सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
चौदहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) चौदहवें अध्याय के श्लोक 1-428 का हिन्दी अनुवाद)
“भीष्मजीकी आज्ञासे भगवान् श्रीकृष्णका युधिष्ठटिरसे महादेवजीके माहात्म्यकी कथामें उपमन्युद्वारा महादेवजीकी स्तुति-प्रार्थना, उनके दर्शन और वरदान पानेका तथा अपनेको दर्शन प्राप्त होनेका कथन”
युधिष्ठिरने कहा--गंगानन्दन! आपने ब्रह्माजीके भी ईश्वर कल्याणकारी जगदीश्वर भगवान् शिवके जो नाम सुने हों, उन्हें यहाँ बताइये ।। १ ।।
जो विराट विश्वरूपधारी हैं, अव्यक्तके भी कारण हैं, उन सुरासुरगुरु भगवान् शंकरके माहात्म्यका यथार्थरूपसे वर्णन कीजिये ।। २ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन! मैं परम बुद्धिमान महादेवजीके गुणोंका वर्णन करनेमें असमर्थ हूँ। जो भगवान् सर्वत्र व्यापक हैं, किन्तु (सबके आत्मा होनेके कारण) सर्वत्र देखनेमें नहीं आते हैं, ब्रह्मा, विष्णु और देवराज इन्द्रके भी स्रष्टा तथा प्रभु हैं, ब्रह्मा आदि देवताओंसे लेकर पिशाचतक जिनकी उपासना करते हैं, जो प्रकृतिसे भी परे और पुरुषसे भी विलक्षण हैं, योगवेत्ता तत्त्वदर्श ऋषि जिनका चिन्तन करते हैं, जो अविनाशी परम ब्रह्म एवं सदसत्स्वरूप हैं, जिन देवाधिदेव प्रजापति शिवने अपने तेजसे प्रकृति और पुरुषको क्षुब्ध करके ब्रह्माजीकी सृष्टि की, उन्हीं देवदेव बुद्धिमान् महादेवजीके गुणोंका वर्णन करनेमें गर्भ, जन्म, जरा और मृत्युसे युक्त कौन मनुष्य समर्थ हो सकता है? ।।
बेटा! शड्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् नारायणको छोड़कर मेरे-जैसा कौन पुरुष परमेश्वर शिवके तत्त्वको जान सकता है? ।। ८ ।।
ये भगवान् विष्णु सर्वज्ञ, गुणोंमें सबसे श्रेष्ठ, अत्यन्त दुर्जय, दिव्य नेत्रधारी तथा महातेजस्वी हैं। ये योगदृष्टिसे सब कुछ देखते हैं ।। ९ ।।
भरतनन्दन! रुद्रदेवके प्रति भक्तिके कारण ही महात्मा श्रीकृष्णने सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त कर रखा है। राजन! कहते हैं कि पूर्वकालमें महादेवजीको बदरिकाश्रममें प्रसन्न करके उन दिव्यदृष्टि महेश्वरसे श्रीकृष्णने सब पदार्थोकी अपेक्षा प्रियतर भावको प्राप्त कर लिया; अर्थात् वे सम्पूर्ण लोकोंके प्रियतम बन गये || १०-११ ।।
इन माधवने वरदायक देवता चराचरगुरु भगवान् शिवको प्रसन्न करते हुए पूर्वकालमें पूरे एक हजार वर्षतक तपस्या की थी ।। १२ ।।
श्रीकृष्णने प्रत्येक युगमें महेश्वरको संतुष्ट किया है। महात्मा श्रीकृष्णकी परम भक्तिसे वे सदा प्रसन्न रहते हैं ।। १३ ।।
जगत्के कारणभूत परमात्मा शिवका एऐश्वर्य जैसा है, उसे पुत्रके लिये तपस्या करते हुए इन अच्युत श्रीहरिने प्रत्यक्ष देखा है ।। १४ ।।
भारत! उसी एऐश्वर्यके कारण मैं परात्पर श्रीकृष्णके सिवा किसी दूसरेको ऐसा नहीं देखता जो देवाधिदेव महादेवजीके नामोंकी पूर्णरूपसे व्याख्या कर सके ।। १५ ||
नरेश्वर! ये महाबाहु श्रीकृष्ण ही भगवान् महेश्वरके गुणों तथा उनके यथार्थ ऐश्वर्यका पूर्णतः वर्णन करनेमें समर्थ हैं || १६ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! महायशस्वी पितामह भीष्मने युधिष्ठिससे ऐसा कहकर भगवान् वासुदेवके प्रति शंकरजीकी महिमासे युक्त यह बात कही ।। १७ ।।
भीष्मजी बोले--देवासुरगुरो! विष्णुदेव! राजा युधिष्ठिरने मुझसे जो पूछा है, उस विश्वरूप शिवके माहात्म्यको बतानेके योग्य आप ही हैं ।। १८ ।।
पूर्वकालमें ब्रह्मपुत्र तण्डीमुनिके द्वारा ब्रह्मलोकमें ब्रह्माजीके समक्ष जिस शिवसहस्रनामका निरूपण किया गया था, उसीका आप वर्णन करें और ये उत्तम व्रतका पालन करनेवाले व्यास आदि तपोधन एवं जितेन्द्रिय महर्षि आपके मुखसे इसका श्रवण करें ।।
जो ध्रुव (कूटस्थ), नन्दी (आनन्दमय), होता, गोप्ता (रक्षक), विश्वस्रष्टा, गार्हपत्य आदि अग्नि, मुण्डी (चूड़ारहित) और कपर्दी (जटाजूटधारी) हैं, उन भगवान् शंकरके महान् सौभाग्यका आप वर्णन कीजिये ।।भगवान् श्रीकृष्णने कहा--भगवान् शंकरके कर्मोंकी गतिका यथार्थरूपसे ज्ञान होना अशक्य है। ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवता, महर्षि तथा सूक्ष्मदर्शी आदित्य भी जिनके निवासस्थानको नहीं जानते, सत्पुरुषोंके आश्रयभूत उन भगवान् शिवके तत्त्वका ज्ञान मनुष्यमात्रको कैसे हो सकता है? ।। २२-२३ ।।
अतः मैं उन असुरविनाशक व्रतेश्वर भगवान् शंकरके कुछ गुणोंका आपलोगोंके समक्ष यथार्थरूपसे वर्णन करूँगा ।। २४ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! ऐसा कहकर भगवान् श्रीकृष्ण आचमन करके पवित्र हो बुद्धिमान् परमात्मा शिवके गुणोंका वर्णन करने लगे || २५ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--यहाँ बैठे हुए ब्राह्मण-शिरोमणियो! सुनो, तात युधिष्ठिर! और गंगानन्दन भीष्म! आपलोग भी यहाँ भगवान् शंकरके नामोंका श्रवण करें ।। २६ ।।
पूर्वकालमें साम्बकी उत्पत्तिके लिये अत्यन्त दुष्कर तप करके मैंने जिस दुर्लभ नामसमूहका ज्ञान प्राप्त किया था और समाथिके द्वारा भगवान् शंकरका जिस प्रकार यथावत्रूपसे साक्षात्कार किया था, वह सब प्रसंग सुना रहा हूँ || २७ ।।
युधिष्ठिर! बुद्धिमान् रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्नके द्वारा पूर्वकालमें जब शम्बरासुर मारा गया और वे द्वारकामें आये, तबसे बारह वर्ष व्यतीत होनेके पश्चात् रुक्मिणीके प्रद्युम्न, चारुदेष्ण आदि पुत्रोंको देखकर पुत्रकी इच्छा रखनेवाली जाम्बवती मेरे पास आकर इस प्रकार बोली -- || २८-२९ ||
“अच्युत! आप मुझे अपने ही समान शूरवीर, बलवानोंमें श्रेष्ठ तथा कमनीय रूपसौन्दर्यसे युक्त निष्पाप पुत्र प्रदान कीजिये। इसमें विलम्ब नहीं होना चाहिये || ३० ।।
“यदुकुलधुरन्धर! आपके लिये तीनों लोकोंमें कोई भी वस्तु अलभ्य नहीं है। आप चाहें तो दूसरे-दूसरे लोकोंकी सृष्टि कर सकते हैं || ३१ ।।
“आपने बारह वर्षोतक व्रतपरायण हो अपने शरीरको सुखाकर भगवान् पशुपतिकी आराधना की और रुक्मिणीदेवीके गर्भसे अनेक पुत्र उत्पन्न किये || ३२ ।।
“मधुसूदन! चारुदेष्ण, सुचारु, चारुवेश, यशोधर, चारुश्रवा, चारुयशा, प्रद्युम्म और शम्भु--इन सुन्दर पराक्रमी पुत्रोंकोी जिस प्रकार आपने रुक्मिणीदेवीके गर्भसे उत्पन्न किया है उसी प्रकार मुझे भी पुत्र प्रदान कीजिये” | ३३-३४ ।।
देवी जाम्बवतीके इस प्रकार प्रेरणा देनेपर मैंने उस सुन्दरीसे कहा--'रानी! मुझे जानेकी अनुमति दो। मैं तुम्हारी प्रार्थना सफल करूँगा” ।। ३५ ।।
उसने कहा--'प्राणनाथ! आप कल्याण और विजय पानेके लिये जाइये। यदुनन्दन! ब्रह्मा, शिव, काश्यप, नदियाँ, मनो$नुकूल देवगण, क्षेत्र, ओषधियाँ, यज्ञवाह (मन्त्र), छन्द, ऋषिगण, यज्ञ, समुद्र, दक्षिणा, सतोभ (सामगानपूरक “हावु” “हायि” आदि शब्द), नक्षत्र, पितर, ग्रह, देवपत्नियाँ, देवकन्याएँ और देवमाताएँ, मन्वन्तर, गौ, चन्द्रमा, सूर्य, इन्द्र, सावित्री, ब्रह्मविद्या, ऋतु, वर्ष, क्षण, लव, मुहूर्त, निमेष और युग--ये सर्वत्र आपकी रक्षा करें। आप अपने मार्गपर निर्विष्न यात्रा करें और अनघ! आप सतत सावधान रहें” | ३६ --४० ||
इस तरह जाम्बवतीके द्वारा स्वस्तिवाचनके पश्चात् मैं उस राजकुमारीकी अनुमति ले नरश्रेष्ठ पिता वसुदेव, माता देवकी तथा राजा उग्रसेनके समीप गया। वहाँ जाकर विद्याधरराजकुमारी जाम्बवतीने अत्यन्त आर्त होकर मुझसे जो प्रार्थना की थी वह सब मैंने बताया और उन सबसे तपके लिये जानेकी आज्ञा ली। गद और अत्यन्त बलवान् बलरामजीसे विदा माँगी। उन दोनोंने बड़े दुःखसे अत्यन्त प्रेमपूर्वक उस समय मुझसे कहा -- भाई! तुम्हारी तपस्या निर्विघ्न पूर्ण हो” || ४१-४२ ।।
गुरुजनोंकी आज्ञा पाकर मैंने गरुडका चिन्तन किया। उसने (आकर) मुझे हिमालयपर पहुँचा दिया। वहाँ पहुँचकर मैंने गरूडको विदा कर दिया ।। ४३ ।।
मैंने उस श्रेष्ठ पर्वतपर वहाँ अद्भुत भाव देखे। मुझे वहाँका स्थान तपस्याके लिये अदभुत, उत्तम और श्रेष्ठ क्षेत्र दिखायी दिया || ४४ ।।
वह व्याप्रपादके पुत्र महात्मा उपमन्युका दिव्य आश्रम था, जो ब्राह्मी शोभासे सम्पन्न तथा देवताओं और गन्धर्वोद्वारा सम्मानित था ।। ४५ ।।
धव, ककुभ (अर्जुन), कदम्ब, नारियल, कुरबक, केतक, जामुन, पाटल, बड़, वरुणक, वत्सनाभ, बिल्व, सरल, कपित्थ, प्रियाल, साल, ताल, बेर, कुन्द, पुत्नाग, अशोक, आम्र, अतिमुक्त, महुआ, कोविदार, चम्पा तथा कटहल आदि बहुत-से फल-फूल देनेवाले विविध वन्य वृक्ष उस आश्रमकी शोभा बढ़ा रहे थे। फूलों, गुल्मों और लताओंसे वह व्याप्त था। केलेके कुंज उसकी शोभाको और भी बढ़ा रहे थे || ४६-४८ ।।
नाना प्रकारके पक्षियोंके खाने योग्य फल और वृक्ष उस आश्रमके अलंकार थे। यथास्थान रखी हुई भस्मराशिसे उसकी बड़ी शोभा हो रही थी ।। ४९ ।।
रुरु, वानर, शार्दूल, सिंह, चीते, मृग, मयूर, बिल्ली, सर्प, विभिन्न जातिके मृगोंके झुंड, भैंस तथा रीछोंसे उस आश्रमका निकटवर्ती वन भरा हुआ था ।। ५० ।।
जिनके मस्तकसे पहली बार मदकी धारा फूटकर बही थी, ऐसे हाथी वहाँके उपवनकी शोभा बढ़ाते थे। हर्षमें भरे हुए नाना प्रकारके विहंगम वहाँके वृक्षोंपर बसेरे लेते थे। अनेकानेक वृक्षोंके विचित्र वन सुन्दर फूलोंसे सुशोभित हो मेघोंके समान प्रतीत होते थे और उन सबके द्वारा उस आश्रमकी अनुपम शोभा हो रही थी ।। ५१ ।।
सामनेसे नाना प्रकारके पुष्पोंके परागपुंजसे पूरित तथा हाथियोंके मदकी सुगन्धसे सुवासित मन्द-मन्द अनुकूल वायु आ रही थी; जिसमें दिव्य रमणियोंके मधुर गीतोंकी मनोरम ध्वनि विशेषरूपसे व्याप्त थी ।। ५२ ।।
वीर! पर्वतशिखरोंसे झरते हुए झरनोंकी झर-झर ध्वनि, विहंगमोंके सुन्दर कलरव, हाथियोंकी गर्जना, किन्नरोंक उदार (मनोहर) गीत तथा सामगान करनेवाले सामवेदी विद्वानोंके मंगलमय शब्द उस वन-प्रान्तको संगीतमय बना रहे थे || ५३ ।।
जिसके विषयमें दूसरे लोग मनसे सोच भी नहीं सकते, ऐसी अचिन्त्य शोभासे सम्पन्न वह पर्वतीय भाग अनेकानेक सरोवरोंसे अलंकृत तथा फूलोंसे आच्छादित विशाल अग्निशालाओंद्वारा विभूषित था ।। ५४ ।।
नरेश्वर! पुण्यसलिला जाह्नवी सदा उस क्षेत्रकी शोभा बढ़ाती हुई मानो उसका सेवन करती थीं। अग्निके समान तेजस्वी तथा धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ अनेकानेक महात्माओंसे वह स्थान विभूषित था || ५५ ||
वहाँ चारों ओर श्रेष्ठ ब्राह्मण निवास करते थे। उनमेंसे कुछ लोग केवल वायु पीकर रहते थे। कुछ लोग जल पीकर जीवन धारण करते थे। कुछ लोग निरन्तर जपमें संलग्न रहते थे। कुछ साधक मैत्री-मुदिता आदि साधनाओंद्वारा अपने चित्तका शोधन करते थे। कुछ योगी निरन्तर ध्यानमग्न रहते थे। कोई अग्निहोत्रका धूआँ, कोई गरम-गरम सूर्यकी किरणें और कोई दूध पीकर रहते थे ।। ५६ ।।
कुछ लोग गोसेवाका व्रत लेकर गौओंके ही साथ रहते और विचरते थे। कुछ लोग खाद्य वस्तुओंको पत्थरसे पीसकर खाते थे और कुछ लोग दाँतोंसे ही ओखली-मूसलका काम लेते थे। कुछ लोग किरणों और फेनोंका पान करते थे तथा कितने ही ऋषि मृगचर्याका व्रत लेकर मृगोंके ही साथ रहते और विचरते थे || ५७ ।।
कोई पीपलके फल खाकर रहते, कोई जलमें ही सोते तथा कुछ लोग चीर, वल्कल और मृगचर्म धारण करते थे ।। ५८ ।।
अत्यन्त कष्टसाध्य नियमोंका निर्वाह करते हुए विविध तपस्वी मुनियोंका दर्शन करते हुए मैंने उस महान् आश्रममें प्रवेश करनेका उपक्रम किया ।। ५९ ।।
भरतवंशी नरेश! महात्मा तथा पुण्यकर्मा शिव आदि देवताओंसे समादृत हो वह आश्रममण्डल सदा ही आकाशमें चन्द्रमण्डलकी भाँति शोभा पाता था ।। ६० ।।
वहाँ तीव्र तपस्यावाले महात्माओंके प्रभाव तथा सांनिध्यसे प्रभावित हो नेवले साँपोंके साथ खेलते थे और व्याप्र मृगोंके साथ मित्रकी भाँति रहते थे || ६१ ।।
वेद-वेदांगोंके पारंगत दिद्दान श्रेष्ठ ब्राह्मण जिसका सेवन करते थे तथा नाना प्रकारके नियमोंद्वारा विख्यात हुए महात्मा महर्षि जिसकी शोभा बढ़ाते थे, समस्त प्राणियोंके लिये मनोरम उस श्रेष्ठ आश्रममें प्रवेश करते ही मैंने जटावल्कलधारी, प्रभावशाली, तेज और तपस्यासे अग्निके समान देदीप्यमान, शान्तस्वभाव और युवावस्थासे सम्पन्न ब्राह्मणशिरोमणि उपमन्युको शिष्योंसे घिरकर बैठा देखा || ६२--६४ ।।
मैंने मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। मुझे वन्दना करते देख उपमन्यु बोले --पुण्डरीकाक्ष! आपका स्वागत है। आप पूजनीय होकर मेरी पूजा करते हैं और दर्शनीय होकर मेरा दर्शन चाहते हैं, इससे हमलोगोंकी तपस्या सफल हो गयी” ।। ६५-६६ ।।
तब मैंने हाथ जोड़कर आश्रमके मृग, पक्षी, अग्निहोत्र, धर्मांचरण तथा शिष्यवर्गका कुशल-समाचार पूछा ।। ६७ ।।
तब भगवान् उपमन्युने परम मधुर सान्त्वनापूर्ण वाणीमें मुझसे कहा--श्रीकृष्ण/ आप अपने समान पुत्र प्राप्त करेंगे--इसमें संशय नहीं है || ६८ ।।
अधोक्षज! आप महान् तपका आश्रय लेकर यहाँ सर्वेश्वर भगवान् शिवको संतुष्ट कीजिये। यहाँ महादेवजी अपनी पत्नी भगवती उमाके साथ क्रीड़ा करते हैं || ६९ ।।
जनार्दन! यहाँ सुरश्रेष्ठ महादेवजीको तपस्या, ब्रह्मचर्य, सत्य और इन्द्रिय-संयमद्वारा संतुष्ट करके पहले कितने ही देवता और महर्षि अपने शुभ मनोरथ प्राप्त कर चुके हैं || ७०५ 3
शत्रुनाशक श्रीकृष्ण! आप जिनकी प्रार्थना करते हैं, वे तेज और तपस्याकी निधि अचिन्त्य भगवान् शंकर यहाँ शम आदि शुभभावोंकी सृष्टि और काम आदि अशुभ भावोंका संहार करते हुए देवी पार्वतीके साथ सदा विराजमान रहते हैं || ७१-७२ ।।
पहले जो मेरुपर्वतको भी कम्पित कर देनेवाला हिरण्यकशिपु नामक दानव हुआ था, उसने भगवान् शंकरसे एक अर्बुद (दस करोड़) वर्षोतकके लिये सम्पूर्ण देवताओंका एऐश्वर्य प्राप्त किया था || ७३ ।।
उसीका श्रेष्ठ पुत्र मन्दार नामसे विख्यात हुआ, जो महादेवजीके वरसे एक अर्बुद वर्षोंतक इन्द्रके साथ युद्ध करता रहा ।। ७४ ।।
तात केशव! भगवान् विष्णुका वह भयंकर चक्र तथा इन्द्रका वज्र भी पूर्वकालमें उस ग्रहके अंगोंपर पुराने तिनकोंके समान जीर्ण-शीर्ण-सा हो गया था ।। ७५ ।।
निष्पाप श्रीकृष्ण! पूर्वकालमें जलके भीतर रहनेवाले गर्वीले दैत्यको मारकर भगवान् शंकरने आपको जो चक्र प्रदान किया था, उस अग्निके समान तेजस्वी शस्त्रको स्वयं भगवान् वृषध्वजने ही उत्पन्न किया और आपको दिया था, वह अस्त्र अद्भुत तेजसे युक्त एवं दुर्धर्ष है ।। ७६-७७ ।।
पिनाकपाणि भगवान् शंकरको छोड़कर दूसरा कोई उसको देख नहीं सकता था। उस समय भगवान् शंकरने कहा--“यह अस्त्र सुदर्शन (देखनेमें सुगम) हो जाय।” तभीसे संसारमें उसका सुदर्शन नाम प्रचलित हो गया। तात केशव! ऐसा प्रसिद्ध अस्त्र भी उस ग्रहके अंगोंपर जीर्ण-सा हो गया || ७८-७९ ।।
भगवान् शंकरसे उसको वर मिला था। उस अत्यन्त बलशाली बुद्धिमान ग्रहके अंगमें चक्र और वज्र-जैसे सैकड़ों शस्त्र भी काम नहीं देते थे || ८० ।।
जब उस बलवान ग्रहने देवताओंको सताना आरम्भ कर दिया तब देवताओंने भी भगवान् शंकरसे वर पाये हुए उन असुरेन्द्रोंकी बहुत पीटा। (इस प्रकार उनमें दीर्घकालतक युद्ध होता रहा) || ८१ ।।
इसी तरह विद्युत्प्रभ नामक दैत्यपर भी संतुष्ट होकर रुद्रदेवने उसे तीनों लोकोंका आधिपत्य प्रदान कर दिया। इस प्रकार वह एक लाख वर्षोतक सम्पूर्ण लोकोंका अधीश्वर बना रहा | ८२ |।
भगवानने उसे यह भी वर दिया था कि “तुम मेरे नित्य पार्षद हो जाओगे” साथ ही उन प्रभुने उसे सहस्र अयुत (एक करोड़) पुत्र प्रदान किये |। ८३ ।।
अजन्मा भगवान् शिवने उसे राज्य करनेके लिये कुशद्वीप दिया था। इसी प्रकार भगवान् ब्रह्माने एक समय शतमुख नामक महान् असुरकी सृष्टि की थी, जिसने सौ वर्षसे अधिक कालतक अमग्निमें अपने ही मांसकी आहुति दी थी || ८४३ ।।
उससे संतुष्ट होकर भगवान् शंकरने पूछा--“बताओ, मैं तुम्हारा कौन-सा मनोरथ पूर्ण करूँ?” तब शतमुखने उनसे कहा--'सुरश्रेष्ठ! मुझे अद्भुत योगशक्ति प्राप्त हो। साथ ही आप मुझे सदा बना रहनेवाला बल प्रदान कीजिये” ।। ८५-८६ ।।
उसकी वह बात सुनकर शक्तिशाली भगवानने “तथास्तु' कहकर उसे स्वीकार कर लिया। इसी तरह पूर्वकालमें स्वयम्भूके पुत्र क्रतुने पुत्र-प्राप्तिके लिये तीन सौ वर्षोतक योगके द्वारा अपने आपको भगवान् शिवके चिन्तनमें लगा रखा था; अतः क्रतुको भी भगवान् शंकरने उन्हींके समान एक हजार पुत्र प्रदान किये || ८७-८८ ।।
श्रीकृष्ण! देवता जिनकी महिमाका गान करते हैं, उन योगेश्वर शिवको आप भलीभाँति जानते हैं, इसमें संशय नहीं है। याज्ञवल्क्य नामके विख्यात परम धर्मात्मा ऋषिने महादेवजीकी आराधना करके अनुपम यश प्राप्त किया || ८९३ ।।
पराशरजीके पुत्र मुनिवर वेदव्यास तो योगके स्वरूप ही हैं। उन्होंने भी शंकरजीकी आराधना करके वह महान् यश पा लिया, जिसकी कहीं तुलना नहीं है ।।
कहते हैं, पूर्वकालमें किसी समय इन्द्रने बालखिल्य नामक ऋषियोंका अपमान कर दिया था। उन ऋषियोंने कुपित होकर तपस्या की और उसके द्वारा भगवान् रुद्रको संतुष्ट किया ।। ९१६ ।।
तब सुरश्रेष्ठ विश्वनाथ शिवने प्रसन्न होकर उनसे कहा--“तुम अपनी तपस्याके बलसे गरुडको उत्पन्न करोगे, जो इन्द्रका अमृत छीन लायेगा” ।। ९२६ ।।
पहलेकी बात है, महादेवजीके रोषसे जल नष्ट हो गया था। तब देवताओंने, जिसके स्वामी रुद्र हैं, उस सप्त कपालयागके द्वारा दूसरा जल प्राप्त किया। इस प्रकार त्रिनेत्रधारी भगवान् शिवके प्रसन्न होनेपर ही भूतलपर जलकी उपलब्धि हुई ।। ९३-९४ ।।
अत्रिकी पत्नी ब्रह्मतादिनी अनसूया भी किसी समय रुष्ट हो अपने पतिको त्यागकर चली गयीं और मनमें यह संकल्प करके कि “अब मैं किसी तरह भी पुनः अगत्रिमुनिके वशीभूत नहीं होऊँगी” महादेवजीकी शरणमें गयीं || ९५३६ ।।
वे अत्रिमुनिके भयसे तीन सौ वर्षोतक निराहार रहकर मुसलोंपर ही सोयीं और भगवान् शंकरकी प्रसन्नताके लिये तपस्या करती रहीं ।। ९६३ ।।
तब महादेवजीने उनसे हँसते हुए कहा--'देवि! मेरी कृपासे केवल यज्ञसम्बन्धी चरुका द्रव पीनेमात्रसे तुम्हें पतिके सहयोगके बिना ही एक पुत्र प्राप्त होगा--इसमें संशय नहीं है। वह तुम्हारे वंशमें तुम्हारे ही नामसे इच्छानुसार ख्याति प्राप्त करेगा' || ९७-९८ ।।
मधुसूदन! ऐश्वर्यशाली विकर्णने भक्तसुखदायक महादेवजीको प्रसन्न करके मनोवांछित सिद्धि प्राप्त की थी ।। ९९ ।।
केशव! शाकल्य ऋषिके मनमें सदा संशय बना रहता था। उन्होंने मनोमय यज्ञ (ध्यान)-के द्वारा भगवान् शिवकी नौ सौ वर्षोतक आराधना की ।। १०० |।
तब उनसे भी संतुष्ट होकर भगवान् शंकरने कहा--“वत्स! तुम ग्रन्थकार होओगे तथा तीनों लोकोंमें तुम्हारी अक्षय कीर्ति फैल जायगी ।। १०१ ।।
“तुम्हारा कुल अक्षय एवं महर्षियोंसे अलंकृत होगा। तुम्हारा पुत्र एक श्रेष्ठ ब्राह्मण एवं सूत्रकार होगा' || १०२ ।।
सत्ययुगमें सावर्णिनामसे विख्यात एक ऋषि थे। उन्होंने यहाँ आकर छ: हजार वर्षोतक तपस्या की ।। १०३ ।।
तब भगवान् रुद्रने उन्हें साक्षात् दर्शन देकर कहा--“अनघ! मैं तुमपर बहुत संतुष्ट हूँ। तुम विश्वविख्यात ग्रन्थकार और अजर-अमर होओगे” ।। १०४ ।।
जनार्दन! पहलेकी बात है, इन्द्रने भक्तिभावके साथ काशीपुरीमें भस्मभूषित दिगम्बर महादेवजीकी आराधना की। महादेवजीकी आराधना करके ही उन्होंने देवराजपद प्राप्त किया || १०५३
देवर्षि नारदने भी पहले भक्तिभावसे भगवान् शंकरकी आराधना की थी। इससे संतुष्ट होकर गुरुस्वरूप देवगुरु महादेवजीने उन्हें यह वरदान दिया कि “तेज, तप और कीर्तिमें कोई तुम्हारी समता करनेवाला नहीं होगा। तुम गीत और वीणावादनके द्वारा सदा मेरा अनुसरण करोगे' || १०६-१०७ ६ |।
प्रभो! तात माधव! मैंने भी पूर्वकालमें साक्षात् देवाधिदेव पशुपतिका जिस प्रकार दर्शन किया था, वह प्रसंग सुनिये || १०८ ३ ।।
भगवन! मैंने जिस उद्देश्यसे प्रयत्नपूर्वक महातेजस्वी महादेवजीको संतुष्ट किया था वह सब विस्सारपूर्वक सुनिये || १०९३ ।।
अनघ! पूर्वकालमें मुझे देवाधिदेव महेश्वरसे जो कुछ प्राप्त हुआ था, वह सब आज पूर्णरूपसे तुम्हें बताऊँगा ।। ११० ३ ।।
तात! पहले सत्ययुगमें एक महायशस्वी ऋषि हो गये हैं, जो व्याप्रपादनामसे प्रसिद्ध थे। वे वेद-वेदांगोंके पारंगत विद्वान् थे ।। १११३ ।।
उन्हींका मैं पुत्र हूँ। मेरे छोटे भाईका नाम धौम्य है। माधव! किसी समय मैं धौम्यके साथ खेलता हुआ पवित्रात्मा मुनियोंके आश्रमपर आया ।। ११२-११३ ।।
वहाँ मैंने देखा, एक दुधारू गाय दुही जा रही थी। वहीं मैंने दूध देखा, जो स्वादमें अमृतके समान होता है ।। ११४
तब मैंने बालस्वभाववश अपनी मातासे कहा--'माँ! मुझे खानेके लिये दूध-भात दो” ।। ११५ ।।
घरमें दूधका अभाव था; इसलिये मेरी माताको उस समय बड़ा दुःख हुआ। माधव! तब वह पानीमें आटा घोलकर ले आयी और दूध कहकर दोनों भाइयोंको पीनेके लिये दे दिया || ११६३ ।।
तात! उसके पहले एक दिन मैंने गायका दूध पीया था। पिताजी यज्ञके समय एक बड़े भारी धनी कुटुम्बीके घर मुझे ले गये थे। वहाँ दिव्य सुरभी गाय दूध दे रही थी ।। ११७-११८ ।।
उस अमृतके समान स्वादिष्ट दूधको पीकर मैं यह जान गया था कि दूधका स्वाद कैसा होता है और उसकी उपलब्धि किस प्रकार होती है || ११९ ।।
तात! इसीलिये वह आटेका रस मुझे प्रिय नहीं लगा; अतः मैंने बालस्वभाववश ही अपनी मातासे कहा-- ।।
“माँ! तुमने मुझे जो दिया है, यह दूध-भात नहीं है।” माधव! तब मेरी माता दुःख और शोकमें मग्न हो पुत्रस्नेहतश मुझे हृदयसे लगाकर मेरा मस्तक सूँघती हुई मुझसे बोली --बेटा! जो सदा वनमें रहकर कन्द, मूल और फल खाकर निर्वाह करते हैं, उन पवित्र अन्तः:करणवाले मुनियोंको भला दूध-भात कहाँसे मिल सकता है? ।। १२१-१२२ ६ ।।
“जो बालखिल्योंद्वारा सेवित दिव्य नदी गंगाका सहारा लिये बैठे हैं, पर्वतों और वनोंमें रहनेवाले उन मुनियोंको दूध कहाँसे मिलेगा? || १२३ $ ।।
'जो पवित्र हैं, वनमें ही होनेवाली वस्तुएँ खाते हैं, वनके आश्रमोंमें ही निवास करते हैं, ग्रामीण आहारसे निवृत्त होकर जंगलके फल-मूलोंका ही भोजन करते हैं, उन्हें दूध कैसे मिल सकता है? ।। १२४३ ।।
“बेटा! यहाँ सुरभी गायकी कोई संतान नहीं है, अतः इस जंगलमें दूधका सर्वधा अभाव है। नदी, कन्दरा, पर्वत और नाना प्रकारके तीर्थोंमें तपस्यापूर्वक जपमें तत्पर रहनेवाले हम ऋषि-मुनियोंके भगवान् शंकर ही परम आश्रय हैं || १२५-१२६ ।।
“वत्स! जो सबको वर देनेवाले, नित्य स्थिर रहनेवाले और अविनाशी ईश्वर हैं, उन भगवान् विरूपाक्षको प्रसन्न किये बिना दूध-भात और सुखदायक वस्त्र कैसे मिल सकते हैं? ।। १२७ ।।
“बेटा! सदा सर्वतोभावसे उन्हीं भगवान् शंकरकी शरण लेकर उनकी कृपासे ही इच्छानुसार फल पा सकोगे' ।। १२८ ।।
शत्रुसूदन! जननीकी वह बात सुनकर उसी समय मैंने उनके चरणोंमें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर माताजीसे यह पूछा-- ।। १२९ ।।
“अम्व! ये महादेवजी कौन हैं? और कैसे प्रसन्न होते हैं? वे शिव देवता कहाँ रहते हैं और कैसे उनका दर्शन किया जा सकता है? ।। १३० ।।
मेरी माँ! यह बताओ कि शिवजीका रूप कैसा है? वे कैसे संतुष्ट होते हैं? उन्हें किस तरह जाना जाय अथवा वे कैसे प्रसन्न होकर मुझे दर्शन दे सकते हैं?” || १३१ ।।
सच्चिदानन्दस्वरूप गोविन्द! सुरश्रेष्ठ मधुसूदन! मेरे इस प्रकार पूछनेपर मेरी पुत्रवत्सला माताके नेत्रोंमें आँसू भर आये। वह मेरा मस्तक सूँघकर मेरे सभी अज्जोंपर हाथ फेरने लगी और कुछ दीन-सी होकर यों बोली || १३२-१३३ ।।
माताने कहा--जिन्होंने अपने मनको वशमें नहीं किया है, ऐसे लोगोंके लिये महादेवजीका ज्ञान होना बहुत कठिन है। उनका मनसे धारण करनेमें आना मुश्किल है। उनकी प्राप्तिके मार्ममें बड़े-बड़े विघ्न हैं। दुस्तर बाधाएँ हैं। उनका ग्रहण और दर्शन होना भी अत्यन्त कठिन है | १३४ ।।
मनीषी पुरुष कहते हैं कि भगवान् शंकरके अनेक रूप हैं। उनके रहनेके विचित्र स्थान हैं और उनका कृपाप्रसाद भी अनेक रूपोंमें प्रकट होता है || १३५ ।।
पूर्वकालमें देवाधिदेव महादेवने जो-जो रूप धारण किये हैं, ईश्वरके उस शुभ चरित्रको कौन यथार्थरूपसे जानता है? वे कैसे क्रीडा करते हैं और किस तरह प्रसन्न होते हैं? यह कौन समझ सकता है ।। १३६ ।।
वे विश्वरूपधारी महेश्वर समस्त प्राणियोंके हृदयमन्दिरमें विराजमान हैं। वे भक्तोंपर कृपा करनेके लिये किस प्रकार दर्शन देते हैं? यह शंकरजीके दिव्य एवं कल्याणमय चरित्रका वर्णन करनेवाले मुनियोंके मुखसे जैसा मैंने सुना है वह बताऊँगी || १३७३ ।।
वत्स! उन्होंने ब्राह्मणोंपर अनुग्रह करनेके लिये देवताओंद्वारा कथित जो-जो रूप ग्रहण किये हैं, उन्हें संक्षेपसे सुनो। वत्स! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वे सारी बातें मैं तुम्हें बताऊँगी || १३८-१३९ ।।
ऐसा कहकर माता फिर कहने लगी--भगवान् शिव ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, रुद्र, आदित्य, अश्विनीकुमार तथा सम्पूर्ण देवताओंका शरीर धारण करते हैं || १४० ।।
वे भगवान् पुरुषों, देवांगनाओं, प्रेतों, पिशाचों, किरातों, शबरों, अनेकानेक जलजन्तुओं तथा जंगली भीलोंके भी रूप ग्रहण कर लेते हैं | १४१६ ।।
कूर्म, मत्स्य, शंख, नये-नये पल्लवोंके अंकुरसे सुशोभित होनेवाले वसंत आदिके रूपोंमें भी वे ही प्रकट होते हैं। वे महादेवजी यक्ष, राक्षस, सर्प, दैत्य, दानव और पातालवासियोंका भी रूप धारण करते हैं || १४२-१४३ ।।
वे व्याप्र, सिंह, मृग, तरक्षु, रीछ, पक्षी, उल्लू, कुत्ते और सियारोंके भी रूप धारण कर लेते हैं ।। १४४ ।।
हंस, काक, मोर, गिरगिट, सारस, बगले, गीध और चक्रांग (सविशेष)-के भी रूप वे महादेवजी धारण करते हैं। पर्वत, गाय, हाथी, घोड़े, ऊँट और गदहेके आकारमें भी वे प्रकट हो जाते हैं ।। १४५-१४६ ।।
वे बकरे और शार्दूलके रूपमें भी उपलब्ध होते हैं। नाना प्रकारके मृगों--वन्य पशुओंके भी रूप धारण करते हैं तथा भगवान् शिव दिव्य पक्षियोंके भी रूप धारण कर लेते हैं । १४७ ।।
वे द्विजोंके चिह्न दण्ड, छत्र और कुण्ड (कमण्डलु) धारण करते हैं। कभी छ: मुख और कभी बहुत-से मुखवाले हो जाते हैं। कभी तीन नेत्र धारण करते हैं। कभी बहुत-से मस्तक बना लेते हैं ।। १४८ ।।
उनके पैर और कटिभाग अनेक हैं। वे बहुसंख्यक पेट और मुख धारण करते हैं। उनके हाथ और पार्श्रभाग भी अनेकानेक हैं। अनेक पार्षदगण उन्हें सब ओरसे घेरे रहते हैं ।। १४९ ।।
वे ऋषि और गन्धर्वरूप हैं। सिद्ध और चारणोंके भी रूप धारण करते हैं। उनका सारा शरीर भस्म रमाये रहनेसे सफेद जान पड़ता है। वे ललाटमें अर्द्धचन्द्रका आभूषण धारण करते हैं | १५० ।।
उनके पास अनेक प्रकारके शब्दोंका घोष होता रहता है। वे अनेक प्रकारकी स्तुतियोंसे सम्मानित होते हैं, समस्त प्राणियोंका संहार करते हैं, स्वयं सर्वस्वरूप हैं तथा सबके अन्तरात्मारूपसे सम्पूर्ण लोकोंमें प्रतिष्ठित हैं ।। १५१ ।।
वे सम्पूर्ण जगतके अन्तरात्मा, सर्वव्यापी और सर्ववादी हैं, उन भगवान् शिवको सर्वत्र और सम्पूर्ण देहधारियोंके हृदयमें विराजमान जानना चाहिये ।। १५२ ।।
जो जिस मनोरथको चाहता है और जिस उद्देश्यसे उसके द्वारा भगवानकी अर्चना की जाती है, देवेश्वर भगवान् शिव वह सब जानते हैं। इसलिये यदि तुम कोई वस्तु चाहते हो तो उन्हींकी शरण लो ।। १५३ ।।
वे कभी आनन्दित रहकर आनन्द देते, कभी कुपित होकर कोप प्रकट करते और कभी हुंकार करते हैं, अपने हाथोंमें चक्र, शूल, गदा, मुसल, खड्ग और पट्टिश धारण करते हैं ।। १५४ ।।
वे धरणीधर शेषनागरूप हैं, वे नागकी मेखला धारण करते हैं। नागमय कुण्डलसे कुण्डलधारी होते हैं। नागोंका ही यज्ञोपवीत धारण करते हैं तथा नागचर्मका ही उत्तरीय (चादर) लिये रहते हैं ।। १५५ ।।
वे अपने गणोंके साथ रहकर हँसते हैं, गाते हैं, मनोहर नृत्य करते हैं और विचित्र बाजे भी बजाते हैं ।। १५६ ।।
भगवान् रुद्र उछलते-कूदते हैं। जँभाई लेते हैं। रोते हैं, रुलाते हैं। कभी पागलों और मतवालोंकी तरह बातें करते हैं और कभी मधुर स्वरसे उत्तम वचन बोलते हैं || १५७ ।।
कभी भयंकर रूप धारण करके अपने नेत्रोंद्वारा लोगोंमें त्रास उत्पन्न करते हुए जोरजोरसे अट्टहास करते, जागते, सोते और मौजसे अँगड़ाई लेते हैं ।।
वे जप करते हैं और वे ही जपे जाते हैं; तप करते हैं और तपे जाते हैं (उन्हींके उद्देश्यसे तप किया जाता है)। वे दान देते और दान लेते हैं तथा योग और ध्यान करते हैं | १५९ |।
यज्ञकी वेदीमें, यूपमें, गौशालामें तथा प्रज्वलित अग्निमें वे ही दिखायी देते हैं। बालक, वृद्ध और तरुणरूपमें भी उनका दर्शन होता है || १६० ।।
वे ऋषिकन्याओं तथा मुनिपत्नियोंके साथ खेला करते हैं। कभी ऊर्ध्वकेश (ऊपर उठे हुए बालवाले), कभी महालिंग, कभी नंग-धड़ंग और कभी विकराल नेत्रोंसे युक्त हो जाते हैं । १६१ ।।
कभी गोरे, कभी साँवले, कभी काले, कभी सफेद, कभी धूएँके समान रंगवाले एवं लोहित दिखायी देते हैं। कभी विकृत नेत्रोंसे युक्त होते हैं। कभी सुन्दर विशाल नेत्रोंसे सुशोभित होते हैं। कभी दिगम्बर दिखायी देते हैं और कभी सब प्रकारके वस्त्रोंसे विभूषित होते हैं ।। १६२ ।।
वे रूपरहित हैं। उनका स्वरूप ही सबका आदिकारण है। वे रूपसे अतीत हैं। सबसे पहले जिसकी सृष्टि हुई है जल उन्हींका रूप है। इन अजन्मा महादेवजीका स्वरूप आदिअन्तसे रहित है। उसे कौन ठीक-ठीक जान सकता है ।। १६३ ।।
भगवान् शंकर प्राणियोंके हृदयमें प्राण, मन एवं जीवात्मारूपसे विराजमान हैं। वे ही योगस्वरूप, योगी, ध्यान तथा परमात्मा हैं। भगवान् महेश्वर भक्तिभावसे ही गृहीत होते हैं ।।
वे बाजा बजानेवाले और गीत गानेवाले हैं। उनके लाखों नेत्र हैं। वे एकमुख, द्विमुख, त्रिमुख और अनेक मुखवाले हैं ।। १६५ ।।
बेटा! तुम उन्हींके भक्त बनकर उन्हींमें आसक्त रहो। सदा उन्हींपर निर्भर रहो और उन्हींके शरणागत होकर महादेवजीका निरन्तर भजन करते रहो। इससे तुम्हें मनोवाज्छित वस्तुकी प्राप्ति होगी || १६६ ।।
शत्रुसूदन श्रीकृष्ण! माताका वह उपदेश सुनकर तभीसे महादेवजीके प्रति मेरी सुदृढ़ भक्ति हो गयी ।।
तदनन्तर मैंने तपस्याका आश्रय ले भगवान् शंकरको संतुष्ट किया। एक हजार वर्षतक केवल बायें पैरके अँगूठेके अग्रभागके बलपर मैं खड़ा रहा ।। १६८ ।।
पहले तो एक सौ वर्षोतक मैं फलाहारी रहा। दूसरे शतकमें गिरे-पड़े सूखे पत्ते चचाकर रहा और तीसरे शतकमें केवल जल पीकर ही प्राण धारण करता रहा ।। १६९ |।
फिर शेष सात सौ वर्षोतक केवल हवा पीकर रहा। इस प्रकार मैंने एक सहस्र दिव्य वर्षोतक उनकी आराधना की ।। १७० |।
तदनन्तर सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी भगवान् महादेव मुझे अपना अनन्यभक्त जानकर संतुष्ट हुए और मेरी परीक्षा लेने लगे | १७१ ।।
उन्होंने सम्पूर्ण देवताओंसे घिरे हुए इन्द्रका रूप धारण करके पदार्पण किया। उस समय उनके सहखस् नेत्र शोभा पा रहे थे। उन महायशस्वी इन्द्रके हाथमें वज्र प्रकाशित हो रहा था ।। १७२ ।।
वे भगवान् इन्द्र लाल नेत्र और खड़े कानवाले, सुधाके समान उज्ज्वल, मुड़ी हुई सूँड़से सुशोभित, चार दाँतोंसे युक्त और देखनेमें भयंकर मदसे उन्मत्त महान् गजराज ऐरावतकी पीठपर बैठकर अपने तेजसे प्रकाशित होते हुए वहाँ पधारे। उनके मस्तकपर मुकुट, गलेमें हार और भुजाओंमें केयूर शोभा दे रहे थे ।। १७३-१७४ ।।
सिरपर श्वेत छत्र तना हुआ था। अप्सराएँ उनकी सेवा कर रही थीं और दिव्य गन्धर्वोंके संगीतकी मनोरम ध्वनि वहाँ सब ओर गूँज रही थी ।। १७५ ।।
उस समय देवराज इन्द्रने मुझसे कहा--'द्विजश्रेष्ठ! मैं तुमपर बहुत संतुष्ट हूँ। तुम्हारे मनमें जो वर लेनेकी इच्छा हो, वही मुझसे माँग लो।” इन्द्रकी बात सुनकर मेरा मन प्रसन्न नहीं हुआ। मैंने ऊपरसे हर्ष प्रकट करते हुए देवराजसे यह कहा-- || १७६-१७७ ।।
'सौम्य! मैं महादेवजीके सिवा तुमसे या दूसरे किसी देवतासे वर लेना नहीं चाहता। यह मैं सच्ची बात कहता हूँ ।। १७८ ।।
“इन्द्र! हमारा यह कथन सत्य है, सत्य है और सुनिश्चित है। मुझे महादेवजीको छोड़कर और कोई बात अच्छी ही नहीं लगती है ।। १७९ ।।
“मैं भगवान् पशुपतिके कहनेसे तत्काल प्रसन्नतापूर्वक कीट अथवा अनेक शाखाओंसे युक्त वृक्ष भी हो सकता हूँ; परंतु भगवान् शिवसे भिन्न दूसरे किसीके वर-प्रसादसे मुझे त्रिभुवनका राज्यवैभव प्राप्त हो रहा हो तो वह भी अभीष्ट नहीं है || १८० ।।
“यदि मुझे भगवान् शंकरके चरणारविन्दोंकी वन्दनामें तत्पर रहनेका अवसर मिले तो मेरा जन्म चाण्डालोंमें भी हो जाय तो यह मुझे सहर्ष स्वीकार है। परंतु भगवान् शिवकी अनन्यभक्तिसे रहित होकर मैं इन्द्रके भवनमें भी स्थान पाना नहीं चाहता ।। १८१ ।।
“कोई जल या हवा पीकर ही रहनेवाला क्यों न हो, जिसकी सुरासुरगुरु भगवान् विश्वनाथमें भक्ति न हो, उसके दु:खोंका नाश कैसे हो सकता है? ।। १८२ ।।
'जिन्हें क्षणभरके लिये भी भगवान् शिवके चरणारविन्दोंके स्मरणका वियोग अच्छा नहीं लगता, उन पुरुषोंके लिये अन्यान्य धर्मोंसे युक्त दूसरी-दूसरी सारी कथाएँ व्यर्थ हैं ।। १८३ ।।
“कुटिल कलिकालको पाकर सभी पुरुषोंकों अपना मन भगवान् शंकरके चरणारविन्दोंके चिन्तनमें लगा देना चाहिये। शिव-भक्तिरूपी रसायनके पी लेनेपर संसाररूपी रोगका भय नहीं रह जाता है ।। १८४ ।।
“जिसपर भगवान् शिवकी कृपा नहीं है, उस मनुष्यकी एक दिन, आधे दिन, एक मुहूर्त, एक क्षण या एक लवके लिये भी भगवान् शंकरमें भक्ति नहीं होती है ।। १८५ ।।
“शक्र! मैं भगवान् शंकरकी आज्ञासे कीट या पतंग भी हो सकता हूँ, परंतु तुम्हारा दिया हुआ त्रिलोकीका राज्य भी नहीं लेना चाहता। महेश्वरके कहनेसे यदि मैं कुत्ता भी हो जाऊँ तो उसे मैं सर्वोत्तम मनोरथकी पूर्ति समझूँगा; परंतु महादेवजीके सिवा दूसरे किसीसे प्राप्त हुए देवताओंके राज्यको लेनेकी भी मुझे इच्छा नहीं है ।। १८६-१८७ ।।
“न तो मैं स्वर्गलोक चाहता हूँ, न देवताओंका राज्य पानेकी अभिलाषा रखता हूँ। न ब्रह्मलोककी इच्छा करता हूँ और न निर्गुण ब्रह्मका सायुज्य ही प्राप्त करना चाहता हूँ। भूमण्डलकी समस्त कामनाओंको भी पानेकी मेरी इच्छा नहीं है। मैं तो केवल भगवान् शिवकी दासताका ही वरण करता हूँ || १८८ ।।
“जिनके मस्तकपर अर्द्धचन्द्रमय उज्ज्वल एवं निर्मल मुकुट बँधा हुआ है, वे मेरे स्वामी भगवान् पशुपति जबतक प्रसन्न नहीं होते हैं, तबतक मैं जरा-मृत्यु और जन्मके सैकड़ों आधघातोंसे प्राप्त होनेवाले दैहिक दुःखोंका भार ढोता रहूँगा ।। १८९ ।।
“जो अपने नेत्रभूत सूर्य, चन्द्रमा और अग्निकी प्रभासे उद्भासित होते हैं, त्रिभुवनके साररूप हैं, जिनसे बढ़कर सारतत्त्व दूसरा नहीं है, जो जगतके आदिकरण, अद्वितीय तथा अजर-अमर हैं, उन भगवान् रुद्रको भक्तिभावसे प्रसन्न किये बिना कौन पुरुष इस संसारमें शान्ति पा सकता है || १९० |।
“यदि मेरे दोषोंसे मुझे बारंबार इस जगत्में जन्म लेना पड़े तो मेरी यही इच्छा है कि उस-उस प्रत्येक जन्ममें भगवान् शिवमें मेरी अक्षय भक्ति हो” || १९१ ।।
इन्द्रने पूछा--ब्रह्म! कारणके भी कारण जगदीश्वर शिवकी सत्तामें कया प्रमाण है, जिससे तुम शिवके अतिरिक्त दूसरे किसी देवताका कृपा-प्रसाद ग्रहण करना नहीं चाहते? ।। १९२ ।।
उपमन्युने कहा--देवराज! ब्रह्मवादी महात्मा जिन्हें विभिन्न मतोंके अनुसार सत्असत्, व्यक्त-अव्यक्त, नित्य, एक और अनेक कहते हैं, उन्हीं महादेवजीसे हम वर माँगेंगे । १९३ ।।
जिनका आदि, मध्य और अन्त नहीं है, ज्ञान ही जिनका ऐश्रवर्य है तथा जो चित्तकी चिन्तनशक्तिसे भी परे हैं और इन्हीं कारणोंसे जिन्हें परमात्मा कहा जाता है, उन्हीं महादेवजीसे हम वर प्राप्त करेंगे ।। १९४ ।।
योगीलोग महादेवजीके समस्त ऐश्वर्यको ही नित्य सिद्ध और अविनाशी बताते हैं। वे कारणरहित हैं और उन्हींसे समस्त कारणोंकी उत्पत्ति हुई है। अतः महादेवजीकी ऐसी महिमा है, इसलिये हम उन्हींसे वर माँगते हैं || १९५ ।।
जो अज्ञानान्धकारसे परे चिन्मय परमज्योति:स्वरूप हैं, तपस्वीजनोंके परम तप हैं तथा जिनका ज्ञान प्राप्त करके ज्ञानी पुरुष कभी शोक नहीं करते हैं, उन्हीं भगवान् शिवसे हम वर प्राप्त करना चाहते हैं || १९६ ।।
पुरंदर! जो सम्पूर्ण भूतोंके उत्पादक तथा उनके मनोभावोंको जाननेवाले हैं, समस्त प्राणियोंके पराभव (विलय)-के भी जो एकमात्र स्थान हैं तथा जो सर्वव्यापी और सब कुछ देनेमें समर्थ हैं, उन्हीं महादेवजीकी मैं पूजा करता हूँ || १९७ ।।
जो युक्तिवादसे दूर हैं, जो अपने भक्तोंको सांख्य और योगका परम प्रयोजन (आत्यन्तिक दु:खनिवृत्ति और ब्रह्मसाक्षात्कार) प्रदान करनेवाले हैं, तत्त्वज्ञ पुछष जिनकी सदा उपासना करते हैं, उन्हीं महादेवजीसे हम वरके लिये प्रार्थना करते हैं || १९८ ।।
मघवन! ज्ञानी पुरुष जिन्हें देवेश्वर इन्द्ररूप तथा सम्पूर्ण भूतोंके गुरुदेव बताते हैं, उन्हींसे हम वर लेना चाहते हैं ।। १९९ ।।
जिन्होंने पूर्वकालमें आकाशव्यापी ब्रह्माण्ड एवं लोकस्रष्टा देवेश्वर ब्रह्माको उत्पन्न किया, उन्हीं महादेवजीसे हम वर प्राप्त करना चाहते हैं | २०० ।।
देवराज! जो अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार--इन सबका स्रष्टा हो, वह परमेश्वरसे भिन्न दूसरा कौन पुरुष है? यह बताओ ।।
शक्र! जो मन, बुद्धि, अहंकार, पञ्चतन्मात्रा और दस इन्द्रिय--इन सबकी सृष्टि कर सके, ऐसा कौन पुरुष है जो भगवान् शिवसे भिन्न अथवा उत्कृष्ट हो? यह बताओ ।। २०२ ||
ज्ञानी महात्मा ब्रह्माजीको ही सम्पूर्ण विश्वका स्रष्टा बताते हैं। परंतु वे देवेश्वर महादेवजीकी आराधना करके ही महान् ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं | २०३ ।।
जिस भगवानमें ब्रह्मा और विष्णुसे भी उत्तम ऐश्वर्य है, वह परमेश्वर महादेवके सिवा दूसरा कौन है? यह बताओ तो सही ।। २०४ ।।
दैत्यों और दानवोंके प्रमुख वीर हिरण्यकशिपु आदिमें जो तीनों लोकोंपर आधिपत्य स्थापित करने और अपने शत्रुओंको कुचल देनेकी शक्ति सुनी गयी है, उसपर दृष्टिपात करके मैं यह पूछ रहा हूँ कि देवेश्वर महादेवके सिवा दूसरा कौन ऐसा है जो दितिके पुत्रोंको इस प्रकार अनुपम ऐश्वर्यसे सम्पन्न कर सके? ।।
दिशा, काल, सूर्य, अग्नि, अन्य ग्रह, वायु, चन्द्रमा और नक्षत्र--ये महादेवजीकी कृपासे ही ऐसे प्रभावशाली हुए हैं। इस बातको तुम जानते हो, अतः तुम्हीं बताओ, परमेश्वर महादेवजीके सिवा दूसरा कौन ऐसी अचिन्त्य शक्तिसे सम्पन्न है? | २०६ ।।
यज्ञकी उत्पत्ति और त्रिपुरका विनाश भी उन्हींके द्वारा सम्पन्न हुआ है। प्रधान-प्रधान दैत्यों और दानवोंको आधिपत्य प्रदान करने और शत्रुमर्दनकी शक्ति देनेवाले भी वे ही हैं || २०७ |।
सुरश्रेष्ठ पुरंदर! कौशिकवंशावतंस इन्द्र! यहाँ बहुत-सी युक्तियुक्त सूक्तियोंको सुनानेसे क्या लाभ? आप जो सहस नेत्रोंसे सुशोभित हैं तथा आपको देखकर सिद्ध, गन्धर्व, देवता और ऋषि जो सम्मान प्रदर्शित करते हैं, वह सब देवाधिदेव महादेवके प्रसादसे ही सम्भव हुआ है || २०८-२०९ |।
इन्द्र! चेतन और अचेतन आदि समस्त पदार्थोंमें 'यह ऐसा है” इस प्रकारका जो लक्षण देखा जाता है, वह सब अव्यक्त, मुक्तकेश एवं सर्वव्यापी महादेवजीके ही प्रभावसे प्रकट है; अतएव सब कुछ महेश्वरसे ही उत्पन्न हुआ है--ऐसा समझो ।। २१० ।।
भगवान् देवराज! भूलोकसे लेकर महलॉकतक समस्त लोक-लोकान्तरोंमें, पर्वतके मध्यभागमें, सम्पूर्ण द्वीपस्थानोंमें, मेरुपर्वतके वैभवपूर्ण प्रान्तोंमें सर्वत्र ही तत्त्वदर्शी पुरुष महादेवजीकी स्थिति बताते हैं || २११ ६ ।।
शक्र! यदि तेजस्वी देवगण महादेवजीके सिवा दूसरा कोई सहारा देखते हैं तो असुरोंद्वारा कुचले जानेपर वे उसीकी शरणमें क्यों नहीं जाते हैं? । २१२ $ ।।
देवता, यक्ष, नाग और राक्षस--इनमें जब संघर्ष होता और परस्पर एक-दूसरेसे विनाशका अवसर उपस्थित होता है तब उन्हें अपने स्थान और एऐश्वर्यकी प्राप्ति करानेवाले भगवान् शिव ही हैं || २१३३ ।।
बताओ तो सही, अन्धकको, शुक्रको, दुन्दुभिको, महिषको, यक्षराज कुबेरकी सेनाके राक्षमोंको तथा निवातकवच नामक दानवोंको वरदान देने और उनका विनाश करनेमें भगवान् महेश्वरको छोड़कर दूसरा कौन समर्थ है? ।। २१४-२१५ ।।
पूर्वकालमें महादेवजीके सिवा दूसरे किस देवताके वीर्यकी देवासुरगुरु अग्निके मुखमें आहुति दी गयी थी? जिसके द्वारा सुवर्णमय मेरुगिरिका निर्माण हुआ, वह भगवान् शिवके सिवा और किस देवताका वीर्य था? ।। २१६ ।।
दूसरा कौन दिगम्बर कहलाता है? संसारमें दूसरा कौन ऊर्ध्वरेता है? किसके आधे शरीरमें धर्मपत्नी स्थित रहती है तथा किसने कामदेवको परास्त किया है? ।।
इन्द्र! बताओ तो सही, किसके उत्कृष्ट स्थानकी देवताओंद्वारा प्रशंसा की जाती है? किसकी क्रीड़ाके लिये श्मशानभूमिमें स्थान नियत किया गया है? तथा ताण्डव-नृत्यमें कौन सर्वोपरि बताया जाता है ।। २१८ ।।
भगवान् शंकरके समान दूसरे किसका ऐश्वर्य है? कौन भूतोंके साथ क्रीड़ा करता है? देव! किसके पार्षदगण स्वामीके समान ही बलवान् और ऐश्वर्यपर अभिमान करनेवाले हैं? ।। २१९ ।।
किसका स्थान तीनों लोकोंमें पूजित और अविचल बताया जाता है। भगवान् शंकरके सिवा दूसरा कौन वर्षा करता है? कौन तपता है? और कौन अपने तेजसे प्रज्वलित होता है? || २२०
किससे ओषधियाँ--खेती-बारी या शस्य-सम्पत्ति बढ़ती है? कौन धनका धारण-पोषण करता है? कौन चराचर प्राणियोंसहित त्रिलोकीमें इच्छानुसार क्रीड़ा करता है? ।। २२१ ।।
योगीजन ज्ञान, सिद्धि और क्रिया-योगद्वारा भगवान् शिवकी ही सेवा करते हैं तथा ऋषि, गन्धर्व और सिद्धगण उन्हें ही परम कारण मानकर उनका आश्रय लेते हैं। ॥२२२।।
देवता और असुर सब लोग कर्म, यज्ञ और क्रिया-योगद्वारा सदा जिनकी सेवा करते हैं, उन कर्मफलरहित महादेवजीको मैं सबका कारण कहता हूँ || २२३ ।।
महादेवजीका परमपद स्थूल, सूक्ष्म, उपमा-रहित, इन्द्रियोंद्वारा अग्राह्मू, सगुण, निर्गुण तथा गुणोंका नियामक है ।। २२४ ।।
इन्द्र! जो सम्पूर्ण विश्वके अधीश्वर, प्रकृतिके भी नियामक, लोक (जगत्की सृष्टि) तथा सम्पूर्ण लोकोंके संहारके भी कारण हैं, भूत, वर्तमान और भविष्य--तीनों काल जिनके ही स्वरूप हैं, जो सबके उत्पादक एवं कारण हैं, क्षर-अक्षर, अव्यक्त, विद्या-अविद्या, कृतअकृत तथा धर्म और अधर्म जिनसे ही प्रकट हुए हैं, उन महादेवजीको ही मैं सबका परम कारण बताता हूँ || २२५-२२६ ।।
देवेन्द्र! सृष्टि और संहारके कारणभूत देवाधिदेव भगवान् रुद्रने जो भगचिदह्नित लिड्रमूर्ति धारण की है, उसे आप यहाँ प्रत्यक्ष देख लें। यह उनके कारण-स्वरूपका परिचायक है || २२७ ।।
इन्द्र! मेरी माताने पहले कहा था कि महादेवजीके अतिरिक्त अथवा उनसे बढ़कर कोई लोकरूपी कार्यका कारण नहीं है; अत: यदि किसी अभीष्ट वस्तुके पानेकी तुम्हारी इच्छा हो तो भगवान् शंकरकी ही शरण लो ।। २२८ ।।
सुरेश्वर! तुम्हें प्रत्यक्ष विदित है कि ब्रह्मा आदि प्रजापतियोंके संकल्पसे उत्पन्न हुआ यह बद्ध और मुक्त जीवोंसे युक्त त्रिभुवन भग और लिंगसे प्रकट हुआ है तथा सहस्ंरों कामनाओंसे युक्त बुद्धिवाले तथा ब्रह्मा, इन्द्र, अग्नि एवं विष्णुसहित सम्पूर्ण देवता और दैत्यायाज महादेवजीसे बढ़कर दूसरे किसी देवताको नहीं बताते हैं। जो सम्पूर्ण चराचर जगत्के लिये वेद-विख्यात सर्वोत्तम जाननेयोग्य तत्त्व हैं, उन्हीं कल्याणमय देव भगवान् शंकरका कामनापूर्तिके लिये वरण करता हूँ तथा संयतचित्त होकर सद्यःमुक्तिके लिये भी उन्हींसे प्रार्थना करता हूँ |। २२९ ।।
दूसरे-दूसरे कारणोंको बतलानेसे क्या लाभ? भगवान् शंकर इसलिये भी समस्त कारणोंके भी कारण सिद्ध होते हैं कि हमने देवताओंद्वारा दूसरे किसीके लिंगको पूजित होते नहीं सुना है ।। २३० ।।
भगवान् महेश्वरको छोड़कर दूसरे किसके लिंगकी सम्पूर्ण देवता पूजा करते हैं अथवा पहले कभी उन्होंने पूजा की है? यदि तुम्हारे सुननेमें आया हो तो बताओ ।। २३१ ।।
ब्रह्मा, विष्णु तथा सम्पूर्ण देवताओंसहित तुम सदा ही शिवलिंगकी पूजा करते आये हो; इसलिये भगवान् शिव ही सबसे श्रेष्ठतम देवता हैं || २३२ ।।
प्रजाओंके शरीरमें न तो पद्मका चिह्न है, न चक्रका चिह्न है और न वज्रका ही चिह्न उपलक्षित होता है। सभी प्रजा लिंग और भगके चिह्नसे युक्त हैं, इसलिये यह सिद्ध है कि सम्पूर्ण प्रजा माहेश्वरी है (महादेवजीसे ही उत्पन्न हुई है) || २३३ ।।
देवी पार्ववीके कारणस्वरूप भावसे संसारकी समस्त स्त्रियाँ उत्पन्न हुई हैं; इसलिये भगके चिह्लसे अंकित हैं और भगवान् शिवसे उत्पन्न होनेके कारण सभी पुरुष लिंगके चिह्नसे चिह्नित हैं--यह सबको प्रत्यक्ष है; ऐसी दशामें जो शिव और पार्वतीके अतिरिक्त अन्य किसीको कारण बताता है, जिससे कि प्रजा चिह्नित नहीं है, वह अन्य कारणवादी दुर्बुद्धि पुरुष चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोकोंसे बाहर कर देने योग्य है ।। २३४ ।।
जितना भी पुल्लिंग है, वह सब शिवस्वरूप है और जो भी स्त्रीलिंग है उसे उमा समझो। महेश्वर और उमा--इन दो शरीरोंसे ही यह सम्पूर्ण चराचर जगत व्याप्त है ।। २३५ |।
सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि जिनके नेत्र हैं, जो त्रिभुवनके सारतत्त्व, अपार, ईश्वर, सबके आदिकारण तथा अजर-अमर हैं, उन रुद्रदेवको प्रसन्न किये बिना इस संसारमें कौन पुरुष शान्ति पा सकता है ।।
अतः कौशिक! मैं भगवान् शंकरसे ही वर अथवा मृत्यु पानेकी इच्छा रखता हूँ। बलसूदन इन्द्र! तुम जाओ या खड़े रहो, जैसी इच्छा हो करो || २३६ ।।
मुझे महेश्वरसे चाहे वर मिले, चाहे शाप प्राप्त हो, स्वीकार है, परंतु दूसरा देवता यदि सम्पूर्ण मनोवांछित फलोंको देनेवाला हो तो भी मैं उसे नहीं चाहता ।। २३७ ।।
देवराज इन्द्रसे ऐसा कहकर मेरी इन्द्रियाँ दु:खसे व्याकुल हो उठीं और मैं सोचने लगा कि यह क्या कारण हो गया कि महादेवजी मुझपर प्रसन्न नहीं हो रहे हैं | २३८ ।।
तदनन्तर एक ही क्षणमें मैंने देखा कि वही ऐरावत हाथी अब वृषभरूप धारण करके स्थित है। उसका वर्ण हंस, कुन्द और चन्द्रमाके समान श्वेत है। उसकी अंगकान्ति मृणालके समान उज्ज्वल और चाँदीके समान चमकीली है। जान पड़ता था साक्षात् क्षीरसागर ही वृषभरूप धारण करके खड़ा हो। काली पूँछ, विशाल शरीर और मधुके समान पिंगल वर्णवाले नेत्र शोभा पा रहे थे || २३९-२४० ।।
उसके सींग ऐसे जान पड़ते थे मानो वज्रके सारतत्त्वसे बने हों। उनसे तपाये हुए सुवर्णकी-सी प्रभा फैल रही थी। उन सींगोंके अग्रभाग अत्यन्त तीखे, कोमल तथा लाल रंगके थे। ऐसा लगता था मानो उन सींगोंके द्वारा वह इस पृथ्वीको विदीर्ण कर डालेगा ।। २४१ ।।
उसके शरीरकों सब ओरसे जाम्बूनद नामक सुवर्णकी लड़ियोंसे सजाया गया था। उसके मुख, खुर, नासिका (नथुने), कान और कटिप्रदेश--सभी बड़े सुन्दर थे || २४२ ।।
उसके अगल-बगलका भाग भी बड़ा मनोहर था। कंधे चौड़े और रूप सुन्दर था। वह देखनेमें बड़ा मनोहर जान पड़ता था। उसका ककुद् समूचे कंधेको घेरकर ऊँचे उठा था। उसकी बड़ी शोभा हो रही थी ।। २४३ ।।
हिमालय पर्वतके शिखर अथवा श्वेत बादलोंके विशाल खण्डके समान प्रतीत होनेवाले उस नन्दिकेश्वरपर देवाधिदेव भगवान् महादेव भगवती उमाके साथ आरूढ़ हो पूर्णिमाके चन्द्रमाकी भाँति शोभा पा रहे थे || २४४ $ ।।
उनके तेजसे प्रकट हुई अग्निकी-सी प्रभा गर्जना करनेवाले मेघोंसहित सम्पूर्ण आकाशको व्याप्त करके सहसोरों सूर्योके समान प्रकाशित हो रही थी | २४५३६ ।।
वे महातेजस्वी महेश्वर ऐसे दिखायी देते थे मानो कल्पान्तके समय सम्पूर्ण भूतोंको दग्ध कर देनेकी इच्छासे उद्यत हुई प्रलयकालीन अग्नि प्रज्वलित हो उठी हो || २४६३ ।।
वे अपने तेजसे सब ओर व्याप्त हो रहे थे, अतः उनकी ओर देखना कठिन था। तब मैं उद्विग्नचित्त होकर फिर इस चिन्तामें पड़ गया कि यह क्या है? || २४७३ ।।
इतनेहीमें एक मुहूर्त बीतते-बीतते वह तेज सम्पूर्ण दिशाओंमें फैलकर देवाधिदेव महादेवजीकी मायासे सब ओर शान्त हो गया ।। २४८ ३ ||
तत्पश्चात् मैंने देखा, भगवान् महेश्वर स्थिर भावसे खड़े हैं। उनके कण्ठमें नील चिह्न शोभा पा रहा था। वे महात्मा कहीं भी आसक्त नहीं थे। वे तेजकी निधि जान पड़ते थे। उनके अठारह भुजाएँ थीं। वे भगवान् स्थाणु समस्त आभूषणोंसे विभूषित थे ।।
महादेवजीने श्वेत वस्त्र धारण कर रखा था। उनके श्रीअंगोंमें श्वेत चन्द्रका अनुलेप लगा था। उनकी ध्वजा भी श्वेत वर्णकी ही थी। वे श्वेत रंगका यज्ञोपवीत धारण करनेवाले और अजेय थे ।। २५१ ।।
वे अपने ही समान पराक्रमी दिव्य पार्षदोंसे घिरे हुए थे। उनके वे पार्षद सब ओर गाते, नाचते और बाजे बजाते थे || २५२ ।।
भगवान् शिवके मस्तकपर बाल चन्द्रमाका मुकुट सुशोभित था। उनकी अंग-कान्ति श्वैतवर्णकी थी। वे शरद्-ऋतुके पूर्ण चन्द्रमाके समान उदित हुए थे। उनके तीनों नेत्रोंसे ऐसा प्रकाश-पुञ्ज छा रहा था मानो तीन सूर्य उदित हुए हों | २५३ ।।
जो सम्पूर्ण विद्याओंके अधिपति, शरत्कालके चन्द्रमाकी भाँति कान्तिमान् तथा नेत्रोंके लिये परमानन्द-दायक सौभाग्य प्रदान करनेवाले थे। इस प्रकार मैंने परमेश्वर महादेवजीके मनोहर रूपको देखा ।।
भगवानके उज्ज्वल प्रभावाले गौर विग्रहपर सुवर्णमय कमलोंसे गुँथी हुई रत्नभूषित माला बड़ी शोभा पा रही थी ।। २५४ ।।
गोविन्द! मैंने अमित तेजस्वी महादेवजीके सम्पूर्ण तेजोमय आयुधोंको मूर्तिमान् होकर उनकी सेवामें उपस्थित देखा था || २५५ ||
उन महात्मा रुद्रदेवका इन्द्रधनुषके समान रंगवाला जो पिनाक नामसे विख्यात धनुष है, वह विशाल सर्पके रूपमें प्रकट हुआ था || २५६ ।।
उसके सात फन थे। उसका डीलडौल भी विशाल था। तीखी दाढ़ें दिखायी देती थीं। वह अपने प्रचण्ड विषके कारण मतवाला हो रहा था। उसकी विशाल ग्रीवा प्रत्यज्चासे आवेष्टित थी। वह पुरुष-शरीर धारण करके खड़ा था || २५७ ।।
भगवान्का जो बाण था वह सूर्य और प्रलयकालीन अग्निके समान प्रचण्ड तेजसे प्रकाशित होता था। यही अत्यन्त भयंकर एवं महान् दिव्य पाशुपत अस्त्र था ॥।
उसके जोड़का दूसरा अस्त्र नहीं था। समस्त प्राणियोंको भय देनेवाला वह विशालकाय अस्त्र अनिर्वचनीय जान पड़ता था और अपने मुखसे चिनगारियोंसहित अग्निकी वर्षा कर रहा था || २५९ ||
वह भी सर्पके ही आकारमें दृष्टिगोचर होता था। उसके एक पैर, बहुत बड़ी दाढ़ें, सहस्रों सिर, सहस्रों पेट, सहस्रों भुजा, सहस्रों जिह्ला और सहस्ौरों नेत्र थे। वह आग-सा उगल रहा था ।। २६० ।।
महाबाहो! सम्पूर्ण शस्त्रोंका विनाश करनेवाला वह पाशुपत अस्त्र ब्राह्म, नारायण, ऐन्द्र, आग्नेय और वारुण अस्त्रसे भी बढ़कर शक्तिशाली था ।। २६१ ।।
गोविन्द! उसीके द्वारा महादेवजीने लीलापूर्वक एक ही बाण मारकर क्षणभरमें दैत्योंके तीनों पुरोंकोी जलाकर भस्म कर दिया था || २६२ ।।
भगवान् महेश्वरकी भुजाओंसे छूटनेपर वह अस्त्र चराचर प्राणियोंसहित सम्पूर्ण त्रिलोकीको आधे निमेषमें ही भस्म कर देता है--इसमें संशय नहीं है || २६३ ।।
इस लोकमें जिस अस्त्रके लिये ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओंमेंसे भी कोई अवध्य नहीं है, उस परम उत्तम आश्वर्यमय पाशुपतास्त्रको मैंने यहाँ प्रत्यक्ष देखा था। वह श्रेष्ठ अस्त्र परम गोपनीय है। उसके समान अथवा उससे बढ़कर भी दूसरा कोई श्रेष्ठ अस्त्र नहीं है || २६४ ३ ||
त्रिशूलधारी भगवान् शंकरका सम्पूर्ण लोकोंमें विख्यात जो वह त्रिशूल नामक अस्त्र है वह शूलपाणि शंकरके द्वारा छोड़े जानेपर इस सारी पृथ्वीको विदीर्ण कर सकता है, महासागरको सुखा सकता है अथवा समस्त संसारका संहार कर सकता है | २६५-२६६ ।।
श्रीकृष्ण! पूर्वकालमें त्रिलोकविजयी, महातेजस्वी, महाबली, महान् वीर्यशाली, इन्द्रतुल्य पराक्रमी चक्रवर्ती राजा मान्धाता लवणासुरके द्वारा प्रयुक्त हुए उस शूलसे ही सेनासहित नष्ट हो गये थे। अभी वह अस्त्र उस असुरके हाथसे छूटने भी नहीं पाया था कि राजाका सर्वनाश हो गया || २६७-२६८ ।।
उस शूलका अग्रभाग अत्यन्त तीक्ष्ण है। वह बहुत ही भयंकर और रोमाज्चकारी है, मानो वह अपनी भौंहें तीन जगहसे टेढ़ी करके विरोधीको डाँट बता रहा हो, ऐसा जान पड़ता है ।। २६९ ||
गोविन्द! धूमरहित आगकी ज्वालाओंसहित वह काला त्रिशूल प्रलयकालके सूर्यके समान उदित हुआ था; और हाथमें सर्प लिये अवर्णनीय शक्तिशाली पाशधारी यमराजके समान जान पड़ता था। भगवान् रुद्रके निकट मैंने उसका भी दर्शन किया था || २७० $
पूर्वकालमें महादेवजीने संतुष्ट होकर परशुरामको जिसका दान किया था और जिसके द्वारा महासमरमें चक्रवर्ती राजा कार्तवीर्य अर्जुन मारा गया था, क्षत्रियोंका विनाश करनेवाला वह तीखी धारसे युक्त परशु मुझे भगवान् रुद्रके निकट दिखायी दिया था || २७१-२७२ ||
गोविन्द! अनायास ही महान् कर्म करनेवाले जमदग्निनन्दन परशुरामने उसी परशुके द्वारा इक्कीस बार इस पृथ्वीको क्षत्रियोंसे शून्य कर दिया था || २७३ ।।
उसकी धार चमक रही थी, उसका मुखभाग बड़ा भयंकर जान पड़ता था। वह सर्पयुक्त कण्ठवाले महादेवजीके कण्ठके अग्रभागमें स्थित था। इस प्रकार शूलधारी भगवान् शिवके समीप वह परशु सैकड़ों प्रज्वलित अग्नियोंके समान देदीप्यमान होता था || २७४ ।।
निष्पाप श्रीकृष्ण! बुद्धिमान् भगवान् शिवके असंख्य दिव्यास्त्र हैं। मैंने यहाँ आपके सामने इन प्रमुख अस्त्रोंका वर्णन किया है ।। २७५ ।।
उस समय महादेवजीके दाहिने भागमें लोकपितामह ब्रह्मा मनके समान वेगशाली हंसयुक्त दिव्य विमानपर बैठे हुए शोभा पा रहे थे और बायें भागमें शंख, चक्र और गदा धारण किये भगवान् नारायण गरुडपर विराजमान थे || २७६-२७७ ।।
कुमार स्कन्द मोरपर चढ़कर हाथमें शक्ति और घंटा लिये पार्वतीदेवीके पास ही खड़े थे। वे दूसरे अग्निके समान प्रकाशित हो रहे थे || २७८ ।।
महादेवजीके आगे मैंने नन्न्दीको उपस्थित देखा, जो शूल उठाये दूसरे शंकरके समान खड़े थे || २७९ ।।
स्वायम्भुव आदि मनु, भूगु आदि ऋषि तथा इन्द्र आदि देवता--ये सभी वहाँ पधारे थे ।। २८० ।।
समस्त भूतगण और नाना प्रकारकी मातृकाएँ उपस्थित थीं। वे सब देवता महात्मा महादेवजीको चारों ओरसे घेरकर नाना प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति कर रहे थे।। २८१३ ||
ब्रह्माजीने रथन्तर सामका उच्चारण करके उस समय भगवान् शंकरकी स्तुति की। नारायणने ज्येष्ठसामद्दारा देवेश्वर शिवकी महिमाका गान किया ।।
इन्द्रने उत्तम शतरुद्रियका सस्वर पाठ करते हुए परत्रह्म शिवका स्तवन किया। ब्रह्मा, नारायण और देवराज इन्द्र--ये तीनों महात्मा तीन अग्नियोंके समान शोभा पा रहे थे ।। २८४ ३ ||
इन तीनोंके बीचमें विराजमान भगवान् शिव शरद्-ऋतुके बादलोंके आवरणसे मुक्त हो परिधि (घेरे)-में स्थित हुए सूर्यदेवके समान शोभा पा रहे थे || २८५३६ ।।
केशव! उस समय मैंने आकाशमें सहस्रों चन्द्रमा और सूर्य देखे। तदनन्तर मैं सम्पूर्ण जगत्के पालक महादेवजीकी स्तुति करने लगा || २८६३ ।।
उपमन्यु बोले--प्रभो! आप देवताओंके भी अधिदेवता हैं। आपको नमस्कार है। आप ही महान् देवता हैं, आपको नमस्कार है। इन्द्र आपके ही रूप हैं। आप ही साक्षात् इन्द्र हैं तथा आप इन्द्रका-सा वेश धारण करनेवाले हैं। इन्द्रके रूपमें आप ही अपने हाथमें वज्र लिये रहते हैं। आपका वर्ण पिंगल और अरुण है, आपको नमस्कार है || २८७-२८८ ।।
आपके हाथमें पिनाक शोभा पाता है। आप सदा शंख और त्रिशूल धारण करते हैं। आपके वस्त्र काले हैं तथा आप मस्तकपर काले घुँघराले केश धारण करते हैं, आपको नमस्कार है ।। २८९ ।।
काला मृगचर्म आपका दुपट्टा है। आप श्रीकृष्णाष्टमीव्रतमें तत्पर रहते हैं। आपका वर्ण शुक्ल है। आप स्वरूपसे भी शुक्ल (शुद्ध) हैं तथा आप श्वेत वस्त्र धारण करते हैं। आपको नमस्कार है || २९० |।
आप अपने सारे अंगोंमें श्वेत भस्म लपेटे रहते हैं। विशुद्ध कर्ममें अनुरक्त हैं। कभीकभी आप रक्त वर्णके हो जाते हैं और लाल वस्त्र ही धारण कर लेते हैं। आपको नमस्कार है || २९१ |।
रक्ताम्बरधारी होनेपर आप अपनी ध्वजा-पताका भी लाल ही रखते हैं। लाल फूलोंकी माला पहनकर अपने श्रीअंगोंमें लाल चन्दनका ही लेप लगाते हैं। किसी समय आपकी अंगकान्ति पीले रंगकी हो जाती है। ऐसे समयमें आप पीताम्बर धारण करते हैं। आपको नमस्कार है ।। २९२ ||
आपके मस्तकपर ऊँचा छत्र तना है। आप सुन्दर किरीट धारण करते हैं। अर्द्धनारीश्वररूपमें आपके आधे अंगमें ही हार, आधेमें ही केयूर और आधे अंगके ही कानमें कुण्डल शोभा पाता है। आपको नमस्कार है ।। २९३ ।।
आप वायुके समान वेगशाली हैं। आपको नमस्कार है। आप ही मेरे आराध्यदेव हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। आप ही सुरेन्द्र, मुनीन्द्र और महेन्द्र हैं। आपको नमस्कार है ।। २९४ ।।
आप अपने आधे अंगको कमलोंकी मालासे अलंकृत करते हैं और आधेमें उत्पलोंसे विभूषित होते हैं। आधे अंगमें चन्दनका लेप लगाते हैं तो आधे शरीरमें फ़ूलोंका गजरा और सुगन्धित अंगराग धारण करते हैं। ऐसे अर्द्धनारीश्वररूपमें आपको नमस्कार है | २९५
आपके मुख सूर्यके समान तेजस्वी हैं। सूर्य आपके नेत्र हैं। आपकी अंगकान्ति भी सूर्यके ही समान है तथा आप अधिक सादृश्यके कारण सूर्यकी प्रतिमा-से जान पड़ते हैं | २९६ ।।
आप सोमस्वरूप हैं। आपकी आकृति बड़ी सौम्य है। आप सौम्य मुख धारण करते हैं। आपका रूप भी सौम्य है। आप प्रमुख देवता हैं और सौम्य दंतावलीसे विभूषित होते हैं। आपको नमस्कार है ॥। २९७ ।।
आप हरिहररूप होनेके कारण आधे शरीरसे साँवले और आधेसे गोरे हैं। आधे शरीरमें पीताम्बर धारण करते हैं और आधेमें श्वेत वस्त्र पहनते हैं। आपको नमस्कार है। आपके आधे शरीरमें नारीके अवयव हैं और आधेमें नरके। आप स्त्री-पुरुषरूप हैं। आपको नमस्कार है ।। २९८ ।।
आप कभी बैलपर सवार होते हैं और कभी गजराजकी पीठपर बैठकर यात्रा करते हैं। आप दुर्गम हैं। आपको नमस्कार है। जो दूसरोंके लिये अगम्य है, वहाँ भी आपकी गति है। आपको नमस्कार है ।। २९९ |।
प्रमथगण आपकी महिमाका गान करते हैं। आप अपने पार्षदोंकी मण्डलीमें रत रहते हैं। आपके प्रत्येक मार्गपर प्रमथगण आपके पीछे-पीछे चलते हैं। आपकी सेवा ही गणोंका नित्य-व्रत है। आपको नमस्कार है ।।
आपकी कान्ति श्वेत बादलोंके समान है। आपकी प्रभा संध्याकालीन अरुणरागके समान है। आपका कोई निश्चित नाम नहीं है। आप सदा स्वरूपमें ही स्थित रहते हैं। आपको नमस्कार है ।। ३०१ ।।
आपका सुन्दर वस्त्र लाल रंगका है। आप लाल सूत्र धारण करते हैं। लाल रंगकी मालासे आपकी विचित्र शोभा होती है। आप रक्त वस्त्रधारी रुद्रदेवको नमस्कार है ।। ३०२ |।
आपका मस्तक दिव्य मणिसे विभूषित है। आप अपने ललाटमें अर्द्धचन्द्रका आभूषण धारण करते हैं। आपका सिर विचित्र मणिकी प्रभासे प्रकाशभान है और आप आठ पुष्प धारण करते हैं || ३०३ ।।
आपके मुख और नेत्रमें अग्निका निवास है। आपके नेत्र सहस्रों चन्द्रमाओंके समान प्रकाशित हैं। आप अग्निस्वरूप, कमनीयविग्रह और दुर्गण गहन (वन) रूप हैं। आपको नमस्कार है ।। ३०४ ।।
चन्द्रमा और सूर्यके रूपमें आप आकाशचारी देवताको नमस्कार है। जहाँ गौएँ चरती हैं उस स्थानसे आप विशेष प्रेम रखते हैं। आप पृथ्वीपर विचरनेवाले और त्रिभुवनरूप हैं। अनन्त एवं शिवस्वरूप हैं। आपको नमस्कार है ।। ३०५ ।।
आप दिगम्बर हैं। आपको नमस्कार है। आप सबके आवास-स्थान और सुन्दर वस्त्र धारण करनेवाले हैं। सम्पूर्ण जगत् आपमें ही निवास करता है। आपको सम्पूर्ण सिद्धियोंका सुख सुलभ है। आपको नमस्कार है ।। ३०६ ।।
आप मस्तकपर सदा मुकुट बाँधे रहते हैं। भुजाओंमें विशाल केयूर धारण करते हैं। आपके कण्ठमें सर्पोका हार शोभा पाता है तथा आप विचित्र आभूषणोंसे विभूषित होते हैं। आपको नमस्कार है || ३०७ ।।
सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि--ये तीन नेत्ररूप होकर आपको न्रिनेत्रधारी बना देते हैं। आपके लाखों नेत्र हैं। आप स्त्री हैं, पुरुष हैं और नपुंसक हैं। आप ही सांख्यवेत्ता और योगी हैं। आपको नमस्कार है ।| ३०८ ।।
आप यज्ञपूरक 'शंयु” नामक देवताके प्रसादरूप हैं और अथर्ववेदस्वरूप हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। जो सबकी पीड़ाका नाश करनेवाले और शोकहारी हैं, उन्हें नमस्कार है, नमस्कार है || ३०९ ।।
जो मेघके समान गम्भीर नाद करनेवाले तथा बहुसंख्यक मायाओंके आधार हैं, जो बीज और क्षेत्रका पालन करते हैं और जगत्की सृष्टि करनेवाले हैं, उन भगवान् शिवको बारंबार नमस्कार है || ३१० ।।
आप देवताओं और असुरोंके स्वामी हैं। आपको नमस्कार है। आप सम्पूर्ण विश्वके ईश्वर हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। आप वायुके समान वेगशाली तथा वायुरूप हैं। आपको नमस्कार है, नमस्कार है ।। ३११ ।।
आप सुवर्णमालाधारी तथा पर्वत-मालाओंमें विहार करनेवाले हैं। देवशत्रुओंके मुण्डोंकी माला धारण करनेवाले प्रचण्ड वेगशशाली आपको नमस्कार है, नमस्कार है || ३१२ |।
ब्रह्माजीके मस्तकका उच्छेद और महिषका विनाश करनेवाले आपको नमस्कार है। आप स्त्रीरूप धारण करनेवाले तथा यज्ञके विध्वंसक हैं। आपको नमस्कार है ।। ३१३ |।
असुरोंके तीनों पुरोंका विनाश और दक्ष-यज्ञका विध्वंस करनेवाले आपको नमस्कार है। कामके शरीरका नाश तथा कालदण्डको धारण करनेवाले आपको नमस्कार है ।| ३१४ ।।
स्कन्द और विशाखरूप आपको नमस्कार है। ब्रह्मदण्डस्वरूप आपको नमस्कार है। भव (उत्पादक) और शर्व (संहारक)-रूप आपको नमस्कार है। विश्वरूपधारी प्रभुको नमस्कार है | ३१५ ||
आप सबके ईश्वर, संसार-बन्धनका नाश करनेवाले तथा अन्धकासुरके घातक हैं। आपको नमस्कार है। आप सम्पूर्ण मायास्वरूप तथा चिन्त्य और अचिन्त्यरूप हैं। आपको नमस्कार है ।। ३१६ ||
आप ही हमारी गति हैं, श्रेष्ठ हैं और आप ही हमारे हृदय हैं। आप सम्पूर्ण देवताओंमें ब्रह्मा तथा रुद्रोंमें नीललोहित हैं || ३१७ ।।
आप समस्त प्राणियोंमें आत्मा और सांख्यशास्त्रमें पुरुष कहलाते हैं। आप पवित्रोंमें ऋषभ तथा योगियोंमें निष्कल शिवरूप हैं || ३१८ ।।
आप आश्रमियोंमें गृहस्थ, ईश्वरोंमें महेश्वर, सम्पूर्ण यक्षोंमें कुबेर तथा यज्ञोंमें विष्णु कहलाते हैं | ३१९ ।।
पर्वतोंमें आप मेरु हैं। नक्षत्रोंमें चन्द्रमा हैं। ऋषियोंमें वसिष्ठ हैं तथा ग्रहोंमें सूर्य कहलाते हैं || ३२० ।।
आप जंगली पशुओंमें सिंह हैं। आप ही परमेश्वर हैं। ग्रामीण पशुओंमें आप ही लोकसम्मानित साँड़ हैं ।। ३२१ ।।
आप ही आदित्योंमें विष्णु हैं। वसुओंमें अग्नि हैं। पक्षियोंमें आप विनतानन्दन गरुड और सर्पोमें अनन्त (शेषनाग) हैं || ३२२ ।।
आप वेदोंमें सामवेद, यजुर्वेदके मन्त्रोंमें शतरुद्रिय, योगियोंमें सनत्कुमार और सांख्यवेत्ताओंमें कपिल हैं ।।
देव! आप मरुदगणोंमें इन्द्र, पितरोंमें हव्यवाहन अग्नि, लोकोंमें ब्रह्मतोक और गतियोंमें मोक्ष कहलाते हैं ।।
आप समुद्रोंमें क्षीरसागर, पर्वतोंमें हिमालय, वर्णोमें ब्राह्मण और ब्राह्मणोंमें भी दीक्षित ब्राह्मण (यज्ञकी दीक्षा लेनेवाले) हैं | ३२५ ।।
आप ही सम्पूर्ण लोकोंके आदि हैं। आप ही संहार करनेवाले काल हैं। संसारमें और भी जो-जो वस्तुएँ सर्वथा तेजमें बढ़ी-चढ़ी हैं, वे सभी आप भगवान् ही हैं--यह मेरी निश्चित धारणा है ।। ३२६६ |।
भगवन्! देव! आपको नमस्कार है। भक्तवत्सल! आपको नमस्कार है। योगेश्वर! आपको नमस्कार है। विश्वकी उत्पत्तिके कारण! आपको नमस्कार है || ३२७३ ।।
सनातन परमेश्वर! आप मुझ दीन-दुःखी भक्तपर प्रसन्न होइये। मैं ऐश्वर्यसे रहित हूँ। आप ही मेरे आश्रयदाता हों ।। ३२८ ई ।।
परमेश्वर देवेश! मैंने अनजानमें जो अपराध किये हों, वह सब यह समझकर क्षमा कीजिये कि यह मेरा अपना ही भक्त है || ३२९६ ।।
देवेश्वरर आपने अपना रूप बदलकर मुझे मोहमें डाल दिया। महेश्वर! इसीलिये न तो मैंने आपको अर्घ्य दिया और न पाद्य ही समर्पित किया || ३३०६ ।।
इस प्रकार भगवान् शिवकी स्तुति करके मैंने उन्हें भक्तिभावसे पाद्य और अर्घ्य निवेदन किया। फिर दोनों हाथ जोड़कर उन्हें अपना सब कुछ समर्पित कर दिया ।। ३३१ ६ ।।
तात! तदनन्तर मेरे मस्तकपर शीतल जल और दिव्य सुगन्धसे युक्त फूलोंकी शुभ वृष्टि होने लगी। उसी समय देवकिड्करोंने दिव्य दुन्दुभि बजाना आरम्भ किया और पवित्र गन्धसे युक्त पुण्यमयी सुखद वायु चलने लगी || ३३२-३३३ ।।
तब पत्नीसहित प्रसन्न हुए वृषभध्वज महादेवजीने मेरा हर्ष बढ़ाते हुए-से वहाँ सम्पूर्ण देवताओंसे कहा-- ।।
“देवताओ! तुम सब लोग देखो कि महात्मा उपमन्युकी मुझमें नित्य एकभावसे बनी रहनेवाली कैसी उत्तम भक्ति है” || ३३५ |।।
श्रीकृष्ण! शूलपाणि महादेवजीके ऐसा कहनेपर वे सब देवता हाथ जोड़ उन वृषभध्वज शिवजीको नमस्कार करके बोले-- ।। ३३६ ।।
“भगवन्! देवदेवेश्वर! लोकनाथ! जगत्पते! ये द्विजश्रेष्ठ उपमन्यु आपसे अपनी सम्पूर्ण कामनाओंके अनुसार अभीष्ट फल प्राप्त करें! || ३३७ ।।
ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवताओंके ऐसा कहनेपर सबके ईश्वर और कल्याणकारी भगवान् शिवने मुझसे हँसते हुए-से कहा ।। ३३८ ।।
भगवान् शिवजी बोले--वत्स उपमन्यो! मैं तुमपर बहुत संतुष्ट हूँ। मुनिपुड़व! तुम मेरी ओर देखो। ब्रह्मर्ष! मुझमें तुम्हारी सुदृढ़ भक्ति है। मैंने तुम्हारी परीक्षा कर ली है | ३३९ ।।
तुम्हारी इस भक्तिसे मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई है, अतः मैं तुम्हें आज तुम्हारी सभी मनोवाजञ्छित कामनाएँ पूर्ण किये देता हूँ || ३४० ।।
परम बुद्धिमान् महादेवजीके इस प्रकार कहनेपर मेरे नेत्रोंसे हर्षके आँसू बहने लगे और सारे शरीरमें रोमाउ्च हो आया ।। ३४१ ।।
तब मैंने धरतीपर घुटने टेककर भगवान्को बारंबार प्रणाम किया और हर्षगद्गद वाणीद्वारा महादेवजीसे इस प्रकार कहा-- ।। ३४२ ।।
“देव! आज ही मैंने वास्तवमें जन्म ग्रहण किया है। आज मेरा जन्म सफल हो गया; क्योंकि इस समय मेरे सामने देवताओं और असुरोंके गुरु आप साक्षात् महादेवजी खड़े हैं || ३४३ ।।
“जिन अमित पराक्रमी महादेवजीको देवता भी सुगमतापूर्वक देख नहीं पाते हैं उन्हींका मुझे प्रत्यक्ष दर्शन मिला है; अत: मुझसे बढ़कर धन्यवादका भागी दूसरा कौन हो सकता है? ।। ३४४ ।।
“अजन्मा, अविनाशी, ज्ञानमय तथा सर्वश्रेष्ठ रूपसे विख्यात जो सनातन परम तत्त्व है, उसका ज्ञानी पुरुष इसी रूपमें ध्यान करते हैं (जैसा कि आज मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ) ।। ३४५ ।।
'जो सम्पूर्ण प्राणियोंका आदिकारण, अविनाशी, समस्त तत्त्वोंके विधानका ज्ञाता तथा प्रधान परम पुरुष है, वह ये भगवान् महादेवजी ही हैं |। ३४६ ।।
“इन्हीं जगदीश्वरने अपने दाहिने अड़से लोकस्रष्टा ब्रद्माको और बायें अड़से जगत्की रक्षाके लिये विष्णुको उत्पन्न किया है || ३४७ ।।
“प्रलयकाल प्राप्त होनेपर इन्हीं भगवान् शिवने रुद्रकी रचना की थी। वे ही रुद्र सम्पूर्ण चराचर जगत्का संहार करते हैं || ३४८ ।।
“वे ही महातेजस्वी काल होकर कल्पके अन्तमें समस्त प्राणियोंको अपना ग्रास बनाते हुए-से प्रलयकालीन अग्निके सदृश स्थित होते हैं || ३४९ ।।
ये ही देवदेव महादेव चराचर जगत्की सृष्टि करके कल्पान्तमें सबकी स्मृति-शक्तिको मिटाकर स्वयं ही स्थित रहते हैं || ३५० ।।
'ये सर्वत्र गमन करनेवाले, सम्पूर्ण प्राणियोंके आत्मा तथा समस्त भूतोंके जन्म और वृद्धिके हेतु हैं। ये सर्वव्यापी परमेश्वर सदा सम्पूर्ण देवताओंसे अदृश्य रहते हैं || ३५१ ।।
'प्रभो! यदि आप मुझपर संतुष्ट हैं और मुझे वर देना चाहते हैं तो हे देव! हे सुरेश्वर! मेरी सदा आपमें भक्ति बनी रहे || ३५२ ।।
'सुरश्रेष्ठी विभो! आपकी कृपासे मैं भूत, वर्तमान और भविष्यको जान सकूँ; ऐसा मेरा निश्चय है ।। ३५३ ।।
मैं अपने बन्धु-बान्धवोंसहित सदा अक्षय दूध-भातका भोजन प्राप्त करूँ: और हमारे इस आश्रममें सदा आपका निकट निवास रहे” ।। ३५४ ।।
मेरे ऐसा कहनेपर लोकपूजित चराचरगुरु महातेजस्वी महेश्वर भगवान् शिव मुझसे यों बोले-- ।। ३५५ ||
भगवान् शिवने कहा--ब्रह्मन! तुम दुःखसे रहित अजर-अमर हो जाओ। यशस्वी, तेजस्वी तथा दिव्य ज्ञानसे सम्पन्न बने रहो || ३५६ ।।
मेरी कृपासे तुम ऋषियोंके भी दर्शनीय एवं आदरणीय होओगे तथा सदा शीलवान, गुणवान्, सर्वज्ञ एवं प्रियदर्शन बने रहोगे || ३५७ ।।
तुम्हें अक्षय यौवन और अग्निके समान तेज प्राप्त हो। तुम्हारे लिये क्षीरसागर सुलभ हो जायगा। तुम जहाँ-जहाँ प्रिय वस्तुकी इच्छा करोगे वहाँ-वहाँ तुम्हारी सारी कामना सफल होगी; और तुम्हें क्षीरसागरका सान्निध्य प्राप्त होगा || ३५८ ई ।।
तुम अपने भाई-बन्तुओंके साथ एक कल्पतक अमृतसहित दूध-भातका भोजन पाते रहो। तत्पश्चात् तुम मुझे प्राप्त हो जाओगे। तुम्हारे बन्धु-बान्धव, कुल तथा गोत्रकी परम्परा सदा अक्षय बनी रहेगी ।।
द्विजश्रेष्ठ! मुझमें तुम्हारी सदा अचल भक्ति होगी तथा द्विजप्रवर! तुम्हारे इस आश्रमके निकट मैं सदा अदृश्य रूपसे निवास करूँगा ।। ३६१ ।।
बेटा! तुम इच्छानुसार यहाँ रहो। कभी किसी बातके लिये चिन्ता न करना। विप्रवर! तुम्हारे स्मरण करनेपर मैं पुनः तुम्हें दर्शन दूँगा || ३६२ ।।
ऐसा कहकर वे करोड़ों सूर्योके समान तेजस्वी भगवान् शंकर उपर्युक्त वर प्रदान करके वहीं अन्तर्धान हो गये || ३६३ ।।
श्रीकृष्ण! इस प्रकार मैंने समाधिके द्वारा देवाधिदेव भगवान् शंकरका प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त किया। उन बुद्धिमान् महादेवजीने जो कुछ कहा था, वह सब मुझे प्राप्त हो गया है | ३६४ ।।
श्रीकृष्ण! यह सब आप प्रत्यक्ष देख लें। यहाँ सिद्ध महर्षि, विद्याधर, यक्ष, गन्धर्व और अप्सराएँ विद्यमान हैं || ३६५ ।।
देखिये, यहाँके वृक्ष, लता और गुल्म सब प्रकारके फ़ूल और फल देनेवाले हैं। ये सभी ऋतुओंके फूलोंसे युक्त, सुखदायक पल््लवोंसे सम्पन्न और सुगन्धसे परिपूर्ण हैं || ३६६
महाबाहो! देवताओंके भी देवता तथा सबके ईश्वर महात्मा शिवके प्रसादसे ही यहाँ सब कुछ दिव्य भावसे सम्पन्न दिखायी देता है || ३६७ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--राजन्! उनकी यह बात सुनकर मानो मुझे भगवान् शिवका प्रत्यक्ष दर्शन हो गया हो, ऐसा प्रतीत हुआ। फिर बड़े विस्मयमें पड़कर मैंने उन महामुनिसे पूछा-- || ३६८ ।।
विप्रवर! आप धन्य हैं। आपसे बढ़कर पुण्यात्मा पुरुष दूसरा कौन है? क्योंकि आपके इस आश्रममें साक्षात् देवाधिदेव महादेव निवास करते हैं || ३६९ ।।
“मुनिश्रेष्ठ! क्या कल्याणकारी भगवान् शिव मुझे भी इसी प्रकार दर्शन देंगे? मुझपर भी कृपा करेंगे?” ।।
उपमन्यु बोले--निष्पाप कमलनयन! जैसे मैंने भगवान्का दर्शन किया है, उसी प्रकार आप भी थोड़े ही समयमें महादेवजीका दर्शन प्राप्त करेंगे; इसमें संशय नहीं है | ३७१ ।।
पुरुषोत्तम! मैं दिव्य दृष्टिसे देख रहा हूँ। आप आजसे छठे महीनेमें अमित पराक्रमी महादेवजीका दर्शन करेंगे || ३७२ ।।
यदुश्रेष्ठीी पत्नीसहित महादेवजीसे आप सोलह और आठ वर प्राप्त करेंगे। यह मैं आपसे सच्ची बात कहता हूँ ।। ३७३ ।।
महाबाहो! बुद्धिमान् महादेवजीके कृपा-प्रसादसे मुझे सदा ही भूत, भविष्य और वर्तमान--तीनों कालका ज्ञान प्राप्त है ।। ३७४ ।।
माधव! भगवान् हरने यहाँ रहनेवाले इन सहस्रों मुनियोंको कृपापूर्ण हृदयसे अनुगृहीत किया है। फिर आपपर वे अपना कृपाप्रसाद क्यों नहीं प्रकट करेंगे || ३७५ ।।
आप-जैसे ब्राह्मणभक्त, कोमलस्वभाव और श्रद्धालु पुरुषका समागम देवताओंके लिये भी प्रशंसनीय है। मैं आपको जपनेयोग्य मन्त्र प्रदान करूँगा, जिससे आप भगवान् शंकरका दर्शन करेंगे || ३७६६ ||
श्रीकृष्ण कहते हैं--तब मैंने उनसे कहा--ब्रह्मन्! महामुने! मैं आपके कृपाप्रसादसे दैत्यदलोंका दलन करनेवाले देवेश्वर महादेवजीका दर्शन अवश्य करूँगा ।। ३७७ ३ ।।
भरतनन्दन! इस प्रकार महादेवजीकी महिमासे सम्बन्ध रखनेवाली कथा कहते हुए उन मुनीश्वरके आठ दिन एक मुहूर्तके समान बीत गये। आठवें दिन विप्रवर उपमन्युने विधिपूर्वक मुझे दीक्षा दी ।।
उन्होंने मेरा सिर मुड़ा दिया। मेरे शरीरमें घी लगाया तथा मुझसे दण्ड, कुशा, चीर एवं मेखला धारण कराया। मैं एक महीनेतक फलाहार करके रहा और दूसरे महीनेमें केवल जलका आहार किया || ३८० ।।
तीसरे, चौथे और पाँचवें महीनेमें मैं दोनों बाँहें ऊपर उठाये एक पैरसे खड़ा रहा। आलस्यको अपने पास नहीं आने दिया। उन दिनों वायुमात्र ही मेरा आहार रहा ।। ३८१
भारत! पाण्डुनन्दन! छठे महीनेमें आकाशके भीतर मुझे सहस्रों सूर्योका-सा तेज दिखायी दिया। उस तेजके भीतर एक और तेजोमण्डल दृष्टिगोचर हुआ, जिसका सर्वांग इन्द्रधनुषसे परिवेष्टित था। विद्युन्माला उसमें झरोखेके समान प्रतीत होती थी। वह तेज नील पर्वतमालाके समान प्रकाशित होता था। उस द्विविध तेजके कारण वहाँका आकाश बकपंक्तियोंसे विभूषित-सा जान पड़ता था ।। ३८२-३८३ ।।
उस नील तेजके भीतर महातेजस्वी भगवान् शिव तप, तेज, कान्ति तथा अपनी तेजस्विनी पत्नी उमादेवीके साथ विराजमान थे ।। ३८४ ।।
उस नील तेजमें पार्वती देवीके साथ स्थित हुए भगवान् महेश्वर ऐसी शोभा पा रहे थे मानो चन्द्रमाके साथ सूर्य श्याम मेघके भीतर विराज रहे हों || ३८५ ।।
कुन्तीनन्दन! जो सम्पूर्ण देवसमुदायकी गति हैं तथा सबकी पीड़ा हर लेते हैं, उन भगवान् हरको जब मैंने देखा, तब मेरे रोंगटे खड़े हो गये और मेरे नेत्र आश्वर्यसे खिल उठे || ३८६ ।
भगवानके मस्तकपर मुकुट था। उनके हाथमें गदा, त्रिशूल और दण्ड शोभा पाते थे। सिरपर जटा थी। उन्होंने व्याप्रचर्म धारण कर रखा था। पिनाक और वज्र भी उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। उनकी दाढ़ तीखी थी। उन्होंने सुन्दर बाजूबंद पहनकर सर्पमय यज्ञोपवीत धारण कर रखा था ।। ३८७ ।।
वे अपने वक्ष:स्थलपर अनेक रंगवाली दिव्य माला धारण किये हुए थे, जो गुल्फदेश (घुटनों)-तक लटक रही थी। जैसे शरदऋतुमें संध्याकी लालीसे युक्त और घेरेसे घिरे हुए चन्द्रमाका दर्शन होता हो, उसी प्रकार मैंने मालावेष्टित उन भगवान् महादेवजीका दर्शन किया था ।। ३८८ ।।
प्रमथगणोंद्वारा सब ओरसे घिरे हुए महातेजस्वी महादेव परिधिसे घिरे हुए शरत्कालके सूर्यकी भाँति बड़ी कठिनाईसे देखे जाते थे || ३८९ ।।
इस प्रकार मनको वशमें रखनेवाले और कर्मन्द्रियोंद्रारा शुभकर्मका ही अनुष्ठान करनेवाले महादेवजीकी, जो ग्यारह सौ रुद्रोंसे घिरे हुए थे, मैंने स्तुति की || ३९० ।।
बारह आदित्य, आठ वसु, साध्यगण, विश्वेदेव तथा अश्विनीकुमार--ये भी सम्पूर्ण स्तुतियोंद्वारा सबके देवता महादेवजीकी स्तुति कर रहे थे || ३९१ ।।
इन्द्र तथा वामनरूपधारी भगवान् विष्णु--ये दोनों अदितिकुमार और ब्रह्माजी भगवान् शिवके निकट रथन्तर सामका गान कर रहे थे ।। ३९२ ।।
बहुत-से योगीश्वर, पुत्रोंसहित ब्रह्मर्षि तथा देवर्षिगण भी योगसिद्धि प्रदान करनेवाले, पिता एवं गुरुरूप महादेवजीकी स्तुति करते थे ।। ३९३ ।।
महाभूत, छन््द, प्रजापति, यज्ञ, नदी, समुद्र, नाग, गन्धर्व, अप्सरा तथा विद्याधर--ये सब गीत, वाद्य तथा नृत्य आदिके द्वारा तेजस्वियोंके मध्यभागमें विराजमान तेजोराशि जगदीश्वर शिवकी पूजा-अर्चा करते थे ।।
राजन! पृथ्वी, अन्तरिक्ष, नक्षत्र, ग्रह, मास, पक्ष, ऋतु, रात्रि, संवत्सर, क्षण, मुहूर्त, निमेष, युगचक्र तथा दिव्य विद्याएँ--ये सब (मूर्तिमान होकर) शिवजीको नमस्कार कर रहे थे। वैसे ही सत्त्ववेत्ता पुरुष भी भगवान् शिवको नमस्कार करते थे ।। ३९४-३९५ ।।
युधिष्ठिर! सनत्कुमार, देवगण, इतिहास, मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, सात मनु, सोम, अअथर्वा, बृहस्पति, भृगु, दक्ष, कश्यप, वसिष्ठ, काश्य, छन्द, दीक्षा, यज्ञ, दक्षिणा, अग्नि, हविष्य, यज्ञोपयोगी मूर्तिमान् द्रव्य, समस्त प्रजापालकगण, नदी, नग, नाग, सम्पूर्ण देवमाताएँ, देवपत्नियाँ, देवकन्याएँ, सहस्रों, लाखों, अरबों महर्षि, पर्वत, समुद्र और दिशाएँ--ये सब-के-सब शान्तस्वरूप भगवान् शिवको नमस्कार करते थे ॥| ३९६-४०० ||
गीत और वाद्यकी कलामें कुशल अप्सराएँ तथा गन्धर्व दिव्य तालपर गाते हुए अद्भुत शक्तिशाली भगवान् भवकी स्तुति करते थे || ४०१ ।।
महाराज! विद्याधर, दानव, गुह्यक, राक्षस तथा समस्त चराचर प्राणी मन, वाणी और क्रियाओंद्वारा भगवान् शिवको नमस्कार करते थे || ४०२ ।।
देवेश्वर शिव मेरे सामने खड़े थे। भारत! मेरे सामने महादेवजीको खड़ा देख प्रजापतियोंसे लेकर इन्द्रतक सारा जगत् मेरी ओर देखने लगा। किंतु उस समय महादेवजीको देखनेकी मुझमें शक्ति नहीं रह गयी थी || ४०३-४०४ ।।
तब भगवान् शिवने मुझसे कहा--*“श्रीकृष्ण! मुझे देखो, मुझसे वार्तालाप करो। तुमने पहले भी सैकड़ों और हजारों बार मेरी आराधना की है || ४०५ ।।
“तीनों लोकोंमें तुम्हारे समान दूसरा कोई मुझे प्रिय नहीं है।” जब मैंने मस्तक झुकाकर महादेवजीको प्रणाम किया, तब देवी उमाको बड़ी प्रसन्नता हुई। उस समय मैंने ब्रह्मा आदि देवताओंद्वारा प्रशंसित भगवान् शिवसे इस प्रकार कहा || ४०६ ।।
श्रीकृष्ण कहते हैं--सबके कारणभूत सनातन परमेश्वर! आपको नमस्कार है। ऋषि आपको ब्रह्माजीका भी अधिपति बताते हैं। साधु पुरुष आपको ही तप, सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण तथा सत्यस्वरूप कहते हैं || ४०७ ।।
आप ही ब्रह्मा, रुद्र, वरुण, अग्नि, मनु, शिव, धाता, विधाता और त्वष्टा हैं। आप ही सब ओर मुखवाले परमेश्वर हैं || ४०८ ।।
समस्त चराचर प्राणी आपहीसे उत्पन्न हुए हैं। आपने ही स्थावर-जंगम प्राणियोंसहित इस समस्त त्रिलोकीकी सृष्टि की है ।। ४०९ ।।
यहाँ जो-जो इन्द्रियाँ, जो सम्पूर्ण मन, जो समस्त वायु और सात अग्नियाँ- हैं, जो देवसमुदायके अंदर रहनेवाले स्तवनके योग्य देवता हैं, उन सबसे परे आपकी स्थिति है। ऋषिगण आपके विषयमें ऐसा ही कहते हैं || ४१० ।।
वेद, यज्ञ, सोम, दक्षिणा, अग्नि, हविष्य तथा जो कुछ भी यज्ञोपयोगी सामग्री है, वह सब आप भगवान ही हैं, इसमें संशय नहीं है || ४११ ।।
यज्ञ, दान, अध्ययन, व्रत और नियम, लज्जा, कीर्ति, श्री, द्युति, तुष्टि तथा सिद्धि--ये सब आपके स्वरूपकी प्राप्ति करानेवाले हैं | ४१२ ।।
भगवन! काम, क्रोध, भय, लोभ, मद, स्तब्धता, मात्सर्य, आधि और व्याधि--ये सब आपके ही शरीर हैं ।।
क्रिया, विकार, प्रणय, प्रधान, अविनाशी बीज, मनका परम कारण और सनातन प्रभाव--ये भी आपके ही स्वरूप हैं || ४१४ ।।
अव्यक्त, पावन, अचिन्त्य, हिरण्मय सूर्यस्वरूप आप ही समस्त गणोंके आदिकारण तथा जीवनके आश्रय हैं || ४१५ ।।
महान, आत्मा, मति, ब्रह्मा, विश्व, शम्भु, स्वयम्भू, बुद्धि, प्रज्ञा, उपलब्धि, संवित्, ख्याति, धृति और स्मृति--इन चौदह पर्यायवाची शब्दोंद्वारा आप परमात्मा ही प्रकाशित होते हैं। वेदसे आपका बोध प्राप्त करके ब्रह्माज्ञानी ब्राह्मण मोहका सर्वथा नाश कर देता है ।।
ऋषियोंद्वारा प्रशंसित आप ही सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें स्थित क्षेत्रज्ञ हैं। आपके सब ओर हाथ-पैर हैं। सब ओर नेत्र, मस्तक और मुख हैं || ४१८ ।।
आपके सब ओर कान हैं और जगतमें आप सबको व्याप्त करके स्थित हैं। जीवके आँख मीजने और खोलनेसे लेकर जितने कर्म हैं, उनके फल आप ही हैं ।। ४१९ ।।
आप अविनाशी परमेश्वर ही सूर्यकी प्रभा और अग्निकी ज्वाला हैं। आप ही सबके हृदयमें आत्मारूपसे निवास करते हैं। अणिमा, महिमा और प्राप्ति आदि सिद्धियाँ तथा ज्योति भी आप ही हैं | ४२० ।।
आपमें बोध और मननकी शक्ति विद्यमान है। जो लोग आपकी शरणमें आकर सर्वथा आपके अभश्रित रहते हैं, वे ध्यानपरायण, नित्य योगयुक्त, सत्यसंकल्प तथा जितेन्द्रिय होते हैं || ४२१ ।।
जो आपको अपनी हृदयगुहामें स्थित आत्मा, प्रभु, पुराण-पुरुष, मूर्तिमान् परब्रह्म, हिरण्मय पुरुष और बुद्धिमानोंकी परम गतिरूपमें निश्चित भावसे जानता है, वही बुद्धिमान् लौकिक बुद्धिका उल्लंघन करके परमात्म-भावमें प्रतिष्ठित होता है || ४२२ ।।
विद्वान् पुरुष महत्तत््व, अहंकार और पड्चतन्मात्रा--इन सात सूक्ष्म तत्त्वोंकी जानकर आपके स्वरूपभूत छ:- अंगोंका बोध प्राप्त करके प्रमुख विधियोगका आश्रय ले आपमें ही प्रवेश करते हैं || ४२३ ।।
कुन्तीनन्दन! जब मैंने सबकी पीड़ाका नाश करनेवाले महादेवजीकी इस प्रकार स्तुति की, तब यह सम्पूर्ण चराचर जगत् सिंहनाद कर उठा ।। ४२४ ।।
ब्राह्मणोंक समुदाय, देवता, असुर, नाग, पिशाच, पितर, पक्षी, राक्षसगण, समस्त भूतगण तथा महर्षि भी उस समय भगवान् शिवको प्रणाम करने लगे || ४२५ ।।
मेरे मस्तकपर ढेर-के-ढेर दिव्य सुगन्धित पुष्पोंकी वर्षा होने लगी तथा अत्यन्त सुखदायक हवा चलने लगी ।। ४२६ ।।
जगतके हितैषी भगवान् शंकरने उमादेवीकी ओर देखकर मेरी ओर देखा और फिर इन्द्रपर दृष्टिपात करके स्वयं मुझसे कहा-- || ४२७ ।।
शत्रुहन् श्रीकृष्ण! मुझमें जो तुम्हारी पराभक्ति है, उसे सब लोग जानते हैं, अब तुम अपना कल्याण करो; क्योंकि तुम्हारे ऊपर मेरा विशेष प्रेम है || ४२८ ।।
'सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ! यदुकुलसिंह श्रीकृष्ण! मैं तुम्हें आठ वर देता हूँ। तुम जिन परम दुर्लभ वरोंको पाना चाहते हो, उन्हें बताओ” || ४२९ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें मेघवाहनपर्वका आख्यानविषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल ४३३ श्लोक हैं)
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- गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, आहवनीय, सभ्य और आवसथ्य--ये पाँच वैदिक अग्नियाँ हैं। स्मार्त छठी और लौकिक सातवीं अग्नि है।
- सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादि बोध, स्वतन्त्रता, नित्य अलुप्त शक्ति और अनन्त शक्ति--ये महेश्वरके स्वरूपभूत छः: अज्ग बताये गये हैं।
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