सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के तेईसवाँ अध्याय (From the 23 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

तेईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  तेईसवें अध्याय के श्लोक 1-111½ का हिन्दी अनुवाद)

“देवता और पिततरोंके कार्यमें निमन्त्रण देने योग्य पात्रों तथा नरकगामी और स्वर्गगामी मनुष्योंके लक्षणोंका वर्णन”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! देवता और ऋषियोंने श्राद्धके समय देवकार्य तथा पितृकार्यमें जिस-जिस कर्मका विधान किया है, उसका वर्णन मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन! मनुष्यको चाहिये कि वह स्नान आदिसे शुद्ध हो, मांगलिक कृत्य सम्पन्न करके प्रयत्नशील हो पूर्वन्निमें देव-सम्बन्धी दान, अपराह्नमें पैतृक दान और मध्याह्नकालमें मनुष्य-सम्बन्धी दान आदरपूर्वक करे। असमयमें किया हुआ दान राक्षसोंका भाग माना गया है ।। २-३ ।।

जिस भोज्य पदार्थको किसीने लाँघ दिया हो, चाट लिया हो, जो लड़ाई-झगड़ा करके तैयार किया गया हो तथा जिसपर रजस्वला स्त्रीकी दृष्टि पड़ी हो, उसे भी राक्षसोंका ही भाग माना गया है ।। ४ ।।

भरतनन्दन! जिसके लिये लोगोंमें घोषणा की गयी हो, जिसे व्रतहीन मनुष्यने भोजन किया हो अथवा जो कुत्तेसे छू गया हो, वह अन्न भी राक्षसोंका ही भाग समझा गया है ।। ५ |।

जिसमें केश या कीड़े पड़ गये हों, जो छींकसे दूषित हो गया हो, जिसपर कुत्तोंकी दृष्टि पड़ गयी हो तथा जो रोकर और तिरस्कारपूर्वक दिया गया हो, वह अन्न भी राक्षसोंका ही भाग माना गया है ।। ६ ||

भरतनन्दन! जिस अन्नमेंसे पहले ऐसे व्यक्तिने खा लिया हो, जिसे खानेकी अनुमति नहीं दी गयी है अथवा जिसमेंसे पहले प्रणव आदि वेदमन्त्रोंके अनधिकारी शूद्र आदिने भोजन कर लिया हो अथवा किसी शस्त्रधारी या दुराचारी पुरुषने जिसका उपयोग कर लिया हो, उस अन्नको भी राक्षसोंका ही भाग बताया गया है ।। ७ ।।

जिसे दूसरोंने उच्छिष्ट कर दिया हो, जिसमेंसे किसीने भोजन कर लिया हो तथा जो देवता, पितर, अतिथि एवं बालक आदिको दिये बिना ही अपने उपभोगमें लाया गया हो, वह अन्न देवकर्म तथा पितृकर्ममें सदा राक्षस्रोंका ही भाग माना गया है ।। ८ ।।

नरश्रेष्ठ तीनों वर्णोके लोग वैदिक मन्त्र एवं उसके विधि-विधानसे रहित जो श्राद्धका अन्न परोसते हैं, उसे राक्षसोंका ही भाग माना गया है ।। ९ ।।

घीकी आहुति दिये बिना ही जो कुछ परोसा जाता है तथा जिसमेंसे पहले कुछ दुराचारी मनुष्योंको भोजन करा दिया गया हो, वह राक्षसोंका भाग माना गया है। भरतश्रेष्ठ! अन्नके जो भाग राक्षसोंको प्राप्त होते हैं, उनका वर्णन यहाँ किया गया ।। १०६ ।।

अब दान और भोजनके लिये ब्राह्मणकी परीक्षा करनेके विषयमें जो बात बतायी जाती है, उसे सुनो। राजन! जो ब्राह्मण पतित, जड या उन्मत्त हो गये हों वे देवकार्य या पितृकार्यमें निमन्त्रण पानेके योग्य नहीं हैं || ११-१२ ।।

राजन्‌! जिसके शरीरमें सफेद दाग हो, जो कोढ़ी, नपुंसक, राजयक्ष्मासे पीड़ित, मृगीका रोगी और अन्धा हो, ऐसे लोग श्राद्धमें निमन्त्रण पानेके अधिकारी नहीं हैं |। १३ ।।

नरेश्वर! चिकित्सक या वैद्य, देवालयके पुजारी, पाखण्डी और सोमरस बेचनेवाले ब्राह्मण निमन्त्रण देने योग्य नहीं हैं |। १४ ।।

राजन! जो गाते-बजाते, नाचते, खेल-कूदकर तमाशा दिखाते, व्यर्थकी बातें बनाते और पहलवानी करते हैं, वे भी निमन्त्रण पानेके अधिकारी नहीं हैं ।।

नरेश्वर! जो शूद्रोंका यज्ञ कराते, उनको पढ़ाते अथवा स्वयं उनके शिष्य बनकर उनसे शिक्षा लेते या उनकी दासता करते हैं, वे भी निमन्त्रण देने योग्य नहीं हैं || १६ ।।

भरतनन्दन! जो ब्राह्मण वेतन लेकर पढ़ाता है और वेतन देकर पढ़ता है, वे दोनों ही वेदको बेचनेवाले हैं; अतः: वे श्राद्धमें सम्मिलित करनेयोग्य नहीं हैं || १७ ।।

राजन! जो ब्राह्मण पहले समाजका अगुआ रहा हो और पीछे उसने शूद्र-स्त्रीसे विवाह कर लिया हो, वह ब्राह्मण सम्पूर्ण विद्याओंका ज्ञाता होनेपर भी श्राद्धमें बुलाने योग्य नहीं है | १८ ।।

नरेश्वर! जो ब्राह्मण अग्निहोत्र नहीं करते, जो मुर्दा ढोते, चोरी करते और जो पापोंके कारण पतित हो गये हैं, वे भी श्राद्धमें बुलाने योग्य नहीं हैं || १९ ।।

भारत! जिनके विषयमें पहलेसे कुछ ज्ञात न हो, जो गाँवके अगुआ हों तथा पुत्रिका-धर्मके अनुसार व्याही गयी स्त्रीके गर्भसे उत्पन्न होकर नानाके घरमें निवास करते हों, ऐसे ब्राह्मण भी श्राद्धमें निमन्‍्त्रण पानेके अधिकारी नहीं हैं || २० ।।

राजन! जो ब्राह्मण रुपया-पैसा बढ़ानेके लिये लोगोंको ब्याजपर ऋण देता हो अथवा जो सस्ता अन्न खरीदकर उसे मँहगे भावपर बेचता और उसका मुनाफा खाता हो अथवा प्राणियोंके क्रय-विक्रयसे जीविका चलाता हो, ऐसे ब्राह्मण श्राद्धमें बुलाने योग्य नहीं हैं ।।

जो स्त्रीकी कमाई खाते हों, वेश्याके पति हों और गायत्री-जप एवं संध्या-वन्दनसे हीन हों, ऐसे ब्राह्मण भी श्राद्धमें सम्मिलित होने योग्य नहीं हैं || २२ ।।

भरतश्रेष्ठ! देवयज्ञ और श्राद्धकर्ममें वर्जित ब्राह्मणका निर्देश किया गया। अब दान देने और लेनेवाले ऐसे पुरुषोंका वर्णन करता हूँ जो श्राद्धमें निषिद्ध होनेपर भी किसी विशेष गुणके कारण अनुग्रहपूर्वक ग्राह्म माने गये हैं। उनके विषयमें सुनो || २३ ।।

राजन! जो ब्राह्मण व्रतवका पालन करनेवाले, सदगुण-सम्पन्न, क्रियानिष्ठ और गायत्रीमन्त्रके ज्ञाता हों, वे खेती करनेवाले होनेपर भी उन्हें श्राद्धमें निमन्‍्त्रण दिया जा सकता है ।। २४ ।।

तात! जो कुलीन ब्राह्मण युद्धमें क्षत्रियधर्मका पालन करता हो, उसे भी श्राद्धमें निमन्त्रित करना चाहिये; परंतु जो वाणिज्य करता हो उसे कभी श्राद्धमें सम्मिलित न करें || २५ ||

राजन! जो ब्राह्मण अग्निहोत्री हो, अपने ही गाँवका निवासी हो, चोरी न करता हो और अतिथिसत्कारमें प्रवीण हो, उसे भी निमन्त्रण दिया जा सकता है || २६ ।।

भरतभूषण नरेश! जो तीनों समय गायत्री-मन्त्रका जप करता है, भिक्षासे जीविका चलाता है और क्रियानिष्ठ है, वह श्राद्धमें निमन्‍्त्रण पानेका अधिकारी है || २७ ।।

राजन! जो ब्राह्मण उन्नत होकर तत्काल ही अवनत और अवनत होकर उन्नत हो जाता है एवं किसी जीवकी हिंसा नहीं करता है, वह थोड़ा दोषी हो तो भी उसे श्राद्धमें निमन्त्रण देना उचित है || २८ ।।

भरतश्रेष्ठ! जो दम्भरहित, व्यर्थ तर्क-वितर्क न करनेवाला तथा सम्पर्क स्थापित करनेके योग्य घरसे भिक्षा लेकर जीवन-निर्वाह करनेवाला है, वह ब्राह्मण निमन्त्रण पानेका अधिकारी है ।। २९ |।

राजन! जो व्रतहीन, धूर्त, चोर, प्राणियोंका क्रय-विक्रय करनेवाला तथा वणिक्‌-वृत्तिसे जीविका चलानेवाला होकर भी पीछे यज्ञका अनुष्ठान करके उसमें सोमरसका पान कर चुका है, वह भी निमन्त्रण पानेका अधिकारी है || ३० ।।

नरेश्वरर जो पहले कठोर कर्मोद्वारा भी धनका उपार्जन करके पीछे सब प्रकारसे अतिथियोंका सेवक हो जाता है, वह श्राद्धमें बुलाने योग्य है ।। ३१ ।।

जो धन वेद बेचकर लाया गया हो या स्त्रीकी कमाईसे प्राप्त हुआ हो अथवा लोगोंके सामने दीनता दिखाकर माँग लाया गया हो, वह श्राद्धमें ब्राह्मणोंको देने योग्य नहीं है ।। ३२ ।।

भरतश्रेष्ठ! जो ब्राह्मण श्राद्धकी समाप्ति होनेपर “अस्तु स्वधा” आदि तत्कालोचित वचनोंका प्रयोग नहीं करता है, उसे गायकी झूठी शपथ खानेका पाप लगता है ।।

युधिष्ठिर! जिस दिन भी सुपात्र ब्राह्मण, दही, घी, अमावास्या तिथि तथा जंगली कन्द, मूल और फलोंका गूदा प्राप्त हो जाय, वही श्राद्धका उत्तम काल है ।। ३४ ।।

दिनका प्रथम तीन मुहूर्त प्रातःकाल कहलाता है। उसमें ब्राह्मगोंको जप और ध्यान आदिके द्वारा अपने लिये कल्याणकारी व्रत आदिका पालन करना चाहिये ।।

उसके बादका तीन मुहूर्त सड़व कहलाता है तथा सड़वके बादका तीन मुहूर्त मध्याह्न कहलाता है। सड्व कालमें लौकिक कार्य देखना चाहिये और मध्याह्नकालमें स्नानसंध्यावन्दन आदि करना उचित है ।।

मध्याह्नके बादका तीन मुहूर्त अपराह्न कहलाता है। यह दिनका चौथा भाग पितृकार्यके लिये उपयोगी है। उसके बादका तीन मुहूर्त सायाह्न कहा गया है। इसे विद्वानोंने दिन और रातके बीचका समय माना है ।।

ब्राह्मणके यहाँ श्राद्ध समाप्त होनेपर “स्वधा सम्पद्यताम्‌” इस वाक्यका उच्चारण करनेपर पितरोंको प्रसन्नता होती है। क्षत्रियके यहाँ श्राद्धकी समाप्तिमें “पितर: प्रीयन्ताम्‌” (पितर तृप्त हो जाये) इस वाक्यका उच्चारण करना चाहिये ।। ३५ ।।

भारत! वैश्यके घर श्राद्धकर्मकी समाप्तिपर “अक्षय्यमस्तु” (श्राद्धका दान अक्षय हो) कहना चाहिये और शाूद्रके श्राद्धकी समाप्तिके अवसरपर *स्वस्ति” (कल्याण हो) इस वाक्यका उच्चारण करना उचित है ।। ३६ ।।

इसी तरह जब ब्राह्मणके यहाँ देवकार्य होता हो, तब उसमें ॐ कारसहित पुण्याहवाचनका विधान है (अर्थात्‌ 'पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु--आपलोग पुण्याहवाचन करें' ऐसा यजमानके कहनेपर ब्राह्मणोंको “ॐ पुण्याहम्‌ ॐ पुण्याहम्‌” इस प्रकार कहना चाहिये)। यही वाक्य क्षत्रियके यहाँ बिना ॐकारके उच्चारण करना चाहिये ।।

वैश्यके घर देवकर्ममें *प्रीयन्तां देवता:” इस वाक्यका उच्चारण करना चाहिये। अब क्रमश: तीनों वर्णोंके कर्मानुष्ठानकी विधि सुनो ।। ३८ ।।

भरतवंशी युधिष्ठिर! तीनों वर्णोमें जातकर्म आदि समस्त संस्कारोंका विधान है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनोंके सभी संस्कार वेद-मन्त्रोंके उच्चारण-पूर्वक होने चाहिये ।। ३९ ।।

युधिष्ठि!| उपनयनके समय ब्राह्मणको मूँजकी, क्षत्रियको प्रत्यज्जाकी और वैश्यको शणकी मेखला धारण करनी चाहिये। यही धर्म है ।। ४० ।।

ब्राह्मणगका दण्ड पलाशका, क्षत्रियके लिये पीपलका और वैश्यके लिये गूलरका होना चाहिये। युधिष्ठिर! ऐसा ही धर्म है ।।

अब दान देने और दान लेनेवालेके धर्माधर्मका वर्णन सुनो। ब्राह्मणको झूठ बोलनेसे जो अधर्म या पातक बताया गया है उससे चौगुना क्षत्रियको और आठगुना वैश्यको लगता है || ४१ ||

यदि किसी ब्राह्मणने पहलेसे ही श्राद्धका निमन्त्रण दे रखा हो तो निमन्त्रित ब्राह्मणको दूसरी जगह जाकर भोजन नहीं करना चाहिये। यदि वह करता है तो छोटा समझा जाता है और उसे पशुहिंसाके समान पाप लगता है ।। ४२ ।।

यदि उसे क्षत्रिय या वैश्यने पहलेसे निमन्त्रण दे रखा हो और वह कहीं अन्यत्र जाकर भोजन कर ले तो छोटा समझे जानेके साथ ही वह पशुहिंसाके आधे पापका भागी होता है ।। ४३ ।।

नरेश्वर! जो ब्राह्मण ब्राह्मणादि तीनों वर्णोके यहाँ देवयज्ञ अथवा श्राद्धमें स्नान किये बिना ही भोजन करता है, उसे गौकी झूठी शपथ खानेके समान पाप लगता है ।। ४४ ।

राजन! जो ब्राह्मण अपने घरमें अशौच रहते हुए भी लोभवश जान-बूझकर दूसरे ब्राह्मण आदिके यहाँ श्राद्धका अन्न ग्रहण करता है उसे भी गौकी झूठी शपथ खानेका पाप लगता है || ४५ |।

भरतनन्दन! राजेन्द्र! जो तीर्थयात्रा आदि दूसरा प्रयोजन बताकर उसीके बहाने अपनी जीविकाके लिये धन माँगता है अथवा “मुझे अमुक (यज्ञादि) कर्म करनेके लिये धन दीजिये” ऐसा कहकर जो दाताको अपनी ओर अभिमुख करता है उसके लिये भी वही झूठी शपथ खानेका पाप बताया गया है ।। ४६ ।।

युधिष्ठिर! जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वेदव्रतका पालन न करनेवाले ब्राह्मणोंको श्राद्धमें मन्‍्त्रोच्चारणपूर्वक अन्न परोसते हैं, उन्हें भी गायकी झूठी शपथ खानेका पाप लगता है || ४७ |।

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! देवयज्ञ अथवा श्राद्ध-कर्ममें जो दान दिया जाता है, वह कैसे पुरुषोंको देनेसे महान्‌ फलकी प्राप्ति करानेवाला होता है? मैं इस बातको जानना चाहता हूँ ।। ४८ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! जैसे किसान वर्षाकी बाट जोहता रहता है, उसी प्रकार जिनके घरोंकी स्त्रियाँ अपने स्वामीके खा लेनेपर बचे हुए अन्नकी प्रतीक्षा करती रहती हैं (अर्थात्‌ जिनके घरमें बनी हुई रसोईके सिवा और कोई अन्नका संग्रह न हो), उन निर्धन ब्राह्मणोंको तुम अवश्य भोजन कराओ ।। ४९ ।।

राजन्‌! जो सदाचारपरायण हों, जिनकी जीविकाका साधन नष्ट हो गया हो और इसीलिये भोजन न मिलनेके कारण जो अत्यन्त दुर्बल हो गये हों, ऐसे लोग यदि याचक होकर दाताके पास आते हैं तो उन्हें दिया हुआ दान महान्‌ फलकी प्राप्ति करानेवाला होता है || ५० ।।

नरेश्वर! जो सदाचारके ही भक्त हैं, जिनके घरमें सदाचारका ही पालन होता है, जिन्हें सदाचारका ही बल है तथा जिन्होंने सदाचारका ही आश्रय ले रखा है, वे यदि आवश्यकता पड़नेपर याचना करते हैं तो उनको दिया हुआ दान महान्‌ फलकी प्राप्ति करानेवाला होता है ।। ५१ ||

युधिष्ठिर! चोरों और शत्रुओंके भयसे पीड़ित होकर आये हुए जो याचक केवल भोजन चाहते हैं उन्हें दिया हुआ दान महान्‌ फलकी प्राप्ति करानेवाला होता है ।। ५२ ।।

जिसके मनमें किसी तरहका कपट नहीं है, अत्यन्त दरिद्रताके कारण जिसके हाथमें अन्न आते ही उसके भूखे बच्चे “मुझे दो,” “मुझे दो" ऐसा कहकर माँगने लगते हैं; ऐसे निर्धन ब्राह्मण और उसके उन बच्चोंको दिया हुआ दान महान्‌ फलदायक होता है ।। ५३ ।।

देशमें विप्लव होनेके समय जिनके धन और स्ट्रियाँ छिन गयी हों; वे ब्राह्मण यदि धनकी याचनाके लिये आयें तो उन्हें दिया हुआ दान महान्‌ फलदायक होता है ।। ५४ 

जो व्रत और नियममें लगे हुए ब्राह्मण वेद-शास्त्रोंकी सम्मतिके अनुसार चलते हैं और अपने व्रतकी समाप्तिके लिये धन चाहते हैं, उन्हें देनेसे महान्‌ फलकी प्राप्ति होती है ।। ५५ ||

जो पाखण्डियोंके धर्मसे दूर रहते हैं, जिनके पास धनका अभाव है तथा जो अन्न न मिलनेके कारण दुर्बल हो गये हैं, उनको दिया हुआ दान महान्‌ फलदायक होता है ।। ५६ ||

जो दिद्वान्‌ पुरुष व्रतोंका पारण, गुरुदक्षिणा, यज्ञदक्षिणा तथा विवाहके लिये धन चाहते हों, उन्हें दिया हुआ दान महान्‌ फलदायक होता है ।।

जो माता-पिताकी रक्षाके लिये, स्त्री-पुत्रोंके पालन तथा महान्‌ रोगोंसे छुटकारा पानेके लिये धन चाहते हैं, उन्हें दिया हुआ दान महान्‌ फलदायक होता है ।।

जो बालक और स्त्रियाँ सब प्रकारके साधनोंसे रहित होनेके कारण केवल भोजन चाहती हैं, उन्हें भोजन देकर दाता स्वर्गमें जाते हैं। वे नरकमें नहीं पड़ते हैं ।।

प्रभावशाली डाकुओंने जिन निर्दोष मनुष्योंका सर्वस्व छीन लिया हो, अत: जो खानेके लिये अन्न चाहते हों, उन्हें दिया हुआ दान महान्‌ फलदायक होता है || ५७ ।।

जो तपस्वी और तपोनिष्ठ हैं तथा तपस्वी जनोंके लिये ही भीख माँगते हैं, ऐसे याचक यदि कुछ चाहते हैं तो उन्हें दिया हुआ दान महान्‌ फलदायक होता है ।। ५८ ।।

भरतश्रेष्ठ। किनको दान देनेसे महान्‌ फलकी प्राप्ति होती है, यह विषय मैंने तुम्हें सुना दिया। अब जिन कर्मोंसे मनुष्य नरक या स्वर्गमें जाते हैं, उन्हें सुनो || ५९ ।।

युधिष्ठिर! गुरुकी भलाईके लिये तथा दूसरेको भयसे मुक्त करनेके लिये जो झूठ बोलनेका अवसर आता है, उसे छोड़कर अन्यत्र जो झूठ बोलते हैं वे मनुष्य निश्चय ही नरकगामी होते हैं ।। ६० ।।

जो दूसरोंकी स्त्री चुरानेवाले, परायी स्त्रीका सतीत्व नष्ट करनेवाले तथा दूत बनकर परस्त्रीको दूसरोंसे मिलानेवाले हैं, वे निश्चय ही नरकगामी होते हैं || ६१ ।।

जो दूसरोंके धनको हड़पनेवाले और नष्ट करनेवाले हैं तथा दूसरोंकी चुगली खानेवाले हैं, उन्हें निश्षय ही नरकमें गिरना पड़ता है ।। ६२ ।।

भरतनन्दन! जो पौंसलों, सभाओं, पुलों और किसीके घरोंको नष्ट करनेवाले हैं, वे मनुष्य निश्चय ही नरकमें पड़ते हैं || ६३ ।।

जो लोग अनाथ, बूढ़ी, तरुणी, बालिका, भयभीत और तपस्विनी स्त्रियोंको धोखेमें डालते हैं, वे निश्चय ही नरकगामी होते हैं || ६४ ।।

भरतनन्दन! जो दूसरोंकी जीविका नष्ट करते, घर उजाड़ते, पति-पत्नीमें विछोह डालते, मित्रोंमें विरोध पैदा करते और किसीकी आशा भड़ करते हैं, वे निश्चय ही नरकमें जाते हैं || ६५ ।।

जो चुगली खानेवाले, कुल या धर्मकी मर्यादा नष्ट करनेवाले, दूसरोंकी जीविकापर गुजारा करनेवाले तथा मित्रोंद्वारा किये गये उपकारको भुला देनेवाले हैं, वे निश्चय ही नरकमें पड़ते हैं ।। ६६ ।।

जो पाखण्डी, निन्दक, धार्मिक नियमोंके विरोधी तथा एक बार संन्यास लेकर फिर गृहस्थ-आश्रममें लौट आनेवाले हैं, वे निश्चय ही नरकगामी होते हैं || ६७ ।।

जिनका व्यवहार सबके प्रति समान नहीं है तथा जो लाभ और वृद्धिमें विषम दृष्टि रखते हैं--ईमानदारीसे उसका वितरण नहीं करते हैं, वे अवश्य ही नरकगामी होते हैं ।। ६८ ।।

जो किसी मनुष्यकी परख करनेमें समर्थ नहीं हैं और दूतका काम करते हैं, जिनकी सदा जीवहिंसामें प्रवृत्ति होती है, वे निश्चय ही नरकमें गिरते हैं || ६९ ।।

जो वेतनपर रखे हुए परिश्रमी नौकरको कुछ देनेकी आशा देकर और देनेका समय नियत करके उसके पहले ही भेदनीतिके द्वारा उसे मालिकके यहाँसे निकलवा देते हैं, वे अवश्य ही नरकमें जाते हैं || ७० ।।

जो पितरों और देवताओंके यजन-पूजनका त्याग करके अग्निमें आहुति दिये बिना तथा अतिथि, पोष्यवर्ग और स्त्री-बच्चोंको अन्न दिये बिना ही भोजन कर लेते हैं, वे नि:संदेह नरकगामी होते हैं || ७१ ।।

जो वेद बेचते हैं, वेदोंकी निन्दा करते हैं और विक्रयके लिये ही वेदोंके मन्त्र लिखते हैं, वे भी निश्चय ही नरकगामी होते हैं || ७२ ।।

जो मनुष्य चारों आश्रमों और वेदोंकी मर्यादासे बाहर हैं तथा शास्त्रविरुद्ध कर्मोंसे ही जीविका चलाते हैं, उन्हें निश्चय ही नरकमें गिरना पड़ता है || ७३ ।।

राजन! जो (ब्राह्मण) केश, विष और दूध बेचते हैं, वे भी नरकमें ही जाते हैं || ७४ 

युधिष्ठिर! जो बाह्मण, गौ तथा कन्याओंके लिये हितकर कार्यमें विघ्न डालते हैं, वे भी अवश्य ही नरकगामी होते हैं || ७५ ।।

राजा युधिष्ठिर! जो (ब्राह्मण) हथियार बेचते और धनुष-बाण आदि शशस्त्रोंको बनाते हैं, वे नरकगामी होते हैं || ७६ ।।

भरतश्रेष्ठ) जो पत्थर रखकर, काँटे बिछाकर और गड्ढे खोदकर रास्ता रोकते हैं, वे भी नरकमें ही गिरते हैं || ७७ ।।

भरतभूषण! जो अध्यापकों, सेवकों तथा अपने भक्तोंको बिना किसी अपराधके ही त्याग देते हैं, उन्हें भी नरकमें ही गिरना पड़ता है || ७८ ।।

जो काबूमें न आनेवाले पशुओंका दमन करते, नाथते अथवा कटपरेमें बंद करते हैं, वे नरकगामी होते हैं ।। ७९ ।।

जो राजा होकर भी प्रजाकी रक्षा नहीं करते और उसकी आमदनीके छठे भागको लगानके रूपमें लूटते रहते हैं तथा जो समर्थ होनेपर भी दान नहीं करते, उन्हें भी नि:संदेह नरकमें जाना पड़ता है |। ८० ।।

जो देनेकी प्रतिज्ञा करके भी नहीं देते, दरिद्रोंकी एवं विनयशील निर्धन श्रोत्रियोंकी और क्षमाशीलोंकी निन्दा करते हैं, वे भी अवश्य ही नरकमें जाते हैं ।।

जो क्षमाशील, जितेन्द्रिय तथा दीर्घकालतक साथ रहे हुए विद्वानोंको अपना काम निकल जानेके बाद त्याग देते हैं, वे नरकमें गिरते हैं || ८१ ।।

जो बालकों, बूढ़ों और सेवकोंको दिये बिना ही पहले स्वयं भोजन कर लेते हैं, वे भी नि:संदेह नरकगामी होते हैं || ८२ ।।

भरतश्रेष्ठ। पहलेके संकेतके अनुसार यहाँ नरकगामी मनुष्योंका वर्णन किया गया है। अब स्वर्गलोकमें जानेवालोंका परिचय देता हूँ, सुनो || ८३ ।।

भरतनन्दन! जिनमें पहले देवताओंकी पूजा की जाती है, उन समस्त कार्योमें यदि ब्राह्यणका अपमान किया जाय तो वह अपमान करनेवालेके समस्त पुत्रों और पशुओंका नाश कर देता है || ८४ ।।

जो दान, तपस्या और सत्यके द्वारा धर्मका अनुष्ठान करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं ।। ८५ ।।

भारत! जो गुरुशुश्रूषा और तपस्यापूर्वक वेदाध्ययन करके प्रतिग्रहमें आसक्त नहीं होते, वे लोग स्वर्गगामी होते हैं ।। ८६ ।।

जिनके प्रयत्नसे मनुष्य भय, पाप, बाधा, दरिद्रता तथा व्याधिजनित पीड़ासे छुटकारा पा जाते हैं, वे लोग स्वर्गमें जाते हैं || ८७ ।।

जो क्षमावान्‌, धीर, धर्मकार्यके लिये उद्यत रहनेवाले और मांगलिक आचारसे सम्पन्न हैं, वे पुरुष भी स्वर्गगामी होते हैं || ८८ ।।

जो मद, मांस, मदिरा और परस्त्रीसे दूर रहते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं ।। ८९ ।।

भारत! जो आश्रम, कुल, देश और नगरके निर्माता तथा संरक्षक हैं, वे पुरुष स्वर्गमें जाते हैं || ९० ।।

जो वस्त्र, आभूषण, भोजन, पानी तथा अन्न दान करते हैं एवं दूसरोंके कुट॒म्बकी वृद्धिमें सहायक होते हैं, वे पुरुष स्वर्गलोकमें जाते हैं ।। ९१ ।।

जो सब प्रकारकी हिंसाओंसे अलग रहते हैं, सब कुछ सहते हैं और सबको आश्रय देते रहते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं || ९२ ।।

जो जितेन्द्रिय होकर माता-पिताकी सेवा करते हैं तथा भाइयोंपर स्नेह रखते हैं, वे लोग स्वर्गलोकमें जाते हैं ।। ९३ ।।

भारत! जो धनी, बलवान्‌ और नौजवान होकर भी अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखते हैं, वे धीर पुरुष स्वर्गगामी होते हैं ।। ९४ ।।

जो अपराधियोंके प्रति भी दया रखते हैं, जिनका स्वभाव मृदुल होता है, जो मृदुल स्वभाववाले व्यक्तियोंपर प्रेम रखते हैं तथा जिन्हें दूसरोंकी आराधना (सेवा) करनेमें ही सुख मिलता है, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं || ९५ ।।

जो मनुष्य सहस्रों मनुष्योंको भोजन परोसते, सहस्रोंको दान देते तथा सहस्रोंकी रक्षा करते हैं, वे स्वर्गगामी होते हैं । ९६ ।।

भरतश्रेष्ठ! जो सुवर्ण, गौ, पालकी और सवारीका दान करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं | ९७ ।।

युधिष्ठिर! जो वैवाहिक द्रव्य, दास-दासी तथा वस्त्र दान करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं ।। ९८ ।।

जो दूसरोंके लिये आश्रम, गृह, उद्यान, कुआँ, बागीचा, धर्मशाला, पौंसला तथा चहारदीवारी बनवाते हैं, वे लोग स्वर्गलोकमें जाते हैं || ९९ ।।

भरतनन्दन! जो याचकोंकी याचनाके अनुसार घर, खेत और गाँव प्रदान करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं || १०० ।।

युधिष्ठिर! जो स्वयं ही पैदा करके रस, बीज और अन्नका दान करते हैं, वे पुरुष स्वर्गगामी होते हैं | १०१ ।।

जो किसी भी कुलमें उत्पन्न हो बहुत-से पुत्रों और सौ वर्षकी आयुसे युक्त होते हैं, दूसरोंपर दया करते हैं और क्रोधको काबूमें रखते हैं, वे पुरुष स्वर्गलोकमें जाते हैं | १०२ |।

भारत! यह मैंने तुमसे परलोकमें कल्याण करनेवाले देवकार्य और पितृकार्यका वर्णन किया तथा प्राचीनकालमें ऋषियोंद्वारा बतलाये हुए दानधर्म और दानकी महिमाका भी निरूपण किया है ।। १०३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें स्वर्ग और नरकमें जानेवालोंका वर्णनविषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठके ८½ श्लोक मिलाकर कुल १११½ “लोक हैं)

टिका टिप्पणी - 

  • जब कोई अपनी कन्याको इस शर्तपर ब्याहता है कि 'इससे जो पहला पुत्र होगा, उसे मैं गोद ले लूँगा और अपना पुत्र मानूँगा” तो उसे “पुत्रिकाधर्मके अनुसार विवाह” कहते हैं। इस नियमसे प्राप्त होनेवाला पुत्र श्राद्धका अधिकारी नहीं है।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें