सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के तीसरे अध्याय से पाचवे अध्याय (From the three chapter to the five chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

तीसरा अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  तिसरे अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“विश्वामित्रको ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति कैसे हुई--इस विषयमें युधिष्ठिरका प्रश्न”

युधिष्ठिरने पूछा--महाराज! नरेश्वर! यदि अन्य तीन वर्णोंके लिये ब्राह्मणत्व प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है तो क्षत्रियकुलमें उत्पन्न महात्मा विश्वामित्रने कैसे ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया? धर्मात्मन्‌! नरश्रेष्ठ पितामह! इस बातको मैं यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ, आप मुझे बताइये, ॥१-२॥

पितामह! अमित पराक्रमी विश्वामित्रने अपनी तपस्याके प्रभावसे महात्मा वसिष्ठके सौ पुत्रोंको तत्काल नष्ट कर दिया था ।। ३ ।।

उन्होंने क्रोधके आवेशमें आकर बहुत-से प्रचण्ड तेजस्वी यातुधान एवं राक्षस रच डाले थे जो काल और यमराजके समान भयानक थे ।। ४ ।।

इतना ही नहीं, इस मनुष्य-लोकमें उन्होंने उस महान्‌ कुशिक-वंशको स्थापित किया जो अब सैकड़ों ब्रह्मर्षियोंसे व्याप्त और दिद्वान ब्राह्मणोंसे प्रशंसित है ।।

ऋचीक (अजीगर्त) का महातपस्वी पुत्र शुनःशेप एक यज्ञमें यज्ञ-पशु बनाकर लाया गया था; किंतु विश्वामित्रजीने उस महायज्ञसे उसको छुटकारा दिला दिया ।। ६ ।।

हरिश्वन्द्रके उस यज्ञमें अपने तेजसे देवताओंको संतुष्ट करके विश्वामित्रने शुन:शेपको छुड़ाया था; इसलिये वह बुद्धिमान विश्वामित्रके पुत्रभावको प्राप्त हो गया ।। ७ ।।

नरेश्वर! शुनः:शेप देवताओंके देनेसे देवरात नामसे प्रसिद्ध हो विश्वामित्रका ज्येष्ठ पुत्र हुआ। उसके छोटे भाई--विश्वामित्रके अन्य पचास पुत्र उसे बड़ा मानकर प्रणाम नहीं करते थे; इसलिये विश्वामित्रके शापसे वे सब-के-सब चाण्डाल हो गये ।। ८ ।।

जिस इक्ष्वाकुवंशी त्रिशंकुको भाई-बन्धुओंने त्याग दिया था और जब वह स्वर्गसे भ्रष्ट होकर दक्षिण दिशामें नीचे सिर किये लटक रहा था, तब विश्वामित्रजीने ही उसे प्रेमपूर्वक स्वर्गलोकमें पहुँचाया था ।। ९ ।।

देवर्षियों, ब्रह्मर्षियों और देवताओंसे सेवित, पवित्र, मंगलकारिणी एवं विशाल कौशिकी नदी विश्वामित्रके ही प्रभावसे प्रकट हुई है || १० ।।

पाँच चोटीवाली लोकप्रिय रम्भा नामक अप्सरा विश्वामित्रजीकी तपस्यामें विघ्न डालने गयी थी, जो उनके शापसे पत्थर हो गयी ।। ११ ।।

पूर्वकालमें विश्वामित्रके ही भयसे अपने शरीरको रस्सीसे बाँधकर श्रीमान्‌ वसिष्ठजी अपने-आपको एक नदीके जलमें डुबो रहे थे; परंतु उस नदीके द्वारा पाशरहित (बन्धनमुक्त) हो पुन: ऊपर उठ आये। महात्मा वसिष्ठके उस महान्‌ कर्मसे विख्यात हो वह पवित्र नदी उसी दिनसे “विपाशा” कहलाने लगी ।। १२-१३ ।।

वाणीद्वारा स्तुति करनेपर उन विश्वामित्रपर सामर्थ्य शाली भगवान्‌ इन्द्र प्रसन्न हो गये थे और उनको शापमुक्त कर दिया था ।। १४ ।।

जो विश्वामित्र उत्तानपादके पुत्र ध्रुव तथा ब्रह्मर्षियों (सप्तर्षियों)-के बीचमें उत्तर दिशाके आकाशका आश्रय ले तारारूपसे सदा प्रकाशित होते रहते हैं, वे क्षत्रिय ही रहे हैं। कुरुनन्दन! उनके ये तथा और भी बहुत-से अदभुत कर्म हैं, उन्हें याद करके मेरे हृदयमें यह जाननेका कौतूहल उत्पन्न हुआ है कि वे ब्राह्मण कैसे हो गये? ।। १५-१६ ।।

भरतश्रेष्ठ) यह क्या बात है? इसे ठीक-ठीक बताइये। विश्वामित्रजी दूसरा शरीर धारण किये बिना ही कैसे ब्राह्मण हो गये? ।। १७ ।।

तात! यह सब आप यशथार्थरूपसे बतानेकी कृपा करें। जैसे मतड़को तपस्या करनेसे भी ब्राह्मणत्व नहीं प्राप्त हुआ, वैसी ही बात विश्वामित्रके लिये क्‍यों नहीं हुई? यह मुझे बताइये ।। १८ ।।

भरतश्रेष्ठ! मतड़को जो ब्राह्मणत्व नहीं प्राप्त हुआ, वह उचित ही था; क्योंकि उसका जन्म चाण्डालकी योनिमें हुआ था; परंतु विश्वामित्रने कैसे ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया? ।। १९ ||

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वनें विशज्वामित्रका उपाख्यानविषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

चौथा अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  चौथे अध्याय के श्लोक 1-62 का हिन्दी अनुवाद)

“आजमीढके वंशका वर्णन तथा विश्वामित्रके जन्मकी कथा और उनके पुत्रोंके नाम”

भीष्मजीने कहा--तात! कुन्तीनन्दन! पूर्वकालमें विश्वामित्रजीने जिस प्रकार ब्राह्मणत्व तथा ब्रह्मर्षित्व प्राप्त किया, वह प्रसंग यथार्थरूपसे बता रहा हूँ, सुनो ।।

भरतवंशमें अजमीढ नामसे प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। भरतश्रेष्ठ) वे राजा अजमीढ यज्ञकर्ता एवं धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ थे ।। २ ।।

उनके पुत्र महाराज जह्लु हुए, जिन महात्मा नरेशके समीप जाकर गंगाजी पुत्रीभावको प्राप्त हुई थीं ।। ३ ।।

जह्लके पुत्रका नाम सिन्धुद्वीप था, जो पिताके समान ही गुणवान्‌ और महायशस्वी थे। सिन्धुद्वीपसे महाबली राजा बलाकाश्वका जन्म हुआ था ।। ४ ।।

बलाकाश्च॒का पुत्र वललभनामसे प्रसिद्ध हुआ, जो साक्षात्‌ दूसरे धर्मके समान था। वल्लभके पुत्र कुशिक हुए, जो इन्द्रके समान तेजस्वी थे || ५ ।।

कुशिकके पुत्र महाराज गाधि हुए, जो दीर्घकालतक पुत्रहीन रह गये। तब संतानकी इच्छासे पुण्यकर्म करनेके लिये वे वनमें रहने लगे ।। ६ ।।

वहाँ रहते समय सोमयाग करनेसे राजाके एक कन्या हुई, जिसका नाम सत्यवती था। भूतलपर कहीं भी उसके रूप और सौन्दर्यकी तुलना नहीं थी ।। ७ ।।

उन दिनों च्यवनके पुत्र भृगुवंशी श्रीमान्‌ ऋचीक विख्यात तपस्वी थे और बड़ी भारी तपस्यामें संलग्न रहते थे। उन्होंने राजा गाधिसे उस कन्याको माँगा ।। ८ ।।

शत्रुसूदन गाधिने महात्मा ऋचीकको दरिद्र समझकर उन्हें अपनी कन्या नहीं दी ॥ ९ |।

उनके इनकार कर देनेपर जब महर्षि लौटने लगे तब नृपश्रेष्ठ गाधिने उनसे कहा --'महर्षे! मुझे शुल्क दीजिये, तब आप मेरी पुत्रीको विवाहद्वारा प्राप्त कर सकेंगे” || १० ।।

ऋचीकने पूछा--राजेन्द्र! मैं आपकी पुत्रीके लिये आपको क्या शुल्क दूँ? आप निस्संकोच होकर बताइये। नरेश्वर! इसमें आपको कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये ।। ११ ।।

गाधिने कहा--भूगुनन्दन! आप मुझे शुल्करूपमें एक हजार ऐसे घोड़े ला दीजिये जो चन्द्रमाके समान कान्तिमान्‌ और वायुके समान वेगवान्‌ हों तथा जिनका एक-एक कान श्याम रंगका हो | १२ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! तब भृगुश्रेष्ठ च्यवनपुत्र शक्तिशाली महर्षि ऋचीकने जलके स्वामी अदितिनन्दन वरुणदेवके पास जाकर कहा-- || १३ ।।

“देवशिरोमणे! मैं आपसे चन्द्रमाके समान कान्तिमान्‌ तथा वायुके समान वेगवान्‌ एक हजार ऐसे घोड़ोंकी भिक्षा माँगता हूँ जिनका एक ओरका कान श्याम रंगका हो” ।। १४ ।।

तब अदितिनन्दन वरुणदेवने उन भृगुश्रेष्ठ ऋच्ीकसे कहा--बहुत अच्छा, जहाँ आपकी इच्छा होगी, वहींसे इस तरहके घोड़े प्रकट हो जायँगे” ।। १५ ।।

तदनन्तर ऋचीकके चिन्तन करते ही गंगाजीके जलसे चन्द्रमाके समान कान्तिवाले एक हजार तेजस्वी घोड़े प्रकट हो गये ।। १६ ।।

कन्नौजके पास ही गंगाजीका वह उत्तम तट आज भी मानवोंद्वारा अश्वतीर्थ कहलाता है ।। १७ ||

तात! तब तपस्वी मुनियोंमें श्रेष्ठ ऋचीक मुनिने प्रसन्न होकर शुल्कके लिये राजा गाधिको वे एक हजार सुन्दर घोड़े दे दिये || १८ ।।

तब आश्चर्यवचकित हुए राजा गाधिने शापके भयसे डरकर अपनी कन्याको वस्त्राभूषणोंसे विभूषित करके भूगुनन्दन ऋचीकको दे दिया ।। १९ |।

ब्रह्मर्षिशिरेमणि ऋचीकने उसका विधिवत्‌ पाणिग्रहण किया। वैसे तेजस्वी पतिको पाकर उस कन्याको भी बड़ा हर्ष हुआ || २० ।।

भरतनन्दन! अपनी पत्नीके सद्व्यवहारसे ब्रह्मर्षि बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने उस परम सुन्दरी पत्नीको मनोवांछित वर देनेकी इच्छा प्रकट की ।। २१ ।।

नृपश्रेष्ठ तब उस राजकन्याने अपनी मातासे मुनिकी कही हुई सब बातें बतायीं। वह सुनकर उसकी माताने संकोचसे सिर नीचे करके पुत्रीसे कहा-- ।। २२ ।।

“बेटी! तुम्हारे पतिको पुत्र प्रदान करनेके लिये मुझपर भी कृपा करनी चाहिये, क्योंकि वे महान्‌ तपस्वी और समर्थ हैं! || २३ ।।

राजन! तदनन्तर सत्यवतीने तुरंत जाकर माताकी वह सारी इच्छा ऋचीकसे निवेदन की। तब ऋचीकने उससे कहा-- ।। २४ ।।

“कल्याणि! मेरे प्रसादसे तुम्हारी माता शीघ्र ही गुणवान्‌ पुत्रको जन्म देगी। तुम्हारा प्रेमपूर्ण अनुरोध असफल नहीं होगा ।। २५ ।।

“तुम्हारे गर्भसे भी एक अत्यन्त गुणवान्‌ और महान्‌ तेजस्वी पुत्र उत्पन्न होगा, जो हमारी वंशपरम्पराको चलायेगा। मैं तुमसे यह सच्ची बात कहता हूँ || २६ ।।

“कल्याणि! तुम्हारी माता ऋतुस्नानके पश्चात्‌ पीपलके वृक्षका आलिंगन करे और तुम गूलरके वृक्षका। इससे तुम दोनोंको अभीष्ट पुत्रकी प्राप्ति होगी” || २७ ।।

“पवित्र मुसकानवाली देवि! मैंने ये दो मन्त्रपूत चरु तैयार किये हैं। इनमेंसे एकको तुम खा लो और दूसरेको तुम्हारी माता। इससे तुम दोनोंको पुत्र प्राप्त होंगे! || २८ ।।

तब सत्यवतीने हर्षमग्न होकर ऋचीकने जो कुछ कहा था, वह सब अपनी माताको बताया और दोनोंके लिये तैयार किये हुए पृथक्‌ू-पृथक्‌ चरुओंकी भी चर्चा की || २९ ।।

उस समय माताने अपनी पुत्री सत्यवतीसे कहा--“बेटी! माता होनेके कारण पहलेसे मेरा तुमपर अधिकार है; अतः तुम मेरी बात मानो” || ३० ।।

“तुम्हारे पतिने जो मन्त्रपूत चरु तुम्हारे लिये दिया है, वह तुम मुझे दे दो और मेरा चरु तुम ले लो | ३१ ।।

“पवित्र हास्यवाली मेरी अच्छी बेटी! यदि तुम मेरी बात मानने योग्य समझो तो हमलोग वृक्षोंमें भी अदल-बदल कर लें” ।। ३२ ।।

“प्रायः सभी लोग अपने लिये निर्मल एवं सर्वगुणसम्पन्न श्रेष्ठ पुत्रकी इच्छा करते हैं। अवश्य ही भगवान्‌ ऋचीकने भी चरु निर्माण करते समय ऐसा तारतम्य रखा होगा || ३३ ।।

'सुमध्यमे! इसीलिये तुम्हारे लिये नियत किये गये चरु और वृक्षमें मेरा अनुराग हुआ है। तुम भी यही चिन्तन करो कि मेरा भाई किसी तरह श्रेष्ठ गुणोंसे सम्पन्न हो” || ३४ ।।

युधिष्ठिररे इस तरह सलाह करके सत्यवती और उसकी माताने उसी तरह उन दोनों वस्तुओंका अदल-बदलकर उपयोग किया। फिर तो वे दोनों गर्भवती हो गयीं ।। ३५ ।।

अपनी पत्नी सत्यवतीको गर्भवती अवस्थामें देखकर भृगुश्रेष्ठ महर्षि ऋचीकका मन खिन्न हो गया ।।

उन्होंने कहा--'शुभे! जान पड़ता है तुमने बदलकर चरुका उपयोग किया है। इसी तरह तुमलोगोंने वृक्षोंके आलिंगनमें भी उलट-फेर कर दिया है--ऐसा स्पष्ट प्रतीत हो रहा है ।। ३७ ।।

“मैंने तुम्हारे चरुमें सम्पूर्ण ब्रह्मतजका संनिवेश किया था और तुम्हारी माताके चसरुमें समस्त क्षत्रियोचित शक्तिकी स्थापना की थी” || ३८ ।।

“मैंने सोचा था कि तुम त्रिभुवनमें विख्यात गुणवाले ब्राह्मणको जन्म दोगी और तुम्हारी माता सर्वश्रेष्ठ क्षत्रियकी जननी होगी। इसीलिये मैंने दो तरहके चरुओंका निर्माण किया था || ३९ ||

'शुभे! तुमने और तुम्हारी माताने अदला-बदली कर ली है, इसलिये तुम्हारी माता श्रेष्ठ ब्राह्मणपुत्रको जन्म देगी और भद्रे! तुम भयंकर कर्म करनेवाले क्षत्रियकी जननी होओगी। भाविनि! माताके स्नेहमें पड़कर तुमने यह अच्छा काम नहीं किया” || ४०-४१ ।।

राजन्‌! पतिकी यह बात सुनकर सुन्दरी सत्यवती शोकसे संतप्त हो वृक्षसे कटी हुई मनोहर लताके समान मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ी ।। ४२ ।।

थोड़ी देरमें जब उसे चेत हुआ, तब वह गाधिकुमारी अपने स्वामी भृूगुभूषण ऋचीकके चरणोंमें सिर रखकर प्रणामपूर्वक बोली--ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्मर्ष! मैं आपकी पत्नी हूँ, अतः आपसे कृपा-प्रसादकी भीख चाहती हूँ। आप ऐसी कृपा करें जिससे मेरे गर्भसे क्षत्रिय पुत्र उत्पन्न न हो || ४३-४४ ।।

“मेरा पौत्र चाहे उग्रकर्मा क्षत्रियस्वभावका हो जाय; परंतु मेरा पुत्र वैसा न हो। ब्रह्मन! मुझे यही वर दीजिये” ।। ४५ ।।

तब उन महातपस्वी ऋषिने अपनी पत्नीसे कहा, “अच्छा, ऐसा ही हो"। तदनन्तर सत्यवतीने जमदग्निनामक शुभगुणसम्पन्न पुत्रको जन्म दिया ।। ४६ |।

राजेन्द्र! उन्हीं ब्रह्मर्षिकि कृपा-प्रसादसे गाधिकी यशस्विनी पत्नीने ब्रह्मवादी विश्वामित्रको उत्पन्न किया ।।

इसीलिये महातपस्वी विश्वामित्र क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मणत्वको प्राप्त हो ब्राह्मणवंशके प्रवर्तक हुए ।। ४८ ।।

उन ब्रह्मवेत्ता तपस्वीके महामनस्वी पुत्र भी ब्राह्मणवंशकी वृद्धि करनेवाले और गोत्रकर्ता हुए || ४९ ।।

भगवान्‌ मधुच्छन्दा, शक्तिशाली देवरात, अक्षीण, शकुन्त, बभ्ु, कालपथ, विख्यात याज्ञवल्क्य, महाव्रती स्थूण, उलूक, यमदूत, सैन्धवायन ऋषि, भगवान्‌ वल्गुजंघ, महर्षि गालव, वज्रमुनि, विख्यात सालंकायन, लीलाढ्य, नारद, कूर्चामुख, वादुलि, मुसल, वक्षोग्रीव, आड्ूप्रिक, नैकदृकू, शिलायूप, शित, शुचि, चक्रक, मारुतन्तव्य, वातघ्न, आश्वलायन, श्यामायन, गार्ग्य, जाबालि, सुश्रुत, कारीषि, संश्रुत्य, पर, पौरव, तन्‍्तु, महर्षि कपिल, मुनिवर ताडकायन, उपगहन, आसुरायण ऋषि, मार्दमर्षि, हिरण्याक्ष, जंगारि, बाभ्रवायणि, भूति, विभूति, सूत, सुरकृत्‌ु, अरालि, नाचिक, चाम्पेय, उज्जयन, नवतत्तु, बकनख, सेयन, यति, अम्भोरुह, चारुमत्स्य, शिरीषी, गार्दभि, ऊर्जयोनि, उदापेक्षी और महर्षि नारदी--ये सभी विश्वामित्रके पुत्र एवं ब्रह्मयगादी ऋषि थे || ५०--५९ ३ ।

राजा युधिष्ठिर! महातपस्वी विश्वामित्र यद्यपि क्षत्रिय थे तथापि ऋचीक मुनिने उनमें परम उत्कृष्ट ब्रह्मतजका आधान किया था ।। ६० ३ ।।

भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार मैंने तुम्हें सोम, सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी विश्वामित्रके जन्मका सारा वृत्तान्त यथार्थरूपसे बताया है || ६१६ ।।

नृपश्रेष्ठट अब फिर तुम्हें जहाँ-जहाँ संदेह हो उस-उस विषयकी बात मुझसे पूछो। मैं तुम्हारे संशयका निवारण करूँगा ।। ६२ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वनें विश्वामित्रका उपाख्यानविषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ)

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पाचवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  पाचवें अध्याय के श्लोक 1-32 का हिन्दी अनुवाद)

“स्वामिभक्त एवं दयालु पुरुषकी श्रेष्ठता बतानेके लिये इन्द्र और तोते के संवादका उल्लेख”

युधिष्ठिरने कहा--धर्मज्ञ पितामह! अब मैं दयालु और भक्त पुरुषोंके गुण सुनना चाहता हूँ; अत: कृपा करके मुझे उनके गुण ही बताइये ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें भी महामनस्वी तोते और इन्द्रका जो संवाद हुआ था, उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है || २ ।।

काशिराजके राज्यकी बात है, एक व्याध विषमें बुझाया हुआ बाण लेकर गाँवसे निकला और शिकारके लिये किसी मृगको खोजने लगा ।। ३ ।।

उस महान्‌ वनमें थोड़ी ही दूर जानेपर मांसलोभी व्याधने कुछ मृगोंको देखा और उनपर बाण चला दिया ।। ४ ।।

व्याधका वह बाण अमोघ था; परंतु निशाना चूक जानेके कारण मृगको मारनेकी इच्छासे छोड़े गये उस बाणने एक विशाल वृक्षको वेध दिया ।। ५ ।।

तीखे विषसे पुष्ट हुए उस बाणसे बड़े जोरका आघात लगनेके कारण उस वृक्षमें जहर फैल गया। उसके फल और पत्ते झड़ गये और धीरे-धीरे वह सूखने लगा ।। ६ ।।

उस वृक्षके खोंखलेमें बहुत दिनोंसे एक तोता निवास करता था। उसका उस वृक्षके प्रति बड़ा प्रेम हो गया था, इसलिये वह उसके सूखनेपर भी वहाँका निवास छोड़ नहीं रहा था ।।७।।

वह धर्मात्मा एवं कृतज्ञ तोता कहीं आता-जाता नहीं था। चारा चुगना भी छोड़ चुका था। वह इतना शिथिल हो गया था कि उससे बोलातक नहीं जाता था। इस प्रकार उस वृक्षेके साथ वह स्वयं भी सूखता चला जा रहा था || ८ ।।

उसका धैर्य महान्‌ था। उसकी चेष्टा अलौकिक दिखायी देती थी। दुःख और सुखमें समान भाव रखनेवाले उस उदार तोतेको देखकर पाकशासन इन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ ।। ९ ||

इन्द्र यह सोचने लगे कि यह पक्षी कैसे ऐसी अलौकिक दयाको अपनाये बैठा है, जो पक्षीकी योनिमें प्रायः असम्भव है ।। १० ।।

अथवा इसमें कोई आश्वर्यकी बात नहीं है; क्योंकि सब जगह सब प्राणियोंमें सब तरहकी बातें देखनेमें आती हैं--ऐसी भावना मनमें लानेपर इन्द्रका मन शान्त हुआ ।। ११ ||

तदनन्तर वे ब्राह्मणके वेशमें मनुष्यका रूप धारण करके पृथ्वीपर उतरे और उस शुक पक्षीसे बोले-- ।। १२ ||

पक्षियोंमें श्रेष्ठ शुक! तुम्हें पाकर दक्षकी दौहित्री शुकी उत्तम संतानवाली हुई है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि अब इस वृक्षको क्‍यों नहीं छोड़ देते हो?” ।। १३ ।।

उनके इस प्रकार पूछनेपर शुकने मस्तक नवाकर उन्हें प्रणाम किया और कहा --देवराज! आपका स्वागत है। मैंने तपस्थाके बलसे आपको पहचान लिया है! ।।

यह सुनकर सहसनेत्रधारी इन्द्रने मन-ही-मन कहा--“वाह! वाह! क्या अदभुत विज्ञान है!” ऐसा कहकर उन्होंने मनसे ही उसका आदर किया ।। १५ ।।

*वृक्षके प्रति इस तोतेका कितना प्रेम है” इस बातको जानते हुए भी बलसूदन इन्द्रने शुभकर्म करनेवाले उस परम धर्मात्मा शुकसे पूछा-- ।। १६ ।।

'शुक! इस वृक्षके पत्ते झड़ गये, फल भी नहीं रहे। यह सूख जानेके कारण पक्षियोंके बसेरे लेने योग्य नहीं रह गया है। जब यह विशाल वन पड़ा हुआ है तब तुम इस दूँठ वृक्षका सेवन किसलिये करते हो? ।। १७ ।।

“इस विशाल वनमें और भी बहुत-से वृक्ष हैं जिनके खोखले हरे-हरे पत्तोंसे आच्छादित हैं, जो सुन्दर हैं तथा जिनपर पक्षियोंके संचारके लिये योग्य पर्याप्त स्थान हैं ।। १८ ।।

“धीर शुक! इस वृक्षकी आयु समाप्त हो गयी, शक्ति नष्ट हो गयी। इसका सार क्षीण हो गया और इसकी शोभा भी छिन गयी। अपनी बुद्धिके द्वारा इन सब बातोंपर विचार करके अब इस बूढ़े वृक्षको त्याग दो” || १९ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! इन्द्रकी यह बात सुनकर धर्मात्मा शुकने लंबी साँस खींचकर दीनभावसे यह बात कही-- ।। २० ।।

“शचीवल्लभ! दैवका उल्लंघन नहीं किया जा सकता। देवराज! जिसके विषयमें आपने प्रश्न किया है, उसकी बात सुनिये || २१ ।।

“मैंने इसी वृक्षपर जन्म लिया और यहीं रहकर अच्छे-अच्छे गुण सीखे हैं। इस वृक्षने अपने बालककी भाँति मुझे सुरक्षित रखा और मेरे ऊपर शत्रुओंका आक्रमण नहीं होने दिया।” || २२ ||

“निष्पाप देवेन्द्र! इन्हीं सब कारणोंसे मेरी इस वृक्षके प्रति भक्ति है। मैं दयारूपी धर्मके पालनमें लगा हूँ और यहाँसे अन्यत्र नहीं जाना चाहता। ऐसी दशामें आप कृपा करके मेरी सद्भावनाको व्यर्थ बनानेकी चेष्टा क्यों करते हैं?” ।। २३ ।।

श्रेष्ठ पुरुषोंके लिये दूसरोंपर दया करना ही महान्‌ धर्मका सूचक है। दयाभाव श्रेष्ठ पुरुषोंको सदा ही आनन्द प्रदान करता है || २४ ।।

“धर्मके विषयमें संशय होनेपर सब देवता आपसे ही अपना संदेह पूछते हैं। इसीलिये आप देवाधिदेवोंके अधिपति पदपर प्रतिष्ठित हैं | २५ ।।

'सहस्राक्ष! आप इस वृक्षको मुझसे छुड़ानेके लिये प्रयत्न न कीजिये। जब यह समर्थ था तब मैंने दीर्घकालसे इसीके आश्रयमें रहकर जीवन धारण किया है और आज जब यह शक्तिहीन हो गया तब इसे छोड़कर चल दूँ--यह कैसे हो सकता है?” ।। २६ ।।

तोतेकी इस कोमल वाणीसे पाकशासन इन्द्रको बड़ी प्रसन्नता हुई। धर्मात्मा देवेन्द्रने शुककी दयालुतासे संतुष्ट हो उससे कहा-- ।। २७ ।।

'शुक! तुम मुझसे कोई वर माँगो।” तब दयापरायण शुकने यह वर माँगा कि “यह वृक्ष पहलेकी ही भाँति हरा-भरा हो जाय” ।। २८ ।।

तोतेकी इस सुदृढ़ भक्ति और शील-सम्पत्तिको जानकर इन्द्रको और भी प्रसन्नता हुई। उन्होंने तुरंत ही उस वृक्षको अमृतसे सींच दिया ।। २९ ।।

फिर तो उसमें नये-नये पत्ते, फल और मनोहर शाखाएँ निकल आयीं। तोतेकी दृढ़भक्तिके कारण वह वृक्ष पूर्ववत्‌ श्रीसम्पन्न हो गया ।। ३० ।।

महाराज! वह शुक भी आयु समाप्त होनेपर अपने उस दयापूर्ण बर्तावके कारण इन्द्रलोकको प्राप्त हुआ ।। ३१ ।।

नरेन्द्र! जैसे भक्तिमानू शुकका सहवास पाकर उस वृक्षने सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि प्राप्त कर ली, उसी प्रकार अपनेमें भक्ति रखनेवाले पुरुषका सहारा पाकर प्रत्येक मनुष्य अपनी सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध कर लेता है || ३२ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें शुक और इन्द्रका संवादविषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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