सम्पूर्ण महाभारत
अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
छठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) छठें अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
“दैवकी अपेक्षा पुरुषार्थकी श्रेष्ठताका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा--सम्पूर्ण शास्त्रोंके विशेषज्ञ महाप्राज्ञ पितामह! दैव और पुरुषार्थमें कौन श्रेष्ठ है? ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें वसिष्ठ और ब्रह्माजीके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहण दिया जाता है ।। २ ।।
प्राचीन कालकी बात है, भगवान् वसिष्ठने लोकपितामह ब्रह्माजीसे पूछा--'प्रभो! दैव और पुरुषार्थमें कौन श्रेष्ठ है? ।। ३ ।।
राजन्! तब कमलजन्मा देवाधिदेव पितामहने मधुर स्वरमें युक्तियुक्त सार्थक वचन कहा-- ।। ४ ||
ब्रह्माजीने कहा--मुने! बीजसे अंकुरकी उत्पत्ति होती है, अंकुरसे पत्ते होते हैं। पत्तोंस नाल, नालसे तने और डालियाँ होती हैं। उनसे पुष्प प्रकट होता है। फ़ूलसे फल लगता है और फलसे बीज उत्पन्न होता है और बीज कभी निष्फल नहीं बताया गया है ।।
बीजके बिना कुछ भी पैदा नहीं होता, बीजके बिना फल भी नहीं लगता। बीजसे बीज प्रकट होता है और बीजसे ही फलकी उत्पत्ति मानी जाती है ।। ५ ।।
किसान खेतमें जाकर जैसा बीज बोता है उसीके अनुसार उसको फल मिलता है। इसी प्रकार पुण्य या पाप--जैसा कर्म किया जाता है वैसा ही फल मिलता है ।। ६ ।।
जैसे बीज खेतमें बोये बिना फल नहीं दे सकता, उसी प्रकार दैव (प्रारब्ध) भी पुरुषार्थके बिना नहीं सिद्ध होता || ७ ।।
पुरुषार्थ खेत है और दैवको बीज बताया गया है। खेत और बीजके संयोगसे ही अनाज पैदा होता है ।। ८ ।।
कर्म करनेवाला मनुष्य अपने भले या बुरे कर्मका फल स्वयं ही भोगता है। यह बात संसारमें प्रत्यक्ष दिखायी देती है ।। ९ ।।
शुभ कर्म करनेसे सुख और पाप कर्म करनेसे दुःख मिलता है। अपना किया हुआ कर्म सर्वत्र ही फल देता है। बिना किये हुए कर्मका फल कहीं नहीं भोगा जाता ।। १० ।।
पुरुषार्थी मनुष्य सर्वत्र भाग्यके अनुसार प्रतिष्ठा पाता है; परंतु जो अकर्मण्य है वह सम्मानसे भ्रष्ट होकर घावपर नमक छिड़कनेके समान असहा दुःख भोगता है ।। ११ ।।
मनुष्यको तपस्यासे रूप, सौभाग्य और नाना प्रकारके रत्न प्राप्त होते हैं। इस प्रकार कर्मसे सब कुछ मिल सकता है; परंतु भाग्यके भरोसे निकम्मे बैठे रहनेवालेको कुछ नहीं मिलता ।। १२ ।।
इस जगतमें पुरुषार्थ करनेसे स्वर्ग, भोग, धर्ममें निष्ठा और बुद्धिमत्ता--इन सबकी उपलब्धि होती है ।। १३ ।।
नक्षत्र, देवता, नाग, यक्ष, चन्द्रमा, सूर्य और वायु आदि सभी पुरुषार्थ करके ही मनुष्यलोकसे देवलोकको गये हैं ।। १४ ।।
जो पुरुषार्थ नहीं करते वे धन, मित्रवर्ग, ऐश्वर्य, उत्तम कुल तथा दुर्लभ लक्ष्मीका भी उपभोग नहीं कर सकते ।।
ब्राह्मण शौचाचारसे, क्षत्रिय पराक्रमसे, वैश्य उद्योगसे तथा शूद्र तीनों वर्णोकी सेवासे सम्पत्ति पाता है ।। १६ ।।
न तो दान न देनेवाले कंजूसको धन मिलता है, न नपुंसकको, न अकर्मण्यको, न कामसे जी चुरानेवालेको, न शौर्यहीनको और न तपस्या न करनेवालेको ही मिलता है ।। १७ ।।
जिन्होंने तीनों लोकों, दैत्यों तथा सम्पूर्ण देवताओंकी भी सृष्टि की है, वे ही ये भगवान् विष्णु समुद्रमें रहकर तपस्या करते हैं ।। १८ ।।
यदि अपने कर्मोंका फल न प्राप्त हो तो सारा कर्म ही निष्फल हो जाय और सब लोग भाग्यको ही देखते हुए कर्म करनेसे उदासीन हो जायेँ ।। १९ ।।
मनुष्यके योग्य कर्म न करके जो पुरुष केवल दैवका अनुसरण करता है वह दैवका आश्रय लेकर व्यर्थ ही कष्ट उठाता है। जैसे कोई स्त्री अपने नपुंसक पतिको पाकर भी कष्ट ही भोगती है || २० ।।
इस मनुष्यलोकमें शुभाशुभ कर्मोंसे उतना भय नहीं प्राप्त होता, जितना कि देवलोकमें थोड़े ही पापसे भय होता है || २१ ।।
किया हुआ पुरुषार्थ ही दैवका अनुसरण करता है; परंतु पुरुषार्थ न करनेपर दैव किसीको कुछ नहीं दे सकता ।। २२ ।।
देवताओंमें भी जो इन्द्रादिके स्थान हैं वे अनित्य देखे जाते हैं। पुण्यकर्मके बिना दैव कैसे स्थिर रहेगा और कैसे वह दूसरोंको स्थिर रख सकेगा ।। २३ ।।
देवता भी इस लोकमें किसीके पुण्यकर्मका अनुमोदन नहीं करते हैं, अपितु अपनी पराजयकी आशंकासे वे पुण्यात्मा पुरुषमें भयंकर आसक्ति पैदा कर देते हैं (जिससे उनके धर्ममें विघ्न उपस्थित हो जाय) ।। २४ ।।
ऋषियों और देवताओंमें सदा कलह होता रहता है (देवता ऋषियोंकी तपस्यामें विघ्न डालते हैं तथा ऋषि अपने तपोबलसे देवताओंको स्थानभ्रष्ट कर देते हैं।। फिर भी दैवके बिना केवल कथन मात्रसे किसको सुख या दुःख मिल सकता है? क्योंकि कर्मके मूलमें दैवका ही हाथ है ।| २५ ।।
दैवके बिना पुरुषार्थकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है? क्योंकि प्रवृत्तिका मूल कारण दैव ही है (जिन्होंने पूर्वजन्ममें पुण्यकर्म किये हैं, वे ही दूसरे जन्ममें भी पूर्वसंस्कारवश पुण्यमें प्रवृत्त होते हैं। यदि ऐसा न हो तो सभी पुण्यकर्मोंमें ही लग जायँ)। देवलोकमें भी दैववश ही बहुत-से गुण (सुखद साधन) उपलब्ध होते हैं || २६ ।।
आत्मा ही अपना बन्धु है, आत्मा ही अपना शत्रु है तथा आत्मा ही अपने कर्म और अकर्मका साक्षी है || २७ ।।
प्रबल पुरुषार्थ करनेसे पहलेका किया हुआ भी कोई कर्म बिना किया हुआ-सा हो जाता है और वह प्रबल कर्म ही सिद्ध होकर फल प्रदान करता है। इस तरह पुण्य या पापकर्म अपने यथार्थ फलको नहीं दे पाते हैं || २८ ।।
देवताओंका आश्रय पुण्य ही है। पुण्यसे ही सब कुछ प्राप्त होता है। पुण्यात्मा पुरुषको पाकर दैव क्या करेगा? ।। २९ ।।
पूर्वकालमें राजा ययाति पुण्य क्षीण होनेपर स्वर्गसे च्युत होकर पृथ्वीपर गिर पड़े थे; परंतु उनके पुण्यकर्मा दौह्ित्रोंने उन्हें पुन: स्वर्गलोकमें पहुँचा दिया || ३० ।।
इसी तरह पूर्वकालमें ऐल नामसे विख्यात राजर्षि पुरूरवा ब्राह्मणोंके आशीर्वाद देनेपर स्वर्गलोकको प्राप्त हुए थे || ३१ ।।
(अब इसके विपरीत दृष्टान्त देते हैं--) अश्वमेध आदि यज्ञोंद्वारा सम्मानित होनेपर भी कोशलनरेश सौदासको महर्षि वसिष्ठके शापसे नरभक्षी राक्षस होना पड़ा || ३२ ||
इसी प्रकार अश्वत्थामा और परशुराम--ये दोनों ही ऋषिपुत्र और धनुर्धर वीर हैं। इन दोनोंने पुण्यकर्म भी किये हैं तथापि उस कर्मके प्रभावसे स्वर्गमें नहीं गये |। ३३ ।।
द्वितीय इन्द्रके समान सौ यज्ञोंका अनुष्ठान करके भी राजा वसु एक ही मिथ्या भाषणके दोषसे रसातलको चले गये ।। ३४ ।।
विरोचनकुमार बलिको देवताओंने धर्मपाशसे बाँध लिया और भगवान् विष्णुके पुरुषार्थसे वे पातालवासी बना दिये गये ।। ३५ ।।
राजा जनमेजय द्विज स्त्रियोंका वध करके इन्द्रके चरणका आश्रय ले जब स्वर्गलोकको प्रस्थित हुए, उस समय दैवने उसे आकर क्यों नहीं रोका ।। ३६ ।।
ब्रह्मर्षि वैशम्पायन अज्ञानवश ब्राह्णकी हत्या करके बाल-वधके पापसे भी लिप्त हो गये थे तो भी दैवने उन्हें स्वर्ग जानेसे क्यों नहीं रोका ।। ३७ ।।
पूर्वकालमें राजर्षि नृग बड़े दानी थे। एक बार किसी महायजञ्ञमें ब्राह्मणोंको गोदान करते समय उनसे भूल हो गयी; अर्थात् एक गऊको दुबारा दानमें दे दिया, जिसके कारण उन्हें गिरगिटकी योनिमें जाना पड़ा ॥। ३८ ।।
राजर्षि धुन्धुमार यज्ञ करते-करते बूढ़े हो गये तथापि देवताओंके प्रसन्नतापूर्वक दिये हुए वरदानको त्यागकर गिरिव्रजमें सो गये (यज्ञका फल नहीं पा सके) ।।
महाबली धृतराष्ट्र-पुत्रोंने पाण्डवोंका राज्य हड़प लिया था। उसे पाण्डवोंने पुनः बाहुबलसे ही वापस लिया। दैवके भरोसे नहीं || ४० ।।
तप और नियममें संयुक्त रहकर कठोर व्रतका पालन करनेवाले मुनि क्या दैवबलसे ही किसीको शाप देते हैं, पुरुषार्थके बलसे नहीं? ।। ४१ ।।
संसारमें समस्त सुदुर्लभ सुख-भोग किसी पापीको प्राप्त हो जाय तो भी वह उसके पास टिकता नहीं, शीघ्र ही उसे छोड़कर चल देता है। जो मनुष्य लोभ और मोहमें डूबा हुआ है उसे दैव भी संकटसे नहीं बचा सकता ।।
जैसे थोड़ी-सी भी आग वायुका सहारा पाकर बहुत बड़ी हो जाती है, उसी प्रकार पुरुषार्थका सहारा पाकर दैवका बल विशेष बढ़ जाता है ।। ४३ ।।
जैसे तेल समाप्त हो जानेसे दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार कर्मके क्षीण हो जानेपर दैव भी नष्ट हो जाता है ।। ४४ ।।
उद्योगहीन मनुष्य धनका बहुत बड़ा भण्डार, तरह-तरहके भोग और स्त्रियोंको पाकर भी उनका उपभोग नहीं कर सकता; किंतु सदा उद्योगमें लगा रहनेवाला महामनस्वी पुरुष देवताओंद्वारा सुरक्षित तथा गाड़कर रखे हुए धनको भी प्राप्त कर लेता है || ४५ ।।
जो दान करनेके कारण निर्धन हो गया है, ऐसे सत्पुरुषके पास उसके सत्कर्मके कारण देवता भी पहुँचते हैं और इस प्रकार उसका घर मनुष्यलोककी अपेक्षा श्रेष्ठ देवलोक-सा हो जाता है। परंतु जहाँ दान नहीं होता वह घर बड़ी भारी समृद्धिसे भरा हो तो भी देवताओंकी दृष्टिमें वह श्मशानके ही तुल्य जान पड़ता है ।। ४६ ।।
इस जीव-जगत्में उद्योगहीन मनुष्य कभी फूलता-फलता नहीं दिखायी देता। दैवमें इतनी शक्ति नहीं है कि वह उसे कुमार्गसे हटाकर सन्मार्गमें लगा दे। जैसे शिष्य गुरुको आगे करके चलता है उसी तरह दैव पुरुषार्थको ही आगे करके स्वयं उसके पीछे चलता है। संचित किया हुआ पुरुषार्थ ही दैवको जहाँ चाहता है, वहाँ-वहाँ ले जाता है || ४७ ।।
मुनिश्रेष्ठ! मैंने सदा पुरुषार्थके ही फलको प्रत्यक्ष देखकर यथार्थरूपसे ये सारी बातें तुम्हें बतायी हैं || ४८ ।।
मनुष्य दैवके उत्थानसे आरम्भ किये हुए पुरुषार्थसे उत्तम विधि और शास््त्रोक्त सत्कर्मसे ही स्वर्गलोकका मार्ग पा सकता है ।। ४९ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें दैव और पुरुषार्थका निर्देशविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥। ६ ॥।
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ५१ श्लोक हैं)
सप्तमो<्ध्याय:
कर्मोके फलका वर्णन
युधिष्ठिरने पूछा--महापुरुषोंमें प्रधान भरतश्रेष्ठ) अब मैं समस्त शुभ कर्मोके फल क्या हैं? यह पूछ रहा हूँ, अत: यही बताइये ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--भरतनन्दन युधिष्ठिर! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, यह ऋषियोंके लिये भी रहस्यका विषय है; किंतु मैं तुम्हें बतला रहा हूँ। सुनो, मरनेके बाद जिस मनुष्यको जैसी चिर अभिलषित गति मिलती है, उसका भी वर्णन करता हूँ ।। २ ।।
मनुष्य जिस-जिस (स्थूल या सूक्ष्म) शरीरसे जो-जो कर्म करता है उसी-उसी शरीरसे उस-उस कर्मका फल भोगता है ।। ३ ।।
जिस-जिस अवस्थामें वह जो-जो शुभ या अशुभ कर्म करता है, प्रत्येक जन्मकी उसीउसी अवस्थामें वह उसका फल भोगता है ।। ४ ।।
पाँचों इन्द्रियोंद्वारा किया हुआ कर्म कभी नष्ट नहीं होता है। वे पाँचों इन्द्रियाँ और छठा मन--ये उस कर्मके साक्षी होते हैं || ५ ।।
अतः मनुष्यको उचित है कि यदि कोई अतिथि घरपर आ जाय तो उसको प्रसन्न दृष्टिसे देखे। उसकी सेवामें मन लगावे। मीठी बोली बोलकर उसे संतुष्ट करे। जब वह जाने लगे तो उसके पीछे-पीछे कुछ दूरतक जाय और जबतक वह रहे उसके स्वागत-सत्कारमें लगा रहे --ये पाँच काम करना गृहस्थके लिये पाँच प्रकारकी दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञ कहलाता है ।। ६ |।
जो थके-माँदे अपरिचित पथिकको प्रसन्नतापूर्वक अन्न दान करता है, उसे महान् पुण्यफलकी प्राप्ति होती है ।। ७ ।।
जो वानप्रस्थी वेदीपर शयन करते हैं उन्हें जन्मान्तरमें उत्तम गृह और शग्याकी प्राप्ति होती है। जो चीर और वल्कल वस्त्र पहनते हैं उन्हें दूसरे जन्ममें उत्तम वस्त्र और उत्तम आभूषणोंकी प्राप्ति होती है ।। ८ ।।
जिसका चित्त योगयुक्त होता है उस तपोधन पुरुषको दूसरे जन्ममें अच्छे-अच्छे वाहन और यान उपलब्ध होते हैं तथा अग्निकी उपासना करनेवाले राजाको जन्मान्तरमें पौरुषकी प्राप्ति होती है ।। ९ ।।
रसोंका परित्याग करनेसे सौभाग्यकी और मांसका त्याग करनेसे पशुओं तथा पुत्रोंकी प्राप्ति होती है ।। १० ।।
जो तपस्वी नीचे सिर करके लटकता है अथवा जलमें निवास करता है; तथा जो सदा ही अकेला सोता (तब्रह्मचर्यका पालन करता) है, वह मनोवांछित गतिको प्राप्त होता है ।। ११ ||
जो अतिथिको पैर धोनेके लिये जल, बैठनेके लिये आसन, प्रकाशके लिये दीपक, खानेके लिये अन्न और ठहरनेके लिये घर देता है, इस प्रकार अतिथिका सत्कार करनेके लिये इन पाँच वस्तुओंका दान 'पंचदक्षिण यज्ञ” कहलाता है ।। १२ ।।
जो वीरासन रणभूमिमें जाकर वीरशय्या (मृत्यु)-को प्राप्त हो वीरस्थान (स्वर्गलोक) में जाता है, उसे अक्षय लोकोंकी प्राप्ति होती है। वे लोक सम्पूर्ण कामनाओंकी प्राप्ति करानेवाले होते हैं ।। १३ ।।
प्रजानाथ! मनुष्य दानसे धन पाता है, मौन-व्रतके पालनसे दूसरोंद्वारा आज्ञापालन करानेकी शक्ति प्राप्त करता है, तपस्यासे भोग और ब्रह्मचर्य-पालनसे जीवन (आयु)-की उपलब्धि होती है ।। १४ ।।
अहिंसा धर्मके आचरणसे रूप, ऐश्वर्य और आरोग्यरूपी फलकी प्राप्ति होती है। फलमूल खानेवालेको राज्य और पत्ते चबाकर रहनेवालेको स्वर्गकी प्राप्ति होती है ।। १५ ।।
राजन! जो आमरण अनशनका व्रत लेकर बैठता है उसके लिये सर्वत्र सुख बताया गया है। शाकाहारकी दीक्षा लेनेपर गोधनकी प्राप्ति होती है और तृण खाकर रहनेवाला पुरुष स्वर्गलोकमें जाता है || १६ ।।
स्त्री-सम्बन्धी भोगोंका परित्याग करके त्रिकाल स्नान करते हुए वायु पीकर रहनेसे यज्ञका फल प्राप्त होता है। सत्यसे मनुष्य स्वर्गको और दीक्षासे उत्तम कुलको पाता है ।। १७ ।।
जो ब्राह्मण सदा जल पीकर रहता है, अग्निहोत्र करता है और मन्त्र-साधनामें संलग्न रहता है, उसे राज्य मिलता है और निराहारख्रत करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाता है ।। १८ ।।
पृथ्वीनाथ! जो पुरुष बारह वर्षोतकके लिये व्रतकी दीक्षा लेकर अन्नका त्याग करता और तीर्थोमें स्नान करता रहता है, उसे रणभूमिमें प्राण त्यागनेवाले वीरसे भी बढ़कर उत्तम लोककी प्राप्ति होती है ।। १९ ।।
जो सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन कर लेता है, वह तत्काल दु:खसे मुक्त हो जाता है तथा जो मनसे धर्मका आचरण करता है, उसे स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है || २० ।।
खोटी बुद्धिवाले पुरुषोंके लिये जिसका त्याग करना कठिन है, जो मनुष्यके जीर्ण हो जानेपर भी स्वयं जीर्ण नहीं होती तथा जो प्राणनाशक रोगके समान सदा कष्ट देती रहती है, उस तृष्णाका त्याग कर देनेवाले पुरुषको ही सुख मिलता है || २१ ।।
जैसे बछड़ा हजारों गौओंके बीचमें अपनी माताको ढूँढ़ लेता है, उसी प्रकार पहलेका किया हुआ कर्म भी कर्ताको पहचानकर उसका अनुसरण करता है ।। २२ ।।
जैसे फूल और फल किसीकी प्रेरणा न होनेपर भी अपने समयका उल्लंघन नहीं करते --ठीक समयपर फूलने-फलने लग जाते हैं, वैसे ही पहलेका किया हुआ कर्म भी समयपर फल देता ही है || २३ ।।
मनुष्यके जीर्ण (जराग्रस्त) होनेपर उसके केश जीर्ण होकर झड़ जाते हैं, वृद्ध पुरुषके दाँत भी टूट जाते हैं, नेत्र और कान भी जीर्ण होकर अन्धे-बहरे हो जाते हैं। केवल तृष्णा ही जीर्ण नहीं होती है (वह सदा नयी-नवेली बनी रहती है) ।। २४ ।।
मनुष्य जिस व्यवहारसे पिताको प्रसन्न करता है, उससे भगवान् प्रजापति प्रसन्न होते हैं। जिस बर्तावसे वह माताको सन्तुष्ट करता है, उससे पृथ्वी देवीकी भी पूजा हो जाती है तथा जिससे वह उपाध्यायको तृप्त करता है, उसके द्वारा परब्रह्म परमात्माकी पूजा सम्पन्न हो जाती है || २५३ ।।
जिसने इन तीनोंका आदर किया, उसके द्वारा सभी धर्मोका आदर हो गया और जिसने इन तीनोंका अनादर कर दिया, उसकी सम्पूर्ण यज्ञादिक क्रियाएँ निष्फल हो जाती है।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! भीष्मजीकी यह बात सुनकर समस्त श्रेष्ठ कुरुवंशी आश्वर्यचकित हो उठे। सबके मनमें हर्षजनित उल्लास भर गया। उस समय सभी बड़े प्रसन्न हुए || २७ ।।
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! वेदमन्त्रोंका व्यर्थ (अशुद्ध) उपयोग (उच्चारण) करनेपर जो पाप लगता है, सोमयागको दक्षिणा आदि न देनेके कारण व्यर्थ कर देनेपर जो दोष लगता है तथा विधि और मन्त्रके बिना अग्निमें निरर्थक आहुति देनेपर जो पाप होता है; वह सारा पाप मिथ्या भाषण करनेसे प्राप्त होता है || २८ ।।
राजन! शुभ और अशुभ फलकी प्राप्तिके विषयमें महर्षि व्यासने ये सब बातें बतायी थीं, जिन्हें मैंने इस समय तुमसे कहा है। अब और क्या सुनना चाहते हो? ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें कर्मफलका उपाख्यानविषयक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ७ ॥
अष्टमो< ध्याय:
श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी महिमा
युधिष्ठिरने पूछा--भरतनन्दन! इस जगत्में कौन-कौन पुरुष पूजन और नमस्कारके योग्य हैं? आप किनको प्रणाम करते हैं? तथा नरेश्वर! आप किनको चाहते हैं? यह सब मुझे बताइये ।। १ ।।
बड़ी-से-बड़ी आपत्तिमें पड़नेपर भी आपका मन किनका स्मरण किये बिना नहीं रहता? तथा इस समस्त मानवलोक और परलोकमें हितकारक क्या है? ये सब बातें बतानेकी कृपा करें ।। २ ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! जिनका ब्रह्म (वेद) ही परम धन है, आत्मज्ञान ही स्वर्ग है तथा वेदोंका स्वाध्याय करना ही श्रेष्ठ तप है, उन ब्राह्मणोंको मैं चाहता हूँ ।। ३ ।।
जिनके कुलमें बच्चेसे लेकर बूढ़ेतक बाप-दादोंकी परम्परासे चले आनेवाले धार्मिक कार्यका भार सँभालते हैं; परंतु उसके लिये मनमें कभी खेदका अनुभव नहीं करते है; ऐसे ही लोगोंको मैं चाहता हूँ ।। ४ ।।
जो विनीत भावसे विद्याध्ययन करते हैं, इन्द्रियोंको संयममें रखते हैं और मीठे वचन बोलते हैं, जो शास्त्रज्ञान और सदाचार दोनोंसे सम्पन्न हैं, अविनाशी परमात्माको जाननेवाले सत्पुरुष हैं, तात युधिष्ठिर! सभाओंमें बोलते समय हंससमूहोंकी भाँति जिनके मुखसे मेघके समान गम्भीर स्वरसे मनोहर मंगलमयी एवं अच्छे ढंगसे कही गयी बातें सुनायी देती हैं, उन ब्राह्मणोंको ही मैं चाहता हूँ। यदि राजा उन महात्माओंकी बातें सुननेकी इच्छा रखे तो वे उसे इहलोक और परलोकमें भी सुख पहुँचानेवाली होती हैं || ५--७ ।।
जो प्रतिदिन उन महात्माओंकी बातें सुनते हैं, वे श्रोता विज्ञानगुणसे सम्पन्न हो सभाओंमें सम्मानित होते हैं। मैं ऐसे श्रोताओंकी भी चाह रखता हूँ ।। ८ ।।
राजा युधिष्ठिर! जो पवित्र होकर ब्राह्मणोंको उनकी तृप्तिके लिये शुद्ध और अच्छे ढंगसे तैयार किये हुए पवित्र तथा गुणकारक अन्न परोसते हैं, उनको भी मैं सदा चाहता हूँ ।। ९६ ।।
युधिष्ठिर! संग्राममें युद्ध करना सहज है। परंतु दोषदृष्टिसे रहित होकर दान देना सहज नहीं है। संसारमें सैकड़ों शूरवीर हैं; परंतु उनकी गणना करते समय जो उनमें दानशूर हो, वही सबसे श्रेष्ठ माना जाता है ।।
सौम्य! यदि मैं कुलीन, धर्मात्मा, तपस्वी और विद्वान् अथवा कैसा भी ब्राह्मण होता तो अपनेको धन्य समझता || १२ ।।
पाण्डुनन्दन! इस संसारमें मुझे तुमसे अधिक प्रिय कोई नहीं है; परंतु भरतमश्रेष्ठ! ब्राह्मणोंको मैं तुमसे भी अधिक प्रिय मानता हूँ ।। १३ ।।
कुरुश्रेष्ठ! “ब्राह्मण मुझे तुम्हारी अपेक्षा भी बहुत अधिक प्रिय हैं--इस सत्यके प्रभावसे मैं उन्हीं पुण्यलोकोंमें जाऊँगा जहाँ मेरे पिता महाराज शान्तनु गये हैं ।। १४ ।।
मेरे पिता भी मुझे ब्राह्मणोंकी अपेक्षा अधिक प्रिय नहीं रहे हैं। पितामह और अन्य सुहृदोंको भी मैंने कभी ब्राह्मणोंसे अधिक प्रिय नहीं समझा है || १५ ।।
मेरे द्वारा ब्राह्मणोंके प्रति किन्हीं श्रेष्ठ कर्मोमें कभी छोटा-मोटा किंचिन्मात्र भी अपराध नहीं हुआ है ।। १६ ॥
शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! मैंने मन, वाणी और कर्मसे ब्राह्मणोंका जो थोड़ाबहुत उपकार किया है, उसीके प्रभावसे आज इस अवस्थामें पड़ जानेपर भी मुझे पीड़ा नहीं होती है ।। १७ ।।
लोग मुझे ब्राह्मणभक्त कहते हैं। उनके इस कथनसे मुझे बड़ा संतोष होता है। ब्राह्मणोंकी सेवा ही सम्पूर्ण पवित्र कर्मोंसे बढ़कर परम पवित्र कार्य है ।। १८ ।।
तात! ब्राह्मणकी सेवामें रहनेवाले पुरुषको जिन पवित्र और निर्मल लोकोंकी प्राप्ति होती है, उन्हें मैं यहींसे देखता हूँ। अब शीघ्र मुझे चिरकालके लिये उन्हीं लोकोंमें जाना है ।। १९ ||
युधिष्ठिर! जैसे स्त्रियोंके लिये पतिकी सेवा ही संसारमें सबसे बड़ा धर्म है, पति ही उनका देवता और वही उनकी परम गति है, उनके लिये दूसरी कोई गति नहीं है; उसी प्रकार क्षत्रियके लिये ब्राह्मणकी सेवा ही परम धर्म है। ब्राह्मण ही उनका देवता और परम गति है, दूसरा नहीं || २०
क्षत्रिय सौ वर्षका हो और श्रेष्ठ ब्राह्मण दस वर्षकी अवस्थाका हो तो भी उन दोनोंको परस्पर पुत्र और पिताके समान जानना चाहिये। उनमें ब्राह्मण पिता है और क्षत्रिय पुत्र | २१ |।
जैसे नारी पतिके अभावमें देवरको पति बनाती है, उसी प्रकार पृथ्वी ब्राह्मणके न मिलनेपर ही क्षत्रियको अपना अधिपति बनाती है ।। २२ ।।
पुरोहितसहित राजाओंको ब्राह्मणकी आज्ञासे राज्य ग्रहण करना चाहिये। ब्राह्मणकी रक्षासे ही राजाको स्वर्ग मिलता है और उसको रुष्ट कर देनेसे वह अनन्तकालके लिये नरकमें गिर जाता है ।।
कुरुश्रष्ठ! ब्राह्मणोंकी पुत्रके समान रक्षा, गुरुकी भाँति उपासना और अग्निकी भाँति उनकी सेवा-पूजा करनी चाहिये ।। २३ ।।
सरल, साधु, स्वभावतः सत्यवादी तथा समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहनेवाले ब्राह्मणोंकी सदा ही सेवा करनी चाहिये और क्रोधमें भरे हुए विषधर सर्पके समान समझकर उनसे भयभीत रहना चाहिये। ब्राह्मणोंकी जो स्त्रियाँ हों उनकी भी सुरक्षाका ध्यान रखते हुए माताके समान उनका दूरसे ही पूजन करना चाहिये ।।
युधिष्ठिर! ब्राह्मणोंक तेज और तपसे सदा डरना चाहिये तथा उनके सामने अपने तप एवं तेजका अभिमान त्याग देना चाहिये ।। २५ ।।
महाराज! ब्राह्मणके तप और क्षत्रियके तेजका फल शीघ्र ही प्रकट होता है तथापि जो तपस्वी ब्राह्मण हैं वे कुपित होनेपर तेजस्वी क्षत्रियको अपने तपके प्रभावसे मार सकते हैं ।। २६ |।
क्रोधरहित--क्षमाशील ब्राह्मणको पाकर क्षत्रियकी ओरसे अधिक मात्रामें प्रयुक्त किये गये तप और तेज आगपर रूईके ढेरके समान तत्काल नष्ट हो जाते हैं। यदि दोनों ओरसे एक-दूसरेपर तेज और तपका प्रयोग हो तो उनका सर्वथा नाश नहीं होता; परंतु क्षमाशील ब्राह्मणके द्वारा खण्डित होनेसे बचा हुआ क्षत्रियका तेज किसी तेजस्वी ब्राह्मणपर प्रयुक्त हो तो वह उससे प्रतिहत होकर सर्वथा नष्ट हो जाता है, थोड़ा-सा भी शेष नहीं रह जाता || २७ ||
जैसे चरवाहा हाथमें डंडा लेकर सदा गौओंकी रखवाली करता है, उसी प्रकार क्षत्रियको उचित है कि वह ब्राह्मणों और वेदोंकी सदा रक्षा करे || २८ ।।
राजाको चाहिये कि वह धर्मात्मा ब्राह्मणोंकी उसी तरह रक्षा करे, जैसे पिता पुत्रोंकी करता है। वह सदा इस बातकी देख-भाल करता रहे कि उनके घरमें जीवन-निर्वाहके लिये क्या है और क्या नहीं है ।। २९ ।।
इस प्रकार श्रीमह्याभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी प्रशंशाविषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥। (दाक्षिणात्य अधिक पाठके १½ श्लोक मिलाकर कुल ३०½ श्लोक हैं)
नवमो<्ध्याय:
ब्राह्मणको देनेकी प्रतिज्ञा करके न देने तथा उसके धनका अपहरण करनेसे दोषकी प्राप्तिके विषयमें सियार और वानरके संवादका उल्लेख एवं ब्राह्म॒णोंको दान देनेकी महिमा
युधिष्ठिरने पूछा--धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महातेजस्वी पितामह! जो लोग ब्राह्मणोंको कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके फिर मोहवश नहीं देते जो दुरात्मा दानका संकल्प करके भी दान नहीं देते वे क्या होते हैं? यह धर्मका विषय मुझे यथार्थरूपसे बताइये ।। १-२ ।।
भीष्मजीने कहा--युथधिष्ठिर! जो थोड़ा या अधिक देनेकी प्रतिज्ञा करके उसे नहीं देता है, उसकी सभी आशाएँ वैसे ही नष्ट हो जाती हैं जैसे नपुंसककी संतानरूपी फलविषयक आशा || ३ ||
भरतनन्दन! जीव जिस रातको जन्म लेता है और जिस रातको उसकी मौत होती है-- इन दोनों रात्रियोंके बीचमें जीवनभर वह जो-जो पुण्यकर्म करता है, भरतश्रेष्ठ! उसने आजीवन जो कुछ होम, दान तथा तप किया होता है, उसका वह सब कुछ उस प्रतिज्ञाभंगके पापसे नष्ट हो जाता है ।। ४-५
भरतश्रेष्ठ! धर्मशास्त्रके ज्ञाता मनुष्य अपनी परम योगयुक्त बुद्धिसे विचार करके यह उपर्युक्त बात कहते हैं ।। ६ ।।
धर्मशास्त्रोंके विद्वान यह भी कहते हैं कि प्रतिज्ञा-भंगका पाप करनेवाला पुरुष एक हजार श्यामकर्ण घोड़ोंका दान करनेसे उस पापसे मुक्त होता है || ७ ।।
भारत! इस विषयमें विज्ञ पुरुष सियार और वानरके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। ८ ।।
शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! मनुष्य-जन्ममें जो दोनों पहले एक-दूसरेके मित्र थे, वे ही दूसरे जन्ममें सियार और वानरकी योनिमें प्राप्त हो गये ।। ९ ।।
तदनन्तर एक दिन सियारको मरघटमें मुर्दे खाता देख वानरने पूर्व-जन्मका स्मरण करके पूछा--“भैया! तुमने पहले जन्ममें कौन-सा भयंकर पाप किया था, जिससे तुम मरघटमें घृणित एवं दुर्गन्धयुक्त मुर्दे खा रहे हो?” ।। १०-११ ।।
वानरके इस प्रकार पूछनेपर सियारने उसे उत्तर दिया--“'भाई वानर! मैंने ब्राह्मणको देनेकी प्रतिज्ञा करके वह वस्तु उसे नहीं दी थी। इसीके कारण मैं इस पापयोनिमें आ पड़ा हूँ और उसी पापसे भूखा होनेपर मुझे इस तरहका घृणित भोजन करना पड़ता है! || १२-१३ ।।
भीष्मजी कहते हैं--नरश्रेष्ठत इसके बाद सियारने वानरसे पुनः पूछा--“तुमने कौनसा पाप किया था? जिससे वानर हो गये ?।।
वानरने कहा--मैं सदा ब्राह्मणोंका फल चुराकर खाया करता था; इसी पापसे वानर हुआ। अतः विज्ञ पुरुषको कभी ब्राह्मणका धन नहीं चुराना चाहिये। उनके साथ कभी झगड़ा नहीं करना चाहिये और उनके लिये जो वस्तु देनेकी प्रतिज्ञा की गयी हो, वह अवश्य दे देनी चाहिये || १५ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! यह कथा मैंने एक धर्मज्ञ ब्राह्मणके मुखसे सुनी है; जो प्राचीनकालकी पवित्र कथाएँ सुनाता था ।। १६ ।।
प्रजानाथ! पाण्डुनन्दन! फिर मैंने यही बात भगवान् श्रीकृष्णके मुखसे भी सुनी थी; जब कि वे पहले किसी ब्राह्मणसे ऐसी ही कथा कह रहे थे ।। १७ ।।
ब्राह्मणका धन कभी नहीं चुराना चाहिये। वे अपराध करें तो भी सदा उनके प्रति क्षमाभाव ही रखना चाहिये। वे बालक, दरिद्र अथवा दीन हों तो भी उनका अनादर नहीं करना चाहिये ।। १८ ।।
ब्राह्मगलोग भी मुझे सदा यही उपदेश दिया करते थे कि प्रतिज्ञा कर लेनेपर वह वस्तु ब्राह्मणको दे ही देनी चाहिये। किसी श्रेष्ठ ब्राह्ोणणी आशा भंग नहीं करनी चाहिये ।। १९ ।।
पृथ्वीनाथ! ब्राह्मणको पहले आशा दे देनेपर वह समिधासे प्रज्वलित हुई अग्निके समान उद्दीप्त हो उठता है ।।
राजन! पहलेकी लगी हुई आशा भंग होनेसे अत्यन्त क्रोधमें भरा हुआ ब्राह्मण जिसकी ओर देख लेता है, उसे उसी प्रकार जलाकर भस्म कर डालता है, जैसे अग्नि सूखी लकड़ी अथवा तिनकोंके बोझको जला देती है || २१ ।।
भारत! वही ब्राह्मण जब आशापूर्तिसे संतुष्ट होकर वाणीद्वारा राजाका अभिनन्दन करता है--उसे आशीर्वाद देता है, तब उसके राज्यके लिये वह चिकित्सकके तुल्य हो जाता है ।। २२ ।।
तथा उस दाताके पुत्र-पौत्र, बन्धु-बान्धव, पशु, मन्त्री, नगर और जनपदके लिये वह शान्तिदायक बनकर उन्हें कल्याणका भागी बनाता और उन सबका पोषण करता है || २३ ।।
इस पृथ्वीपर ब्राह्मणका उत्कृष्ट तेज सहस्र किरणोंवाले सूर्यदेवके समान दृष्टिगोचर होता है || २४ ।।
भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर! इसलिये जो उत्तम योनिमें जन्म लेना चाहता हो, उसे ब्राह्मणको देनेकी प्रतिज्ञा की हुई वस्तु अवश्य दे डालनी चाहिये || २५ ।।
ब्राह्मणको दान देनेसे निश्चय ही परम उत्तम स्वर्गलोकको विशेष रूपसे प्राप्त किया जा सकता है; क्योंकि दान महान् पुण्यकर्म है ।। २६ ।।
इस लोकमें ब्राह्मणको दान देनेसे देवता और पितर तृप्त होते हैं; इसलिये विद्वान् पुरुष ब्राह्मगको अवश्य दान दे ।। २७ ।।
भरतश्रेष्ठ! ब्राह्मण महान् तीर्थ कहे जाते हैं; अतः वे किसी भी समय घरपर आ जायाँ तो बिना सत्कार किये उन्हें नहीं जाने देना चाहिये | २८ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपववके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें सियार और वानरका संवादविषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। ९ ॥।
दशमो< ध्याय:
अनधिकारीको उपदेश देनेसे हानिके विषयमें एक शूद्र और तपस्वी ब्राह्मणकी कथा
युधिछिरने पूछा--पितामह! यदि कोई मित्रता या सौहार्दके सम्बन्धसे किसी नीच जातिके मनुष्यको उपदेश देता है तो उस राजर्षिको दोष लगेगा या नहीं? मैं इस बातको यथार्थरूपसे जानना चाहता हूँ। आप इसका विशदरूपसे विवेचन करें; क्योंकि धर्मकी गति सूक्ष्म है, जहाँ मनुष्य मोहमें पड़ जाते हैं || १-२ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! इस विषयमें पूर्वकालमें ऋषियोंके मुखसे जैसा मैंने सुना है, उसी क्रमसे बताऊँगा, तुम ध्यान देकर सुनो ।। ३ ।।
किसी भी नीच जातिके मनुष्यको उपदेश नहीं देना चाहिये। उसे उपदेश देनेपर उपदेशक आचार्यके लिये महान् दोष बताया जाता है || ४ ।।
भरतभूषण राजा युधिष्ठिर! इस विषयमें एक दृष्टान्त सुनो, जो दुःखमें पड़े हुए एक नीच जातिके पुरुषको उपदेश देनेसे सम्बन्धित है || ५ |।
हिमालयके सुन्दर पार्श्रभागमें, जहाँ बहुत-से ब्राह्मणोंके आश्रम बने हुए हैं, यह वृत्तान्त घटित हुआ था। उस प्रदेशमें एक पवित्र आश्रम है जहाँ नाना प्रकारके हरे-भरे वृक्ष शोभा पाते हैं। | ६ ।।
नाना प्रकारकी लता-बेलें वहाँ छायी हुई हैं। मृग और पक्षी उस आश्रमका सेवन करते हैं। सिद्ध और चारण वहाँ सदा निवास करते हैं। उस रमणीय आश्रमके आस-पासका वन सुन्दर पुष्पोंसे सुशोभित है | ७ ।।
बहुत-से व्रतपरायण तपस्वी उस आश्रमका सेवन करते हैं। कितने ही सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी महाभाग ब्राह्मण वहाँ भरे रहते हैं ।। ८ ।।
भरतश्रेष्ठ! नियम और व्रतसे सम्पन्न, तपस्वी, दीक्षित, मिताहारी और जितात्मा मुनियोंसे वह आश्रम भरा रहता है ।। ९ |।
भरतभूषण! वहाँ सब ओर वेदाध्ययनकी ध्वनि गूँजती रहती है। बहुत-से वालखिल्य एवं संन्न्यासी उस आश्रमका सेवन करते हैं ।। १० ।।
उसी आश्रममें कोई दयालु शूद्र बड़ा उत्साह करके आया। वहाँ रहनेवाले तपस्वी ऋषियोंने उसका बड़ा आदर-सत्कार किया ।। ११ ||
भरतनन्दन! उस आश्रमके महातेजस्वी देवोपम मुनियोंको नाना प्रकारकी दीक्षा धारण किये देख उस शूद्रको बड़ा हर्ष हुआ ।। १२ ।।
भारत! भरतभूषण! उसके मनमें वहाँ तपस्या करनेका विचार उत्पन्न हुआ; अतः उसने कुलपतिके पैर पकड़कर कहा-- ।। १३ |।
द्विजश्रेष्ठ! मैं आपकी कृपासे धर्मका ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ। अत: भगवन्! आप मुझे विधिवत् संन्यासीकी दीक्षा दे दें” |। १४ ।।
“भगवन्! साधुशिरोमणे! मैं वर्णोमें सबसे छोटा शूद्र जातिका हूँ और यहीं रहकर संतोंकी सेवा करना चाहता हूँ; अतः मुझ शरणागतपर आप प्रसन्न हों! | १५ ।।
कुलपतिने कहा--इस आश्रममें कोई शूद्र संन्यासका चिह्न धारण करके नहीं रह सकता। यदि तुम्हारा विचार यहाँ रहनेका हो तो यों ही रहो और साधु-महात्माओंकी सेवा करो। सेवासे ही तुम उत्तम लोक प्राप्त कर लोगे, इसमें संशय नहीं है ।। १६-१७ ।।
भीष्मजी कहते हैं--नरेश्वर! मुनिके ऐसा कहनेपर शूद्रने सोचा, यहाँ मुझे क्या करना चाहिये? मेरी श्रद्धा तो संन्यास-धर्मके अनुष्ठानके लिये ही है || १८ ।।
अच्छा, एक बात समझमें आयी। शूद्रके लिये ऐसा ही विधान हो तो रहे। मैं तो वही करूँगा जो मुझे प्रिय लगता है--ऐसा विचारकर उसने उस आश्रमसे दूर जाकर एक पर्णकुटी बना ली || १९ ||
भरतश्रेष्ठ! वहाँ यज्ञके लिये वेदी, रहनेके लिये स्थान और देवालय बनाकर मुनिकी भाँति नियमपूर्वक रहने लगा || २० ।।
वह तीनों समय नहाता, नियमोंका पालन करता, देव-स्थानोंमें पूजा चढ़ाता, अग्निमें आहुति देता और देवताकी पूजा करता था ।। २१ ।।
वह मानसिक संकल्पोंका नियन्त्रण (चित्तवृतियोंका निरोध) करते हुए फल खाकर रहता और इन्द्रियोंको काबूमें रखता था। उसके यहाँ जो अन्न और फल उपस्थित रहता, उन्हींके द्वारा प्रतिदिन आये हुए अतिथियोंका यथोचित सत्कार करता था। इस प्रकार रहते हुए उस शूद्र मुनिको बहुत समय बीत गया ।।
एक दिन एक मुनि सत्संगकी दृष्टिसे उसके आश्रमपर पधारे। उस शूद्रने विधिवत् स्वागत-सत्कार करके ऋषिका पूजन किया और उन्हें संतुष्ट कर दिया ।।
भरतभूषण नरश्रेष्ठ! तत्पश्चात् उसने अनुकूल बातें करके उनके आगमनका वृत्तान्त पूछा। तबसे कठोर व्रतका पालन करनेवाले वे परम तेजस्वी धर्मात्मा ऋषि अनेक बार उस शूद्रके आश्रमपर उससे मिलनेके लिये आये || २५-२६ ।।
भरतश्रेष्ठ! एक दिन उस शूद्रने उन तपस्वी मुनिसे कहा--'मैं पितरोंका श्राद्ध करूँगा। आप उसमें मुझपर अनुग्रह कीजिये” || २७ ।।
भरतभूषण नरेश! तब ब्राह्मणने “बहुत अच्छा” कहकर उसका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् शूद्र नहा-धोकर शुद्ध हो उन ब्रह्मर्षिके पैर धोनेके लिये जल ले आया ।। २८ ।।
भरतर्षभ! तदनन्तर वह जंगली कुशा, अन्न आदि ओषधि, पवित्र आसन और कुशकी चटाई ले आया ।।
उसने दक्षिण दिशामें ले जाकर ब्राह्मणके लिये पाश्रिमाग्र चटाई बिछा दी। यह शास्त्रके विपरीत अनुचित आचार देखकर ऋषिने शूद्रसे कहा-- || ३० ।।
“तुम इस कुशकी चटाईका अग्रभाग तो पूर्व दिशाकी ओर करो और स्वयं शुद्ध होकर उत्तराभिमुख बैठो।' ऋषिने जो-जो कहा, शूद्रने वह सब किया ।। ३१ ।।
बुद्धिमान् शूद्रने कुश, अर्घ्ध आदि तथा हव्य-कव्यकी विधि--सब कुछ उन तपस्वी मुनिके उपदेशके अनुसार ठीक-ठीक किया ।। ३२ ।।
ऋषिके द्वारा पितृकार्य विधिवत् सम्पन्न हो जानेपर वे ऋषि शूद्रसे विदा लेकर चले गये और वह शाद्र धर्ममार्गमें स्थित हो गया ।। ३३ ।।
तदनन्तर दीर्घकालतक तपस्या करके वह शूद्र तपस्वी वनमें ही मृत्युको प्राप्त हुआ और उसी पुण्यके प्रभावसे एक महान् राजवंशमें महातेजस्वी बालकके रूपमें उत्पन्न हुआ || ३४३ ||
तात! इसी प्रकार वे ऋषि भी कालधर्म-मृत्युको प्राप्त हुए। भरतश्रेष्ठ! वे ही ऋषि दूसरे जन्ममें उसी राजवंशके पुरोहितके कुलमें उत्पन्न हुए। इस प्रकार वह शूद्र और वे मुनि दोनों ही वहाँ उत्पन्न हुए, क्रमश: बढ़े और सब प्रकारकी विद्याओंमें निपुण हो गये ।।
वे ऋषि वेद और अथर्ववेदके परिनिष्छित विद्वान् हो गये। कल्पप्रयोग और ज्योतिषयमें भी पारंगत हुए। सांख्यमें भी उनका परम अनुराग बढ़ने लगा || ३८३ ।।
नरेश! पिताके परलोकवासी हो जानेपर शुद्ध होनेके पश्चात् मन्त्री और प्रजा आदिने मिलकर उस राजकुमारको राजाके पदपर अभिषिक्त कर दिया ।।
राजाने अभिषिक्त होनेके साथ ही उस ऋषिका भी पुरोहितके पदपर अभिषेक कर दिया || ४० ।।
भरतश्रेष्ठी ऋषिको पुरोहित बनाकर वह राजा सुखपूर्वक रहने और धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करते हुए राज्यका शासन करने लगा ।। ४१ ।।
जब पुरोहितजी प्रतिदिन पुण्याहवाचन करते और निरन्तर धर्मकार्यमें संलग्न रहते, उस समय राजा उन्हें देखकर कभी मुसकराते और कभी जोर-जोरसे हँसने लगते थे || ४२।।
राजन! इस प्रकार अनेक बार राजाने पुरोहितका उपहास किया। पुरोहितने जब अनेक बार और निरन्तर उस राजाको अपने प्रति हँसते और मुसकराते लक्ष्य किया, तब उनके मनमें बड़ा खेद और क्षोभ हुआ ।।
तदनन्तर एक दिन पुरोहितजी राजासे एकान्तमें मिले और मनोनुकूल कथाएँ सुनाकर राजाको प्रसन्न करने लगे || ४४ ३ ||
भरतश्रेष्ठ! फिर पुरोहित राजासे इस प्रकार बोले--“महातेजस्वी नरेश! मैं आपका दिया हुआ एक वर प्राप्त करना चाहता हूँ ।। ४५-४६ ।।
राजाने कहा--द्विजश्रेष्ठ! मैं आपको सौ वर दे सकता हूँ। एककी तो बात ही क्या। आपके प्रति मेरा जो स्नेह और विशेष आदर है, उसे देखते हुए मेरे पास आपके लिये कुछ भी अदेय नहीं है ।। ४७ ।।
पुरोहितने कहा--पृथ्वीनाथ! यदि आप प्रसन्न हों तो मैं एक ही वर चाहता हूँ। आप पहले यह प्रतिज्ञा कीजिये कि “मैं टूँगा।! इस विषयमें सत्य कहिये, झूठ न बोलिये ।। ४८
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तब राजाने उत्तर दिया--“बहुत अच्छा। यदि मैं जानता होऊँगा तो अवश्य बता दूँगा और यदि नहीं जानता होऊँगा तो नहीं बताऊँगा” ।। ४९ ||
पुरोहितजीने कहा--महाराज! प्रतिदिन पुण्याह-वाचनके समय तथा बारंबार धार्मिक कृत्य कराते समय एवं शान्तिहोमके अवसरोंपर आप मेरी ओर देखकर क्यों हँसा करते हैं? ।। ५० ।।
आपके हँसनेसे मेरा मन लज्जित-सा हो जाता है। राजन! मैं शपथ दिलाकर पूछ रहा हूँ, आप इच्छानुसार सच-सच बताइये। दूसरी बात कहकर बहलाइयेगा मत ।। ५१ ।।
आपके इस हँसनेमें स्पष्ट ही कोई विशेष कारण जान पड़ता है। आपका हँसना बिना किसी कारणके नहीं हो सकता। इसे जाननेके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है; अतः आप यथार्थ रूपसे यह सब कहिये ।। ५२ ।।
राजाने कहा--विप्रवर! आपके इस प्रकार पूछनेपर तो यदि कोई न कहने योग्य बात हो तो उसे भी अवश्य ही कह देना चाहिये। अत: आप मन लगाकर सुनिये ।। ५३ ।।
द्विजश्रेष्ठ! जब हमने पूर्वजन्ममें शरीर धारण किया था, उस समय जो घटना घटित हुई थी, उसे सुनिये। ब्रह्मन! मुझे पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण है। आप ध्यान देकर मेरी बात सुनिये || ५४ ।।
विप्रवर! पहले जन्ममें मैं शूद्र था। फिर बड़ा भारी तपस्वी हो गया। उन्हीं दिनों आप उग्र तप करनेवाले श्रेष्ठ महर्षि थे || ५५ ।।
निष्पाप ब्रह्मन! उन दिनों आप मुझसे बड़ा प्रेम रखते थे; अतः मेरे ऊपर अनुग्रह करनेके विचारसे आपने पितृकार्यमें मुझे आवश्यक विधिका उपदेश किया था ।। ५६ ।।
मुनिश्रेष्ठ! कुशके चट कैसे रखे जायँ? कुशा कैसे बिछायी जाय? हव्य और कव्य कैसे समर्पित किये जायाँ? इन्हीं सब बातोंका आपने मुझे उपदेश दिया था। इसी कर्मदोषके कारण आपको इस जन्ममें पुरोहित होना पड़ा || ५७ ।।
विप्रेन्द्र! यह कालका उलट-फेर तो देखिये कि मैं तो शूद्रसे राजा हो गया और मुझे ही उपदेश करनेके कारण आपको यह फल मिला ।। ५८ ।।
द्विजश्रेष्ठ! ब्रह्मन! इसी कारणसे मैं आपकी ओर देखकर हँसता हूँ। आपका अनादर करनेके लिये मैं आपकी हँसी नहीं उड़ाता हूँ; क्योंकि आप मेरे गुरु हैं ।।
यह जो उलट-फेर हुआ है, इससे मुझको बड़ा खेद है और इसीसे मेरा मन संतप्त रहता है। मैं अपनी और आपकी भी पूर्वजन्मकी बातोंको याद करता हूँ; इसीलिये आपकी ओर देखकर हँस देता हूँ | ६० ।।
आपकी उग्र तपस्या थी, वह मुझे उपदेश देनेके कारण नष्ट हो गयी। अतः आप पुरोहितका काम छोड़कर पुनः संसार-सागरसे पार होनेके लिये प्रयत्न कीजिये ।। ६१ ।।
ब्रह्म! साधुशिरोमणे! कहीं ऐसा न हो कि आप इसके बाद दूसरी किसी नीच योनिमें पड़ जायँ। अतः विप्रवर! जितना चाहिये धन ले लीजिये और अपने अन्त:करणको पवित्र बनानेका प्रयत्न कीजिये ।। ६२ ।।
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तदनन्तर राजासे विदा लेकर पुरोहितने बहुत-से ब्राह्मणोंको अनेक प्रकारके दान दिये। धन, भूमि और ग्राम भी वितरण किये ।। ६३ ।।
उस समय श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके बताये अनुसार उन्होंने अनेक प्रकारके कृच्छुव्रत किये और तीर्थोमें जाकर नाना प्रकारकी वस्तुएँ दान की ।। ६४ ।।
ब्राह्मणोंको गोदान करके पवित्रात्मा होकर उन मनस्वी ब्राह्मणने फिर उसी आश्रमपर जाकर बड़ी भारी तपस्या की ।। ६५ ।।
नृपश्रेष्ठ। तदनन्तर परम सिद्धिको प्राप्त होकर वे ब्राह्मण देवता उस आश्रममें रहनेवाले समस्त साधकोंके लिये सम्माननीय हो गये ।। ६६ ।।
नूपशिरोमणे! इस प्रकार वे ऋषि शूद्रको उपदेश देनेके कारण महान् कष्टमें पड़ गये; इसलिये ब्राह्मणको चाहिये कि वह नीच वर्णके मनुष्यको उपदेश न दे ।। ६७ ।।
नरेश्वर! ब्राह्मणको चाहिये कि वह कभी शूद्रको उपदेश न दे; क्योंकि उपदेश करनेवाला ब्राह्मण स्वयं ही संकटमें पड़ जाता है ।।
नृपश्रेष्ठ! ब्राह्मणणको अपनी वाणीद्वारा कभी उपदेश देनेकी इच्छा ही नहीं करनी चाहिये। यदि करे भी तो नीच वर्णके पुरुषको तो कदापि कुछ उपदेश न दे ।।
राजन! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य--ये तीन वर्ण द्विजाति कहलाते हैं। इन्हें उपदेश देनेवाला ब्राह्मण दोषका भागी नहीं होता है ।। ६८ ।।
इसलिये सत्पुरुषोंको कभी किसीके सामने कोई उपदेश नहीं देना चाहिये; क्योंकि धर्मकी गति सूक्ष्म है। जिन्होंने अपने अन्तःकरणको शुद्ध एवं वशीभूत नहीं कर लिया है, उनके लिये धर्मकी गतिको समझना बहुत ही कठिन है ।। ६९ ।।
राजन! इसीलिये ऋषि-मुनि मौनभावसे ही आदसरपूर्वक दीक्षा देते हैं। कोई अनुचित बात मुँहसे न निकल जाय, इसीके भयसे वे कोई भाषण नहीं देते हैं ।।
धार्मिक, गुणवान् तथा सत्य-सरलता आदि गुणोंसे सम्पन्न पुरुष भी शास्त्रविरुद्ध अनुचित वचन कह देनेके कारण यहाँ दुष्कर्मके भागी हो जाते हैं || ७१ ।।
ब्राह्मणको चाहिये कि वह कभी किसीको उपदेश न करे; क्योंकि उपदेश करनेसे वह शिष्यके पापको स्वयं ग्रहण करता है ।। ७२ ।।
अतः धर्मकी अभिलाषा रखनेवाले विद्वान् पुरुषको बहुत सोच-विचारकर बोलना चाहिये; क्योंकि साँच और झूठमिश्रित वाणीसे किया गया उपदेश हानिकारक होता है ।। ७३ ।।
यहाँ किसीके पूछनेपर बहुत सोच-विचारकर शास्त्रका जो सिद्धान्त हो वही बताना चाहिये तथा उपदेश वह करना चाहिये जिससे धर्मकी प्राप्ति हो || ७४ ।।
उपदेशके सम्बन्धमें मैंने ये सब बातें तुम्हें बतायी हैं। अनधिकारीको उपदेश देनेसे महान् क््लेश प्राप्त होता है। इसलिये यहाँ किसीको उपदेश न दे || ७५ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें शुद्र और मुनिका संवादविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥। १० ॥
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ७७ श्लोक हैं)
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