सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के तेरहवाँ अध्याय (From the 13th chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

तेरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  तेरहवें अध्याय के श्लोक 1-210½ का हिन्दी अनुवाद)

“शरीर, वाणी और मनसे होनेवाले पापोंके परित्यागका उपदेश”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! लोकयात्राका भली-भाँति निर्वाह करनेकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यको क्या करना चाहिये? कैसा स्वभाव बनाकर किस प्रकार लोकमें जीवन बिताना चाहिये? ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! शरीरसे तीन प्रकारके कर्म, वाणीसे चार प्रकारके कर्म और मनसे भी तीन प्रकारके कर्म--इस तरह कुल दस तरहके कर्मोका त्याग कर दे ।।२।।

दूसरोंके प्राणनाश करना, चोरी करना और परायी स्त्रीसे संसर्ग रखना--ये तीन शरीरसे होनेवाले पाप हैं। इन सबका परित्याग कर देना उचित है ।। ३ ।।

मुँहसे बुरी बातें निकालना, कठोर बोलना, चुगली खाना और झूठ बोलना--ये चार वाणीसे होनेवाले पाप हैं। राजेन्द्र! इन्हें न तो कभी जबानपर लाना चाहिये और न मनमें ही सोचना चाहिये ।। ४ ।।

दूसरेके धनको लेनेका उपाय न सोचना, समस्त प्राणियोंके प्रति मैत्रीभाव रखना और कर्मोका फल अवश्य मिलता है, इस बातपर विश्वास रखना--ये तीन मनसे आचरण करने योग्य कार्य हैं। इन्हें सदा करना चाहिये। (इनके विपरीत दूसरोंके धनका लालच करना, समस्त प्राणियोंसे वैर रखना और कर्मोके फलपर विश्वास न करना--ये तीन मानसिक पाप हैं--इनसे सदा बचे रहना चाहिये) ।। ५ ।।

इसलिये मनुष्यका कर्तव्य है कि वह मन, वाणी या शरीरसे कभी अशुभ कर्म न करे; क्योंकि वह शुभ या अशुभ जैसा कर्म करता है; उसका वैसा ही फल उसे भोगना पड़ता है।। ६ ।

[ब्रहद्माजीका देवताओंसे गरुड-कश्यप-संवादका प्रसंग सुनाना, गरु(डहजीका ऋषियोंके समाजमें नारायणकी महिमाके सम्बन्धमें अपना अनुभव सुनाना तथा इस प्रसंगके पाठ और श्रवणकी महिमा]

एक समय अमृतकी उत्पत्ति हो जानेपर उसकी प्राप्तिके लिये देवताओंका असुरोंके साथ साठ हजार वर्षोतक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्रामके नामसे प्रसिद्ध है ।।

उस युद्धमें अत्यन्त भयंकर दैत्यों एवं बड़े-बड़े असुरोंकी मार खाकर देवता किसी रक्षकको नहीं पाते थे ।।

दैत्योंद्वारा सताये जानेवाले देवता दुःखी होकर अपने लिये आश्रय ढूँढ़ते हुए देवदेवेश्वर महाज्ञानी ब्रह्माजीकी शरणमें गये ।।

तब ब्रह्माजी उन सबके साथ भगवान्‌ विष्णुकी शरणमें गये ।

नरेश्वर! तदनन्तर देवताओंसहित कमलयोनि ब्रह्माजी हाथ जोड़कर रोग-शोकसे रहित भगवान्‌ नारायणकी स्तुति करने लगे ।।

ब्रह्माजी बोले--प्रभो! आपके रूपका चिन्तन करनेसे, नामोंके स्मरण और जपसे, पूजनसे तथा तप और योग आदिसे मनीषी पुरुष कल्याणको प्राप्त होते हैं ।।

भक्तवत्सल! कमलनयन! परमेश्वर! पापहारी परमात्मन्‌! निर्विकार! आदिपुरुष! नारायण! आपको नमस्कार है ।।

सम्पूर्ण लोकोंके आदिकारण! सर्वात्मन्‌! अमित पराक्रमी नारायण! सम्पूर्ण भूत और भविष्यके स्वामी! सर्वभूतमहेश्वर! आपको नमस्कार है ।।

प्रभो! आप देवताओंके भी देवता और समस्त विद्याओंके परम आश्रय हैं। जगतके जितने भी बीज हैं, उन सबका संग्रह करनेवाले आप ही हैं। आप ही जगत्‌के परम कारण हैं।।

वीर! ये देवता दानव, दैत्य आदिसे अत्यन्त पीड़ित हो रहे हैं। आप इनकी रक्षा कीजिये। विजयशीलोंमें सबसे श्रेष्ठ नारायणदेव! आप लोकों, लोकपालों तथा ऋषियोंका संरक्षण कीजिये ।।

सम्पूर्ण अंगों और उपनिषदोंसहित वेद, उनके रहस्य, संग्रह, ॐकार और वषट्कार आपहीको उत्तम यज्ञका स्वरूप बताते हैं ।।

आप पवित्रोंके भी पवित्र, मंगलोंके भी मंगल, तपस्वियोंके तप और देवताओंके भी देवता हैं ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन! इस प्रकार ब्रह्मासहित देवताओंने एकत्र होकर ऋक, साम और यजुर्वेदके मन्त्रोंद्वारा भगवान्‌ विष्णुकी स्तुति की ।।

तब मेघके समान गम्भीर स्वरमें आकाशवाणी हुई--'देवताओ! तुम युद्धमें मेरे साथ रहकर दानवोंको अवश्य जीत लोगे” ।।

तत्पश्चात्‌ परस्पर युद्ध करनेवाले देवताओं और दानवोंके बीच शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले महातेजस्वी भगवान्‌ विष्णु प्रकट हुए ।।

उन्होंने गरडकी पीठपर बैठकर तेजसे विरोधियोंको दग्ध करते हुए-से अपनी भुजाओंके तेज और वैभवसे समस्त दानवोंका संहार कर डाला ।।

महाराज! समरभूमिमें दैत्यों और दानवोंके प्रमुख वीर भगवान्से टक्कर लेकर वैसे ही नष्ट हो गये, जैसे पतंगे आगमें कूदकर अपने प्राण दे देते हैं ।।

परम बुद्धिमान्‌ श्रीहरि समस्त असुरों और दानवोंको परास्त करके देवताओंके देखतेदेखते वहीं अन्तर्धान हो गये ।।

अनन्त तेजस्वी श्रीविष्णुदेवको अदृश्य हुआ देख आश्वर्यसे चकित नेत्रवाले देवता ब्रह्माजीसे इस प्रकार बोले-- ।।

देवताओंने पूछा--सर्वलोकेश्वर! सम्पूर्ण जगत्‌के पितामह! भगवन्‌! यह अत्यन्त अदभुत वृत्तान्त हमें बतानेकी कृपा करें ।।

कौन दिव्यात्मा पुरुष हमारी रक्षा करके चुपचाप जैसे आया था; वैसे लौट गया? यह हमें बतानेकी कृपा करें ।।

भीष्मजी कहते हैं--प्रभो! सम्पूर्ण देवताओंके ऐसा कहनेपर वचनके तात्पर्यको समझानेवाले ब्रह्माजीने भगवान्‌ पद्मनाभ (विष्णु)-के पूर्वरूपके विषयमें इस प्रकार कहा -- ||

ब्रह्माजी बोले--देवताओ! ये भगवान्‌ सम्पूर्ण भुवनोंके अधीश्चर हैं। इन्हें जगत्‌का कोई भी प्राणी यथार्थरूपसे नहीं जानता। गुणवानोंमें श्रेष्ठ निर्गुण परमात्माकी महिमाका कोई पूर्णतः वर्णन नहीं कर सकता ।।

देवगण! इस विषयमें मैं तुमलोगोंको गरुड और ऋषियोंका संवादरूप प्राचीन इतिहास बता रहा हूँ ।।

पूर्वकालकी बात है, हिमालयके शिखरपर ब्रह्मर्षि और सिद्धणण जगदीश्वर श्रीहरिकी शरण ले उन्हींके विषयमें नाना प्रकारकी बातें कर रहे थे ।।

उनकी बातचीत पूरी होते ही चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान्‌ विष्णुके वाहन महातेजस्वी पक्षिराज गरुड वहाँ आ पहुँचे ।।

उन ऋषियोंके पास पहुँचकर महापराक्रमी गरुड नीचे उतर पड़े और विनयसे मस्तक झुकाकर उनके समीप गये।

ऋषियोंने स्वागतपूर्वक वेगवानोंमें श्रेष्ठ महान्‌ बलवान्‌ एवं तेजस्वी गरुडका पूजन किया। उनसे पूजित होकर वे पृथ्वीपर बैठे ।।

बैठ जानेपर उन महाकाय, महामना और महातेजस्वी विनतानन्दन गरुडसे वहाँ बैठे हुए तपस्वी ऋषियोंने पूछा ।।

ऋषि बोले--विनतानन्दन गरुड! हमारे हृदयमें एक प्रश्नको लेकर बड़ा कौतूहल उत्पन्न हो गया है। उसका समाधान करनेवाला यहाँ आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है, अतः हम आपके द्वारा अपने उस उत्तम प्रश्नचका विवेचन कराना चाहते हैं ।।

गरुड बोले--वक्ताओंमें श्रेष्ठ मुनीश्वरो! मेरे द्वारा किस विषयमें आप प्रवचन कराना चाहते हैं? यह बताइये। आप मुझे सभी यथोचित कार्योंके लिये आज्ञा दे सकते हैं ।।

ब्रह्माजी कहते हैं--देवताओ! तदनन्तर उन श्रेष्ठठटम ऋषियोंने अन्तरहित भगवान्‌ नारायणको नमस्कार करके महाबली गरुडसे वहाँ इस प्रकार पूछना आरम्भ किया ।।

ऋषि बोले--विनतानन्दन! जिस रोग-शोकसे रहित वरदायक देवाधिदेव महात्मा नारायणकी आप उपासना करते हैं, उनका प्राकट्य कहाँसे हुआ है? तथा वे वास्तवमें कौन हैं? ।।

उनकी प्रकृति अथवा विकृति कैसी है? उनकी स्थिति कहाँ है? तथा वे नारायणदेव कहाँ अपना घर बनाये हुए हैं? ये सब बातें हमलोग आपसे पूछते हैं ।।

कश्यपकुमार! ये भगवान्‌ नारायण भक्तोंके प्रिय हैं तथा भक्त भी उन्हें बहुत प्रिय हैं और आप भी उनके प्रिय एवं भक्त हैं। आपके समान दूसरा कोई उन्हें प्रिय नहीं है ।।

उनका विग्रह इन्द्रियोंद्वारा प्रत्यक्ष अनुभवमें आने योग्य नहीं है। वे सबके मन और नेत्रोंको मानो चुराये लेते हैं। उनका आदि, मध्य और अन्त नहीं है। हम इनके विषयमें यह नहीं समझ पाते कि ये कहाँसे प्रकट हुए हैं? ।।

वेदोंमें भी विश्वात्मा कहकर इनकी महिमाका गान किया गया है, परंतु हम यह नहीं जानते कि वे तत्त्वभूतस्वरूप नित्य सनातन प्रभु वस्तुतः कैसे हैं? ।।

पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और अग्नि--ये पाँच भूत; क्रमश: इन भूतोंके गुण; भावअभाव; सत्त्व, रज, तम, सात््विक, राजस और तामस भाव; मन, बुद्धि और तेज--ये वास्तवमें बुद्धिगम्य हैं ।।

तात! ये सब उन्हीं श्रीहरिसे उत्पन्न होते हैं और वे भगवान्‌ इन सबमें व्यापकरूपसे स्थित हैं। हम उनके विषयमें अपनी बुद्धिके द्वारा नाना प्रकारसे विचार करते हैं तथापि किसी उत्तम निश्चयपर नहीं पहुँच पाते, अतः आप यथार्थ रूपसे हमें उनका तत्त्व बताइये ।।

गरुडजीने कहा--महात्माओ! जो स्थूलस्वरूप भगवान हैं, वे तीनों लोकोंकी रक्षाके लिये उसी कारणभूत अपने स्वरूपसे लोगोंको दृष्टिगोचर होते हैं ।।

मैंने पूर्वकालमें श्रीवत्सचिह्लके आश्रयभूत सनातन-देव श्रीहरिके विषयमें जो महान्‌ आश्चर्यकी बात देखी है, वह सब बताता हूँ, सुनिये ।।

मैं या आपलोग कोई भी किसी तरह भगवानके यथार्थ स्वरूपको नहीं जान सकते। भगवानने स्वयं ही अपने विषयमें मुझसे जो कुछ जैसा कहा है, वह उसी रूपमें सुनिये ।।

मुनिश्रेष्ठणण! मैंने देवताओंके देखते-देखते उनके रक्षायन्त्रको विदीर्ण करके अमृतके रक्षकोंको खदेड़कर युद्धमें इन्द्र और मरुद्गणोंसहित सम्पूर्ण देवताओंको पराजित करके शीघ्र ही अमृतका अपहरण कर लिया। मेरे उस पराक्रमको देखकर आकाशवाणीने कहा ।।

आकाशवाणी बोली--उत्तम व्रतका पालन करनेवाले विनतानन्दन! मैं तुम्हारे इस पराक्रमसे बहुत प्रसन्न हूँ। मेरी यह वाणी व्यर्थ नहीं जानी चाहिये; इसलिये बताओ, मैं तुम्हारा कौन-सा मनोरथ पूर्ण करूँ? ।।

गरुड कहते हैं--ऋषिगण! आकाशवाणीकी ऐसी बात सुनकर मैंने उस समय यों उत्तर दिया--'पहले मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप कौन हैं? फिर मुझे वर दीजियेगा' ।।

तब वक्ताओंमें श्रेष्ठ वरदायक भगवानने बड़े जोरसे हँसकर मेघके समान गम्भीर वाणीमें प्रसन्नतापूर्वक कहा--“समय आनेपर मेरे विषयमें तुम सब कुछ जान लोगे ।।

पक्षियोंमें श्रेष्ठ गरुड! मैं तुम्हें यह उत्तम वर देता हूँ कि देवता हो या दानव, कोई भी इस संसारमें तुम्हारे समान पराक्रमी न होगा। तुम मेरे अच्छे वाहन हो जाओ, मेरे सखाभावको प्राप्त होनेके कारण तुम सदा दुर्जय बने रहोगे” ।।

तब मैंने हाथ जोड़ पवित्र हो उपर्युक्त बात कहनेवाले सर्वव्यापी देवाधिदेव भगवान्‌ परम पुरुषको मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा-- ।।

“महाबाहो! आपका यह कथन ठीक है। यह सब कुछ आपकी आज्ञाके अनुसार ही होगा। आप मुझे जैसा आदेश दे रहे हैं, उसके अनुसार मैं आपका वाहन अवश्य होऊँगा। आप रथपर विराजमान होंगे, उस समय मैं आपकी ध्वजापर स्थित रहूँगा, इसमें संशय नहीं है! ।।

तब भगवानने मुझसे “तथास्तु” कहकर वे अपनी इच्छाके अनुसार चले गये ।।

पिताके पास पहुँचकर मैंने उनके चरणोंमें प्रणाम किया और यह सारा वृत्तान्त उनसे यथावत्रूपसे कह सुनाया ।।

यह सुनकर मेरे पूज्यपाद पिताने ध्यान लगाया। दो घड़ीतक ध्यान करके वे वक्ताओंमें श्रेष्ठ मुनि मुझसे बोले-- ।।

“तात! मैं धन्य हूँ, भगवानकी कृपाका पात्र हूँ, जिसके पुत्र होकर तुमने उन महामनस्वी गुहा परमात्मासे वार्तालाप कर लिया ।।

मैंने अनन्यभावसे मनको एकाग्र करके उग्र तपस्याद्वारा उन महातेजस्वी तपस्याकी निधिरूप (प्रतापी) श्रीहरिको संतुष्ट किया था ।।

बेटा! तब मुझे संतुष्ट करते हुए-से भगवान्‌ श्रीहरिने मुझे दर्शन दिया। उनके विभिन्न अंगोंकी कान्ति श्वेत, पीत, अरुण, भूरी, कपिश और पिंगल वर्णकी थी ।।

वे लाल, नीले और काले-जैसे भी दीखते थे। उनके सहस्रों उदर और हाथ थे। उनके महान्‌ मुख दो सहस्रकी संख्यामें दिखायी देते थे। वे एक नेत्र तथा सौ नेत्रोंसे युक्त थे ।।

उन विश्वात्माको निकट पाकर मैंने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और ऋक्‌, यजुः तथा साम-मन्त्रोंसे उनकी स्तुति करके मैं उन शरणागतवत्सल देवकी शरणमें गया ।।

बेटा गरुड! सबका हित चाहनेवाले उन विश्वरूपधारी अन्तर्यामी परमात्मदेवसे तुमने वार्तालाप किया है; अतः शीघ्र उन्हींकी आराधना करो। उनकी आराधना करके तुम कभी कष्टमें नहीं पड़ोगे' ।।

ब्रह्मर्षिशिरोमणियो! इस प्रकार अपने पूज्य पिताके यथोचितरूपसे समझानेपर मैं अपने घरको गया। पितासे विदा ले अपने घर आकर मैं उन्हीं परमात्माके ध्यानमें मन लगाकर उन्हींका चिन्तन करने लगा ।।

मेरा भावभक्तिसे युक्त मन उन्हींकी भावनामें लगा हुआ था। मेरा चित्त उनका चिन्तन करते-करते तदाकार हो गया था। इस प्रकार मैं उन सनातन अविनाशी परम पुरुष गोविन्दके चिन्तनमें तत्पर हो बैठा रहा ।।

ऐसा करनेसे मेरा हृदय नारायणके दर्शनकी इच्छासे स्थिर हो गया और मैं मन एवं वायुके समान वेगशाली हो महान्‌ वेगका आश्रय ले रमणीय बदरीविशाल तीर्थमें भगवान्‌ नारायणके आश्रमपर जा पहुँचा ।।

तदनन्तर वहाँ जगत्‌की उत्पत्तिके कारणभूत सर्वव्यापी कमलनयन श्रीगोविन्द हरिका दर्शन करके मैं उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और बड़ी प्रसन्नताके साथ ऋक्‌, यजु: एवं साममन्त्रोंके द्वारा उनका स्तवन किया ।।

तब मैं मन-ही-मन उन सनातन देवदेवकी शरणमें गया और हाथ जोड़कर इस प्रकार बोला-- ||

“भगवन्‌! भूत और भविष्यके स्वामी, वर्तमान भूतोंके निर्माता, शत्रुदमन, अविनाशी! मैं आपकी शरणमें आया हूँ। आप मेरी रक्षा करें ।।

“मैं तो “आप कौन हैं, किसके हैं और कहाँ रहते हैं? इस बातको तत्त्वसे जाननेकी इच्छा रखकर आपके चरणोंकी शरणमें आया हूँ। देव! आप मेरी रक्षा करें” ।।

श्रीभगवानने कहा--सौम्य! तुम यथावत्‌्रूपसे मेरे तत्त्वका साक्षात्कार करनेके लिये सचेष्ट होओ। यह बात मुझे पहलेसे ही विदित है। तुम्हारे पिताने तुम्हें मेरे विषयमें जो कुछ ज्ञान दिया है वह सब कुछ मुझे ज्ञात है ।।

विनतानन्दन! किसीको भी किसी तरह मेरे स्वरूपका पूर्णतः ज्ञान नहीं हो सकता। ज्ञाननिष्ठ विद्वान्‌ ही मेरे विषयमें कुछ जान पाते हैं ।।

जो ममता और अहंकारसे रहित तथा कामनाओंके बन्धनसे मुक्त हैं, वे ही मुझे जान पाते हैं। पक्षिप्रवर! तुम मेरे भक्त हो और सदा ही मुझमें मन लगाये रखते हो। इसलिये जगत्‌के कारणरूपमें स्थित मेरे स्थूलस्वरूपका बोध प्राप्त करोगे ।।

गरुड कहते हैं--ऋषिशिरोमणियो! इस प्रकार भगवान्‌के अभय देनेपर क्षणभरमें मेरे खेद, श्रम और भय सब नष्ट हो गये ।।

उस समय शीघ्रगामी भगवान्‌ अपनी गतिसे धीरे-धीरे चल रहे थे और मैं महान्‌ वेगका आश्रय लेकर उनका अनुसरण करता था ।।

वे अमित तेजस्वी एवं आत्मतत्त्वके ज्ञाता भगवान्‌ श्रीहरि आकाशमें बहुत दूरतकका मार्ग तै करके ऐसे देशमें जा पहुँचे जो मनके लिये भी अगम्य था ।।

तदनन्तर भगवान्‌ मनके समान वेगको अपनाकर मुझे मोहित करके वहीं क्षणभरमें अदृश्य हो गये ।।

वहाँ मेघके समान धीर-गम्भीर स्वरमें उच्चारित “भो” शब्दके द्वारा बोलनेमें कुशल भगवान्‌ इस प्रकार बोले--'हे गरुड! यह मैं हूँ" ।।

मैं उसी शब्दका अनुसरण करता हुआ उस स्थानपर जा पहुँचा। वहाँ मैंने एक सुन्दर सरोवर देखा जिसमें बहुत-से हंस शोभा पा रहे थे ।।

आत्मतत्त्वके ज्ञाताओंमें सर्वोत्तम भगवान्‌ नारायण उस सरोवरके पास पहुँचकर “भो' शब्दसे युक्त अनुपम गम्भीर स्वरसे मुझे पुकारते हुए अपने शयन-स्थान जलमें प्रविष्ट हो गये और मुझसे इस प्रकार बोले-- ।।

श्रीभगवानने कहा--सौम्य! तुम भी जलमें प्रवेश करो। हम दोनों यहाँ सुखसे रहेंगे ।।

गरुड कहते हैं--ऋषियो! तब मैं उन महात्मा श्रीहरिके साथ उस सरोवरमें घुसा। वहाँ मैंने अत्यन्त अद्भुत दृश्य देखा। भिन्न-भिन्न स्थानोंपर विधिपूर्वक स्थापित की हुई प्रज्वलित अग्नियाँ बिना ईँधनके ही जल रही थीं और घीकी आहुति पाकर उद्दीप्त हो उठी थीं।।

घी न मिलनेपर भी उन अग्नियोंकी दीप्ति घीकी आहुति पायी हुई अग्नियोंके समान थी और बिना ईंधनके भी ईंधनयुक्त आगके तुल्य उनकी प्रभा प्रकाशित होती रहती थी ।।

वहाँ जानेपर भी उन वरदायक देवता नारायण-देवका मुझे दर्शन न हो सका ।।

सहसौरों स्थानोंमें प्रशंसित होनेवाले उन अग्निहोत्रोंक समीप मैंने उन अद्भुत एवं अविनाशी श्रीहरिको दूँढ़ना आरम्भ किया ।।

इन अग्नियोंके समीप अक्षरोंका स्पष्ट उच्चारण करनेवाले तथा अपने प्रभावसे अदृश्य रहनेवाले, ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके विद्वानोंकी सुस्वर मधुर वाणी मैंने सुनी। उनके पद और अक्षर बहुत सुन्दर ढंगसे उच्चारित हो रहे थे ।।

मैं बड़े वेगसे वहाँके हजारों घरोंमें घूम आया; परंतु कहीं भी अपने उन आराध्यदेवको न देख सका, इससे मुझे बड़ी व्यथा हुई ।।

निर्मल ज्वालाओंसे युक्त वे अग्निहोत्र पूर्ववत्‌ प्रकाशित हो रहे थे। उनके समीप भी मुझे कहीं सनातन देवाधिदेव श्रीहरि नहीं दिखायी दिये। तब मैं उन प्रदीप्त अग्निहोत्रोंकी परिक्रमा करते-करते थक गया। मेरी सारी इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठीं; परंतु उनका कहीं अन्त नहीं दिखायी दिया। जिन भगवानने मुझे यहाँ आनेके लिये प्रेरित किया था, उनका दर्शन नहीं हो सका ।।

इस तरह चिन्तामें पड़कर मैं भगवान्‌का ध्यान करने लगा; एवं विनयसे नतमस्तक होकर मैंने निम्नांकित नामोंद्वारा आदि-अन्तसे रहित परमात्मा महामनस्वी नारायणकी वन्दना आरम्भ की-- |।

'जो शुद्ध, सनातन, ध्रुव, भूत, वर्तमान और भविष्यके स्वामी, शिवस्वरूप और मंगलमूर्ति हैं, कल्याणके उत्पत्तिस्थान हैं, शिवके भी आदिकारण तथा भगवान्‌ शिवके भी परम पूजनीय हैं, उन नारायणदेवको नमस्कार है ।।

“जो कल्पका अन्त करनेके लिये अत्यन्त घोर रूप धारण करते हैं, जो विश्वरूप, विश्वदेव, विश्वेश्वर एवं परमात्मा हैं, उन श्रीहरिको नमस्कार है ।।

“जिनके सहस्रों उदर, सहस्रों पैर और सहसौरों नेत्र हैं, जो सहस्रों भुजाओं और सहस्रों मुखोंसे सुशोभित हैं, उन भगवान्‌ विष्णुको नमस्कार है ।।

“जिनका यश पवित्र है, जो महान्‌ तथा ऋतु एवं संवत्सररूप हैं, ऋक्‌, यजु: और सामवेद जिनके मुख हैं तथा अथर्ववेद जिनका सिर है, उन नारायण-देवको नमस्कार है ।।

“जो हृषीकेश (सम्पूर्ण इन्द्रियोंके नियन्ता), कृष्ण (सच्चिदानन्दस्वरूप), द्रुहिण (ब्रह्मा), ऊरुक्रम (बहुत बड़े डग भरनेवाले त्रिविक्रम), ब्रह्मा एवं इन्द्ररूप, गरुडस्वरूप तथा एक सींगवाले वराहरूपधारी हैं, उन भगवान्‌ विष्णुको नमस्कार है ।।

“जो शिपिविष्ट (तेजसे व्याप्त), सत्य, हरि और शिखण्डी (मोरपंखधारी श्रीकृष्ण) आदि नामोंसे प्रसिद्ध हैं, जो हुत (हविष्यको ग्रहण करनेवाले अग्निरूप), ऊर्ध्वमुख, रुद्रकी सेना, साधु, सिन्धु, समुद्रमें वर्षाका हनन करनेवाले तथा देवसिन्धु (गंगास्वरूप) हैं, उन भगवान्‌ विष्णुको प्रणाम है ।।

“जो गरुडरूपधारी, तीन नेत्रोंसे युक्त (रुद्ररूप), उत्तम धामवाले, वृषावृष, धर्मपालक, सबके सम्राट, उग्ररूपधारी, उत्तम कृतिवाले, रजोगुणरहित, सबकी उत्पत्तिके कारण तथा भवरूप हैं, उन श्रीहरिको नमस्कार है ।।

'जो वृष (अभीष्ट वस्तुओंकी वर्षा करनेवाले), वृषरूप (धर्मस्वरूप), विभु (व्यापक) तथा भूलोक और भुवर्लोकमय हैं, जो तेजस्वी पुरुषोंद्वारा सम्पादित यज्ञरूप हैं, स्थिर हैं और स्थविररूप (वृद्ध) हैं, उन भगवान्‌को नमस्कार है ।।

“जो अपनी महिमासे कभी च्युत नहीं होते, हिमके समान शीतल हैं, जिनमें वीरत्व है, जो सर्वत्र समभावसे स्थित हैं, विजयशील हैं, जिन्हें बहुत लोग पुकारते हैं अथवा जो इन्द्ररूप हैं तथा जो सर्वश्रेष्ठ वसिष्ठ हैं, उन भगवान्‌को नमस्कार है ।।

'जो सत्य और देवताओंके स्वामी हैं, हरि (श्यामसुन्द) और शिखण्डी (मोरमुकुटधारी) हैं, जो कुशापर बैठनेवाले सर्वश्रेष्ठ वसुरूप हैं, उन विश्वसत्रष्टा भगवान्‌ विष्णुको नमस्कार है ।।

जो किरीटधारी, सुन्दर केशोंसे सुशोभित तथा पराक्रमी वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णरूप हैं, बृहदुक्थ साम जिनका स्वरूप है, जो सुन्दर सेनासे युक्त हैं, जुएका भार सँभालनेवाले वृषभरूप हैं तथा दुन्दुभि नामक वाद्यविशेष हैं, उन भगवान्‌को नमस्कार है ।।

“जो इस जगतमें जीवमात्रके सखा हैं, व्यापकरूप हैं, भरद्वाजको अभय देनेवाले हैं, सूर्यरूपसे प्रभाका विस्तार करनेवाले हैं, श्रेष्ठ पुरुषोंके स्वामी हैं, जिनकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ है और जो महान्‌ हैं, उन भगवान्‌ नारायणको नमस्कार है ।।

'जो पुनर्वसु नामक नक्षत्रसे पालित और जीवमात्रकी उत्पत्तिके स्थान हैं, वषट्कार, स्वाहा, स्वधा और निधन--ये जिनके ही नाम और रूप हैं तथा जो ऋक्‌, यजुष्‌, सामवेदस्वरूप हैं और त्रिलोकीके अधिपति हैं, उन भगवान्‌ विष्णुको मेरा प्रणाम है ।।

“जो शोभाशाली कमलको हाथमें लिये रहते हैं, जो अपने समान स्वयं ही हैं, जो धारण करने और करानेवाले परम पुरुष हैं, जो सौम्य, सौम्यरूपधारी तथा सौम्य एवं सुन्दर मनवाले हैं, उन श्रीहरिको नमस्कार है ।।

'जो विश्वरूप, सुन्दर विश्वके निर्माता तथा विश्वरूपधारी हैं, जो केशव, सुन्दर केशोंसे युक्त किरणरूपी केशवाले और अधिक बलशाली हैं, उन भगवान्‌ विष्णुको मेरा प्रणाम है।।

“जो हिरण्यगर्भ, सौम्य, वृषरूपधारी, नारायण, श्रेष्ठ शरीरधारी, पुरुहृत (इन्द्र) तथा वज्र धारण करनेवाले हैं, जो धर्मात्मा, वृषसेन, धर्मसेन तथा तटरूप हैं, उन भगवान्‌ श्रीहरिको नमस्कार है ।।

“जो मननशील मुनि, ज्वर आदि रोगोंसे मुक्त तथा ज्वरके अधिपति हैं, जिनके नेत्र नहीं हैं अथवा जिनके तीन नेत्र हैं, जो पिंगलवर्णवाले तथा प्रजारूपी लहरोंकी उत्पत्तिके लिये महासागरके समान हैं, उन भगवान्‌ विष्णुको नमस्कार है ।।

“जो तप और वेदकी निधि हैं, बारी-बारीसे युगोंका परिवर्तन करनेवाले हैं, सबके शरणदाता, शरणागतवत्सल और शक्तिशाली पुरुषके लिये अभीष्ट आश्रय हैं, सम्पूर्ण संसारके अधीश्वर एवं भूत, वर्तमान और भविष्यरूप हैं, उन भगवान्‌ नारायणको नमस्कार है ।।

देवदेवेश्वर! आप मेरी रक्षा करें। सनातन परमात्मन्‌! आप कोई अनिर्वचनीय अजन्मा पुरुष हैं, ब्राह्मणोंके शरणदाता हैं; मैं इस संकटमें पड़कर आपकी ही शरण लेता हूँ ।।

इस प्रकार स्तवनीय परमेश्वरकी स्तुति करते ही मेरा वह सारा दुःख नष्ट हो गया। तत्पश्चात्‌ मुझे किसी अदृश्य शक्तिके द्वारा कही हुई यह मंगलमयी दिव्य वाणी सुनायी दी ।।

श्रीभगवान्‌ बोले--गरुड! तुम डरो मत। तुमने मन और इन्द्रियोंको जीत लिया है। अब तुम पुनः इन्द्र आदि देवताओंके सहित अपने घरमें जाकर पुत्रों और भाई-बन्धुओंको देखोगे ।।

गरुडजी कहते हैं--मुनियो! तदनन्तर उसी क्षण वे परम कान्तिमान्‌ तेजस्वी नारायण सहसा मेरे सामने अत्यन्त निकट दिखायी दिये ।।

तब उन मंगलमय परमात्मासे मिलकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर मैंने देखा, वे आठ भुजाओंवाले सनातनदेव पुन: नर-नारायणके आश्रमकी ओर आ रहे हैं ।।

वहाँ मैंने देखा, ऋषि यज्ञ कर रहे हैं, देवता बातें कर रहे हैं, मुनिलोग ध्यानमें मग्न हैं, योगयुक्त सिद्ध और नैछ्िक ब्रह्मचारी जप करते हैं तथा गृहस्थलोग यज्ञोंके अनुष्ठानमें संलग्न हैं ।।

नर-नारायणका आश्रम धूपसे सुगन्धित और दीपसे प्रकाशित हो रहा था। वहाँ चारों ओर ढेर-के-ढेर फूल बिखरे हुए थे। वह आश्रम सबके लिये हितकर एवं सत्पुरुषोंद्वारा वन्दित था। झाड़-बुहारकर स्वच्छ बनाया और सींचा गया था ।।

निष्पाप मुनियो! उस अदभुत दृश्यको देखकर मुझे बड़ा विस्मय हुआ और मैंने पवित्र एवं एकाग्र हृदयसे मस्तक झुकाकर उन भगवान्‌की शरण ली ।।

वह सब अदभुत-सा दृश्य क्या था, यह बहुत सोचनेपर भी मेरी समझमें नहीं आया। सबकी उत्पत्तिके कारणभूत उन परमात्माके परम दिव्य भावको मैं नहीं समझ सका ।।

उन दुर्जय परमात्माको बारंबार प्रणाम करके उनकी ओर देखकर मेरे नेत्र आश्वर्यसे खिल उठे और मैंने मस्तकपर अंजलि बाँधे उन श्रेष्ठ पुरुषोंमें भी सर्वश्रेष्ठ एवं उदार पुरुषोत्तमसे कहा-- ।।

“भूत, वर्तमान और भविष्यके स्वामी भगवान्‌ नारायणदेव! आपको नमस्कार है। देव! मैंने आपके आश्रित जो यह अद्भुत दृश्य देखा है, इसका कहीं आदि, मध्य और अन्त नहीं है। वह सब क्या है, यह बतानेकी कृपा करें ।।

“यदि आप मुझे अपना भक्त समझते हैं अथवा यदि आपका मुझपर अनुग्रह है तो यह सब यदि मेरे सुननेयोग्य हो तो पूर्णरूपसे बताइये ।।

“आपका स्वभाव दुर्ज़्य है। आप अजन्मा परमेश्वरका प्रादुर्भाव भी समझमें आना कठिन है। भूत, वर्तमान और भविष्यके स्वामी नारायण! आप सर्वथा गहन (अगम्य) हैं ।।

“महामुने! वह सारा आश्चर्यजनक एवं अदभुत वृत्तान्त जो उन अग्नियोंके चारों ओर देखा गया, क्या था? यह पूर्णरूपसे बतानेकी कृपा करें ।।

“वे अग्निहोत्र कौन थे? निरन्तर वेदोंका श्रवण और पाठ करनेवाले वे अदृश्य महात्मा कौन थे, जिनका शब्दमात्र मैंने सुना था? ।।

“भगवान्‌ श्रीकृष्ण! यह सब आप पूर्णरूपसे मुझे बताइये। जो लोग अग्निके समीप वेदोंका पारायण कर रहे थे, वे ब्राह्मणसमूह महात्मा कौन थे?” ।।

श्रीभगवान्‌ बोले--गरुड! मुझे न तो देवता, न गन्धर्व, न पिशाच और न राक्षस ही तत्त्वसे जानते हैं। मैं सम्पूर्ण तत्त्वोंमें उनके सूक्ष्म आत्मारूपसे अवस्थित हूँ ।।

लोकोंके हितकी कामनासे मैंने अपने आपको चार स्वरूपोंमें विभक्त कर रखा है। मैं भूत, वर्तमान और भविष्यका आदि हूँ। मेरा आदि कोई नहीं है। मैं ही सबसे बड़ा विश्वस्रष्टा हूँ ।।

पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, मन, बुद्धि, तेज (अहंकार), सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, प्रकृति, विकृति, विद्या, अविद्या तथा शुभ और अशुभ--ये सब मुझसे ही उत्पन्न होते हैं। मैं इनसे किसी प्रकार उत्पन्न नहीं होता ।।

मनुष्य कल्याणभावनासे युक्त हो जिस किसी पवित्र, धर्मयुक्त एवं श्रेष्ठ भावका निश्चय करता है वह सब मैं निरामय परमेश्वर ही हूँ ।।

स्वभाव एवं आत्माके तत्त्वको जाननेवाले पुरुष विभिन्न हेतुओंद्वारा जिसका साक्षात्कार करते हैं, वह आदि, मध्य और अन्तसे रहित सर्वान्तरात्मा सनातन पुरुष मैं ही हूँ ।।

सूक्ष्म अर्थको देखने और समझनेवाले तथा सूक्ष्मभावको जाननेवाले ज्ञानी पुरुष मेरे जिस परम गुह्य रूपको ग्रहण करते हैं, वह चिन्तनीय सनातन परमात्मा मैं ही हूँ ।।

जो मेरा परम गुह्य रूप है और जिससे यह सम्पूर्ण जगत्‌ व्याप्त है, वह सर्वसत्त्वरूप परमात्मा मैं ही हूँ, मैं ही सबका अविनाशी कारण हूँ ।।

गरुड! सम्पूर्ण भूत प्राणी मुझसे ही उत्पन्न हुए हैं, मेरे ही द्वारा वे अहर्निश जीवन धारण करते हैं और प्रलयके समय सब-के-सब मुझमें ही लीन हो जाते हैं।

काश्यप! जो मुझे जैसा जानता है, उसके लिये मैं वैसा ही हूँ। विहंगम! मैं सभीके मन और बुद्धिमें रहकर सबका कल्याण करता हूँ ।।

पक्षिप्रवर! तुमने मेरे तत््वको जाननेका विचार किया था; अतः मैं कौन हूँ? कहाँसे आया हूँ? और किस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये उद्यत हुआ हूँ? यह सब बताता हूँ, सुनो ।।

जो कोई ब्राह्मण अपने मनको वशमें करके त्रिविध अग्नियोंकी उपासना करते हैं, नित्य अन्निहोत्रमें तत्रर और जप-होममें संलग्न हैं, जो नियमपूर्वक रहकर अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके अपने-आपमें ही अग्नियोंका आधान कर लेते हैं तथा सब-के-सब अनन्यचित्त होकर मेरी ही उपासना करते हैं, जो अपनेको पूर्ण संयममें रखकर जप, यज्ञ और मानसयज्ञोंद्वारा मेरी आराधना करते हैं, जो सदा अन्निहोत्रमें ही तत्यर रहकर अग्नियोंका स्वागत करते हैं तथा अन्य कार्यमें रत न होकर शुद्धभावसे सदा अग्निकी परिचर्या करते हैं; ऐसी बुद्धिवाले धीर पुरुष वैसे भक्तिभावसे सम्पन्न होते हैं, वे मुझे प्राप्त कर लेते हैं ।।

जिन्होंने निष्कामभावके द्वारा अपने सारे संकल्पोंको नष्ट कर दिया है, जो सदा ज्ञानमें ही चित्तको एकाग्र किये रहते हैं और अग्नियोंको अपने आत्मामें ही स्थापित करके आहार (भोग) और कामनाओंका त्याग कर देते हैं, विषयोंकी उपलब्धिके लिये जिनकी कोई प्रवृत्ति नहीं होती, जो सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त एवं ज्ञानदृष्टिसे सम्पन्न हैं, वे स्‍्वभावतः नियमपरायण एवं अनन्यचित्तसे मेरा चिन्तन करनेवाले धीर पुरुष मुझे ही प्राप्त होते हैं ।।

तुमने जो आकाशमें कमल और उत्पलसे भरा हुआ सुन्दर सरोवर देखा था, उसके समीप स्थापित हुई अग्नियाँ बिना ईंधनके ही प्रज्वलित होती हैं ।।

जिनके अन्तःकरण ज्ञानके प्रकाशसे निर्मल हो गये हैं, जो चन्द्रमाकी किरणोंके समान उज्ज्वल हैं, वे ही वहाँ स्पष्ट अक्षरका उच्चारण करते हुए वेदमन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक अग्निकी उपासना करते हैं। विहंगम! वे पवित्रभावसे रहकर उन अग्नियोंकी परिचर्याकी ही इच्छा रखते हैं ।।

मेरा चिन्तन करनेके कारण जिनका अन्तःकरण पवित्र हो गया है, जो सदा मेरी ही उपासनामें रत हैं, वे ही वहाँ रोग-शोकसे रहित एवं ज्योति:स्वरूप होकर मेरी ही उपासना किया करते हैं। वे अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होकर वीतराग हृदयसे सदा वहीं निवास करेंगे ।।

उनकी अंगकान्ति चन्द्रमाकी किरणोंके समान उज्ज्वल है। वे निराहार, श्रमविन्दुओंसे रहित, निर्मल, अहंकारशून्य, आलम्बनरहित और निष्काम हैं। उनकी सदा मुझमें भक्ति बनी रहती है तथा मैं भी उनका भक्त (प्रेमी) बना रहता हूँ ।।

मैं अपनेको चार स्वरूपोंमें विभक्त करके जगत्‌के हितसाधनमें तत्पर हो विचरता रहता हूँ। सम्पूर्ण लोक जीवित एवं सुरक्षित रहें--इसके लिये मैं विधान बनाता हूँ। वह सब तुम यथार्थरूपसे सुननेके अधिकारी हो ।।

तात! मेरी एक निर्गुण मूर्ति है जो परम योगका आश्रय लेकर रहती है। दूसरी वह मूर्ति है जो चराचर प्राणिसमुदायकी सृष्टि करती है ।।

तीसरी मूर्ति स्थावर-जड़म जगत्‌का संहार करती है और चौथी मूर्ति आत्मनिष्ठ है, जो आसुरी शक्तियोंको मायासे मोहित-सी करके उन्हें नष्ट कर देती है ।।

अपनी मायासे दुष्टोंकी मोहित और नष्ट करनेवाली जो मेरी चौथी आत्मनिष्ठ महामूर्ति है, वह नियम-पूर्वक रहकर जगतकी वृद्धि और रक्षा करती है। गरुड! वही मैं हूँ ।।

मैंने इस सम्पूर्ण जगत्‌को व्याप्त कर रखा है। सारा जगत्‌ मुझमें ही प्रतिष्ठित है। मैं ही सम्पूर्ण जगत्‌का बीज हूँ। मेरी सर्वत्र गति है और मैं अविनाशी हूँ ।।

विहंगम! वे जो अग्निहोत्र थे तथा जो चन्द्रमाकी किरणोंके पुंज-जैसी कान्तिवाले पुरुष निरन्तर उन अग्नियोंके समीप बैठकर वेदोंका पाठ करते थे, वे ज्ञानसम्पन्न एवं सुखी होकर क्रमश: मुझे प्राप्त होते हैं। मैं ही उनका उद्दीप्त तप और सम्यक्‌ रूपसे संचित तेज हूँ। वे सदा मुझमें विद्यमान हैं और मैं उनमें सावधान हुआ रहता हूँ ।।

जो सब ओरसे आसक्तिशून्य है, वह मुझमें अनन्यभावसे चित्तको एकाग्र करके ज्ञानदृष्टिसे मेरा साक्षात्कार कर सकता है ।।

जो संन्यासका आश्रय लेकर अनन्यभावसे मेरे ध्यानमें तत्पर रहते हैं, वे मुझे ही प्राप्त होते हैं ।।

जिनकी बुद्धि सत्त्वगुणसे युक्त है और केवल आत्मतत्त्वका निश्चय करके उसीके चिन्तनमें लगी हुई है, वे अपने आत्मरूप अविनाशी परमात्माका दर्शन करते हैं ।।

उन्हींका समस्त प्राणियोंके प्रति अहिंसाभाव होता है, उन्हींमें 'सरलता' नामक सदगुणकी स्थिति होती है और उन्हीं गुणोंमें स्थित हुआ जो चित्तको मुझ परमात्मामें भलीभाँति समाहित कर देता है वह मुझ अजन्मा परमेश्वरको प्राप्त होता है ।।

यह जो परम गोपनीय एवं अत्यन्त अद्भुत आख्यान है, इसे पूर्णतः यत्नपूर्वक यथावत्‌ रूपसे श्रवण करो ।।

जो अन्निहोत्रमें संलग्न और जप-यज्ञपरायण होते हैं, जो निरन्तर मेरी उपासना करते रहते हैं; उन्हींका तुमने प्रत्यक्ष दर्शन किया है ।।

जो शास्त्रोक्त विधिके ज्ञाता होकर अनासक्त-भावसे सत्कर्म करते हैं, कभी शास्त्रविपरीत--असत्‌ कर्ममें नहीं लगते, उनके द्वारा ही मैं जाना जा सकता हूँ। मेरा जो अविनाशी परम तत्त्व है, उसे भी वे ही जान सकते हैं ।।

इसलिये विशुद्ध ज्ञानके द्वारा जिसका चित्त प्रसन्न (निर्मल) है, जो आत्मतत्त्वका ज्ञाता और पतवित्र है, वह ज्ञानी पुरुष ही उस ब्रह्मको प्राप्त होता है, जहाँ जाकर कोई शोकमें नहीं पड़ता ।।

जो शुद्ध कुलमें उत्पन्न हैं, जो श्रेष्ठ द्विज श्रद्धायुक्त चित्तसे मेरा भजन करते हैं, वे मेरी भक्तिद्वारा परम गतिको प्राप्त होते हैं ।।

जो बुद्धिके लिये परम गुह्य रहस्य है, जो किसी आकृतिसे गृहीत नहीं होता-अनुभवमें नहीं आता उस सूक्ष्म परब्रह्मका तत्त्वदर्शी यति ब्राह्मण साक्षात्कार कर लेते हैं ।

वहाँ यह वायु नहीं चलती, ग्रहों और नक्षत्रोंकी पहुँच नहीं होती तथा जल, पृथ्वी, आकाश और मनकी भी गति नहीं हो पाती है ।।

विहंगम! उसी ब्रह्मसे ये सारी वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं। वह निर्मल एवं सर्वव्यापी परमात्मा उन सबके द्वारा ही सबको उत्पन्न करनेमें समर्थ है ।।

अनघ! तुमने जो मेरा यह स्थूल रूप देखा है, यही मेरे सूक्ष्म स्वरूपमें प्रवेश करनेका द्वार है। समस्त कार्योंका कारण मैं ही हूँ ।।

अमित पराक्रमी गरुड! इसीलिये तुमने उस सरोवरमें मेरा दर्शन किया है ।।

यज्ञके ज्ञाता मुझे यज्ञ कहते हैं। वेदोंके विद्वान्‌ मुझे ही वेद बताते हैं और मुनि भी मुझे ही जप-यज्ञ कहते हैं ।।

मैं ही वक्ता, मनन करनेवाला, रस लेनेवाला, सूँघनेवाला, देखने और दिखानेवाला, समझने और समझानेवाला तथा जाने और सुननेवाला चेतन आत्मा हूँ ।।

मेरा ही यजन करके यजमान स्वर्गमें आते और महान्‌ पद पाते हैं। इसी प्रकार जो अनासक्त हृदयसे मुझे ही जान लेते हैं, वे मुझ परमात्माको ही प्राप्त होते हैं ।।

मैं ब्राह्मणोंका तेज हूँ और ब्राह्मण मेरे तेज हैं। मेरे तेजसे जो शरीर प्रकट हुआ है, उसीको तुम अग्नि समझो ।।

मैं ही शरीरमें प्राणोंका रक्षक हूँ। मैं ही योगियोंका ईश्वर हूँ। सांख्योंका जो यह प्रधान तत्त्व है, वह भी मैं ही हूँ। मुझमें ही यह सम्पूर्ण जगत्‌ स्थित है ।।

धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, सरलता, जप, सत्त्वगुण, तमोगुण, रजोगुण तथा कर्मजनित जन्म-मरण--सब मेरे ही स्वरूप हैं ।।

उस समय तुमने मुझ सनातन पुरुषका उस रूपमें दर्शन किया था। उससे भी उत्कृष्ट जो मेरा स्वरूप है, उसे तुम समयानुसार जान सकते हो। मेरा जो परम गोपनीय, शाश्वत, ध्रुव एवं अव्यय पद है, उसका ज्ञान भी तुम्हें समयानुसार हो सकता है। इस प्रकार मैं नारायणदेव एवं हरिनामसे प्रसिद्ध परमेश्वर परम गोपनीय माना गया हूँ ।।

गरुड! जो लौकिक अभ्युदयमें आसक्त हैं, वे मेरे उस स्वरूपको नहीं जान सकते। जो कर्मोके आरम्भका मार्ग छोड़ चुके हैं, नमस्कारसे दूर हो गये हैं और कामनाओंके बन्धनसे मुक्त हैं, वे यतिजन उन सनातन परमात्मा परब्रह्मको प्राप्त होते हैं ।।

निष्पाप पक्षिराज गरुड! इस प्रकार तुमने मेरे स्थूल स्वरूपका दर्शन किया है। परंतु तुम्हारे सिवा दूसरा कोई इस स्वरूपको भी नहीं जानता ।।

तुम्हारी बुद्धिका नाश न हो--यही सर्वोत्तम गति है। तुम नित्य-निरन्तर मेरी भक्तिमें लगे रहो। इससे तुम्हें मेरे स्वरूपका यथार्थ बोध हो जायगा ।।

यह सब तुम्हें बताया गया। यह देवताओं और मनुष्योंके लिये भी रहस्यकी बात है। यही परम कल्याण है। तुम इसे मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषोंका मार्ग समझो ।।

गरुड कहते हैं--ऋषियो! ऐसा कहकर वे भगवान्‌ वहीं अन्तर्धान हो गये। वे महायोगी तथा आत्मगतिरूप परमेश्वर मेरे देखते-देखते अदृश्य हो गये ।।

इस प्रकार मैंने पूर्वकालमें अप्रमेय महात्मा अच्युतकी महिमाका साक्षात्कार किया था।

अदभुतकर्मा परम बुद्धिमान्‌ भगवान्‌ श्रीहरिकी यह सारी लीला जो मैंने प्रत्यक्ष देखकर अनुभव की है, आपको बता दी ।।

ऋषियोंने कहा--अहो! आपने यह बड़ा अदभुत एवं महत्त्वपूर्ण आख्यान सुनाया। यह परम पवित्र प्रसंग यश, आयु एवं स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला तथा महान्‌ मंगलकारी है ।।

परंतप गरुडजी! यह पवित्र विषय देवताओंके लिये भी गुह्य रहस्य है। यही ज्ञानियोंका ज्ञेय है और यही सर्वोत्तम गति है ।।

जो विद्वान्‌ प्रत्येक पर्वके अवसरपर इस कथाको सुनायेगा वह देवर्षियोंद्वारा प्रशंसित पुण्य-लोकोंको प्राप्त होगा ।।

जो श्राद्धके समय पवित्रभावसे ब्राह्मणोंको यह प्रसंग सुनायेगा, उस श्राद्धमें राक्षसों और असुरोंको भाग नहीं मिलेगा ।।

जो दोषदृष्टिसे रहित हो क्रोधको जीतकर समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर हो सदा योगयुक्त रहकर इसका पाठ करेगा वह भगवान्‌ विष्णुके लोकमें जायगा ।।

इसका पाठ करनेवाला ब्राह्मण वेदोंका पारंगत विद्वान्‌ होगा। क्षत्रियको इसका पाठ करनेसे युद्धमें विजयकी प्राप्ति होगी। वैश्य धन-धान्यसे सम्पन्न और शूद्र सुखी होगा ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर वे सम्पूर्ण महर्षि विनतानन्दन गरुडकी पूजा करके अपने-अपने आश्रमको चले गये और वहाँ शम-दमके साधनमें तत्पर हो गये ।।

धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महाराज युधिष्ठिर! जिनका मन अपने वशमें नहीं है, उन स्थूलदर्शी पुरुषोंके लिये भगवान्‌ श्रीहरिके तत्त्वका ज्ञान होना अत्यन्त कठिन है। यह धर्मसम्मत श्रुति है। परंतप! इसे ब्रह्माजीने आश्वर्यचकित हुए देवताओंको सुनाया था ।।

तात! तत्त्वज्ञानी वसुओंने मेरी माता गंगाजीके निकट मुझसे यह कथा कही थी और अब तुमसे मैंने कही है ।।

जो अन्निहोत्रमें तत्पर, जप-यज्ञमें संलग्न तथा कामनाओंके बन्धनसे मुक्त होते हैं, वे अविनाशी परमात्माके स्वरूपको प्राप्त हो जाते हैं ।।

जो क्रियात्मक यज्ञोंका परित्याग करके जप और होममें तत्पर हो मन-ही-मन भगवान्‌ विष्णुका ध्यान करते हैं वे परम गतिको प्राप्त होते हैं ।।

भरतनन्दन! जब निश्चित बुद्धिवाले पुरुष परमात्म-तत्त्वको जानकर परम गतिको प्राप्त हो जाते हैं, वही परम मोक्ष या मोक्षद्वार कहलाता है ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपरव्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें लोकयात्राके निर्वाहिकी विधिका वर्णनविषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २०४½ “लोक मिलाकर कुल २१०½ श्लोक हैं)


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