सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के सत्ताईसवें अध्याय से तीसवें अध्याय तक (From the 26 chapter to the 30 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

सत्ताईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  सत्ताईसवें अध्याय के श्लोक 1-30 का हिन्दी अनुवाद)

“ब्राह्मणत्वके लिये तपस्या करनेवाले मतड़की इन्द्रसे बातचीत”

युधिष्ठिरने पूछा--धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नरेश्वर! आप बुद्धि, विद्या, सदाचार, शील और विभिन्न प्रकारके सम्पूर्ण सदगुणोंसे सम्पन्न हैं। आपकी अवस्था भी सबसे बड़ी है। आप बुद्धि, प्रत्ञा और तपस्यासे विशिष्ट हैं; अत: मैं आपसे धर्मकी बात पूछता हूँ। संसारमें आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है जिससे सब प्रकारके प्रश्न पूछे जा सकें || १-२ ।।

नृपश्रेष्ठ! यदि क्षत्रिय, वैश्य अथवा शाद्र ब्राह्मणत्व प्राप्त करना चाहे तो वह किस उपायसे उसे पा सकता है? यह मुझे बताइये ।। ३ ।।

पितामह! यदि कोई ब्राह्मणत्व पानेकी इच्छा करे तो वह उसे तपस्या, महान्‌ कर्म अथवा वेदोंके स्वाध्याय आदि किस उपायसे प्राप्त कर सकता है? ।। ४ ।।

भीष्मजीने कहा--तात युधिष्ठिर! क्षत्रिय आदि तीन वर्णोके लिये ब्राह्मणत्व प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि यह समस्त प्राणियोंके लिये सर्वोत्तम स्थान है ।। ५ ।।

तात! बहुत-सी योनियोंमें बारंबार जन्म लेते-लेते कभी किसी समय संसारी जीव ब्राह्मणकी योनिमें जन्म लेता है || ६ ।।

युधिष्ठिर! इस विषयमें जानकार मनुष्य मतड़् और गर्दभीके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं || ७ ।।

तात! पूर्वकालमें किसी ब्राह्मणके एक मतज् नामक पुत्र हुआ जो (अन्य वर्णके पुरुषसे उत्पन्न होनेपर भी ब्राह्मणोचित संस्कारोंके प्रभावसे) उनके समान वर्णका ही समझा जाता था, वह समस्त सदगुणोंसे सम्पन्न था ।। ८ ।।

शत्रुओंको संताप देनेवाले कुन्तीकुमार! एक दिन अपने पिताके भेजनेपर मतंग किसी यजमानका यज्ञ करानेके लिये गधोंसे जुते हुए शीघ्रगामी रथपर बैठकर चला ।। ९ |।

राजन्‌! रथका बोझ ढोते हुए एक छोटी अवस्थाके गधेको उसकी माताके निकट ही मतंगने बारंबार चाबुकसे मारकर उसकी नाकमें घाव कर दिया ।। १० ।।

पुत्रका भला चाहनेवाली गधी उस गधेकी नाकमें दुस्सह घाव हुआ देख उसे समझाती हुई बोली--'बेटा! शोक न करो। तुम्हारे ऊपर ब्राह्मण नहीं, चाण्डाल सवार है ।। ११ ।।

ब्राह्मणमें इतनी क्रूरता नहीं होती। ब्राह्मण सबके प्रति मैत्रीभाव रखनेवाला बताया जाता है। जो समस्त प्राणियोंको उपदेश देनेवाला आचार्य है, वह कैसे किसीपर प्रहार करेगा? ।। १२ ।।

यह स्वभावसे ही पापात्मा है; इसीलिये दूसरेके बच्चेपर दया नहीं करता है। यह अपने इस कुकृत्यद्वारा अपनी चाण्डाल योनिका ही सम्मान बढ़ा रहा है। जातिगत स्वभाव ही मनोभावपर नियन्त्रण करता है ।। १३ ।।

गधीका यह दारुण वचन सुनकर मतंग तुरंत रथसे उतर पड़ा और गधीसे इस प्रकार बोला-- || १४ |।

“कल्याणमयी गर्दभी! बता, मेरी माता किससे कलंकित हुई है? तू मुझे चाण्डाल कैसे समझती है? शीघ्र मुझसे सारी बात बता ।। १५ |।।

गधी! तुझे कैसे मालूम हुआ कि मैं चाण्डाल हूँ? किस कर्मसे मेरा ब्राह्मणत्व नष्ट हुआ है? तू बड़ी समझदार है; अतः ये सारी बातें मुझे ठीक-ठीक बता” ।।

गदही बोली--मतंग! तू यौवनके मदसे मतवाली हुई एक ब्राह्मणीके पेटसे शूद्रजातीय नाईद्वारा पैदा किया गया, इसीलिये तू चाण्डाल है और तेरी माताके इसी व्यभिचार कर्मसे तेरा ब्राह्मणत्व नष्ट हो गया है ।। १७ ।।

गदहीके ऐसा कहनेपर मतंग फिर अपने घरको लौट गया। उसे लौटकर आया देख पिताने इस प्रकार कहा-- || १८ ॥।

बेटा! मैंने तो तुम्हें यज्ञ करानेके भारी कार्यपर लगा रखा था, फिर तुम लौट कैसे आये? तुम कुशलसे तो हो न? ।। १९ ।।

मतंगने कहा--पिताजी! जो चाण्डाल योनिमें उत्पन्न हुआ है, अथवा उससे भी नीच योनिमें पैदा हुआ है वह कैसे सकुशल रह सकता है। जिसे ऐसी माता मिली हो उसे कहाँसे कुशलता प्राप्त होगी || २० ।।

पिताजी! यह मानवेतर योनिमें उत्पन्न हुई गदही मुझे ब्राह्मणीके गर्भसे द्वारा पैदा हुआ बता रही है; इसलिये अब मैं महान्‌ तपमें लग जाऊँगा ।। २१ ।।

पितासे ऐसा कहकर मतंग तपस्याके लिये दृढ़ निश्चय करके घरसे निकल पड़ा और एक महान्‌ वनमें जाकर वहाँ बड़ी भारी तपस्या करने लगा ।। २२ ।।

तपस्यामें संलग्न हो मतंगने देवताओंको संतप्त कर दिया। वह भलीभाँति तपस्या करके सुखसे ही ब्राह्मणत्वरूपी अभीष्ट स्थानको प्राप्त करना चाहता था ।।

उसे इस प्रकार तपस्यामें संलग्न देख इन्द्रने कहा--“मतंग! तुम क्यों मानवीय भोगोंका परित्याग करके तपस्या कर रहे हो? ।। २४ ।।

मैं तुम्हें वर देता हूँ। तुम जो चाहते हो उसे प्रसन्नतापूर्वक माँग लो। तुम्हारे हृदयमें जो कुछ पानेकी अभिलाषा हो, वह सब शीघ्र बताओ' || २५ ।।

मतंगने कहा--मैंने ब्राह्मणत्व प्राप्त करनेकी इच्छासे यह तपस्या प्रारम्भ की है। उसे पा करके ही यहाँसे जाऊँ, मैं यही वर चाहता हूँ ।। २६ ।।

भीष्मजी कहते हैं--भारत! मतंगकी यह बात सुनकर इन्द्रदेवने कहा--“मतंग! तुम जो ब्राह्मणत्व माँग रहे हो, यह तुम्हारे लिये दुर्लभ है” || २७ ।।

जिनका अन्तःकरण शुद्ध नहीं है अथवा जो पुण्यात्मा नहीं हैं, उनके लिये ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति असम्भव है। दुर्बुद्धे! तुम ब्राह्मणत्व माँगते-माँगते मर जाओगे तो भी वह नहीं मिलेगा; अतः इस दुराग्रहसे जितना शीघ्र सम्भव हो निवृत्त हो जाओ ।। २८ ।।

“सम्पूर्ण भूतोंमें श्रेष्ठता ही ब्राह्मणत्व है और यही तुम्हारा अभीष्ट प्रयोजन है, परंतु यह तप उस प्रयोजनको सिद्ध नहीं कर सकता; अतः इस श्रेष्ठ पदकी अभिलाषा रखते हुए तुम शीघ्र ही नष्ट हो जाओगे ।। २९ ।।

“देवताओं, असुरों और मनुष्योंमें भी जो परम पवित्र माना गया है उस ब्राह्मणत्वको चाण्डालयोनिमें उत्पन्न हुआ मनुष्य किसी तरह नहीं पा सकता” ।। ३० ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें इन्द्र और मतंगका संवादविषयक सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

अट्ठाईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  अट्ठाईसवें अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“ब्राह्मणत्व प्राप्त करनेका आग्रह छोड़कर दूसरा वर मॉगनेके लिये इन्द्रका मनड़को समझाना”

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! इन्द्रके ऐसा कहनेपर मतंगका मन और भी दृढ़ हो गया। वह संयमपूर्वक उत्तम व्रतका पालन करने लगा। अपने धैर्यसे च्युत न होनेवाला मतंग सौ वर्षोतक एक पैरसे खड़ा रहा ।। १ ।।

तब महायशस्वी इन्द्रने पुनः आकर उससे कहा--'तात! ब्राह्मणत्व दुर्लभ है। उसे माँगनेपर भी पा न सकोगे ।। २ ।।

मतंग! तुम इस उत्तम स्थानको माँगते-माँगते मर जाओगे। बेटा! दुःसाहस न करो। तुम्हारे लिये यह धर्मका मार्ग नहीं है || ३ ।।

“दुर्मते! तुम इस जीवनमें ब्राह्मणत्व नहीं पा सकते। उस अप्राप्य वस्तुके लिये प्रार्थना करते-करते शीघ्र ही कालके गालमें चले जाओगे ।। ४ ।।

मतंग! मैं तुम्हें बार-बार मना करता हूँ तो भी उस उत्कृष्ट स्थानको तुम तपस्याद्वारा प्राप्त करनेकी अभिलाषा करते ही जाते हो। ऐसा करनेसे सर्वथा तुम्हारी सत्ता मिट जायगी ।। ५ ।।

'पशु-पक्षीकी योनिमें पड़े हुए सभी प्राणी यदि कभी मनुष्ययोनिमें जाते हैं तो पहले पुल्कस या चाण्डालके रूपमें जन्म लेते हैं--इसमें संशय नहीं है || ६ ।।

“मतंग! पुल्कस या जो कोई भी पापयोनि पुरुष यहाँ दिखायी देता है वह सुदीर्घकालतक अपनी उसी योनिमें चक्कर लगाता रहता है ।। ७ ।।

“तदनन्तर एक हजार वर्ष बीतनेपर वह चाण्डाल या पुल्कस शूद्रयोनिमें जन्म लेता है और उसमें भी अनेक जन्मोंतक चक्कर लगाता रहता है ।। ८ ।।

“तत्पश्चात्‌ तीसगुना समय बीतनेपर वह वैश्य-योनिमें आता है और चिरकालतक उसीमें चक्कर काटता रहता है ।। ९ ।।

इसके बाद साठगुना समय बीतनेपर वह क्षत्रियकी योनिमें जन्म लेता है। फिर उससे भी साठगुना समय बीतनेपर वह गिरे हुए ब्राह्मणके घरमें जन्म लेता है || १० ।।

'दीर्घकालतक ब्राह्मणाधम रहकर जब उसकी अवस्था परिवर्तित होती है तब वह अस्त्र-शस्त्रोंसे जीविका चलानेवाले ब्राह्मणके यहाँ जन्म लेता है ।। ११ ।।

फिर चिरकालतक वह उसी योनिमें पड़ा रहता है। तदनन्तर तीन सौ वर्षका समय व्यतीत होनेपर वह गायत्री-मात्रका जप करनेवाले ब्राह्मणके यहाँ जन्म लेता है || १२ 

उस जन्मको पाकर वह चिरकालतक उसी योनिमें जन्मता-मरता रहता है। फिर चार सौ वर्षोका समय व्यतीत होनेपर वह श्रोत्रिय (वेदवेत्ता) ब्राह्मणके कुलमें जन्म लेता है और उसी कुलमें चिरकालतक उसका आवागमन होता रहता है ।। १३ ।।

बेटा! इस प्रकार शोक-हर्ष, राग-द्वेष, अतिमान और अतिवाद आदि दोषोंका अधम द्विजके भीतर प्रवेश होता है ।। १४ ।।

यदि वह इन शत्रुओंको जीत लेता है तो सदगतिको प्राप्त होता है और यदि वे शत्रु ही उसे जीत लेते हैं तो ताड़के वृक्षके ऊपरसे गिरनेवाले फलकी भाँति वह नीचे गिरा दिया जाता है | १५ |।

“मतंग! यही सोचकर मैंने तुमसे कहा था कि तुम कोई दूसरी अभीष्ट वस्तु माँग लो; क्योंकि ब्राह्मणत्व अत्यन्त दुर्लभ है” || १६ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें इन्द्र और मतज्ञका संवादविषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

उन्नतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  उन्नतीसवें अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)

“मतड़की तपस्या और इन्द्रका उसे वरदान देना”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इन्द्रके ऐसा कहनेपर मतंग अपने मनको और भी दृढ़ और संयमशील बनाकर एक हजार वर्षोतक एक पैरसे ध्यान लगाये खड़ा रहा ।। १ ।।

जब एक हजार वर्ष पूरे होनेमें कुछ ही बाकी था, उस समय बल और वृत्रासुरके शत्रु देवराज इन्द्र फिर मतंगको देखनेके लिये आये और पुनः उससे उन्होंने पहलेकी कही हुई बात ही दुहरायी ।। २ ।।

मतंगने कहा--देवराज! मैंने ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक एकाग्रचित्त हो एक हजार वर्षोतक एक पैरसे खड़ा होकर तप किया है। फिर मुझे ब्राह्मणत्व कैसे नहीं प्राप्त हो सकता? ।। ३ ।।

इन्द्रने कहा--मतंग! चाण्डालकी योनिमें जन्म लेनेवालेको किसी तरह ब्राह्मणत्व नहीं मिल सकता; इसलिये तुम दूसरी कोई अभीष्ट वस्तु माँग लो। जिससे तुम्हारा यह परिश्रम व्यर्थ न जाय || ४ ।।

उनके ऐसा कहनेपर मतंग अत्यन्त शोकमग्न हो गयामें जाकर अंगूठेके बलपर सौ वर्षोतक खड़ा रहा ।। ५ ||

उसने दुर्धर योगका अनुष्ठान किया। उसका सारा शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया। नसनाड़ियाँ उबड़ आयीं। धर्मात्मा मतंगका शरीर चमड़ेसे ढकी हुई हड्डियोंका ढाँचामात्र रह गया। उस अवस्थामें अपनेको न सँभाल सकनेके कारण वह गिर पड़ा--यह बात हमारे सुननेमें आयी है ।। ६ ।।

उसे गिरते देख सम्पूर्ण भूतोंके हितमें तत्पर रहनेवाले वर देनेमें समर्थ इन्द्रने दौड़कर पकड़ लिया ।।

इन्द्रने कहा--मतंग! इस जन्ममें तुम्हारे लिये ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति असम्भव दिखायी देती है। ब्राह्मणत्व अत्यन्त दुर्लभ है; साथ ही वह काम-क्रोध आदि लुटेरोंसे घिरा हुआ है ।। ८ ।।

जो ब्राह्मणका आदर करता है वह सुख पाता है, और जो अनादर करता है वह दुःख पाता है। ब्राह्मण समस्त प्राणियोंको योगक्षेमकी प्राप्ति करानेवाला है ।। ९ |।

मतंग! ब्राह्मणोंके तृप्त होनेसे ही देवता और पितर भी तृप्त होते हैं। ब्राह्मणको समस्त प्राणियोंमें सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है ।। १० ।।

ब्राह्मण जो-जो जिस प्रकार करना चाहता है, अपने तपके प्रभावसे वैसा ही कर सकता है। तात! जीव इस जगत्‌के भीतर अनेक योनियोंमें भ्रमण करता हुआ बारंबार जन्म लेता है। इसी तरह जन्म लेते-लेते कभी किसी समयमें वह ब्राह्मणत्वको प्राप्त कर लेता है।। ११३ ||

अत: जिनका मन अपने वशमें नहीं है, ऐसे लोगोंके लिये सर्वथा दुष्प्राप्य ब्राह्मणत्वको पानेका आग्रह छोड़कर तुम कोई दूसरा ही वर माँगो। यह वर तो तुम्हारे लिये दुर्लभ ही है ।। १२६ ||

मतंगने कहा--देवराज! मैं तो यों ही दुःखसे आतुर हो रहा हूँ, फिर तुम भी क्‍यों मुझे पीड़ा दे रहे हो? मुझ मरे हुए को क्‍यों मारते हो? मैं तो तुम्हारे लिये शोक करता हूँ, जो जन्मसे ही ब्राह्मणत्वको पाकर भी तुम उसे अपना नहीं रहे हो ।। १३६ ।।

शतक्रतो! यदि क्षत्रिय आदि तीन वर्णोके लिये ब्राह्मणत्व दुर्लभ है तो उस परम दुर्लभ ब्राह्मणत्वको पाकर भी मनुष्य ब्राह्मणोचित शम-दमका अनुष्ठान नहीं करते हैं। यह कितने दुःखकी बात है! ।। १४३ ||

वह पापियोंसे भी बढ़कर अत्यन्त पापी और उनमें भी अधम ही है, जो दुर्लभ धनकी भाँति ब्राह्मणत्वको पाकर भी उसके महत्त्वको नहीं समझता है || १५३ ।।

पहले तो ब्राह्मणत्वका प्राप्त होना ही कठिन है। यदि वह प्राप्त हो जाय तो उसका पालन करना और भी कठिन हो जाता है; किंतु बहुत-से मनुष्य इस दुर्लभ वस्तुको पाकर भी तदनुकूल आचरण नहीं करते हैं || १६६ ।।

शक्र! मैं एकान्तमें आनन्दपूर्वक रहता हूँ तथा द्वद्धों और परिग्रहोंसे दूर हूँ। अहिंसा और दमका पालन किया करता हूँ। ऐसी दशामें मैं ब्राह्मणत्व पाने योग्य क्‍यों नहीं हूँ? ।। १७३ ।।

पुरंदर! मैं धर्मज्ञ होकर भी केवल माताके दोषसे इस अवस्थामें आ पहुँचा हूँ। यह मेरा कैसा दुर्भाग्य है? ।। १८६ ||

प्रभो! निश्चय ही पुरुषार्थके द्वारा दैवका उल्लंघन नहीं किया जा सकता; क्‍योंकि मैं जिसके लिये ऐसा प्रयत्नशील हूँ उस ब्राह्मणत्वको नहीं उपलब्ध कर पाता हूँ ।। १९३ ।।

धर्मज्ञ देवराज! यदि ऐसी अवस्थामें मैं आपका कृपापात्र हूँ अथवा यदि मेरा कुछ भी पुण्य शेष हो तो आप मुझे वर प्रदान कीजिये || २० $ ।।

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तब बल और वृत्रासुरको मारनेवाले इन्द्रने मतड़से कहा--“तुम मुझसे वर माँगो।” महेन्द्रसे प्रेरित होकर मतड़ने इस प्रकार कहा -- २१३ ||

देव पुरंदर! आप ऐसी कृपा करें जिससे मैं इच्छानुसार विचरनेवाला तथा अपनी इच्छाके अनुसार रूप धारण करनेवाला आकाशचारी देवता होऊँ। ब्राह्मण और क्षत्रियोंके विरोधसे रहित हो मैं सर्वत्र पूजा एवं सत्कार प्राप्त करूँ तथा मेरी अक्षय कीर्तिका विस्तार हो। मैं आपके चरणोंमें मस्तक रखकर आपकी प्रसन्नता चाहता हूँ। आप मेरी इस प्रार्थाको सफल बनाइये ।।

इन्द्रने कहा--वत्स! तुम स्त्रियोंके पूजनीय होओगे। “छन्दोदेव” के नामसे तुम्हारी ख्याति होगी और तीनों लोकोंमें तुम्हारी अनुपम कीर्तिका विस्तार होगा || २४३ ।।

इस प्रकार उसे वर देकर इन्द्र वहीं अन्तर्धान हो गये। मतंग भी अपने प्राणोंका परित्याग करके उत्तम स्थान (ब्रह्मलोक)-को प्राप्त हुआ ।। २५३६ ।।

भारत! इस तरह यह ब्राह्मणत्व परम उत्तम स्थान है। जैसा कि इन्द्रका कथन है, उसके अनुसार यह इस जीवनमें दूसरे वर्णके लोगोंके लिये दुर्लभ है ।। २६ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें इन्द्र और मतज्ञका संवादविषयक उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  तीसवें अध्याय के श्लोक 1-67 का हिन्दी अनुवाद)

“वीतहव्यके पुत्रोंसे काशी-नरेशोंका घोर युद्ध, प्रतर्दनद्वारा उनका वध और राजा वीतहव्यको भूगुके कथनसे ब्राह्मणत्व प्राप्त होनेकी कथा”

युधिष्ठिरने पूछा--कुरुकुलमें उत्पन्न! वक्ताओंमें श्रेष्ठ पितामह! आपके मुखसे यह महान्‌ उपाख्यान मैंने सुन लिया। आप कह रहे हैं कि अन्य वर्णोके लिये इसी शरीरसे ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति बहुत ही कठिन है ।। १ ।।

सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ पितामह! परंतु सुना जाता है कि पूर्वकालमें विश्वामित्रजीने इसी शरीरसे ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया था और आप जो उसे सर्वथा दुर्लभ बता रहे हैं (ये दोनों बातें परस्पर विरुद्ध-सी जान पड़ती हैं) ।।

मेरे सुननेमें यह भी आया है कि राजा वीतहत्य क्षत्रियसे ब्राह्मण हो गये थे। गड़ानन्दन प्रभो! अब मैं पहले उसी प्रसड़को सुनना चाहता हूँ ।। ३ ।।

वे नृपशिरोमणि वीतहव्य किस कर्मसे, किस वर अथवा तपस्यासे ब्राह्मणत्वको प्राप्त हुए? यह मुझे विस्तारपूर्वक बतानेकी कृपा करें ।। ४ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! महायशस्वी राजर्षि राजा वीतहव्यने जिस प्रकार लोकसम्मानित दुर्लभ ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था, उसे बताता हूँ, सुनो ।। ५ ।।

तात! पूर्वकालमें धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करनेवाले महामनस्वी राजा मनुके एक धर्मात्मा पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम था शर्याति ।। ६ ।।

विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ नरेश! राजा शर्यातिके वंशमें दो राजा बड़े विख्यात हुए--हैहय और तालजंघ। ये दोनों ही राजा वत्सके पुत्र थे || ७ ।।

भरतवंशी राजेन्द्र! उन दोनोंमें हैहपके (जिसका दूसरा नाम वीतहव्य भी था) दस स्त्रियाँ थीं। उन स्त्रियोंके गर्भसे सौ शूरवीर पुत्र उत्पन्न हुए जो युद्धसे पीछे हटनेवाले नहीं थे।। ८ ।।

उन सबके रूप और प्रभाव एक समान थे, वे सभी बलवान्‌ तथा युद्धमें शोभा पानेवाले थे। उन्होंने धनुर्वेद और वेदके सभी विषयोंमें परिश्रम किया था ।।

उन्हीं दिनों काशी प्रान्तमें हर्यश्व नामके राजा राज्य करते थे, जो दिवोदासके पितामह थे। वे विजयशील वीरोंमें श्रेष्ठ समझे जाते थे || १० ।।

पुरुषप्रवर! वीतहव्यके पुत्रोंने हर्यश्वके राज्यपर चढ़ाई की उन्हें गंगा-यमुनाके बीच युद्धमें मार गिराया ।। ११ ।।

राजा हर्यश्वको मारकर वे महारथी हैहय-राजकुमार निर्भय हो वत्सवंशी राजाओंकी सुरम्य पुरीको लौट गये ।। १२ ।।

हर्यश्वके पुत्र सुदेव जो देवताके तुल्य तेजस्वी और साक्षात्‌ दूसरे धर्मराजके समान न्यायशील थे, पिताके बाद काशिराजके पदपर अभिषिक्त किये गये ।।

धर्मात्मा काशिनन्दन सुदेव धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन करने लगे। इसी बीचमें वीतहव्यके सभी पुत्रोंने आक्रमण करके युद्धमें उन्हें भी परास्त कर दिया ।। १४ ।।

समराज्रणमें सुदेवको धराशायी करके वे हैहय-राजकुमार जैसे आये थे वैसे लौट गये। तत्पश्चात्‌ सुदेवके पुत्र दिवोदासका काशिराजके पदपर अभिषेक किया गया ।। १५ ||

दिवोदास बड़े तेजस्वी राजा थे। उन्होंने जब मनको वशमें रखनेवाले हैहयराजकुमारोंके पराक्रमपर विचार किया तब इन्द्रकी आज्ञासे वाराणसी नामवाली नगरी बसायी ।। १६ ।।

वह पुरी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रोंसे भरी हुई थी। नाना प्रकारके द्रव्योंके संग्रहसे सम्पन्न थी; तथा उसके बाजार-हाट और दूकानें धन-वैभवसे भरपूर थीं || १७ ।।

नृपश्रेष्ठट उस नगरीके घेरेका एक छोर गंगाजीके उत्तर तटतक दूसरा छोर गोमतीके दक्षिण किनारेतक फैला हुआ था। वह नगरी इन्द्रकी अमरावतीपुरीके समान जान पड़ती थी ।। १८ ।।

भारत! उस नगरीमें निवास करते हुए राजसिंह भूपाल दिवोदासपर पुनः हैहयराजकुमारोंने धावा किया ।।

महातेजस्वी महाबली राजा दिवोदासने पुरीसे बाहर निकलकर उन राजकुमारोंके साथ युद्ध किया। उनका वह युद्ध देवासुर-संग्रामके समान भयंकर था ।।

महाराज! काशिनरेशने एक हजार दिन (दो वर्ष नौ महीने दस दिन)-तक शत्रुओंके साथ युद्ध किया। इस युद्धमें दिवोदासके बहुत-से सिपाही और हाथी, घोड़े आदि वाहन मारे गये। उनका खजाना खाली हो गया और वे बड़ी दयनीय दशामें पड़ गये। अन्तमें अपनी राजधानी छोड़कर भाग निकले || २१-२२ ।।

शत्रुदमन नरेश! बुद्धिमान्‌ भरद्वाजके रमणीय आश्रमपर जाकर राजा दिवोदास हाथ जोड़े हुए वहाँ मुनिकी शरणमें गये || २३ ।।

बृहस्पतिके ज्येष्ठ पुत्र भरद्वाजजी बड़े शीलवान्‌ और दिवोदासके पुरोहित थे। उन्होंने राजाको उपस्थित देखकर पूछा--“नरेश्वर! तुम्हें यहाँ आनेकी क्या आवश्यकता पड़ी? मुझे अपना सब समाचार बता दो। तुम्हारा जो भी प्रिय कार्य होगा उसे मैं करूँगा। इसके लिये मेरे मनमें कोई अन्यथा विचार नहीं होगा” || २४-२५ ।।

राजाने कहा--भगवन्‌! संग्राममें वीतहव्यके पुत्रोंने मेरे कुलका विनाश कर डाला। मैं अकेला ही अत्यन्त संतप्त हो आपकी शरणमें आया हूँ || २६ ।।

भगवन्‌! मैं आपका शिष्य हूँ और आप मेरे गुरु हैं। शिष्यके प्रति गुरुका जो सहज स्नेह होता है उसीके द्वारा आप मेरी रक्षा कीजिये। उन पापकर्मियोंने मेरे कुलमें केवल मुझ एक ही व्यक्तिको शेष छोड़ा है ।। २७ ।।

यह सुनकर प्रतापी महर्षि महाभाग भरद्वाजने कहा--'सुदेवनन्दन! तुम न डरो, न डरो। तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिये ।। २८ ।।

'प्रजानाथ! मैं तुम्हारी पुत्र-प्राप्तिके लिये एक यज्ञ करूँगा जिसकी सहायतासे तुम हजारों वीतहव्य-पुत्रोंकी मार गिराओगे” ।। २९ ।।

तब ऋषिने राजासे पुत्रेष्टि यज्ञ कराया। इससे उनके प्रतर्दन नामसे विख्यात पुत्र हुआ ।। ३० ।।

भारत! वह पैदा होते ही इतना बढ़ गया कि तुरंत तेरह वर्षकी अवस्थाका-सा दिखायी देने लगा। उसी समय उसने अपने मुखसे सम्पूर्ण वेद और धनुर्वेदका गान किया ।। ३१ ।।

बुद्धिमान्‌ भरद्वाजमुनिने उसे योगशक्तिसे सम्पन्न कर दिया और उसके शरीरमें सम्पूर्ण जगत्‌का तेज भर दिया ।। ३२ ।।

तदनन्तर राजकुमार प्रतर्दनने अपने शरीरपर कवच धारण किया और हाथमें धनुष ले लिया। उस समय देवर्षिगण उसका यश गाने लगे। वन्दीजनोंसे वन्दित हो वह नवोदित सूर्यके समान प्रकाशित होने लगा ।। ३३ ।।

वह रथपर बैठ गया और कमरमें तलवार बाँधकर प्रज्वलित अग्निके समान उद्धासित होने लगा। ढाल, तलवार और धनुषसे सम्पन्न हो वह धनुषकी टंकार करता हुआ आगे बढ़ा || ३४ ।।

उसे देखकर सुदेव-पुत्र राजा दिवोदासको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने मन-ही-मन वीतहव्यके पुत्रोंको अपने पुत्रके तेजसे दग्ध हुआ ही समझा ।। ३५ ।।

तत्पश्चात्‌ राजा दिवोदासने प्रतर्दनको युवराजके पदपर स्थापित करके अपने आपको कृतकृत्य माना और बड़े आनन्दका अनुभव किया ।। ३६ ।।

इसके बाद राजाने अपने पुत्र शत्रुदमन प्रतर्दनको वीतहव्यके पुत्रोंका वध करनेके लिये भेजा || ३७ ||

पिताकी आज्ञा पाकर वह शत्रुनगरीपर विजय पानेवाला पराक्रमी वीर शीघ्र ही रथसहित गंगापार करके वीतहव्यपुत्रोंकी राजधानीकी ओर चल दिया ।।

उसके रथकी घोर घरघराहट सुनकर विचित्र ढंगसे युद्ध करनेवाले पुरुषसिंह हैहयराजकुमार कवचसे सुसज्जित होकर शत्रुओंके रथको तोड़ डालनेवाले नगराकार विशाल रथोंपर बैठे हुए पुरीसे बाहर निकले और धनुष उठाये बाणोंकी वर्षा करते हुए प्रतर्दनपर चढ़ आये || ३९-४० ।।

युधिष्ठि!! जैसे बादल हिमालयपर जल बरसाते हैं, उसी प्रकार हैहयराजकुमारोंने रथसमूहोंद्वारा आकर राजा प्रतर्दनपर नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी ।| ४१ |।

तब महा तेजस्वी राजा प्रतर्दनने अपने अस्त्रोंद्वारा शत्रुओंके अस्त्रोंका निवारण करके वज्र और अग्निके समान तेजस्वी बाणोंसे उन सबको मार डाला || ४२ ||

राजन! भल्लोंकी मारसे उनके मस्तकोंके सैकड़ों और हजारों टुकड़े हो गये थे। उनके सारे अंग खूनसे लथपथ हो गये और वे कटे हुए पलाशके वृक्षकी भाँति धरतीपर गिर पड़े || ४३ ।।

उन सब पुत्रोंके मारे जानेपर राजा वीतहव्य अपना नगर छोड़कर महर्षि भृगुके आश्रममें भाग गये ।। ४४ ।।

राजन! वहाँ नरेश्वर वीतहव्यने महर्षि भूगुकी शरण ली। तब भूगुने राजाको अभयदान दे दिया || ४५ ।।

इतनेहीमें उनके पीछे लगा हुआ दिवोदासकुमार प्रतर्दन भी शीघ्र ही वहाँ पहुँचा। आश्रममें पहुँचकर उसने इस प्रकार कहा-- || ४६ ।।

भाइयो! इस आश्रममें महात्मा भृगुके शिष्य कौन-कौन हैं? मैं महर्षिका दर्शन करना चाहता हूँ। आपलोग उन्हें मेरे आगमनकी सूचना दे दें || ४७ ।।

प्रतर्दनको आया जान भृगुजी आश्रमसे निकले। उन्होंने नृपश्रेष्ठ प्रतर्दनका विधिपूर्वक स्वागत-सत्कार किया ।।

और इस प्रकार पूछा--'राजेन्द्र! पृथ्वीनाथ! मुझसे आपका क्‍या काम है, बताइये।' तब राजाने उनसे अपने आगमनका जो कारण था, उसे इस प्रकार बताया ।। ४९ ।।

राजाने कहा--ब्रह्मन! राजा वीतहव्यको आप यहाँसे बाहर निकाल दीजिये। विप्रवर! इनके पुत्रोंने मेरे सम्पूर्ण कुलका विनाश कर डाला है || ५० ।।

इतना ही नहीं, उनके पुत्रोंने काशिप्रान्तका सारा राज्य उजाड़ डाला और रत्नोंका संग्रह लूट लिया है। बलके घमंडमें भरे हुए इन राजाके सौ पुत्रोंको तो मैंने मार डाला; अब केवल ये ही रह गये हैं। इस समय इनका भी वध करके मैं पिताके ऋणसे उऋण हो जाऊँगा? ।। ५१३ ||

तब धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भूगुने दयासे द्रवित होकर उनसे कहा--“राजन्‌! यहाँ कोई क्षत्रिय नहीं है। ये सब-के-सब ब्राह्मण हैं || ५२ ३ ।।

महर्षि भूगुका यह यथार्थ वचन सुनकर प्रतर्दन बहुत प्रसन्न हुआ और धीरेसे उनके दोनों चरण छूकर बोला--“भगवन्‌! यदि ऐसी बात है तो मैं कृतकृत्य हो गया, इसमें संशय नहीं है ।। ५३-५४ ।।

“क्योंकि इन राजाको मैंने अपने पराक्रमसे अपनी जाति त्याग देनेके लिये विवश कर दिया। ब्रह्मन! मुझे जानेकी आज्ञा दीजिये और मेरा कल्याण-चिन्तन कीजिये || ५५ ।।

भृगुवंशी महर्षे! मैंने इन राजासे अपनी जातिका त्याग करवा दिया।” महाराज! तदनन्तर महर्षिकी आज्ञा लेकर राजा प्रतर्दन जैसे साँप अपने विषको त्याग देता है, उसी प्रकार क्रोध छोड़कर जैसे आया था वैसे लौट गया ।। ५६३ ।।

नरेश्वर! इस प्रकार राजा वीतहव्य भूगुजीके कथनमात्रसे ब्रह्मर्षि एवं ब्रह्मवादी हो गये ।। ५७३ ।।

उनके पुत्रो गृत्समद हुए जो रूपमें दूसरे इन्द्रके समान थे। कहते हैं, किसी समय दैत्योंने उन्हें यह कहते हुए पकड़ लिया था कि “तुम इन्द्र हो" | ५८६ ।।

ऋग्वेदमें महामना गृत्समदकी श्रेष्ठ श्रुति विद्यमान है। राजन! वहाँ ब्राह्मणलोग गृत्ममदका बड़ा सम्मान करते हैं। ब्रह्मर्षि गृत्समद बड़े तेजस्वी और ब्रह्मचारी थे ।। ५९-६० ||

गृत्समदके पुत्र सुचेता नामके ब्राह्मण हुए। सुचेताके पुत्र वर्चा और वचककि पुत्र विह॒व्य हुए || ६१ ।।

विहव्यके पुत्रका नाम वितत्य था। वितत्यके पुत्र सत्य और सत्यके पुत्र सन्त हुए || ६२ ।।

सन्तके पुत्र महर्षि श्रवा, श्रवाके तम और तमके पुत्र द्विजश्रेष्ठ प्रकाश हुए। प्रकाशका पुत्र विजयशीलोंमें श्रेष्ठ वागिन्द्र था ।। ६३ ।।

वागिन्द्रके पुत्र प्रमेति हुए जो वेदों और वेदांगोंके पारंगत विद्वान्‌ थे। प्रमितिके घृताची अप्सरासे रुरुनामक पुत्र हुआ || ६४ ।।

रुससे प्रमद्वराके गर्भसे ब्रह्मर्षि शुनकका जन्म हुआ, जिनके पुत्र शौनक मुनि हैं ।। ६५ ।।

राजेन्द्र! क्षत्रियशिरोमणे! इस प्रकार राजा वीतहव्य क्षत्रिय होकर भी भृगुके प्रसादसे ब्राह्मण हो गये ।। ६६ ।।

महाराज! इसी तरह मैंने गृत्समदके वंशका भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। अब और क्या पूछ रहे हो? ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें वीतहव्यका उपाख्याननागमक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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