सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
सौलहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) सौलहवें अध्याय के श्लोक 1-76 का हिन्दी अनुवाद)
“उपमन्यु-श्रीकृष्ण-संवाद--महात्मा तण्डिद्वारा की गयी महादेवजीकी स्तुति, प्रार्थना और उसका फल”
उपमन्यु कहते हैं--तात! सत्ययुगमें तण्डि नामसे विख्यात एक ऋषि थे जिन्होंने भक्तिभावसे ध्यानके द्वारा दस हजार वर्षोतक महादेवजीकी आराधना की थी। उन्हें जो फल प्राप्त हुआ था, उसे बता रहा हूँ, सुनिये। उन्होंने महादेवजीका दर्शन किया और स्तोत्रोंद्वारा उन प्रभुकी स्तुति की ।। १-२ ।।
इस तरह तण्डिने तपस्यामें संलग्न होकर अविनाशी परमात्मा महामना शिवका चिन्तन करके अत्यन्त विस्मित हो इस प्रकार कहा था-- ।। ३ ।।
'सांख्यशास्त्रके विद्वान् पर, प्रधान, पुरुष, अधिष्ठाता और ईश्वर कहकर सदा जिनका गुणगान करते हैं, योगीजन जिनके चिन्तनमें लगे रहते हैं, विद्वान् पुरुष जिन्हें जगत्की उत्पत्ति और विनाशका कारण समझते हैं, देवताओं, असुरों और मुनियोंमें भी जिनसे श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है, उन अजन्मा, अनादि, अनन्त, अनघ और अत्यन्त सुखी, प्रभावशाली ईश्वर महादेवजीकी मैं शरण लेता हूँ || ४--६ ।।
इतना कहते ही तण्डिने उन तपोनिधि, अविकारी, अनुपम, अचिन्त्य, शाश्वत, ध्रुव, निष्कल, सकल, निर्गुण एवं सगुण ब्रह्मका दर्शन प्राप्त किया, जो योगियोंके परमानन्द, अविनाशी एवं मोक्षस्वरूप हैं || ७-८ ।।
वे ही मनु, इन्द्र, अग्नि, मरुदगण, सम्पूर्ण विश्व तथा ब्रह्माजीकी भी गति हैं। मन और इन्द्रियोंके द्वारा उनका ग्रहण नहीं हो सकता। वे अग्राह्यु, अचल, शुद्ध, बुद्धिके द्वारा अनुभव करने योग्य तथा मनोमय हैं ।। ९ ।।
उनका ज्ञान होना अत्यन्त कठिन है। वे अप्रमेय हैं। जिन्होंने अपने अन्तः:करणको पवित्र एवं वशीभूत नहीं किया है, उनके लिये वे सर्वथा दुर्लभ हैं। वे ही सम्पूर्ण जगत्के कारण हैं। अज्ञानमय अन्धकारसे अत्यन्त परे हैं || १० ।।
जो देवता अपनेको प्राणवान--जीवस्वरूप बनाकर उसमें मनोमय ज्योति बनकर स्थित हुए थे, उन्हींके दर्शनकी अभिलाषासे तण्डि मुनि बहुत वर्षोतक उग्र तपस्यामें लगे रहे। जब उनका दर्शन प्राप्त कर लिया तब उन मुनीश्वरने जगदीश्वर शिवकी इस प्रकार स्तुति की ।। ११३ ।।
तण्डिने कहा--सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर! आप पवित्रोंमें भी परम पवित्र तथा गतिशील प्राणियोंकी उत्तम गति हैं। तेजोंमें अत्यन्त उग्र तेज और तपस्याओंमें उत्कृष्ट तप हैं ।। १२ ई
गन्धर्वराज विश्वावसु, दैत्यराज हिरण्याक्ष और देवराज इन्द्र भी आपकी वन्दना करते हैं। सबको महान् कल्याण प्रदान करनेवाले प्रभो! आप परम सत्य हैं। आपको नमस्कार है ।। १३३ ||
विभो! जो जन्म-मरणसे भयभीत हो संसार-बन्धनसे मुक्त होनेके लिये प्रयत्न करते हैं, उन यतियोंको निर्वाण (मोक्ष) प्रदान करनेवाले आप ही हैं। आप ही सहस्रों किरणोंवाले सूर्य होकर तप रहे हैं। सुखके आश्रयरूप महेश्वर! आपको नमस्कार है ।। १४६ ।।
ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, विश्वेदेव तथा महर्षि भी आपको यथार्थरूपसे नहीं जानते हैं। फिर हम कैसे जान सकते हैं। आपसे ही सबकी उत्पत्ति होती है तथा आपमें ही यह सारा जगत् प्रतिष्ठित है ।। १५-१६ ।।
काल, पुरुष और ब्रह्म--इन तीन नामोंद्वारा आप ही प्रतिपादित होते हैं। पुराणवेत्ता देवर्षियोंने आपके ये तीन रूप बताये हैं || १७ ।।
अधिपौरुष, अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैवत, अधिलोक, अधिविज्ञान और अधियज्ञ आप ही हैं ।। १८ ।।
आप देवताओंके लिये भी दुर्ज्ेय हैं। विद्वान् पुरुष आपको अपने ही शरीरमें स्थित अन्तर्यामी आत्माके रूपमें जानकर संसार-बन्धनसे मुक्त हो रोग-शोकसे रहित परमभावको प्राप्त होते हैं ।। १९ ।।
प्रभो! यदि आप स्वयं ही कृपा करके जीवका उद्धार करना न चाहें तो उसके बारंबार जन्म और मृत्यु होते रहते हैं। आप ही स्वर्ग और मोक्षके द्वार हैं। आप ही उनकी प्राप्तिमें बाधा डालनेवाले हैं तथा आप ही ये दोनों वस्तुएँ प्रदान करते हैं || २० ।।
आप ही स्वर्ग और मोक्ष हैं। आप ही काम और क्रोध हैं तथा आप ही सत्त्व, रज, तम, अधोलोक और ऊर्ध्वलोक हैं || २१ ।।
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, इन्द्र, सूर्य, यम, वरुण, चन्द्रमा, मनु, धाता, विधाता और धनाध्यक्ष कुबेर भी आप ही हैं || २२ ।।
पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि, आकाश, वाणी, बुद्धि, स्थिति, मति, कर्म, सत्य, असत्य तथा अस्ति और नास्ति भी आप ही हैं || २३ ।।
आप ही इन्द्रियाँ और इन्द्रियोंक विषय हैं। आप ही प्रकृतिसे परे निश्चल एवं अविनाशी तत्त्व हैं। आप ही विश्व और अविश्व--दोनोंसे परे विलक्षण भाव हैं तथा आप ही चिन्त्य और अचिन्त्य हैं ।। २४ ।।
जो यह परम ब्रह्म है, जो वह परमपद है तथा जो सांख्यवेत्ताओं और योगियोंकी गति है, वह आप ही हैं--इसमें संशय नहीं है || २५ ।।
ज्ञानसे निर्मल बुद्धिवाले ज्ञानी पुरुष यहाँ जिस गतिको प्राप्त करना चाहते हैं, सत्पुरुषोंकी उसी गतिको निश्चित रूपसे हम प्राप्त हो गये हैं; अतः आज हम निश्चय ही कृतार्थ हो गये || २६ ।।
अहो, हम अज्ञानवश इतने दीर्घकालतक मोहमें पड़े रहे हैं, क्योंकि जिन्हें विद्वान् पुरुष जानते हैं, उन्हीं सनातन परमदेवको हम अबतक नहीं जान सके थे ।। २७ ।।
अब अनेक जन्मोंके प्रयत्नसे मैंने यह साक्षात् आपकी भक्ति प्राप्त की है। आप ही भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले महान् देवता हैं, जिन्हें जानकर ज्ञानी पुरुष मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं || २८ ।।
जो सनातन ब्रह्म देवताओं, असुरों और मुनियोंके लिये भी गुह्य है, जो हृदयगुहामें स्थित रहकर मननशील मुनिके लिये भी दुर्विज्ञेग बने हुए हैं, वही ये भगवान् हैं। ये ही सबकी सृष्टि करनेवाले देवता हैं। इनके सब ओर मुख हैं। ये सर्वात्मा, सर्वदर्शी, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ हैं || २९-३० ।।
आप शरीरके निर्माता और शरीरधारी हैं, इसीलिये देही कहलाते हैं। देहके भोक्ता और देहधारियोंकी परम गति हैं। आप ही प्राणोंके उत्पादक, प्राणधारी, प्राणी, प्राणदाता तथा प्राणियोंकी गति हैं || ३१ ।।
ध्यान करनेवाले प्रियभक्तोंकी जो अध्यात्मगति हैं तथा पुनर्जन्मकी इच्छा न रखनेवाले आत्मज्ञानी पुरुषोंकी जो गति बतायी गयी है, वह ये ईश्वर ही हैं || ३२ ।।
ये ही समस्त प्राणियोंको शुभ और अशुभ गति प्रदान करनेवाले हैं। ये ही समस्त प्राणियोंको जन्म और मृत्यु प्रदान करते हैं ।। ३३ ।।
संसिद्धि (मुक्ति)-की इच्छा रखनेवाले पुरुषोंकी जो परम गति है, वह ये ईश्वर ही हैं। देवताओंसहित भू आदि समस्त लोकोंको उत्पन्न करके ये महादेव ही (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्र, यजमान--इन) अपनी आठ मूर्तियोंद्वारा उनका धारण और पोषण करते हैं ।। ३४ ।।
इन्हींसे सबकी उत्पत्ति होती है और इन्हींमें सारा जगत् प्रतिष्ठित है और इन्हींमें सबका लय होता है। ये ही एक सनातन पुरुष हैं || ३५ ।।
ये ही सत्यकी इच्छा रखनेवाले सत्पुरुषोंके लिये सर्वोत्तम सत्यलोक हैं। ये ही मुक्त पुरुषोंके अपवर्ग (मोक्ष) और आत्मज्ञानियोंके कैवल्य हैं || ३६ ।।
देवता, असुर और मनुष्योंको इनका पता न लगने पाये, मानो इसीलिये ब्रह्मा आदि सिद्ध पुरुषोंने इन परमेश्वरको अपनी हृदयगुफामें छिपा रखा है ।। ३७ ।।
हृदयमन्दिरमें गूढ़भावसे रहकर प्रकाशित न होनेवाले इन परमात्मदेवने सबको अपनी मायासे मोहित कर रखा है। इसीलिये देवता, असुर और मनुष्य आप महादेवको यथार्थ रूपसे नहीं जान पाते हैं || ३८ ।।
जो लोग भक्तियोगसे भावित होकर उन परमेश्वरकी शरण लेते हैं, उन्हींको यह हृदयमन्दिरमें शयन करनेवाले भगवान् स्वयं अपना दर्शन देते हैं ।। ३९ ।।
जिन्हें जान लेनेपर फिर जन्म और मरणका बन्धन नहीं रह जाता तथा जिनका ज्ञान प्राप्त हो जानेपर फिर दूसरे किसी उत्कृष्ट ज्ञेय तत््वका जानना शेष नहीं रहता है, जिन्हें प्राप्त कर लेनेपर विद्वान् पुरुष बड़े-से-बड़े लाभको भी उनसे अधिक नहीं मानता है, जिस सूक्ष्म परम पदार्थको पाकर ज्ञानी मनुष्य हास और नाशसे रहित परमपदको प्राप्त कर लेता है, सत्त्व आदि तीन गुणों तथा चौबीस तत्त्वोंको जाननेवाले सांख्यज्ञान-विशारद सांख्ययोगी विद्वान् जिस सूक्ष्म तत्वको जानकर उस सूक्ष्मज्ञानरूपी नौकाके द्वारा संसारसमुद्रसे पार होते और सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त हो जाते हैं, प्राणायाम-परायण पुरुष वेदवेत्ताओंके जानने योग्य तथा वेदान्तमें प्रतिष्ठित जिस नित्य तत्त्वका ध्यान और जप करते हैं और उसीमें प्रवेश कर जाते हैं; वही ये महेश्वर हैं। 3>काररूपी रथपर आरूढ़ होकर वे सिद्ध पुरुष इन्हींमें प्रवेश करते हैं। ये ही देवयानके द्वाररूप सूर्य कहलाते हैं | ४०--४४ ।।
ये ही पितृयान-मार्गके द्वार चन्द्रमा कहलाते हैं। काष्ठा, दिशा, संवत्सर और युग आदि भी ये ही हैं। दिव्य लाभ (देवलोकका सुख), अदिव्य लाभ (इस लोकका सुख), परम लाभ (मोक्ष), उत्तरायण और दक्षिणायन भी ये ही हैं || ४५३ ।।
पूर्वकालमें प्रजापतिने नाना प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा इन्हीं नीललोहित नामवाले भगवान्की आराधना करके प्रजाकी सृष्टिके लिये वर प्राप्त किया था ।। ४६३६ ।।
ऋग्वेदके विद्वान तात्चिक यज्ञकर्ममें ऋग्वेदके मन्त्रोंद्वारा जिनकी महिमाका गान करते हैं, यजुर्वेदके ज्ञाता द्विज यज्ञमें यजुर्मन्त्रोंद्वारा दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य और आहवनीय--इन त्रिविध रूपोंसे जाननेयोग्य जिन महादेवजीके उद्देश्यसे आहुति देते हैं तथा शुद्ध बुद्धिसे युक्त सामवेदके गानेवाले विद्वान् साममन्त्रोंद्वारा जिनकी स्तुति गाते हैं, अथर्ववेदी ब्राह्मण ऋत, सत्य एवं परब्रह्मनामसे जिनकी स्तुति करते हैं, जो यज्ञके परम कारण हैं, वे ही ये परमेश्वर समस्त यज्ञोंके परमपति माने गये हैं || ४७--४५९ ।।
रात और दिन इनके कान और नेत्र हैं, पक्ष और मास इनके मस्तक और भुजाएंँ हैं, ऋतु वीर्य है, तपस्या धैर्य है तथा वर्ष गुह्मू-इन्द्रिय, ऊरु और पैर हैं || ५० ।।
मृत्यु, यम, अग्नि, संहारके लिये वेगशशाली काल, कालके परम कारण तथा सनातन काल भी--ये महादेव ही हैं ।। ५१ ।।
चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह, वायु, ध्रुव, सप्तर्षि, सात भुवन, मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, विकारोंके सहित विशेषपर्यन्त समस्त तत्त्व, ब्रह्माजीसे लेकर कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत्, भूतादि, सत् और असत् आठ प्रकृतियाँ तथा प्रकृतिसे परे जो पुरुष है, इन सबके रूपमें ये महादेवजी ही विराजमान हैं || ५२-५३ ह ।।
इन महादेवजीका अंशभूत जो सम्पूर्ण जगत् चक्रकी भाँति निरन्तर चलता रहता है, वह भी ये ही हैं। ये परमानन्दस्वरूप हैं। जो शाश्वत ब्रह्म है, वह भी ये ही हैं। ये ही विरक्तोंकी गति हैं और ये ही सत्पुरुषोंके परमभाव हैं || ५४-५५ ।।
ये ही उद्वेगरहित परमपद हैं। ये ही सनातन ब्रह्म हैं। शास्त्रों और वेदाड़ोंके ज्ञाता पुरुषोंके लिये ये ही ध्यान करनेके योग्य परमपद हैं ।। ५६ ।।
यही वह पराकाष्छठा, यही वह परम कला, यही वह परम सिद्धि और यही वह परम गति हैं एवं यही वह परम शान्ति और वह परम आनन्द भी हैं, जिसको पाकर योगीजन अपनेको कृतकृत्य मानते हैं ।।
यह तुष्टि, यह सिद्धि, यह श्रुति, यह स्मृति, भक्तोंकी यह अध्यात्मगति तथा ज्ञानी पुरुषोंकी यह अक्षय प्राप्ति (पुनरावृत्तिरहित मोक्षलाभ) आप ही हैं ।।
प्रचुर दक्षिणावाले यज्ञोंद्वारा सकाम भावसे यजन करनेवाले यजमानोंकी जो गति होती है, वह गति आप ही हैं। इसमें संशय नहीं है |। ६० ।।
देव! उत्तम योग-जप तथा शरीरको सुखा देनेवाले नियमोंद्वारा जो शान्ति मिलती है और तपस्या करनेवाले पुरुषोंको जो दिव्य गति प्राप्त होती है, वह परम गति आप ही हैं ।। ६१ ।।
सनातन देव! कर्म-संन्यासियोंको और विरक्तोंको ब्रह्मलोकमें जो उत्तम गति प्राप्त होती है, वह आप ही हैं ।। ६२ ।।
सनातन परमेश्वर! जो मोक्षकी इच्छा रखकर वैराग्यके मार्गपर चलते हैं उन्हें, और जो प्रकृतिमें लयको प्राप्त होते हैं उन्हें, जो गति उपलब्ध होती है, वह आप ही हैं ।। ६३ ।।
देव! ज्ञान और विज्ञानसे युक्त पुरुषोंको जो सारूप्य आदि नामसे रहित, निरञ्जन एवं कैवल्यरूप परमगति प्राप्त होती है, वह आप ही हैं ।। ६४ ।।
प्रभो! वेद-शास्त्र और पुराणोंमें जो ये पाँच गतियाँ बतायी गयी हैं, ये आपकी कृपासे ही प्राप्त होती हैं, अन्यथा नहीं ।। ६५ ।।
इस प्रकार तपस्याकी निधिरूप तण्डिने अपने मनसे महादेवजीकी स्तुति की और पूर्वकालमें ब्रह्माजीने जिस परम ब्रह्मस्वरूप स्तोत्रका गान किया था, उसीका स्वयं भी गान किया ।। ६६ ।।
उपमन्यु कहते हैं--ब्रह्मगादी तण्डिके इस प्रकार स्तुति करनेपर पार्वतीसहित प्रभावशाली भगवान् महादेव उनसे बोले-- || ६७ ।।
तण्डिने स्तुति करते हुए यह बात कही थी कि “ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, विश्वेदेव और महर्षि भी आपको यथार्थरूपसे नहीं जानते हैं', इससे भगवान् शंकर बहुत संतुष्ट हुए और बोले -- || ६८ ||
भगवान् श्रीशिवने कहा--ब्रह्मन! तुम अक्षय, अविकारी, दुःखरहित, यशस्वी, तेजस्वी एवं दिव्यज्ञानसे सम्पन्न होओगे ।। ६९ |।
द्विजश्रेष्ठ! मेरी कृपासे तुम्हें एक विद्वान पुत्र प्राप्त होगा, जिसके पास ऋषिलोग भी शिक्षा ग्रहण करनेके लिये जायँगे। वह कल्पसूत्रका निर्माण करेगा, इसमें संशय नहीं है। वत्स! बोलो, तुम क्या चाहते हो? अब मैं तुम्हें कौन-सा मनोवांछित वर प्रदान करूँ? || ७० कल |
तब तण्डिने हाथ जोड़कर कहा--'प्रभो! आपके चरणारविन्दमें मेरी सुदृढ़ भक्ति हो” || ७१ |।
उपमन्युने कहा--देवर्षियोंद्वारा वन्दित और देवताओंद्वारा प्रशंसित होते हुए महादेवजी इन वरोंको देकर वहीं अन्तर्धान हो गये || ७२ ।।
यादवेश्वर! जब पार्षदोंसहित भगवान् अन्तर्धान हो गये, तब ऋषिने मेरे आश्रमपर आकर यहाँ मुझसे ये सब बातें बतायीं ।। ७३ ।।
मानवश्रेष्ठ! तण्डिमुनिने जिन आदिकालके प्रसिद्ध नामोंका मेरे सामने वर्णन किया, उन्हें आप भी सुनिये। वे सिद्धि प्रदान करनेवाले हैं || ७४ ।।
पितामह ब्रह्माने पूर्वकालमें देवताओंके निकट महादेवजीके दस हजार नाम बताये थे और शास्त्रों में भी उनके सहस्र नाम वर्णित हैं || ७५ ।।
अच्युत! पहले देवेश्वर ब्रह्माजीने महादेवजीकी कृपासे महात्मा तण्डिके निकट जिन नामोंका वर्णन किया था, महर्षि तण्डिने भगवान् महादेवके उन्हीं समस्त गोपनीय नामोंका मेरे समक्ष प्रतिपादन किया था ।। ७६ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें मेघवाहनपर्वकी कथाविषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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