सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
इक्कीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) इक्कीसवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“अष्टावक्र और उत्तरदिशाका संवाद, अष्टावक्रका अपने घर लौटकर वदान्य ऋषिकी कन्याके साथ विवाह करना”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! वह स्त्री उन महातेजस्वी ऋषिके शापसे डरती कैसे नहीं थी; और वे भगवान् अष्टावक्र किस तरह वहाँसे लौटे थे? यह सब मुझे बताइये ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! सुनो, अष्टावक्रने उस स्त्रीसे पूछा, “(तुम अपना रूप बदलती क्यों रहती हो? बताओ, यदि मुझ-जैसे ब्राह्मणसे सम्मान पानेकी इच्छा हो तो झूठ न बोलना' || २ ||
स्त्री बोली--ब्राह्मणशिरोमणे! स्वर्गलोक हो या मर्त्यलोक, जिस किसी भी स्थानमें स्त्री और पुरुष निवास करते हैं, वहाँ उनमें परस्पर संयोगकी यह कामना सदा बनी रहती है। सत्यपराक्रमी विप्र! यह सब जो रूपपरिवर्तनकी लीला की गयी है, उसका कारण बताती हूँ, सावधान होकर सुनिये ।। ३ ।।
निर्दोष ब्राह्मण! आपको दृढ़ करनेके लिये आपकी परीक्षा लेनेके उद्देश्यसे ही मैंने यह कार्य किया है। सत्यपराक्रमी द्विज! आपने अपने धर्मसे विचलित न होकर समस्त पुण्यलोकोंको जीत लिया है ।। ४ ।।
आप मुझे उत्तरदिशा समझें। स्त्रीमें कितनी चपलता होती है--यह आपने प्रत्यक्ष देखा है। बूढ़ी स्त्रियोंको भी मैथुनके लिये होनेवाला कामजनित संताप कष्ट देता रहता है || ५ ।।
जो कहीं भी विश्वास न करनेके कारण किसी व्यसनमें नहीं फँसता, कहीं भी अधिक आसक्त नहीं होता, परदेशमें नहीं रहता तथा जो विद्वान् और सुशील है, वही पुरुष स्त्रीके साथ रहकर सुख भोगता है ।।
आज आपके ऊपर ब्रह्माजी तथा इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता संतुष्ट हैं। भगवन् द्विजश्रेष्ठ! आप यहाँ जिस कार्यसे आये हैं, वह सफल हो गया। उस कन्याके पिता वदान्य ऋषिने मेरे पास आपको उपदेश देनेके लिये भेजा था। वह सब मैंने कर दिया ।। ६-७ ।।
विप्रवर! अब आप कुशलपूर्वक अपने घरको जायँगे और मार्गमें आपको कोई श्रम अथवा कष्ट नहीं होगा। उस मनोनीत कन्याको आप प्राप्त कर लेंगे और आपके द्वारा वह पुत्रवती भी होगी ही || ८ ।।
आपने जाननेकी इच्छासे मुझसे यह बात पूछी थी, इसलिये मैंने अच्छे ढंगसे सब कुछ बता दिया। तीनों लोकोंके सम्पूर्ण निवासियोंके लिये भी ब्राह्मणकी आज्ञा कदापि उल्लंघनीय नहीं होती ।। ९ ।।
ब्रह्मर्षि अष्टावक्र! आप पुण्यका उपार्जन करके जाइये। और क्या सुनना चाहते हैं? कहिये, मैं वह सब कुछ यथार्थरूपसे बताऊँगी ।। १० ।।
द्विजश्रेष्ठ! वदान्य मुनिने आपके लिये मुझे प्रसन्न किया था; अतः उनके सम्मानके लिये ही मैंने ये सारी बातें कही हैं ।। ११ ।।
भीष्मजी कहते हैं--भारत! उस स्त्रीकी बात सुनकर विप्रवर अष्टावक्र उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये। फिर उसकी आज्ञा ले पुन: अपने घरको लौट आये ।। १२ ।।
कुरुनन्दन! घर आकर उन्होंने विश्राम किया और स्वजनोंसे पूछकर वे न्यायानुसार फिर ब्राह्मण वदान्यके घर गये ।। १३ ।।
ब्राह्मणने उनकी यात्राके विषयमें पूछा, तब उन्होंने प्रसन्नचित्तसे जो कुछ वहाँ देखा था, सब बताना आरम्भ किया-- || १४ ||
“महर्षे! आपकी आज्ञा पाकर मैं उत्तर दिशामें गन्ध-मादनपर्वतकी ओर चल दिया। उससे भी उत्तर जानेपर मुझे एक महती देवीका दर्शन हुआ। उसने मेरी परीक्षा ली और आपका भी परिचय दिया। प्रभो! फिर उसने अपनी बात सुनायी और उसकी आज्ञा लेकर मैं अपने घर आ गया” ।।
तब ब्राह्मण वदान्यने कहा--“आप उत्तम नक्षत्रमें विधिपूर्वक मेरी पुत्रीका पाणिग्रहण कीजिये; क्योंकि आप अत्यन्त सुयोग्य पात्र हैं' || १७ ।।
भीष्मजी कहते हैं--प्रभो! तदनन्तर “तथास्तु' कहकर परम धर्मात्मा अष्टावक्रने उस कन्याका पाणिग्रहण किया। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई || १८ ।।
उस परम सुन्दरी कन्याका पत्नीरूपमें दान पाकर अष्टावक्र मुनिकी सारी चिन्ता दूर हो गयी और वे अपने आश्रममें उसके साथ आनन्दपूर्वक रहने लगे ।। १९ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें अष्टावक्र और उत्तरदिशाका संवादविषयक इकक््कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। २१ ॥।
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २० श्लोक हैं)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
बाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) बाईसवें अध्याय के श्लोक 1-87 का हिन्दी अनुवाद):
“युधिष्ठटिरके विविध धर्मयुक्त प्रश्नोंका उत्तर तथा श्राद्ध और दानके उत्तम पात्रोंका लक्षण”
युधिष्ठटिरने पूछा--नरेश्वर! महाराज! पुत्रोंद्वारा पुरुषका कैसे उद्धार होता है? जबतक पुत्रकी प्राप्तिन हो तबतक पुरुषका जीवन निष्फल क्यों माना जाता है? ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! इस विषयमें इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है। पूर्वकालमें मार्कण्डेयके पूछनेपर देवर्षि नारदने जो उपदेश दिया था, उसीका इस इतिहासमें उल्लेख हुआ है ।।
पहलेकी बात है, गंगा-यमुनाके मध्यभागमें जहाँ भोगवतीका समागम हुआ है वहीं पर्वत, नारद, असित, देवल, आरुणेय और रैभ्य--ये ऋषि एकत्र हुए थे। इन सब ऋषियोंको वहाँ पहलेसे विराजमान देख मार्कण्डेयजी भी गये ।।
ऋषियोंने जब मुनिको आते देखा, तब वे सब-के-सब उठकर उनकी ओर मुख करके खड़े हो गये और उन ब्रह्मर्षिकी उनके योग्य पूजा करके सबने पूछा--“हम आपकी क्या सेवा करें?” ।।
मार्कण्डेयजीने कहा--मैंने बड़े यत्नसे सत्पुरुषोंका यह संग प्राप्त किया है। मुझे आशा है, यहाँ धर्म और आचारका निर्णय प्राप्त होगा ।।
सत्ययुगमें धर्मका अनुष्ठान सरल होता है। उस युगके समाप्त हो जानेपर धर्मका स्वरूप मनुष्योंके मोहसे आच्छन्न हो जाता है; अतः प्रत्येक युगके धर्मका क्या स्वरूप है? इसे मैं आप सब महर्षियोंसे जानना चाहता हूँ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन! तब सब ऋषियोंने मिलकर नारदजीसे कहा--“तत्त्वज्ञ देवर्षे! मार्कण्डेयजीको जिस विषयमें संदेह है उसका आप निरूपण कीजिये। क्योंकि धर्म और अधर्मके विषयमें होनेवाले समस्त संशयोंका निवारण करनेमें आप समर्थ हैं” ।।
ऋषियोंकी यह अनुमति और आदेश पाकर नारदजीने सम्पूर्ण धर्म और अर्थके तत्त्वको जाननेवाले मार्कण्डेयजीसे पूछा ।।
नारदजी बोले--तपस्यासे प्रकाशित होनेवाले दीर्घायु मार्कण्डेयजी! आप तो स्वयं ही वेदों और वेदांगोंके तत्त्वको जाननेवाले हैं, तथापि ब्रह्मन! जहाँ आपको संशय उत्पन्न हुआ हो वह विषय उपस्थित कीजिये ।।
महातपस्वी महर्षे! धर्म, लोकोपकार अथवा और जिस किसी विषयमें आप सुनना चाहते हों उसे कहिये। मैं उस विषयका निरूपण करूँगा ।।
मार्कण्डेयजी बोले--प्रत्येक युगके बीत जानेपर धर्मकी मर्यादा नष्ट हो जाती है। फिर धर्मके बहानेसे अधर्म करनेपर मैं उस धर्मका फल कैसे प्राप्त कर सकता हूँ? मेरे मनमें यही प्रश्न उठता है ।।
नारदजीने कहा--विप्रवर! पहले सत्ययुगमें धर्म अपने चारों पैरोंसे युक्त होकर सबके द्वारा पालित होता था। तदनन्तर समयानुसार अधर्मकी प्रवृत्ति हुई और उसने अपना सिर कुछ ऊँचा किया ।।
तदनन्तर धर्मको अंशतः दूषित करनेवाले त्रेतानामक दूसरे युगकी प्रवृत्ति हुई। जब वह भी बीत गया तब तीसरे युग द्वापरका पदार्पण हुआ। उस समय धर्मके दो पैरोंको अधर्म नष्ट कर देता है ।।
द्वापरके नष्ट होनेपर जब नन्दिक (कलियुग) उपस्थित होता है उस समय लोकाचार और धर्मका जैसा स्वरूप रह जाता है, उसे बताता हूँ, सुनिये ।।
चौथे युगका नाम है नन्दिक। उस समय धर्मका एक ही पाद (अंश) शेष रह जाता है। तभीसे मन्दबुद्धि और अल्पायु मनुष्य उत्पन्न होने लगते हैं। लोकमें उनकी प्राणशक्ति बहुत कम हो जाती है। वे निर्धन तथा धर्म और सदाचारसे बहिष्कृत होते हैं ।।
मार्कण्डेयजीने पूछा--जब इस प्रकार धर्मका लोप होकर जगत्में अधर्म छा जाता है तब चारों वर्णोके लिये नियत हव्य और कव्यका नाश क्यों नहीं हो जाता है? ।।
नारदजीने कहा--वेदमन्त्रसे सदा पवित्र होनेके कारण हव्य और कव्य नहीं नष्ट होते हैं। यदि दाता न्यायपूर्वक उनका दान करते हैं तो देवता और पितर उन्हें सादर ग्रहण करते हैं।।
जो दाता सात्विक भावसे युक्त होता है, वह इस लोकमें सम्पूर्ण मनोवाञ्छित कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। यहाँ आप्तकाम होकर वह स्वर्गमें भी अपनी इच्छाके अनुसार सम्मानित होता है ।।
मार्कण्डेयजीने पूछा--यहाँ जो चार वर्णके लोग हैं, उनके द्वारा यदि मन्त्ररहित और अवहेलना-पूर्वक हव्य-कव्यका दान दिया जाय तो उनका वह दान कहाँ जाता है? ।।
नारदजीने कहा--यदि ब्राह्मणोंने वैसा दान किया है तो वह असुरोंको प्राप्त होता है, क्षत्रियोंने किया है तो उसे राक्षस ले जाते हैं, वैश्योंद्वारा किये गये वैसे दानको प्रेत ग्रहण करते हैं और शूद्रोंद्वारा किया गया अवज्ञापूर्वक दान भूतोंको प्राप्त होता है ।।
मार्कण्डेयजीने पूछा--जो नीच वर्णमें उत्पन्न होकर चारों वर्णोको उपदेश देते और हव्य-कव्यका दान देते हैं, उनका दिया हुआ दान कहाँ जाता है? ।।
नारदजीने कहा--जब नीच वर्णके लोग हव्य-कव्यका दान करते हैं, तब उनके उस दानको न देवता ग्रहण करते हैं न पितर ।।
जो यातुधान, पिशाच, भूत और राक्षस हैं, उन्हींके लिये उस वृत्तिका विधान किया गया है। पितरों और देवताओंने वैसी वृत्तिका परित्याग कर दिया है ।।
जो सब कुछ देनेवाले और उस कर्मके अधिकारी हैं, वे एकाग्रचित्त होकर विधिपूर्वक जो हव्य और कव्य समर्पित करते हैं, उसे देवता और पितर ग्रहण करते हैं ।।
मार्कण्डेयजीने पूछा--नारदजी! नीच वर्णके दिये हुए हव्य और कव्योंकी जो दशा होती है, उसे मैंने सुन ली। अब पुत्रों और कन्याओंके विषयमें एवं इनके संयोगके विषयमें मुझे कुछ बातें बताइये ।।
नारदजीने कहा--अब मैं कन्या-विवाहके और पुत्रोंके विषयमें एवं स्त्रियोंके संयोगके विषयमें क्रमश: बता रहा हूँ, उसे सुनो ।।
जो कन्या उत्पन्न हो जाती है, उसे किसी योग्य वरको सौंप देना आवश्यक होता है। यदि ठीक समयपर कन्याओंका दान हो गया तो पिता धर्मफलका भागी होता है ।।
जो भाई-बन्धु रजस्वलावस्थामें पहुँच जानेपर भी कनन््याका किसी योग्य वरके साथ विवाह नहीं कर देता, वह उसके एक-एक मास बीतनेपर भ्रूणहत्याके फलका भागी होता है ।।
जो भाई-बन्धु कन्याको विषय-भोगोंसे वंचित करके घरमें रोके रखता है, वह उस कनन््याके द्वारा अनिष्ट चिन्तन किये जानेके कारण भ्रूणहत्याके पापका भागी होता है ।।
मार्कण्डेयजीने पूछा--महामुने! किस कारणसे कन्याओंको मांगलिक कर्मामें नियुक्त किया जाता है? मैं इस बातको यथार्थरूपसे जानना चाहता हूँ ।।
नारदजीने कहा--कन्याओंमें सदा लक्ष्मी निवास करती हैं। वे उनमें नित्य प्रतिष्ठित होती हैं; इसलिये प्रत्येक कन्या शोभासम्पन्न, शुभ कर्मके योग्य तथा मंगल कर्मोमें पूजनीय होती है ।।
जैसे खानमें स्थित हुआ रत्न सम्पूर्ण कामनाओं एवं फलोंकी प्राप्ति करानेवाला होता है, उसी प्रकार महालक्ष्मीस्वरूपा कन्या सम्पूर्ण जगत्के लिये मंगल-कारिणी होती है ।।
इस तरह कन्याको लक्ष्मीका सर्वोत्कृष्ट रूप जानना चाहिये। उससे देहधारियोंको सुख और संतोषकी प्राप्ति होती है। वह अपने सदाचारके द्वारा उच्च कुलोंके चरित्रकी कसौटी समझी जाती है ।।
जो मनुष्य अपने ही वर्णकी कन्याको विवाहके द्वारा लाकर उसे पत्नीके स्थानपर प्रतिष्ठित करता है, उसकी वह साध्वी पत्नी हव्य-कव्य प्रदान करनेवाले पुत्रको जन्म देती है।।
साध्वी स्त्री कुलकी वृद्धि करती है। साध्वी स्त्री घरमें परम पुष्टिरूप है तथा साध्वी स्त्री घरकी लक्ष्मी है, रति है, मूर्तिमती प्रतिष्ठा है तथा संतान-परम्पराकी आधार है ।।
मार्कण्डेयजीने पूछा--भगवन्! मनुष्योंके शरीरमें कौन-कौन-से तीर्थ हैं? मैं यह जानना चाहता हूँ। अतः आप यथार्थरूपसे मुझे बताइये ।।
नारदजीने कहा--मनीषी पुरुष कहते हैं, मनुष्योंके हाथमें ही पाँच तीर्थ हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं--देवतीर्थ, ऋषितीर्थ, पितृतीर्थ, ब्राह्मतीर्थ और वैष्णवतीर्थ। (अंगुलियोंके अग्रभागमें देवतीर्थ है। कनिष्ठा और अनामिका अंगुलिके मूलभागमें आर्षतीर्थ है। इसीको कायतीर्थ और प्राजापत्यतीर्थ भी कहते हैं। अंगुष्ठ और तर्जनीके मध्यभागमें पितृतीर्थ है। अंगुष्ठके मूलभागमें ब्राह्मतीर्थ है और हथेलीके मध्यभागमें वैष्णवतीर्थ है।) ।।
हाथमें जो वैष्णवतीर्थका भाग है, उसे सब तीर्थोमें प्रधान कहा जाता है। जहाँ जल रखकर आचमन करनेसे चारों वर्णोके कुलकी वृद्धि होती है, तथा देवता और पितरोंके कार्यकी इहलोक और परलोकमें वृद्धि होती है ।।
मार्कण्डेयजीने पूछा--जो धर्मके अधिकारी हैं, ऐसे मनुष्योंका मन कभी-कभी धर्मके विषयमें संशयापन्न हो जाता है। क्या करनेसे उनके धर्माचरणमें विघ्न न पड़े? यह मैं जानना चाहता हूँ ।।
नारदजीने कहा--धन और नारी दोनोंकी अवस्था एक-सी है। दोनों ही मनुष्योंको कल्याणके पथपर जानेमें बाधा देते हैं--उन्हें मोहित कर लेते हैं। रतिजनित आमोदप्रमोदसे स्त्रियाँ मनको हर लेती हैं और धन भोगोंके द्वारा धर्मको चौपट कर देता है ।।
धर्मात्मा श्रोत्रिय ब्राह्मण समस्त हव्य और कव्यको पानेका अधिकारी है। श्रेष्ठ श्रोत्रियको दिया हुआ हव्य-कव्य प्रज्वलित अग्निमें डाली हुई आहुतिके समान सफल होता है।।
भीष्मजी कहते हैं-इस प्रकार ऋषियोंके साथ बात-चीत करके महातपस्वी मार्कण्डेयने नारदजीका सत्कार किया और स्वयं भी वे उनके द्वारा सम्मानित हुए ।।
तत्पश्चात् ऋषियोंसे विदा लेकर मार्कण्डेय मुनि अपने आश्रमको चले गये तथा वे ऋषि भी तीर्थोमें भ्रमण करने लगे ।।
[दाक्षिणात्य अध्याय समाप्त]
युधिष्ठिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ! प्राचीन ब्राह्मण किसको दानका श्रेष्ठ पात्र बताते हैं? दण्ड-कमण्डलु आदि चिह्न धारण करनेवाले ब्रह्मचारी ब्राह्मणको अथवा चिह्नरहित गृहस्थ ब्राह्मगको? ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--महाराज! जीवन-रक्षाके लिये अपनी वर्णाश्रमोचित वृत्तिका आश्रय लेनेवाले चिह्नधारी या चिह्लरहित किसी भी ब्राह्मणको दान दिया जाना उचित बताया गया है; क्योंकि स्वधर्मका आश्रय लेनेवाले ये दोनों ही तपस्वी एवं दानपात्र हैं ।। २ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! जो केवल उत्कृष्ट श्रद्धासे ही पवित्र होकर ब्राह्मणको हव्य-कव्य तथा अन्य वस्तुका दान देता है, उसे अन्य प्रकारकी पवित्रता न होनेके कारण किस दोषकी प्राप्ति होती है? ।। ३ ।।
भीष्मजीने कहा--तात! मनुष्य जितेन्द्रिय न होनेपर भी केवल श्रद्धामात्रसे पवित्र हो जाता है--इसमें संशय नहीं है। महातेजस्वी नरेश! श्रद्धापूत मनुष्य सर्वत्र पवित्र होता है, फिर तुम-जैसे धर्मात्माके पवित्र होनेमें तो संदेह ही क्या है? ।। ४ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! विद्वानोंका कहना है कि देवकार्यमें कभी ब्राह्मणकी परीक्षा न करे, किंतु श्राद्धमें अवश्य उसकी परीक्षा करे; इसका क्या कारण है? ।। ५
भीष्मजीने कहा--बेटा! यज्ञ-होम आदि देवकार्यकी सिद्धि ब्राह्मणके अधीन नहीं है, वह दैवसे सिद्ध होता है। देवताओंकी कृपासे ही यजमान यज्ञ करते हैं। इसमें संशय नहीं है।। ६ |।
भरतश्रेष्ठ! बुद्धिमान मार्कण्डेयजीने बहुत पहलेसे ही यह बता रखा है कि श्राद्धमें सदा वेदवेत्ता ब्राह्मणोंको ही निमन्त्रित करना चाहिये (क्योंकि उसकी सिद्धि सुपात्र ब्राह्मणके ही अधीन है) ।। ७ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--जो अपरिचित, विद्वान, सम्बन्धी, तपस्वी अथवा यज्ञशील हों, इनमेंसे कौन किस प्रकारके गुणोंसे सम्पन्न होनेपर श्राद्ध एवं दानका उत्तम पात्र हो सकता है? ।। ८ ।।
भीष्मजीने कहा--कुलीन, कर्मठ, वेदोंके विद्वान, दयालु, सलज्ज, सरल और सत्यवादी--इन सात प्रकारके गुणवाले जो पूर्वोक्त तीन (अपरिचित विद्वान, सम्बन्धी और तपस्वी) ब्राह्मण हैं, वे उत्तम पात्र माने गये हैं ।। ९ ।।
कुन्तीनन्दन! इस विषयमें तुम मुझसे पृथ्वी, काश्यप, अग्नि और मार्कण्डेय--इन चार तेजस्वी व्यक्तियोंका मत सुनो ।। १० ।।
पृथ्वी कहती है--जिस प्रकार महासागरमें फेंका हुआ ढेला तुरंत गलकर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह--इन तीन वृत्तियोंसे जीविका चलानेवाले ब्राह्मणमें सारे दुष्कर्मोका लय हो जाता है ।। ११ ।।
काश्यप कहते हैं--नरेश्वर! जो ब्राह्मण शीलसे रहित हैं, उसे छहों अंगोंसहित वेद, सांख्य और पुराणका ज्ञान तथा उत्तम कुलमें जन्म--ये सब मिलकर भी उत्तम गति नहीं प्रदान कर सकते ।। १२ ।।
अग्नि कहते हैं--जो ब्राह्मण अध्ययन करके अपनेको बहुत बड़ा पण्डित मानता और अपनी दिद्वत्तापर गर्व करने लगता है तथा जो अपनी विद्याके बलसे दूसरोंके यशका नाश करता है, वह धर्मसे भ्रष्ट होकर सत्यका पालन नहीं करता; अतः उसे नाशवान् लोकोंकी प्राप्ति होती है ।। १३ ।।
मार्कण्डेयजी कहते हैं--यदि तराजूके एक पलड़ेमें एक हजार अश्वमेध-यज्ञको और दूसरेमें सत्यको रखकर तौला जाय तो भी न जाने वे सारे अश्वमेध-यज्ञ इस सत्यके आधेके बराबर भी होंगे या नहीं? ।। १४ ।।
भीष्मजी कहते हैं-युधिष्ठि!! इस प्रकार अपना मत प्रकट करके वे चारों अमिततेजस्वी व्यक्ति--पृथ्वी, काश्यप, अग्नि और मार्कण्डेय शीघ्र ही चले गये || १५ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! यदि ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण श्राद्धमें हविष्यान्नका भोजन करते हैं तो श्रेष्ठ ब्राह्यणकी कामनासे उन्हें दिया हुआ दान कैसे सफल हो सकता है? ।। १६ ।।
भीष्मजीने कहा--राजेन्द्र! (जिन्हें गुरुने नियत वर्षोंतक ब्रह्मचर्य-व्रत पालन करनेका आदेश दे रखा है वे आदिष्टी कहलाते हैं।) ऐसे वेदके पारड़त आदिष्टी ब्राह्मण यदि यजमानकी ब्राह्मणको दान देनेकी इच्छापूर्तिके लिये श्राद्धमें भोजन करते हैं तो उनका अपना ही व्रत नष्ट हो जाता है (इससे दाताका दान दूषित नहीं होता है)- || १७ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! विद्वानोंका कहना है कि धर्मके साधन और फल अनेक प्रकारके हैं। पात्रके कौन-से गुण उसकी दानपात्रतामें कारण होते हैं? यह मुझे बताइये ।। १८ ।।
भीष्मजीने कहा--राजेन्द्र! अहिंसा, सत्य, अक्रोध, कोमलता, इन्द्रियसंयम और सरलता--ये धर्मके निश्चित लक्षण हैं ।। १९ ।।
प्रभो! जो लोग इस पृथ्वीपर धर्मकी प्रशंसा करते हुए घूमते-फिरते हैं; परंतु स्वयं उस धर्मका आचरण नहीं करते, वे ढोंगी हैं और धर्मसंकरता फैलानेमें लगे हैं || २० ।।
ऐसे लोगोंको जो सुवर्ण, रत्न, गौ अथवा अश्व आदि वस्तुओंका दान करता है वह नरकमें पड़कर दस वर्षोतक विष्ठा खाता है || २१ ।।
जो उच्चवर्णके लोग राग और मोहके वशीभूत हो अपने किये अथवा बिना किये शुभ कर्मका जनसमुदायमें वर्णन करते हैं वे मेद, पुल्कस तथा अन्त्यजोंके तुल्य माने जाते हैं ।। २२ ।।
राजेन्द्र! जो मूढ़ मानव ब्रह्मचारी ब्राह्मणको बलि-वैश्वदेवसम्बन्धी अन्न (अतिथियोंको देनेयोग्य हन्तकार) नहीं देते हैं, वे अशुभ लोकोंका उपभोग करते हैं || २३ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! उत्तम ब्रह्मचर्य क्या है? धर्मका सबसे श्रेष्ठ लक्षण क्या है? तथा सर्वोत्तम पवित्रता किसे कहते हैं? यह मुझे बताइये ।। २४ ।।
भीष्मजीने कहा--तात! मांस और मदिराका त्याग ब्रह्मचर्यसे भी श्रेष्ठ है--वही उत्तम ब्रह्मचर्य है। वेदोक्त मर्यादामें स्थित रहना सबसे श्रेष्ठ धर्म है तथा मन और इन्द्रियोंको संयममें रखना ही सर्वोत्तम पवित्रता है || २५ ।।
युधिष्ठिने पूछा-पितामह! मनुष्य किस समय धर्मका आचरण करे? कब अर्थोपार्जनमें लगे तथा किस समय सुखभोगमें प्रवृत्त हो? यह मुझे बताइये ।।
भीष्मजीने कहा--राजन! पूर्वाह्नमें धनका उपार्जन करे, तदनन्तर धर्मका और उसके बाद कामका सेवन करे; परंतु काममें आसक्त न हो || २७ ।।
ब्राह्मणोंका सम्मान करे। गुरुजनोंकी सेवा-पूजामें संलग्न रहे। सब प्राणियोंके अनुकूल रहे। नम्रताका बर्ताव करे और सबसे मीठे वचन बोले || २८ ।।
न्यायका अधिकार पाकर झूठा फैसला देना अथवा न्यायालयमें जाकर झूठ बोलना, राजाओंके पास किसीकी चुगली करना और गुरुके साथ कपटपूर्ण बर्ताव करना--ये तीन ब्रह्महत्याके समान पाप हैं || २९ |।
राजाओं पर प्रहार न करे और गायको न मारे। जो राजा और गौपर प्रहाररूप द्विविध दुष्कर्मका सेवन करता है, उसे भ्रूणहत्याके समान पाप लगता है ।। ३० ।।
अग्निहोत्रका कभी त्याग न करे। वेदोंका स्वाध्याय न छोड़े तथा ब्राह्मणकी निन्दा न करे; क्योंकि ये तीनों दोष ब्रह्महत्याके समान हैं ।। ३१ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! कैसे ब्राह्मणोंको श्रेष्ठ समझना चाहिये? किनको दिया हुआ दान महान् फल देनेवाला होता है? तथा कैसे ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये? यह मुझे बताइये ।। ३२ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! जो क्रोधरहित, धर्मपरायण, सत्यनिष्ठ और इन्द्रियसंयममें तत्पर हैं, ऐसे ब्राह्मणोंको श्रेष्ठ समझना चाहिये और उन्हींको दान देनेसे महान् फलकी प्राप्ति होती है (अतः उन्हींको श्राद्धमें भोजन कराना चाहिये) ।। ३३ ॥।
जिनमें अभिमानका नाम नहीं है, जो सब कुछ सह लेते हैं, जिनका विचार दृढ़ है, जो जितेन्द्रिय, सम्पूर्ण प्राणियोंक हितकारी तथा सबके प्रति मैत्रीभाव रखनेवाले हैं, उनको दिया हुआ दान महान् फल देनेवाला है ।।
जो निर्लोभ, पवित्र, विद्वान, संकोची, सत्यवादी और अपने कर्तव्यका पालन करनेवाले हैं, उनको दिया हुआ दान भी महान् फलदायक होता है ।। ३५ ।।
जो श्रेष्ठ ब्राह्मण अंगोंसहित चारों वेदोंका अध्ययन करता और ब्राह्मणोचित छ: कर्मों (अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन और दान-प्रतिग्रह) में प्रवृत्त रहता है, उसे ऋषिलोग दानका उत्तम पात्र समझते हैं || ३६ ।।
जो ब्राह्मण ऊपर बताये हुए गुणोंसे युक्त होते हैं, उन्हें दिया हुआ दान महान् फल देनेवाला है। गुणवान् एवं सुयोग्य पात्रको दान देनेवाला दाता सहसख्रगुना फल पाता है ।।
यदि उत्तम बुद्धि, शास्त्रकी विद्वत्ता, सदाचार और सुशीलता आदि उत्तम गुणोंसे सम्पन्न एक श्रेष्ठ ब्राह्मण भी दान स्वीकार कर ले तो वह दाताके सम्पूर्ण कुलका उद्धार कर देता है ।। ३८ ।।
अतः ऐसे गुणवान् पुरुषको ही गाय, घोड़ा, अन्न, धन तथा दूसरे पदार्थ देने चाहिये। ऐसा करनेसे दाताको मरनेके बाद पश्चात्ताप नहीं करना पड़ता ।। ३९ |।
एक भी उत्तम ब्राह्मण श्राद्धकर्ताके समस्त कुलको तार सकता है। यदि उपर्युक्त बहुतसे ब्राह्मण तार दें इसमें तो कहना ही क्या है। अतः सुपात्रकी खोज करनी चाहिये। उससे तृप्त होनेपर सम्पूर्ण देवता, पितर और ऋषि भी तृप्त हो जाते हैं || ४० ।।
सत्पुरुषोंद्वारा सम्मानित गुणवान् ब्राह्मण यदि कहीं दूर भी सुनायी पड़े तो उसको वहाँसे अपने यहाँ बुलाकर उसका हर प्रकारसे पूजन और सत्कार करना चाहिये ।।
(इस प्रकार श्रीमह्याभारत अनुशासनपरव्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें बहुत-से प्रश्नोंका निर्णयविषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४६ श्लोक मिलाकर कुल ८७ श्लोक हैं)
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- श्राद्धमें भोजन करने योग्य ब्राह्मणोंके विषयमें स्मृतियोंमें इस प्रकार उल्लेख मिलता है--कर्मनिष्ठास्तपोनिष्ठा: पजञ्चाग्निब्रह्मचारिण: । पितृमातृपराश्रैव ब्राह्मणा: श्राद्धसम्पद: ।। तथा--'व्रतस्थमपि दौद्ित्र श्राद्धे यत्नेन भोजयेत् ।' तात्पर्य यह है कि क्रियानिष्ठ, तपस्वी, पञ्चाग्निका सेवन करनेवाले, ब्रह्मचारी तथा पिता-माताके भक्त--े पाँच प्रकारके ब्राह्मण श्राद्धकी सम्पत्ति हैं। इन्हें भोजन करानेसे श्राद्धकर्मका पूर्णतया सम्पादन होता है।” तथा “अपनी कन्याका बेटा ब्रह्मचारी हो तो भी यत्नपूर्वक उसे श्राद्धमें भोजन कराना चाहिये।” ऐसा करनेसे श्राद्धकर्ता पुण्यका भागी होता है। केवल श्राद्धमें ही ऐसी छूट दी गयी है। श्राद्धके अतिरिक्त और किसी कर्ममें ब्रह्मचारीको लोभ आदि दिखाकर जो उसके व्रतको भंग करता है, उसे दोषका भागी होना पड़ता है और अपने किये हुए दानका भी पूरा-पूरा फल नहीं मिलता। इसीलिये शास्त्रमें लिखा है कि “मनसा पात्रमुद्दिश्य जलमध्ये जल क्षिपेत् । दाता तत्फलमाप्रोति प्रतिग्राही न दोषभाक् ॥। अर्थात् “यदि किसी सुपात्र (ब्रह्मचारी आदि)-को दान देना हो तो उसका मनमें ध्यान करे और उसे दान देनेके उद्देश्यसे हाथमें संकल्पका जल लेकर उसे जलहीमें छोड़ दे। इससे दाताको दानका फल मिल जाता है और दान लेनेवालेको दोषका भागी नहीं होना पड़ता।” यह बात सत्पात्रका आदर करनेके लिये बतायी गयी है। (नीलकण्ठी)
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