशी ब्राह्मणोंने तालजंघोंको, अंगिराकी संतानोंने नीपवंशी राजाओंको तथा भरद्वाजने हैहयोंको और इलाके पुत्रोंको पराजित किया था ।। १७ ।।

क्षत्रियोंक पास अनेक प्रकारके विचित्र आयुध थे तो भी कृष्णमृगचर्म धारण करनेवाले इन ब्राह्मणोंने उन्हें हरा दिया। क्षत्रियको चाहिये कि ब्राह्मणोंको जलपूर्ण कलश दान करके पारलौकिक कार्य आरम्भ करे || १८ ।।

संसारमें जो कुछ कहा-सुना या पढ़ा जाता है वह सब काठमें छिपी हुई आगकी तरह ब्राह्मणोंमें ही स्थित है ।। १९ |।

भरतश्रेष्ठ] इस विषयमें जानकार लोग भगवान्‌ श्रीकृष्ण और पृथ्वीके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं | २० ।।

श्रीकृष्णने पूछा--शुभे! तुम सम्पूर्ण भूतोंकी माता हो, इसलिये मैं तुमसे एक संदेह पूछ रहा हूँ। गृहस्थ मनुष्य किस कर्मके अनुष्ठानसे अपने पापका नाश कर सकता है? ।| २१ ।।

पृथ्वीने कहा--भगवन्‌! इसके लिये मनुष्यको ब्राह्मणोंकी ही सेवा करनी चाहिये। यही सबसे पवित्र और उत्तम कार्य है। ब्राह्मणोंकी सेवा करनेवाले पुरुषका समस्त रजोगुण नष्ट हो जाता है। इसीसे ऐश्वर्य, इसीसे कीर्ति और इसीसे उत्तम बुद्धि भी प्राप्त होती है ।। २२ ।।

सदा सब प्रकारकी समृद्धिके लिये नारदजीने मुझसे कहा कि शत्रुओंको संताप देनेवाले महारथी क्षत्रियके उत्पन्न होनेकी कामना करनी चाहिये ।। २३ ।।

उत्तम जातिसे सम्पन्न, धर्मज्ञ, दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले तथा पवित्र ब्राह्मणके उत्पन्न होनेकी भी इच्छा रखनी चाहिये। छोटे-बड़े सब लोगोंसे जो बड़े हैं, उनसे भी ब्राह्मण बड़े माने गये हैं। ऐसे ब्राह्मण जिसकी प्रशंसा करते हैं उस मनुष्यकी वृद्धि होती है और जो ब्राह्मणोंकी निन्‍दा करता है वह शीघ्र ही पराभवको प्राप्त होता है ।। २४-२५ ।।

जैसे महासागरमें फेंका हुआ कच्ची मिट्टीका ढेला तुरंत गल जाता है, उसी प्रकार ब्राह्मणोंका संग प्राप्त होते ही सारा दुष्कर्म नष्ट हो जाता है ।। २६ ।।

माधव! देखिये, ब्राह्मणोंका कैसा प्रभाव है, उन्होंने चन्द्रमामें कलंक लगा दिया, समुद्रका पानी खारा बना दिया तथा देवराज इन्द्रके शरीरमें एक हजार भगके चिह्न उत्पन्न कर दिये और फिर उन्हींके प्रभावसे वे भग नेत्रके रूपमें परिणत हो गये; जिनके कारण शतक्रतु इन्द्र 'सहस्राक्ष' नामसे प्रसिद्ध हुए || २७-२८ ।।

मधुसूदन! जो कीर्ति, ऐश्वर्य और उत्तम लोकोंको प्राप्त करना चाहता हो, वह मनको वशमें रखनेवाला पवित्र पुरुष ब्राह्मणोंकी आज्ञाके अधीन रहे ।। २९ ।।

भीष्मजी कहते हैं--कुरुनन्दन! पृथ्वीके ये वचन सुनकर भगवान्‌ मधुसूदनने कहा --वाह-वाह, तुमने बहुत अच्छी बात बतायी।” ऐसा कहकर उन्होंने भूदेवीकी भूरि-भूरि प्रशंसा की || ३० ।।

कुन्तीनन्दन! इस दृष्टान्त एवं ब्राह्मण-माहात्म्यको सुनकर तुम सदा पवित्रभावसे श्रेष्ठ ब्राह्मणोंका पूजन करते रहो। इससे तुम कल्याणके भागी होओगे ।। ३१ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें पृथ्वी और वायुदेवका संवादविषयक चौतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

इकत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  इकत्तीसवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“ब्रह्माजीके द्वारा ब्राह्म॒णोंकी महत्ताका वर्णन”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठटिर! ब्राह्मण जन्मसे ही महान्‌ भाग्यशाली, समस्त प्राणियोंका वन्दनीय, अतिथि और प्रथम भोजन पानेका अधिकारी है ।।१।।

तात! ब्राह्मण सब मनोरथोंको सिद्ध करनेवाले, सबके सुहृद्‌ तथा देवताओं के मुख हैं। वे पूजित होनेपर अपनी मंगलयुक्त वाणीसे आशीर्वाद देकर मनुष्यके कल्याणका चिन्तन करते हैं ।।२।।

तात! हमारे शत्रुओंके द्वारा पूजित न होनेपर उनके प्रति कुपित हुए ब्राह्मण उन सबको अभिशापयुक्त कठोर वाणीद्वारा नष्ट कर डालें ।। ३ ।।

इस विषयमें पुराणवेत्ता पुरुष पहलेकी गायी हुई कुछ गाथाओंका वर्णन करते हैं-प्रजापतिने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंको पूर्ववत्‌ उत्पन्न करके उनको समझाया, “तुमलोगोंके लिये विधिपूर्वक स्वधर्मपालन और ब्राह्मणोंकी सेवाके सिवा और कोई कर्तव्य नहीं है। ब्राह्मणकी रक्षा की जाय तो वह स्वयं भी अपने रक्षककी रक्षा करता है; अतः ब्राह्मणगकी सेवासे तुमलोगोंका परम कल्याण होगा ।। ४-५ ।।

'ब्राह्मणकी रक्षारूप अपने कर्तव्यका पालन करनेसे ही तुमलोगोंको ब्राह्मी लक्ष्मी प्राप्त होगी। तुम सम्पूर्ण भूतोंके लिये प्रमाणभूत तथा उनको वशमें करनेवाले बन जाओगे ।। ६ ।।

“विद्वान्‌ ब्राह्मणको शूद्रोचित कर्म नहीं करना चाहिये। शूद्रके कर्म करनेसे उसका धर्म नष्ट हो जाता है || ७ ।।

'स्वधर्मका पालन करनेसे लक्ष्मी, बुद्धि, तेज और प्रतापयुक्त ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती है, तथा स्वाध्यायका अत्यधिक माहात्म्य उपलब्ध होता है ।। ८ ।।

'ब्राह्ण आहवनीय अग्निमें स्थित देवतागणोंको हवनसे तृप्त करके महान्‌ सौभाग्यपूर्ण पदपर प्रतिष्ठित होते हैं। वे ब्राह्मी विद्यासे उत्तम पात्र बनकर बालकोंसे भी पहले भोजन पानेके अधिकारी होते हैं ।। ९ ।।

'द्विजणगण! यदि तुमलोग किसी भी प्राणीके साथ द्रोह न करनेके कारण प्राप्त हुई परम श्रद्धासे सम्पन्न हो इन्द्रियसंयम और स्वाध्यायमें लगे रहोगे तो सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लोगे ।। १० ।।

“मनुष्यलोकमें तथा देवलोकमें जो कुछ भी भोग्य वस्तुएँ हैं, वे सब ज्ञान, नियम और तपस्यासे प्राप्त होनेवाली हैं || ११ ।।

“आपलोगोंके समादरसे पवित्र हुए क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र आदि प्राणी इहलोक और परलोकमें भी प्रीति एवं सम्पत्ति पाते हैं। जो आपके विरोधी हैं, वे आपसे अरक्षित होनेके कारण विनाशको प्राप्त होते हैं। आपके तेजसे ही ये सम्पूर्ण लोक टिके हुए हैं; अत: आप तीनों लोकोंकी रक्षा करें” ।।

निष्पाप युधिष्छिर! इस प्रकार ब्रह्माजीकी गायी हुई गाथा मैंने तुम्हें बतायी है। उन परम बुद्धिमान धाताने ब्राह्मणोंपर कृपा करनेके लिये ही ऐसा कहा है ।। १२ ।।

मैं ब्राह्मणोंका बल तपस्वी राजाके समान बहुत बड़ा मानता हूँ। वे दुर्जय, प्रचण्ड, वेगशाली और शीघ्रकारी होते हैं ।। १३ ।।

ब्राह्मणोंमें कुछ सिंहके समान शक्तिशाली होते हैं और कुछ व्याप्रके समान। कितनोंकी शक्ति वाराह और मृगके समान होती है। कितने ही जल-जन्तुओंके समान होते हैं ।। १४ 

किन्हींका स्पर्श सर्पके समान होता है तो किन्हींका घड़ियालोंके समान। कोई शाप देकर मारते हैं तो कोई क्रोधभरी दृष्टिसे देखकर ही भस्म कर देते हैं || १५ ।।

कुछ ब्राह्मण विषधर सर्पके समान भयंकर होते हैं और कुछ मन्द स्वभावके भी होते हैं। युधिष्ठिर इस जगतमें ब्राह्मणोंक स्वभाव और आचार-व्यवहार अनेक प्रकारके हैं ।। १६ ।।

मेकल, द्राविड़, लाट, पौण्ड़र, कान्वशिरा, शौण्डिक, दरद, दार्व, चौर, शबर, बर्बर, किरात और यवन--ये सब पहले क्षत्रिय थे; किंतु ब्राह्मणोंके साथ ईर्ष्या करनेसे नीच हो गये ।। १७-१८ ।।

ब्राह्मणोंके तिरस्कारसे ही असुरोंको समुद्रमें रहना पड़ा और ब्राह्मणोंके कृपाप्रसादसे देवता स्वर्गलोकमें निवास करते हैं ।। १९ ।।

जैसे आकाशको छूना, हिमालयको विचलित करना और बाँध बाँधकर गड्के प्रवाहको रोक देना असम्भव है, उसी प्रकार इस भूतलपर ब्राह्मणोंको जीतना सर्वथा असम्भव है || २० ।।

ब्राह्मणोंसे विरोध करके भूमण्डलका राज्य नहीं चलाया जा सकता; क्योंकि महात्मा ब्राह्मण देवताओंके भी देवता हैं || २१ ।।

युधिष्ठिर! यदि तुम इस समुद्रपर्यन्त पृथ्वीका राज्य भोगना चाहते हो तो दान और सेवाके द्वारा सदा ब्राह्मणोंकी पूजा करते रहो ।। २२ ।।

निष्पाप नरेश! दान लेनेसे ब्राह्मणोंका तेज शान्त हो जाता है; इसलिये जो दान नहीं लेना चाहते उन ब्राह्मणोंसे तुम्हें अपने कुलकी रक्षा करनी चाहिये || २३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें ब्राह्मणकी प्रशंसाविषयक पैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठके दो श्लोक मिलाकर कुल २५ श्लोक हैं)


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें