सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
ग्यारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) ग्यारहवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“लक्ष्मीके निवास करने और न करने योग्य पुरुष, स्त्री और स्थानोंका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा--तात! भरतमश्रेष्ठ! कैसे पुरुषमें और किस तरहकी स्त्रियोंमें लक्ष्मी नित्य निवास करती हैं? पितामह! यह मुझे बताइये ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! इस विषयमें एक यथार्थ वृत्तान्तको मैंने जैसा सुना है, उसीके अनुसार तुम्हें बता रहा हूँ। देवकीनन्दन श्रीकृष्णके समीप रुक्मिणीदेवीने साक्षात् लक्ष्मीसे जो कुछ पूछा था, वह मुझसे सुनो ।। २ ।।
भगवान् नारायणके अड्कमें बैठी हुई कमलके समान कान्तिवाली लक्ष्मीदेवीको अपनी प्रभासे प्रकाशित होती देख जिसके मनोहर नेत्र आश्वर्यसे खिल उठे थे, उन प्रद्यम्मजननी रुक्मिणीदेवीने कौतूहलवश लक्ष्मीसे पूछा-- ।। ३ ॥।
“महर्षि भृगुकी पुत्री तथा त्रिलोकीनाथ भगवान् नारायणकी प्रियतमे! देवि! तुम इस जगत्में किन प्राणियोंपर कृपा करके उनके यहाँ रहती हो? कहाँ निवास करती हो और किन-किनका सेवन करती हो? उन सबको मुझे यथार्थरूपसे बताओ” ।। ४ ।।
रुक्मिणीके इस प्रकार पूछनेपर चन्द्रमुखी लक्ष्मीदेवीने प्रसन्न होकर भगवान् गरुडध्वजके सामने ही मीठी वाणीमें यह वचन कहा ।। ५ ।।
लक्ष्मी बोलीं--देवि! मैं प्रतिदिन ऐसे पुरुषमें निवास करती हूँ जो सौभाग्यशाली, निर्भीक, कार्यकुशल, कर्मपरायण, क्रोधरहित, देवाराधनतत्पर, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय तथा बढ़े हुए सत्त्वगुणसे युक्त हो ।। ६ ।।
जो पुरुष अकर्मण्य, नास्तिक, वर्णसंकर, कृतध्न, दुराचारी, क्रूर, चोर तथा गुरुजनोंके दोष देखनेवाला हो, उसके भीतर मैं निवास नहीं करती हूँ ।। ७ ।।
जिनमें तेज, बल, सत्त्व और गौरवकी मात्रा बहुत थोड़ी है, जो जहाँ-तहाँ हर बातमें खिन्न हो उठते हैं, जो मनमें दूसरा भाव रखते हैं और ऊपरसे कुछ और ही दिखाते हैं, ऐसे मनुष्योंमें मैं निवास नहीं करती हूँ ।। ८ ।।
जो अपने लिये कुछ नहीं चाहता, जिसका अन्तःकरण मूढ़तासे आच्छन्न है, जो थोड़ेमें ही संतोष कर लेते हैं, ऐसे मनुष्योंमें मैं भलीभाँति नित्य निवास नहीं करती हूँ ।।
जो स्वभावतः स्वधर्मपरायण, धर्मज्ञ, बड़े-बूढ़ोंकी सेवामें तत्पर, जितेन्द्रिय, मनको वशमें रखनेवाले, क्षमाशील और सामर्थ्यशाली हैं, ऐसे पुरुषोंमें तथा क्षमाशील एवं जितेन्द्रिय अबलाओंमें भी मैं निवास करती हूँ। जो स्त्रियाँ स्वभावतः सत्यवादिनी तथा सरलतासे संयुक्त हैं, जो देवताओं और द्विजोंकी पूजा करनेवाली हैं, उनमें भी मैं निवास करती हूँ || १० ३ ।।
जो अपने समयको कभी व्यर्थ नहीं जाने देते, सदा दान एवं शौचाचारमें तत्पर रहते हैं, जिन्हें ब्रह्मचर्य, तपस्या, ज्ञान, गौ और द्विज परम प्रिय हैं, ऐसे पुरुषोंमें मैं निवास करती हूँ ।।
जो स्त्रियाँ कमनीय गुणोंसे युक्त, देवताओं तथा ब्राह्मणोंकी सेवामें तत्पर, घरके बर्तनभाँड़ोंको शुद्ध तथा स्वच्छ रखनेवाली एवं गौओंकी सेवा तथा धान्यके संग्रहमें तत्पर होती हैं, उनमें भी मैं सदा निवास करती हूँ ।।
जो घरके बर्तनोंको सुव्यवस्थित रूपसे न रखकर इधर-उधर बिखेरे रहती हैं, सोचसमझकर काम नहीं करती हैं, सदा अपने पतिके प्रतिकूल ही बोलती हैं, दूसरोंके घरोंमें घूमने-फिरनेमें आसक्त रहती हैं और लज्जाको सर्वथा छोड़ बैठती हैं, उनको मैं त्याग देती हूँ ।।
जो स्त्री निर्दयतापूर्वक पापाचारमें तत्पर रहनेवाली, अपवित्र, चटोर, धैर्यहीन, कलहप्रिय, नींदमें बेसुध होकर सदा खाटपर पड़ी रहनेवाली होती है, ऐसी नारीसे मैं सदा दूर ही रहती हूँ || १२६ ।।
जो स्त्रियाँ सत्यवादिनी और अपनी सौम्य वेश-भूषाके कारण देखनेमें प्रिय होती हैं, जो सौभाग्यशालिनी, सद्गुणवती, पतिव्रता एवं कल्याणमय आचार-विचारवाली होती हैं तथा जो सदा वस्त्राभूषणोंसे विभूषित रहती हैं, ऐसी स्त्रियोंमें मैं सदा निवास करती हूँ ।। १३ ई ||
सुन्दर सवारियोंमें, कुमारी कन्याओंमें, आभूषणोंमें, यज्ञोंमें, वर्षा करनेवाले मेघोंमें, खिले हुए कमलोंमें, शरद् ऋतुकी नक्षत्र-मालाओंमें, हाथियों और गोशालाओंमें, सुन्दर आसनोंमें तथा खिले हुए उत्पल और कमलोंसे सुशोभित सरोवरोंमें मैं सदा निवास करती हूँ ।। १४-१५ ||
जहाँ हँसोंकी मधुर ध्वनि गूँजती रहती है, क्रौंच पक्षीके कलरव जिनकी शोभा बढ़ाते हैं, जो अपने तटोंपर फैले हुए वृक्षोंकी श्रेणियोंसे शोभायमान हैं, जिनके किनारे तपस्वी, सिद्ध और ब्राह्मण निवास करते हैं, जिनमें बहुत जल भरा रहता है तथा सिंह और हाथी जिनके जलमें अवगाहन करते रहते हैं, ऐसी नदियोंमें भी मैं सदा निवास करती रहती हूँ ।। १६३ ||
मतवाले हाथी, साँड़, राजा, सिंहासन और सत्पुरुषोंमें मेरा नित्य-निवास है। जिस घरमें लोग अग्निमें आहुति देते हैं, गौ, ब्राह्मण तथा देवताओंकी पूजा करते हैं और समयसमयपर जहाँ फूलोंसे देवताओंको उपहार समर्पित किये जाते हैं, उस घरमें मैं नित्य निवास करती हूँ || १७-१८ ।।
सदा वेदोंके स्वाध्यायमें तत्पर रहनेवाले ब्राह्मणों, स्वधर्मपरायण क्षत्रियों, कृषि-कर्ममें लगे हुए वैश्यों तथा नित्य सेवापरायण शूद्रोंके यहाँ भी मैं सदा निवास करती हूँ || १९ ।।
मैं मूर्तिमती एवं अनन्यचित्त होकर तो भगवान् नारायणमें ही सम्पूर्ण भावसे निवास करती हूँ; क्योंकि उनमें महान् धर्म संनिहित है। उनका ब्राह्मणोंके प्रति प्रेम है और उनमें स्वयं सर्वप्रिय होनेका गुण भी है ।।
देवि! मैं नारायणके सिवा अन्यत्र शरीरसे नहीं निवास करती हूँ। मैं यहाँ ऐसा नहीं कह सकती कि सर्वत्र इसी रूपमें रहती हूँ। जिस पुरुषमें भावनाद्वारा निवास करती हूँ वह धर्म, यश, धन और कामसे सम्पन्न होकर सदा बढ़ता रहता है ।। २१ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपरव्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें लक्ष्मी और रुक्मिणीका संवादविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल २३ श्लोक हैं)
सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
बारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) बारहवें अध्याय के श्लोक 1-54 का हिन्दी अनुवाद)
“कृतघ्नकी गति और प्रयश्चित्तका वर्णन तथा स्त्री-पुरुषके संयोगमें स्त्रीको ही अधिक सुख होनेके सम्बन्धमें भंगास्वनका उपाख्यान”
युधिष्ठिर ने पूछा--पितामह! जो मोहवश माता-पिता तथा गुरुजनोंका अपमान करते हैं उन कृतघ्नोंके लिये कया प्रायश्चित्त है? यह बताइये ।।
तात! महाबाहो! दूसरे भी जो निर्लज्ज एवं कृतघ्न हैं उनकी गति कैसी होती है? यह सब मैं यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ ।।
भीष्मजीने कहा--तात! कृतघ्नोंकी एक ही गति है, सदाके लिये नरकमें पड़े रहना। जो माता-पिता तथा गुरुजनोंकी आज्ञाके अधीन नहीं रहते हैं वे कृमि, कीट, पिपीलिका और वृक्ष आदिकी योनियोंमें जन्म लेते हैं। मनुष्ययोनिमें फिर जन्म होना उनके लिये दुर्लभ हो जाता है ।।
इस विषयमें जानकार मनुष्य इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण देते हैं। वत्सनाभ नामवाले एक परम बुद्धिमान् महर्षि कठोर व्रतके पालनमें लगे थे। उनके शरीरपर दीमकोंने घर बना लिया था; अतः वे ब्रह्मर्षि बाँबीरूप हो गये थे और उसी अवस्थामें वे बड़ी भारी तपस्या करते थे ।।
भरतश्रेष्ठ] उनके तप करते समय इन्द्रनें बिजलीकी चमक और मेघोंकी गम्भीर गर्जनाके साथ बड़ी भारी वर्षा आरम्भ कर दी ।।
पाकशासन इन्द्रने लगातार एक सप्ताहतक वहाँ जल बरसाया और वे ब्राह्मण वत्सनाभ आँख मूँदकर चुपचाप उस वर्षाका आघात सहन करते रहे ।।
सर्दी और हवासे युक्त वह वर्षा हो ही रही थी कि बिजलीसे आहत हो उस वल्मीक (बाँबी)-का शिखर टूटकर बिखर गया ।।
अब महामना वत्सनाभपर उस वर्षाकी चोट पड़ने लगी। यह देख धर्मके हृदयमें करुणा भर आयी और उन्होंने वत्सनाभपर अपनी सहज दया प्रकट की ।।
तपस्यामें लगे हुए उन अत्यन्त धार्मिक ब्रह्मर्षिकी चिन्ता करते हुए धर्मके हृदयमें शीघ्र ही स्वाभाविक सुबुद्धिका उदय हुआ, जो उन्हींके अनुरूप थी ।।
वे विशाल और मनोहर भैंसेका-सा अपना स्वरूप बनाकर वत्सनाभकी रक्षाके लिये उनके चारों ओर अपने चारों पैर जमाकर उनके ऊपर खड़े हो गये ।।
धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भरतभूषण युधिष्ठिर! जब शीतल हवासे युक्त वह वर्षा बंद हो गयी तब भैंसेका रूप धारण करनेवाले धर्म धीरेसे उस वल्मीकको छोड़कर वहाँसे दूर खिसक गये। उस मूसलाधार वर्षामें महिषरूपधारी धर्मके खड़े हो जानेसे महातपस्वी वत्सनाभकी रक्षा हो गयी ।।
तदनन्तर वहाँ सुविस्तृत दिशाओं, पर्वतोंके शिखरों, जलमें डूबी हुई सारी पृथ्वी और जलाशयोंको देखकर ब्राह्मण वत्सनाभ बहुत प्रसन्न हुए ।।
फिर वे विस्मित होकर सोचने लगे कि “इस वर्षासे किसने मेरी रक्षा की है। इतनेहीमें पास ही खड़े हुए उस भैंसेपर उनकी दृष्टि पड़ी ।।
“अहो! पशुयोनिमें पैदा होकर भी यह कैसा धर्मवत्सल दिखायी देता है? निश्चय ही यह भैंसा मेरे ऊपर शिलापट्टके समान खड़ा हो गया था। इसीलिये मेरा भला हुआ है। यह बड़ा मोटा और बहुत मांसल है' ।।
तदनन्तर धर्ममें अनुराग होनेके कारण मुनिके हृदयमें यह विचार उत्पन्न हुआ कि “जो विश्वासघाती एवं कृतघ्न मनुष्य हैं, वे नरकमें पड़ते हैं ।।
“मैं प्राण-त्यागके सिवा कृतघ्नोंके उद्धारका दूसरा कोई उपाय किसी तरह नहीं देख पाता। धर्मज्ञ पुरुषोंका कथन भी ऐसा ही है ।।
'पिता-माताका भरण-पोषण न करके तथा गुरुदक्षिणा न देकर मैं कृतघ्नभावको प्राप्त हो गया हूँ। इस कृतघ्नताका प्रायश्षित्त है स्वेच्छासे मृत्युको वरण कर लेना ।।
“अपने कृतघ्न जीवनकी आकांक्षा और प्रायश्चित्तकी उपेक्षा करनेपर भी भारी उपपातक भी बढ़ता रहेगा। अतः मैं प्रायक्षित्तके लिये अपने प्राणोंका परित्याग करूँगा” ।।
अनासक्त चित्तसे मेरु पर्वतके शिखरपर जाकर प्रायश्चित्त करनेकी इच्छासे अपने शरीरको त्याग देनेके लिये उद्यत हो गये। इसी समय धर्मने आकर उन वधर्मज्ञ, धर्मात्मा वत्सनाभका हाथ पकड़ लिया ।।
धर्मने कहा--महाप्राज्ञ वत्सनाभ! तुम्हारी आयु कई सौ वर्षोकी है। तुम्हारे इस आसक्तिरहित आत्मत्यागके विचारसे मैं बहुत संतुष्ट हूँ ।।
इसी प्रकार सभी धर्मात्मा पुरुष अपने किये हुए कर्मकी आलोचना करते हैं। वत्सनाभ! जगत्में कोई ऐसा पुरुष नहीं है जिसका मन कभी दूषित न हुआ हो। जो मनुष्य निन्द्य कर्मोसे दूर रहकर सब तरहसे धर्मका आचरण करता है वही शक्तिशाली है। महाप्राज्ञ! अब तुम प्राणत्यागके संकल्पसे निवृत्त हो जाओ, क्योंकि तुम सनातन (अजरअमर) आत्मा हो ।।
युधिष्ठटिरने पूछा--राजन्! स्त्री और पुरुषके संयोगमें विषयसुखकी अनुभूति किसको अधिक होती है (स्त्रीको या पुरुषको)? इस संशयके विषयमें आप यथावत््रूपसे बतानेकी कृपा करें ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! इस विषयमें भी भंगास्वनके साथ इन्द्रका पहले जो वैर हुआ था, उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है ।। २ ।।
पुरुषसिंह! पहलेकी बात है, भंगास्वन नामसे प्रसिद्ध अत्यन्त धर्मात्मा राजर्षि पुत्रहीन होनेके कारण पुत्र-प्राप्तिके लिये यज्ञ करते थे ।। ३ ।।
उन महाबली राजर्षिने अग्निष्टत नामक यज्ञका आयोजन किया था। उसमें इन्द्रकी प्रधानता न होनेके कारण इन्द्र उस यज्ञसे द्वेष रखते हैं। वह यज्ञ मनुष्योंके प्रायश्ित्तके अवसरपर अथवा पुत्रकी कामना होनेपर अभीष्ट मानकर किया जाता है ।। ४ ।।
महाभाग देवराज इन्द्रकों जब उस यज्ञकी बात मालूम हुई तब वे मनको वशमें रखनेवाले राजर्षि भंगास्वनका छिठ्र ढूँढ़ने लगे |। ५ ।।
राजन! बहुत ढूँढ़नेपर भी वे उस महामना नरेशका कोई छिद्र न देख सके। कुछ कालके अनन्तर राजा भंगास्वन शिकार खेलनेके लिये वनमें गये ।। ६ ।।
नरेश्वर! “यही बदला लेनेका अवसर है' ऐसा निश्चय करके इन्द्रने राजाको मोहमें डाल दिया। इन्द्रद्वारा मोहित एवं भ्रान्त हुए राजर्षि भंगास्वन एकमात्र घोड़ेके साथ इधर-उधर भटकने लगे। उन्हें दिशाओंका भी पता नहीं चलता था। वे भूख-प्याससे पीड़ित तथा परिश्रम और तृष्णासे विकल हो इधर-उधर घूमते रहे ।। ७-८ ।।
तात! घूमते-घूमते उन्होंने उत्तम जलसे भरा हुआ एक सुन्दर सरोवर देखा। उन्होंने घोड़ेको उस सरोवरमें स्नान कराकर पानी पिलाया ॥। ९ |।
जब घोड़ा पानी पी चुका तब उसे एक वृक्षमें बाँधकर वे श्रेष्ठ नरेश स्वयं भी जलमें उतरे। उसमें स्नान करते ही वे राजा स्त्रीभावको प्राप्त हो गये || १० ।।
अपनेको स्त्रीरूपमें देखकर राजाको बड़ी लज्जा हुई। उनके सारे अन्तःकरणमें भारी चिन्ता व्याप्त हो गयी। उनकी इन्द्रियाँ और चेतना व्याकुल हो उठीं ।।
वे स्त्रीरूपमें इस प्रकार सोचने लगे--अब मैं कैसे घोड़ेपर चढूँगी? कैसे नगरको जाऊँगी? मेरे अग्निष्टत यज्ञके अनुष्ठानसे मुझे सौ महाबलवान् औरस पुत्र प्राप्त हुए हैं। उन सबसे क्या कहूँगी? अपनी स्त्रियों तथा नगर और जनपदके लोगोंमें कैसे जाऊँगी? ।। १२-१३ ।।
“धर्मके तत्त्वको देखने और जाननेवाले ऋषियोंने मृदुता, कृशता और व्याकुलता--ये सत्रीके गुण बताये हैं ।। १४ ।।
“परिश्रम करनेमें कठोरता और बल-पराक्रम--ये पुरुषके गुण हैं। मेरा पौरुष नष्ट हो गया और किसी अज्ञात कारणसे मुझमें स्त्रीत्व प्रकट हो गया ।। १५ ।।
“अब स्त्रीभाव आ जानेसे उस अश्वपर कैसे चढ़ सकूँगी?” तात! किसी-किसी तरह महान् प्रयत्न करके वे स्त्रीरूपधारी नरेश घोड़ेपर चढ़कर अपने नगरमें आये ।। १६३ ।।
राजाके पुत्र, स्त्रियाँ सेवक तथा नगर और जनपदके लोग, “यह क्या हुआ?'--ऐसी जिज्ञासा करते हुए बड़े आश्वर्यमें पड़ गये || १७३ ।।
तब स्त्रीरूपधारी, वक्ताओंमें श्रेष्ठ राजर्षि भंगास्वन बोले--'मैं अपनी सेनासे घिरकर शिकार खेलनेके लिये निकला था; परंतु दैवकी प्रेरणासे भ्रान्तचित्त होकर एक भयानक वनमें जा घुसा || १८-१९ ||
उस घोर वनमें प्याससे पीड़ित एवं अचेत-सा होकर मैंने एक सरोवर देखा, जो पक्षियोंसे घिर हुआ और मनोहर शोभासे सम्पन्न था | २० ।।
उस सरोवरमें उतरकर स्नान करते ही दैवने मुझे स्त्री बना दिया। अपनी स्त्रियों और मन्त्रियोंके नाम-गोत्र बताकर उन स्त्रीरूपधारी श्रेष्ठ नरेशने अपने पुत्रोंसे कहा--'पुत्रो! तुमलोग आपसमें प्रेमपूर्वक्क रहकर राज्यका उपभोग करो। अब मैं वनको चला जाऊँगा' || २१-२२ ।।
अपने सौ पुत्रोंसे ऐसा कहकर राजा वनको चले गये। वह स्त्री किसी आश्रममें जाकर एक तापसके आश्रयमें रहने लगी ।। २३ ।।
उस तपस्वीसे आश्रममें उसके सौ पुत्र हुए। तब वह रानी अपने उन पुत्रोंको लेकर पहलेवाले पुत्रोंके पास गयी और उनसे इस प्रकार बोली--'पुत्रो! जब मैं पुरुषरूपमें थी तब तुम मेरे सौ पुत्र हुए थे और जब स्त्रीरूपमें आयी हूँ तब ये मेरे सौ पुत्र हुए हैं। तुम सब लोग एकत्र होकर साथ-साथ भ्रातृभावसे इस राज्यका उपभोग करो' ।। २४-२५ ।।
तब वे सब भाई एक साथ होकर उस राज्यका उपभोग करने लगे। उन सबको भ्रातृभावसे एक साथ रहकर उस उत्तम राज्यका उपभोग करते देख क्रोधमें भरे हुए देवराज इन्द्रने सोचा कि मैंने तो इस राजर्षिका उपकार ही कर दिया, अपकार तो कुछ किया ही नहीं ।। २६-२७ ।।
तब देवराज इन्द्रने ब्राह्मणका रूप धारण करके उस नगरमें जाकर उन राजकुमारोंमें फूट डाल दी ।। २८ ।।
वे बोले--'राजकुमारो! जो एक पिताके पुत्र हैं, ऐसे भाइयोंमें भी प्राय: उत्तम भ्रातृप्रेम नहीं रहता। देवता और असुर दोनों ही कश्यपजीके पुत्र हैं तथापि राज्यके लिये परस्पर विवाद करते रहते हैं! | २९ ।।
“तुमलोग तो भंगास्वनके पुत्र हो और दूसरे सौ भाई एक तापसके लड़के हैं। फिर तुममें प्रेम कैसे रह सकता है? देवता और असुर तो कश्यपके ही पुत्र हैं, फिर भी उनमें प्रेम नहीं हो पाता है ।। ३० ।।
“तुमलोगोंका जो पैतृक राज्य है, उसे तापसके लड़के आकर भोग रहे हैं।” इस प्रकार इन्द्रके द्वारा फूट डालनेपर वे आपसमें लड़ पड़े। उन्होंने युद्धमें एक-दूसरेको मार गिराया ।। ३१ ।।
यह समाचार सुनकर तापसीको बड़ा दुःख हुआ। वह फूट-फ़ूटकर रोने लगी। उस समय ब्राह्मणका वेश धारण करके इन्द्र उसके पास आये और पूछने लगे--- ।। ३२
'सुमुखि! तुम किस दुःखसे संतप्त होकर रो रही हो?” उस ब्राह्मणको देखकर वह स्त्री करुणस्वरमें बोली-- ।। ३३ ।।
“ब्रह्मन! मेरे दो सौ पुत्र कालके द्वारा मारे गये। विप्रवर! मैं पहले राजा था। तब मेरे सौ पुत्र हुए थे। द्विजश्रेष्ठ! वे सभी मेरे अनुरूप थे। एक दिन मैं शिकार खेलनेके लिये गहन वनमें गया और वहाँ अकारण भ्रमित-सा होकर इधर-उधर भटकने लगा ।। ३४-३५ ।।
“ब्राह्मणशिरोमणे! वहाँ एक सरोवरमें स्नान करते ही मैं पुरुषसे स्त्री हो गया और पुत्रोंकी राज्यपर बिठाकर वनमें चला आया ।। ३६ ।।
'सत्रीरूपमें आनेपर महामना तापसने इस आश्रममें मुझसे सौ पुत्र उत्पन्न किये। ब्रह्मन! मैं उन सब पुत्रोंकोी नगरमें ले गयी और उन्हें भी राज्यपर प्रतिष्ठित करायी ।। ३७ ।।
“विप्रवर! कालकी प्रेरणासे उन सब पुत्रोंमें वैर उत्पन्न हो गया और वे आपसमें ही लड़भिड़कर नष्ट हो गये। इस प्रकार दैवकी मारी हुई मैं शोकमें डूब रही हूँ || ३८ ।।
इन्द्रने उसे दु:खी देख कठोर वाणीमें कहा--भद्रे! जब पहले तुम राजा थीं, तब तुमने भी मुझे दुःसह दुःख दिया था ।। ३९ |।
“तुमने उस यज्ञका अनुष्ठान किया जिसका मुझसे वैर है। मेरा आवाहन न करके तुमने वह यज्ञ पूरा कर लिया। खोटी बुद्धिवाली स्त्री! मैं वही इन्द्र हूँ और तुमसे मैंने ही अपने वैरका बदला लिया है” ।। ४० ।।
इन्द्रको देखकर वे स्त्रीरूपधारी राजर्षि उनके चरणोंमें सिर रखकर बोले--'सुरश्रेष्ठ आप प्रसन्न हों। मैंने पुत्रकी इच्छासे वह यज्ञ किया था। देवेश्वर! उसके लिये आप मुझे क्षमा करें! || ४१३ ||
“इनके इस प्रकार प्रणाम करनेपर इन्द्र संतुष्ट हो गये और वर देनेके लिये उद्यत होकर बोले--राजन! तुम्हारे कौन-से पुत्र जीवित हो जायाँ? तुमने स्त्री होकर जिन्हें उत्पन्न किया था; वे अथवा पुरुषावस्थामें जो तुमसे उत्पन्न हुए थे?” ।। ४२-४३ ।।
तब तापसीने इन्द्रसे हाथ जोड़कर कहा--देवेन्द्र! स्त्रीरूप हो जानेपर मुझसे जो पुत्र उत्पन्न हुए हैं, वे ही जीवित हो जायँ ।। ४४ ।।
तब इन्द्रने विस्मित होकर उस स्त्रीसे पूछा--“तुमने पुरुषरूपसे जिन्हें उत्पन्न किया था, वे पुत्र तुम्हारे द्वेषके पात्र क्यों हो गये? तथा स्त्रीरूप होकर तुमने जिनको जन्म दिया है, उनपर तुम्हारा अधिक स्नेह क्यों है? मैं इसका कारण सुनना चाहता हूँ। तुम्हें मुझसे यह बताना चाहिये” || ४५-४६ ।।
स्त्रीने कहा--इन्द्र! स्त्रीका अपने पुत्रोंपर अधिक स्नेह होता है, वैसा स्नेह पुरुषका नहीं होता है। अतः इन्द्र! स्त्रीरूपमें आनेपर मुझसे जिनका जन्म हुआ है, वे ही जीवित हो जायूँ ।। ४७ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! तापसीके यों कहनेपर इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले--'सत्यवादिनि! तुम्हारे सभी पुत्र जीवित हो जायेँ ।। ४८ ।।
“उत्तम व्रतका पालन करनेवाले राजेन्द्र! तुम मुझसे अपनी इच्छाके अनुसार दूसरा वर भी माँग लो। बोलो, फिरसे पुरुष होना चाहते हो या स्त्री ही रहनेकी इच्छा है? जो चाहो वह मुझसे ले लो” ।। ४९ ।।
स्त्रीने कहा--इन्द्र! मैं स्त्रीत्वका ही वरण करती हूँ। वासव! अब मैं पुरुष होना नहीं चाहती। उसके ऐसा कहनेपर देवराजने उस स्त्रीसे पूछा-- ।। ५० ।।
प्रभो! तुम्हें पुरुषत्वका त्याग करके स्त्री बने रहनेकी इच्छा क्यों होती है?' इन्द्रके यों पूछनेपर उन स्त्रीरूपधारी नृपश्रेष्ठने इस प्रकार उत्तर दिया-- ।। ५१ ।।
देवेन्द्र! सत्रीका पुरुषके साथ संयोग होनेपर स्त्रीको ही पुरुषकी अपेक्षा अधिक विषयसुख प्राप्त होता है, इसी कारणसे मैं स्त्रीत्वका ही वरण करती हूँ” || ५२ ।।
'देवश्रेष्ठ! सुरेश्वर! मैं सच कहती हूँ, स्त्रीरूपमें मैंने अधिक रति-सुखका अनुभव किया है, अतः स्त्रीरूपसे ही संतुष्ट हँ। आप पधारिये” || ५३ ।।
महाराज! तब 'एवमस्तु” कहकर उस तापसीसे विदा ले इन्द्र स्वर्गलोकको चले गये। इस प्रकार स्त्रीको विषय-भोगमें पुरुषकी अपेक्षा अधिक सुख-प्राप्ति बतायी जाती है ।। ५४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें भज़ास्वनका उपाख्यानविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २६ श्लोक मिलाकर कुल ८० श्लोक हैं)
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