सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
सत्तरहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) सत्तरहवें अध्याय के श्लोक 1-182 का हिन्दी अनुवाद)
“शिवसहस्रनामस्तोत्र और उसके पाठका फल”
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--तात युधिष्ठिर! तदनन्तर ब्रह्मर्षि उपमन्युने मन और इन्द्रियोंको एकाग्र करके पवित्र हो हाथ जोड़ मेरे समक्ष वह नाम-संग्रह आदिसे ही कहना आरम्भ किया ।। १ ||
उपमन्यु बोले--मैं ब्रह्माजीके कहे हुए, ऋषियोंके बताये हुए तथा वेद-वेदाड़ोंसे प्रकट हुए नामोंद्वारा सर्वलोकविख्यात एवं स्तुतिके योग्य भगवान्की स्तुति करूँगा ।। २ ।।
इन सब नामोंका आविष्कार महापुरुषोंने किया है तथा वेदोंमें दत्तचित्त रहनेवाले महर्षि तण्डिने भक्तिपूर्वक इनका संग्रह किया है। इसलिये ये सभी नाम सत्य, सिद्ध तथा सम्पूर्ण मनोरथोंके साधक हैं। विख्यात श्रेष्ठ पुरुषों तथा तत्त्वदर्शी मुनियोंने इन सभी नामोंका यथावत््रूपसे प्रतिपादन किया है। महर्षि तण्डिने ब्रह्मलोकसे मर्त्यलोकमें इन नामोंको उतारा है; इसलिये ये सत्यनाम सम्पूर्ण जगत्में आदरपूर्वक सुने गये हैं। यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण! यह ब्रह्माजीका कहा हुआ सनातन शिव-स्तोत्र अन्य स्तोत्रोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ है और उत्तम वेदमय है। सब स्तोत्रोंमें इसका प्रथम स्थान है। यह स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला, सम्पूर्ण भूतोंके लिये हितकर एवं शुभकारक है। इसका मैं आपसे वर्णन करूँगा। आप सावधान होकर मेरे मुखसे इसका श्रवण करें। आप परमेश्वर महादेवजीके भक्त हैं; अतः इस शिवस्वरूप स्तोत्रका वरण करें || ३--६ ।।
शिवभक्त होनेके ही कारण मैं यह सनातन वेदस्वरूप स्तोत्र आपको सुनाता हूँ। महादेवजीके इस सम्पूर्ण नामसमूहका पूर्णरूपसे विस्तारपूर्वक वर्णन तो कोई कर ही नहीं सकता। कोई व्यक्ति योगयुक्त होनेपर भी भगवान् शिवकी विभूतियोंका सैकड़ों वर्षोमें भी वर्णन नहीं कर सकता। माधव! जिनके आदि, मध्य और अन्तका पता देवता भी नहीं पाते हैं, उनके गुणोंका पूर्णरूपसे वर्णन कौन कर सकता है? || ७-८ ३ ।।
परंतु मैं अपनी शक्तिके अनुसार उन बुद्धिमान् महादेवजीकी ही कृपासे संक्षिप्त अर्थ, पद और अक्षरोंसे युक्त उनके चरित्र एवं स्तोत्रका वर्णन करूँगा। उनकी आज्ञा प्राप्त किये बिना उन महेश्वरकी स्तुति नहीं की जा सकती है ।। ९-१० ।।
जब उनकी जअज्ञा प्राप्त हुई है, तभी मैंने उनकी स्तुति की है। आदि-अन्तसे रहित तथा जगतके कारणभूत अव्यक्तयोनि महात्मा शिवके नामोंका कुछ संक्षिप्त संग्रह मैं बता रहा हूँ।। ११६ |।
श्रीकृष्ण! जो वरदायक, वरेण्य (सर्वश्रेष्ठ), विश्वरूप और बुद्धिमान् हैं, उन भगवान् शिवका पद्ययोनि ब्रह्माजीके द्वारा वर्णित नाम-संग्रह श्रवण करो ।।
प्रपितामह ब्रह्माजीने जो दस हजार नाम बताये थे, उन्हींको मनरूपी मथानीसे मथकर मथे हुए दहीसे घीकी भाँति यह सहख्रनामस्तोत्र निकाला गया है ।।
जैसे पर्वतका सार सुवर्ण, फ़ूलका सार मधु और घीका सार मण्ड है, उसी प्रकार यह दस हजार नामोंका सार उद्धृत किया गया है ।। १४६ ।।
यह सहस्नाम सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाला और चारों वेदोंके समन्वयसे युक्त है। मनको वशभमें करके प्रयत्नपूर्वक इसका ज्ञान प्राप्त करे और सदा अपने मनमें इसको धारण करे। यह मंगलजनक, पुष्टिकारक, राक्षसोंका विनाशक तथा परम पावन है ।।
जो भक्त हो, श्रद्धालु और आस्तिक हो, उसीको इसका उपदेश देना चाहिये। अश्रद्धालु, नास्तिक और अजितात्मा पुरुषको इसका उपदेश नहीं देना चाहिये ।।
श्रीकृष्ण! जो जगत्के कारणरूप ईश्वर महादेवके प्रति दोषदृष्टि रखता है, वह पूर्वजों और अपनी संतानके सहित नरकमें पड़ता है ।। १८ ।।
यह सहसखनामस्तोत्र ध्यान है, यह योग है, यह सर्वोत्तम ध्येय है, यह जपनीय मन्त्र है, यह ज्ञान है और यह उत्तम रहस्य है ।। १९ ।।
जिसको अन्तकालमें भी जान लेनेपर मनुष्य परमगतिको पा लेता है, वह यह सहस्रनामस्तोत्र परम पवित्र, मंगलकारक, बुद्धिवर्द्धश, कल्याणमय तथा उत्तम है। सम्पूर्ण लोकोंके पितामह ब्रह्माजीने पूर्वकालमें इस स्तोत्रका आविष्कार करके इसे समस्त दिव्यस्तोत्रोंके राजाके पदपर प्रतिष्ठित किया था। तबसे महात्मा ईश्वर महादेवका यह देवपूजित स्तोत्र संसारमें 'स्तवराज” के नामसे विख्यात हुआ || २०--२२ |।
ब्रह्मलोकसे यह स्तवराज स्वर्गलोकमें उतारा गया। पहले इसे तण्डिमुनिने प्राप्त किया था, इसलिये यह “तण्डिकृत सहसख्ननामस्तवराज' के रूपमें प्रसिद्ध हुआ ।।
तण्डिने स्वर्गसे उसे इस भूतलपर उतारा था। यह सम्पूर्ण मंगलोंका भी मंगल तथा समस्त पापोंका नाश करनेवाला है। महाबाहो! सब स्तोत्रोंमें उत्तम इस सहसख्रनामस्तोत्रका मैं आपसे वर्णन करूँगा ।। २४३ ।।
जो वेदोंके भी वेद, उत्तम वस्तुओंमें भी परम उत्तम, तेजके भी तेज, तपके भी तप, शान्त पुरुषोंमें भी परम शान्त, कान्तिकी भी कान्ति, जितेन्द्रियोंमें भी परम जितेन्द्रिय, बुद्धिमानोंकी भी बुद्धि, देवताओंके भी देवता, ऋषियोंके भी ऋषि, यज्ञोंके भी यज्ञ, कल्याणोंके भी कल्याण, रुद्रोंके भी रुद्र, प्रभावशाली ईश्वरोंकी भी प्रभा (ऐश्वर्य), योगियोंके भी योगी तथा कारणोंके भी कारण हैं। जिनसे सम्पूर्ण लोक उत्पन्न होते और फिर उन्हींमें विलीन हो जाते हैं, जो सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा हैं, उन्हीं अमित तेजस्वी भगवान् शिवके एक हजार आठ नामोंका वर्णन मुझसे सुनिये। पुरुषसिंह! इसका श्रवणमात्र करके आप अपनी सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेंगे || २५--३० ।।
१ स्थिर:--चंचलतारहित, कूटस्थ एवं नित्य, २ स्थाणु:--गृहके आधारभूत खम्भके समान समस्त जगत्के आधारस्तम्भ, ३ प्रभु:--समर्थ ईश्वर, ४ भीम:--संहारकारी होनेके कारण भयंकर, ५ प्रवर:--सर्वश्रेष्ठ, ६ वरद:--अभीष्ट वर देनेवाले, ७ वर:--वरण करने योग्य, वरस्वरूप, ८ सर्वात्मा--सबके आत्मा, ९ सर्वविख्यातः:--सर्वत्र प्रसिद्ध, १० सर्व: --विश्वात्मा होनेके कारण सर्वस्वरूप, ११ सर्वकर:--सम्पूर्ण जगत्के स्रष्टा, १२ भव:-सबकी उत्पत्तिके स्थान ।। ३१ ।।
१३ जटी--जटाधारी, १४ चर्मी--व्याप्रचर्म धारण करनेवाले, १५ शिखण्डी-शिखाधारी, १६ सर्वाज्र:--सम्पूर्ण अंगोंसे सम्पन्न, १७ सर्वभावन:--सबके उत्पादक, १८ हरः--पापहारी, १९ हरिणाक्ष:--मृगके समान विशाल नेत्रवाले, २० सर्वभूतहर:-सम्पूर्ण भूतोंका संहार करनेवाले, २१ प्रभु:--स्वामी ।।
२२ प्रवृत्ति:--प्रवृत्तिमार्ग, २३ निवृत्ति:--निवृत्तिमार्ग, २४ नियत:--नियमपरायण, २५ शाश्वतः--नित्य, २६ ध्रुट--अचल, २७ श्मशानवासी--श्मशानभूमिमें निवास करनेवाले, २८ भगवान्--सम्पूर्ण ऐश्वर्य, ज्ञान, यज्ञ, श्री, वैराग्य और धर्मसे सम्पन्न, २९ खचर:--आकाशमें विचरनेवाले, ३० गोचर:--पृथ्वीपर विचरनेवाले, ३१ अर्दन:-पापियोंको पीड़ा देनेवाले || ३३ ।।
३२ अभिवाद्य:--नमस्कारके योग्य, ३३ महाकर्मा-महान् कर्म करनेवाले, ३४ तपस्वी--तपस्यामें संलग्न, ३५ भूतभावन:--संकल्पमात्रसे आकाश आदि भूतोंकी सृष्टि करनेवाले, ३६ उन्मत्तवेषप्रच्छन्न:--उन्मत्त वेषमें छिपे रहनेवाले, ३७ सर्वलोकप्रजापति: --सम्पूर्ण लोकोंकी प्रजाओंके पालक ।। ३४ ।।
३८ महारूप:--महान् रूपवाले, ३९ महाकाय:--विराट्रूप, ४० वृषरूप:-धर्मस्वरूप, ४१ महायशा:--महान् यशस्वी, ४२ महात्मा--, ४३ सर्वभूतात्मा--सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा, ४४ विश्वरूप:--सम्पूर्ण विश्व जिनका रूप है वे, ४५ महाहनु:--विशाल ठोढ़ीवाले ।। ३५ ।।
४६ लोकपाल:--लोकरक्षक, ४७ अन्तर्हितात्मा--अदृश्य स्वरूपवाले, ४८ प्रसाद: --प्रसन्नतासे परिपूर्ण, ४९ हयगर्दभि:--खच्चर जुते रथपर चलनेवाले, ५० पवित्रम्—शुद्ध वस्तुरूप, ५१ महान--पूजनीय, ५२ नियम:--शौच-संतोष आदि नियमोंके पालनसे प्राप्त होने योग्य, ५३ नियमाश्रित:--नियमोंके आश्रयभूत ।। ३६ ।।
५४ सर्वकर्मा--सारा जगत् जिनका कर्म है वे, ५५ स्वयम्भूत:--नित्यसिद्ध, ५६ आदि:--सबसे प्रथम, ५७ आदिकर:--आदि पुरुष हिरण्यगर्भकी सृष्टि करनेवाले, ५८ निधि:--अक्षय ऐश्वर्यके भण्डार, ५९ सहस्राक्ष:--सहस्रों नेत्रवाले, ६० विशालाक्ष:-विशाल नेत्रवाले, ६१ सोम:--चन्द्रस्वरूप, ६२ नक्षत्रसाधक:--नक्षत्रोंक साधक ।। ३७ ।।
६३ चन्द्र:--चन्द्रमारूपसे आह्वादकारी, ६४ सूर्य:--सबकी उत्पत्तिके हेतुभूत सूर्य, ६५ शनि:--, ६६ केतु:--, ६७ ग्रह:--चन्द्रमा और सूर्यपर ग्रहण लगानेवाला राहु, ६८ ग्रहपति:--ग्रहोंक पालक, ६९ वर:--वरणीय, ७० अबत्रि:--अत्रि ऋषिस्वरूप, ७१ अत्र्या नमस्कर्ता--अत्रिपत्नी अनसूयाको दुर्वासारूपसे नमस्कार करनेवाले, ७२ मृगबाणार्पण: --मृगरूपधारी यज्ञपर बाण चलानेवाले, ७३ अनघ:--पापरहित ।। ३८ ।।
७४ महातपा:--महान् तपस्वी, ७५ घोरतपा:--भयंकर तपस्या करनेवाले, ७६ अदीन:--उदार, ७७ दीनसाधक:--शरणमें आये हुए दीन-दुखियोंका मनोरथ सिद्ध करनेवाले, ७८ संवत्सरकर:--संवत्सरका निर्माता, ७९ मन्त्र:--प्रणव आदि मन्त्ररूप, ८० प्रमाणम्--प्रमाणस्वरूप, ८१ परमं तपः--उत्कृष्ट तप:स्वरूप || ३९ ।।
८२ योगी--योगनिष्ठ, ८३ योज्य:--मनोयोगके आश्रय, ८४ महाबीज:--महान् कारणरूप, ८५ महारेता:--महावीर्यशाली, ८६ महाबल:--महान् शक्तिसे सम्पन्न, ८७ सुवर्णरेता:--अग्निरूप, ८८ सर्वज्ञ:--सब कुछ जाननेवाले, ८९ सुबीज:--उत्तम बीजरूप, ९० बीजवाहन:--जीवोंके संस्काररूप बीजको वहन करनेवाले || ४० ।।
९१ दशबाहु:--दस भुजाओंसे युक्त, ९२ अनिमिष:--कभी पलक न गिरानेवाले, ९३ नीलकण्ठ:--जगत्की रक्षाके लिये हालाहल विषका पान करके उसके नील चिह्नको कष्टमें धारण करनेवाले, ९४ उमापति:--गिरिराजकुमारी उमाके पतिदेव, ९५ विश्वरूप: --जगत्स्वरूप, ९६ स्वयं श्रेष्ठ:--स्वतःसिद्ध श्रेष्ठतासे सम्पन्न, ९७ बलवीर:--बल के द्वारा वीरता प्रकट करनेवाले, ९८ अबलो गण:--निर्बल समुदायरूप ।। ४१ ।।
९९ गणकर्ता-अपने पार्षदगणोंका संघटन करनेवाले, १०० गणपति:-प्रमथगणोंके स्वामी, १०१ दिग्वासा:--दिगम्बर, १०२ काम:--कमनीय, १०३ मन्त्रवित् --मन्त्रवेत्ता, १०४ परमो मन्त्र:--उत्कृष्ट मन्त्रूप, १०५ सर्वभावकर:--समस्त पदार्थोंकी सृष्टि करनेवाले, १०६ हर:--दुःख हरण करनेवाले ।। ४२ ।।
१०७ कमण्डलुधर:--एक हाथमें कमण्डलु धारण करनेवाले, १०८ धन्वी--दूसरे हाथमें धनुष धारण करनेवाले, १०९ बाणहस्त:--तीसरे हाथमें बाण लिये रहनेवाले, ११० कपालवान्--चौथे हाथमें कपालधारी, १११ अशनी--पाँचवें हाथमें वज्ञ धारण करनेवाले, ११२ शतघ्नी--छठे हाथमें शतघ्नी रखनेवाले, ११३ खड़्गी--साततेंमें खड्गधारी, ११४ पट्टिशी--आठवेंमें पट्टिश धारण करनेवाले, ११५ आयुधी--नवें हाथमें अपने सामान्य आयुध त्रिशूलको लिये रहनेवाले, ११६ महान्--सर्वश्रेष्ठ || ४३ ।।
११७ ख्रुवहस्त:--दसवें हाथमें खुवा धारण करनेवाले, ११८ सुरूप:--सुन्दर रूपवाले, ११९ तेज:--तेजस्वी, १२० तेजस्करो निधि:--भक्तोंके तेजकी वृद्धि करनेवाले निधिरूप, १२१ उष्णीषी--सिरपर साफा धारण करनेवाले, १२२ सुवक्त्र:--सुन्दर मुखवाले, १२३ उदग्र:--ओजस्वी, १२४ विनत:--विनयशील ।। ४४ ।।
१२५ दीर्घ:--ऊँचे कदवाले, १२६ हरिकेश:--ब्रह्मा, विष्णु, महेशस्वरूप, १२७ सुतीर्थ:--उत्तम तीर्थस्वरूप, १२८ कृष्ण:--सच्चिदानन्दस्वरूप, १२९ शृगालरूप:-सियारका रूप धारण करनेवाले, १३० सिद्धार्थ:--जिनके सभी प्रयोजन सिद्ध हैं, १३१ मुण्ड:--मूँड मुड़ाये हुए, भिक्षुस्वरूप, १३२ सर्वशुभंकर:--समस्त प्राणियोंका हित करनेवाले ।। ४५ ।।
१३३ अज:--अजन्मा, १३४ बहुरूप:--बहुत-से रूप धारण करनेवाले, १३५ गन्धधारी--कुंकुम और कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थ धारण करनेवाले, १३६ कपर्दी-जटाजूटधारी, १३७ ऊर्ध्वरेता:--अखण्डित ब्रह्मचर्यवाले, १३८ ऊर्ध्वलिङ्ग: --, १३९ ऊर्ध्वशायी--आकाशमें शयन करनेवाले, १४० नभ: स्थलः--आकाश जिनका वासस्थान है वे ।।
१४१ त्रिजटी--तीन जटा धारण करनेवाले, १४२ चीरवासा:--वल्कल वस्त्र पहननेवाले, १४३ रुद्र:--दुःखको दूर भगानेवाले, १४४ सेनापति:--सेनानायक, १४५ विभु:--सर्वव्यापी, १४६ अहश्नर:--दिनमें विचरनेवाले, १४७ नक्तंचर:--रातमें विचरनेवाले, १४८ तिग्ममन्यु:--तीखे क्रोधवाले, १४९ सुवर्चसः--सुन्दर तेजवाले || ४७ ।।
१५० गजहा--गजरूपधारी महान् असुरको मारनेवाले, १५१ दैत्यहा--अन्धक आदि दैत्योंका वध करनेवाले, १५२ काल:--मृत्यु अथवा संवत्सर आदि समय, १५३ लोकधाता --समस्त जगत्का धारण-पोषण करनेवाले, १५४ गुणाकर:--सदगुणोंकी खान, १५५ सिंहशार्दूलरूप:--सिंह-व्याप्र आदिका रूप धारण करनेवाले, १५६ आरद्द्रचर्माम्बरावृत: -गजासुरके गीले चर्मको ही वस्त्र बनाकर उससे अपने-आपको आच्छादित करनेवाले ।। ४८ ।।
१५७ कालयोगी--कालको भी योगबलसे जीतनेवाले, १५८ महानाद:--अनाहत ध्वनिरूप, १५९ सर्वकाम:--सम्पूर्ण कामनाओंसे सम्पन्न, १६० चतुष्पथ:--जिनकी प्राप्तिके ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग और अष्टाड़योग--ये चार मार्ग हैं वे महादेव, १६१३ निशाचर:--रात्रिके समय विचरनेवाले, १६२ प्रेतचारी--प्रेतोंके साथ विचरण करनेवाले, १६३ भूतचारी--भूतोंके साथ विचरनेवाले, १६४ महेश्वर:--इन्द्र आदि लोकेश्वरोंसे भी महान् ।।
१६५ बहुभूत:--सृष्टिकालमें एकसे अनेक होनेवाले, १६६ बहुधर:--बहुतोंको धारण करनेवाले, १६७ स्वर्भानु:--, १६८ अमित:--अनन्त, १६९ गति:--भक्तों और मुक्तात्माओंके प्राप्त होने योग्य, १७० नृत्यप्रिय:--ताण्डव नृत्य जिन्हें प्रिय है वे शिव, १७१ नित्यनर्त:--निरन्तर नृत्य करनेवाले, १७२ नर्तकः--नाचने-नचानेवाले, १७३ सर्वलालस:--सबपर प्रेम रखनेवाले ।। ५० ।।
१७४ घोर:--भयंकर रूपधारी, १७५ महातपा:--महान् तप करनेवाले, १७६ पाश: --अपनी मायारूपी पाशसे बाँधनेवाले, १७७ नित्य:--विनाशरहित, १७८ गिरिरुह:-पर्वतपर आरूढ़--कैलाशवासी, १७९ नभः--आकाशके समान असड़, १८० सहस्रहस्त:--हजारों हाथोंवाले, १८१ विजय:--विजेता, १८२ व्यवसाय:--दृढ़निश्चयी, १८३ अतन्द्रित:--आलस्यरहित ।। ५१ ।।
२१८४ अधर्षण:--अजेय, १८५ धर्षणात्मा--भयरूप, १८६ यज्ञहा--दक्षके यज्ञका विध्वंस करनेवाले, १८७ कामनाशक:--कामदेवको नष्ट करनेवाले, १८८ दक्षयागापहारी -दक्षके यज्ञका अपहरण करनेवाले, १८९--सुसह:--अति सहनशील, १९० मध्यम:-मध्यस्थ ।। ५२ |।
१९१ तेजोपहारी--दूसरोंके तेजको हर लेनेवाले, १९२ बलहा--बलनामक दैत्यका वध करनेवाले, १९३ मुदित:--आनन्दस्वरूप, १९४ अर्थ:--अर्थस्वरूप, १९५ अजित: --अपराजित, १९६ अवरः:--जिनसे श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है वे भगवान् शिव, १९७ गम्भीरघोष:--गम्भीर घोष करनेवाले, १९८ गम्भीर:-गाम्भीर्ययुक्त,. १९९ गम्भीरबलवाहन:--अगाध बलशाली वृषभपर सवारी करनेवाले ।। ५३ ।।
२०० न्यग्रोधरूप:--वटवृक्षस्वरूप, २०१ न्यग्रोध:--वटनिकटनिवासी, २०२ वृक्षकर्णस्थिति:--वटवृक्षके पत्तेपर शयन करनेवाले बालमुकुन्दरूप, २०३ विभु:-विविध रूपोंसे प्रकट होनेवाले, २०४ सुतीक्षणदशन:--अत्यन्त तीखे दाँतवाले, २०५ महाकाय:--बड़े डीलडौलवाले, २०६ महानन:--विशाल मुखवाले ।। ५४ ।।
२०७ विष्वक्सेन:--दैत्योंकी सेनाकों सब ओर भगा देनेवाले, २०८ हरि:-आपत्तियोंको हर लेनेवाले, २०९ यज्ञ:--यज्ञरूप, २१० संयुगापीडवाहन:--युद्धमें पीड़ारहित वाहनवाले, २११ तीक्ष्णताप:--दुःसह तापरूप सूर्य, २१२ हर्यश्वः--हरे रंगके घोड़ोंसे युक्त, २१३ सहाय:--जीवमात्रके सखा, २१४ कर्मकालवित्--कर्मोंके कालको ठीक-ठीक जाननेवाले ।। ५५ ।।
२१५ विष्णुप्रसादित:--भगवान् विष्णुने जिन्हें आराधना करके प्रसन्न किया था वे शिव, २१६ यज्ञ:--विष्णुस्वरूप (यज्ञो वै विष्णु:), २१७ समुद्र:--महासागररूप, २१८ वडवामुख:--समुद्रमें स्थित बड़वानलरूप, २१९ हुताशनसहाय:--अग्निके सखा वायुरूप, २२० प्रशान्तात्मा-शान्तचित्त, २२१ हुताशन:--अग्नि || ५६ ।।
२२२ उग्रतेजा:--भयंकर तेजवाले, २२३ महातेजा:--महान् तेजसे सम्पन्न, २२४ जन्य:--संसारके जन्मदाता, २२५ विजयकालवित्--विजयके समयका ज्ञान रखनेवाले, २२६ ज्योतिषामयनम्--ज्योतिषोंका स्थान, २२७ सिद्धिः--सिद्धिस्वरूप, २२८ सर्वविग्रह:--सर्वस्वरूप ।। ५७ |।
२२९ शिखी--शिखाधारी गृहस्थस्वरूप, २३० मुण्डी--शिखारहित संन््यासी, २३१ जटी--जटाधारी वानप्रस्थ, २३२ ज्वाली--अग्निकी प्रज्वलित ज्वालामें समिधाकी आहुति देनेवाले ब्रह्मचारी, २३३ मूर्तिज:--शरीर रूपसे प्रकट होनेवाले, २३४ मूर्द्धग:-मूर्द्धा--सहस्रार चक्रमें ध्येय रूपसे विद्यमान, २३५ बली--बलिष्ठ, २३६ वेणवी--वंशी बजानेवाले श्रीकृष्ण, २३७ पणवी--पणव नामक वाद्य बजानेवाले, २३८ ताली--ताल देनेवाले, २३९ खली--खलिहानके स्वामी, २४० काल-कटंकट:--यमराजके मायाको आवृत करनेवाले ।। ५८ ।।
२४१ नक्षत्रविग्रहमति:--नक्षत्र--ग्रह-तारा आदिकी गतिको जाननेवाले, २४२ गुणबुद्धि:-गुणोंमें बुद्धि लगानेवाले, २४३ लय॒ः--प्रलयके स्थान, २४४ अगम:-जाननेमें न आनेवाला, २४५ प्रजापति:--प्रजाके स्वामी, २४६ विश्वबाहु:--सब ओर भुजावाले, २४७ विभाग:--विभागस्वरूप, २४८ सर्वग:--सर्वव्यापी, २४९ अमुख:-बिना मुखवाला || ५९ ||
२५० विमोचन:--संसार-बन्धनसे छुड़ानेवाले, २५१ सुसरण:--श्रेष्ठ आश्रय, २५२ हिरण्य-कवचोद्धव:--हिरण्यगर्भकी उत्पत्तिका स्थान, २५३ मेढ़्ज:--, २५४ बलचारी --बलका संचार करनेवाले, २५५ महीचारी--सारी पृथ्वीपर विचरनेवाले, २५६ ख्रुत:-सर्वत्र पहुँचे हुए || ६० ।।
२५७ सर्वतूर्यनिनादी--सब प्रकारके बाजे बजानेवाले, २५८ सर्वातोद्यपरिग्रह:-सम्पूर्ण वाद्योंका संग्रह करनेवाले, २५९ व्यालरूप:--शेषनागस्वरूप, २६० गुहावासी-सबकी हृदयगुफामें निवास करनेवाले, २६१ गुहः--कार्तिकेयस्वरूप, २६२ माली-मालाधारी, २६३ तरज्भवित्--क्षुधा-पिपासा आदि छहों ऊर्मियोंके ज्ञाता साक्षी || ६१ ।।
२६४ त्रिदश:--प्राणियोंकी तीन दशाओं--जन्म, स्थिति और विनाशके हेतुभूत, २६५ त्रिकालधूकू--भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालोंको धारण करनेवाले, २६६ कर्मसर्वबन्धविमोचन:--कर्मोके समस्त बन्धनोंको काटनेवाले, २६७ असुरेन्द्राणां बन्धन:--बलि आदि असुरपतियोंको बाँध लेनेवाले, २६८ युधिशत्रुविनाशन:--युद्धमें शत्रुओंका विनाश करनेवाले || ६२ ।।
२६९ सांख्यप्रसाद:--आत्मा और अनात्माके विवेकरूप सांख्यज्ञानसे प्रसन्न होनेवाले, २७० दुर्वासा:--अत्रि और अनसूयाके पुत्र रुद्रावतार दुर्वासा मुनि, २७१ सर्वसाधुनिषेवित:--समस्त साधुपुरुषोंद्वारा सेवित, २७२ प्रस्कन्दन:--ब्रह्मादिको भी स्थानभ्रष्ट करनेवाले, २७३ विभागज्ञ:--प्राणियोंके कर्म और फलोंके विभागको यथोचितरूपसे जाननेवाले, २७४ अतुल्य:--तुलनारहित, २७५ यज्ञविभागवित्-यज्ञसम्बन्धी हविष्यके विभिन्न भागोंका ज्ञान रखनेवाले ।। ६३ ।।
२७६ सर्ववास:--सर्वत्र निवास करनेवाले, २७७ सर्वचारी--सर्वत्र विचरनेवाले, २७८ दुर्वासा:--अनन्त और अपार होनेके कारण जिनको वस्त्रसे आच्छादित करना दुर्लभ है, २७९ वासव:--इन्द्रस््वरूप, २८० अमर:--अविनाशी, २८१ हैम:--हिमसमूह-हिमालयरूप, २८२ हेमकर:--सुवर्णके उत्पादक, २८३ अयज्ञ:--कर्मरहित, २८४ सर्वधारी--सबको धारण करनेवाले, २८५ धरोत्तम:--धारण करनेवालोंमें सबसे उत्तम-अखिल ब्रह्माण्डको धारण करनेवाले ।। ६४ ।।
२८६ लोहिताक्ष:--रक्तनेत्र, २८७ महाक्ष:--बड़े नेत्रवाले, २८८ विजयाक्ष:-विजयशील रथवाले, २८९ विशारद:--विद्वानू, २९० संग्रह:--संग्रह करनेवाले, २९१ निग्रह:--उद्दण्डोंको दण्ड देनेवाले, २९२ कर्ता-सबके उत्पादक, २९३ सर्पचीरनिवासन:--सर्पमय चीर धारण करनेवाले ।। ६५ ।।
२९४ मुख्य:--सर्वश्रेष्ठ २९५ अमुख्य:--जिससे बढ़कर मुख्य दूसरा कोई न हो वह, २९६ देह:--देहस्वरूप, २९७ काहलि:--काहल नामक वाद्यविशेषको बजानेवाले, २९८ सर्वकामद:--सम्पूर्ण कामनाओंके दाता, २९९ सर्वकालप्रसाद:--सर्वदा कृपा करनेवाले, ३०० सुबल:--उत्तम बलसे सम्पन्न, ३०१ बलरूपधृकू--बल और रूपके आधार, ३०२ सर्वकामवर:--सम्पूर्ण कमनीय पदार्थोंमें श्रेष्ठ--मोक्षस्वरूप, ३०३ सर्वद:--सब कुछ देनेवाले, ३०४ सर्वतोमुख:--सब ओर मुखवाले, ३०५ आकाशनिर्विरूप:--आकाशकी भाँति जिनसे नाना प्रकारके रूप प्रकट होते हैं वे, ३०६ निपाती--पापियोंको नरकमें गिरानेवाले, ३०७ अवश:--जिनके ऊपर किसीका वश नहीं चलता वे, ३०८ खग:-आकाशगामी ।। ६६-६७ ।।
३०९ रौद्ररूप:--भयंकर रूपधारी, ३१० अंशु:--किरणस्वरूप, ३११ आदित्य:-अदितिपुत्र, ३१२ बहुरश्मि:--असंख्य किरणोंवाले, सूर्यरूप, ३१३ सुवर्चसी--उत्तम तेजसे सम्पन्न, ३१४ वसुवेग:--वायुके समान वेगवाले, ३१५ महावेग:--वायुसे भी अधिक वेगशाली, ३१६ मनोवेग:--मनके समान वेगवाले, ३१७ निशाचर:-ात्रिमें विचरनेवाले ।। ६८ ।।
३१८ सर्ववासी--सम्पूर्ण प्राणियोंमें आत्मारूपसे निवास करनेवाले, ३१९ श्रियावासी--लक्ष्मीके साथ निवास करनेवाले विष्णुरूप, ३२० उपदेशकर:-जिज्ञासुओंको तत्त्वका और काशीमें मरे हुए जीवोंको तारकमन्त्रका उपदेश करनेवाले, ३२१ अकर:-कर्तवृत्वकेक अभिमानसे रहित, ३२२ मुनि:--मननशील, ३२३ आत्मनिरालोक:--देह आदिकी उपाधिसे अलग होकर आलोचना करनेवाले, ३२४ सम्भग्न:--सम्यक् रूपसे सेवित, ३२५ सहसत्रद:--हजारोंका दान करनेवाले ।। ६९ |।
३२६ पक्षी--गरुड़रूपधारी, ३२७ पक्षरूप:--शुक्लपक्षस्वरूप, ३२८ अतिदीप्त:-अत्यन्त तेजस्वी, ३२९ विशाम्पति:--प्रजाओंके स्वामी, ३३० उन्माद:--प्रेममें उन्मत्त, ३३१ मदन:--कामदेवरूप, ३३२ काम:--कमनीय विषय, ३३३ अभ्वृत्थ:--संसारवृक्षरूप, ३३४ अर्थकर:--धन आदि देनेवाले, ३३५ यश:--यशस्वरूप || ७० ||
३३६ वामदेव:--वामदेव ऋषिस्वरूप, ३३७ वाम:--पापियोंके प्रतिकूल, ३३८ प्राक् --सबके आदि, ३३९ दक्षिण:--कुशल, ३४० वामन:--बलिको बाँधनेवाले वामन रूपधारी, ३४१ सिद्धयोगी--सनत्कुमार आदि सिद्ध महात्मा, ३४२ महर्षि:--वसिष्ठ आदि, ३४३. सिद्धार्थ--आप्तकाम, ३४४ सिद्धसाधक:--सिद्ध और साधकरूप || ७१ |।
३४५ भिक्षु:--संन्यासी, ३४६ भिक्षुरूप:--श्रीराम-कृष्ण आदिकी बालछविका दर्शन करनेके लिये भिक्षुरूप धारण करनेवाले, ३४७ विपण:--व्यवहारसे अतीत, ३४८ मृदु:-कोमल स्वभाववाले, ३४९ अव्यय:--अविनाशी, ३५० महासेन:--देव-सेनापति कार्तिकेयरूप, ३५१ विशाख:--कार्तिकेयके सहायक, ३५२ षष्टिभाग:--प्रभव आदि साठ भागोंमें विभक्त संवत्सररूप, ३५३ गवाम्पति:--इन्द्रियोंके स्वामी || ७२ ।।
३५४ वज्हस्त:--हाथमें वज्ञ धारण करनेवाले इन्द्ररूप, ३५५ विष्कम्भी-विस्तारयुक्त, ३५६ चमूस्तम्भन:--दैत्यसेनाको स्तब्ध करनेवाले, ३५७ वृत्तावृत्तकर:-युद्धमें रथके द्वारा मण्डल बनाना वृत्त कहलाता है और शत्रुसेनाको विदीर्ण करके अक्षत शरीरसे लौट आना आवृत्त कहलाता है। इन दोनोंको कुशलतापूर्वक करनेवाले, ३५८ ताल: --संसारसागरके तल प्रदेश--आधार-स्थान अर्थात् शुद्ध ब्रह्मको जाननेवाले, ३५९ मधु: --वसन्त ऋतुरूप, ३६० मधुकलोचन:--मधुके समान पिंगल नेत्रवाले || ७३ ।।
३६१ वाचस्पत्य:--पुरोहितका काम करनेवाले, ३६२ वाजसन:--शुक््ल यजुर्वेदकी माध्यन्दिनी शाखाके प्रवर्तक, ३६३ नित्यमाश्रमपूजित:--सदा आश्रमोंद्वारा पूजित होनेवाले, ३६४ ब्रह्मचारी--ब्रह्मनिष्ठ ३६७५ लोकचारी--सम्पूर्ण लोकोंमें विचरनेवाले, ३६६ सर्वचारी--सर्वत्र गमन करनेवाले, ३६७ विचारवित्--विचारोंके ज्ञाता || ७४ ।।
३६८ ईशान:--नियन्ता, ३६९ ईश्वर:--सबके शासक, ३७० काल:--कालस्वरूप, ३७१ निशाचारी--प्रलयकालकी रातमें विचरनेवाले, ३७२ पिनाकवान्--पिनाक नामक धनुष धारण करनेवाले, ३७३ निमित्तस्थ:--अन्तर्यामी, ३७४ निमित्तम--निमित्त कारणरूप, ३७५ नन्दि:--ज्ञानसम्पत्तिरूप, ३७६ नन्दिकर:--ज्ञानरूपीसम्पत्ति देनेवाले, ३७७ हरि:--विष्णुस्वरूप ।।
३७८ नन्दीश्वर:--नन्दी नामक पार्षदके स्वामी, ३७९ नन्दी--नन्दी नामक गणरूप, ३८० नन्दन:--परम आनन्द प्रदान करनेवाले, ३८१ नन्दिवर्द्धन:--समृद्धि बढ़ानेवाले, ३८२ भगहारी--ऐश्वर्यका अपहरण करनेवाले, ३८३ निहन्ता--मृत्युरूपसे सबको मारनेवाले, ३८४ काल:--चौंसठ कलाओंके निवासस्थान, ३८५ ब्रह्मा--लोकसष्टा ब्रह्मा, ३८६ पितामह:--प्रजापतिके भी पिता ।। ७६ ।।
३८७ चतुर्मुख:--चार मुखवाले, ३८८ महालिज्ग:--महालिंगस्वरूप, ३८९ चारुलिड्र:--रमणीय वेषधारी, ३९० लिड्राध्यक्ष:--प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंके अध्यक्ष, ३९१ सुराध्यक्ष:--देवताओंके अधिपति, ३९२ योगाध्यक्ष:--योगके अध्यक्ष, ३९३ युगावह:-चारों युगोंके निर्वाहक ।। ७७ ।।
३९४ बीजाध्यक्ष:--कारणोंके अध्यक्ष, ३९५ बीजकर्ता--कारणोंके उत्पादक, ३९६ अध्यात्मानुगत:--अध्यात्मशास्त्रका अनुसरण करनेवाले, ३९७ बल:--बलवान्, ३९८ इतिहास:--महाभारत आदि इतिहासरूप, ३९९ सकल्प:--कल्प--यज्ञोंके प्रयोग और विधिके विचारके साथ मीमांसा और न्यायका समूह, ४०० गौतमः--तर्कशास्त्रके प्रणेता मुनिस्वरूप, ४०१ निशाकर:--चन्द्रमारूप || ७८ |।
४०२ दम्भ:--शत्रुओंका दमन करनेवाले, ४०३ अदम्भ:--दम्भरहित, ४०४ वैदम्भ: --दम्भरहित पुरुषोंके आत्मीय, ४०५ वश्य:--भक्तपराधीन, ४०६ वशकर:--दूसरोंको वशमें करनेकी शक्ति रखनेवाले, ४०७ कलि:--कलि नामक युग, ४०८ लोककर्ता-जगत्की सृष्टि करनेवाले, ४०९ पशुपति:--पशुओं--जीवोंके स्वामी, ४१० महाकर्ता-- पजञ्च महाभूतादि सृष्टिकी रचना करनेवाले, ४११ अनौषध:--अन्न आदि ओषधियोंके सेवनसे रहित ।। ७९ |।
४१२ अक्षरम्--अविनाशी ब्रह्म, ४१३ परमं ब्रह्म--सर्वोत्कृष्ट परमात्मा, ४१४ बलवत्--शक्तिशाली, ४१५ शक्र:--इन्द्र, ४१६ नीति:--न्यायस्वरूप, ४१७ अनीति:-साम, दाम, दण्ड, भेदसे रहित, ४१८ शुद्धात्मा--शुद्धस्वरूप, ४१९ शुद्ध:--परम पवित्र, ४२० मान्य:--सम्मानके योग्य, ४२१ गतागत:--गमनागमनशील संसारस्वरूप || ८०
४२२ बहुप्रसाद:--भक्तोंपर अधिक कृपा करनेवाले, ४२३ सुस्वप्र:--सुन्दर स्वप्नवाले, ४२४ दर्पण:--दर्पणके समान स्वच्छ, ४२५ अमित्रजित्--बाहर-भीतरके शत्रुओंको जीतनेवाले, ४२६ वेदकार:--वेदोंका कर्ता, ४२७ मन्त्रकार:--मन्त्रोंका आविष्कार करनेवाले, ४२८ विद्वान--सर्वज्ञ, ४२९ समरमर्दन:--समरांगणमें शत्रुओंका संहार करनेवाले || ८१ ।।
४३० महामेघनिवासी--प्रलयकालिक महामेघोंमें निवास करनेवाले, ४३१ महाघोर: --प्रलय करनेवाले, ४३२ वशी--सबको वशमें रखनेवाले, ४३३ कर:--संहारकारी, ४३४ अग्निज्वाल:--अग्निकी ज्वालाके समान तेजवाले, ४३५ महाज्वाल:--अग्निसे भी महान् तेजवाले, ४३६ अतिथधूम्र:--कालाग्निरूपसे सबके दाहकालमें अत्यन्त धूम्र वर्णवाले, ४३७ हुत:--आहति पाकर प्रसन्न होनेवाले अग्निरूप, ४३८ हवि:--घी-दूध आदि हवनीय पदार्थरूप || ८२ ।।
४३९ वृषण:--कर्मफलकी वर्षा करनेवाले धर्मस्वरूप, ४४० शड्कर:-कल्याणकारी, ४४१ नित्यं वर्चस्वी--सदा तेजसे जगमगाते रहनेवाले, ४४२ धूमकेतन:-अग्निस्वरूप, ४४३ नीलः-ऋश्यामवर्ण श्रीहरि, ४४४ अड्लुब्ध:--अपने श्रीअड़के सौन्दर्यपर स्वयं ही लुभाये रहनेवाले, ४४५ शोभन:--शोभाशाली, ४४६ निरवग्रह:-प्रतिबन्धरहित ।। ८३ ।।
४४७ स्वस्तिद:--कल्याणदायक, ४४८ स्वस्तिभाव:--कल्याणमयी सत्ता, ४४९ भागी--यज्ञमें भाग लेनेवाले, ४५० भागकर:--यज्ञके हविष्यका विभाजन करनेवाले, ४५१ लघु:--शीघ्रकारी, ४५२ उत्सड्र:--संगरहित, ४५३ महाज्र:--महान् अंगवाले, ४५४ महागर्भपरायण:--हिरण्यगर्भके परम आश्रय ।। ८४ ।।
४५५ कृष्णवर्ण:--श्यामवर्ण विष्णुस्वरूप, ४५६ सुवर्ण:--उत्तम वर्णवाले, ४५७ सर्वदेहिनाम् इन्द्रियम--समस्त देहधारियोंके इन्द्रियसमुदायरूप, ४५८ महापाद:--लंबे पैरोंवाले त्रिविक्रमस्वरूप, ४५९ महाहस्त:--लंबे हाथवाले, ४६० महाकाय:--विश्वरूप, ४६१ महायशा:--महान् सुयशवाले ।। ८५ ।।
४६२ महामूर्धा--महान् मस्तकवाले, ४६३ महामात्र:--विशाल नापवाले, ४६४ महानेत्र:--विशाल नेत्रोंवाले, ४६५ निशालय:--निशा अर्थात् अविद्याके लयस्थान, ४६६ महान्तकः--मृत्युकी भी मृत्यु, ४६७ महाकर्ण:--बड़े-बड़े कानवाले, ४६८ महोष्ठ:--लंबे ओठवाले, ४६९ महाहनुः--पुष्ट एवं बड़ी ठोड़ीवाले ।। ८६ ।।
४७० महानास:--बड़ी नासिकावाले, ४७१ महाकम्बु:--बड़े कण्ठवाले, ४७२ महाग्रीव:--विशाल ग्रीवासे युक्त, ४७३ श्मशानभाक्ू--श्मशान भूमिमें क्रीडा करनेवाले ४७४ महावक्षा:--विशाल वक्ष:स्थलवाले, ४७५ महोरस्क:--चौड़ी छातीवाले, ४७६ अन्तरात्मा--सबके अन्तरात्मा, ४७७ मृगालय:--मृग-शिशुको अपनी गोदमें लिये रहनेवाले ।। ८७ ।।
४७८ लम्बन:--अनेक ब्रह्माण्डोंके आश्रय, ४७९ लम्बितोष्ठ:--प्रलयकालमें सम्पूर्ण विश्वको अपना ग्रास बनानेके लिये ओठोंको फैलाये रखनेवाले, ४८० महामाय:-महामायावी, ४८१ पयोनिधि:--क्षीरसागररूप, ४८२ महादन्त:--बड़े-बड़े दाँतवाले, ४८३ महादंष्ट:--बड़ी-बड़ी दाढ़वाले, ४८४ महाजिद्द:--विशाल जिह्दावाले, ४८५ महामुख:--बहुत बड़े मुखवाले || ८८ ।।
४८६ महानख:--बड़े-बड़े नखवाले नृसिंह, ४८७ महारोमा--विशाल रोमवाले वराहरूप, ४८८ महाकोश:--बहुत बड़े पेटवाले, ४८९ महाजट:--बड़ी-बड़ी जटावाले, ४९० प्रसन्न:--आनन्दमग्न, ४९१ प्रसाद:--प्रसन्नताकी मूर्ति, ४९२ प्रत्यय:--ज्ञानस्वरूप, ४९३ गिरिसाधन:--पर्वतको युद्धका साधन बनानेवाले ।। ८९ ।।
४९४ स्नेहन:--प्रजाओंके प्रति पिताकी भाँति स्नेह रखनेवाले, ४९५ अस्नेहन:-आसक्तिसे रहित, ४९६ अजित:--किसीसे पराजित न होनेवाले, ४९७ महामुनि:-अत्यन्त मननशील, ४९८ वृक्षाकार:--संसारवृक्षस्वरूप, ४९९ वृक्षकेतु:--वृक्षके समान ऊँची ध्वजावाले, ५०० अनलः--अग्निस्वरूप, ५०१ वायुवाहन:--वायुका वाहनके रूपमें उपयोग करनेवाले ।। ९० ।।
५०२ गण्डली--पहाड़ोंकी गुफाओंमें छिपकर रहनेवाले, ५०३ मेरुधामा--मेरुपर्वतको अपना निवासस्थान बनानेवाले, ५०४ देवाधिपति:--देवताओंके स्वामी, ५०५ अथर्वशीर्ष:--अथर्ववेद जिनका मस्तक है वे, ५०६ सामास्य:--सामवेद जिनका मुख है वे, ५०७ ऋक्सहस्रामितेक्षण:--सहस्रों ऋचाएँ जिनके नेत्र हैं || ९१ ।।
५०८ यजु:पादभुज:--यजुर्वेद जिनके हाथ-पैर हैं, ५०९ गुहु:--गोपनीयस्वरूप, ५१० प्रकाश:-- भक्तोंपर कृपा करके स्वयं ही उनके समक्ष अपनेको प्रकाशित कर देनेवाले, ५११ जड़म:--चलने-फिरनेवाले, ५१२ अमोघार्थ:--किसी वस्तुके लिये याचना करनेपर उसे अवश्य सफल बनानेवाले, ५१३ प्रसाद:--दया करके शीघ्र प्रसन्न होनेवाले, ५१४ अभिगम्य:--सुगमतासे प्राप्त होने योग्य, ५१५ सुदर्शन:--सुन्दर दर्शनवाले ।। ९२ |।
५१६ उपकार:--उपकार करनेवाले, ५१७ प्रिय:--भक्तोंके प्रेमास्पद, ५१८ सर्व:-सर्वस्वरूप, ५१९ कनक:--सुवर्णस्वरूप, ५२० काञ्चनच्छवि:--काञउ्चनके समान कमनीय कान्तिवाले, ५२१ नाभि:--समस्त भुवनका मध्यदेशरूप, ५२२ नन्दिकर:-आनन्द देनेवाले, ५२३ भावः--श्रद्धा-भक्तिस्वरूप, ५२४ पुष्करस्थपति:--ब्रह्माण्डरूपी पुष्करका निर्माण करनेवाले, ५२५ स्थिर:--स्थिरस्वरूप ।।
५२६ द्वादश:--ग्यारह रुद्रोंसे श्रेष्ठ बारहवें रुद्र, ५२७ त्रासन:--संहारकारी होनेके कारण भयजनक, ५२८ आद्यः--सबके आदि कारण, ५२९ यज्ञ:--यज्ञपुरुष, ५३० यज्ञसमाहित:--यज्ञमें उपस्थित रहनेवाले, ५३१ नक्तम्--प्रलयकालकी रात्रिस्वरूप, ५३२ कलि:--कलिके स्वरूप, ५३३ काल:--सबको अपना ग्रास बनानेवाले कालरूप, ५३४ मकर:--मकराकार शिशुमार चक्र, ५३५ कालपूजितः--काल अर्थात् मृत्युके द्वारा पूजित || ९४ ।।
५३६ सगण:--प्रमथ आदि गणोंसे युक्त, ५३७ गणकार:--बाणासुर आदि भक्तोंको अपने गणमें सम्मिलित करनेवाले, ५३८ भूतवाहनसारथि:--्रिपुर-विनाशके लिये समस्त प्राणियोंके योगक्षेमका निर्वाह करनेवाले ब्रह्माजीको सारथि बनानेवाले, ५३९ भस्मशय:-भस्मपर शयन करनेवाले, ५४० भस्मगोप्ता--भस्मद्वारा रक्षा करनेवाले, ५४१ भस्मभूतः --भस्मस्वरूप, ५४२ तरु:--कल्पवृक्षस्वरूप, ५४३ गण:--भूृंगिरिटि और नन्दिकेश्वर आदि पार्षदरूप ।। ९५ ||
५४४ लोकपाल:--चतुर्दश भुवनोंका पालन करनेवाले, ५४५ अलोक:ः--लोकातीत, ५४६ महात्मा--, ५४७ सर्वपूजित:--सबके द्वारा पूजित, ५४८ शुक्ल:--शुद्धस्वरूप, ५४९ त्रिशुक्ल:--मन, वाणी और शरीर ये तीनों, ५५० सम्पन्न:--सम्पूर्ण सम्पदाओंसे युक्त, ५५१ शुचि:--परम पवित्र, ५५२ भूतनिषेवित:--समस्त प्राणियोंद्वारा सेवित ।। ९६ |।
५५३ आश्रमस्थ:--चारों आश्रमोंमें धर्मरूपसे स्थित रहनेवाले, ५५४ क्रियावस्थ:-यज्ञादि क्रियाओंमें संलग्न, ५५५ विश्वकर्ममति:--संसारकी रचनारूप कर्ममें कुशल, ५५६ वरः:--सर्वश्रेष्ठल ५५७७ विशालशाख:--लंबी भुजाओंवाले, ५५८ ताम्रोष्ठ:--लाल-लाल ओठवाले, ५५९ अम्बुजाल:--जलसमूह--सागररूप, ५६० सुनिश्चलः--सर्वथा निश्चलरूप || ९७ ||
५६१ कपिल:ः--कपिल वर्ण, ५६२ कपिश:--पीले वर्णवाले, ५६३ शुक्ल:--श्वैत वर्णवाले, ५६४ आयु:--जीवनरूप, ५६५ पर:--प्राचीन, ५६६ अपर:--अर्वाचीन, ५६७ गन्धर्व:--चित्ररथ आदि गन्धर्वरूप, ५६८ अदिति:--देवमाता अदितिस्वरूप, ५६९ ताक्ष्य:--विनतानन्दन गरुडरूप, ५७० सुविज्ञेय:--सुगमतापूर्वक जानने योग्य, ५७१ सुशारद:--उत्तम वाणी बोलनेवाले ।। ९८ ।।
५७२ परश्चवधायुध:--फरसेका आयुधके रूपमें उपयोग करनेवाले परशुरामरूप, ५७३ देव:--महादेवस्वरूप, ५७४ अनुकारी--भक्तोंका अनुकरण करनेवाले, ५७५ सुबान्धव: --उत्तम बान्धवरूप, ५७६ तुम्बवीण:--तूँबीकी वीणा बजानेवाले, ५७७ महाक्रोध:-प्रलयकालमें महान् क्रोध प्रकट करनेवाले, ५७८ ऊर्ध्वरेता:--अस्खलितवीर्य, ५७९ जलेशय:--विष्णुरूपसे जलमें शयन करनेवाले ।। ९९ ।।
५८० उग्र:--प्रलयकालमें भयंकर रूप धारण करनेवाले, ५८१ वंशकर:-वंशप्रवर्तक, ५८२ वंश:--वंशस्वरूप, ५८३ वंशनाद:--श्रीकृष्णरूपसे वंशी बजानेवाले, ५८४ अनिन्दित:--निन्दारहित, ५८५ सर्वाज्भगरूप:--सर्वांग पूर्णरूपवाले, ५८६ मायावी --, ५८७ सुहृद:--हेतुरहित दयालु, ५८८ अनिलः--वायुस्वरूप, ५८९ अनलः-अग्निस्वरूप || १०० ||
५९० बन्धन:--स्नेहबन्धनमें बाँधनेवाले, ५९१ बन्धकर्ता--बन्धनरूप संसारके निर्माता, ५९२ सुबन्धनविमोचन:--मायाके सुदृढ़ बन्धनसे छुड़ानेवाले, ५९३ सयज्ञारि: -दक्षयज्ञ-शत्रुओंके साथी, ५९४ सकामारि:--कामविजयी योगियोंके साथी, ५९५ महादंष्ट:--बड़ी-बड़ी. दाढ़वाले नरसिंहरूप,,. ५९६. महायुध:--विशाल आयुधधारी ।। १०१ ।।
५९७ बहुधा निन्दित:--दक्ष और उनके समर्थकोंद्वारा अनेक प्रकारसे निन्दित, ५९८ शर्व:--प्रलयकालमें सबका संहार करनेवाले, ५९९ शड्कर:--कल्याणकारी, ६०० शड्कर:--भक्तोंको आनन्द देनेवाले, ६०१ अधनः--सांसारिक धनसे रहित, ६०२ अमरेश:--देवताओंके भी ईश्वर, ६०३ महादेव:--देवताओंके भी पूजनीय, ६०४ विश्वदेव:--सम्पूर्ण विश्वके आराध्यदेव, ६०५ सुरारिहा-देवशत्रुओंका वध करनेवाले ।। १०२ ।।
६०६ अहिर्बुध्न्य:--शेषनागस्वरूप, ६०७ अनिलाभ:--वायुके समान वेगवान्, ६०८ चेकितान:--अतिशय ज्ञानसम्पन्न, ६०९ हवि:--हविष्यरूप, ६१० अजैकपाद--ग्यारह रुद्रोमेंसे एक, ६११ कापाली--दो कपालोंसे निर्मित कपालरूप अखिल ब्रह्माण्डके अधीश्वर, ६१२ त्रिशंकुः-त्रिशंकुरूप, ६१३ अजितः-किसीके द्वारा पराजित न होनेवाले, ६१४ शिव:--कल्याणस्वरूप || १०३ ।।
६१५ धन्न्वन्तरि:--महावैद्य धन्वन्तरिरूप, ६१६ धूमकेतु:--अग्निस्वरूप, ६१७ स्कन्द:--स्वामी कार्तिकेयस्वरूप, ६१८ वैश्रवण:--कुबेरस्वरूप, ६१९ धाता--सबको धारण करनेवाले, ६२० शक्र:--इन्द्रस्वरूप, ६२१ विष्णु:--सर्वव्यापी नारायणदेव, ६२२ मित्र:--बारह आदित्योंमेंसे एक, ६२३ त्वष्टा--प्रजापति विश्वकर्मा, ६२४ ध्रुव:-नित्यस्वरूप, ६२५ धर:--आठ वसुओंमेंसे एक वसु धरस्वरूप ।।
६२६ प्रभाव:--उत्कृष्टभावसे सम्पन्न, ६२७ सर्वगो वायु:--सर्वव्यापी वायु-सूत्रात्मा, ६२८ अर्यमा--बारह आदित्योंमें एक आदित्य अर्यमारूप, ६२९ सविता-सम्पूर्ण जगत्॒की उत्पत्ति करनेवाले, ६३० रवि:--सूर्य, ६३१ उषड्गुः--सर्वदाहक किरणोंवाले सूर्यरूप, ६३२ विधाता--प्रजाका विशेषरूपसे धारण-पोषण करनेवाले, ६३३ मान्धाता--जीवको तृप्ति प्रदान करनेवाले, ६३४ भूतभावन:--समस्त प्राणियोंके उत्पादक || १०५ ||
६३५ विभु:--विविधरूपसे विद्यमान, ६३६ वर्णविभावी--श्वेत-पीत आदि वर्णोको विविधरूपसे व्यक्त करनेवाले, ६३७ सर्वकाम-गुणावह:--समस्त भोगों और गुणोंकी प्राप्ति करानेवाले ६३८ पद्मनाभ:--अपनी नाभिसे कमलको प्रकट करनेवाले विष्णुरूप, ६३९ महागर्भ:--विशाल ब्रह्माण्डको उदरमें धारण करनेवाले, ६४० चन्द्रवक्त्र:--चन्द्रमाजैसे मनोहर मुखवाले, ६४१ अनिल:--वायुदेव, ६४२ अनलः--अग्निदेव || १०६ ।।
६४३ बलवान--शक्तिशाली, ६४४ उपशान्त:--शान्तस्वरूप, ६४५ पुराण:-पुराणपुरुष, ६४६ पुण्यचज्चु:--पुण्यके द्वारा जाननेमें आनेवाले, ६४७ ई--दयास्वरूप, ६४८ कुरुकर्ता-कुरुक्षेत्रके निर्माता, ६४९ कुरुवासी--कुरुक्षेत्रनिवासी, ६५० कुरुभूतः -कुरुक्षेत्रस्वरूप, ६५१ गुणौषध:--गुणोंको उत्पन्न करनेवाली ओषधिके समान ज्ञान, वैराग्य आदि गुणोंके उत्पादक ।। १०७ ।।
६५२ सर्वाशय:--सबके आश्रय, ६५३ दर्भचारी--वेदीपर बिछे हुए--कुशोंपर रखे हुए हविष्यको भक्षण करनेवाले, ६५४ सर्वेषां प्राणिनां पति:--समस्त प्राणियोंके स्वामी, ६५५ देवदेव:--देवताओंके भी देवता, ६५६ सुखासक्त:--अपने परमानन्दमय स्वरूपमें ही रत रहनेवाले, ६५७ सत्--सत्स्वरूप, ६५८ असत्--असत्स्वरूप, ६५९ सर्वरत्नवित् --सम्पूर्ण रत्नोंके ज्ञाता || १०८ ।।
६६० कैलासगिरिवासी--कैलास पर्वतपर निवास करनेवाले, ६६१ हिमवदूगिरिसंश्रय:--हिमालयपर्वतके निवासी, ६६२ कूलहारी--प्रबल प्रवाहरूपसे नदियोंके तटोंका अपहरण करनेवाले, ६६३ कूलकर्ता--पुष्कर आदि बड़े-बड़े सरोवरोंका निर्माण करनेवाले, ६६४ बहुविद्य:--बहुत-सी विद्याओंके ज्ञाता, ६६५ बहुप्रद:--बहुत अधिक देनेवाले ।। १०९ |।
६६६ वणिजो--वैश्यरूप, ६६७ वर्धकी--संसाररूपी वृक्षको काटनेवाले बढ़ई, ६६८ वृक्ष:--संसाररूप वृक्षस्वरूप, ६६९ बकुल:--मौलसिरी वृक्षस्वरूप, ६७० चन्दन:-चन्दन वृक्षस्वरूप, ६७१ छद:--छितवन वृक्षस्वरूप, ६७२ सारग्रीव:--सुदृढ़ कण्ठवाले, ६७३ महाजत्रु:--बहुत बड़ी हँसुलीवाले, ६७४ अलोल:ः--अचंचल, ६७५ महौषध:-महान् औषधस्वरूप ।। ११० ।।
६७६ सिद्धार्थकारी--आश्रितजनोंको सफलमनोरथ करनेवाले, ६७७ सिद्धार्थ:-वेदकी व्याख्यासे निर्णीत उत्कृष्ट सिद्धान्तस्वरूप, ६७८ सिंहनाद:--सिंहके समान गर्जना करनेवाले, ६७९ सिंहदंष्ट:--सिंहके समान दाढ़वाले, ६८० सिंहग:--सिंहपर आरूढ़ होकर चलनेवाले, ६८१ सिंहवाहन:--सिंहपर सवारी करनेवाले ।। १११ ।।
६८२ प्रभावात्मा--उत्कृष्ट सत्तास्वरूप, ६८३ जगत्कालस्थाल:--प्रलयकालमें जगत्का संहार करनेवाले कालके स्थान, ६८४ लोकहितः--लोकहितैषी, ६८५ तरु:-- तारनेवाले, ६८६ सारजड्ड:--चातकस्वरूप, ६८७ नवचक्राड्र:--नूतन हंसरूप, ६८८ केतुमाली--ध्वजा-पताकाओंकी मालाओंसे अलंकृत, ६८९ सभावन:--धर्मस्थानकी रक्षा करनेवाले ।।
६९० भूतालय:--सम्पूर्ण भूतोंके घर, ६९१ भूतपति:--सम्पूर्ण प्राणियोंके स्वामी, ६९२ अहोरात्रमू-दिन-रात्रिस्वरूप, ६९३ अनिन्दित:--निन्दारहित ।। ११३।
६९४ सर्वभूतानां वाहिता--सम्पूर्ण भूतोंका भार वहन करनेवाले, ६९५ सर्वभूतानां निलयः--समस्त प्राणियोंके निवासस्थान, ६९६ विभुः--सर्वव्यापी, ६९७ भव:-सत्तारूप, ६९८ अमोघ:--कभी असफल न होनेवाले, ६९९ संयत:--संयमशील, ७०० अश्व:ः--उच्चै:श्रवा आदि उत्तम अश्वरूप, ७०१ भोजन:--अन्नदाता, ७०२ प्राणधारण:-सबके प्राणोंकी रक्षा करनेवाले ।। ११४ ।।
७०३ धृतिमान्--धथैर्यशशाली, ७०४ मतिमान्--बुद्धिमान्, ७०५ दक्ष:--चतुर, ७०६ सत्कृत:--सबके द्वारा सम्मानित, ७०७ युगाधिप:--युगके स्वामी, ७०८ गोपालि:-इन्द्रियोंके पालक, ७०९ गोपति:--गौओंके स्वामी, ७३० ग्राम:--समूहरूप, ७११३ गोचर्मवसन:--गोचर्ममय वस्त्र धारण करनेवाले, ७१२ हरि:--भक्तोंका दुःख हर लेनेवाले || ११५ |।
७१३ हिरण्यबाहु:--सुनहरी कान्तिवाली सुन्दर भुजाओंसे सुशोभित, ७१४ गुहापाल: प्रवेशिनाम--गुफाके भीतर प्रवेश करनेवाले योगियोंकी गुफाके रक्षक, ७१५ प्रकृष्टारि:-काम, क्रोध आदि शत्रुओंको क्षीण कर देनेवाले, ७१६ महाहर्ष:--परमानन्दस्वरूप, ७१७ जितकाम:--कामविजयी, ७१८ जितेन्द्रिय:--इन्द्रियविजयी || ११६ ।।
७१९ गान्धार:--गान्धार नामक स्वररूप, ७२० सुवास:--कैलास नामक सुन्दर स्थानमें वास करनेवाले, ७२१ तपःसक्त:--तपस्यामें संलग्न, ७२२ रति:--प्रीतिरूप, ७२३ नरः--विराट् पुरुष, ७२४ महागीतः--जिनके माहात्म्यका वेद-शास्त्रोंद्वारा गान किया गया है ऐसे महान् देव, ७२५ महानृत्य:--प्रकाण्ड ताण्डव करनेवाले, ७२६ अप्सरोगणसेवित: --अप्सराओंके समुदायसे सेवित ।। ११७ ।।
७२७ महाकेतु:--धर्मरूप महान् ध्वजावाले, ७२८ महाधातु:--सुवर्णस्वरूप, ७२९ नैकसानुचर:--मेरुगिरिके अनेक शिखरोंपर विचरण करनेवाले, ७३० चल:--किसीकी पकड़में नहीं आनेवाले, ७३१ आवेदनीय:--्रार्थना करनेयोग्य, ७३२ आदेश:--आज्ञा प्रदान करनेवाले, ७३३ सर्वगन्धसुखावह:--सम्पूर्ण गन्धादि विषयोंके सुखकी प्राप्ति करानेवाले ।।
७३४ तोरण:--मुक्तिद्वारस्वरूप, ७३५ तारण:--तारनेवाले, ७३६ वात:--वायुरूप, ७३७ परिधी:--ब्रह्माण्डका घेरारूप, ७३८ पतिखेचर:--आकाशचारीका स्वामी, ७३९ वर्धन: संयोग:--वृद्धिका हेतुभूत स्त्री-पुरुषका संयोग, ७४० वृद्धः-गुणोंमें बढ़ा-चढ़ा, ७४१ अतिवृद्ध:--सबसे पुरातन होनेके कारण अतिवृद्ध, ७४२ गुणाधिक:--ज्ञान-ऐश्वर्य आदि गुणोंके द्वारा सबसे अधिकतर ।। ११९ |।
७४३ नित्य आत्मसहाय:--आत्माकी सदा सहायता करनेवाले, ७४४ देवासुरपति: +देवताओं और असुरोंके स्वामी, ७४५ पति:--सबके स्वामी, ७४६ युक्तः--भक्तोंके उद्धारके लिये सदा उद्यत रहनेवाले, ७४७ युक्तबाहु:--सबकी रक्षाके लिये उपयुक्त भुजाओंवाले, ७४८ देवो दिविसुपर्वण:--स्वर्गमें जो महान् देवता इन्द्र हैं, उनके भी आराध्यदेव ।।
७४९ आषाढ:--भक्तोंको सब कुछ सहन करनेकी शक्ति देनेवाले, ७५० सुषाढ:-उत्तम सहनशील, ७५१ ध्रुव:--अविचलस्वरूप, ७५२ हरिण:--शुद्धस्वरूप, ७५३ हर:-पापहारी, ७५४ आवर्तमानेभ्यो वषु:--स्वर्गलोकसे लौटनेवालेको नूतन शरीर देनेवाले, ७५५ वसुश्रेष्ठ--श्रेष्ठ धनस्वरूप अर्थात् मुक्तिस्वरूप, ७५६ महापथ:--सर्वोत्तम मार्गस्वरूप || १२१ ।।
७५७ विमर्श: शिरोहारी--विवेकपूर्वक दुष्टोंका शिरश्छेद करनेवाले, ७५८ सर्वलक्षणलक्षित:--समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, ७५९ अक्ष: रथयोगी--रथसे सम्बन्ध रखनेवाला धुरीस्वरूप, ७६० सर्वयोगी--सभी समयमें योगयुक्त, ७६१ महाबल:--अनन्त शक्तिसे सम्पन्न || १२२ ।।
७६२ समाम्नाय:--वेदस्वरूप, ७६३ असमाम्नाय:--वेदभिन्न स्मृति, इतिहास, पुराण और आगमरूप, ७६४ तीर्थदेव:--सम्पूर्ण तीर्थोके देवस्वरूप, ७६५ महारथ:-त्रिपुरदाहके समय पृथ्वीरूपी विशाल रथपर आरूढ़ होनेवाले, ७६६ निर्जीव:--जडप्रपठचस्वरूप, ७६७ जीवन:--जीवनदाता, ७६८ मन्त्र:--प्रणव आदि मन्त्रस्वरूप, ७६९ शुभाक्ष:--मंगलमयी दृष्टिवाले, ७७० बहुकर्कश:--संहारकालमें अत्यन्त कठोर स्वभाववाले ।। १२३ ।।
७७१ रत्नप्रभूत:--अनेक रत्नोंके भण्डाररूप, ७७२ रत्नाज्र:--रत्नमय अंगवाले, ७७३ महार्णव-निपानवित्--महासागररूपी निपानों (हौजों)-को जाननेवाले, ७७४ मूलम् --संसाररूपी वृक्षेके कारण, ७७५ विशाल:--अत्यन्त शोभायमान, ७७६ अमृतः:-अमृतस्वरूप, मुक्तिस्वरूप, ७७७ व्यक्ताव्यक्त:--साकार-निराकार स्वरूप, ७७८ तपोनिधि:--तपस्याके भण्डार || १२४ ।।
७७९ आरोहण:--परम पदपर आख़ूढ़ होनेके द्वारस्वरूप, ७८० अधिरोह:--परम पदपर आरूढ़, ७८१ शीलधारी--सुशीलसम्पन्न, ७८२ महायशा:--महान् यशसे सम्पन्न, ७८३ सेनाकल्प:--सेनाके आभूषणरूप, ७८४ महाकल्प:--बहुमूल्य अलंकारोंसे अलंकृत, ७८५ योग:ः--चित्तवृत्तियोंके निरोधस्वरूप, ७८६ युगकर:--युगप्रवर्तक, ७८७ हरि:--भक्तोंका दुःख हर लेनेवाले || १२५ ।।
७८८ युगरूप:--युगस्वरूप, ७८९ महारूप:--महानरूपवाले, ७९० महानागहनः --विशालकाय गजासुरका वध करनेवाले, ७९१ अवध:-मृत्युरहित, ७९२ न्यायनिर्वपण:--न्यायोचित दान करनेवाले, ७९३ पाद:--शरण लेनेयोग्य (पद्यते भक्ति: इति पाद:), ७९४ पण्डित:--ज्ञीना,, ७९५ अचलोपम:--पर्वतके समान अविचल ।। १२६ ।|।
७९६ बहुमाल:--बहुत-सी मालाएँ धारण करनेवाले, ७९७ महामाल:--महती-पैरोंतक लटकनेवाली माला धारण करनेवाले, ७९८ शशी हरसुलोचन:--चन्द्रमाके समान सौम्य दृष्टियुक्त महादेव, ७९९ विस्तारो लवण: कूृप:--विस्तृत क्षारसमुद्रस्वरूप, ८०० त्रियुग:--सत्ययुग, त्रेता और द्वापर त्रिविध युगस्वरूप, ८०१ सफलोदय:--जिसका अवताररूपमें प्रकट होना सफल है ।। १२७ ।।
८०२ त्रिलोचन:-न्रिनेत्रधारी, ८०३ विषण्णाड्र:--अंगरहित अर्थात् सर्वथा निराकार, ८०४ मणिविद्ध:--मणिका कुण्डल पहननेके लिये छिदे हुए कर्णवाले, ८०५ जटाधर:--जटाधारी, ८०६ बिन्दु:--अनुस्वाररूप, ८०७ विसर्ग:--विसर्जनीयस्वरूप, ८०८ सुमुख:--सुन्दर मुखवाले, ८०९ शर:--बाणस्वरूप, ८१० सर्वायुध:--सम्पूर्ण आयुधोंसे युक्त, ८११ सह:--सहनशील ।। १२८ ।।
८१२ निवेदन:--सब प्रकारकी वृत्तिसे रहित ज्ञानवाले, ८१३ सुखाजात:--सब वृत्तियोंका लय होनेपर सुखरूपसे प्रकट होनेवाले, ८१४ सुगन्धार:--उत्तम गन्धसे युक्त, ८१५ महाधनु:--पिनाक नामक विशाल धनुष धारण करनेवाले, ८१६ भगवान् गन्धपाली--उत्तम गन्धकी रक्षा करनेवाले भगवान्, ८१७ सर्वकर्मणामुत्थान:--समस्त कर्मोके उत्थानस्थान ।। १२९ ।।
८१८ मन्थानो बहुलो वायु:--विश्वको मथ डालनेमें समर्थ प्रलयकालकी महान् वायुस्वरूप, ८१९ सकल:--सम्पूर्ण कलाओंसे युक्त, ८२० सर्वलोचन:--सबके द्रष्टा, ८२१ तलस्ताल:--हाथपर ही ताल देनेवाले, ८२२ करस्थाली--हाथोंसे ही भोजनपात्रका काम लेनेवाले, ८२३ ऊर्ध्वसंहनन:--सुदृढ़ शरीरवाले, ८२४ महान्--श्रेष्ठटम || १३०
८२५ छत्रम--छत्रके समान पाप-तापसे सुरक्षित रखनेवाले, ८२६ सुच्छत्र:--उत्तम छत्रस्वरूप, ८२७ विख्यातो लोक:--सुप्रसिद्ध लोकस्वरूप, ८२८ सर्वाश्रय: क्रम:-सबके आधारभूत गति, ८२९ मुण्ड:--मुण्डित-मस्तक, ८३० विरूप:--विकट रूपवाले, ८३१ विकृतः--सम्पूर्ण विपरीत क्रियाओंको धारण करनेवाले, ८३२ दण्डी--दण्डधारी, ८३३ कुण्डी--खप्परधारी, ८३४ विकुर्वण:--क्रियाद्वारा अलभ्य ।। १३१ ।।
८३५ हर्यक्ष:--सिंहस्वरूप, ८३६ ककुभ:--सम्पूर्ण दिशास्वरूप, ८३७ वज्री-वज्रधारी, ८३८ शतजिद्द:--सैकड़ों जिह्नवावाले, ८३९ सहस्रपात् सहस्रमूर्धा--सहस्रों पैर और मस्तकवाले, ८४० देवेन्द्र:--देवताओंके राजा, ८४१ सर्वदेवमय:--सम्पूर्ण देवस्वरूप, ८४२ गुरु:--सबके ज्ञानदाता || १३२ |।
८४३ सहस्रबाहु:--सहस्रों भुजाओंवाले, ८४४ सर्वाज्भः--समस्त अंगोंसे सम्पन्न, ८४५ शरण्य:--शरण लेनेके योग्य, ८४६ सर्वलोककृत्--सम्पूर्ण लोकोंके उत्पन्न करनेवाले, ८४७ पवित्रम--परम पावन, ८४८ त्रिककुन्मन्त्र:--त्रिपदा गायत्रीरूप, ८४९ कनिष्ठ:--अदितिके पुत्रोंमें छोटे, वामनरूपधारी विष्णु, ८५० कृष्णपिड्गल:-श्याम-गौर हरि-हर-मूर्ति || १३३ ।।
८५१ ब्रह्मावण्डविनिर्माता-ब्रह्मदण्डका निर्माण करनेवाले, ८५२ शतघ्नीपाशशक्तिमान्--शतघ्नी, पाश और शक्तिसे युक्त, ८५३ पद्मगर्भ:--ब्रह्मास्वरूप, ८५४ महागर्भ:--जगत्रूप गर्भको धारण करनेवाले होनेसे महागर्भ, ८५५ ब्रद्मागर्भ:-वेदको उदरमें धारण करनेवाले, ८५६ जलोद्धव:--एकार्णवके जलमें प्रकट होनेवाले ।। १३४ ।।
८५७ गभस्ति:--सूर्यस्वरूप, ८५८ ब्रह्मकृत--वेदोंका आविष्कार करनेवाले, ८५९ ब्रह्मी--वेदाध्यायी, ८६० ब्रह्मवित्--वेदार्थवेत्ता, ८६१ ब्राह्मण:--ब्रह्मनिष्ठ, ८६२ गति: --ब्रह्मनिष्ठोंकी परमगति, ८६३ अनन्तरूप:--अनन्त रूपवाले, ८६४ नैकात्मा--अनेक शरीरधारी, ८६५ तिग्मतेजा: स्वयम्भुव:--ब्रह्माजीकी अपेक्षा प्रचण्ड तेजस्वी || १३५ ।।
८६६ ऊर्ध्वगात्मा--देश-काल-वस्तुकृत उपाधिसे अतीत स्वरूपवाले, ८६७ पशुपति: --जीवोंके स्वामी, ८६८ वातरंहा:--वायुके समान वेगशाली, ८६९ मनोजव:--मनके समान वेगशाली, ८७० चन्दनी--चन्दनचर्चित अंगवाले, ८७१ पद्मनालाग्र:--पद्मनालके मूल विष्णुस्वरूप, ८७२ सुरशभ्युत्तरण:--सुरभिको नीचे उतारनेवाले, ८७३ नरः-पुरुषरूप || १३६ |।
८७४ कर्णिकारमहासत्रग्वी--कनेरकी बहुत बड़ी माला धारण करनेवाले, ८७५ नीलमौलि:--मस्तकपर नीलमणिमय मुकुट धारण करनेवाले, ८७६ पिनाकधृत्--पिनाक धनुषको धारण करनेवाले, ८७७ उमापति:--उमा--ब्रह्मविद्याके स्वामी, ८७८ उमाकान्त:ः --पार्वतीके प्राण-प्रियतम, ८७९ जाह्ववीधृत्--गंगाको मस्तकपर धारण करनेवाले, ८८० उमाधव:--पार्वतीपति ।। १३७ ।।
८८१ वरो वराह:--श्रेष्ठ वराहरूपधारी भगवान, ८८२ वरदा:--वरदाता, ८८३ वरेण्य:--स्वामी बनाने योग्य, ८८४ सुमहास्वन:--महान् गर्जना करनेवाले, ८८५ महाप्रसाद:--भक्तोंपर महान् अनुग्रह करनेवाले, ८८६ दमन:--दुष्टोंका दमन करनेवाले, ८८७ शत्रुहा-शत्रुनाशक, ८८८ श्वेतपिड्ुल:--अर्धनारीनरेश्वर वेशमें श्वेत-पिंगल वर्णवाले || १३८ ।।
८८९ पीतात्मा--हिरण्मय पुरुष, ८९० परमात्मा-परत्रह्म परमेश्वर, ८९१ प्रयतात्मा--विशुद्धचित्त, ८९२ प्रधानधृत--जगत्के कारणभूत त्रिगुणमय प्रधानके अधिष्ठानस्वरूप, ८९३ सर्वपार्श्वमुख:--सम्पूर्ण दिशाओंकी ओर मुखवाले, ८९४ त्र्यक्ष:-त्रिनेत्रधारी, ८९५ धर्मसाधारणो वर:--धर्म-पालनके अनुसार वर देनेवाले | १३९
८९६ चराचरात्मा--चराचर प्राणियोंके आत्मा, ८९७ सूक्ष्मात्मा--अति सूक्ष्मस्वरूप, ८९८ अमृतो गोवृषेश्चवर:--निष्काम धर्मके स्वामी, ८९९ साध्यर्षि:--साध्य देवताओंके आचार्य, ९०० आदित्यो वसु:--अदितिकुमार वसु, ९०१ विवस्वान् सवितामृत:-किरणोंसे सुशोभित एवं जगत्को उत्पन्न करनेवाले अमृतस्वरूप सूर्य || १४० ।।
९०२ व्यास:--पुराण-इतिहास आदिके स्रष्टा वेदव्यासस्वरूप, ९०३ सर्ग:सुसंक्षेपो विस्तर:--संक्षिप्त और विस्तृत सृष्टिस्वरूप, ९०४ पर्ययो नर:--सब ओरसे व्याप्त करनेवाले वैश्वानरस्वरूप, ९०५ ऋतु:--ऋतुरूप, ९०६ संवत्सर:--संवत्सररूप, ९०७ मास:--मासरूप, ९०८ पक्ष:--पक्षरूप, ९०९ संख्यासमापन:--पूर्वोक्त ऋतु आदिकी संख्या समाप्त करनेवाले पर्व (संक्रान्ति, दर्श, पूर्णणासादि) रूप ।। १४१ ।।
९१० कला:, ९११ काष्ठा:, ९१२ लवा:, ९१३ मात्रा:--(इत्यादि कालावयवस्वरूप), ९१४ मुहूर्ताह:क्षपा:--मुहूर्त, दिन और रात्रिरूप, ९१५ क्षणा:--क्षणरूप, ९१६ विश्वेक्षेत्रमू--ब्रह्माण्डरूपी वृक्षेके आधार, ९१७ प्रजाबीजम्--प्रजाओंके कारणरूप, ९१८ लिज्रम--महत्तत््वस्वरूप, ९१९ आद्यो निर्गमम:--सबसे पहले प्रकट होनेवाले ।। १४२ ।।
९२० सत्--सत्स्वरूप, ९२१ असत्--असस्त्वरूप, ९२२ व्यक्तम्--साकाररूप, ९२३ अव्यक्तम--निराकाररूप, ९२४ पिता, ९२५ माता, ९२६ पितामह:, ९२७ स्वर्गद्वारम--स्वर्गके साधनस्वरूप, ९२८ प्रजाद्वारम्--प्रजाके कारण, ९२९ मोक्षद्वारम् --मोक्षके साधनस्वरूप, ९३० त्रिविष्टपम्--स्वर्गके साधनस्वरूप || १४३ ।।
९३१ निर्वाणम्--मोक्षस्वरूप, ९३२ ह्वादन:--आनन्द प्रदान करनेवाले, ९३३ ब्रह्मलोक:--ब्रह्मलोकस्वरूप, ९३४ परा. गतिः--सर्वोत्कृष्ट गतिस्वरूप, ९३५ देवासुरविनिर्माता--देवताओं तथा असुरोंके जन्मदाता, ९३६ देवासुरपरायण:-देवताओं तथा असुरोंके परम आश्रय ।। १४४ ।।
९३७ देवासुरगुरु:--देवताओं और असुरोंके गुरु, ९३८ देव:--परम देवस्वरूप, ९३९ देवासुरनमस्कृत:--देवताओं और असुरोंसे वन्दित, ९४० देवासुरमहामात्र:--देवताओं और असुरोंसे अत्यन्त श्रेष्ठ, ९४१ देवासुरगणाश्रय:--देवताओं तथा असुरगणोंके आश्रय लेने योग्य || १४५ ।।
९४२ देवासुरगणाध्यक्ष:--देवताओें तथा असुरगणोंके अध्यक्ष, ९४३ देवासुरगणाग्रणी:--देवताओं तथा असुरोंके अगुआ, ९४४ देवातिदेव:--देवताओंसे बढ़कर महादेव, ९४५ देवर्षि:--नारदस्वरूप, ९४६ देवासुरवरप्रद:--देवताओं और असुरोंको भी वरदान देनेवाले ।। १४६ ।।
९४७ देवासुरेश्वर:--देवताओं और असुरोंके ईश्वर, ९४८ विश्व:--विराट् स्वरूप, ९४९ देवासुरमहेश्वर:--देवताओं और असुरोंके महान् ईश्वर, ९५० सर्वदेवमय:--सम्पूर्ण देवस्वरूप, ९५१ अचिन्त्य:--अचिन्त्यस्वरूप, ९५२ देवतात्मा--देवताओंके अन्तरात्मा, ९५३ आत्मसम्भव:--स्वयम्भू ।।
९५४ उदभित्--वृक्षादिस्वरूप, ९५५ त्रिविक्रम:--तीनों लोकोंको तीन चरणोंसे नाप लेनेवाले भगवान् वामन, ९५६ वैद्य:--वैद्यस्वरूप, ९५७ विरज:--रजोगुणरहित, ९५८ नीरज:--निर्मल, ९५९ अमर:--नाशरहित, ९६० ईड्य:--स्तुतिके योग्य, ९६१ हस्ती श्वरः --ऐरावत हस्तीके ईश्वर--इन्द्रस्वरूप, ९६२ व्याप्र:--सिंहस्वरूप, ९६३ देवसिंह:-देवताओंमें सिंहके समान पराक्रमी, ९६४ नर्षभ:--मनुष्योंमें श्रेष्ठ | १४८ ।।
९६५ विबुध:--विशेष ज्ञानवान्ू, ९६६ अग्रवर:--यज्ञमें सबसे प्रथम भाग लेनेके अधिकारी, ९६७ सूक्ष्म:--अत्यन्त सूक्ष्मस्वरूप, ९६८ सर्वदेव:--सर्वदेवस्वरूप, ९६९ तपोमय:--तपोमयस्वरूप, ९७० सुयुक्त:--भक्तोंपर कृपा करनेके लिये सब तरहसे सदा सावधान रहनेवाले, ९७१ शोभन:--कल्याणस्वरूप, ९७२ वज्री--वज्रायुधधारी, ९७३ प्रासानां प्रभव:--प्रास नामक अस्त्रकी उत्पत्तिके स्थान, ९७४ अव्यय:-विनाशरहित ।। १४९ ।।
९७५ गुह:--कुमार कार्तिकेयस्वरूप, ९७६ कान्त:--आनन्दकी पराकाष्ठारूप, ९७७ निज: सर्ग:--सृष्टिसे अभिन्न, ९७८ पवित्रम--परम पवित्र, ९७९ सर्वपावन:--सबको पवित्र करनेवाले, ९८० शुद्भधी--सिंगी नामक बाजा अपने पास रखनेवाले, ९८१ शूड्डप्रिय: --पर्वत-शिखरको पसंद करनेवाले, ९८२ बशभ्ू:--विष्णुस्वरूप, ९८३ राजराज:-राजाओंके राजा, ९८४ निरामय:--सर्वथा दोषरहित ।। १५० ।।
९८५ अभिराम:--आनन्ददायक, ९८६ सुरगण:-- देवसमुदायरूप, ९८७ विराम:-सबसे उपरत, ९८८ सर्वसाधन:--सभी साधनोंद्वारा साध्य, ९८९ ललाटाक्ष:--ललाटमें तीसरा नेत्र धारण करनेवाले, ९९० विश्वदेव:--सम्पूर्ण विश्वके द्वारा क्रीड़ा करनेवाले, ९९१ हरिण:--मृगरूप, ९९२ ब्रह्म॒वर्चस:--ब्रह्मतेजसे सम्पन्न || १५१ ।।
९९३ स्थावराणां पति:--पर्वतोंके स्वामी हिमाचलादिरूप, ९९४ नियमेन्द्रियवर्धन: --नियमोंद्वारा मनसहित इन्द्रियोंका दमन करनेवाले, ९९५ सिद्धार्थ:--आप्तकाम, ९९६ सिद्धभूतार्थ:--जिसके समस्त प्रयोजन सिद्ध हैं, ९९७ अचिन्त्य:--चित्तकी पहुँचसे परे, ९९८ सत्यव्रत:--सत्यप्रतिज्ञ, ९९९ शुचि:--सर्वथा शुद्ध || १५२ ।।
१००० व्रताधिप:--व्रतोंके अधिपति, १००१ परम्--सर्वश्रेष्ठ, १००२ ब्रह्म--देश, काल और वस्तुसे अपरिच्छिन्न चिन्मयतत्त्व, १००३ भक्तानां परमा गति:--भक्तोंके लिये परम गतिस्वरूप, १००४ विमुक्तः--नित्य मुक्त, १००५ मुक्ततेजा:--शत्रुओंपर तेज छोड़नेवाले, १००६ श्रीमान्--योगैश्वर्यसे सम्पन्न, १००७ श्रीवर्धन:--भक्तोंकी सम्पत्तिको बढ़ानेवाले, १००८ जगत्--जगत्स्वरूप ।। १५३ ।।
श्रीकृष्ण! इस प्रकार बहुत-से नामोंमेंसे प्रधान-प्रधान नाम चुनकर मैंने उनके द्वारा भक्तिपूर्वक भगवान् शंकरका सावन किया। जिन्हें ब्रह्मा आदि देवता तथा ऋषि भी तत्त्वसे नहीं जानते। उन्हीं स्तवनके योग्य, अर्चनीय और वन्दनीय जगत्पति शिवकी कौन स्तुति करेगा? ।। १५४ ३ ।।
इस तरह भक्तिके द्वारा भगवान्को सामने रखते हुए मैंने उन्हींसे आज्ञा लेकर उन बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ भगवान् यज्ञपतिकी स्तुति की || १५५६ ।।
जो सदा योगयुक्त एवं पवित्रभावसे रहनेवाला भक्त इन पुष्टिवर्धक नामोंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति करता है, वह स्वयं ही उन परमात्मा शिवको प्राप्त कर लेता है ।। १५६-१५७ ||
यह उत्तम वेदतुल्य स्तोत्र परब्रह्म परमात्म-स्वरूप शिवको अपना लक्ष्य बनाता है। ऋषि और देवता भी उसके द्वारा उन परमात्मा शिवकी स्तुति करते हैं || १५८ ।।
जो लोग मनको संयममें रखकर इन नामोंद्वारा भक्तवत्सल तथा आत्मनिष्ठा प्रदान करनेवाले भगवान् महादेवकी स्तुति करते हैं, उनपर वे बहुत संतुष्ट होते हैं ।। १५९ ।।
इसी प्रकार मनुष्योंमें जो प्रधानतः आस्तिक और श्रद्धालु हैं तथा अनेक जन्मतक की हुई स्तुति एवं भक्तिके प्रभावसे मन, वाणी, क्रिया तथा प्रेमभावके द्वारा सोते-जागते, चलते-बैठते और आँखोंके खोलते-मीचते समय भी सदा अनन्यभावसे उन परम सनातनदेव जगदीश्वर शिवका बारंबार ध्यान करते हैं, वे अमित तेजसे सम्पन्न हो जाते हैं तथा जो उन्हींके विषयमें सुनते-सुनाते एवं उन्हींकी महिमाका कथोपकथन करते हुए इस स्तोत्रद्वारा सदा उनकी स्तुति करते हैं, वे स्वयं भी स्तुत्य होकर सदा संतुष्ट होते हैं और रमण करते हैं | १६०--१६३ ।।
कोटि सहस््र जन्मोंतक नाना प्रकारकी संसारी योनियोंमें भटकते-भटकते जब कोई जीव सर्वथा पापोंसे रहित हो जाता है, तब उसकी भगवान् शिवमें भक्ति होती है || १६४ ।।
भाग्यसे जो सर्वसाधनसम्पन्न हो गया है, उसको जगत्के कारण भगवान् शिवमें सम्पूर्णभावसे सर्वथा अनन्य भक्ति प्राप्त होती है ।। १६५ ।।
रद्रदेवमें निश्चल एवं निर्विघ्नरूपसे अनन्य-भक्ति हो जाय--यह देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। मनुष्योंमें तो प्रायः ऐसी भक्ति स्वतः नहीं उपलब्ध होती है ।। १६६ ।।
भगवान् शंकरकी कृपासे ही मनुष्योंके हृदयमें उनकी अनन्यभक्ति उत्पन्न होती है, जिससे वे अपने चित्तको उन्हींके चिन्तनमें लगाकर परमसिद्धिको प्राप्त होते हैं ।। १६७ ।।
जो सम्पूर्ण भावसे अनुगत होकर महेश्वरकी शरण लेते हैं, शरणागतवत्सल महादेवजी इस संसारसे उनका उद्धार कर देते हैं ।। १६८ ।।
इसी प्रकार भगवानकी स्तुतिद्वारा अन्य देवगण भी अपने संसारबन्धनका नाश करते हैं; क्योंकि महादेवजीकी शरण लेनेके सिवा ऐसी दूसरी कोई शक्ति या तपका बल नहीं है जिससे मनुष्योंका संसारबन्धनसे छुटकारा हो सके ।। १६९ ।।
श्रीकृष्ण! यह सोचकर उन इन्द्रके समान तेजस्वी एवं कल्याणमयी बुद्धिवाले तण्डि मुनिने गजचर्मधारी एवं समस्त कार्यकारणके स्वामी भगवान् शिवकी स्तुति की || १७० ।।
भगवान् शंकरके इस स्तोत्रको ब्रह्माजीने स्वयं अपने हृदयमें धारण किया है। वे भगवान् शिवके समीप इस वेदतुल्य स्तुतिका गान करते रहते हैं; अतः सबको इस स्तोत्रका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये ।। १७१ ।।
यह परम पवित्र, पुण्यजनक तथा सर्वदा सब पापोंका नाश करनेवाला है। यह योग, मोक्ष, स्वर्ग और संतोष--सब कुछ देनेवाला है || १७२ ।।
जो भक्त भगवान् शंकरके समीप एक वर्षतक सदा प्रयत्नपूर्वक इस स्तोत्रका पाठ करता है वह मनोवांछित फल प्राप्त कर लेता है ।। १७४ ।।
यह परम रहस्यमय स्तोत्र ब्रह्माजीके हृदयमें स्थित है। ब्रह्माजीने इन्द्रको इसका उपदेश दिया और इन्द्रने मृत्युकी || १७५ ।।
मृत्युने एकादश रुद्रोंकोी इसका उपदेश किया। रुद्रोंसे तण्डिको इसकी प्राप्ति हुई। तण्डिने ब्रह्मलोकमें ही बड़ी भारी तपस्या करके इसे प्राप्त किया था ।। १७६ ।।
माधव! तण्डिने शुक्रको, शुक्रने गौतमको और गौतमने वैवस्वतमनुको इसका उपदेश दिया ।। १७७ ||
वैवस्वत मनुने समाधिनिष्ठ और ज्ञानी नारायण नामक किसी साध्यदेवताको यह स्तोत्र प्रदान किया। धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले उन पूजनीय नारायण नामक साध्यदेवने यमको इसका उपदेश किया ।। १७८ ।।
वृष्णिनन्दन! ऐश्वर्यशाली वैवस्वत यमने नाचिकेताको और नाचिकेतने मार्कण्डेय मुनिको यह स्तोत्र प्रदान किया | १७९ |।
शत्रुसूदन जनार्दन! मार्कण्डेयजीसे मैंने नियमपूर्वक यह स्तोत्र ग्रहण किया था। अभी इस स्तोत्रकी अधिक प्रसिद्धि नहीं हुई है, अतः मैं तुम्हें इसका उपदेश देता हूँ ।।
यह वेदतुल्य स्तोत्र स्वर्ग, आरोग्य, आयु तथा धन-धान्य प्रदान करनेवाला है। यक्ष, राक्षस, दानव, पिशाच, यातुधान, गुह्यक और नाग भी इसमें विघ्न नहीं डाल पाते हैं ।। १८१ ।।
(श्रीकृष्ण कहते हैं--) कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! जो मनुष्य पवित्रभावसे ब्रह्मचर्यके पालनपूर्वक इन्द्रियोंको संयममें रखकर एक वर्षतक योगयुक्त रहते हुए इस स्तोत्रका पाठ करता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है || १८२ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें महादेवसहस्रनामस्तोत्रविषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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