सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के अट्ठारहवाँ अध्याय (From the 18 chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

अट्ठारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  अट्ठारहवें अध्याय के श्लोक 1-83 का हिन्दी अनुवाद)

“शिवसहस्रनामके पाठकी महिमा तथा ऋषियोंका भगवान्‌ शंकरकी कृपासे अभीष्ट सिद्धि होनेके विषयमें अपनाअपना अनुभव सुनाना और श्रीकृष्णके द्वारा भगवान्‌ शिवजीकी महिमाका वर्णन”

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! तदनन्तर महायोगी श्रीकृष्णद्वैपायन मुनिवर व्यासने युधिष्ठिस्से कहा--“बेटा! तुम्हारा कल्याण हो। तुम भी इस स्तोत्रका पाठ करो, जिससे तुम्हारे ऊपर भी महेश्वर प्रसन्न हों |। १ ।।

“पुत्र! महाराज! पूर्वकालकी बात है, मैंने पुत्रकी प्राप्तिके लिये मेरुपर्वतपर बड़ी भारी तपस्या की थी। उस समय मैंने इस स्तोत्रका अनेक बार पाठ किया था ।। २ ।।

'पाण्डुनन्दन! इसके पाठसे मैंने अपनी मनोवांछित कामनाओंको प्राप्त कर लिया था। उसी प्रकार तुम भी शंकरजीसे सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लोगे” ।। ३ ॥।

'तत्पश्चात्‌ वहाँ सांख्यके आचार्य देवसम्मानित कपिलने कहा--“मैंने भी अनेक जन्मोंतक भक्तिभावसे भगवान्‌ शंकरकी आराधना की थी। इससे प्रसन्न होकर भगवानने मुझे भवभयनाशक ज्ञान प्रदान किया था” || ४६ ।।

तदनन्तर इन्द्रके प्रिय सखा आलम्बगोत्रीय चारुशीर्षने जो आलम्बायन नामसे ही प्रसिद्ध तथा परम दयालु हैं, इस प्रकार कहा-- ।। ५ |।

'पाण्डुनन्दन! पूर्वकालमें गोकर्णतीर्थमें जाकर मैंने सौ वर्षोतक तपस्या करके भगवान्‌ शंकरको संतुष्ट किया। इससे भगवान्‌ शंकरकी ओरसे मुझे सौ पुत्र प्राप्त हुए, जो अयोनिज, जितेन्द्रिय, धर्मज्ञ, परम तेजस्वी, जरारहित, दुःखहीन और एक लाख वर्षकी आयुवाले थे” ।। ६-७ ।।

इसके बाद भगवान्‌ वाल्मीकिने राजा युधिष्ठिरसे इस प्रकार कहा--'भारत! एक समय अन्निहोत्री मुनियोंके साथ मेरा विवाद हो रहा था। उस समय उन्होंने कुपित होकर मुझे शाप दे दिया कि “तुम ब्रह्महत्यारे हो जाओ।” उनके इतना कहते ही मैं क्षणभरमें उस अधर्मसे व्याप्त हो गया। तब मैं पापरहित एवं अमोघ शक्तिवाले भगवान्‌ शंकरकी शरणमें गया। इससे मैं उस पापसे मुक्त हो गया। फिर उन दुःखनाशन त्रिपुरहन्ता रुद्रने मुझसे कहा -- तुम्हें सर्वश्रेष्ठ सुयश प्राप्त होगा” ।।

इसके बाद धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ जमदग्निनन्दन परशुरामजी ऋषियोंके बीचमें खड़े होकर सूर्यके समान प्रकाशित होते हुए वहाँ कुन्तीकुमार युधिष्ठिरसे इस प्रकार बोले-- ।। ११ 

'ज्येष्ठ पाण्डव! नरेश्वर! मैंने पितृतुल्य बड़े भाइयोंको मारकर पितृवध और ब्राह्यणवधका पाप कर डाला था। इससे मुझे बड़ा दुःख हुआ और मैं पवित्र भावसे महादेवजीकी शरणमें गया। शरणागत होकर मैंने इन्हीं नामोंसे रुद्रदेवकी स्तुति की। इससे भगवान्‌ महादेव मुझपर बहुत संतुष्ट हुए और मुझे अपना परशु एवं दिव्यास्त्र देकर बोले -- तुम्हें पाप नहीं लगेगा। तुम युद्धमें अजेय हो जाओगे। तुमपर मृत्युका वश नहीं चलेगा तथा तुम अजर-अमर बने रहोगे” || १२--१४ ।।

“इस प्रकार कल्याणमय विग्रहवाले जटाधारी भगवान्‌ शिवने मुझसे जो कुछ कहा, वह सब कुछ उन ज्ञानी महेश्वरके कृपाप्रसादसे मुझे प्राप्त हो गया” ।। १५ ।।

तदनन्तर विश्वामित्रजीने कहा, 'राजन्‌! जिस समय मैं क्षत्रिय था, उन दिनोंकी बात है, मेरे मनमें यह दृढ़ संकल्प हुआ कि मैं ब्राह्मण हो जाऊँ--यही उद्देश्य लेकर मैंने भगवान्‌ शंकरकी आराधना की। और उनकी कृपासे मैंने अत्यन्त दुर्लभ ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया' || १६३६ ||

तत्पश्चात्‌ असित देवलने पाण्डुकुमार राजा युधिष्ठिर्से कहा--“कुन्तीनन्दन! प्रभो! इन्द्रके शापसे मेरा धर्म नष्ट हो गया था; किंतु भगवान्‌ शंकरने ही मुझे धर्म, उत्तम यश तथा दीर्घ आयु प्रदान की” ।।

इसके बाद इन्द्रके प्रिय सखा और बृहस्पतिके समान तेजस्वी मुनिवर भगवान्‌ गृत्समदने अजमीढवंशी युधिष्ठिरसे कहा-- ।। १९ ।।

“चाक्षुष मनुके पुत्र भगवान्‌ वरिष्ठके नामसे प्रसिद्ध हैं। एक समय अचिन्त्य शक्तिशाली शतक्रतु इन्द्रका एक यज्ञ हो रहा था जो एक हजार वर्षोतक चलनेवाला था। उसमें मैं रथन्तर सामका पाठ कर रहा था। मेरे द्वारा उस सामका उच्चारण होनेपर वरिष्ठने मुझसे कहा-- द्विज श्रेष्ठ! तुम्हारे द्वारा रथन्तर सामका पाठ ठीक नहीं हो रहा है || २०-२१ ।।

“विप्रवर! तुम पापपूर्ण आग्रह छोड़कर फिर अपनी बुद्धिसे विचार करो। सुदुर्मते! तुमने ऐसा पाप कर डाला है, जिससे यह यज्ञ ही निष्फल हो गया' ।।

"ऐसा कहकर महाक्रोधी वरिष्ठने भगवान्‌ शंकरकी ओर देखते हुए फिर कहा--“तुम म्यारह हजार आठ सौ वर्षोतक जल और वायुसे रहित तथा अन्य पशुओंसे परित्यक्त केवल रुरु तथा सिंहोंसे सेवित जो यज्ञोंके लिये उचित नहीं है--ऐसे वृक्षोंसे भरे हुए विशालवनमें बुद्धिशून्य, दुखी, सर्वदवा भयभीत, वनचारी और महान्‌ कष्टमें मग्न क्रूर स्वभाववाले पशु होकर रहोगे” || २३--२५ ।।

“कुन्तीनन्दन! उनका यह वाक्य पूरा होते ही मैं क्रूर पशु हो गया। तब मैं भगवान्‌ शंकरकी शरणमें गया। अपनी शरणमें आये हुए मुझ सेवकसे योगी महेश्वर इस प्रकार बोले -- || २६ ||

“मुने! तुम अजर-अमर और दुःखरहित हो जाओगे। तुम्हें मेरी समानता प्राप्त हो और तुम दोनों यजमान और पुरोहितका यह यज्ञ सदा बढ़ता रहे” || २७ ।।

“इस प्रकार सर्वव्यापी भगवान्‌ शंकर सबके ऊपर अनुग्रह करते हैं। ये ही सबका अच्छे ढंगसे धारण-पोषण करते हैं और सर्वदा सबके सुख-दुःखका भी विधान करते हैं” || २८ ।।

“तात! समरभूमिके श्रेष्ठ वीर! ये अचिन्त्य भगवान्‌ शिव मन, वाणी तथा क्रियाद्वारा आराधना करने योग्य हैं। उनकी आराधनाका ही यह फल है कि पाण्टडित्यमें मेरी समानता करनेवाला आज कोई नहीं है” ।। २९ ।।

उस समय बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ भगवान्‌ श्रीकृष्ण फिर इस प्रकार बोले--“मैंने सुवर्ण-जैसे नेत्रवाले महादेवजीको अपनी तपस्यासे संतुष्ट किया ।। ३० ।।

“युधिष्ठिर! तब भगवान्‌ शिवने मुझसे प्रसन्नता-पूर्वक कहा--'श्रीकृष्ण! तुम मेरी कृपासे प्रिय पदार्थोकी अपेक्षा भी अत्यन्त प्रिय होओगे। युद्धमें तुम्हारी कभी पराजय नहीं होगी तथा तुम्हें अग्निके समान दुस्सह तेजकी प्राप्ति होगी” |। ३१३ ।।

“इस तरह महादेवजीने मुझे और भी सहस्रों वर दिये। पूर्वकालमें अन्य अवतारोंके समय मणिमन्थ पर्वतपर मैंने लाखों-करोड़ों वर्षोतफक भगवान्‌ शंकरकी आराधना की थी ।। ३२-३३ ।।

“इससे प्रसन्न होकर भगवानने मुझसे कहा--“कृष्ण! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे मनसें जैसी रुचि हो, उसके अनुसार कोई वर माँगो” ।। ३४ ।।

“यह सुनकर मैंने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और कहा--“यदि मेरी परम भक्तिसे भगवान्‌ महादेव प्रसन्न हों तो ईशान! आपके प्रति नित्य-निरन्तर मेरी स्थिर भक्ति बनी रहे।' तब “एवमस्तु"” कहकर भगवान्‌ शिव वहीं अन्तर्धान हो गये” || ३५-३६ ।।

जैगीषव्य बोले--युधिष्ठिर! पूर्वकालमें भगवान्‌ शिवने काशीपुरीके भीतर अन्य प्रबल प्रयत्नसे संतुष्ट हो मुझे अणिमा आदि आठ सिद्धियाँ प्रदान की थीं ।। ३७ ।।

गर्गने कहा--पाण्डुनन्दन! मैंने सरस्वतीके तटपर मानस यज्ञ करके भगवान्‌ शिवको संतुष्ट किया था। इससे प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे चौंसठ कलाओंका अदभुत ज्ञान प्रदान किया। मुझे मेरे ही समान एक सहसखतर ब्रह्मवादी पुत्र दिये तथा पुत्रोंसहित मेरी दस लाख वर्षकी आयु नियत कर दी ।। ३८-३९ ।।

पराशरजीने कहा--नरेश्वर! पूर्वकालमें यहाँ मैंने महादेवजीको प्रसन्न करके मन-हीमन उनका चिन्तन आरम्भ किया। मेरी इस तपस्याका उद्देश्य यह था कि मुझे महेश्वरकी कृपासे महातपस्वी, महातेजस्वी, महायोगी, महायशस्वी, दयालु, श्रीसम्पन्न एवं ब्रह्मनिष्ठ वेदव्यासनामक मनोवांछित पुत्र प्राप्त हो || ४०-४१ ।।

मेरा ऐसा मनोरथ जानकर सुरश्रेष्ठ शिवने मुझसे कहा--'मुने! तुम्हारी मेरे प्रति जो सम्भावना है अर्थात्‌ जिस वरको पानेकी लालसा है, उसीसे तुम्हें कृष्ण नामक पुत्र प्राप्त होगा ।। ४२ ||

'सावर्णिक मन्वन्तरके समय जो सृष्टि होगी, उसमें तुम्हारा यह पुत्र सप्तर्षिके पदपर प्रतिष्ठित होगा तथा इस वैवस्वत मन्वन्तरमें वह वेदोंका वक्ता, कौरव-वंशका प्रवर्तक, इतिहासका निर्माता, जगत्‌का हितैषी तथा देवराज इन्द्रका परम प्रिय महामुनि होगा। पराशर! तुम्हारा वह पुत्र सदा अजर-अमर रहेगा।” युधिष्ठिर! ऐसा कहकर महायोगी, शक्तिशाली, अविनाशी और निर्विकार भगवान्‌ शिव वहीं अन्तर्धान हो गये ।।

माण्डव्य बोले--नरेश्वर! मैं चोर नहीं था तो भी चोरीके संदेहमें मुझे शूलीपर चढ़ा दिया गया। वहींसे मैंने महादेवजीकी स्तुति की। तब उन्होंने मुझसे कहा--“विप्रवर! तुम शूलसे छुटकारा पा जाओगे और दस करोड़ वर्षोतक जीवित रहोगे। तुम्हारे शरीरमें इस शूलके धँसनेसे कोई पीड़ा नहीं होगी। तुम आधि-व्याधिसे मुक्त हो जाओगे || ४६--४८

“मुने! तुम्हारा यह शरीर धर्मके चौथे पाद सत्यसे उत्पन्न हुआ है। अतः तुम अनुपम सत्यवादी होओगे। जाओ, अपना जन्म सफल करो ।। ४९ |।

“ब्रह्मन! तुम्हें बिना किसी विघ्न-बाधाके सम्पूर्ण तीर्थोमें सनानका सौभाग्य प्राप्त होगा। मैं तुम्हारे लिये अक्षय एवं तेजस्वी स्वर्गलोक प्रदान करता हूँ” || ५० ।।

महाराज! ऐसा कहकर कृत्तिवासा, महातेजस्वी, वृषभवाहन तथा वरणीय सुरश्रेष्ठ भगवान्‌ महेश्वर अपने गणोंके साथ वहीं अन्तर्धान हो गये ।। ५१ ह ।।

गालवजीने कहा--राजन! विश्वामित्र मुनिकी आज्ञा पाकर मैं अपने पिताजीका दर्शन करनेके लिये घरपर आया। उस समय मेरी माता वैधव्यके दुःखसे दुःखी हो जोर-जोरसे रोती हुई मुझसे बोली--'तात! अनघ! कौशिक मुनिकी आज्ञा लेकर घरपर आये हुए वेदविद्यासे विभूषित तुझ तरुण एवं जितेन्द्रिय पुत्रको तुम्हारे पिता नहीं देख सके' ।। ५२-५३ ६ |।

माताकी बात सुनकर मैं पिताके दर्शनसे निराश हो गया और मनको संयममें रखकर महादेवजीकी आराधना करके उनका दर्शन किया। उस समय वे मुझसे बोले--“वत्स! तुम्हारे पिता, माता और तुम तीनों ही मृत्युसे रहित हो जाओगे। अब तुम अपने घरमें शीघ्र प्रवेश करो। वहाँ तुम्हें पिताका दर्शन प्राप्त होगा” ।।

तात युधिष्ठिर! भगवान्‌ शिवकी आज्ञासे मैंने पुनः घर जाकर वहाँ यज्ञ करके यज्ञशालासे निकले हुए पिताका दर्शन किया। वे उस समय समिधा, कुश और वृक्षोंसे अपने-आप गिरे हुए पके फल आदि हव्य पदार्थ लिये हुए थे || ५६-५७ ।।

पाण्डुनन्दन! उन्हें देखते ही मैं उनके चरणोंमें पड़ गया; फिर पिताजीने भी उन समिधा आदि वस्तुओंको अलग रखकर मुझे हृदयसे लगा लिया और मेरा मस्तक सूँघकर नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए मुझसे कहा--“बेटा! बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम विद्वान होकर घर आ गये और मैंने तुम्हें भर आँख देख लिया” ।। ५८ | ।।

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! मुनियोंके कहे हुए महादेवजीके ये अद्भुत चरित्र सुनकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको बड़ा विस्मय हुआ। फिर बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्णने धर्मनिधि युधिष्ठिरसे उसी प्रकार कहा जैसे श्रीविष्णु देवराज इन्द्रसे कोई बात कहा करते हैं ।। ५९-६० ३ ||

भगवान्‌ श्रीकृष्ण बोले--राजन! सूर्यके समान तपते हुए-से तेजस्वी उपमन्युने मेरे समीप कहा था कि “जो पापकर्मी मनुष्य अपने अशुभ आचरणोंसे कलुषित हो गये हैं, वे तमोगुणी या रजोगुणी वृत्तिके लोग भगवान्‌ शिवकी शरण नहीं लेते हैं | ६१-६२ ।।

“जिनका अन्त:करण पवित्र है, वे ही द्विज महादेवजीकी शरण लेते हैं। जो परमेश्वर शिवका भका है, वह सब प्रकारसे बर्तता हुआ भी पवित्र अन्तःकरणवाले वनवासी मुनियोंके समान है || ६३ $ ।।

“भगवान्‌ रुद्र संतुष्ट हो जायँ तो वे ब्रह्मपद, विष्णुपद, देवताओंसहित देवेन्द्रपद अथवा तीनों लोकोंका आधिपत्य प्रदान कर सकते हैं ।। ६४ ई ।।

“तात! जो मनुष्य मनसे भी भगवान्‌ शिवकी शरण लेते हैं, वे सब पापोंका नाश करके देवताओंके साथ निवास करते हैं || ६५ ।।

“बारंबार तालाबके तटभूमिको खोद-खोदकर उन्हें चौपट कर देनेवाला और इस सारे जगत्‌को जलती आगमें झोंक देनेवाला पुरुष भी यदि महादेवजीकी आराधना करता है तो वह पापसे लिप्त नहीं होता है ।।

“समस्त लक्षणोंसे हीन अथवा सब पापोंसे युक्त मनुष्य भी यदि अपने हृदयसे भगवान्‌ शिवका ध्यान करता है तो वह अपने सारे पापोंको नष्ट कर देता है || ६७ ६ ।।

“केशव! कीट, पतंग, पक्षी तथा पशु भी यदि महादेवजीकी शरणमें आ जाया तो उन्हें भी कहीं किसीका भय नहीं प्राप्त होता है ।। ६८ $ ।।

“इसी प्रकार इस भूतलपर जो मानव महादेवजीके भक्त हैं, वे संसारके अधीन नहीं होते--यह मेरा निश्चित विचार है।' तदनन्तर भगवान्‌ श्रीकृष्णने स्वयं भी धर्मपुत्र युधिष्ठिरसे कहा-- ॥। ६९-७० ||

श्रीकृष्ण बोले--अजमीढवंशी धर्मराज! जो सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, स्वर्ग, भूमि, जल, वसु, विश्वदेव, धाता, अर्यमा, शुक्र, बृहस्पति, रुद्रणण, साध्यगण, राजा वरुण, ब्रह्मा, इन्द्र, वायुदेव, ३>कार, सत्य, वेद, यज्ञ, दक्षिणा, वेदपाठी ब्राह्मण, सोमरस, यजमान, हवनीय हविष्य, रक्षा, दीक्षा, सब प्रकारके संयम, स्वाहा, वौषट, ब्राह्मणगण, गौ, श्रेष्ठ धर्म, कालचक्र, बल, यश, दम, बुद्धिमानोंकी स्थिति, शुभाशुभ कर्म, सपप्तर्षि, श्रेष्ठ बुद्धि, मन, दर्शन, श्रेष्ठ स्पर्श, कर्मोंकी सिद्धि, ऊष्मप, सोमप, लेख, याम तथा तुषित आदि देवगण, ब्राह्मण-शरीर, दीप्तिशाली गन्धप, धूमप ऋषि, वाग्विरुद्ध और मनोविरुद्ध भाव, शुद्धभाव, निर्माण-कार्यमें तत्पर रहनेवाले देवता, स्पर्शमात्रसे भोजन करनेवाले, दर्शनमात्रसे पेय रसका पान करनेवाले, घृत पीनेवाले हैं, जिनके संकल्प करनेमात्रसे अभीष्ट वस्तु नेत्रोंके समक्ष प्रकाशित होने लगती है, ऐसे जो देवताओंमें मुख्य गण हैं, जो दूसरे-दूसरे देवता हैं, जो सुपर्ण, गन्धर्व, पिशाच, दानव, यक्ष, चारण तथा नाग हैं, जो स्थूल, सूक्ष्म, कोमल, असूक्ष्म, सुख, इस लोकके दुःख, परलोकके दु:ख, सांख्य, योग एवं पुरुषार्थोमें श्रेष्ठ मोक्षरूप परम पुरुषार्थ बताया गया है; इन सबको तुम महादेवजीसे ही उत्पन्न हुआ समझो || ७१--७७ ||

जो इस भूतलमें प्रवेश करके महादेवजीकी पूर्वकृत सृष्टिकी रक्षा करते हैं, जो समस्त जगतके रक्षक, विभिन्न प्राणियोंकी सृष्टि करनेवाले और श्रेष्ठ हैं, वे सम्पूर्ण देवता भगवान्‌ शिवसे ही प्रकट हुए हैं ।।

ऋषि-मुनि तपस्याद्वारा जिसका अन्वेषण करते हैं, उस सदा स्थिर रहनेवाले अनिर्वचनीय परम सूक्ष्म तत्त्वस्वरूप सदाशिवको मैं जीवन-रक्षाके लिये नमस्कार करता हूँ। जिन अविनाशी प्रभुकी मेरे द्वारा सदा ही स्तुति की गयी है, वे महादेव यहाँ मुझे अभीष्ट वरदान दें ।।

जो पुरुष इन्द्रियोंको वशमें करके पवित्र होकर इस स्तोत्रका पाठ करेगा और नियमपूर्वक एक मासतक अखण्डरूपसे इस पाठको चलाता रहेगा, वह अश्वमेध-यज्ञका फल प्राप्त कर लेगा ॥। ८० ।।

कुन्तीनन्दन! ब्राह्मण इसके पाठसे सम्पूर्ण वेदोंके स्वाध्यायका फल पाता है। क्षत्रिय समस्त पृथ्वीपर विजय प्राप्त कर लेता है। वैश्य व्यापारकृशलता एवं महान्‌ लाभका भागी होता है और शूद्र इहलोकमें सुख तथा परलोकमें सदगति पाता है ।। ८१ ।।

जो लोग सम्पूर्ण दोषोंका नाश करनेवाले इस पुण्यजनक पवित्र स्तवराजका पाठ करके भगवान्‌ रुद्रके चिन्तनमें मन लगाते हैं, वे यशस्वी होते हैं || ८२ ।।

भरतनन्दन! मनुष्यके शरीरमें जितने रोमकूप होते हैं, इस स्तोत्रका पाठ करनेवाला मनुष्य उतने ही हजार वर्षोतक स्वर्गमें निवास करता है || ८३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें मेघवाहनपर्वकी कथाविषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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