सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के छब्बीसवाँ अध्याय (From the 26 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

छब्बीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  छब्बीसवें अध्याय के श्लोक 1-107 का हिन्दी अनुवाद)

“श्रीगंगाजीके माहात्म्यका वर्णन”

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! जो बुद्धिमें बृहस्पतिके, क्षमामें ब्रह्माजीके, पराक्रममें इन्द्रके और तेजमें सूर्यके समान थे, अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले वे महातेजस्वी गड़ानन्दन भीष्मजी जब अर्जुनके हाथसे मारे जाकर युद्धमें वीरशय्यापर पड़े हुए कालकी बाट जोह रहे थे और भाइयों तथा अन्य लोगोंसहित राजा युधिष्ठिर उनसे तरहतरहके प्रश्न कर रहे थे, उसी समय बहुत-से दिव्य महर्षि भीष्मजीको देखनेके लिये आये ॥। १--३ ।।

उनके नाम ये हैं--अत्रि, वसिष्ठ, भृगु, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अज्िरा, गौतम, अगस्त्य, संयतचित्त सुमति, विश्वामित्र, स्थूलशिरा, संवर्त, प्रमति, दम, बृहस्पति, शुक्राचार्य, व्यास, च्यवन, काश्यप, ध्रुव, दुर्वासा, जमदग्नि, मार्कण्डेय, गालव, भरद्वाज, रैभ्य, यवक्रीत, त्रित, स्थूलाक्ष, शबलाक्ष, कण्व, मेधातिथि, कृश, नारद, पर्वत, सुधन्वा, एकत, नितम्भू, भुवन, धौम्य, शतानन्द, अकृतव्रण, जमदग्निनन्दन परशुराम और कच || ४--८ ।।

ये सभी महात्मा महर्षि जब भीष्मजीको देखनेके लिये वहाँ पधारे, तब भाइयोंसहित राजा युधिष्ठिरने उनकी क्रमश: विधिवत्‌ पूजा की ।। ९६ ।।

पूजनके पश्चात्‌ वे महर्षि सुखपूर्वक बैठकर भीष्मजीसे सम्बन्ध रखनेवाली मधुर एवं मनोहर कथाएँ कहने लगे। उनकी वे कथाएँ सम्पूर्ण इन्द्रियों और मनको मोह लेती थीं।। १०६ ।।

शुद्ध अन्तःकरणवाले उन ऋषि-मुनियोंकी बातें सुनकर भीष्मजी बहुत संतुष्ट हुए और अपनेको स्वर्गमें ही स्थित मानने लगे || ११६ ।।

तदनन्तर वे महर्षिगण भीष्मजी और पाण्डवोंकी अनुमति लेकर सबके देखते-देखते ही वहाँसे अदृश्य हो गये ।। १२३ ।।

उन महाभाग मुनियोंके अदृश्य हो जानेपर भी समस्त पाण्डव बारंबार उनकी स्तुति और उन्हें प्रणाम करते रहे ।। १३ $ ।।

जैसे वेदमन्त्रोंके ज्ञाता ब्राह्मण उगते हुए सूर्यका उपस्थान करते हैं, उसी प्रकार प्रसन्न चित्त हुए समस्त पाण्डव कुरुश्रेष्ठ गड़ानन्दन भीष्मको प्रणाम करने लगे || १४३ ।।

उन ऋषियोंकी तपस्याके प्रभावसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित होती देख पाण्डवोंको बड़ा विस्मय हुआ || १५३ ||

उन महर्षियोंके महान्‌ सौभाग्यका चिन्तन करके पाण्डव भीष्मजीके साथ उन्हींके सम्बन्धमें बातें करने लगे || १६ ।।

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! बातचीतके अन्तमें भीष्मके चरणोंमें सिर रखकर धर्मपुत्र पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने यह धर्मानुकूल प्रश्न पूछा-- ।। १७ ।।

युधिष्ठिर बोले--पितामह! कौन-से देश, कौन-से प्रान्त, कौन-कौन आश्रम, कौन-से पर्वत और कौन-कौन-सी नदियाँ पुण्यकी दृष्टिसे सर्वश्रेष्ठ समझने योग्य हैं? ।। १८ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें शिलोज्छवृत्तिसे जीविका चलानेवाले एक पुरुषका किसी सिद्ध पुरुषके साथ जो संवाद हुआ था, वह प्राचीन इतिहास सुनो ।। १९ ।।

मनुष्योंमें श्रेष्ठ कोई सिद्ध पुरुष शैलमालाओंसे अलंकृत इस समूची पृथ्वीकी अनेक बार परिक्रमा करनेके पश्चात्‌ शिलोज्छवृत्तिसे जीविका चलानेवाले एक श्रेष्ठ गृहस्थके घर गया। उस गृहस्थने उसकी विधिपूर्वक पूजा की। वह समागत ऋषि वहाँ बड़े सुखसे रातभर रहा। उसके मुखपर प्रसन्नता छा रही थी || २०-२१ ।।

सबेरा होनेपर वह शिलवृत्तिवाला गृहस्थ स्नान आदिसे पवित्र होकर प्रातः:कालीन नित्यकर्ममें लग गया। नित्यकर्म पूर्ण करके वह उस सिद्ध अतिथिकी सेवामें उपस्थित हुआ। इसी बीचमें अतिथिने भी प्रातःकालके स्नान-पूजन आदि आवश्यक कृत्य पूर्ण कर लिये थे || २२ ।।

वे दोनों महात्मा एक-दूसरेसे मिलकर सुखपूर्वक बैठे तथा वेदोंसे सम्बद्ध और वेदान्तसे उपलक्षित शुभ चर्चाएँ करने लगे || २३ ।।

बातचीत पूरी होनेपर शिलोउ्छवृत्तिवाले बुद्धिमान्‌ गृहस्थ ब्राह्मणने सिद्धको सम्बोधित करके यत्नपूर्वक वही प्रश्न पूछा, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो || २४ ।।

शिलवृत्तिवाले ब्राह्मणने पूछा--ब्रह्म! कौन-से देश, कौन-से जनपद, कौन-कौन आश्रम, कौन-से पर्वत और कौन-कौन-सी नदियाँ पुण्यकी दृष्टिसे सर्वश्रेष्ठ समझनेयोग्य हैं? यह बतानेकी कृपा करें || २५ ।।

सिद्धने कहा--ब्रह्मन्‌! वे ही देश, जनपद, आश्रम और पर्वत पुण्यकी दृष्टिसे सर्वश्रेष्ठ हैं, जिनके बीचसे होकर सरिताओंमें उत्तम भागीरथी गड़ा बहती हैं ।। २६ ।।

गंगाजीका सेवन करनेसे जीव जिस उत्तम गतिको प्राप्त करता है उसे वह तपस्या, ब्रह्मचर्य, यज्ञ अथवा त्यागसे भी नहीं पा सकता ।। २७ |।

जिन देहधारियोंके शरीर गंगाजी के जलसे भीगते हैं अथवा मरनेपर जिनकी हडियाँ गंगाजीमें डाली जाती हैं वे कभी स्वर्गसे नीचे नहीं गिरते || २८ ।।

विप्रवर! जिन देहधारियोंके सम्पूर्ण कार्य गड़ाजलसे ही सम्पन्न होते हैं वे मानव मरनेके बाद पृथ्वीका निवास छोड़कर स्वर्गमें विराजमान होते हैं || २९ ।।

जो मनुष्य जीवनकी पहली अवस्थामें पापकर्म करके भी पीछे गड़ाजीका सेवन करने लगते हैं वे भी उत्तम गतिको ही प्राप्त होते हैं || ३० ।।

गड़ाजीके पवित्र जलसे स्नान करके जिनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है उन पुरुषोंके पुण्यकी जैसी वृद्धि होती है; वैसी सैकड़ों यज्ञ करनेसे भी नहीं हो सकती ।। ३१ ।।

मनुष्यकी हड्डी जितने समयतक गड्ाजीके जलमें पड़ी रहती है, उतने हजार वर्षोंतक वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है ।। ३२ ।।

जैसे सूर्य उदयकालमें घने अन्धकारको विदीर्ण करके प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार गड़ाजलमें स्नान करनेवाला पुरुष अपने पापोंको नष्ट करके सुशोभित होता है || ३३ ।।

जैसे बिना चाँदनीकी रात और बिना फूलोंके वृक्ष शोभा नहीं पाते, उसी प्रकार गड़ाजीके कल्याणमय जलसे वज्चित हुए देश और दिशाएँ भी शोभा एवं सौभाग्य हीन हैं ।। ३४ ।।

जैसे धर्म और ज्ञानसे रहित होनेपर सम्पूर्ण वर्णों और आश्रमोंकी शोभा नहीं होती है तथा जैसे सोमरसके बिना यज्ञ सुशोभित नहीं होते, उसी प्रकार गड़ाके बिना जगत्‌की शोभा नहीं है || ३५ ।।

जैसे सूर्यके बिना आकाश, पर्वतोंके बिना पृथ्वी और वायुके बिना अन्तरिक्षकी शोभा नहीं होती, उसी प्रकार जो देश और दिशाएँ गड़ाजीसे रहित हैं उनकी भी शोभा नहीं होती --इसमें संशय नहीं है ।। ३६ ।।

तीनों लोकोंमें जो कोई भी प्राणी हैं, उन सबका गड़ाजीके शुभ जलसे तर्पण करनेपर वे सब परम तृप्ति लाभ करते हैं || ३७ ।।

जो मनुष्य सूर्यकी किरणोंसे तपे हुए गड़ाजलका पान करता है, उसका वह जलपान गायके गोबरसे निकले हुए जौकी लप्सी खानेसे अधिक पवित्रकारक है || ३८ ।।

जो शरीरको शुद्ध करनेवाले एक सहस्र चान्द्रायण व्रतोंका अनुष्ठान करता है और जो केवल गड़ाजल पीता है, वे दोनों समान ही हैं अथवा यह भी हो सकता है कि दोनों समान नहों (गड़ाजल पीनेवाला बढ़ जाय) ।। ३९ ।।

जो पुरुष एक हजार युगोंतक एक पैरसे खड़ा होकर तपस्या करता है और जो एक मासतक गड़ातटपर निवास करता है, वे दोनों समान हो सकते हैं अथवा यह भी सम्भव है कि समान न हों ।। ४० ।।

जो मनुष्य दस हजार युगोंतक नीचे सिर करके वृक्षमें लटका रहे और जो इच्छानुसार गड़ाजीके तटपर निवास करे, उन दोनोंमें गड़ाजीपर निवास करनेवाला ही श्रेष्ठ है ।। ४१ 

द्विजश्रेष्ठ) जैसे अतामें डाली हुई रूई तुरंत जलकर भस्म हो जाती है, उसी प्रकार गड़ामें गोता लगानेवाले मनुष्यके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ।। ४२ ।।

इस संसारमें दुःखसे व्याकुलचित होकर अपने लिये कोई आश्रय ढूँढ़नेवाले समस्त प्राणियोंके लिये गंगाजीके समान कोई दूसरा सहारा नहीं है || ४३ ।।

जैसे गरुड़को देखते ही सारे सर्पोके विष झड़ जाते हैं, उसी प्रकार गड़ाजीके दर्शनमात्रसे मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है || ४४ ।।

जगत्‌में जिनका कहीं आधार नहीं है; तथा जिन्होंने धर्मकी शरण नहीं ली है, उनका आधार और उन्हें शरण देनेवाली श्रीगड़ाजी ही हैं। वे ही उसका कल्याण करनेवाली तथा कवचकी भाँति उसे सुरक्षित रखनेवाली हैं || ४५ ।।

जो नीच मानव अनेक बड़े-बड़े अमड्नलकारी पापकर्मोंसे ग्रस्त होकर नरकमें गिरनेवाले हैं, वे भी यदि गड़ाजीकी शरणमें आ जाते हैं तो ये मरनेके बाद उनका उद्धार कर देती हैं ।। ४६ ।।

बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ ब्राह्यण! जो लोग सदा गड्जाजीकी यात्रा करते हैं, उनपर निश्चय ही इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता तथा मुनिलोग पृथक्‌-पृथक्‌ कृपा करते आये हैं || ४७ ।।

विप्रवर! विनय और सदाचारसे हीन अमड्रलकारी नीच मनुष्य भी गड़ाजीकी शरणमें जानेपर कल्याणस्वरूप हो जाते हैं || ४८ ।।

जैसे देवताओंको अमृत, पितरोंको स्वधा और नागोंको सुधा तृप्त करती है, उसी प्रकार मनुष्योंके लिये गंगाजल ही पूर्ण तृप्तिका साधन है ।। ४९ ।।

जैसे भूखसे पीड़ित हुए बच्चे माताके पास जाते हैं, उसी प्रकार कल्याणकी इच्छा रखनेवाले प्राणी इस जगतमें गड़ाजीकी उपासना करते हैं ।। ५० ।।

जैसे ब्रह्मलोक सब लोकोंसे श्रेष्ठ बताया जाता है, वैसे ही स्नान करनेवाले पुरुषोंके लिये गड़ाजी ही सब नदियोंमें श्रेष्ठ कही गयी हैं || ५१ ।।

जैसे धेनुस्वरूपा पृथ्वी उपजीवी देवता आदिके लिये आदरणीय है, उसी प्रकार इस जगत्‌में गंगा समस्त उपजीवी प्राणियोंके लिये आदरणीय हैं || ५२ ।।

जैसे देवता सत्र आदि यज्ञोंद्वारा चन्द्रमा और सूर्यमें स्थित अमृतसे आजीविका चलाते हैं, उसी प्रकार संसारके मनुष्य गंगाजलका सहारा लेते हैं || ५३ ।।

गंगाजीके तटसे उड़े हुए बालुका-कणोंसे अभिषिक्त हुए अपने शरीरको ज्ञानी पुरुष स्वर्गलोकमें स्थित हुआ-सा शोभासम्पन्न मानता है ।। ५४ ।।

जो मनुष्य गंगाके तीरकी मिट्टी अपने मस्तकमें लगाता है वह अज्ञानान्धकारका नाश करनेके लिये सूर्यके समान निर्मल स्वरूप धारण करता है ।। ५५ ।।

गंगाकी तरंगमालाओंसे भीगकर बहनेवाली वायु जब मनुष्यके शरीरका स्पर्श करती है, उसी समय वह उसके सारे पापोंको नष्ट कर देती है || ५६ ।।

दुर्व्यसनजनित दु:खोंसे संतप्त होकर मरणासन्न हुआ मनुष्य भी यदि गंगाजीका दर्शन करे तो उसे इतनी प्रसन्नता होती है कि उसकी सारी पीड़ा तत्काल नष्ट हो जाती है | ५७ ||

हंसोंकी मीठी वाणी, चक्रवाकोंके सुमधुर शब्द तथा अन्यान्य पक्षियोंके कलरवोंद्वारा गंगाजी गन्धर्वोसे होड़ लगाती हैं तथा अपने ऊँचे-ऊँचे तटोंद्वारा पर्वतोंके साथ स्पर्धा करती हैं ।। ५८ ।।

हंस आदि बहुसंख्यक एवं विविध पक्षियोंसे घिरी हुई तथा गौओंके समुदायसे व्याप्त हुई गंगाजीको देखकर मनुष्य स्वर्गलोकको भी भूल जाता है ।। ५९ |।

गंगाजीके तटपर निवास करनेसे मनुष्योंको जो परम प्रीति--अनुपम आनन्द मिलता है वह स्वर्गमें रहकर सम्पूर्ण भोगोंका अनुभव करनेवाले पुरुषको भी नहीं प्राप्त हो सकता।।

मन, वाणी और क्रियाद्वारा होनेवाले पापोंसे ग्रस्त मनुष्य भी गंगाजीका दर्शन करने मात्रसे पवित्र हो जाता है--इसमें मुझे संशय नहीं है || ६१ ।।

गंगाजीका दर्शन, उनके जलका स्पर्श तथा उस जलके भीतर स्नान करके मनुष्य सात पीढ़ी पहलेके पूर्वजोंका और सात पीढ़ी आगे होनेवाली संतानोंका तथा इनसे भी ऊपरके पितरों और संतानोंका उद्धार कर देता है ।। ६२ ।।

जो पुरुष ग॑ माहात्म्य सुनता, उनके तटपर जानेकी अभिलाषा रखता, उनका दर्शन करता, जल पीता, स्पर्श करता तथा उनके भीतर गोते लगाता है, उसके दोनों कुलोंका भगवती गंगा विशेषरूपसे उद्धार कर देती हैं ।। ६३ ।।

गंगाजी अपने दर्शन, स्पर्श, जलपान तथा अपने गंगानामके कीर्तनसे सैकड़ों और हजारों पापियोंको तार देती हैं || ६४ ।।

जो अपने जन्म, जीवन और वेदाध्ययनको सफल बनाना चाहता हो वह गंगाजीके पास जाकर उनके जलसे देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करे ।। ६५ ।।

मनुष्य गंगास्नान करके जिस अक्षय फलको प्राप्त करता है उसे पुत्रोंसे, धनसे तथा किसी कर्मसे भी नहीं पा सकता ।। ६६ ।।

जो सामर्थ्य होते हुए भी पवित्र जलवाली कल्याणमयी गंगाका दर्शन नहीं करते वे जन्मके अन्धों, पंगुओं और मुर्दोके समान हैं ।। ६७ ।।

भूत, वर्तमान और भविष्यके ज्ञाता महर्षि तथा इन्द्र आदि देवता भी जिनकी उपासना करते हैं, उन गंगाजीका सेवन कौन मनुष्य नहीं करेगा? ।। ६८ ।।

ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी और विद्वान्‌ पुरुष भी जिनकी शरण लेते हैं, ऐसी गंगाजीका कौन मनुष्य आश्रय नहीं लेगा? ।। ६९ ।।

जो साधु पुरुषोंद्वारा सम्मानित तथा संयतचित्त मनुष्य प्राण निकलते समय मन-ही-मन गंगाजीका स्मरण करता है, वह परम उत्तम गतिको प्राप्त कर लेता है | ७० ।।

जो पुरुष यहाँ जीवनपर्यन्त गंगाजीकी उपासना करता है उसे भयदायक वस्तुओंसे, पापोंसे तथा राजासे भी भय नहीं होता || ७१ ।।

भगवान्‌ महेश्वरने आकाशसे गिरती हुई परम पवित्र गंगाजीको सिरपर धारण किया, उन्हींका वे स्वर्गमें सेवन करते हैं || ७२ ।।

जिन्होंने तीन निर्मल मार्गोद्रारा आकाश, पाताल तथा भूतल--इन तीन लोकोंको अलंकृत किया है उन गंगाजीके जलका जो मनुष्य सेवन करेगा वह कृतकृत्य हो जायगा || ७३ ।।

स्वर्गवासी देवताओंमें जैसे सूर्यका तेज श्रेष्ठ है, जैसे पितरोंमें चन्द्रमा तथा मनुष्योंमें राजाधिराज श्रेष्ठ है, उसी प्रकार समस्त सरिताओं में गंगाजी उत्तम हैं || ७४ ।।

(गंगाजीमें भक्ति रखनेवाले पुरुषको) माता, पिता, पुत्र, स्‍त्री और धनका वियोग होनेपर भी उतना दुःख नहीं होता, जितना गंगाके बिछोहसे होता है ।। ७५ ।।

इसी प्रकार उसे गंगाजीके दर्शनसे जितनी प्रसन्नता होती है, उतनी वनके दर्शनोंसे, अभीष्ट विषयसे, पुत्रोंसे तथा धनकी प्राप्तिसे भी नहीं होती || ७६ ।।

जैसे पूर्ण चन्द्रमाका दर्शन करके मनुष्योंकी दृष्टि प्रसन्न हो जाती है, उसी तरह त्रिपथगा गंगाका दर्शन करके मनुष्योंके नेत्र आनन्दसे खिल उठते हैं || ७७ ।।

जो गंगाजीमें श्रद्धा रखता, उन्हींमें मन लगाता, उन्हींके पास रहता, उन्हींका आश्रय लेता तथा भक्तिभावसे उन्हींका अनुसरण करता है वह भगवती भागीरथीका स्नेह-भाजन होता है || ७८ ।।

पृथ्वी, आकाश तथा स्वर्गमें रहनेवाले छोटे-बड़े सभी प्राणियोंको चाहिये कि वे निरन्तर गंगाजीमें स्नान करें। यही सत्पुरुषोंका सबसे उत्तम कार्य है ।। ७९ ।।

सम्पूर्ण लोकोंमें परम पवित्र होनेके कारण गंगाजीका यश विख्यात है; क्योंकि उन्होंने भस्मीभूत होकर पड़े हुए सगरपुत्रोंको यहाँसे स्वर्गमें पहुँचा दिया || ८० ।।

वायुसे प्रेरित हो बड़े वेगसे अत्यन्त ऊँचे उठनेवाली गंगाजीकी परम मनोहर एवं कान्तिमयी तरंगमालाओंसे नहाकर प्रकाशित होनेवाले पुरुष परलोकमें सूर्यके समान तेजस्वी होते हैं || ८१ ।।

दुग्धके समान उज्ज्वल और घृतके समान स्निग्ध जलसे भरी हुई, परम उदार, समृद्धिशालिनी, वेगवती तथा अगाध जलराशिवाली गंगाजीके समीप जाकर जिन्होंने अपना शरीर त्याग दिया है वे धीर पुरुष देवताओंके समान हो गये ।। ८२ ।।

इन्द्र आदि देवता, मुनि और मनुष्य जिनका सदा सेवन करते हैं वे यशस्विनी, विशालकलेवरा, विश्वरूपा गंगादेवी अपनी शरणमें आये हुए अन्धों, जडों और धनहीनोंको भी सम्पूर्ण मनोवाज्छित कामनाओंसे सम्पन्न कर देती हैं || ८३ ।।

गंगाजी ओजस्विनी, परम पुण्यमयी, मधुर जलराशिसे परिपूर्ण तथा भूतल, आकाश और पाताल--इन तीन मार्गोपर विचरनेवाली हैं। जो लोग तीनों लोकोंकी रक्षा करनेवाली गंगाजीकी शरणमें आये हैं, वे स्वर्गलोकको चले गये || ८४ ।।

जो मनुष्य गंगाजीके तटपर निवास और उनका दर्शन करता है उसे सब देवता सुख देते हैं। जो गंगाजीके स्पर्श और दर्शनसे पवित्र हो गये हैं उन्हें गंगाजीसे ही महत्त्वको प्राप्त हुए देवता मनोवाञ्छित गति प्रदान करते हैं || ८५ ।।

गंगा जगत्‌का उद्धार करनेमें समर्थ हैं। भगवान्‌ पृश्चिगर्भकी जननी 'पृश्रि” के तुल्य हैं, विशाल हैं, सबसे उत्कृष्ट हैं, मंगलकारिणी हैं, पुण्यराशिसे समृद्ध हैं, शिवजीके द्वारा मस्तकपर धारित होनेके कारण सौभाग्यशालिनी तथा भक्तोंपर अत्यन्त प्रसन्न रहनेवाली हैं। इतना ही नहीं, पापोंका विनाश करनेके लिये वे कालरात्रिके समान हैं तथा सम्पूर्ण प्राणियोंकी आश्रयभूत हैं। जो लोग गंगाजीकी शरणमें गये हैं वे स्वर्गलोकमें जा पहुँचे हैं ।। ८६ ||

आकाश, स्वर्ग, पृथ्वी, दिशा और विदिशाओंमें भी जिनकी ख्याति फैली हुई है, सरिताओंमें श्रेष्ठ उन भगवती भागीरथीके जलका सेवन करके सभी मनुष्य कृतार्थ हो जाते हैं ।। ८७ |।

'ये गंगाजी हैं--ऐसा कहकर जो दूसरे मनुष्योंको उनका दर्शन कराता है, उसके लिये भगवती भागीरथी सुनिश्चित प्रतिष्ठा (अक्षय पद प्रदान करनेवाली) हैं। वे कार्तिकेय और सुवर्णको अपने गर्भमें धारण करनेवाली, पवित्र जलकी धारा बहानेवाली और पाप दूर करनेवाली हैं। वे आकाशसे पृथ्वीपर उतरी हुई हैं। उनका जल सम्पूर्ण विश्वके लिये पीने योग्य है। उनमें प्रातः:काल स्नान करनेसे धर्म, अर्थ और काम तीनों वर्गोंकी सिद्धि होती है ।। ८८ ।।

भगवती गंगा पूर्वकालमें अविनाशी भगवान्‌ नारायणसे प्रकट हुई हैं। वे भगवान्‌ विष्णुके चरण, शिशुमार चक्र, ध्रुव, सोम, सूर्य तथा मेरुरूप विष्णुसे अवतरित हो भगवान्‌ शिवके मस्तकपर आयी हैं और वहाँसे हिमालय पर्वतपर गिरी हैं ।।

गंगाजी गिरिराज हिमालयकी पुत्री, भगवान्‌ शंकरकी पत्नी तथा स्वर्ग और पृथ्वीकी शोभा हैं। राजन्‌! वे भूमण्डलपर निवास करनेवाले प्राणियोंका कल्याण करनेवाली, परम सौभाग्यवती तथा तीनों लोकोंको पुण्य प्रदान करनेवाली हैं ।। ८९ ।।

श्रीभागीरथी मधुका स्रोत एवं पवित्र जलकी धारा बहाती हैं। जलती हुई घीकी ज्वालाके समान उनका उज्ज्वल प्रकाश है। वे अपनी उत्ताल तरड़ों तथा जलमें स्नान- संध्या करनेवाले ब्राह्मणोंसे सुशोभित होती हैं। वे जब स्वर्गसे नीचेकी ओर चलीं तब भगवान्‌ शिवने उन्हें अपने सिरपर धारण किया। फिर हिमालय पर्वतपर आकर वहाँसे वे इस पृथ्वीपर उतरी हैं। श्रीगंगाजी स्वर्गलोककी जननी हैं || ९० ।। 

सबका कारण, सबसे श्रेष्ठ, रजोगुणरहित, अत्यन्त सूक्ष्म, मरे हुए प्राणियोंके लिये सुखद शगय्या, तीव्र वेगसे बहनेवाली, पवित्र जलका स्रोत बहानेवाली, यश देनेवाली, जगत्‌की रक्षा करनेवाली, सत्स्वरूपा तथा अभीष्टको सिद्ध करनेवाली भगवती गंगा अपने भीतर स्नान करनेवालोंके लिये स्वर्गका मार्ग बन जाती हैं ।।

क्षमा, रक्षा तथा धारण करनेमें पृथ्वीके समान और तेजमें अग्नि एवं सूर्यके समान शोभा पानेवाली गंगाजी ब्राह्मणजातिपर सदा अनुग्रह करनेके कारण सुब्रह्मण्य कार्तिकेय तथा ब्राह्मणोंके लिये भी प्रिय एवं सम्मानित हैं || ९२ ।।

ऋषियोंद्वारा जिनकी स्तुति होती है, जो भगवान्‌ विष्णुके चरणोंसे उत्पन्न, अत्यन्त प्राचीन तथा परम पावन जलसे भरी हुई हैं, उन गंगाजीकी जगत्‌में जो लोग मनके द्वारा भी सब प्रकारसे शरण लेते हैं वे देहत्यागके पश्चात्‌ ब्रह्मलोकमें जाते हैं ।। ९३ ।।

जैसे माता अपने पुत्रोंको स्नेहभरी दृष्टिसे देखती है और उनकी रक्षा करती है, उसी प्रकार गंगाजी सर्वात्मभावसे अपने आश्रयमें आये हुए सर्वगुणसम्पन्न लोकोंको कृपादृष्टिसे देखकर उनकी रक्षा करती हैं; अतः जो ब्रह्मलोकको प्राप्त करनेकी इच्छा रखते हैं उन्हें अपने मनको वशमें करके सदा मातृभावसे गंगाजीकी उपासना करनी चाहिये ।। ९४ ।।

जो अमृतमय दूध देनेवाली, गौके समान सबको पुष्ट करनेवाली, सब कुछ देखनेवाली, सम्पूर्ण जगत्‌के उपयोगमें आनेवाली, अन्न देनेवाली तथा पर्वतोंको धारण करनेवाली हैं, श्रेष्ठ पुरुष जिनका आश्रय लेते हैं और जिन्हें ब्रह्माजी भी प्राप्त करना चाहते हैं; तथा जो अमृतस्वरूप हैं, उन भगवती गंगाजीका सिद्धिकामी जितात्मा पुरुषोंको अवश्य आश्रय लेना चाहिये || ९५ ।।

राजा भगीरथ अपनी उग्र तपस्यासे भगवान्‌ शंकरसहित सम्पूर्ण देवताओंको प्रसन्न करके गंगाजीको इस पृथ्वीपर ले आये। उनकी शरणमें जानेसे मनुष्यको इहलोक और परलोकमें भय नहीं रहता ।। ९६ ।।

ब्रह्मन्‌! मैंने अपनी बुद्धिसे सर्वथा विचारकर यहाँ गंगाजीके गुणोंका एक अंशमात्र बताया है। मुझमें कोई इतनी शक्ति नहीं है कि मैं यहाँ उनके सम्पूर्ण गुणोंका वर्णन कर सकूँ ।। ९७ ।।

कदाचित्‌ सब प्रकारके यत्न करनेसे मेरु गिरिके प्रस्तरकणों और समुद्रके जलविन्दुओंकी गणना की जा सके; परंतु यहाँ गंगाजलके गुणोंका वर्णन तथा गणना करना कदापि सम्भव नहीं है ।। ९८ ।।

अतः मैंने बड़ी श्रद्धाके साथ जो ये गंगाजीके गुण बताये हैं, उन सबपर विश्वास करके मन, वाणी, क्रिया, भक्ति और श्रद्धाके साथ आप सदा ही उनकी आराधना करें ।। ९९ 

इससे आप परम दुर्लभ उत्तम सिद्धि प्राप्त करके इन तीनों लोकोंमें अपने यशका विस्तार करते हुए शीघ्र ही गंगाजीकी सेवासे प्राप्त हुए अभीष्ट लोकोंमें इच्छानुसार विचरेंगे || १०० ।।

महान्‌ प्रभावशाली भगवती भागीरथी आपकी और मेरी बुद्धिको सदा स्वधर्मानुकूल गुणोंसे युक्त करें। श्रीगंगाजी बड़ी भक्तवत्सला हैं। वे संसारमें अपने भक्तोंको सुखी बनाती हैं ।। १०१ ।।

भीष्मजी कहते हैं-युधिष्ठि!र! वह उत्तम बुद्धिवाला परम तेजस्वी सिद्ध शिलोख्छतवृत्तिद्वारा जीविका चलानेवाले उस ब्राह्मणसे त्रिपथगा गंगाजीके उपर्युक्त सभी यथार्थ गुणोंका नाना प्रकारसे वर्णन करके आकाशगमें प्रविष्ट हो गया || १०२ ।।

वह शिलोज्छतवृत्तिवाला ब्राह्मण सिद्धके उपदेशसे गंगाजीके माहात्म्यको जानकर उनकी विधिवत्‌ उपासना करके परम दुर्लभ सिद्धिको प्राप्त हुआ ।। १०३ ||

कुन्तीनन्दन! इसी प्रकार तुम भी पराभक्तिके साथ सदा गंगाजीकी उपासना करो। इससे तुम्हें उत्तम सिद्धि प्राप्त होगी || १०४ ।

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! भीष्मजीके द्वारा कहे हुए श्रीगंगाजीकी स्तुतिसे युक्त इस इतिहासको सुनकर भाइयोंसहित राजा युधिष्ठिरको बड़ी प्रसन्नता हुई || १०५ ।।

जो गड्ाजीके स्तवनसे युक्त इस पवित्र इतिहासका श्रवण अथवा पाठ करेगा वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जायगा || १०६ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गंगाजीके माहात्म्यका वर्णनविषयक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल १०७ श्लोक हैं)


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