सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के उन्नीसवाँ अध्याय व बीसवाँ अध्याय (From the 19 chapter and the 20 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

उन्नीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  उन्नीसवें अध्याय के श्लोक 1-104 का हिन्दी अनुवाद)

“अष्टावक्र मुनिका वदान्य ऋषिके कहनेसे उत्तर दिशाकी ओर प्रस्थान, मार्गमें कुबेरके द्वारा उनका स्वागत तथा स्त्रीरूपधारिणी उत्तरदिशाके साथ उनका संवाद”

युधिष्ठिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ! जो यह स्त्रियोंक लिये विवाहकालमें सहधर्मकी बात कही जाती है, वह किस प्रकार बतायी गयी है? ।। १ ।।

महर्षियोंने पूर्वकालमें जो यह स्त्री-पुरुषोंके सहधर्मकी बात कही है, यह आर्ष धर्म है या प्राजापत्य धर्म; अथवा आसुर धर्म है? ।। २ ।।

मेरे मनमें यह महान्‌ संदेह पैदा हो गया है। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि यह सहधर्मका कथन विरुद्ध है। यहाँ जो सहधर्म है, वह मृत्युके पश्चात्‌ कहाँ रहता है? ।।

पितामह! जबकि मरे हुए मनुष्योंका स्वर्गवास हो जाता है एवं पति और पत्नीमेंसे एककी पहले मृत्यु हो जाती है, तब एक व्यक्तिमें सहधर्म कहाँ रहता है? यह बताइये ।। ४ ।।

जब बहुत-से मनुष्य नाना प्रकारके धर्मफलसे संयुक्त होते हैं, नाना प्रकारके कर्मवश विभिन्न स्थानोंमें निवास करते हैं और शुभाशुभ कर्मोके फल-स्वरूप स्वर्ग-नरक आदि नाना अवस्थाओंमें पड़ते हैं, तब वे सहधर्मका निर्वाह किस प्रकार कर सकते हैं? ।। ५ ।।

धर्मसूत्रकार यह निश्चितरूपसे कहते हैं कि स्त्रियाँ असत्यपरायण होती हैं। तात! जब स्त्रियाँ असत्यवादिनी ही हैं तब उन्हें साथ रखकर सहधर्मका अनुष्ठान कैसे किया जा सकता है? ।। ६ ।।

वेदोंमें भी यह बात पढ़ी गयी है कि स्त्रियाँ असत्यभाषिणी होती हैं, ऐसी दशामें उनका वह असत्य भी सहधर्मके अन्तर्गत आ सकता है, किंतु असत्य कभी धर्म नहीं हो सकता; अतः दाम्पत्यधर्मको जो सहधर्म कहा गया है, यह उसकी गौण संज्ञा है। वे पति-पत्नी साथ रहकर जो भी कार्य करते हैं, उसीको उपचारत: धर्म नाम दे दिया गया है || ७ ।।

पितामह! मैं ज्यों-ज्यों इस विषयपर विचार करता हूँ, त्यों-त्यों यह बात मुझे अत्यन्त दुर्बोध प्रतीत होती है। अतः आपने इस विषयमें जो कुछ श्रुतिका विधान हो, उसके अनुसार यह सब समझाइये जिससे मेरा संदेह दूर हो जाय ।। ८ ।।

महामते! यह सहधर्म जबसे प्रचलित हुआ, जिस रूपमें सामने आया और जिस प्रकार इसकी प्रवृत्ति हुई, ये सारी बातें आप मुझे बताइये ।। ९ ।।

भीष्मजीने कहा--भरतनन्दन! इस विषयमें अष्टावक्र मुनिका उत्तर दिशाकी अधिष्ठात्रीदेवीके साथ जो संवाद हुआ था, उसी प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है ।। १० ।।

पूर्वकालकी बात है, महातपस्वी अष्टावक्र विवाह करना चाहते थे, उन्होंने इसके लिये महात्मा वदान्य ऋषिसे उनकी कन्या माँगी ।। ११ ।।

उस कन्याका नाम था सुप्रभा। इस पृथ्वीपर उसके रूपकी कहीं तुलना नहीं थी। गुण, प्रभाव, शील और चरित्र सभी दृष्टियोंसे वह परम सुन्दर थी ।। १२ ।।

जैसे वसंतऋतुमें सुन्दर फूलोंसे सजी हुई विचित्र वनश्रेणी मनुष्यके मनको लुभा लेती है, उसी प्रकार उस शुभलोचना मुनिकुमारीने दर्शनमात्रसे अष्टावक्रका मन चुरा लिया था | १३ ||

वदान्य ऋषिने अष्टावक्रके माँगनेपर इस प्रकार उत्तर दिया--'विप्रवर! जिसके दूसरी कोई स्त्री न हो, जो परदेशमें न रहता हो, विद्वान, प्रिय वचन बोलनेवाला, लोकसम्मानित, वीर, सुशील, भोग भोगनेमें समर्थ, कान्तिमान्‌ और सुन्दर पुरुष हो, उसीके साथ मुझे अपनी पुत्रीका विवाह करना है। जो स्त्रीकी अनुमतिसे यज्ञ करता और उत्तम नक्षत्रवाली कन्याको व्याहता है, वह पुरुष अपनी पत्नीके साथ तथा पत्नी अपने पतिके साथ रहकर दोनों ही इहलोक और परलोकमें आनन्द भोगते हैं।  मैं तुम्हें अपनी कन्या अवश्य दे दूँगा, परंतु पहले एक बात सुनो, यहाँसे परम पवित्र उत्तर दिशाकी ओर चले जाओ। वहाँ तुम्हें उसका दर्शन होगा” ।। १४ ।।

अष्टावक्रने पूछा--महर्षे! उत्तर दिशामें जाकर मुझे किसका दर्शन करना होगा? आप यह बतानेकी कृपा करें तथा उस समय मुझे क्या और किस प्रकार करना चाहिये, यह भी आप ही बतायेंगे ।। १५ ।।

वदान्यने कहा--वत्स! तुम कुबेरकी अलकापुरीको लाँधकर जब हिमालय पर्वतको भी लाँघ जाओगे तब तुम्हें सिद्धों और चारणोंसे सेवित रुद्रके निवासस्थान कैलास पर्वतका दर्शन होगा ॥। १६ |।

वहाँ नाना प्रकारके मुखवाले भाँति-भाँतिके दिव्य अंगराग लगाये अनेकानेक पिशाच तथा अन्य भूत-वैताल आदि भगवान्‌ शिवके पार्षदगण हर्ष और उल्लासमें भरकर नाच रहे होंगे ।। १७ ।।

वे करताल और सुन्दर ताल बजाकर शम्पा ताल देते हुए समभावसे हर्षविभोर हो जोर-जोरसे नृत्य करते हुए वहाँ भगवान्‌ शंकरकी सेवा करते हैं || १८ ।।

उस पर्वतका वह दिव्य स्थान भगवान्‌ शंकरको बहुत प्रिय है। यह बात हमारे सुननेमें आयी है। वहाँ महादेवजी तथा उनके पार्षद नित्य निवास करते हैं ।।

वहाँ देवी पार्वतीने भगवान्‌ शंकरकी प्राप्तिके लिये अत्यन्त दुष्कर तपस्या की थी, इसीलिये वह स्थान भगवान्‌ शिव और पार्वतीको अधिक प्रिय है, ऐसा सुना जाता है || २० ।।

महादेवजीके पूर्व तथा उत्तर भागमें महापार्श्व नामक पर्वत है, जहाँ ऋतु, कालरात्रि तथा दिव्य और मानुषभाव सब-के-सब मूर्तिमान्‌ होकर महादेवजीकी उपासना करते हैं। उस स्थानको लाँघकर तुम आगे बढ़ते ही चले जाना || २१-२२ ।।

तदनन्तर तुम्हें मेघोंकी घटाके समान नीला एक वन्य प्रदेश दिखायी देगा। वह बड़ा ही मनोरम और रमणीय है। उस वनमें तुम एक स्त्रीको देखोगे जो तपस्विनी, महान्‌ सौभाग्यवती, वृद्धा और दीक्षापरायण है। तुम यत्नपूर्वक वहाँ उसका दर्शन और पूजन करना ।। २३-२४ ।।

उसे देखकर लौटनेपर ही तुम मेरी पुत्रीका पाणिग्रहण कर सकोगे। यदि यह सारी शर्त स्वीकार हो तो इसे पूरी करनेमें लग जाओ और अभी वहाँकी यात्रा आरम्भ कर दो ।। २५ |।

अष्टावक्र बोले--ऐसा ही होगा, मैं यह शर्त पूरी करूँगा। श्रेष्ठ पुरुष! आप जहाँ कहते हैं वहाँ अवश्य जाऊँगा। आपकी वाणी सत्य हो || २६ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर भगवान्‌ अष्टावक्र उत्तरोत्तर दिशाकी ओर चल दिये। सिद्धों और चारणोंसे सेवित गिरिश्रेष्ठ महापर्वत हिमालयपर पहुँचकर वे श्रेष्ठ द्विज धर्मसे शोभा पानेवाली पुण्यमयी बाहुदा नदीके तटपर गये ।। २७-२८ ।।

वहाँ निर्मल अशोक तीर्थमें स्नान करके देवताओंका तर्पण करनेके पश्चात्‌ उन्होंने कुशकी चटाईपर सुखपूर्वक निवास किया || २९ ||

तदनन्तर रात बीतनेपर वे द्विज प्रातःकाल उठे और उन्होंने स्नान करके अग्निदेवको प्रज्वलित किया। फिर मुख्य-मुख्य वैदिक मन्त्रोंसे अग्निदेवकी स्तुति करके “रुद्राणी रुद्र' नामक तीर्थमें गये और वहाँ सरोवरके तटपर कुछ कालतक विश्राम करते रहे। विश्रामके पश्चात्‌ उठकर वे कैलासकी ओर चल दिये || ३०-३१ ।।

कुछ दूर जानेपर उन्होंने कुबेरकी अलकापुरीका सुवर्णमय द्वार देखा, जो दिव्य दीप्तिसे देदीप्यमान हो रहा था। वहीं महात्मा कुबेरकी कमलपुष्पोंसे सुशोभित एक बावड़ी देखी, जो गंगाजीके जलसे परिपूर्ण होनेके कारण मन्दाकिनी नामसे विख्यात थी ।। ३२ ।।

वहाँ जो उस पद्मपूर्ण पुष्करिणीकी रक्षा कर रहे थे, वे सब मणिभद्र आदि राक्षस भगवान्‌ अष्टावक्रको देखकर उनके स्वागतके लिये उठकर खड़े हो गये ।।

मुनिने भी उन भयंकर पराक्रमी राक्षसोंके प्रति सम्मान प्रकट किया और कहा --“आपलोग शीघ्र ही धनपति कुबेरको मेरे आगमनकी सूचना दे दें” ।। ३४ ।।

राजन! वे राक्षस वैसा करके भगवान्‌ अष्टावक्रसे बोले--'प्रभो! राजा कुबेर स्वयं ही आपके निकट पधार रहे हैं ।। ३५ ।।

“आपका आगमन और इस आगमनका जो उद्देश्य है, वह सब कुछ कुबेरको पहलेसे ही ज्ञात है। देखिये, ये महाभाग धनाध्यक्ष अपने तेजसे प्रकाशित होते हुए आ रहे हैं' ।। ३६ |।

तदनन्तर विश्ववाके पुत्र कुबेरने निकट आकर निन्दारहित ब्रह्मर्षि अष्टावक्रसे विधिपूर्वक कुशल-समाचार पूछते हुए कहा-- ।। ३७ ।।

“ब्रह्म! आप सुखपूर्वक यहाँ आये हैं न? बताइये मुझसे किस कार्यकी सिद्धि चाहते हैं? आप मुझसे जो-जो कहेंगे, वह सब पूर्ण करूँगा || ३८ ।।

द्विजश्रेष्ठ] आप इच्छानुसार मेरे भवनमें प्रवेश कीजिये और यहाँका सत्कार ग्रहण करके कृतकृत्य हो यहाँसे निर्विघ्न यात्रा कीजियेगा ।। ३९ ।।

ऐसा कहकर कुबेरने विप्रवर अष्टावक्रको साथ लेकर अपने भवनमें प्रवेश किया और उन्हें पाद्य, अर््ध तथा अपना आसन दिया ।। ४० ।।

जब कुबेर और अष्टावक्र दोनों वहाँ आरामसे बैठ गये तब कुबेरके सेवक मणिभद्र आदि यक्ष, गन्धर्व और किन्नर भी नीचे बैठ गये ।। ४१ ।।

उन सबके बैठ जानेपर कुबेरने कहा--“आपकी इच्छा हो तो उसे जानकर यहाँ अप्सराएँ नृत्य करें; क्योंकि आपका आतिथ्य सत्कार और सेवा करना हमलोगोंका परम कर्तव्य है।' तब मुनिने मधुर वाणीमें कहा, “तथास्तु--ऐसा ही हो” ।। ४२-४३ ।।

तदनन्तर उर्वरा, मिश्रकेशी, रम्भा, उर्वशी, अलम्बुषा, घृताची, चित्रा, चित्रांगदा, रुचि, मनोहरा, सुकेशी, सुमुखी, हासिनी, प्रभा, विद्युता, प्रशमी, दान्ता, विद्योता और रति-ये तथा और भी बहुत-सी शुभलक्षणा अप्सराएँ नृत्य करने लगीं और गन्धर्वगण नाना प्रकारके बाजे बजाने लगे || ४४--४६ ।।

वह दिव्य नृत्य-गीत आरम्भ होनेपर महातपस्वी ऋषि अष्टावक्र भी दर्शक-मण्डलीमें आ बैठे और वे देवताओंके वर्षसे एक वर्षतक इसी आमोद-प्रमोदमें रमते रहे || ४७ ।।

तब राजा वैश्रवण (कुबेर)-ने भगवान्‌ अष्टावक्रसे कहा--“विप्रवर! यहाँ नृत्य देखते हुए आपका एक वर्षसे कुछ अधिक समय व्यतीत हो गया है || ४८ ।।

“ब्रह्मन! यह नृत्य-गीतका विषय जिसे “गान्धर्व” नाम दिया गया है बड़ा मनोहारी है; अतः यदि आपकी इच्छा हो तो यह आयोजन कुछ दिन और इसी तरह चलता रहे अथवा विप्रवर! आप जैसी आज्ञा दें वैसा किया जाय ।। ४९ ।।

“आप मेरे पूजनीय अतिथि हैं। यह घर आपका ही है। आप निस्संकोच भावसे शीघ्र ही सभी कार्योके लिये हमें आज्ञा दें। हम आपके वशवर्ती किंकर हैं” ।।

तब अत्यन्त प्रसन्न हुए भगवान्‌ अष्टावक्रने कुबेरसे कहा--“धनेश्वर! आपने यथोचित रूपसे मेरा सत्कार किया है। अब आज्ञा दें, मैं यहाँसे जाऊँगा ।। ५१ ।।

“धनाधिप! मैं बहुत प्रसन्न हूँ। आपकी सारी बातें आपके अनुरूप ही हैं। भगवन्‌! अब मैं आपकी कृपासे उन महात्मा महर्षि वदान्यकी आज्ञाके अनुसार आगे जाऊँगा। आप अभ्युदयशील एवं समृद्धिशाली हों।! इतना कहकर भगवान्‌ अष्टावक्र उत्तर दिशाकी ओर मुँह करके चल दिये, एवं समूचे कैलास, मन्दराचल और हिमालयपर विचरण करने लगे || ५२- ५३½॥

उन बड़े-बड़े पर्वतोंको लाँचकर यतचित्त हो उन्होंने किरातवेषधारी महादेवजीके उत्तम स्थानकी परिक्रमा की और उसे मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। फिर नीचे पृथ्वीपर उतरकर वे उस स्थानके माहात्म्यसे तत्काल पवित्रात्मा हो गये || ५४-५५ ।।

तीन बार उस पर्वतकी परिक्रमा करके वे उत्तराभिमुख हो समतल भूमिसे प्रसन्नतापूर्वक आगे बढ़े ।। ५६ ।।

आगे जानेपर उन्हें एक दूसरी रमणीय वनस्थली दिखायी दी, जो सभी ऋतुओंके फलमूलों, पक्षिसमूहों और मनोरम वनप्रान्तोंसे जहाँ-तहाँ शोभासम्पन्न हो रही थी || ५७३ ।।

वहाँ भगवान्‌ अष्टावक्रने एक दिव्य आश्रम देखा। उस आश्रमके चारों ओर नाना प्रकारके सुवर्णमय एवं रत्नभूषित पर्वत शोभा पा रहे थे। वहाँकी मणिमयी भूमिपर कई सुन्दर बावड़ियाँ बनी थीं || ५८-५९ ।।

इनके सिवा और भी बहुत-से सुरम्य दृश्य वहाँ दिखायी देते थे। उन सबको देखते हुए उन भावितात्मा महर्षिका मन वहाँ विशेष आनन्दका अनुभव करने लगा ।।

महर्षिने उस प्रदेशमें एक दिव्य सुवर्णमय भवन देखा, जिसमें सब प्रकारके रत्न जड़े गये थे। वह मनोहर गृह कुबेरके राजभवनसे भी सुन्दर, श्रेष्ठ एवं अदभुत था || ६१ ।।

वहाँ भाँति-भाँतिके मणिमय और सुवर्णमय विशाल पर्वत शोभा पाते थे। अनेकानेक सुरम्य विमान तथा नाना प्रकारके रत्न दृष्टिगोचर होते थे || ६२ ।।

उस प्रदेशमें मन्दाकिनी नदी प्रवाहित होती थी, जिसके स्रोतमें मन्दारके पुष्प बह रहे थे। वहाँ स्वयं प्रकाशित होनेवाली मणियाँ अपनी अद्भुत छटा बिखेर रही थीं। वहाँकी भूमि हीरोंसे जड़ी गयी थी ।। ६३ ।।

उस आश्रमके चारों ओर विचित्र मणिमय तोरणोंसे सुशोभित, मोतीकी झालरोंसे अलंकृत तथा मणि एवं रत्नोंसे विभूषित सुन्दर भवन शोभा पा रहे थे। वे मनको मोह लेनेवाले तथा दृष्टिको बरबस अपनी ओर आकृष्ट कर लेनेवाले थे। उन मंगलमय भवनोंसे घिरा और ऋषि-मुनियोंसे भरा हुआ वह आश्रम बड़ा मनोहर जान पड़ता था ।। ६४-६५।

वहाँ पहुँचकर अष्टावक्रके मनमें यह चिन्ता हुई कि अब कहाँ ठहरा जाय। यह विचार उठते ही वे प्रमुख द्वारके समीप गये और खड़े होकर बोले-- ।। ६६ ।।

“इस घरमें जो लोग रहते हों, उन्हें यह विदित होना चाहिये कि मैं एक अतिथि यहाँ आया हूँ।” उनके इस प्रकार कहते ही उस घरसे एक साथ सात कन्याएँ निकलीं। वे सबकी-सब भिन्न-भिन्न रूपवाली तथा बड़ी मनोहर थीं। विभो! अष्टावक्र मुनि उनमेंसे जिसजिस कनन्‍्याकी ओर देखते, वही-वही उनका मन हर लेती थी ।। ६७-६८ ।।

वे अपने मनको रोक नहीं पाते थे। बलपूर्वक रोकनेपर उनका मन शिथिल होता जाता था। तदनन्तर उन बुद्धिमान्‌ ब्राह्मणके हृदयमें किसी तरह धैर्य उत्पन्न हुआ ।। ६९ ।।

तत्पश्चात्‌ वे सातों तरुणी स्त्रियाँ बोलीं--/भगवन्‌! आप घरके भीतर प्रवेश करें।' ऋषिके मनमें उन सुन्दरियोंके तथा उस घरके विषयमें कौतूहल पैदा हो गया था; अतः उन्होंने उस घरमें प्रवेश किया || ७० ६ ।।

वहाँ उन्होंने एक जराजीर्ण वृद्धा स्त्रीको देखा, जो निर्मल वस्त्र धारण किये समस्त आभूषणोंसे विभूषित हो पलँगपर बैठी हुई थी || ७१३ ।।

अष्टावक्रने 'स्वस्ति” कहकर उसे आशीर्वाद दिया। वह स्त्री उनके स्वागतके लिये पलँगसे उठकर खड़ी हो गयी और इस प्रकार बोली--“विप्रवर! बैठिये” || ७२½।।

अष्टावक्रने कहा--'सारी स्त्रियाँ अपने-अपने घरको चली जायाँ। केवल एक ही मेरे पास रह जाय। जो ज्ञानवती तथा मन और इन्द्रियोंको शान्त रखनेवाली हो, उसीको यहाँ रहना चाहिये। शेष स्त्रियाँ अपनी इच्छाके अनुसार जा सकती हैं” || ७३ $ ।।

तदनन्तर वे सब कनन्‍्याएँ उस समय ऋषिकी परिक्रमा करके उस घरसे निकल गयीं। केवल वह वृद्धा ही वहाँ ठहरी रही || ७४ $ ।।

तत्पश्चात्‌ उज्ज्वल एवं प्रकाशमान शय्यापर सोते हुए ऋषिने उस वृद्धासे कहा--“भद्रे! अब तुम भी सो जाओ। रात अधिक बीत चली है” || ७५६ ।।

बातचीतके प्रसड़में उस ब्राह्मणके ऐसा कहनेपर वह भी दूसरे अत्यन्त प्रकाशमान दिव्य पलँगपर सो रही || ७६३६ ।।

थोड़ी ही देरमें वह सरदी लगनेका बहाना करके थरथर काँपती हुई आयी और महर्षिकी शय्यापर आरूढ़ हो गयी। पास आनेपर भगवान्‌ अष्टावक्रने “आइये, स्वागत है' ऐसा कहकर उसके प्रति सम्मान प्रदर्शित किया || ७७-७८ ।।

नरश्रेष्ठस उसने प्रेमपूर्वक दोनों भुजाओंसे ऋषिका आलिंगन कर लिया तो भी उसने देखा, ऋषि अष्टावक्र सूखे काठ और दीवारके समान विकारशून्य हैं | ७९ ।।

उनकी ऐसी स्थिति देख वह बहुत दुखी हो गयी और मुनिसे इस प्रकार बोली --“ब्रह्मन! पुरुषको अपने समीप पाकर उसके काम-व्यवहारको छोड़कर और किसी बातसे स्त्रीको धैर्य नहीं रहता। मैं कामसे मोहित होकर आपकी सेवामें आयी हूँ। आप मुझे स्वीकार कीजिये। ब्रह्मर्ष! आप प्रसन्न हों और मेरे साथ समागम करें ।।

“विप्रवर! आप मेरा आलिंगन कीजिये। मैं आपके प्रति अत्यन्त कामातुर हूँ। धर्मात्मन्‌! यही आपकी तपस्याका प्रशस्त फल है ।। ८२ ।।

“मैं आपको देखते ही आपके प्रति अनुरक्त हो गयी हूँ; अतः आप मुझ सेविकाको अपनाइये। मेरा यह सारा धन तथा और जो कुछ आप देख रहे हैं, उस सबके तथा मेरे भी आप ही स्वामी हैं--इसमें संशय नहीं है। आप मेरे साथ रमण कीजिये। मैं आपकी समस्त कामनाएँ पूर्ण करूँगी ।। ८३-८४ ।।

“ब्रह्मन्‌! सम्पूर्ण मनोवाज्छित फलको देनेवाले इस रमणीय वनमें मैं आपके अधीन होकर रहूँगी। आप मेरे साथ रमण कीजिये ।। ८५ ।।

“हमलोग यहाँ दिव्य और मनुष्यलोक-सम्बन्धी सम्पूर्ण भोगोंका उपभोग करेंगे। स्त्रियोंके लिये पुरुषसंसर्ग जितना प्रिय है, उससे बढ़कर दूसरा कोई फल कदापि प्रिय नहीं होता। यही हमारे लिये सर्वोत्तम फल है ।।

“कामसे प्रेरित हुई नारियाँ सदा अपनी इच्छाके अनुसार बर्ताव करती हैं। कामसे संतप्त होनेपर वे तपी हुई धूलमें भी चलती हैं; परंतु इससे उनके पैर नहीं जलते हैं” || ८७  |

अष्टावक्र बोले--भद्रे! मैं परायी स्त्रीके साथ किसी तरह संसर्ग नहीं कर सकता; क्योंकि धर्मशास्त्रके विद्वानोंने परस्त्रीसमागमकी निन्‍्दा की है || ८८६ ।।

भद्रे! मैं सत्यकी सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि एक मनोनीत मुनिकुमारीके साथ विवाह करना चाहता हूँ। तुम इसे ठीक समझो। मैं विषयोंसे अनभिज्ञ हूँ। केवल धर्मके लिये संतानकी प्राप्ति मुझे अभीष्ट है; अतः यही मेरे विवाहका उद्देश्य है। ऐसा होनेपर मैं पुत्रोंद्वारा अभीष्ट लोकोंमें जाऊँगा। इसमें संशय नहीं है। भद्रे! तुम धर्मको समझो और उसे समझकर इस स्वेच्छाचारसे निवृत्त हो जाओ ।। ८९-९० $ ।।

स्‍त्री बोली--ब्रह्मन! वायु, अग्नि, वरुण तथा अन्य देवता भी स्त्रियोंको वैसे प्रिय नहीं हैं, जैसा उन्हें काम प्रिय लगता है; क्योंकि स्त्रियाँ स्वभावत: रतिकी इच्छुक होती हैं। सहस्रों नारियोंमें कभी कोई एक ऐसी स्त्री मिलती है जो रतिलोलुप न हो तथा लाखों स्त्रियोंमें शायद ही कोई एक पतिव्रता मिल सके ।। ९१-९२ $ ।।

ये स्त्रियाँ न पिताको जानती हैं न माताको, न कुलको समझती हैं न भाइयोंको। पति, पुत्र तथा देवरोंकी भी ये परवाह नहीं करती हैं। अपने लिये रतिकी इच्छा रखकर ये समस्त कुलकी मर्यादाका नाश कर डालती हैं, ठीक उसी तरह जैसे बड़ी-बड़ी नदियाँ अपने तटोंको ही तोड़-फोड़ देती हैं। इन सब दोषोंको समझकर ही प्रजापतिने स्त्रियोंके विषयमें उपर्युक्त बातें कही हैं ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन! तब ऋषिने एकाग्रचित्त होकर उस स्त्रीसे कहा--“चुप रहो। मनमें भोगकी रुचि होनेपर स्वेच्छाचार होता है। मेरी रुचि नहीं है, अतः मुझसे यह काम नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त यदि मुझसे कोई काम हो तो बताओ' ।। ९५ ||

उस स्त्रीने कहा--“भगवन्‌! महाभाग! देश और कालके अनुसार आपको अनुभव हो जायगा। आप यहाँ रहिये, कृतकृत्य हो जाइयेगा” ।। ९६ ।।

युधिष्ठिर! तब ब्रह्मर्षिनि उससे कहा--“ठीक है, जबतक मेरे मनमें यहाँ रहनेका उत्साह होगा तबतक आपके साथ रहूँगा, इसमें संशय नहीं है” || ९७ ।।

इसके बाद ऋषि उस स्त्रीको जरावस्थासे पीड़ित देख बड़ी चिन्तामें पड़ गये और संतप्त-से हो उठे ।। ९८ ।।

विप्रवर अष्टावक्र उसका जो-जो अंग देखते थे वहाँ-वहाँ उनकी दृष्टि रमती नहीं थी, अपितु उसके रूपसे विरक्त हो उठती थी ।। ९९ ।।

वे सोचने लगे “यह नारी तो इस घरकी अधिष्ठात्री देवी है। फिर इसे इतना कुरूप किसने बना दिया? इसकी कुरूपताका कारण क्या है? इसे किसीका शाप तो नहीं लग गया। इसकी कुरूपताका कारण जाननेके लिये सहसा चेष्टा करना मेरे लिये उचित नहीं है! || १०० ||

इस प्रकार व्याकुल चित्तसे एकान्तमें बैठकर चिन्ता करते और उसकी कुरूपताका कारण जाननेकी इच्छा रखते हुए महर्षिका वह सारा दिन बीत चला ।।

तब उस स्त्रीने कहा--“भगवन्‌! देखिये, सूर्यका रूप संध्याकी लालीसे लाल हो गया है। इस समय आपके लिये कौन-सी वस्तु प्रस्तुत की जाय?” || १०२ ।।

तब ऋषिने उस स्त्रीसे कहा--'मेरे नहानेके लिये यहाँ जल ले आओ। स्नानके पश्चात्‌ मैं मौन होकर इन्द्रियसंयमपूर्वक संध्योपासना करूँगा” ।। १०३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें अष्टावक्र और उत्तर दिशाका संवादविषयक उत्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल १०५ श्लोक हैं)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

बीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  बीसवें अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)

 “अष्टावक्र और उत्तर दिशाका संवाद”

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! ऋषिकी बात सुनकर उस स्त्रीने कहा--“बहुत अच्छा, ऐसा ही हो” यों कहकर वह दिव्य तेल और स्नानोपयोगी वस्त्र ले आयी ।।

फिर उन महात्मा मुनिकी आज्ञा लेकर उस स्त्रीने उनके सारे अंगोंमें तेलकी मालिश की ।। २ ।।

फिर उसके उठानेपर वे धीरेसे वहाँ स्नानगृहमें गये। वहाँ ऋषिको एक विचित्र एवं नूतन चौकी प्राप्त हुई ।। ३ ।।

जब वे उस सुन्दर चौकीपर बैठ गये तब उस स्त्रीने धीरे-धीरे हाथोंके कोमल स्पर्शसे उन्हें नहलाया ।। ४ ।।

उसने मुनिके लिये विधिपूर्वक सम्पूर्ण दिव्य सामग्री प्रस्तुत की। वे महाव्रतधारी मुनि उसके दिये हुए कुछ-कुछ गरम होनेके कारण सुखदायक जलसे नहाकर उसके हाथोंके सुखद स्पर्शसे सेवित होकर इतने आनन्दविभोर हो गये कि कब सारी रात बीत गयी? इसका उन्हें ज्ञान ही नहीं हुआ ।। ५½ ।।

तदनन्तर वे मुनि अत्यन्त आश्वर्ययकित होकर उठ बैठे। उन्होंने देखा कि पूर्व-दिशाके आकाशकमें सूर्यदेवका उदय हो गया है। वे सोचने लगे, क्या यह मेरा मोह है या वास्तवमें सूर्योदय हो गया है ।। ६-७ ।।

फिर तो तत्काल स्नान, संध्योपासना और सूर्योपस्थान करके उससे बोले, “अब क्या करूँ?” तब उस स्त्रीने ऋषिके समक्ष अमृतरसके समान मधुर अन्न परोसकर रखा ।। ८ ।।

उस अन्नके स्वादसे वे इतने आकृष्ट हो गये कि उसे पर्याप्त न मान सके--“बस अब पूरा हो गया” यह बात न कह सके। इसीमें सारा दिन निकल गया और पुनः संध्याकाल आ पहुँचा || ९ ||

इसके बाद उस स्त्रीने भगवान्‌ अष्टावक्रसे कहा--“'अब आप सो जाइये।” फिर वहीं उनके और उस स्त्रीके लिये दो शय्याएँ बिछायी गयीं ।। १० ।।

उस समय वह स्त्री और मुनि दोनों अलग-अलग सो गये। जब आधी रात हुई तब वह स्त्री उठकर मुनिकी शय्यापर आ बैठी ।। ११ ।।

अष्टावक्र बोले--भद्रे! मेरा मन परायी स्त्रियोंमें आसक्त नहीं होता है। तुम्हारा भला हो, यहाँसे उठो और स्वयं ही इस पापकर्मसे विरत हो जाओ ।। १२ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! इस प्रकार उन ब्रह्मर्षिके लौटानेपर उसने कहा--मैं स्वतन्त्र हूँ; अतः: मेरे साथ समागम करनेसे आपके धर्मकी छलना नहीं होगी” ।। १३ ।।

अष्टावक्र बोले--भटद्रे! स्त्रियोंकी स्वतन्त्रता नहीं सिद्ध होती; क्योंकि वे परतन्त्र मानी गयी हैं। प्रजापतिका यह मत है कि स्त्री स्वतन्त्र रहनेयोग्य नहीं है ।। १४ ।।

स्‍त्री बोली--ब्रह्मन! मुझे मैथुनकी भूख सता रही है। आपके प्रति जो मेरी भक्ति है, इसपर भी तो दृष्टिपात कीजिये। विप्रवर! यदि आप मुझे संतुष्ट नहीं करते हैं तो आपको पाप लगेगा ।। १५ ।।

अष्टावक्रने कहा--भद्रे! स्वेच्छाचारी मनुष्यको ही सब प्रकारके पापसमूह अपनी ओर खींचते हैं। मैं धैर्यके द्वारा सदा अपने मनको काबूमें रखता हूँ; अतः तुम अपनी शय्यापर लौट जाओ ।। १६ ।।

स्‍त्री बोली--अनघ! विप्रवर! मैं सिर झुकाकर प्रणाम करती हूँ और आपके सामने पृथ्वीपर पड़ी हूँ। आप मुझपर कृपा करें और मुझे शरण दें ।। १७ ।।

ब्रह्म! यदि आप परायी स्त्रियोंके साथ समागममें दोष देखते हैं तो मैं स्वयं आपको अपना दान करती हूँ। आप मेरा पाणिग्रहण कीजिये ।। १८ ।।

मैं सच कहती हूँ, आपको कोई दोष नहीं लगेगा। आप मुझे स्वतन्त्र समझिये। इसमें जो पाप होता है, वह मुझे ही लगे। मेरा चित्त आपके ही चिन्तनमें लगा है। मैं स्वतन्त्र हूँ; अतः मुझे स्वीकार कीजिये ।। १९ ।।

अष्टावक्रने कहा--भद्रे! तुम स्वतन्त्र कैसे हो? इसमें जो कारण हो, वह बताओ! तीनों लोकोंमें कोई ऐसी स्त्री नहीं है जो स्वतन्त्र रहने योग्य हो || २० ।।

कुमारावस्थामें पिता इसकी रक्षा करते हैं, जवानीमें वह पतिके संरक्षणमें रहती है और बुढ़ापेमें पुत्र उसकी देखभाल करते हैं। इस प्रकार स्त्रियोंके लिये स्वतन्त्रता नहीं है || २१ ।।

स्‍त्री बोली--विप्रवर! मैं कुमारावस्थासे ही ब्रह्मचारिणी हूँ; अतः कन्या ही हूँ--इसमें संशय नहीं है। अब आप मुझे पत्नी बनाइये। मेरी श्रद्धाका नाश न कीजिये ।।

अष्टावक्रने कहा--जैसी मेरी दशा है, वैसी तुम्हारी है और जैसी तुम्हारी दशा है, वैसी मेरी है। यह वास्तवमें वदान्य ऋषिके द्वारा परीक्षा ली जा रही है या सचमुच यह कोई विघ्न तो नहीं है? ।। २३ ।।

(वे मन-ही-मन सोचने लगे--) यह पहले वृद्धा थी और अब दिव्य वस्त्राभूषणोंसे विभूषित कन्यारूप होकर मेरी सेवामें उपस्थित है। यह बड़े ही आश्वर्यकी बात है। क्या यह मेरे लिये कल्याणकारी होगा? ।। २४ ।।

परंतु इसका यह परम सुन्दर रूप पहले जराजीर्ण कैसे हो गया था और अब यहाँ यह कन्यारूप कैसे प्रकट हो गया? ऐसी दशामें यहाँ उसके लिये क्‍या उत्तर हो सकता है? ।। २५ ।।

मुझमें कामको दमन करनेकी शक्ति है और पूर्वप्राप्त मुनि-कन्याको किसी तरह भी प्राप्त करनेका धैर्य बना हुआ है। इस शक्ति और धृतिके ही सहारे मैं किसी तरह विचलित नहीं होऊँगा। मुझे धर्मका उल्लंघन अच्छा नहीं लगता। मैं सत्यके सहारेसे ही पत्नीको प्राप्त करूँगा ।। २६ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें अष्टावक्र और उत्तरदिशाका संवादविषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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